मंगलवार, 20 अगस्त 2013

किश्तवाड़ की आग में झुलसती संप्रभुता

किश्तवाड़ की आग में झुलसती संप्रभुता


kishtwarअरविंद जयतिलक
किश्तवाड़ हिंसा उमर अब्दुला सरकार की नाकामी का परिणाम है। र्इद के दिन भड़की हिंसा के बाद से अब तक तीन लोगों की जान जा चुकी है। सैकड़ों लोग घायल हुए हैं। निशाना बनाए गए खास समुदाय दहशत में हैं। अलगाववादी शकितयां उन्हें किश्तवाड़ छोड़ने की धमकी दे रही हैं। सच्चार्इ आमजन तक न पहुंचे इसके लिए उमर सरकार ने स्थानीय टीवी चैनलों के प्रसारण पर रोक लगा दी है। राजनेताओं को किश्तवाड़ जाने से मना कर दिया है। बता दें कि किश्तवाड़ में र्इद के दिन अलगाववादी शकितयों ने देश विरोधी नारा लगाया और आजाद कश्मीर की मांग की। नतीजतन हिंसा भड़क उठी। हिंसक भीड़ ने एक खास समुदाय के लोगों को निशाना बनाया और उनके घरों एवं दुकानों में लूटपाट की। लूट के बाद घरों में आग लगा दी। इस हिंसा के लिए जम्मू-कश्मीर के गृहराज्य मंत्री सज्जाद किचलू को दोषी बताया जा रहा है। हालांकि उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है लेकिन सवाल जस का तस बना हुआ है। मसलन जब अलगाववादी शकितयां देश विरोधी नारा लगा एक खास समुदाय को टारगेट कर रही थी उस समय जम्मू-कश्मीर की पुलिस क्या कर रही थी? क्या उसे अलगावादियों से सख्ती से नहीं निपटना चाहिए था? आखिर वह मूकदर्शक क्यों बनी रही? क्या ऐसा आदेश राज्य की ओर दिया गया था? सवाल यह भी कि राज्य की खुफिया एजेंसी अलगावादियों की घृणित इरादे को भांपने में विफल क्यों रही? र्इद जैसे महत्वपूर्ण मौके पर राज्य सरकार ने सुरक्षा का समुचित बंदोबस्त क्यों नहीं किया? कहीं इस हिंसा के पीछे गहरी साजिश तो नहीं? इन सवालों का जवाब उमर सरकार के पास नहीं है। लिहाजा विपक्ष का उमर की मंशा और नीयत पर सवाल खड़ा करना अनुचित नहीं है। विपक्ष का आरोप है कि किश्तवाड़ की हिंसा उमर सरकार की घृणित राजनीति का परिणाम है। सच जो भी लेकिन इस हिंसा ने उमर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। लेकिन विडंबना है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुला सच को स्वीकारने के बजाए उस पर परदारी कर रहे हैं। उनके इस रुख से अलगाववादी शकितयां खुश हैं। मानों उन्हें मुंहमांगी मुराद मिल गयी हो। उनका हौसला इस कदर बुलंद है कि कफ्र्यू के बाद भी हिंसा जारी रखे हुए हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि उनका मकसद जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना है। उनकी कोशिश यह भी है कि घाटी से अल्पसंख्यक समुदाय पलायित कर जाए। अपने इस मिशन में वे एक हद तक कामयाब भी हैं। विगत साढ़े तीन दशक में घाटी से दो तिहार्इ अल्पसंख्यक समुदाय पलायित हुआ है। इसके लिए जितना आतंकी संगठन जिम्मेदार है उससे कहीं ज्यादा जम्मू-कश्मीर की सरकारें जिम्मेदार रही हैं। यह तथ्य है कि जम्मू-कश्मीर की सरकारों के एजेंडा में कभी भी अल्पसंख्यक समुदाय की हिफाजत प्राथमिकता में नहीं रहा। 1986 में फारुख अब्दुला के रिश्तेदार गुलाम मुहम्मद शाह के सत्तानशीन होने के बाद जम्मू-कश्मीर में सांप्रदायिकता को बल मिला। गुलाम मुहम्मद शाह के 20 महीने का शासन बेहद खराब रहा। उनके शासन में जम्मू-कश्मीर कफ्यर्ू में घिरा रहा। जब उन्होंने जम्मू में नर्इ सीविल सेक्रेटिएट में एक हिंदू मंदिर के परिसर में शाह मस्जिद का निर्माण कराया तो उनका विरोध बढ़ गया। परेशान होकर उन्होंने 20 जनवरी 1986 को श्रीनगर भाग गए। उन्होंने वहां स्थानीय मुसलमानों को हिंदुओं के खिलाफ भड़काया। उन्होंने यहां तक अफवाह फैलायी कि जम्मू में हिंदू मसिजदों को गिरा रहे हैं और मुसलमानों का कत्ल कर रहे हैं। नतीजतन घाटी सुलग उठा। 19 जनवरी 1990 को बड़े पैमाने पर हिंदुओं का नरसंहार हुआ। उन्हें तीन विकल्प दिए गए-रालिव, गालिव या चालिव। यानी धर्मांतरण करो, मरो या चले जाओ। जम्मू-कश्मीर आज उसी दौर की ओर जा रहा है। किश्तवाड़ की हिंसा उसकी झलक भर है। क्या यह कहना गलत होगा कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुला अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री गुलाम मुहम्मद शाह की राह पर नहीं है? गौरतलब है कि गुलाम मुहम्मद शाह को ‘गुल कफ्यर्ू इसलिए कहा जाता था कि उनके शासन के अधिकांश दिनों में जम्मू-कश्मीर कफ्र्यू की गिरफ्त में रहा। क्या आज उमर अब्दुला या ‘उमर कफ्यर्ू की सरकार में जम्मू-कश्मीर