शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

नमो की प्रयोगशाला में मुलायम का दांव

नमो की प्रयोगशाला में मुलायम का दांव

मुज़फ्फरनगर दंगे का महत्वपूर्ण विश्लेषण
मोदी को भाजपा का उम्मीदवार बनाया ही इसलिए जा रहा है कि वे भारत में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण का माहौल तैयार करें. अगर यह उम्मीद खरी उतरती है तो मोदी को नापसन्द करने वाले सभी हिस्सों के वोटों का कांग्रेस की ओर जाना तय है. ऐसे में सपा समानान्तर साम्प्रदायिक राजनीति करते हुए मुस्लिम वोटों पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है...
रेड ट्यूलिप्स. पिछले एक सप्ताह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले और उनके समीपवर्ती जिलों के ग्रामीण अंचल साम्प्रदायिक तनाव और दंगे की आग में झुलस रहे हैं. इस दंगे में अबतक 40 लोगों के मारे जाने की पुष्टि हो चुकी है. इसके अलावा सैकड़ों लोगों के घायल होने और हजारों की संख्या में ग्रामीणों के पलायन की खबर है. गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार, मरने वालों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है. यदि अफवाहों को दरकिनार करें, तब भी मरने वालों की वास्तविक संख्या अधिक होना लाजिमी है क्योंकि कई अस्पतालों में अभी भी शव शिनाख्त के लिए रखे हुए हैं और दूरदराज के अंचलों से सही स्थिति की जानकारी स्थिति सामान्य होने के बाद ही प्राप्त हो सकती है.
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यह दंगा एक साजिश का परिणाम है, जिसकी परतें अब धीरे धीरे खुल कर सामने आ रही हैं. चुनावबाज राजनीतिक दलों ने अपने क्षूद्र चुनावी हितों के लिए पूरी मिलीभगत के साथ इस इलाके के सामाजिक सदभाव को सुनियोजित तरीके से खराब किया है और परम्परा से प्राप्त सामाजिक ताने-बाने को तार तार कर दिया है. सबसे चिन्ता की बात यह है कि दूरदराज के ग्रामीण अंचल, जहाँ साम्प्रदायिकता की पहुँच नहीं थी और लोग पारम्परिक सामन्ती रिश्तों में जीते थे, वे इलाके भी इस आग की चपेट में आ गये हैं.
देश के इस अपेक्षाकृत सम्पन्न ग्रामीण इलाके को जो नुकसान पहुँचा है, उसकी भरपाई आने वाले लम्बे समय में भी मुमकिन नहीं हो पाएगी.
तमाम राजनीतिक प्रेक्षकों ने आसन्न चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दलों द्वारा सामाजिक सदभाव खराब किये जाने की आशंका जताई थी. अब ऐसा लग रहा है कि पूरा घटनाक्रम उसी आशंका के अनुरूप एक के बाद एक घटित होता गया है. निश्चित तौर पर हर चुनाव के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषांगिक संगठन सामाजिक सदभाव को बिगाडऩे का प्रयास करते रहे हैं.
इस तरह उनके और उनकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी द्वारा यदि ऐसी कार्रवाईयाँ की जाएँ, जिससे सामाजिक सदभाव खराब हो और धर्म के आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिले तो यह कतई आश्चर्य की बात नहीं है.
लेकिन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सपा सरकार, जोकि सुबह शाम धर्मनिरपेक्षता की शपथ खाने का कोई मौका नहीं चूकती, पूरे घटनाक्रम में उसकी भूमिका भी यदि संघी संगठनों से अधिक घिनौनी नहीं, तो कम घिनौनी भी नहीं है. अगर कोई निष्पक्ष प्रेक्षक भी घटनाक्रम पर नजर डाले, तो उससे यह बात छिपी नहीं रहेगी कि सपा सरकार ने संघ परिवार के घटकों द्वारा माहौल बिगाडऩे की साजिश में प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही तरह से हिस्सेदारी की.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर का यह इलाका सरकारी आँकड़ों के लिहाज से भी अपराध बहुल इलाका माना जाता है. यहाँ अपराध की दर उत्तर प्रदेश के कई जिलों से बहुत अधिक है. इसके अलावा इस इलाके को इसलिए भी संवेदनशील समझा जाना चाहिए कि यहाँ तीन अलग-अलग समुदायों- मुसलमानों, दलितों और सवर्ण हिंदुओं की संख्या करीब करीब एक दूसरे के आसपास है.
