लखीमपुर: महिला तस्करी की नई राजधानी-
रह्मपुत्र और सुबनसिरी जैसी विशाल नदियों के बीच बसा असम का लखीमपुर जिला
पहली नजर में खुशहाल इलाका दिखता है. ढलानों पर पसरे चाय-बागान, दूर तक
फैले धान के खेत और पानी से लबालब सैकड़ों तालाब. लेकिन सतह को थोड़ा ही
कुरेदने पर इस खुशनुमा तस्वीर के पीछे की भयावह सच्चाई दिखती है. पता चलता
है कि बागानों में चाय की पत्तियां तोड़ते मजदूरों और पानी में डूबे खेतों
में धान रोपते किसानों की मौजूदगी के बीच ही यहां स्थानीय लड़कियों की
तस्करी का कारोबार फल-फूल रहा है. नई दिल्ली से 2,100 किलोमीटर दूर, भारत
की उत्तर-पूर्वी सीमा पर बसे असम के इस जिले से हर महीने लगभग 40 लड़कियां
गायब हो रही हैं. पिछले आठ साल से लखीमपुर के ही निवासी दिल्ली-मुंबई जैसे
महानगरों में मौजूद प्लेसमेंट एजेंसियों के दलाल बनकर यहां की मासूम
लड़कियों को अपराध और शोषण के दलदल में धकेल रहे हैं.
अपनी पड़ताल में तहलका ने पाया कि पांच से दस हजार रुपये के कमीशन के लिए
ये दलाल उन्हें रोजगार, पैसे, प्रेमविवाह, शहरी जीवन के साथ-साथ 'दिल्ली
घुमाने' का लालच देकर शोषण के दुश्चक्र में धकेलते हैं. महत्वपूर्ण यह भी
है कि अपने ही लोगों द्वारा ठगे जाने वालों में सैकड़ों नाबालिग लड़कियों
के साथ-साथ कुछ नाबालिग लड़के भी शामिल हैं. लगभग दस लाख की आबादी वाले
लखीमपुर जिले में बीते आठ साल से लगातार बढ़ रहा महिला तस्करों का यह
नेटवर्क कानून और व्यवस्था का मखौल तो उड़ाता ही है, राज्य सरकार की लोगों
के प्रति घोर उदासीनता और उपेक्षा भी दिखाता है.
तहलका ने लखीमपुर के नौ स्थानीय तस्करों से बातचीत की. इन दलालों ने 2005 से अब तक कुल 187 लड़कियों की तस्करी की बात मानी. इनमें से कई लड़कियां दिल्ली, चंडीगढ़, सूरत, हैदराबाद और मुंबई जैसे शहरों में बिना पैसे के घरेलू नौकरानी का काम करती रहीं. कुछ वेश्यावृत्ति में धकेल दी गईं तो कुछ के साथ उनकी प्लेसमेंट एजेंसियों के मालिकों या कोठी मालिकों ने बलात्कार किया, ऐसे भी उदाहरण हैं जहां लड़कियां खुद पर हुई शारीरिक और मानसिक हिंसा को सहन नहीं कर पाईं और उन्होंने दम तोड़ दिया. उधर, कुछ लड़कियां ऐसी भी हैं जो अपने घर कभी लौट कर नहीं आईं. लखीमपुर मानव तस्करी के नए केंद्र के रूप में उभर रहा है. तहलका जिले के 10 गांवों में गया. इस दौरान हमने बलात्कार की शिकार, और सालों तक शहरों की बड़ी-बड़ी कोठियों में मजदूरी करने के बाद खाली हाथ गांव वापस लौटी लड़कियों से बात की. हमने उन लड़कियों के परिवारों से भी बात की जो अब तक अपने घर नहीं लौटी हैं और उनके परिजनों से भी जो अपनी जान गंवा बैठीं. इसके अलावा 30 से ज्यादा परिवारों ने तहलका से बातचीत की. आगे के पन्नों पर दर्ज पड़ताल में इन पीड़ित लड़कियों और कई सालों से अपने बच्चों की वापसी की राह देख रहे परिवारों की व्यथा तो है ही, इन परिवारों को हिंसा और अनवरत इंतजार के दुश्चक्र में धकेलने वाले नौ स्थानीय तस्करों के बयान भी दर्ज हैं. तहकीकात के अंतिम हिस्से में राजधानी दिल्ली से असम के गांवों तक दलालों का जाल बिछाने वाली प्लेसमेंट एजेंसियों के मालिकों के बयान भी दर्ज हैं. यह सब लखीमपुर को भारत में मानव तस्करी की उभरती राजधानी के तौर पर स्थापित करता है. यह पड़ताल मानव तस्करी की इन घटनाओं को लगातार सिरे से नकार रहे प्रशासन की चिरनिद्रा सामने लाती है तो दूसरी तरफ महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर लगातार नई योजनाओं की बात करते फूले न समाने वाली केंद्र और राज्य सरकारों की जमीनी अक्षमता की पोल भी खोलती है. 45 साल की सेरोफेना बारला लखीमपुर जिले के दुलहत बागान गांव में रहती हैं. लालुक पुलिस थाने के तहत पड़ने वाले इस गांव में आने वाले हर बाहरी आदमी को दिल्ली से आया हुआ समझकर वे उससे अपनी बेटी का पता पूछने लगती हैं. मार्च, 2008 को सेरोफेना की 15 वर्षीया बेटी सोनाली बारला एक स्थानीय एजेंट सैमुएल टिर्की के साथ दिल्ली गई थी. तब से वह घर नहीं लौटी. हमें गांव में देखते ही अपनी झोपड़ी के सामने खामोश बैठी सेरोफेना बारला हमसे भी अपनी बेटी का पता पूछने लगती हैं. गांववाले बताते हैं कि बेटी के जाने के बाद सेरोफेना के पति की भी मौत हो गई. वक्त बीतने के साथ-साथ पति की मृत्यु और बेटी को खो देने का सदमा गहरा होता गया और अब हालत यह है कि वे हर किसी से अपनी बेटी का पता पूछती रहती हैं. बातचीत के बाद थोड़ी सामान्य होने पर सेरोफेना अपनी बेटी के गुमशुदा होने की कहानी बताती हैं. वे कहती हैं, 'चाय बागान के बंद होने के बाद से हमारी हालत बहुत खराब हो गई थी. तब गांव से कई आदमी लड़की लोग को बाहर काम के लिए ले जा रहा था. तभी सैमुएल भी आया यहां से सोनाली को ले जाने. वह यहीं हमारे गांव का ही रहने वाला था और दूसरी भी कई लड़की ले जा रहा था. उसने सोनाली को ले जाने के लिए कहा और बताया कि लड़की एक साल में काम करके वापस आ जाएगी और पैसा भी मिलेगा. हमने मना किया. लेकिन वह बहला-फुसला कर 'दिल्ली घुमा के लाऊंगा' ऐसा बोल कर ले गया मेरी बेटी को. तब से पांच साल हो गए. शुरू-शुरू में दो बार उससे मोबाइल पर बात हुई थी. लेकिन पिछले चार सालों से तो उसका कोई अता-पता नहीं. सैमुएल से पूछो तो कहता है कि अब उसे भी पता नहीं कि लड़की कहां है.' सोनाली के पिता चाय बागान में काम करते थे. अपनी बेटी की एक आखिरी तस्वीर दिखाते हुए सेरोफेना कहती हैं, 'अब तो घर में कोई कमाने वाला भी नहीं रहा. हमें तो ये भी नहीं मालूम कि हमारी बेटी कहां है इतने सालों से. कहां काम कर रही है. जब उससे आखिरी बार बात हुई थी तब तक उसे एक भी पैसा नहीं मिला था. पता नहीं कहां बंधुआ बनवाकर काम करवा रहे हैं मेरी लड़की से. या कहीं मर तो नहीं गई. डरी हुई रहती हूं कि कहीं उसके साथ कुछ गलत तो नहीं हो गया!' तहलका ने स्थानीय तस्करों और दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में फैली प्लेसमेंट एजेंसियों से जुड़े कई उलझे बिंदुओं को जोड़ने की कोशिश की. इससे आठ साल से लखीमपुर से लड़कियों को दिल्ली लाकर गैरकानूनी ढंग से चल रही प्लेसमेंट एजेंसियों के हवाले कर रहे तस्करों के एक बहुपरतीय नेटवर्क की तस्वीर साफ हुई. दरअसल दिल्ली जाकर कभी न लौटने वाली लड़कियों की कहानियां लखीमपुर के लगभग हर गांव में बिखरी हुई हैं. दुलहत बगान से कुछ ही दूरी पर दोलपा-पथार गांव में सफीरा खातून रहती हैं. उनकी बेटी शानू बेगम पिछले तीन साल से गुमशुदा है. अपनी बेटी को ढ़ूढ़ने की नाकाम कोशिशों के बारे में वे कहती हैं, '2010 की बात है. शानू तब सिर्फ 16 साल की थी. यहीं दुलहत गांव की 20 नंबर लाइन में एक हसीना बेगम रहती थी. उसने मुझसे कहा कि मैं शानू को उसके साथ दिल्ली भेज दूं . उसने कहा कि वह शानू को