भोले के नाम का ‘नशा’
मंगलवार, 6 अगस्त, 2013 को 13:36 IST तक के समाचार
दृश्य एक..दोपहर एक बजे
हरिद्वार से दिल्ली राष्ट्रीय राज मार्ग संख्या-
58 की चार लेनों में से दो लेन सिर्फ़ काँवड़ियों के लिए सुरक्षित हैं. आम
वाहनों को इसमें जाने की अनुमति नहीं है.दृश्य दो.. शाम पाँच बजे
मोटर साइकिल पर चल रहे काँवड़िए सीटी बजाते हुए हर किसी को पीछे छोड़ते हुए बेहद तेज़ रफ्तार से आगे निकल रहे हैं.
दिल्ली की ओर से आ रही एक कार भारी-भरकम डीजे से लदी भड़कीली धुन बजाती डाक काँवड़ियों की कार से हल्का सा छू जाती है. काँवड़िए भड़क जाते हैं. वो नीचे उतरते हैं, गरमा-गरम बहस होती है. कुछ लोग बीच बचाव करते हैं और बात सामान्य हो जाती है.
डाक काँवड़ पर तेज़ संगीत के साथ गाना बज रहा है..
एक, दो, तीन, चार.
सारे काँवडियां हैं तैयार
सड़क के किनारे काँवड़ियों का जत्था चिलम तैयार कर रहा है. उसकी नशीली गंध से आस-पास के काँवड़िए भी झूम रहे हैं.
दृश्य चार.. रात नौ बजे
रास्ते में पड़ने वाले शिविरों में भारी तादाद में काँवड़ियों को खाना खिलाया जा रहा है. कुछ काँवड़िए ट्रक में रखे ड्रमों से पानी निकाल पर सिर पर डाल रहे हैं.
एक कार पर सवार काँवड़िए कार के भीतर पैग बना रहे हैं.
पास से गुज़रने पर थोड़ा झेंपते हैं, लेकिन फिर बम बोल कर काम जारी रखते हैं
ये काँवड़ यात्रा के कुछ दृश्य हैं
रात होते ही माहौल बदला
दरअसल काँवड़ कई तरह की होती है. अधिकाँश लोग पैदल कंधे पर काँवड़ रख कर सफ़र तय करते हैं.
कुछ लोग मोटर साइकिल पर काँवड़ लाते हैं, लंबी दूरी तय करने वाले बड़े-बड़े ट्रकों पर सवार होते हैं. डीजे के साथ चलते हैं. इन्हें डाक काँवड़ कहा जाता है.
कुछ रिले रेस की तरह दौड़ लगाते है और गंगा जल को अपने दूसरे सहयोगी को सौंपते हैं. इन काँवड़ियों में महिला, पुरुष और यहाँ तक कि बच्चे भी शामिल होते हैं.
न सिर्फ़ नौकरी पेशा बल्कि व्यापारी, छात्र, बेरोज़गार भी काँवड़ उठा कर चल देते हैं.
नशे के अलावा चारा नहीं
पर सवाल ये है कि क्या ये सब भक्ति भावना के तहत ही है या फिर कुछ और.इस सवाल के जवाब में अधिकतर लोग कहते हैं कि उनका मकसद कुछ भी नहीं हैं, बस वो तो सिर्फ़ ये चाहते हैं कि उनके परिवार में सुख शांति बनी रहे.
पर इस काँवड़ यात्रा के दौरान ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो हमेशा नशे में रहते हैं.
एमबीए प्रथम वर्ष के छात्र नितिन कहते हैं कि काँवड़ उठा कर लंबी दूरी तय करने के बाद काँवड़िए इतने थक चुके होते हैं कि उनके पास नशा करने के अलावा कोई चारा नहीं होता.
झड़पें क्यों?
और जिन जिन इलाकों से ये गुज़रते हैं वहाँ के लोग भी इनसे दूर ही रहते हैं ऐसा क्यों.
इस सवाल के जवाब में एक काँवड़िए का कहना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि आजकल इस यात्रा में नशाखोर लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है, जो नशे की हालत में सभी काँवड़ियों के पवित्र मकसद को बदनाम करते हैं.
वो आगे कहते हैं कि ये ही वो समाज के अवांछित तत्व हैं जो गुंडा गर्दी करते हैं और बदनाम सारे काँवड़िए होते हैं.
मुरादनगर में एक कारोबारी पीयुष कुमार गर्ग पिछले दस सालों से काँवड़ियों के भोजन पानी से लेकर उनके सोने तक का इंतज़ाम कर रहे हैं.
पीयुष कहते हैं कि 'भोले बाबा पर अगाध श्रृद्धा है और उनकी बड़ी कृपा है'. इस बार ही करीब 80 हज़ार से एक लाख लोग उनके यहाँ भोजन कर चुके हैं, पर इसके बदले में वो कुछ नहीं चाहते.
तो काँवड़ यात्रा के रंग अजब, अलग और अनूठे हैं.
इसमें एक तरह का जूनून है, नशा है.
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