गरीबी का इलाज मुट्ठी भर दाना नही है। |
जावेद उस्मानी
भूख और गरीबी राष्ट्रीय चिंता का विषय है। इस बीमारी से मुक्ति के लिए लंबे अर्से से प्रयास जारी है लेकिन जमीनी उपायों के अभाव में यह समस्या मंहगार्इ की तरह दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। भूख एक अति संवेदनशील मसला है जिसके मूल में गरीबी है। बिना गरीबी मिटे भूख का निदान संभव नहीं है लेकिन जड़ के उपचार के कमजोर उपायों के कारण है खाली पेट और कुपोषण की समस्या है। सर्वाधिक भूखे और गरीब देश में भारत उपरी क्रम पर है। संख्यात्मक दृषिट से यहां सबसे ज्यादा गरीब हैं। संसार के सर्वाधिक भूखे 119 देशो की सूची में भारत 94 वें व कन्र्सन वल्र्ड वाइल्ड के द्वारा घोषित सबसे ज्यादा भूखो वाले 79 देशो की सूची में 65 वे क्रम पर और मानव विकास सूचकांक के 164 देशाें की सूची में 119 वें क्रम पर है।संयुक्त राष्ट्र संघ के राष्ट्र विकास कार्यक्रम के द्वारा कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार भारत में आय, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित मानव विकास के बंटवारे भारी असमानता है। भारत, जी 33 का गरीब सदस्य देश है, प्रति व्यकित आय में 142 वें क्रम पर है। एक आंकलन के अनुसार वार्षिक औसत आमदनी 1219 डालर बैठती है जबकि औसत खर्च 3608 यू एस डालर है आमद और खर्च में भारी अंतर से साफ है कि लोग कैसे कर्ज पर गुजारा कर रहे है। सबसे ज्यादा आबादी वाले देश चीन और भारत संसार की उभरती हुर्इ आर्थिक शक्ति है । जनसंख्या के अनुपात में गरीबी भी है लेकिन जहां चीन में गरीबी के अंतर्राष्ट्रीय मानक 1.25 डालर से नीचे जीने वाली आबादी 13 फीसदी है वही भारत में 32.67 प्रतिशत है। 2 डालर से कम आय वाले चीन मे 29 फीसदी और भारत में 68.72 प्रतिशत है।
डालर के मुकाबले रुपये का अमूल्यन व मंहगार्इ और गरीबी को देखते हुए राष्ट्रीय खाध सुरक्षा महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। इसका दायरा विस्तृत है। अत: लोगो की इसमें दिलचस्पी है। लिहाजा सड़क से सदन तक खाध सुरक्षा बिल के नफे नुकसान को आंका जा रहा है। इसके दो हिस्से हैं, पहला भाग राजनीति और दूसरा यथार्थ से जुड़ा हुआ है। राजनैतिक हिस्सा तत्कालिक राहत और फायदे का है। सियासी कथनी और करनी में मतलबपरस्ती का पुट है। वही यथार्थवादी आंकलन में तथ्य व सत्य का दर्द और मुक्ति की छटपटाहट है, लेकिन मोटे तौर पर इसके लागू होने कम से कम ब्रिटिश काल के बंगाल दुर्भिक्ष, आजादी के बाद साठ के दशक का अकाल और अस्सी के दशक में उड़ीसा के कालाहांडी,बलांगीर का सूखा जैसे अन्न संकट के विरुद्व अन्न की न्यूनतम गांरंटी होगी । जिस गरीबी के नाम पर ऐसे कानून की नौबत आयी है, उसके निदान पर गहरी रहस्यमयी राजनैतिक चुप्पी है।
निर्धनों की दयनीय सिथति के मददे नजर राहत की मंशा से बना हालिया खाध सुरक्षा कानून खासी चर्चा में हैं लेकिन इस मानवीय मसले की संवेदनशीलता को देखते हुए जिस तरह के उपायों की जरुरत है उस पर यह योजना कितनी खरी है यह कहना मुहाल है।