अपने साथ रखेगी, अपने साथ काम पर ले जाएगी, उसे साथ ही खिलाएगी और उसके काम का पूरा पैसा घर भी भेज देगी. लेकिन हमारे यहां की ऐसी बहुत लड़कियां थीं जो दिल्ली गई थीं और फिर वापस नहीं आई थीं. इसलिए मैंने हसीना को सख्ती से मना कर दिया. लेकिन फिर उसने मेरी बेटी को फंसाया और उसे ले गई. हसीना की बहन शानू की सहेली थी. उसकी बहन ने मुझसे कहा कि वह शानू को अपने घर ऐसे ही घुमाने ले जा रही है और शाम तक वापस आ जाएगी. उनका घर पास में ही था, इसलिए मैंने जाने दिया. लेकिन उसके घर पहुंचते ही हसीना उसे वहां से दिल्ली ले गई. तब से आज तक उसका कुछ पता नहीं है.' शानू के गुमशुदा होने के बाद सफीरा ने हसीना बेगम के घर जाकर अपनी बेटी का पता पूछने की बहुत कोशिश की. लेकिन उसके परिवारवालों ने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया. अपनी बेटी की तलाश में पिछले तीन साल से उम्मीद का हर दरवाजा खटखटा रही सफीरा कहती हैं, 'मैंने पुलिस में शिकायत करने की कोशिश भी की, लेकिन किसी ने मेरी शिकायत दर्ज नहीं की. मैंने कितनी बार हसीना के परिवार से कहा मुझे मेरी बेटी लौटा दो. लेकिन जब भी मैं हसीना के घर जाकर चिल्लाती, उसकी मां मुझे मारने दौड़ती. हसीना भी तब से दिल्ली से वापस नहीं आई है. मेरी बच्ची लौटा दो कहीं से. 'शानू की एक आखिरी बची हुई तस्वीर दिखाते हुए सफीरा फूट-फूट कर रोने लगती हैं. नाबालिग लड़कियों की तस्करी की ये त्रासद कहानियां सेरोफेना और सफीरा जैसी मांओं के कभी न खत्म होने वाले इंतजार पर ही नहीं रुकतीं. इलाके में दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, चंडीगढ़ और सूरत जैसे शहरों में बंधुआ मजदूर की तरह रही और फिर बलात्कार या शारीरिक शोषण का शिकार होने के बाद खाली हाथ वापस लौटी लड़कियां बड़ी तादाद में मौजूद हैं. सिंघरा पोस्ट में बसे लुकुमपुर गांव में रहने वाली राबिया खातून अपने साथ हुई वीभत्स हिंसा के बावजूद पांच साल बाद किसी तरह दिल्ली से अपने घर तो वापस पहुंच गई लेकिन आज भी वह सामाजिक बहिष्कार से जूझते हुए एक नई जिंदगी शुरू करने की जद्दोजहद से गुजर रही है. 2009 में अनीता बैग नाम की एक स्थानीय एजेंट ने राबिया की मां जाहिदा खातून से राबिया को रोजगार के लिए दिल्ली भेजने का सुझाव दिया था. जाहिदा बताती हैं, 'मेरे मना करने के बाद भी मेरे पीछे मेरी लड़की को दिल्ली ले गई. तब राबिया 15 खत्म करके 16 में लगी ही थी. बाद में पता चला कि अनीता चार और लड़कियों को भी दिल्ली ले गई है.' दिल्ली पहुंचने के बाद राबिया शारीरिक हिंसा और आर्थिक व मानसिक शोषण के एक ऐसे दुश्चक्र में फंसी जहां से निकलने में उसे पांच साल लग गए. पीली सलवार-कमीज में अपनी झोपड़ी के एक कोने में बैठी राबिया शुरुआत में खामोश रहती है और बार-बार बातचीत से इनकार करती है. लेकिन कुछ देर की कोशिशों के बाद वह इस संवाददाता से अकेले में बात करने को राजी हो जाती है. अब तक राबिया के घर में गांव के लोगों की भीड़ जमा हो चुकी है. राबिया हमें झोपड़ी के सबसे अंदर वाले कमरे में लाकर सभी दरवाजे बंद करती है. कुछ देर की खामोशी के बाद अपने गले की भर्राहट पर काबू करने की कोशिश करते हुए वह बताती है, 'शुरू में आपको देखकर मैं बहुत डर गई थी. मुझे लगा कि या तो वे गुंडे वापस आ गए हैं या शायद कोई पुलिसवाला है. मां ने तब पहले ही मना किया था जाने के लिए. लेकिन जब वह घर पर नहीं थी तो अनीता आकर मुझे ले गई. तब मैं बहुत छोटी थी. उसने कहा कि वह हमें दिल्ली घुमाकर वापस ले आएगी. उसके साथ और लड़कियां भी जा रही थीं और सबने कहा कि वहां थोड़ा-सा काम करने के भी बहुत सारे पैसे मिलते हैं. मैंने दिल्ली के बारे में बहुत सुना था, इसलिए सोचा कि घूम के वापस आ जाऊंगी.' राबिया आगे बताती है, 'दिल्ली पहुंचते ही वह हमें सुकूरपुर बस्ती ले गई. वहां हमें एक ऑफिस पर ले जाया गया जो महेश गुप्ता नाम के किसी आदमी का था. फिर मुझे पंजाबी बाग की एक कोठी में काम पर लगवा दिया गया. खाना-पीना बनाना, झाडू-पोछा, बर्तन सब कुछ करती थी मैं वहां. मैंने कई बार घर वापस जाने की जिद की तो मुझे कहा गया कि मैं एक साल से पहले कहीं नहीं जा सकती. एक साल बाद मुझे फिर से महेश गुप्ता के ऑफिस भेजा गया. इस बार उसने मुझे अहमदाबाद की एक कोठी में भेज दिया. मुझे पिछले साल के काम का कोई पैसा नहीं दिया गया था. लेकिन मेरा वहां काम करने का बिल्कुल मन नहीं करता था. मैंने अपने मालिक से कई बार घर जाने की जिद की और उन्हें यह भी बताया कि गुप्ता मुझे बिल्कुल पैसे नहीं देता है. उन्होंने मुझे 11 हजार रुपये देकर वापस महेश गुप्ता के ऑफिस भेज दिया. लेकिन दिल्ली आते ही महेश गुप्ता ने मुझसे वो पैसे ले लिए और सिर्फ 2000 रुपए देकर मुझे गुवाहाटी भेज दिया.' 2011 के अंत में राबिया आखिरकार वापस अपने घर तो पहुंची लेकिन कुछ ही दिनों में स्थानीय तस्करों ने उसे झांसा देकर दुबारा अपने शिकंजे में फंसा लिया. स्थानीय दलाल वालसन गोडरा ने उसे फुसलाया कि महेश गुप्ता से उसकी पहचान है और वह दिल्ली से राबिया के काम के पूरे पैसे दिलवा सकता है. अब राबिया दूसरी बार तस्करी का शिकार हो चुकी थी. वह कहती है, 'मैं मना करती रही लेकिन वालसन पीछे ही पड़ गया कि एक दिन की बात है, दिल्ली से सिर्फ पैसे लेकर वापस आ जाएंगे. और भी बहुत सारी बातें बोलता रहा. फिर दिल्ली आते ही वह मुझे एक एजेंसी पर ले गया और मुझे वहां छोड़ कर भाग गया. यह एजेंसी इमरान और मिथुन नाम के दो लोगों की थी. मुझे ऑफिस में ही रखा गया. मैंने वहीं से वालसन को फोन करवाया तो कहने लगा कि वह आसाम आ गया है और कुछ ही दिन में वापस आकर मुझे ले जाएगा. लेकिन अगले ही दिन वे मुझे काम पर भेजने लगे. मैंने मना किया तब इमरान ने मुझे बताया कि वालसन मुझे 10,000 रुपयों में बेच आया है और अब मुझे काम करना ही होगा. फिर मुझे रोहिणी की एक कोठी पर लगा दिया. मैं एक ही महीने में वहां से भाग आई और वापस ऑफिस वालों से मुझे घर भेजने के लिए कहने लगी. लेकिन मेरे आते ही इमरान मुझे गालियां देने लगा. वह बोला कि कोठी वालों से पच्चीस हजार रुपये लिए थे. अब वह कौन लौटाएगा? मुझे अच्छे से याद है कि यह बोलते हुए उसने मिथुन और तीन और लोगों को बुलाया और उनसे बोला कि इसे ले जाओ और इसके साथ जो भी करना है वह करो.' कहते-कहते राबिया अचानक खामोश हो जाती है. मालूम पड़ता है कि उसके परिवार की एक महिला कमरे की पिछली खिड़की से टिक कर राबिया का बयान सुन रही है. वह रोते हुए हाथ जोड़कर महिला से चले जाने को कहती है. कुछ देर की खामोशी के बाद थोड़ा ढ़ाढ़स बंधाने पर वह फिर आगे जोड़ते हुए कहती है, 'सब प्रेत की तरह मुझसे चिपक गए हैं यहां....