गुरुवार, 1 अगस्त 2013

सियासत से खंडित होता देश

सियासत से खंडित होता देश


india-lections-parties सिद्धार्थ शंकर गौतम 
स्कूल में रोज सुबह होने वाली प्रार्थना में हम सभी भारत की संप्रभुता और अखंडता को प्रणाम करते हुए इसकी सलामती की दुआ मांगा करते थे, पर शायद हमारे ही देश के नेताओं को इसकी अखंडता और संप्रभुता रास नहीं आ रही। तभी चंद स्वार्थी तत्वों ने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए छोटे-छोटे राज्यों के गठन को मुद्दा बना लिया है। लिहाजा, तेलंगाना अब फिर जल उठा है। तेलंगाना क्षेत्र में आंध्रप्रदेश के २३ जिलों में १० जिले आते हैं। पूर्व में यह क्षेत्र मूल रूप से निजाम हैदराबाद का हिस्सा था। तेलंगाना की सीमा उत्तर और उत्तर-पश्चिम में महाराष्ट्र से और पश्चिम में कर्नाटक से लगती है। २०११ की जनगणना के अनुसार यहां की आबादी तीन करोड ५२ लाख 86 हजार ७५७ है। क्षेत्रफल है, एक लाख १४ हजार ८४० वर्ग किलोमीटर। तेलंगाना में आंध्रप्रदेश की २९४ में से ११९ विधानसभा सीटें आती हैं, जिनमें से कांग्रेस के ५० व तेलुगूदेशम के ३६ सदस्य हैं। पृथक तेलंगाना राज्य की मांग जब भी उठी, कांग्रेस ने अपने स्वार्थ के लिए उसे समझा-बुझाकर शांत कर दिया। चूंकि तेलंगाना क्षेत्र में कांग्रेस का अच्छा-खासा जनाधार है, जिसे वह खोना नहीं चाहती और फिर क्षेत्र के विधायकों और सांसदों ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी थी, तो पार्टी का मंतव्य भी आसानी से पूरा हो रहा था, मगर अब कांग्रेस ने सियासी दांव के चलते पृथक तेलंगाना की मांग को मानकर देश के २९वे राज्य की नींव पुख्ता कर दी है। देखा जाए तो छोटे राज्यों की मांग नई नहीं है। भारत में भाषाई आधार पर कई छोटे तथा पृथक राज्यों का गठन हुआ है, पर वे वक्त तथा परिस्थिति के लिहाज से उचित थे। भाषा के आधार पर गठित होने वाला पहला राज्य आंध्रप्रदेश ही था। १९५५ में राज्यों के पुनर्गठन के दौरान स्टेट रीऑर्गेनाइजेशन कमीशन के प्रमुख फजल अली ने तेलंगाना को आंध्र का हिस्सा बनाए जाने का विरोध किया था। दरअसल, १९४८ में भारत ने निजाम की रियासत का अंत करके हैदराबाद राज्य का गठन किया था। १९५६ में हैदराबाद का हिस्सा रहे तेलंगाना को भारी विरोध के बावजूद नवगठित आंध्रप्रदेश राज्य में मिला दिया गया था। वैसे तो पृथक तेलंगाना आंदोलन १९४० के दशक से ही शुरू हो गया था, पर १९६९ के बाद से इसने हिंसक रूप लेना शुरू कर दिया। छात्रों तथा स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी ने इसे ऐतिहासिक आंदोलन बना दिया। एम. चेन्ना रेड्डी ने जय तेलंगाना का नारा उछाला था, पर अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर उन्होंने इस आंदोलन को खत्म कर दिया। उन्हें इसका पुरस्कार भी मिला। इंदिरा गांधी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से नवाजा। १९७१ में नरसिंहराव भी तेलंगाना क्षेत्र से होने के कारण मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे थे। १९९० के आसपास के. चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना मुद्दे को लपक लिया और पृथक तेलंगाना को लेकर तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन किया। तब से अब तक राव पृथक तेलंगाना के लिए आंदोलन करते आ रहे थे। पृथक तेलंगाना राज्य की मांग के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि तेलंगाना और आंध्र के इलाकों में भारी अंतर है, चाहे वह शिक्षा का स्तर हो या रहन-सहन का। फिर यह बात तो माननी ही पडेगी कि तेलंगाना आंध्र के मुकाबले अपेक्षाकृत कम विकसित क्षेत्र है, पर इसका यह मतलब कतई नहीं है कि अलग राज्य बना देने भर से इसका विकास हो जाएगा। हां, आंदोलन से जुडे नेताओं का कद जरूर बढ जाएगा और उनकी राजनीति मजबूत होकर वंशानुगत भी हो सकती है।
वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें, तो छोटे व क्षेत्रीय दल हमेशा ही छोटे राज्यों के पक्षधर रहे हैं। २००१ में उत्तराखंड (उत्तरप्रदेश से) झारखंड (बिहार से) और छत्तीसगढ (मध्यप्रदेश से) तोडकर अलग राज्य बना दिए गए थे। इनका गठन विकास के लिए अवश्यंभावी बताया गया था। अब तीनों राज्यों में कितना विकास हुआ है, यह तो राष्ट्रीय बहस का मुद्दा हो सकता है, पर केवल विकास के नाम पर छोटे राज्यों का गठन समझ में नहीं आता। हां, जो शिबू सोरेन कभी बिहार में हाशिए पर रहते थे, वे झारखंड में किंग-मेकर बनकर उभरे। यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। पृथक तेलंगाना की मांग ने रायलसीमा (आंध्रप्रदेश) बुंदेलखंड, हरितप्रदेश, रूहेलखंड, अवध (उत्तरप्रदेश) पूर्वांचल (उत्तरप्रदेश व बिहार) कलिंग और उत्कल (ओडिशा) बोडोलैंड (असम) गोरखालैंड (पश्चिम बंगाल) मालवा (मध्यप्रदेश) सौराष्ट्र (गुजरात) विदर्भ, मराठवाडा व कोंकण (महाराष्ट्र) कूर्ग (कर्नाटक) जैसे छोटे प्रदेशों की मांग को पुनः जीवित कर दिया है। वैसे नए राज्य के गठन की प्रक्रिया इतनी आसान भी नहीं होती। इसके लिए सबसे पहले राज्य विधानसभा राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव पारित करती है, फिर राज्य के बंटवारे का एक विधेयक तैयार होता है और संसद के दोनों सदनों द्वारा इसे पारित किया जाता है। इसके बाद विधेयक राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए जाता है। उनकी मंजूरी के बाद राज्य के संसाधनों के बंटवारे की जटिल प्रक्रिया शुरू होती है, फिर देश के पैसे का अपव्यय तो होता ही है। जो नेता छोटे राज्यों के लिए अनशन इत्यादि करते हैं, उनकी निगाह सत्ता पर होती है, विकास पर नहीं। ये भोली-भाली जनता को बरगलाकर राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान कराते हैं और देश का अमन-चैन छीनने की कोशिश करते हैं। ऐसे स्वार्थी तत्वों को तो राष्ट्रद्रोह के आरोप में सजा मिलनी चाहिए। देश के असंख्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की कुर्बानी को ये स्वार्थी नेता पलभर में भुला देते हैं। यदि छोटे राज्यों में विकास ज्यादा हुआ होता, तो इनकी मंशा पर शक नहीं होता, पर इतिहास गवाह है कि विकास छोटे राज्यों से नहीं, मजबूत इच्छाशक्ति से होता है। अतः ऐसे विघटनकारी तत्वों को अनावश्यक बढावा न देते हुए राज्य के विकास पर ध्यान लगाया जाए और जनता के बीच जाकर इस मुद्दे पर उसकी राय जानी जाए, तो ही असल तस्वीर सामने आएगी। वरना तो देश में इतने राज्य बन जाएंगे कि उनकी गिनती करने में मुश्किल होगी। फिलहाल मात्र सियासी हितों की पूर्ती हेतु तेलंगाना का गठन कर कांग्रेस ने बर्र के छत्ते में हाथ दाल दिया है जो देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा है।

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