योजना के अंतर्गत एपीएल, बीपीएल, एएवाय राशन कार्डधारी को बिना भेद भाव के 5 किलो चावल, गेहू, मोटा अनाज रसद के तौर पर मिलेगा। सरकार के अनुसार इस योजना का लाभ 67 फीसदी आबादी यानि करीब 83 करोड़ लोगों को मिलना है। जिसमें 50 फीसदी शहरी और 70 प्रतिशत ग्रामीण हैं । सस्ता राशन आबंटन के लिए चालू वित्तीय वर्ष मे 6.20 लाख टन अनाज की जरुरत आंकी गयी है व योजना कि्रयान्वयन के लिए 124 743 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है जो मोटे तौर पर हितग्राही के पीछे करीब 1502.68 रुपया साल यानि लगभग 125.16 रुपया महीना करीब 4.16 रुपया रोज बैठता है। परिवार का मानक 5 सदस्य हैं। इस हिसाब से कार्डधारक परिवार को अधिकतम 25 किलो रियायती अन्न प्रति माह मिलेगा। एक हितग्राही के हिस्से में 5 किलो रियायती अनाज है यानि 166 ग्राम अन्न प्रतिदिन के लिए मिलना है। सस्ते अनाज में सबसे ज्यादा मूल्य चावल का है यह 3 रुपये प्रति किलो है। निर्धारित मात्रा के लिए ,खाधान्न जिंस के अनुसार चावल पर 15 रुपया, मोटा अनाज पर 5 रुपये और गेहंू पर 10 रुपया मासिक देना है। साल में एक व्यकित को साठ किलो राशन मिलेगा यानि एक पांच सदस्यीय परिवार को 75 रुपये मासिक के हिसाब से 900 रुपये का चावल, 600रुपये का गेहू और 125 रुपये का मोटा अनाज मिलेगा। सरकार का ख्याल है कि गरीबो को मिला खाध राहत मसौदा संपूर्ण है। विपक्ष इससे पूरी तरह सहमत नही है, वह इसके प्रावधानो में संशोधन के पक्ष में है लेकिन समूची बहस महज पांच किलो सात किलो तक सीमित है।
खाध सुरक्षा योजना से भयावह गरीबी साफ दिखती है गुरबत का आकड़ा दिल हिला देने वाला है लेकिन गरीबी और भूखमरी पर लटके झटके वाली चर्चा के चलते असली मुददा हाशिये पर है। गरीबी मिटाने के लिए ठोस बुनियादि पहल की जरुरत है लेकिन उसके बजाए सतही राजनीतिक कवायद है। सियासतदानो को निर्धनवर्ग को वोट बैक बनाने की फिक्र ज्यादा है। छत्तीसगढ़,असम, झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र, पशिचमी बंगाल , मध्यप्रदेश, जैसे अत्याधिक कुपोषित राज्य है। झारखंड,छत्तीसगढ., मध्यप्रदेश, बिहार,गुजरात सहित कर्इ अन्य राज्यो में भूख या अति गरीबी के चलते हुर्इ अकाल मृत्यु पर कर्इ बार हंगामा हो चुका है। भूख से बचने के लिए अविभाजित मघ्यप्रदेश के सरगुजा जिला के एक आदिवासी परिवार द्वारा बंदर मांस का भक्षण और बिहार में चूहा खाये जाने की घटना व्यापक चर्चा का विषय रहा है। आये दिन भूख और गरीबी से तंग आकर जान देना आम है। इस सिथति के निर्माण के लिए आर्थिक असमानता और बेतहाशा बढ़ती आबादी मुख्य कारक है। व्याप्त गरीबी का कारण जनसंख्या वृद्धि भी है। आजादी के बाद सबसे ज्यादा तरक्की इसी क्षेत्र मे हुर्इ है। स्वतंत्रता मिलने के समय जनसंख्या 33 करोड़ थी सन 2011 में बढ़कर सवा अरब हो गयी यानि छ: दशक में आबादी करीब 92 करोड़ बढ़ी है। जनसंख्या की तुलना में सम्मान जनक जीवन व्यतीत करने के योग्य संसाधन नहीं विकसित हुए है। ऐसा क्यूँ हुआ इसका अपना अलग इतिहास है जो लंबी बहस का विषय है, लेकिन ये बीती बातें है, वर्तमान में जो हालात बने है उसे देखते हुए ‘बीती ताहि बिसार दे आगे की सुिध ले’ की जरुरत है। ‘जब आंख खुले तब सवेरा ‘ की तर्ज पर अभी भी कानून द्वारा जनसंख्या नियंत्रण गरीबी कम करने का एक प्रभावी उपाय हो सकता है। चीन जैसे बड़ी आबादी वाले देश ने भविष्य के संकट की पहचान बहुत पहले कर ली थी और कड़ार्इ के साथ “हम एक और हमारा एक” का फॉर्मूला अपनाया था ,परिणाम स्वरुप वह हमसे कुछ बेहतर सिथति में है अन्यथा आज चीन दरिद्रता का सबसे बड़ा महासागर होता।
