मीडिया में दलित और उनके आन्दोलन कहां
- 16 August 2012
भारतीय
मीडिया पर आरोप है कि वह दलित आंदोलन को तरजीह नहीं देती. दलित
उत्पीड़न-शोषण, विमर्श और सवाल-जवाब को मुद्दा बना कर पेश करने से परहेज
करती है. जो भी कुछ मीडिया में दलित आंदोलन के नाम पर दिखता है, वह महज
सहानुभूति है...
संजयकुमार
भारतीय मीडिया में दलित आंदोलन के लिए कोई जगह नहीं है. वह तो, क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, तथाकथित बाबाओं, सनसनी, सेक्स-अपराध, भूत-पे्रत और सेलिब्रिटीज के आगे-पीछे करने में ही मस्त रहती है. इसके लिए अलग से संवाददाताओं को लगाया जाता हैं जबकि जनसरोकार एवं दलित-पिछड़ों सेसंबंधित खबरों को कवर करने के लिए अलग से संवाददाता को बीट देने का प्रचलन लगभग खत्म हो चुका है. इसे बाजारवाद का प्रभाव माने या द्विज-सामंती सोच.
संजयकुमार
भारतीय मीडिया में दलित आंदोलन के लिए कोई जगह नहीं है. वह तो, क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, तथाकथित बाबाओं, सनसनी, सेक्स-अपराध, भूत-पे्रत और सेलिब्रिटीज के आगे-पीछे करने में ही मस्त रहती है. इसके लिए अलग से संवाददाताओं को लगाया जाता हैं जबकि जनसरोकार एवं दलित-पिछड़ों सेसंबंधित खबरों को कवर करने के लिए अलग से संवाददाता को बीट देने का प्रचलन लगभग खत्म हो चुका है. इसे बाजारवाद का प्रभाव माने या द्विज-सामंती सोच.
मीडिया,
सेक्स, खान-पान, फैशन, बाजार, महंगे शिक्षण संस्थान के बारे मेंप्राथमिकता
से जगह देने में खास रूचि दिखाती है. ऐसे मैं दलित आंदोलन के लिए मीडिया
में कोई जगह नहीं बचती ? अखबार हो या खबरिया चैनल, दलित आंदोलनकभी मुख्य
खबर नहीं बनती है. अखबारों में हीरो-हीरोइन या क्रिकेटर पर पूरापेज छाया
रहता है, तो वहीं चैनल पर घण्टों दिखाया जाता है. दलित उत्पीड़न कोबस ऐसे
दिखाया जाता है जैसे किसी गंदी वस्तु को झाडू से बुहारा जाता हो ?
मीडिया का आकलन से साफ है कि समाज के अंदर दूर-दराज के इलाकों में घटने वाली दलित उत्पीड़न की घटनाएं, धीरे-धीरे मीडिया के पटल सेगायब होती जा रही है. एक दौर था जब रविवार, दिनमान, जनमत आदि जैसी प्रगतिशिल पत्रिकाओं में रिपोर्ट आ जाती थी. खासकर, बिहार व उत्तर प्रदेश में दलितों पर होते अत्यचार को खबर बनाया जाता था. बिहार के वरिष्ठ पत्रका रश्रीकांत की दलित उत्पीड़न से जुड़ी कई रिपोर्ट उस दौर में छप चुकी हैं , वे मानते हैं कि ‘आज मुख्यधारा की मीडिया, दलित आंदोलन से जुड़ी चीजों को नहींके बराबर जगह देती है. पत्र-पत्रिकाएं कवर स्टोरी नहीं बनाते हैं. जबकिघटनाएं होती ही रहती हैं. हालांकि, एकआध पत्र-पत्रिकाएं है जो कभी-कभा रमुद्दों को जगह देते दिख जाते हैं’.
साठ-सत्तर के दशक में दलितों, अछूतों और आदिवासियों, दबे-कुचलों की चर्चाएं मीडिया में हुआ करती थी. दलित व जनपक्षीय मुद्दों कोउठाने वाले पत्रकारों को वामपंथी या समाजवादी के नजरिये से देखा जाता था.लेकिन, सत्तर के दशक में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसेमुद्दों ने राष्ट्रीय मीडिया को बदलाव में धकेलना शुरू कर दिया.
भारतीय मीडिया हिंदी मीडिया की जगह हिन्दू मीडिया में तब्दील हो गयी. महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अपराध और राजनीतिक समस्याओं के सामनेदलित-आदिवासी-पिछड़ों के मुद्दे दबते चले गये. गाहे-बगाहे बाबरी मस्जिदप्रकरण के दौरान हिन्दू मीडिया का एक खास रूप देखने को मिला. भारतीय मीडियाअपने लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कब छोड़ भौतिकवाद, साम्प्रदायवाद या यों कहें हिन्दूवादी मीडिया में बदली, इसका अंदाजा भीनहीं लग पाया!
सच है, दबे-कुचले लोगों के उपर दबंगो के जुल्म-सितम कीखबरें, बस ऐसे आती है जैसे हवा का एक झोंका हो! जिसका असर मात्र क्षणिक भीनहीं होता. साठ-सत्तर के दौर में ऐसा नहीं था. सामाजिक गैर बराबरी को जिसतेवर के साथ उठाया जाता था उसका असर देर सबेर राजनीतिक, सामाजिक और सत्ताके गलियारे में गूंजता रहता था.
आज हालात यह है कि मीडिया की दृष्टिकोण मेंतथाकथित उच्चवर्ग फोकस में रहता है. कैमरे का फोकस दलित टोलों पर नहींटिकता. टिकता है तो हाई प्रोफाइल पर. बात साफ है जो बिके उसे बेचो? अब खबरपत्रकार नहीं तय करता है बल्कि, मालिक और विज्ञापन तथा सरकुलेशन प्रमुख तयकरते हैं. वे ही तय करते हैं कि क्या बिकता है और इसलिए क्या बेचा जानाचाहिए. जाहिर सी बात है ‘दलित आंदोलन’ बिक नहीं सकता ?