इस इलाके में जातीय उत्पीडऩ, महिलाओं के खिलाफ अपराध और गुटों की लड़ाई आदि का इतिहास तो रहा है, लेकिन सीधे सीधे साम्प्रदायिक बँटवारे या हिंसा का इतिहास नहीं रहा है. इसका एक कारण यह है कि हिन्दूओं की तीन प्रभावशाली जातियाँ जाट, गुर्जर और त्यागी मुसलमानों में भी पाई जाती हैं.
मुसलमानों में इन जातियों की सामाजिक पहचान भी उसी तरह की है, जैसी कि समकक्ष हिन्दू जातियों की है. त्यागी और तगे, जाट और मुले जाट इसके पहले तक एक दूसरे के सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल होते रहे हैं और चुनावों में एक साथ वोट डालते रहे हैं.
ये जातियाँ चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, दलितों के उत्पीडऩ के मामले में एक हो जाती थीं और इनके द्वारा दलितों के उत्पीडऩ की घटनाएँ न केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बल्कि हरियाणा तक में आम हैं. दरअसल, इन जातियों के बीच के तफरके में वर्गीय अन्तर्वस्तु है. ज्यादातर जाट, गुर्जर वगैरह चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, वे ही जमीनों के मालिक हैं. जबकि, दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों की बहुसंख्यक आबादी भूमिहीन है और उनके खेतों में काम करने के लिए बाध्य रही है.
इसी संरचना के चलते संघ परिवार के संगठनों की अभी तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खास दाल नहीं गली. अपनी इस परेशानी के चलते वे एक लम्बे समय से बहुत ही सुनियोजित तरीके से इस इलाके में सामाजिक सदभाव बिगाडने का प्रयास कर रहे हैं. उनके इसी प्रयास का परिणाम है मुजफ्फरनगर और उसके आसपास के इलाकों का यह दंगा.
‘द हिंदू’ के 11 सितम्बर में उसके संवाददाता ने लिखा है कि किस तरह विश्व हिंदू परिषद के पदाधिकारी यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश को तथाकथित ‘लव जेहाद’ से मुकाबला करने के लिए एक प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया है. जब भी चुनाव नजदीक आता है ये संगठन अपने इन अभियानों को और तेज कर देते हैं और जल्दी से जल्दी परिणाम प्राप्त करने की कोशिश करते हैं. इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया.
मुजफ्फरनगर जिले के कवाल गाँव में घटी 27 अगस्त की घटना, जिसकी आग में घी डालकर इस दंगे को भड़काया गया, ऐसी थी जो इस इलाके में प्राय: घटती ही रहती है. इस घटना के भी दो विवरण प्राप्त हो रहे हैं. एक के अनुसार, एक लड़की से छेडख़ानी को लेकर दो गुटों में मारपीट हुई, जिसमें पहले एक पक्ष का लड़का मारा गया, बाद में दूसरे पक्ष के लड़के को घेर कर मार दिया गया.
दूसरे विवरण के अनुसार, इन दोनों पक्षों के बीच हाथापाई दरअसल, मोटर साईकिल भिडऩे को लेकर शुरू हुई. स्थानीय प्रशासन ने इस घटना को अगले दिन नियन्त्रित कर लिया था और उस पर तबतक कोई साम्प्रदायिक रंग नहीं चढ़ा था. लेकिन उनकी सख्ती के चलते डीएम और एसएसपी का दूसरे दिन ही तबादला कर दिया गया.
लेकिन संघ के संगठनों ने इस घटना को हिन्दू बहू-बेटियों की इज्जत पर हमले के रूप में प्रचार किया और घृणा को भड़काया. भाजपा के एक स्थानीय विधायक ने फेसबुक के जरिये हिन्दूओं पर हो रहे अत्याचार के रूप में एक ऐसे वीडियो का वितरण किया, जो सरासर झूठा था. जैसा कि बाद में पता चला, यह सियालकोट या ऐसे ही किसी विदेशी जगह पर दो साल पहले फिल्माया गया वीडियो था. बाद में जब फेसबुक से इस वीडियो को हटा दिया गया, तो इसका सीडी बना-बनाकर और मोबाइल फोनों के माध्यम से गाँव गाँव पहुँचाया गया.