कफ्यर्ू की गिरफ्त में नहीं है? किश्तवाड़ की हिंसा के बाद जम्मू, राजौरी, उधमपुर, सांबा, कठुआ, रिआसी और डोडा सभी कफ्यर्ू की गिरफ्त में आ गए हैं। जब उमर सरकार किश्तवाड़ जैसी एक घटना को नियंत्रि करने में विफल हुर्इ है तो कैसे यकीन किया जाए कि वहां रहने वाले एक खास समुदाय के लोग सुरक्षित रह पाएंगे? पिछले काफी दिनों से देखा भी जा रहा है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुला के टोन बदले हुए हैं। वे ऐसे-ऐसे सवालों को जन्म देने की कोशिश कर रहे हैं जिससे वितंडा खड़ा हो रहा है। जम्मू-कश्मीर की संप्रभुता भंग हो रही है। जिस तरह अलगाववादी शकितयां जनता की संवेदनाओं को भड़काकर अपना मतलब साधने की फिराक में रहती हैं कुछ वैसा ही उपक्रम मुख्यमंत्री उमर अब्दुला भी करते देख जा रहे हैं। अभी पिछले दिनों ही उन्होंने केंद्र सरकार को धमकाते हुए कहा कि राज्य के बुनियादी राजनीतिक मसलों को हल निकालो या घाटी में नए उपद्रवों के लिए तैयार रहो। अगर किश्तवाड़ की घटना को उसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो गलत क्या है? विडंबना है कि वे सेना के हाथों मारे जा रहे आतंकियों को कश्मीरी नौजवान बता उनका महिमामंडन कर रहे हैं। घाटी के अवाम को शाबाशी दे रहे हैं कि सेना की क्रुरता के बाद भी वे अपने आपा नहीं खो रहे हैं। लेकिन उनके मुंह से एक बार भी शहीद जवानों के प्रति संवेदना के बोल नहीं फुट रहे हैं। आखिर क्यों? क्या यह आचरण उन्हें संदेहास्पद नहीं बनाता है? वे जब तब संसद के हमलावर आतंकी अफजल की फांसी को लेकर भी सवाल दागते हैं। समझना कठिन नहीं है कि वे ऐसा क्यों करते हैं? लेकिन क्या यह देश व समाज के लिए ठीक है? पिछले दिनों उन्होंने अफस्पा को लेकर भी सवाल खड़ा किया। जम्मू-कश्मीर में सेना की संख्या कम करने की आवाज बुलंद की। लेकिन किश्तवाड़ा में जब उनकी पुलिस हिंसा को नियंत्रित नहीं कर पायी तो सेना की ही मदद लेनी पड़ी। क्या जम्मू-कश्मीर सेना के बगैर सुरक्षित रह सकता है? वितंडा खड़ा करने में माहिर उमर अब्दुला जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय पर भी बेसुरा राग अलाप चुके हैं। दरअसल उनका मकसद इन मसलों के सहारे घाटी के लोगों की भावनाओं को उभारकर राजनीतिक लाभ बटोरना है। समझना होगा कि राज्य विधानसभा का चुनाव नजदीक है और उनकी सरकार जम्मू-कश्मीर में पूरी तरह अलोकप्रिय हो चुकी है। उन्होंने सत्ता संभालने के बाद वादा किया था कि जम्मू-कश्मीर विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़ेगा और बेरोजगारों को रोजगार से लैस किया जाएगा। दिल्ली में खानाबदोषों की जिंदगी गुजार रहे कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की भी बात कही थी। लेकिन वे इसमें पूरी तरह असुल रहे। ठीक है कि उनके शासन में अभी तक राज्य में कोर्इ भीषण आतंकी घटना नहीं हुर्इ लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि राज्य में शांति वापस लौट आयी है और आतंकी हाशिए पर चले गए हैं। अगर सचमुच राज्य के हालात बेहतरीन होते तो बड़े पैमाने पर विदेशी पर्यटकों का आना-जाना शुरु हो गया होता। पर्यटन विकास को बढ़ावा मिलता। लोगों को रोजी-रोजगार मिलता। डल झील में चहल-पहल बढ़ जाती। अपनी धरती से विस्थापित कश्मीरी पंडित घाटी की ओर रुख करते। लेकिन ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है। उल्टे अल्पसंख्यक समुदाय पर अत्याचार बढ़ा है। प्रशासन की नाकामी की वजह से ही पिछले वर्ष आतंकियों के डर से कर्इ दर्जन पंचायत प्रतिनिधियों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा न देने वाले सरपंचों का आतंकियों ने सिर कलम कर दिया। फिर उमर सरकार कैसे कह सकती है उसने राज्य को सुरक्षा दी है? लेकिन देखा जाए तो जम्मू-कश्मीर के बिगड़ते हालात के लिए सिर्फ उमर सरकार ही जिम्मेदार नहीं है। केंद्र की यूपीए सरकार भी बराबर की जिम्मेदार है। वह घाटी की वास्तविक स्थिति से अवगत होने के बाद भी अपने उत्तरदायित्वों का समुचित निर्वहन नहीं कर रही है। अगर सरकार में संवेदना होती तो गृहमंत्री पी चिदंबरम राज्यसभा में यह कहते नहीं सुने जाते कि किश्तवाड़ की हिंसा जम्मू-कश्मीर के लिए कोर्इ नयी बात नहीं है। इस तरह की गैर-जिम्मेदराना बयानबाजी से ही आतंकियों और अलगाववादियों का हौसला बुलंद है और जम्मू-कश्मीर सुलग रहा है।

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