दलित आंदोलन पर मीडिया की दृष्टिकोण के सवाल पर बंगालके वरिष्ठ पत्रकार पलास विश्वास कहते हैं, मीडिया दलितों से जुड़ें मुद्दंेको नहीं के बराबर छापती है. बंगाल में तो मीडिया दलित और पिछड़ों पर नहीं केबराबर अवसर देती है. शेष भारत में कभी-कभार दलित आंदोलन से जुड़ी बातें छपभी जाती है, लेकिन हकीकत यह है कि मीडिया द्वारा दलित आंदोलन को नजर अंदाजकिया जाता है.
ऐसा वे जानबूझ करते हैं ताकि मुख्यधारा से दलित आंदोलन जुड़ नसके यह एक बहुत बड़ा कारण है. मीडिया उन्हीं दलित मुद्दों को छापती हैजिससे उन्हें खतरा महसूस नहीं होता और जो भी कुछ छापता है उसे अपने हिसाबसे छापती है. मीडिया में दलित जीवन संघर्ष नहीं के बराबर दिखता है. वहींगैर दलितों के मुद्दों को बखूबी जगह दी जाती है.
चर्चित दलित पत्रकार-साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय मानते है कि, ‘भारत की सवर्ण मीडिया आरम्भ से ही बेईमान और दोगले चरित्र की रहीहै. उसकी कथनी और करनी में अंतर है. सच तो यह है कि पिछले एक दशक से वेदलित सवालों को अपने हित के लिए उछालने में लगे हैं. ऐसा करते हुए वे दलितसवालों को प्रतिनिधित्व नहीं दे रहे हैं, बल्कि दलितों को राजनीतिज्ञों कीतरह रिझाते हैं. वह मार्केट तलाश करते रहे हैं, जो उन्हें मिल भी रहा है.दलित समाज के बुद्धिजीवियों को कम-से-कम यह समझना चाहिए. उन्हें अपनेस्वतन्त्र मीडिया की स्थापना कर उसका विकास करना चाहिए’(देखें-पुस्तकः दलितसाहित्य के यक्ष प्रश्न -डा.रामगोपाल भारतीय).
शोध से साफ हो चुका है कि मीडिया परकब्जा सवर्णांे काहै. ऐसे मे न्याय की बात बेमानी लग सकती है, बल्कि आरक्षण या फिरदलित-पिछड़ों के मामले में मीडिया के दोगले चरित्र से लोग वाकिफ हो चुके हैं. साहित्यकार जयप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं, राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तरके समाचार-पत्र राजनीति, अपराध समाचारों, आदि से भरे रहते हैं. रविवारीयपृष्ठों में भी दलित सवालों और रचनाओं को कोई स्थान नहीं मिल रहा. साहित्यके नाम पर सवर्णों के साक्षात्कार, कहानियां, कविताएं ही आती हैं. इनकेरविवारी, परिशिष्टों में बहुत से स्थानों पर ज्योतिष, वास्तुशास्त्र तथास्वास्थ्य चर्चाएं ही होती हैं. कुल मिलाकर मीडिया में दलित विमर्श गायब हैं (देखें-पुस्तकः दलितसाहित्य के यक्ष प्रश्न -डा.रामगोपाल भारतीय).
दलित साहित्यकार डा.पूरण सिंह मानते हैं कि मीडिया मेंदलित सवालों को उचित प्रतिनिधित्व मिलना तो दूर उन्हें गिना तक नहीं जाता.मीडिया, जिसे देश के विकास में चैथा स्तम्भ कहा जाता है, उसके मालिक सवर्णमानसिकता के लोग यह बिल्कुल स्वीकार नहीं करेंगे, जिन्होंने इस समाज कासदियों से शोषण, अपमान, तिरस्कार किया हो, उन्हें प्रतिनिधित्व दिया जाये ?’(देखें-पुस्तकः दलितसाहित्य के यक्ष प्रश्न -डा.रामगोपाल भारतीय).
भारतीय मीडिया में दलित आंदोलन को लेकर जो कुछ भी चल रहा है. वह अपर्याप्त है.शुरू से ही मीडिया ने दलित आंदोलन को नजरअंदाज किया है. इसकी वजह यह है किमीडिया द्विजों की है. ऐसे में उसका देखने का नजरिया अपना होता है. यहमानना है चर्चित कवि और दलित विमर्ष से जुड़े कैलाष दहिया का. वे कहते हैंदलित आंदोलन के नाम पर मीडिया अपनी दृष्टि सहानुभूति के तहत रखती है. जो भीकुछ दिखाया जाता है वह मात्र शोषण-उत्पीड़न तक ही सीमित रहता है. और इसमेंसहानुभूति का पुट दिखता है.
कभी भी द्विजों की यह मीडिया, दलित आंदोलन सेउपजे सवालों के जवाब को नहीं ढूंढती है ? सामाजिक व्यवस्था को द्विजसंचालित करते आये हैं, ऐसे में उनसे दलित आंदोलन के सकारात्मक पक्षों कोउठाने की उम्मीद नहीं की जा सकती. जो भी दलित आंदोलन के नाम पर मीडिया में आरहा है वह झूठमूठ का है और वह इसलिए भी दिखाया जाता है कि उसके आड़ में वेअपने अंदर के मुखौटे को छुपाते हैं. मीडिया नहीं बताती कि जिस दलित महिलाके साथ बलात्कार हुआ, शोषण हुआ, उसे करने वाला द्विज-क्षत्रिय-सांमत हैं.