हमारे यहां अकेले जनसंख्या वृद्धि दुर्दशा की एकमात्र वजह नही है। गरीबी का दूसरा बड़ा कारण आर्थिक गैर बराबरी है। नीतिगत खामियों के चलते पंूजी मुट्ठी` भर घरानों में कैद है। सुविधा भोगी 0.3 प्रतिशत लोगो पर सकल उत्पाद का 7.5 प्रतिशत खर्च है। इससे गरीबो के उत्थान की योजनाओं को जो रफ्तार मिलनी चाहिए वह नहीं मिलती है। कारपोरेट जगत, अमीरी के अर्थशास्त्र के चलते खाध सुरक्षा सबिसडी भौ सिकोड़े हुए हैं। गौर तलब है कि इस वर्ग को 2005 से 2011 के बीच महज छ: साल में 32 लाख करोड़ के टेक्स की छूट मिली है इसकी तुलना में सन 2010-11 में अन्न योजनाओ पर सबिसडी 65 हजार करोड़ थी। एफ एस ए के तहत सबिसडी 83 करोड़ लोगो के लिए है जबकि उससे कर्इ गुना ज्यादा की कर माफी का लाभ उठाने वालो की तदाद लाखो में भी नही हैं। इसी तरह जी 33 के देशो को, उच्च स्तरीय विलासिता और महानगरीय सुविधाओ पर खर्च व भंडारन के अभाव में खराब हो चुके अनाज को समुद्र में बहाने या नष्ट करने पर कोर्इ एतराज नही है लेकिन वह भी गरीबो को दी जाने वाली सबिसडी के खिलाफ है।
सरकार के अनुसार खाध सुरक्षा पर सकल जी डी पी का एक प्रतिशत व्यय है जबकि अर्थशासि़त्रयो के अनुसार सकल व्यय 3 फीसदी है। विकास योजनाओ में भी हिस्सेदारी संगठित ताकत के अनुपात में है। शहरी विशेषकर महानगरीय विकास और ग्रामीण विकास कार्यक्रम में भारी अंतर है। गांवो की अपेक्षा शहरों में गरीबी कम है। झारखंड देश का एकमात्र राज्य है जहां गांवो की तुलना में शहरो में निर्धन ज्यादा है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि गांवो में कम है हमारे यहां सकल आय आधारित औसत आय होती है धनकुबेर और लाचार दोनो की आमदनी के जोड़ कर भाग देने पर आया फल औसत आय है एशिया विकास बैंक द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अनुसार भारत के 50 अरबपतियो के पास जी पी डी का 22 प्रतिशत धन और शेयर बाजार में 80 फीसदी हिस्सा है। अत: प्रति व्यकित प्रतिवर्ष औसत आय का व्यकितगत अमीरी और गरीबी कोर्इ सटीक संबंध नही है।
तीसरी बड़ी बाधा गरीबी की कोर्इ सुनिशिचत परिभाषा का नहीं होना है। दुनिया में निर्धनता को अलग अलग तरीके से परिभाषित किया गया है। इसलिए गरीबी तय करने का कोर्इ तयशुदा मानक भी नही है इस सिथति में विवाद स्वाभाविक है। दरअसल सबसे पहले गरीबी तय करने के आधार और उसके मुख्य तत्व पर क्या होना चाहिए? मानव जीवन की न्यूनतम आवश्यकता को चिàति किये बिना भूखमरी और गरीबी से बचाव के लिए नीति का निर्माण अव्यवहारिक है। मोटे तौर पर भेाजन, शिक्षा, दवा, कपड़ा, पीने का साफ पानी, हवा, आवास, प्रकाश, स्वच्छता इंसानी जिदगी की बुनियादी जरुरत है। लेकिन इनका भी सुस्पष्ट मानक नहीं है। आदमी के लिए सम्मान जनक जीवन स्तर का मानक तय किये बिना, किये जा रहे उपाय सफलीभूत नहीं हो सकते है। गरीबी राजशाही के काल में भी चिंता का विषय रही है। आजादी के पहले बि्रटिश काल में नेहरु समिति (1936) ने भोजन, कपड़ा, आवास मानव की अनिवार्य आवश्यकता मानते हुए प्रति व्यकित के लिए प्रतिदिन 2400-2800 कैलोरी का संतुलित भोजन, प्रति वर्ष 30 गज कपड़ा, रहने के लिए प्रति वयस्क व्यकित पीछे 100 फुट जमीन का आकंलन किया था और इसे मानक के रुप में अपनाये जाने पर जोर दिया था । कोपेन हेगन सामाजिक विकास शिखर सम्मेलन 1995 ने भोजन, स्वच्छ पेय जल,शौचालय,स्वास्थ्य आवास, शिक्षा व अन्य बुनियादि सुविधाएं जिसमें रोजमर्रा इस्तेमाल की घरेलू चीजें शामिल है मानव के लिए जरुरी बताया माना है। वल्र्ड बैंक 1.25 यू.एस. डालर रोज से कम आय वाले को गरीब मानता है यू.