वह चारों मुझे पकड़ कर मिथुन की एजेंसी ले गए. वहां मिथुन मुझसे बोला कि चुपचाप काम कर ले वर्ना अलग जगह काम पर बैठा दूंगा तुझे. उस रात मुझे बहुत बुखार था और मैं बहुत डरी हुई थी. फिर मिथुन मुझे डाक्टर के यहां ले जाने के नाम पर बाहर लाया. मुझे अंदर से पता था कि ये लोग मुझे डाक्टर के यहां नहीं ले जा रहे हैं. हुआ भी वही. वे लोग मुझे एक अजीब-सी जगह ले आए. थोड़ी ही देर में मुझे पता चल गया कि ये कोठे जैसा कुछ है. मैं रो-गिड़गिड़ाकर किसी तरह भाग कर वापस आई. इसके बाद वे लोग मुझे एक और जगह ले गए और बंधक बनाकर मुझसे एक हफ्ते तक गलत काम करते रहे. इसके बाद उन्होंने मुझे पुराने दिल्ली रेलवे स्टेशन छोड़ दिया.‘ एक ऑटो चालक ने उसे एक आश्रम पहुंचने में मदद की और आश्रम ने वापस असम आने में. निकलने से पहले टूटती आवाज में राबिया बस इतना कहती है, 'अब यहां सबको पता चल गया है. मेरी मां को यहां गांव में मेरी वजह से बहुत जिल्लत सहनी पड़ती है. मेरी शादी भी नहीं होगी शायद. मेरी तबीयत अभी तक ठीक नहीं हुई है. पेट में हमेशा दर्द रहता है. मुझे हमेशा बहुत डर लगता है. मेरे साथ जो हुआ, उसके बाद अब मैं कभी ठीक नहीं हो पाऊंगी.' मार्च, 2013 में पहली बार भारतीय अपराध कानून के ‘आपराधिक कानून-संशोधन एक्ट-2013' में मानव तस्करी को परिभाषित किया गया है. हालांकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 23 इंसानों की तस्करी और बंधुआ मजदूरी को प्रतिबंधित करता है और ‘अनैतिक देहव्यापार निवारण अधिनियम-1986' में भी तस्करी के खिलाफ सख्त प्रावधान मौजूद हैं, लेकिन इनमें से किसी भी कानून ने ‘मानव तस्करी' को सीधे-सीधे परिभाषित नहीं किया है. दिल्ली गैंग रेप के बाद कानूनों में जरूरी फेरबदल के लिए बनाई गई जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में पूरा एक अध्याय मानव तस्करी को समर्पित करते हुए साफ कहा है कि गुमशुदा लड़कियां या काम के लालच में ग्रामीण इलाकों से शहरों में तस्करी करके लाई जाने वाली ज्यादातर लड़कियां शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण का शिकार होती हैं. जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 370 को संशोधित करके इसमें 370-ए को जोड़ा गया. धारा 370 में तस्करी को परिभाषित करते हुए कानून कहता है कि अगर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के शोषण की दृष्टि से उसकी नियुक्ति करता है, उसे स्थानांतरित करता है, शरण देता है या प्राप्त करता है और इसके लिए धमकियों, ताकत, अपहरण, धोखाधड़ी, जालसाजी, शक्ति के दुरुपयोग या सहमति और नियंत्रण प्राप्त करने के लिए पैसों का लालच दिखता है तो वह मानव तस्करी का अपराध कर रहा है. कानून यह भी स्पष्ट करता है कि शोषण के अंतर्गत किसी भी तरह का शारीरिक शोषण, बंधुआ मजदूरी, दासता या दासता जैसी परिस्थितियों में रखा जाना, जबरदस्ती काम करवाना या शरीर के अंग निकालना शामिल है. मानव तस्करी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है और भारत विश्व में मानव तस्करी का तीसरा सबसे बड़ा केंद्र. लेकिन देश में हर साल हजारों बच्चों का जीवन बर्बाद कर रहे इस अपराध के खिलाफ यह क्रांतिकारी कानून बनाने और मानव तस्करी को परिभाषित करने में 65 साल लग गए. लेकिन कानून बनने के बाद भी लखीमपुर जैसे उत्तर-पूर्व के दूरस्थ इलाकों में खुले आम मानव तस्करी जारी है. यूं तो लखीमपुर में शोनाली, शानू और राबिया की तरह बलात्कार और शोषण का शिकार होने वाली सैकड़ों लड़कियां हैं, लेकिन कुछ कहानियां मानव तस्करी के इस दुश्चक्र का सबसे डरावना चेहरा दिखाती हैं. सुमन नागसिया की कहानी कुछ ऐसी ही है. लखीमपुर के सिलोनीबाड़ी गांव की मिर्जन बस्ती में रहने वाली सुमन नागसिया को स्टीफन नाम का एक स्थानीय दलाल सन 2009 में दिल्ली ले गया था. उस वक्त वह सिर्फ 15 साल की थी. अपनी झोपड़ी के आगे उदास बैठे हुए सुमन के 50 वर्षीय पिता महानंद नागसिया अपने बेटी के बारे में पूछने पर खामोश हो जाते हैं. फिर धीरे से उठकर अंदर पड़ी एक पेटी में रखे कुछ नए-पुराने कपड़ों के बीच छिपे कागज टटोलने लगते हैं. कुछ देर बाद महानंद एक पुराने-से कागज़ में लिपटी दो तस्वीरें लेकर बाहर आते हैं और कहते हैं, 'ये मेरी लड़की की तस्वीरें हैं. वह दो महीने पहले मर गई. दिल्ली से लौट कर आई तभी से बीमार थी. उसके साथ वहां पर कुछ हुआ था, किसी ने कुछ कर दिया था. वापस आकर सिर्फ एक महीना जिंदा रही. हम लोगों ने बहुत इलाज करवाया लेकिन एक महीने से ज्यादा नहीं जी पाई.' कहते-कहते वे फिर खामोश हो जाते हैं. सुमन की मां शबीना नागसिया घर पर नहीं हैं. पड़ोस की महिलाएं तहलका को बताती हैं कि दिल्ली में सुमन शारीरिक शोषण और हिंसा का शिकार हुई थी. कुछ देर के बाद महानंद हमें अपनी बेटी के बारे में विस्तार से बताते हुए कहते हैं, '2009 की बात है. तब सुमन पास के स्कूल में पढ़ने भी जाया करती थी. अचानक एक दिन हमारे घर दुलहत बगान की बीस नंबर लाइन में रहने वाला स्टीफन आया. वह यहीं का एजेंट है और कई लड़कियां दिल्ली ले जा चुका है. उसने सुमन को भी ले जाने की बात कही लेकिन मैंने और सुमन की मां ने मना कर दिया. फिर उसने सुमन को बहलाना-फुसलाना शुरू किया. उसने उससे कहा कि वह उसके स्कूल की तीन और लड़कियों को भी ले जा रहा है और सबको दिल्ली घुमा कर वापस ले आएगा. उसने यह भी कहा कि लड़कियों को वहां पैसा भी मिलेगा. वह तब बहुत छोटी थी, सिर्फ 15 साल की और उसने यहां गांव से बाहर की दुनिया भी नहीं देखी थी. बच्चे का मन तो मचल ही जाएगा जाने के लिए. वह भी जिद करने लगी. एक दिन अपनी सहेलियों से साथ घूमने निकली थी और फिर चार साल तक वापस नहीं आई. बाद में पता चला कि स्टीफन उसे दिल्ली ले गया है. चार साल तक उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिली, बस इतना पता चला कि गुड़गांव की किसी कोठी में काम करती है'. आखिरकार फरवरी, 2013 के दौरान सुमन बीमारी की हालत में अपने घर वापस पहुंची. महानंद उसके साथ हुए किसी भी तरह के बलात्कार या शारीरिक शोषण से जुड़े सवाल पर खामोश होकर पहले तो नजरें झुका लेते हैं फिर बस इतना जोड़ते हैं, 'जब से लौटी थी उसे सिर्फ उल्टियां हो रही थीं. चार साल के काम के बाद जब वह दिल्ली में बीमार पड़ गई तो उसके मालिक ने उसे सिर्फ 15 हजार रुपये देकर गांव भेज दिया. पूरा पैसा उसके इलाज में लग गया लेकिन फिर भी उसे बचा नहीं पाए. बार- बार बस एक ही बात रटती थी कि बाबा पेट में दर्द हो रहा है, मैं उसके लिए बाजार से अंगूर, सेब और जलेबी लाता था ताकि कुछ खा ले. लेकिन उसे जलेबी भी कड़वी लगती थी. उल्टियां करते-करते धीरे-धीरे वह अपने आप मर गई. दिल्ली में उसके साथ कुछ गलत हुआ था, उसके साथ इतना बुरा हुआ था कि वह खड़ी तक नहीं हो पाती थी.' बातचीत के दौरान ही सुमन के घर के आंगन में एक लड़का आकर रोने लगता है. पूछने पर मालूम पड़ता है कि बुनासु खड़िया नाम का यह लड़का पड़ोस में ही रहता है और उसकी 11 साल की बहन जूलिया खाड़ीया भी पिछले चार साल से लापता है. पता चलता है कि उसे भी स्टीफन ही दिल्ली ले गया था. सुमन जिस निर्मम आपराधिक दुश्चक्र का सामना चार साल तक करती रही उसके बारे में बताने के लिए वह जिंदा नहीं है. 