कथाकार-आलोचक रामयतन यादव कहते है, मुख्य धारा की मीडिया में दलित आंदोलनको जगह नहीं मिली है. बड़े पत्रकार इस मुद्दे पर नहीं लिखते हैं. इसके पीछेवर्चस्व का खतरा है. मुख्य धारा की मीडिया पर काबिज लोग नहीं चाहते कि उनकेवर्चस्व पर आक्षेप आये. यह सब सामाजिक चिंतन के तहत होता है. इसके तहतदलित आंदोलन धारा को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते हैं इसके पीछे द्विज मानतेहैं कि लेखन-पठन का अधिकार केवल उनको ही है. दलित आंदोलन पर मीडिया कीदृष्टि के सवाल पर दलित विमर्श से जुड़े दलित और गैरदलित विशेषज्ञयों नेदलित आंदोलन के प्रति मीडिया की उदासीनता के पीछे उसके द्विज-सामंतीमानसिकता को दोषी ठहराया है.
सच है कि जनमत के निर्माण में पत्रकारिता की भूमिकाबहुत ही महत्वपूर्ण होती है. इसके बावजूद मीडिया जनपक्षी मुद्दों को लगातारनहीं उठाती. जहां तक दलित मुद्दों के पक्ष में जनमत निर्माण की बात है, तोमीडिया इसे छूने से कतराती है. इसका कारण यह भी हो सकता है कि मीडियासंस्थानों से दलितों का कम जुड़ाव का होना. कहते है मीडिया में दलित ढूंढ़तेरह जाओगें ? मीडिया पर हुए राष्ट्रीय सर्वेक्षण से साफ हो चुका है किभारतीय मीडिया में दलित और आदिवासी, फैसला लेने वाले पदों पर नहीं है.राष्ट्रीय मीडिया के 315 प्रमुख पदों पर एक भी दलित और आदिवासी नहीं है.
आरक्षण के सहारे कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिकाआदि में दलित आये लेकिन आज भी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र केचैथे खम्भे पर काबिज होने में दलित पीछे ही नहीं बल्कि बहुत पीछे हैं.आंकड़े गवाह हैं कि भारतीय मीडिया में वर्षों बाद आज भी दलित-पिछड़े हाषियेपर हैं. उनकी स्थिति सबसे खराब है. गिने चुने ही दलित मीडिया में हैं और वह भी उच्च पदों पर नहीं.
‘राष्ट्रीय मीडिया पर उंची जातियों का कब्जा’ के तहत सर्वे ने मीडिया जगत से जुड़े दिग्गजों की नींद उड़ा दी थी. आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला. किसी ने समर्थन में दलित-पिछड़ों को आगेलाने की पुरजोर शब्दों में वकालत की तो किसी ने यहाँ तक कह दिया कि भलाकिसने उन्हें मीडिया में आने से रोका है. मीडिया के दिग्गजों ने जातीयअसमानता को दरकिनार करते हुए योग्यता का ढोल पीटा और अपना गिरेबांन बचाने का प्रयास किया.
मीडिया स्टडी ग्रुप के सर्वे ने जो तथ्य सामने लायेहालांकि वह राष्ट्रीय पटल के हैं लेकिन कमोवेश वही हाल स्थानीय समाचार जगतका है जहां दलित-पिछडे़ खोजने से मिलेंगे. मीडिया के अलावा कई क्षेत्र हैंजहां अभी भी सामाजिक स्वरूप के तहत प्रतिनिधित्व करते हुए दलित-पिछड़ों कोनहीं देखा जा सकता है, खासकर दलित वर्ग को. आंकड़े बताते हैं कि देश की कुलजनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत होने के बावजूद उंची जातियों का, मीडियाहाउसों पर 71 प्रतिषत शीर्ष पदों पर कब्जा बना हुआ है. आंकड़े बताते हैं किकुल 49 प्रतिशत ब्राह्मण, 14 प्रतिषत कायस्थ, वैश्य /जैन व राजपूत सात-सातप्रतिशत, खत्री नौ, गैर द्विज उच्च जाति दो और अन्य पिछड़ी जाति चार प्रतिशतहै. इसमें दलित कहीं नहीं आते यानी ढूंढते रह जाओगे.
जहाँ तक सरकारी मीडिया का सवाल है तो इसमें अनुसूचितजाति/अनुसूचित जनजाति के लोग भारतीय सूचना सेवा के तहत विभिन्न सरकारी मीडिया में कार्यरत है. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के वेब साइट से प्राप्तआंकड़ों के अनुसार, सरकारी मीडिया के ग्रुप ‘ए’ में उच्चतर वर्ग से लेकर जूनियर वर्ग में लगभग आठ प्रतिषत अनुसूचित जाति के लोग हैं वहीं ग्रुप ’बी’ में लगभग 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति के हैं. सरकारी मीडिया में ग्रुप ‘ए’ और ग्रुप ‘बी’ की सेवा है, इनकी नियुक्ति रेडियो, दूरदर्शन, पी.आइ.बी.सहित अन्य सरकारी मीडिया में की जाती है. अनुसूचित जाति के लोगों कोमुख्यधारा में जोड़ने के मद्देनजर केन्द्र सरकार की नीतियों के तहत सरकारीमीडिया में तो दलित आ रहे हैं लेकिन निजी मीडिया में कोई प्रयास नहीं होनेकी वजह से दलित नहीं दिखते.
आंकड़े/सर्वे चैंकाते हैं, मीडिया के जाति पे्रम को लेकरपोल खोलते हैं प्रगतिशील बनने वालों का और उन पर सवाल भी दागते हैं . बिहारको ही लें, ‘‘मीडिया में हिस्सेदारी’’ के सवाल पर पत्रकार प्रमोद रंजन नेभी जाति पे्रम की पोल खोली. बिहार, मीडिया के मामले में काफी संवेदनशील वसचेत माना जाता है. लेकिन, यहां भी हाल राष्ट्रीय पटल जैसा ही है.