एन. का मानक भी यही है। इस हिसाब से करीब अस्सी रुपया गरीबी की सीमा रेखा होनी चाहिए वल्र्ड बैक के अनुसार 1.25 डालर रोज से कम कमाने वाला गरीबी सीमा रेखा के नीचे है। किंतु हमारे यहां इनमें से एक भी फॉर्मूला लागू नही है। इस विषय पर सबकी राय अलग अलग है। मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया के अनुसार एक स्वस्थ्य व्यकित के लिए 2800 से 3200 कैलोरी का भोजन जरुरी है लेकिन कृषि मंत्रालय के आंकलन के अनुसार प्रति व्यकित औसत खपत 9.8 किलो है। चालू दशक में गरीबी तय करने के लिए बनी समितियाें की मत एक दूसरे से भिन्न है। गरीबी के आंकलन के लिए कमोबेश एक ही काल में बनी अजर्ुन सेन गुप्ता, एन. सी. सक्सेना और तेंदूलकर कमेटी के आंकलन की विधि और नजरिया अलग अलग है। अजर्ुन सेन गुप्ता कमेटी का गरीबी तय करने का आधार आमदनी है तो तेंदूलकर समिति ने खर्च को आधार बनाया है । सक्सेना कमेटी की रेखा इन दोनों के निष्कर्ष से अलग है। सेनगुप्ता कमेटी के अनुसार 20 रुपये रोज से कम कमाने वाले गरीब है तो तेदुलकर कमेटी ने 2005 में 19.30 पैसे कम कमाने वालो को गरीब बताया। गरीबो की संख्या भी विरोधा भाषी है। अजर्ुन सेन गुप्ता 77 फीसदी लोगो को गरीबी मानते है, एन सी सक्सेना आधी आबादी को गरीब बताते है तो तेंदूलकर कमेटी के अनुसार 37.5 प्रतिशत लोग गरीबी सीमा के नीचे है। सरकार का नजरिया इससे भिन्न है उसके अनुसार 27.5 प्रतिशत लोग गरीब है। वल्र्ड बैंक के आंकलन के अनुसार 41.6 फीसदी लोग गरीबी सीमा रेखा के नीचे है। योजना आयोग ने तेदूलकर समिति के खर्च शाकित के सूत्र पर निर्धनता की रेखा तय की है । गरीबी की नयी परिभाषा के अनुसार 27.20 रुपये रोज कमाने वाले ग्रामीण और 33.20 रुपये प्रतिदिन आमदनी वाला शहरी गरीबी रेखा के नीचे नहीं है, यानि 816 रुपया मासिक आमदनी वाला ग्रामीण और 1000 रुपया महीना वाला शहरी गरीब नही है। बने खाध सुरक्षा कानून में भी गरीबो को अति गरीब(ए ए वाय)गरीबी सीमा के नीचे रहने वाले( बी पी एल) शाही गरीब(ए पी एल) में बाटा गया है।
निर्धन को भूख और कुपोषण से बचाने के लिए पूरी दुनिया में कोशिश हो रही है। मोटे तौर पर 2 अरब लोग खादय सुरक्षा योजना के तहत मिलने वाले रियायती या निशुल्क अन्न के सहारे है। दुनिया के करीब 85 करोड़ अति गरीब पूरी तरह से इस पर आश्रित हैं। भूख को लेकर अतंराष्ट्रीय परिदृश्य का भी दबाब है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार भोजन हर व्यकित का अधिकार है लेकिन इस बुनियादि शर्त से सहमत होने के बाबजूद भी अपने तीर और निशाने है। कर्इ विकसित देशो ने आर्थिक, सामरिक व तकनीकी सहयोग से इसे जोड़ दिया है। मंशा चाहे जो हो गरीबी की भयावहता को देखते हुए खाध सुंरक्षा कानून समय की मानवीय मांग है। भारत में, उससे लड़ने के लिए जनसंख्या नियंत्रण और गैरबराबरी को समाप्त करने और गरीबी या सम्मान जनक जीवन का मानक तय करने की जरुरत भी उतनी ही है जितनी राष्ट्रीय खाध सुरक्षा कानून की है लेकिन इस मुददे के राजनीतिकरण के कारण विधेयक में निहित कल्याण के मूल भाव से अधिक विवादित कथन अधिक चर्चा में है। इस गंभीर मसले पर सियासी विदूषकता के चलते अति निर्धनता जैसी शर्मनाक सिथति है। इस मर्ज से मुक्ति के लिए प्रभावी दवा के बजाए दाने के इंतेजाम पर बहस केनिद्रत हैं लेकिन गरीबो को राहत का झुनझुना थमाने की यह तरकीब कोर्इ हल नही हैं क्योंकि मुठठी भर दाना गरीबी का इलाज नहीं है।
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