11 साल की उम्र में गुमशुदा हुई जूलिया भी अपनी आपबीती बताने के लिए मौजूद नहीं है. लेकिन आगे हमारी मुलाकात शिवांगी खुजूर और लालिन होरो से होती है जो अपने शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण की गवाही खुद दे रही हैं. सिलोनिबाड़ी गांव में एक छोटी-सी झोपड़ी में रहने वाली लालिन होरो 2010 में काम की तलाश में दिल्ली गई थी और मार्च, 2012 में वापस आई. वह बताती है, 'मैं तब सिर्फ 16 साल की थी. चाय बागान में काम कम होने की वजह से घर में बहुत तंगी थी. आस-पास गांव की बहुत-सी लड़कियां काम करने दिल्ली जा रही थीं. एजेंट विजय टिर्की ने कहा कि पैसे कमाकर कुछ दिन में वापस आना हो जाएगा. आस-पास की सभी लड़कियों को जाते देखकर मैं भी चली गई. वह हम लोगों को ट्रेन से गुवाहाटी ले गया और फिर वहां से ट्रेन बदलकर दिल्ली. गाड़ी में हमारे ही गांव की दो और लड़कियां भी मौजूद थीं. हम लोग जब दिल्ली स्टेशन पर उतरे तो विजय ने फोन करके ऑफिस वालों की गाड़ी बुलाई. फिर वह हम लोगों को लेकर शकूरपुर बस्ती गया, उमेश राय के ऑफिस. पहले हम लोग ऑफिस में ही दो दिन तक रहे. तब मैंने देखा कि मेरे जैसी और भी कम से कम 10-12 लड़कियां थी वहां. फिर वहां से मुझे सलीमाबाग भेज दिया गया काम करने के लिए.'लालिन प्रशिक्षित नहीं थी, इसलिए उसे सिर्फ दो हजार रु महीने पर लगाया गया. वहां लालिन ने दो साल तक खाना बनाने, बच्चों को स्कूल छोड़ने, बर्तन-कपड़े और झाडू-पोंछा सहित घर का पूरा काम किया लेकिन वापसी पर उसे कोई पैसा नहीं दिया गया. वह आगे बताती है, 'अरे, ये लोग तो मुझे वापस ही नहीं आने देते. दो साल से मुझे मेरे घर पर बात नहीं करने दे रहे थे. जब भी कहती कि घर पर बात करवा दो, तो कहते नंबर नहीं लग रहा है. न ही मुझे कोई पैसा दिया. उमेश राय कोठी वालों से मेरी मेहनत का पूरा पैसा लेता रहा और मुझसे मुफ्त में काम करवाता रहा. वह मुझे घर भी जाने नहीं देना चाहता था. बोलता था, अपने घर बात करने और घर जाने की जिद छोड़ दे और चुपचाप काम कर. अगर मेरे पिताजी मुझे ढ़ूंढ़ते हुए यहां दिल्ली नहीं आते और मुझे इन खराब लोगों से चंगुल से छुड़ा कर नहीं ले जाते तो मैं आज भी अपने गांव नहीं आ पाती. पिताजी को भी धक्के खाने पड़े. मेरे दो साल के पैसे अभी तक नहीं दिए इन लोगों ने. उमेश राय ने एक-दो चेक दिए थे लेकिन पिताजी ने बताया कि उनमें से पैसा बैंक में नहीं आया. खैर, मैं अपने घर वापस तो आ गई.' बंधुआ मजदूरी और तस्करी के दो साल बाद लालिन होरो के पिता उसे घर वापस लाने में सफल रहे. शिवांगी खुजूर को भी अपनी वापसी के लिए बहुत-सी मुश्किलों से दो-चार होना पड़ा. दुलहत बगान की चार नंबर लाइन में रहने वाली शिवांगी तहलका से बातचीत में कहती है, 'मैं और मेरी बड़ी बहन एलीमा खुजूर सन 2011 के शुरू में दिल्ली गए थे. तब मैं 16 साल की थी और एलेमा 17 की. हमें यहीं की एजेंट और हमारी रिश्तेदार कुसमा टिर्की ले गई थी. वहां पहुंचते ही पहले तो हम श्रीनिवास के ऑफिस पहुंचे--श्री साईं इंटरप्राइसेस. एलीमा को वहीं पर काम पर रखवा लिया और फिर मुझे मालवीय नगर की एक कोठी में काम पर लगवा दिया. वहां मैंने चार महीने काम किया. इस बीच श्रीनिवास ने एलीमा के साथ गलत काम किया. वह वहां से चली गई. फिर मुझे बुलाकर श्रीनिवास के ऑफिस में काम के लिए रखवा लिया. इस बीच हमें कहीं फोन पर बात करने नहीं देते थे, इसलिए एलीमा के साथ हुई ज्यादती का मुझे बहुत बाद में पता चल पाया. मेरे साथ भी वह गलत हरकतें करने लगा था. फिर मैंने घर जाने के लिए रोना-पीटना शुरू कर दिया. भाग कर पुलिस को बताई पूरी बात. फिर मुझे घर तो भेज दिया लेकिन श्रीनिवास को नहीं पकड़ा पुलिस ने. वह आज भी आजाद है.' सोनाली, शानू, राबिया, सुमन, लालिन और शिवांगी जैसी तमाम लड़कियों की कहानियों की पुष्टि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा जारी की गई एक गोपनीय रिपोर्ट भी करती है. जुलाई, 2012 में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी यह रिपोर्ट लखीमपुर में पिछले एक दशक से जारी मानव तस्करी के कई स्याह पहलू उजागर करती है. आयोग की तहकीकात शाखा के छह उच्च अधिकारियों की पड़ताल के बाद बनाई गई यह रिपोर्ट कहती है कि 24 अगस्त, 2008 से लेकर 19 अप्रैल, 2010 के बीच लखीमपुर निवासी कुसमा टर्की अपने जिले से 53 बच्चों की तस्करी करके उन्हें काम के लालच में दिल्ली लेकर आई. रिपोर्ट यह भी साफ करती है कि उत्तर-पूर्व से बड़ी संख्या में 10-15 वर्ष की नाबालिग लड़कियों की तस्करी करके उन्हें दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में भेजा जा रहा है.रिपोर्ट आगे कहती है, 'ऐसा पाया गया है कि ज्यादातर लड़कियों से अंग्रेजी में लिखे कागजों पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं जो वे पढ़ नहीं सकतीं. उन्हें 2,200 से 4,500 रुपये के बीच तनख्वाह दी जाती है लकिन यह पूरा पैसा उनकी प्लेसमेंट एजेंसी ले लेती है. ये प्लेसमेंट एजेंसियां कानूनी तौर पर पंजीकृत नहीं होतीं और सिर्फ 'पार्टनरशिप एक्ट' के तहत बनाई जाती हैं. इन लड़कियों को अपने घर अपने माता-पिता से बात करने की इजाजत नहीं होती और न ही उन्हें दिल्ली में अपने रिश्तेदारों से मिलने दिया जाता है. इनमें से कई लड़कियां बलात्कार और शारीरक हिंसा का भी शिकार होती हैं. इकठ्ठा किए गए सबूत बताते हैं कि ज्यादातर मामलों में स्थानीय पुलिस अधिकारियों को लड़कियों की तस्करी और उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार की जानकारी होती है.' लखीमपुर में बढ़ती तस्करी की घटनाओं के आधार पर बनाई गई यह रिपोर्ट पूरे उत्तर-पूर्व में फैल रहे मानव तस्करी के जाल की एक भयावह तस्वीर सामने रखती है. भारत में मानव तस्करी की नई राजधानी के तौर पर उभर रहे लखीमपुर जिले में लगातार जारी लड़कियों की तस्करी को पिछले एक दशक के दौरान विकसित हुआ ट्रेंड बताते हुए गुवाहाटी स्थित नॉर्थ ईस्टर्न सोशल रिसर्च सेंटर के निदेशक वाल्टर फर्नांडिस कहते हैं, 'सत्तर और अस्सी के दशकों के दौरान ज्यादातर लड़कियां ओडिशा और बंगाल से लाई जाती थीं. 90 के दशक के आखिर में तस्करों और दलालों का ध्यान उत्तर-पूर्व की ओर गया और 2000 के बाद से यहां से ले जाई जाने वाली लड़कियों की तादाद बढ़ती गई. यह मामला बहुत हद तक चाय बागानों के बंद होने से भी जुड़ा है. भारत के चाय उत्पादन 56 फीसदी हिस्सा असम से आता है. 