बिहार की राजधानी पटना में काम कर रहे मीडिया हाउसों में 87 प्रतिशत सवर्ण जाति केहैं. इसमें, ब्राह्यण 34, राजपूत 23, भूमिहार 14 एवं कायस्थ 16 प्रतिशतहैं. हिन्दू पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति, अशराफ मुसलमान और दलित समाज से आने वालेमात्र 13 प्रतिशतपत्रकार हैं . इसमें सबसे कमप्रतिशतदलितों का है. लगभग एक प्रतिशत ही दलित पत्रकार बिहार की मीडिया से जुड़े हैं. वह भी कोई उंचे पद पर नहीं हैं.
महिला सशक्तिकरण के इस युग में दलित महिला पत्रकार को ढूंढना होगा. बिहार के किसी मीडिया हाउस में दलित महिला पत्रकार नहीं केबराबर है. आंकड़े बताते हैं कि दलित महिला पत्रकारों का प्रतिशत शून्य हैजबकि पिछडे़-अति पिछड़े जाति की महिला पत्रकारों का प्रतिशत मात्र एक है.साफ है कि दलित-पिछड़े वर्ग के लोग पत्रकारिता पर हाशिये पर हैं . हालांकि सरकारी मीडिया में आकस्मिक तौर पर दलित पत्रकार जुड़े हैं लेकिन उनका भी प्रतिशत अभी भी सवर्ण जाति से बहुत कम है.
भारतीय परिदृश्य में अपना जाल फैला चुके सैटेलाइट चैनल यानी खबरिया चैनलों की स्थिति भी कमोवेश एक ही जैसी है. यहां भी कब्जा सवर्ण हिन्दू वर्ग का ही है. 90 प्रतिशत पदों पर सवर्ण काबिज हैं. हालांकि हिन्दू पिछड़ी जाति के सात प्रतिषत, अशराफ मुसलमान तीन एवं महिलाएं 10 प्रतिशत हैं यहां भी दलित, ढूंढते रह जाओगे. इसे देखते हुए इंडियाज न्यूज पेपर रिवोल्यूशन के लेखक और लंबे समय से भारतीय मीडिया पर शोध कर रहे राबिन जेफरी ने कहा कि भारतीय मीडिया जगत में टेलीवीजन ने भले ही सूचना क्रांति ला दी हो लेकिन उसके अपने अंदर सामाजिक क्रांति अभी तक नहीं आ पाई है. अब वक्त आ गया है कि टेलीवीजन के न्यूज रूम अपने अंदर बदलाव लायें और दलितों के लिए अपने दरवाजे खोल दें.
उन्होंने कहा कि भारतीय टेलीवीजन मीडिया को दलितों और अछूतों के लिए अपने न्यूजरूम के दरवाजे खोल देने चाहिए क्योंकि वहां उनकी संख्या बहुत कम है. 31 मार्च 2012 को दिल्ली मेंएडिटर्स गिल्ड द्वारा आयोजित डॉ राजेन्द्र प्रसाद माथुर व्याख्यानमाला में बोलते हुए श्री जेफरी ने कहा कि लंबे समय से दलितों के लिए मुख्यधारा कीमीडिया के दरवाजे बंद हैं. कमोबेश आज भी स्थिति वही बनी हुई है.
अपने अनुभवको स्रोताओं से साझा करते हुए श्री जेफरी ने कहा कि आज न्यूजरूम (टेलीवीजन) में भी यही स्थिति है. टेलीवीजन न्यूजरूम में संपादकीय स्तर परदलितों और आदिवासियों की उपस्थिति बढ़नी चाहिए. न्यूजरूम में दलितों कीउपस्थिति बढ़ाने के लिए उन्होंने तर्क दिया कि हर साल इस बारे में समीक्षा रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए और धीरे धीरे न्यूजरूम में दलितों की मौजूदगी बढ़ाने की दिशा में टेलीवीजन को काम करना चाहिए.(देखेंwww.visfot.com,01.04.2012)
दलित आंदोलन पर मीडिया की दृष्टि नहीं इसके पीछे यह भीब ड़ा कारण है कि मीडिया पर दलित नहीं है. इस पर वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर ने चिंता व्यक्त करते हुये अपने आलेख, ’मीडिया और सामाजिक गैरबराबरी’ में लिखा है कि जब अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़ी जातियां और इन वर्गोंकी महिलाएं बाढ़ के पानी की तरह मीडिया के हालों और कैबिनों में प्रवेश करेगी. सड़क पर जाकर रिपोर्टिंग करेगी तब मीडिया के सरोकारों में जरूर बदलाव आयेगा (देखें मीडिया और सामाजिक गैर बराबरी, राष्ट्रीय सहारा, 15.8.2006). राजकिशोर जी की यह बात वाजिब है कि मीडिया में जब स्थान मिलेगा तब दलित पक्षीय सवालों को अनदेखी करना संभव नहीं हो पायेगा.
समाज का बड़ा तबका दलित-पिछड़ों का है. इनके आंदोलन को मीडिया तरजीह नहीं देती है. मसला आरक्षण का हो या फिर शोषण-उत्पीड़न का मीडिया में जगह मात्र साहनुभूति के तहत दीजाती है कभी भी उसके पीछे के तत्वों को ढूंढने की कोशिश मीडिया नहीं करतीहै. क्योंकि वह जातीय लबादे से बाहर निकल नहीं पायी है. डा. महीप सिंहकहते है कि अखबारों के संपादक और संपादकीय विभाग में ब्राह्यणों का वर्चस्वहै या कायस्थें का. दलित या दूसरे पिछड़े वर्गों के लोगों की भागीदारी न केबराबर है. ऐसी स्थिति में वर्गों और जातियों की अपनी मानसिकता सारीपत्रकारिता के तेवर को प्रभावित तो करेगी ही.(देखें-दलित पत्रकारिता:मूल्यांकन और मृद्दे/रूपचन्द गौतम-पृष्ठ 143)
देश की एक चैथाई जनसंख्या दलितों की है और सबसे ज्यादा उपेक्षित और पीड़ित शोषित वर्ग है. आजादी के कई वर्षों बाद भी इनकी स्थितिमें कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है. अत्याचार की घटनाएं बढ़ ही रही है. कहनेके लिये कानूनी तौर पर कई कानून हैं. फिर भी घटनाएं घट रही हैं और वेघटनाएं मीडिया में उचित स्थान नहीं पा पाती. क्योंकि मीडिया, पूंजीपतियोंकी गोद में खेल रही है. गणेष दत्त विद्यार्थी ने अखबार ‘प्रताप’ में लिखाथा कि, ’’पत्रकारिता को अमीरों की सलाहकार और गरीबों की मददगार होनीचाहिये’’.