भारतीय किसान यूनियन ने भी इस काम में संघ परिवार के संगठनों की बढ़-चढ़कर मदद की. कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस महेन्द्र सिंह टिकैत ने एक समय में, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों को एकजुट किया था और न्यायसंगत माँगों पर एक यादगार लड़ाई लड़ी गई, उनके सुपुत्र राकेश टिकैत उस पंचायत के मंच पर उपस्थित थे, जहाँ से सिर्फ घृणा का प्रचार किया जा रहा था.
इसके बाद तीन पंचायतें आयोजित हुईं, जिनमें से अन्तिम पंचायत नगला मधोक गाँव में हुई, जो ‘बहू बेटी बचाओ’ पंचायत थी. इसमें न केवल भाजपा के चार विधायक बल्कि एक पूर्व बसपा सांसद, एक पूर्व कांग्रेसी सांसद और कांग्रेस एवं रालोद के कई स्थानीय नेता तथा राकेश टिकैत के नेतृत्व में भाकियू के नेता मौजूद थे.
इस पंचायत में एक लाख से भी ज्यादा संख्या में हिंदू, जिसमें बहुसंख्या जाटों की थी, हथियारबन्द होकर शामिल हुए. ये लोग असलहों के साथ हल्ला-दंगा करते हुए ट्रैक्टर ट्रालियों पर सवार होकर मुसलमान और मिश्रित आबादी वाले गाँवों के बीच से होते हुए नंगला मधोक पहुँचे थे. इस घटना ने पूरे मामले को साम्प्रदायिक रंग देने में जो कोर कसर बाकी थी उसे पूरी कर दी. पंचायत के बाद जब यह हुजूम वापस लौटने लगा, तो कई इलाकों में मारकाट की शुरुआत हो चुकी थी.
हालांकि यह सब इसलिए हुआ कि प्रशासन ने धारा 144 लगाने के बावजूद वहाँ पर उसका उल्लन्घन करते हुए पंचायत करने की इजाजत दी. इस तरह की सिर्फ एक नहीं, बल्कि तीन पंचायतें हुईं. राज्य सरकार ने सख्ती करने वाले प्रशासकों का तबादला कर दिया और उसकी जगह पर ऐसे लोग लाए गए जो इन कार्यक्रमों को संपन्न होने देने की इजाजत दें.
दरअसल, लखनऊ की सरकार भी यही चाहती थी कि हिन्दू सामप्रदायिक शक्तियाँ कुछ ऐसे कारण मुहैया करें जिससे वोटों का ध्रुवीकरण हो और उन्हें उसका परोक्ष लाभ मुसलमान वोटों के रूप में प्राप्त हो. इसीलिए पिछले दो तीन महीनों से उत्तर प्रदेश की सरकार की कार्रवाईयाँ आग में घी डालने के ही समान रहीं.
चाहे विहिप आयोजित नकली चौरासी कोसी परिक्रमा पर रोक लगाने की बात हो या दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित करने का मामला, हर समय उसकी चिन्ता मुस्लिम वोटों पर गिरफ्त पक्की करने की रही है. विहिप की यह तथाकथित चौरासी कोसी परिक्रमा, जिसके बारे में सभी प्रेक्षकों का यही अनुमान था कि यह खानापूर्ति से आगे नहीं बढ़ पाएगी और टाँय-टाँय फिस्स हो जाएगी, सिर्फ इसलिए चर्चा में आयी कि अखिलेश सरकार ने उस पर रोक लगाने के लिए पूरी ताकत लगा दी. उसके बाद से ही लगातार सपा सरकार इसी कोशिश में लगी हुई है कि कहीं साम्प्रदायिक आग जले, तो दूसरे की लगाई आग में वह भी अपनी रोटी सेंक ले.