2005 से 2010 के बीच कई चाय बागान एकदम से बंद हो गए. फिर यहां के बागानों में काम करने वाले लोगों को बहलाना-फुसलाना दलालों के लिए भी सबसे आसान है. यहां के चाय बागानों में काम करने वाले लोगों को कुली कहा जाता है. आज भी वहां औपनिवेशिक भारत जैसा माहौल है.' ज्यादातर मामलों में स्थानीय पुलिस अधिकारियों को लड़कियों की तस्करी और उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार की जानकारी होती है फर्नांडिस बताते हैं कि सैकड़ों सालों से यहीं काम करने के बावजूद चाय बागान कर्मचारियों को यहां का मूल निवासी नहीं माना जाता और न ही उनके पास अनुसूचित जाति/जनजाति का दर्जा है. वे कहते हैं, 'उन्हें आज भी पिछड़ी जातियों में गिना जाता है. एक तरफ जहां बंगाल के चाय बागान वालों ने अपने संगठन बनाकर अपनी राजनीतिक चेतना के बल पर अनुसूचित जाति-जनजाति का दर्जा हासिल कर लिया, वहीं असम के चाय बागान नेतृत्व और राजनीतिक चेतना के अभाव में आज भी पीछे हैं. फिर लखीमपुर तो भारत के सबसे पिछड़े और गरीब इलाकों में आता है. यहां के लोगों ने एक तरह से अपने एक अधीन समाज होने के एहसास को स्वीकार कर लिया है. चाय बागानों ने इन्हें सख्त मजदूरी नियमों में इस कदर बांध दिया है कि इन्हें बाहर की दुनिया में हो रहे बदलावों का पता ही नहीं चलता. गरीबी और बंधुआ मजदूरी की वजह से ही ये लोग कुछ पैसे की उम्मीद पर बाहर जाने के लिए राजी हो जाते हैं और हर किसी की बात पर भरोसा कर लेते हैं. पुलिस और सरकार को इनमें कोई रुचि नहीं है.' पूरी पड़ताल के दौरान जिले में तेजी से फैल रहा स्थानीय दलालों का जाल जिले में लगातार बढ़ रही तस्करी की मुख्य वजह के रूप में उभर कर सामने आया. लखीमपुर के आम लोग भी जिले में बड़े दलालों के नेटवर्क को ही लगातार बढ़ती तस्करी के लिए जिम्मेदार बताते हैं. जिले के दुलहत बागान गांव की बंगाल लाइन के निवासी मैथिहास मूंगिया कहते हैं, 'ये एजेंट हमारे जिले को खराब कर रहे हैं.' तस्करी के चलते गुमशुदा हुई लड़कियों के मामले अदालत में उठाने वाले स्थानीय वकील जोसफ मिंज स्थानीय तस्करों के साथ-साथ लड़कियों को ले जाने के नए तरीकों को भी जिले में लगातार बढ़ रही महिला तस्करी के लिए जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, 'लगभग 2012 तक यहां के दलाल खुले आम लड़कियां ले जाते थे. लेकिन जब से बात थोड़ी-थोड़ी बाहर आनी शुरू हो गई है, तब से इन तस्करों ने लड़कियों को ले जाने का रूट बदल दिया है. अब ये ज्यादा लड़कियों को एक साथ नहीं ले जाते, छोटे-छोटे समूहों में जाते हैं. गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर थोड़ी सख्ती हो गई है, इसलिए सिलीगुड़ी का नया रास्ता इन्हें सुरक्षित लगता है. और फिर स्थानीय दलालों का मसला तो है ही. हर गांव में एक पक्का और पुराना दलाल होता है जिसे देखकर नए लोग आसानी से पैसा कमाने के चक्कर में अपने ही गांव की लड़कियों की तस्करी करने को तैयार हो जाते है.' तहलका के पास मौजूद 30 से ज्यादा गुमशुदा लोगों के परिवारों के बयानों, शारीरिक, आर्थिक और मानसिक शोषण का शिकार हुई लड़कियों के बयानों और नौ स्थानीय तस्करों के विस्तृत बयानों को नकारते हुए लखीमपुर जिले के पुलिस अधीक्षक पीके भूयान कहते हैं कि उनके पास जिले में तस्करी या गुमशुदगी की कोई शिकायत मौजूद नहीं है. वे कहते हैं, 'हमारे पास कोई डाटा नहीं है. गुमशुदगी की मात्र 2-3 शिकायतें आई थीं. अब लोग पुलिस में शिकायत ही दर्ज नहीं करवाते तो हम क्या करें? और अगर ऐसी शिकायतें हमारे पास आती हैं तब हम जरूर कार्रवाई करेंगे.' हर साल सैकड़ों की तादाद में गुमशुदा हो रही लड़कियों के बढ़ते मामलों के प्रति पुलिस की इस आपराधिक उदासीनता को स्पष्ट करते हुए बचपन बचाओ आंदोलन के निदेशक कैलाश सत्यार्थी कहते हैं, 'लखीमपुर में एक बच्ची को आप गाय या भैंस से भी कम कीमत पर खरीद सकते हैं. सरकार की आपराधिक लापरवाही, अनदेखी और पुलिस के उदासीन रवैये की वजह से लखीमपुर जैसा यह छोटाए-सा उत्तर-पूर्वी जिला आज महिला तस्करी की नई राजधानी के तौर पर उभर रहा है. यहां कानून और व्यवस्था बस नाम के लिए है. खुलेआम स्थानीय दलाल लड़कियों को दिल्ली ले जाकर बंधुआ मजदूरी और शारीरिक शोषण के नर्क में धकेल रहे हैं और पुलिस कहती है उनके पास शिकायत नहीं आती. जहां लोगों के खाने-जीने का हिसाब नहीं, ज्यादातर लोग अनपढ़ हैं, वहां आम लोग अपनी शिकायत कैसे उन पुलिस थानों में दर्ज करवाएंगे जहां उनकी कभी सुनी ही नहीं गई?' सफीरा खातून दुलहत बगान के पास ही दोलपा-पथार गांव में रहती हैं. इनकी बेटी शानू बेगम पिछले तीन साल से गुमशुदा है. फरवरी, 2013 के दौरान बचपन बचाओ आंदोलन ने उत्तर-पूर्व में बढ़ रही मानव तस्करी के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी जागरूकता मार्च की शुरुआत भी की थी. लखीमपुर से लड़कियों के गुमशुदा होने के मसले पर मार्च, 2013 के बजट सत्र में जारी प्रश्न काल के दौरान उठे एक सवाल का जवाब देते हुए पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) पवने सिंह घटोवार का कहना था, 'हमारी सरकार गुमशुदा बच्चों की तलाश के लिए कड़े कदम उठा रही है. बच्चों को ढूंढ़ने के लिए हमने 'ट्रैक चाइल्ड' नामक राष्ट्रीय पोर्टल भी शुरू किया है. हमने सभी राज्य सरकारों से भी पोर्टल में भागीदारी सुनिश्चित करने का आग्रह किया है. यह बात सही है कि बच्चे बड़ी तादाद में खो रहे हैं लेकिन पुलिस बड़ी संख्या में बच्चों को वापस ट्रेस भी कर रही है. अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद हमने हर गुमशुदा बच्चे की रिपोर्ट दर्ज करवाने के सख्त निर्देश जारी किए हैं.' जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के बाद मानव तस्करी के मामलों में बरती जाने वाली अनिवार्य पुलिसिया सख्ती का हवाला देते हुए सत्यार्थी जोड़ते हैं, 'अब तो नए क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट के बाद जालसाजी, दबाव बनाकर, बहला-फुसला कर और पैसों का लालच देकर बंधुआ मजदूरी करवाने या लड़कियों को शारीरिक-आर्थिक शोषण के दलदल में धकेलने जैसे सभी अपराध भी 'मानव तस्करी' के अंतर्गत शामिल हो गए हैं. फिर हाल ही में माननीय न्यायधीश अल्तमश कबीर ने अपने एक निर्णय में 'गुमशुदा बच्चों' को तस्करी, बंधुआ मजदूरी और शारीरिक शोषण की जड़ मानते हुए सभी राज्यों की पुलिस के लिए 'गुमशुदा बच्चों' के मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने को अनिवार्य कर दिया है. अब इस नए कानून और सुप्रीम कोर्ट के इस हालिया निर्णय के बाद पुलिस के लिए यह अनिवार्य है कि वह न सिर्फ लड़कियों की गुमशुदगी के मामले दर्ज करे बल्कि