लेकिन हालात बदल चुके हैं आज के पत्रकारों ने इस मूलमंत्र को व्यवसायिकता के पैरो तले रौंद दिया है. मीडिया द्वारा दलित आंदोलन कोनजरअंदाज करने को लेकर इधर तेजी से यह बात उठने लगी है कि दलितों को अपनीबात आम-खास जनता तक पहुंचाने के लिए एक अदद समानान्तर मीडिया की जरूरत है.अगर ऐसा होता है तो इस दिशा में एक सकारात्मक पहल होगी और दलित आंदोलन केमुद्दे वास्व में सामने आ सकेंगे. क्योंकि मीडिया के चरित्र से हर कोईवाकिफ है. कुछ कहने की आवश्यकता नहीं.
मीडिया का आकलन से साफ है कि समाज के अंदर दूर-दराज के इलाकों में घटने वाली दलित उत्पीड़न की घटनाएं, धीरे-धीरे मीडिया के पटल सेगायब होती जा रही है. एक दौर था जब रविवार, दिनमान, जनमत आदि जैसी प्रगतिशिल पत्रिकाओं में रिपोर्ट आ जाती थी. खासकर, बिहार व उत्तर प्रदेश में दलितों पर होते अत्यचार को खबर बनाया जाता था. बिहार के वरिष्ठ पत्रका रश्रीकांत की दलित उत्पीड़न से जुड़ी कई रिपोर्ट उस दौर में छप चुकी हैं , वे मानते हैं कि ‘आज मुख्यधारा की मीडिया, दलित आंदोलन से जुड़ी चीजों को नहींके बराबर जगह देती है. पत्र-पत्रिकाएं कवर स्टोरी नहीं बनाते हैं. जबकिघटनाएं होती ही रहती हैं. हालांकि, एकआध पत्र-पत्रिकाएं है जो कभी-कभा रमुद्दों को जगह देते दिख जाते हैं’.
साठ-सत्तर के दशक में दलितों, अछूतों और आदिवासियों, दबे-कुचलों की चर्चाएं मीडिया में हुआ करती थी. दलित व जनपक्षीय मुद्दों कोउठाने वाले पत्रकारों को वामपंथी या समाजवादी के नजरिये से देखा जाता था.लेकिन, सत्तर के दशक में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसेमुद्दों ने राष्ट्रीय मीडिया को बदलाव में धकेलना शुरू कर दिया.
भारतीय मीडिया हिंदी मीडिया की जगह हिन्दू मीडिया में तब्दील हो गयी. महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अपराध और राजनीतिक समस्याओं के सामनेदलित-आदिवासी-पिछड़ों के मुद्दे दबते चले गये. गाहे-बगाहे बाबरी मस्जिदप्रकरण के दौरान हिन्दू मीडिया का एक खास रूप देखने को मिला. भारतीय मीडियाअपने लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कब छोड़ भौतिकवाद, साम्प्रदायवाद या यों कहें हिन्दूवादी मीडिया में बदली, इसका अंदाजा भीनहीं लग पाया!
सच है, दबे-कुचले लोगों के उपर दबंगो के जुल्म-सितम कीखबरें, बस ऐसे आती है जैसे हवा का एक झोंका हो! जिसका असर मात्र क्षणिक भीनहीं होता. साठ-सत्तर के दौर में ऐसा नहीं था. सामाजिक गैर बराबरी को जिसतेवर के साथ उठाया जाता था उसका असर देर सबेर राजनीतिक, सामाजिक और सत्ताके गलियारे में गूंजता रहता था.
आज हालात यह है कि मीडिया की दृष्टिकोण मेंतथाकथित उच्चवर्ग फोकस में रहता है. कैमरे का फोकस दलित टोलों पर नहींटिकता. टिकता है तो हाई प्रोफाइल पर. बात साफ है जो बिके उसे बेचो? अब खबरपत्रकार नहीं तय करता है बल्कि, मालिक और विज्ञापन तथा सरकुलेशन प्रमुख तयकरते हैं. वे ही तय करते हैं कि क्या बिकता है और इसलिए क्या बेचा जानाचाहिए. जाहिर सी बात है ‘दलित आंदोलन’ बिक नहीं सकता ?
दलित आंदोलन पर मीडिया की दृष्टिकोण के सवाल पर बंगालके वरिष्ठ पत्रकार पलास विश्वास कहते हैं, मीडिया दलितों से जुड़ें मुद्दंेको नहीं के बराबर छापती है. बंगाल में तो मीडिया दलित और पिछड़ों पर नहीं केबराबर अवसर देती है. शेष भारत में कभी-कभार दलित आंदोलन से जुड़ी बातें छपभी जाती है, लेकिन हकीकत यह है कि मीडिया द्वारा दलित आंदोलन को नजर अंदाजकिया जाता है.
ऐसा वे जानबूझ करते हैं ताकि मुख्यधारा से दलित आंदोलन जुड़ नसके यह एक बहुत बड़ा कारण है. मीडिया उन्हीं दलित मुद्दों को छापती हैजिससे उन्हें खतरा महसूस नहीं होता और जो भी कुछ छापता है उसे अपने हिसाबसे छापती है. मीडिया में दलित जीवन संघर्ष नहीं के बराबर दिखता है. वहींगैर दलितों के मुद्दों को बखूबी जगह दी जाती है.