भाजपा तो भाजपा ही है और इसका नाभिनाल भारत के सबसे प्रतिक्रियावादी संगठन आरएसएस से जुड़ा हुआ है, इसीलिए इससे कुछ अच्छे की उम्मीद नहीं की जा सकती. जब अमित शाह को इसका उत्तर प्रदेश का प्रभारी घोषित किया गया, तो यह सबकुछ होना ही था. लेकिन एक ऐसा संगठन जो लोहिया का दम भरते नहीं अघाता, अगर लाशों के ढेर पर अपनी चुनावी राजनीति करने पर उतर आए तो यही कहना पड़ेगा कि भारत के सभी चुनावबाज पार्टियाँ आज पतन की एक ही गर्त में उतर चुकी हैं.
क्षूद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए वह गन्दा से गन्दा खेल खेलने के लिए तैयार हैं. दरअसल, जब से नरेन्द्र मोदी को भाजपा के प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने की कवायद शुरू हुई है, तभी से वोटों के ध्रुवीकरण का खेल तेज हो गया है. मोदी को भाजपा का उम्मीदवार बनाया ही इसलिए जा रहा है कि वे गुजरात की तर्ज पर पूरे भारत में हिन्दू वोटों के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का माहौल तैयार करें. अगर यह उम्मीद खरी उतरती है, तो मोदी को नापसन्द करने वाले सभी हिस्सों के वोटों का कांग्रेस की ओर जाना तय है. ऐसे में सपा की चिन्ता यह है कि कहीं उसके वोट बैंक में सेंध न लग जाए, इसीलिए वह समानान्तर साम्प्रदायिक राजनीति करते हुए मुस्लिम वोटों पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है.
मोदी के उभार के पीछे न केवल संघ परिवार का हाथ है, बल्कि भारतीय कॉरपोरेट जगत के एक बड़े हिस्से का प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग और समर्थन भी है. पूँजीपति वर्ग का यह हिस्सा समझता है कि मोदी ने गुजरात में उद्योग जगत के लिए जैसा अनुकूल वातावरण पैदा किया है, वही चीज वह पूरे भारत के पैमाने पर दुहराया जाएगा.
आज भारतीय अर्थव्यस्था जिस संकट से गुजर रही है, उसका असर पूँजीपतियों के मुनाफे पर पड़ा है और उनकी यह चाहत है कि दो साल पहले की ऊँचे विकासदर को बरकरार रखा जाए. वे समझते हैं कि मोदी अपने श्रम विरोधी और दमनकारी उपायों के द्वारा उनके इस ख्वाब को पूरा कर सकते हैं.
लेकिन पूँजीपतियों की इस गणित में सपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियों का कोई हिसाब नहीं है. कांग्रेस और भाजपा के बीच जितना तीखा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही नुकसान होगा. अत: इसकी काट के लिए सपा ने भाजपा के साथ परस्पर लाभ के लिहाज से एक मिलीभगत कायम कर ली है और इसी मिलीभगत का परिणाम है पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंजाम दिया जा रहा दंगों का घिनौना खेल.
दोनों की मिलीभगत का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि भाजपा के सभी नेता जिन्हें इन दंगों को भड़काने के लिए सपा सरकार ने संगीन धाराओं के अन्तर्गत नामजद किया है, न केवल छुट्टा घूम रहे है बल्कि टीवी चैनलों के स्टूडियो में बैठकर अपना प्रचार कर रहे हैं.
यदि हम जनता की लाशों पर राजनीति किये जाने के विरोधी हैं, समुदायों के बीच सदियों में कायम किए गए ताने बाने को तार तार किए जाने के विरोधी हैं, हर तरह की साम्प्रदायिक हिंसा के विरोधी हैं, तो हमें पूँजीवादी राजनीति का विरोध करना चाहिए. जनता के वास्तविक सरोकारों से लगातार दूर जाती हुई चुनावबाज राजनीति आज जिस गड्ढे में गिर चुकी है, उसे उससे बाहर नहीं निकाला जा सकता.
इस गन्दगी की सफाई किसी भी झाड़ू से मुमकिन नहीं है. इसका केवल एक समाधान है, कि पूँजीवादी राजनीति और उसको पनाह देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था, एक साथ दोनों का बेड़ा गर्क कर दिया जाए.

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