स्थानीय दलालों और दिल्ली की प्लेसमेंट एजेंसियों पर धारा 370 और 370 (ए) के तहत मामले दर्ज कर तहकीकात करे. लेकिन जमीनी सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है. लखीमपुर में तो यह सब पुलिस और सरकार के साथ-साथ राजनीतिक प्रश्रय की वजह से भी हो रहा है. यहां के राजनेताओं से लेकर पुलिस, सरकार और चाय बागान के मालिकों तक कोई नहीं चाहता कि यहां से जारी महिला तस्करी का यह धंधा खत्म हो, क्योंकि इसी में सबका फायदा है.' नए कानून में लड़कियों की गुमशुदगी के मामले दर्ज करना और दलालों व प्लेसमेंट एजेंसियों की जांच करना पुलिस के लिए अनिवार्य कर दिया गया है अपनी तहकीकात के दौरान तहलका के पत्रकारों एक सामाजिक संस्था के कार्यकर्ता बनकर जिले के नौ प्रमुख तस्करों से विस्तृत बातचीत की. इस काम में एक स्थानीय सूत्र जुबान लोहार ने हमारी मदद की. स्थानीय बागानों में चौकीदार की नौकरी करने वाले लोहार कहते हैं, 'लखीमपुर इतनी छोटी-सी जगह है कि यहां सब सबको जानते हैं. यहां का हर आदमी जानता है कि जिले से लड़कियों को दिल्ली भेजा जा रहा है और वे वापस नहीं आ रही हैं. हर गांव में आपको कई दलाल मिल जाएंगे.' सरकारों और क्षेत्रीय पुलिस के पास नॉर्थ-लखीमपुर (लखीमपुर) में जारी लड़कियों की तस्करी से संबंधित कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. लेकिन अपनी पड़ताल के दौरान जब तहलका ने लड़कियों की तस्करी में सालों से शामिल नौ स्थानीय तस्करों से बात की तो जिले से हर महीने गायब होने वाली लड़कियों की संख्या 40 तक पहुंच गई. तहलका ने बच्चों पर काम करने वाली एक सामाजिक संस्था के प्रतिनिधि की तरह लखीमपुर के लगभग नौ गांवों का दौरा किया. इस दौरान हमने नौ प्रमुख तस्करों से विस्तृत बात की. खुलकर बातचीत के लिए राजी करवाने के लिए हमें उनसे यह भी कहना पड़ा कि उनके गोरखधंधे की सच्चाई तो सामने आ ही जाएगी लेकिन अगर वे खुद अपने काम के बारे में विस्तार से बता दें तो यह बयान आगे उन्हें रियायत दिलाने में भी मदद करेगा. सामाजिक संस्था के कार्यकर्ताओं के रूप बताई गई काल्पनिक पहचान, मजबूत स्थानीय नेटवर्क, स्थानीय सूत्रों की मदद और थोड़ा दबाव बनाने के बाद ही ये तस्कर हमें लड़कियों को दिल्ली ले जाकर बंधुआ मजदूरी और शोषण के दंगल में धकेलने वाले अपने इस व्यवसाय के बारे में बताने के लिए तैयार हुए. इनमें सन 2005 की शुरुआत से लड़कियों को दिल्ली ले जाने वाले सबसे पुराने तस्करों के साथ-साथ तीन महीने पहले ही लड़कियों को भेजने वाले तस्कर भी शामिल हैं. पिछले सात साल के दौरान ये नौ तस्कर लखीमपुर से लगभग 184 लड़कियों को दिल्ली ले जाने की बात स्वीकारते हैं. (1) सिल्वेस्टर लखीमपुर जिले के टूनीजान गांव में रहने वाला सिल्वेस्टर तीन दिन की कोशिशों के बाद हमसे बात करने को तैयार हो जाता है. पड़ोसी बताते हैं कि पिछले कुछ सालों से वह चौबीसों घंटे शराब के नशे में रहता है. सिल्वेस्टर पढ़ा-लिखा है और फर्राटेदार अंग्रेजी में हमें बताता है, 'मैंने 2005 में इस काम की शुरुआत की थी और फिर 2010 तक लड़कियां दिल्ली ले जाता रहा. इस दौरान मैं कुल मिलाकर 45 लड़कियों को दिल्ली ले गया. इतने साल मैंने सिर्फ एक प्लेसमेंट एजेंसी के साथ काम किया और वह श्रीनिवास की श्री साईं प्लेसमेंट एजेंसी थी. मेरा एक हाथ खराब है, इसलिए मुझे यह सब करना पड़ा, मेरे पास कोई विकल्प नहीं था. यह बात सच है कि श्रीनिवास ने कई लड़कियों को पैसा नहीं दिया या उनके साथ खराब व्यवहार किया, लेकिन मेरे साथ वह हमेशा अच्छा था, ठीक था. शुरू में मुझे एक लड़की को ले जाने के लिए 3,000 रुपये का कमीशन मिलता था. 2010 तक बढ़कर यह 6,000 रुपया हो गया था. आज का रेट 10,000 है. लेकिन इस सबकी असली शुरुआत 2005 में हुई थी. यहां, लखीमपुर में मार्टिन टर्की नाम का एक आदमी रहता था जो मेरा दोस्त था. मार्टिन का एक और दोस्त था, सैमुएल गिडी. सैमुएल की श्रीनिवास से पहचान थी. उसने मार्टिन को श्रीनिवास के बारे में बताया और मार्टिन ने मुझे. मुझे बताया गया कि काम के लिए यहां से लड़कियां ले जाने पर कमीशन मिलता है और मैंने लड़कियां ले जाना शुरू कर दिया. उनमें से कुछ वापस आ गईं, कुछ भाग गईं, और कुछ वापस नहीं आईं. जो भाग जाती, उसका पैसा भी मुझे ही भरना पड़ता.' सूत्रों के अनुसार सिल्वेस्टर प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा लड़कियों के भारत से बाहर तस्करी किए जाने की प्रक्रिया के बारे में भी जानकारी रखता था. पूछने पर वह बताता है, 'मैंने श्रीनिवास के साथ लगभग पांच सालों तक काम किया है, इसलिए मैं उसका सबसे विश्वासपात्र आदमी था. उसने मुझे बताया था कि अगर हम लड़कियों को देश के बाहर भी भेज पाएं तो काफी पैसा कमा सकते हैं. एक लड़की को देश के बाहर भेजने के उसे दो लाख रुपये मिलते थे. मैंने खुद तो लड़की बाहर नहीं भेजी लेकिन मुझे पता है कि लोकल एजेंट को एक लड़की बाहर के लिए लाने का 50 हजार रुपया मिलते थे. लड़कियों के लिए डिमांड ज्यादातर अरब देशों से आती है, इसलिए मुझे लगता है कि लड़कियां अरब देशों में ही भेजी जाती हैं. अब दिल्ली में तो सैकड़ों प्लेसमेंट एजेंसियां मौजूद हैं. अकेले सुकूरपुर बस्ती में ही 200 से ज्यादा प्लेसमेंट एजेंसियां हैं.' काम छोड़ने और लखीमपुर में तस्करों के लगातार फैलते जाल के बारे में वह आगे कहता है, 'मैं लगातार काम करता रहा, लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि इस काम में बहुत सरदर्द है. श्रीनिवास पैसे नहीं देता था तो लड़कियों के घरवाले कहते कि मैंने उनकी बेटी का पैसा खाया, फिर पुलिस-वुलिस का भी झंझट रहता था. जब मैंने शुरू किया था तब यहां पर ऐसे ज्यादा एजेंट नहीं थे. लेकिन मेरे देखते ही देखते यहां एजेंट ही एजेंट फैल गए. एक साल पहले तक तो हर 15 दिन में समझ लीजिए 40 लड़कियां चली जाती थीं. अब आज डर की वजह से थोड़ा छुपा-छुपा कर चुप-चाप लड़कियों को ले जाना शुरू कर दिया है. लेकिन आज भी 15 से 20 तो चली ही जाती हैं यहां से'. (2) विजय टिर्की 45 वर्षीय विजय टर्की लखीमपुर के उन सक्रिय दलालों में से एक है जिसके द्वारा भेजी गई कुछ लड़कियां आज भी दिल्ली की प्लेसमेंट एजेंसियों के मालिकों के चंगुल में फंसी हुई हैं जबकि कुछ को सालों बंधुआ मजदूरी करने के बाद खाली हाथ घर लौटना पड़ा. लखीमपुर के एक स्थानीय चर्च में हुई इस बातचीत के दौरान वह बताता है, 'तीन साल पहले की बात है. हमारे यहां से बहुत सारे एजेंट लड़की दिल्ली ले जा रहे थे और उनको पैसा मिल रहा था. तो हमने भी सोचा कि ऐसे ही हम भी लड़की ले जाकर थोड़ा पैसा कमा लें. हमारे यहां के ही एजेंट लोगों ने मुझे कार्ड दिया था, श्रीनिवास का. फिर उसी कार्ड के नंबर पर फोन करके मैं दिल्ली