चर्चित दलित पत्रकार-साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय मानते है कि, ‘भारत की सवर्ण मीडिया आरम्भ से ही बेईमान और दोगले चरित्र की रहीहै. उसकी कथनी और करनी में अंतर है. सच तो यह है कि पिछले एक दशक से वेदलित सवालों को अपने हित के लिए उछालने में लगे हैं. ऐसा करते हुए वे दलितसवालों को प्रतिनिधित्व नहीं दे रहे हैं, बल्कि दलितों को राजनीतिज्ञों कीतरह रिझाते हैं. वह मार्केट तलाश करते रहे हैं, जो उन्हें मिल भी रहा है.दलित समाज के बुद्धिजीवियों को कम-से-कम यह समझना चाहिए. उन्हें अपनेस्वतन्त्र मीडिया की स्थापना कर उसका विकास करना चाहिए’(देखें-पुस्तकः दलितसाहित्य के यक्ष प्रश्न -डा.रामगोपाल भारतीय).
शोध से साफ हो चुका है कि मीडिया परकब्जा सवर्णांे काहै. ऐसे मे न्याय की बात बेमानी लग सकती है, बल्कि आरक्षण या फिरदलित-पिछड़ों के मामले में मीडिया के दोगले चरित्र से लोग वाकिफ हो चुके हैं. साहित्यकार जयप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं, राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तरके समाचार-पत्र राजनीति, अपराध समाचारों, आदि से भरे रहते हैं. रविवारीयपृष्ठों में भी दलित सवालों और रचनाओं को कोई स्थान नहीं मिल रहा. साहित्यके नाम पर सवर्णों के साक्षात्कार, कहानियां, कविताएं ही आती हैं. इनकेरविवारी, परिशिष्टों में बहुत से स्थानों पर ज्योतिष, वास्तुशास्त्र तथास्वास्थ्य चर्चाएं ही होती हैं. कुल मिलाकर मीडिया में दलित विमर्श गायब हैं (देखें-पुस्तकः दलितसाहित्य के यक्ष प्रश्न -डा.रामगोपाल भारतीय).
दलित साहित्यकार डा.पूरण सिंह मानते हैं कि मीडिया मेंदलित सवालों को उचित प्रतिनिधित्व मिलना तो दूर उन्हें गिना तक नहीं जाता.मीडिया, जिसे देश के विकास में चैथा स्तम्भ कहा जाता है, उसके मालिक सवर्णमानसिकता के लोग यह बिल्कुल स्वीकार नहीं करेंगे, जिन्होंने इस समाज कासदियों से शोषण, अपमान, तिरस्कार किया हो, उन्हें प्रतिनिधित्व दिया जाये ?’(देखें-पुस्तकः दलितसाहित्य के यक्ष प्रश्न -डा.रामगोपाल भारतीय).
भारतीय मीडिया में दलित आंदोलन को लेकर जो कुछ भी चल रहा है. वह अपर्याप्त है.शुरू से ही मीडिया ने दलित आंदोलन को नजरअंदाज किया है. इसकी वजह यह है किमीडिया द्विजों की है. ऐसे में उसका देखने का नजरिया अपना होता है. यहमानना है चर्चित कवि और दलित विमर्ष से जुड़े कैलाष दहिया का. वे कहते हैंदलित आंदोलन के नाम पर मीडिया अपनी दृष्टि सहानुभूति के तहत रखती है. जो भीकुछ दिखाया जाता है वह मात्र शोषण-उत्पीड़न तक ही सीमित रहता है. और इसमेंसहानुभूति का पुट दिखता है.
कभी भी द्विजों की यह मीडिया, दलित आंदोलन सेउपजे सवालों के जवाब को नहीं ढूंढती है ? सामाजिक व्यवस्था को द्विजसंचालित करते आये हैं, ऐसे में उनसे दलित आंदोलन के सकारात्मक पक्षों कोउठाने की उम्मीद नहीं की जा सकती. जो भी दलित आंदोलन के नाम पर मीडिया में आरहा है वह झूठमूठ का है और वह इसलिए भी दिखाया जाता है कि उसके आड़ में वेअपने अंदर के मुखौटे को छुपाते हैं. मीडिया नहीं बताती कि जिस दलित महिलाके साथ बलात्कार हुआ, शोषण हुआ, उसे करने वाला द्विज-क्षत्रिय-सांमत हैं.
कथाकार-आलोचक रामयतन यादव कहते है, मुख्य धारा की मीडिया में दलित आंदोलनको जगह नहीं मिली है. बड़े पत्रकार इस मुद्दे पर नहीं लिखते हैं. इसके पीछेवर्चस्व का खतरा है. मुख्य धारा की मीडिया पर काबिज लोग नहीं चाहते कि उनकेवर्चस्व पर आक्षेप आये. यह सब सामाजिक चिंतन के तहत होता है. इसके तहतदलित आंदोलन धारा को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते हैं इसके पीछे द्विज मानतेहैं कि लेखन-पठन का अधिकार केवल उनको ही है. दलित आंदोलन पर मीडिया कीदृष्टि के सवाल पर दलित विमर्श से जुड़े दलित और गैरदलित विशेषज्ञयों नेदलित आंदोलन के प्रति मीडिया की उदासीनता के पीछे उसके द्विज-सामंतीमानसिकता को दोषी ठहराया है.
सच है कि जनमत के निर्माण में पत्रकारिता की भूमिकाबहुत ही महत्वपूर्ण होती है. इसके बावजूद मीडिया जनपक्षी मुद्दों को लगातारनहीं उठाती. जहां तक दलित मुद्दों के पक्ष में जनमत निर्माण की बात है, तोमीडिया इसे छूने से कतराती है. इसका कारण यह भी हो सकता है कि मीडियासंस्थानों से दलितों का कम जुड़ाव का होना. कहते है मीडिया में दलित ढूंढ़तेरह जाओगें ? मीडिया पर हुए राष्ट्रीय सर्वेक्षण से साफ हो चुका है किभारतीय मीडिया में दलित और आदिवासी, फैसला लेने वाले पदों पर नहीं है.राष्ट्रीय मीडिया के 315 प्रमुख पदों पर एक भी दलित और आदिवासी नहीं है.
आरक्षण के सहारे कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिकाआदि में दलित आये लेकिन आज भी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र केचैथे खम्भे पर काबिज होने में दलित पीछे ही नहीं बल्कि बहुत पीछे हैं.आंकड़े गवाह हैं कि भारतीय मीडिया में वर्षों बाद आज भी दलित-पिछड़े हाषियेपर हैं. उनकी स्थिति सबसे खराब है. गिने चुने ही दलित मीडिया में हैं और वह भी उच्च पदों पर नहीं.
‘राष्ट्रीय मीडिया पर उंची जातियों का कब्जा’ के तहत सर्वे ने मीडिया जगत से जुड़े दिग्गजों की नींद उड़ा दी थी. आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला. किसी ने समर्थन में दलित-पिछड़ों को आगेलाने की पुरजोर शब्दों में वकालत की तो किसी ने यहाँ तक कह दिया कि भलाकिसने उन्हें मीडिया में आने से रोका है. मीडिया के दिग्गजों ने जातीयअसमानता को दरकिनार करते हुए योग्यता का ढोल पीटा और अपना गिरेबांन बचाने का प्रयास किया.
मीडिया स्टडी ग्रुप के सर्वे ने जो तथ्य सामने लायेहालांकि वह राष्ट्रीय पटल के हैं लेकिन कमोवेश वही हाल स्थानीय समाचार जगतका है जहां दलित-पिछडे़ खोजने से मिलेंगे. मीडिया के अलावा कई क्षेत्र हैंजहां अभी भी सामाजिक स्वरूप के तहत प्रतिनिधित्व करते हुए दलित-पिछड़ों कोनहीं देखा जा सकता है, खासकर दलित वर्ग को. आंकड़े बताते हैं कि देश की कुलजनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत होने के बावजूद उंची जातियों का, मीडियाहाउसों पर 71 प्रतिषत शीर्ष पदों पर कब्जा बना हुआ है. आंकड़े बताते हैं किकुल 49 प्रतिशत ब्राह्मण, 14 प्रतिषत कायस्थ, वैश्य /जैन व राजपूत सात-सातप्रतिशत, खत्री नौ, गैर द्विज उच्च जाति दो और अन्य पिछड़ी जाति चार प्रतिशतहै. इसमें दलित कहीं नहीं आते यानी ढूंढते रह जाओगे.
जहाँ तक सरकारी मीडिया का सवाल है तो इसमें अनुसूचितजाति/अनुसूचित जनजाति के लोग भारतीय सूचना सेवा के तहत विभिन्न सरकारी मीडिया में कार्यरत है. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के वेब साइट से प्राप्तआंकड़ों के अनुसार, सरकारी मीडिया के ग्रुप ‘ए’ में उच्चतर वर्ग से लेकर जूनियर वर्ग में लगभग आठ प्रतिषत अनुसूचित जाति के लोग हैं वहीं ग्रुप ’बी’ में लगभग 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति के हैं. सरकारी मीडिया में ग्रुप ‘ए’ और ग्रुप ‘बी’ की सेवा है, इनकी नियुक्ति रेडियो, दूरदर्शन, पी.आइ.बी.सहित अन्य सरकारी मीडिया में की जाती है. अनुसूचित जाति के लोगों कोमुख्यधारा में जोड़ने के मद्देनजर केन्द्र सरकार की नीतियों के तहत सरकारीमीडिया में तो दलित आ रहे हैं लेकिन निजी मीडिया में कोई प्रयास नहीं होनेकी वजह से दलित नहीं दिखते.
आंकड़े/सर्वे चैंकाते हैं, मीडिया के जाति पे्रम को लेकरपोल खोलते हैं प्रगतिशील बनने वालों का और उन पर सवाल भी दागते हैं . बिहारको ही लें, ‘‘मीडिया में हिस्सेदारी’’ के सवाल पर पत्रकार प्रमोद रंजन नेभी जाति पे्रम की पोल खोली. बिहार, मीडिया के मामले में काफी संवेदनशील वसचेत माना जाता है. लेकिन, यहां भी हाल राष्ट्रीय पटल जैसा ही है.
बिहार की राजधानी पटना में काम कर रहे मीडिया हाउसों में 87 प्रतिशत सवर्ण जाति केहैं. इसमें, ब्राह्यण 34, राजपूत 23, भूमिहार 14 एवं कायस्थ 16 प्रतिशतहैं. हिन्दू पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति, अशराफ मुसलमान और दलित समाज से आने वालेमात्र 13 प्रतिशतपत्रकार हैं . इसमें सबसे कमप्रतिशतदलितों का है. लगभग एक प्रतिशत ही दलित पत्रकार बिहार की मीडिया से जुड़े हैं. वह भी कोई उंचे पद पर नहीं हैं.
महिला सशक्तिकरण के इस युग में दलित महिला पत्रकार को ढूंढना होगा. बिहार के किसी मीडिया हाउस में दलित महिला पत्रकार नहीं केबराबर है. आंकड़े बताते हैं कि दलित महिला पत्रकारों का प्रतिशत शून्य हैजबकि पिछडे़-अति पिछड़े जाति की महिला पत्रकारों का प्रतिशत मात्र एक है.साफ है कि दलित-पिछड़े वर्ग के लोग पत्रकारिता पर हाशिये पर हैं . हालांकि सरकारी मीडिया में आकस्मिक तौर पर दलित पत्रकार जुड़े हैं लेकिन उनका भी प्रतिशत अभी भी सवर्ण जाति से बहुत कम है.