पहुंचा. उसने कहा कि लड़कियों का कागज बना के ले आओ, मां-बाप से अंगूठा लगवा कर. मैं ले जाता और वह शुरू में मुझे एक लड़की पर सात हजार रुपये देता था. अब रेट 10 हजार हो गया है. कुछ दिनों बाद मैं सुकूरपुर में उमेश राय के ऑफिस में लड़कियां देने लगा. वहां अभी भी मेरी एक लड़की है और श्रीनिवास के पास काम कर रही तीन लड़कियां अभी तक वापस नहीं आईं हैं. कुल मिलाकर मैं अभी तक 13 लड़कियों को दिल्ली ले गया हूं.' प्लेसमेंट एजेंसियों के साथ अपना अनुभव के बारे में साझा करते हुए विजय बताता है, 'लेकिन अब मुझे लगता है कि श्रीनिवास ठीक आदमी नहीं है. मेरी दो लड़कियों के पैसे भी नहीं दिए, बाकियों से बात नहीं हो पाती थी और एक लड़की को इन्होंने चंडीगढ़ भेज दिया था. उसे भी नहीं छोड़ रहे थे.' (3) अजंता मात्र 23 साल की अजंता इन सभी तस्करों में सबसे कम उम्र की है. जनवरी 2013 में तीन लड़कियां दिल्ली भेजने वाली अजंता अभी सबसे सक्रिय तस्कर है. तहलका से बातचीत में अजंता कहती है, 'जब मैं बहुत छोटी थी, 15-16 साल की, तब पहली बार काम करने दिल्ली गई थी. एक स्थानीय दलाल ले गया था श्रीनिवास के यहां. मुझे एक कोठी पर काम लगवाया. वहां मुझे अच्छा नहीं लगा तो मैंने कहा कि मुझे घर जाना है. उन्होंने कहा कि एक साल काम करना पड़ेगा नहीं तो कोई पैसा नहीं मिलेगा. मैं हमारे यहां के मोमिन के साथ वापस आ गई गांव. वह भी दलाल था. फिर वापस कुसमा के साथ गई दिल्ली और एक साल काम किया. इस बार थोड़े पैसे मिल गए तो मैंने लड़कियां ले जाना शुरू कर दिया. अब मैं काम नहीं करती. मुझे काम करना अच्छा नहीं लगता. सिर्फ लड़कियां ले जाती हूं. दिल्ली के गोविंदपुरी में वह सुशांत है न, उसी के यहां देती हूं. अभी तीन महीने पहले ही तीन लड़कियां दे कर आई हूं. एक की उम्र 22-23 है, दूसरी की लगभग 15 और तीसरी की 18-19 के बीच. (4) सैमुएल टर्की सन 2003 से लेकर 2012 तक लखीमपुर से लगभग 35 के आस-पास लड़कियां होंगी जिन्हें मैं दिल्ली ले गया हूं. देखिए, अगर एक एजेंट का एक महीने में एक लड़की भी लगा लो, कम से कम इतना तो हर एजेंट ले जाता ही है, तो भी हर एजेंट का एक साल में 12 लड़की हो जाती है. वैसे तो हर गांव में कई एजेंट हैं लेकिन अगर एक या दो भी पकड़ कर चलो, तो भी हर महीने पूरे लखीमपुर से 60-70 से ऊपर ही लड़कियां जाती हैं. और यह आंकड़ा लगातार बढ़ ही रहा है. मुझे यहीं के एक एजेंट ने श्रीनिवास का नंबर दिया था. तब वह हमें एक लड़की के छह हजार रुपये देता था जबकि आज 10 से 12 हजार मिल जाते हैं. लखीमपुर के वे इलाके जहां से लड़कियां सबसे ज्यादा जाने लगी हैं और जहां बहुत एजेंट हैं उनमें दुलहत तेनाली, चौदह नंबर लाइन, दिरजू, हरमोती, बंदरदुआ शामिल हैं.'2012 तक लखीमपुर से लगभग 35 लड़कियों को दिल्ली लाने वाला सैमुएल टर्की लखीमपुर के सबसे प्रमुख और पुराने तस्करों में से एक है.तहलका से विस्तृत बातचीत में वह लखीमपुर में चल रही महिला तस्करी के उलझे हुए नेटवर्क की बारीकियां बताते हुए कहता है, '2003 में चाय बागान बंद होने से लेकर अब तक हर साल, हर गांव में एजेंट लगातार बढ़े हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि पिछले सात-आठ सालों से लड़कियों को खुले आम ले जाते थे और अब छिपा कर ले जाने लगे हैं. जब से पुलिस के चक्कर का डर फैला है, तब से चोरी-छिपे लड़कियों को ले जाते हैं. पुराने जितने भी एजेंट हैं, सबकी आपस में बात होती है इसलिए हमें मालूम है कि कौन कितनी लड़की कहां ले जा रहा है. लेकिन जो अब नए एजेंट बन रहे है, उनका पता नहीं होता. (5) कुसमा टर्की और ज्वेल खुजूर जुलाई, 2012 में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की एक गोपनीय रिपोर्ट बताती है कि 24 अगस्त, 2008 से लेकर 19 अप्रैल, 2010 के बीच लखीमपुर निवासी कुसमा टर्की अपने जिले से 53 बच्चों की तस्करी करके उन्हें काम के लालच में दिल्ली लाई थी. दुलहत बगान की चार नंबर लाइन स्थित अपने घर में तहलका से बात करते हुए कुसमा कहती है, 'मैं अपने भाई ज्वेल खुजूर के साथ मिलकर इन बच्चों को दिल्ली काम के लिए ले गई थी. सबसे पहले तो मैं खुद काम करने श्रीनिवास के यहां गई थी. फिर मेरा बेटा बीमार हो गया और एक साल बाद मैंने घर जाने की बात कही. इस पर श्रीनिवास ने मुझे घर तो भेज दिया साल भर के काम के सिर्फ पांच हजार मिले. जाते वक्त उसने मुझसे कहा कि अगर मेरे गांव से कोई और आना चाहे तो मैं उसे लेकर आऊं, वह मुझे उसका कमीशन देगा. यहां लखीमपुर से बच्चे दो तरह से मंगवाए जाते हैं. एक तो जैसे मैं काम करने आई...मेरे जैसे और भी कई आते हैं, उन्हें काम का पूरा पैसा नहीं देकर उनसे कहना कि अपने गांव से बच्चे ले आओ, उसका कमीशन मिलेगा. दूसरा तरीका यह है कि श्रीनिवास और दूसरी एजेंसी वाले एजेंटों को लखीमपुर के गांवों में भेजते हैं जो वहां से बच्चे ढ़ूंढ़कर लाते हैं. श्रीनिवास के कहने पर मैं अपने गांव से लड़कियों और लड़कों को भी लेकर जाने लगी. हर लड़की पर चार हजार रुपये मिलते थे. पहले तो सब ठीक चला लेकिन बाद में अचानक श्रीनिवास ने लड़कियों को पैसा देना बंद कर दिया.' दिल्ली स्थित प्लेसमेंट एजेंसियों के काम करने के तरीके और लड़कियों को देश से बाहर भेजने के बारे में बताते हुए कुसुमा आगे कहती है, ‘कितने ही परिवार हैं यहां जिनकी लड़कियां लौट कर नहीं आई हैं. तीन-तीन साल हो गए और लड़कियां वापस नहीं आईं. शिवांगी और एलिमा के साथ इतनी ज्यादती भी हुई. वह वैसे ज्वेल खुजूर से बोलता था लड़कियों को बाहर भेजने के बारे में, लेकिन अब तो मुझे विश्वास हो गया है कि वह लड़कियों को देश के बाहर भेजता है, वर्ना हमारे घर के सामने की ही सोनाली बारला अभी तक घर वापस आ गई होती.' ज्वेल खुजूर मूलतः कुसमा के साथ ही काम करता था और उसके साथ लखीमपुर से 53 बच्चों की तस्करी के मामले में दोषी है. तहलका से बातचीत में वह प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा लड़कियों को विदेश भेजने से जुड़े सिल्वेस्टर और कुसमा के बयानों को वजन देते हुए कहता है, 'श्रीनिवास लड़कियों को विदेश भेजता था. उसने मेरे सामने 20-22 साल की एक लड़की को विदेश भेजा था. मैं उस समय दिल्ली में ही था. मेरे सामने टिकट-विकट सब हुआ था लड़की का और फिर शायद सिल्वेस्टर ही उसे छोड़ कर आया था. श्रीनिवास मुझसे भी कहता था कि अगर मैं विदेश ले जाने के लिए लड़की लाकर दूं तो वह मुझे 40 हजार रुपये का कमीशन देगा'. (6) स्टीफन तीन दिन की कोशिश के बाद एक स्थानीय अस्पताल के बाहर हमारी मुलाकात स्टीफन से होती है. स्टीफन शुरुआत से ही उन सभी लड़कियों के दावों को झूठा बताता है जिन्होंने उस पर उन्हें शोषण के दलदल में धकेलने के आरोप लगाए. लेकिन लड़कियों की तस्करी को स्वीकार करते हुए वह कहता है, 'मैंने यह काम तीन साल पहले शुरू किया था. सबसे पहले मैं दिल्ली के मुनीरका में सिस्टर जोसलीन और महेंद्र नायक के यहां गया था. वहां सेक्योरिटी गार्ड के लिए लड़के देता था. फिर धीरे-धीरे लड़कियां भी ले जाने लगा. सुकूरपुर बस्ती में प्रवीण के बबीता एंटरप्राइजेज में भी लड़कियां देने लगा. अभी तक मैं कुल 22 लड़कियां लखीमपुर से दिल्ली ला चुका हूं. मैंने तो कुछ गलत काम नहीं किया. हो सकता है कि लड़कियों ने कहा हो कि मैंने पैसे खाए हैं लेकिन मैं सब गॉड के भरोसे करता हूं.' (खबर लिखे जाने तक स्टीफन की हरियाणा के सोनीपत में मानव तस्करी के एक मामले में गिरफ्तारी हो चुकी थी) (7) विश्वजीत और अनीता विश्वजीत और अनीता भी लड़कियों को लखीमपुर से दिल्ली लाया करते थे. 