भारतीय परिदृश्य में अपना जाल फैला चुके सैटेलाइट चैनल यानी खबरिया चैनलों की स्थिति भी कमोवेश एक ही जैसी है. यहां भी कब्जा सवर्ण हिन्दू वर्ग का ही है. 90 प्रतिशत पदों पर सवर्ण काबिज हैं. हालांकि हिन्दू पिछड़ी जाति के सात प्रतिषत, अशराफ मुसलमान तीन एवं महिलाएं 10 प्रतिशत हैं यहां भी दलित, ढूंढते रह जाओगे. इसे देखते हुए इंडियाज न्यूज पेपर रिवोल्यूशन के लेखक और लंबे समय से भारतीय मीडिया पर शोध कर रहे राबिन जेफरी ने कहा कि भारतीय मीडिया जगत में टेलीवीजन ने भले ही सूचना क्रांति ला दी हो लेकिन उसके अपने अंदर सामाजिक क्रांति अभी तक नहीं आ पाई है. अब वक्त आ गया है कि टेलीवीजन के न्यूज रूम अपने अंदर बदलाव लायें और दलितों के लिए अपने दरवाजे खोल दें.
उन्होंने कहा कि भारतीय टेलीवीजन मीडिया को दलितों और अछूतों के लिए अपने न्यूजरूम के दरवाजे खोल देने चाहिए क्योंकि वहां उनकी संख्या बहुत कम है. 31 मार्च 2012 को दिल्ली मेंएडिटर्स गिल्ड द्वारा आयोजित डॉ राजेन्द्र प्रसाद माथुर व्याख्यानमाला में बोलते हुए श्री जेफरी ने कहा कि लंबे समय से दलितों के लिए मुख्यधारा कीमीडिया के दरवाजे बंद हैं. कमोबेश आज भी स्थिति वही बनी हुई है.
अपने अनुभवको स्रोताओं से साझा करते हुए श्री जेफरी ने कहा कि आज न्यूजरूम (टेलीवीजन) में भी यही स्थिति है. टेलीवीजन न्यूजरूम में संपादकीय स्तर परदलितों और आदिवासियों की उपस्थिति बढ़नी चाहिए. न्यूजरूम में दलितों कीउपस्थिति बढ़ाने के लिए उन्होंने तर्क दिया कि हर साल इस बारे में समीक्षा रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए और धीरे धीरे न्यूजरूम में दलितों की मौजूदगी बढ़ाने की दिशा में टेलीवीजन को काम करना चाहिए.(देखेंwww.visfot.com,01.04.2012)
दलित आंदोलन पर मीडिया की दृष्टि नहीं इसके पीछे यह भीब ड़ा कारण है कि मीडिया पर दलित नहीं है. इस पर वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर ने चिंता व्यक्त करते हुये अपने आलेख, ’मीडिया और सामाजिक गैरबराबरी’ में लिखा है कि जब अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़ी जातियां और इन वर्गोंकी महिलाएं बाढ़ के पानी की तरह मीडिया के हालों और कैबिनों में प्रवेश करेगी. सड़क पर जाकर रिपोर्टिंग करेगी तब मीडिया के सरोकारों में जरूर बदलाव आयेगा (देखें मीडिया और सामाजिक गैर बराबरी, राष्ट्रीय सहारा, 15.8.2006). राजकिशोर जी की यह बात वाजिब है कि मीडिया में जब स्थान मिलेगा तब दलित पक्षीय सवालों को अनदेखी करना संभव नहीं हो पायेगा.
समाज का बड़ा तबका दलित-पिछड़ों का है. इनके आंदोलन को मीडिया तरजीह नहीं देती है. मसला आरक्षण का हो या फिर शोषण-उत्पीड़न का मीडिया में जगह मात्र साहनुभूति के तहत दीजाती है कभी भी उसके पीछे के तत्वों को ढूंढने की कोशिश मीडिया नहीं करतीहै. क्योंकि वह जातीय लबादे से बाहर निकल नहीं पायी है. डा. महीप सिंहकहते है कि अखबारों के संपादक और संपादकीय विभाग में ब्राह्यणों का वर्चस्वहै या कायस्थें का. दलित या दूसरे पिछड़े वर्गों के लोगों की भागीदारी न केबराबर है. ऐसी स्थिति में वर्गों और जातियों की अपनी मानसिकता सारीपत्रकारिता के तेवर को प्रभावित तो करेगी ही.(देखें-दलित पत्रकारिता:मूल्यांकन और मृद्दे/रूपचन्द गौतम-पृष्ठ 143)
देश की एक चैथाई जनसंख्या दलितों की है और सबसे ज्यादा उपेक्षित और पीड़ित शोषित वर्ग है. आजादी के कई वर्षों बाद भी इनकी स्थितिमें कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है. अत्याचार की घटनाएं बढ़ ही रही है. कहनेके लिये कानूनी तौर पर कई कानून हैं. फिर भी घटनाएं घट रही हैं और वेघटनाएं मीडिया में उचित स्थान नहीं पा पाती. क्योंकि मीडिया, पूंजीपतियोंकी गोद में खेल रही है. गणेष दत्त विद्यार्थी ने अखबार ‘प्रताप’ में लिखाथा कि, ’’पत्रकारिता को अमीरों की सलाहकार और गरीबों की मददगार होनीचाहिये’’.
लेकिन हालात बदल चुके हैं आज के पत्रकारों ने इस मूलमंत्र को व्यवसायिकता के पैरो तले रौंद दिया है. मीडिया द्वारा दलित आंदोलन कोनजरअंदाज करने को लेकर इधर तेजी से यह बात उठने लगी है कि दलितों को अपनीबात आम-खास जनता तक पहुंचाने के लिए एक अदद समानान्तर मीडिया की जरूरत है.अगर ऐसा होता है तो इस दिशा में एक सकारात्मक पहल होगी और दलित आंदोलन केमुद्दे वास्व में सामने आ सकेंगे. क्योंकि मीडिया के चरित्र से हर कोईवाकिफ है. कुछ कहने की आवश्यकता नहीं.
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