2010 में विश्वजीत दुलहत बागान की बंगला लाइन में रहने वाली 17 वर्षीया सुहानी लोहार को दिल्ली ले गया और उमेश राय की प्लेसमेंट एजेंसी ने उसे काम पर लगवा दिया. अचानक हुई एक पुलिस रेड के दौरान उमेश राय के दफ्तर से सुहानी के साथ छह और लड़कियां बरामद हुईं. पूछताछ के दौरान सुहासी ने बताया कि उमेश राय ने उसका शारीरिक शोषण किया था. पैसों के लिए सुहासी की तस्करी करने वाला विश्वजीत तीन महीने जेल में बिता चुका है . इसी तरह अपने गांव की 10 लड़कियों की तस्करी में शामिल अनीता श्रीनिवास के साथ-साथ सुकूरपुर के महेश गुप्ता की प्लेसमेंट एजेंसी पर लड़कियां पहुंचाती थी. (रिपोर्ट में पीड़ितों के नाम बदल दिए गए हैं) ‘अभी एजेंट लोग जो लाए थे उनमें से पांच हजार लड़कियां घर नहीं पहुंची हैं' लखीमपुर से लड़कियों को दिल्ली लाने वाले नौ तस्करों के बयान दर्ज करने के बाद तहलका ने दिल्ली में फैली हुई प्लेसमेंट एजेंसियों की कार्य शैली और उनके नेटवर्क को टटोलने की कोशिश की. इस दौरान तहलका की टीम ने एक घरेलू सहायक की तलाश में परेशान एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार के सदस्यों की तरह शकूरपुर बस्ती की प्रमुख प्लेसमेंट एजेंसियों के साथ-साथ इस धंधे में शामिल प्रमुख दलालों से भी बात की. पड़ताल के दौरान हमारी मुलाकात शकूरपुर बस्ती के एम ब्लॉक में ‘उत्तरा प्लेसमेंट एजेंसी' चलाने वाले राकेश कुमार से हुई. पांच साल से इस धंधे में सक्रिय राकेश के साथ तहलका के छिपे हुए कैमरे पर हुई इस बातचीत के ये अंश प्लेसमेंट एजेंसियों की कार्यप्रणाली और नौकरी के नाम पर असम, बंगाल, झारखंड और उड़ीसा से आई लड़कियों का शारीरिक, आर्थिक और मानसिक शोषण करने वाले आपराधिक समूहों के बारे में भी बताते हैं तहलका: भैया, ठीक-ठीक बता दीजिए किसी ऐसे के यहां से जहां से कोई लफड़ा न हो और अच्छी लड़की मिल जाए और एक बार में मामला फिक्स हो जाए. बार-बार इतने पैसे ले लेते हैं ये प्लेसमेंट एजेंसी वाले और हम परेशान होते रहते हैं. राकेश: हां, हां, पन्ना लाल के यहां से आपको बिल्कुल ठीक रिस्पांस मिल जाएगा. लड़की उन्नीस-बीस भी हो तो वो पैसे लौटा देता है. पैसे खाने वाले दूसरे लोग बहुत हैं शकूरपुर में. उनका काम ही यही है. लड़की लगाना, पैसे मंगाना और फिर लड़की भगा लेना. पन्नालाल के यहां ऐसा नहीं है. तहलका: अच्छा, पन्नालाल का अड्रेस बताइए. राकेश: ब्रिटैनिया चौक के लेफ्ट में श्मशान घाट है. श्मशान घाट से ही आप अंदर हो जाना, बिल्कुल बरात घर के सामने वहीं है. लड़कियां उसके पास हमेशा ही रहती हैं. तहलका: तो वो कहां से लाते हैं ? झारखंड से? राकेश: उनके पास आपको झारखंड की भी मिल जाएंगी, असम की भी और उड़ीसा की भी. आधे से ज्यादा प्लेसमेंट वालों से तो वो खुद ही लड़कियां लेता है. उसके पास हमेशा लड़कियां रहती हैं. तहलका: तो वो कितने पैसे लेगा? फिर लड़की का कितना जाएगा? काम सारा करना होगा. राकेश: रेट इनका थोड़ा हाई है. 35-40 हजार तक लेते हैं. फिर लड़की अगर सेमी-ट्रेंड हो तो पांच हजार तक लग जाते हैं. तहलका: इनका रेट यहां पर सबसे ज्यादा है क्या? राकेश: हां, और यही यहां का सबसे बड़ा सरगना भी है. आधे से ज्यादा प्लेसमेंट एजेंसी वालों से तो खुद खरीदता है लड़कियां ये. तहलका: पहले हम चिराग दिल्ली से एक लड़की लाए थे. 30 हजार रुपए दिए थे लेकिन वो तुरंत तीन महीने में भाग गई. हम लोग बहुत परेशान हुए. राकेश: ऐसे भाग जाने वाले और भगाने वाले लोग अलग हैं. उनका काम सर्फ यही होता है कि लड़की लगवाते हैं, पैसे लेते हैं और फिर तीन-चार दिन काम करके लड़की गायब. कभी केबल के तार से उतर के आ जाएगी, कभी दरवाजे से भाग जाएगी. ऐसा करवाने वाले फ्रॉड-चोर दलाल भरे पड़े हैं सुकूरपुर में. जो सबसे बड़े चोर हैं, जो पैसा लेकर लड़कियां लगवाते हैं और फिर भगवाते हैं, उनमें सबसे बड़े नाम हैं- सुबोध, मोंटू मिश्रा, आलम, अनिल और उमेश राय और प्रवीण भी हैं. तहलका: अच्छा, उस चिराग दिल्ली वाले ने हमें उमेश राय और प्रवीण के बारे में भी बताया था. इनसे ले सकते हैं क्या? राकेश: वो सब चोर हैं. और सुकूरपुर में सब चोर हैं. तहलका: कहां है इनकी एजेंसी? राकेश: उमेश तो मेरे ही ऊपर एम 680 में था. अब बंद करके कहीं और चला गया है और प्रवीण तो वहीं रहता है. लेकिन आपको मैं बता देता हूं , अगर 20 तारीख के बाद आओगे तो मुझसे ले लेना. मेरे पास 20 के बाद आना शुरू होंगी लड़की. तहलका: आप तो उत्तर प्रदेश, मथुरा से हैं न? इस लाइन में कैसे आ गए? राकेश: मैं हिमाचल में कबाड़ी का काम करता था. मेरे चाचा से पन्नालाल की पहचान थी. तो पन्नालाल मुझसे कई बार कहा कि वहां ऑफिस खोलना है वहां और कहा कि मैं उसके साथ काम कर लूं. बस मैं घुस गया. तहलका: तो क्या हिमाचल भी जाती हैं इसकी लड़कियां? राकेश: कहां तक नहीं जाती हैं ये पूछो. सबसे ज्यादा तो हिमाचल और श्रीनगर. देश के बाहर भेजने वाला शंभू है. दो-दो साल के अग्रीमेंट बना के भेजता है. बाकी पन्नालाल तो पूरे देश में भेजता है. तहलका: मेरी एक बहन है, उसका छोटा बच्चा है. बहुत परेशान करता है. उसके लिए कोई बताओ जो बाहर भेज दे लड़की. पैसे की कोई दिक्कत नहीं. राकेश: तुम्हें जो बताया है न वो खुदा है खुदा. पहले एक लड़की ले लो, सारे काम करवा देगा. उसकी बहुत पहुंच है. बाकी अभी देख लो. उसके सिवा बीस तारीख तक तो कहीं भी नहीं लड़कियां. तहलका: क्यों? क्या हो गया? राकेश: झारखंड से पुलिस आया, बंगाल से आया , असम से आया. अभी एजेंट लोग जो लाए थे उनमें से पांच हजार लड़कियां घर नहीं पहुंची हैं अभी तक. सब खो गई हैं. आज तक अपने घर नहीं पहुंची. तहलका: ये लड़कियां जा कहां रही हैं ? राकेश: अरे कुछ नहीं, ये एजेंट ले आते हैं, प्लेसमेंट वाले काम पे लगवा देते हैं. तीन-तीन साल हो जाते हैं, किसी को पता ही नहीं होता कि लड़कियां कहां हंै. क्या मालूम कहां चली जाती हैं. प्रियंका |
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