शुक्रवार, 27 सितंबर 2013



द एग्रीकल्चरल डेट वेवर एंड डेट रिलीफ(एडीडब्ल्यूडीआरडीएस), 2008 नामक योजना साल 2008 के मई महीने में आरंभ हुई। इसका उद्देश्य कर्ज में फंसे किसानों को भुगतान संबंधी संकट से राहत दिलाना तथा नए कर्ज हासिल करने में मदद पहुंचाना था। योजना के अंतर्गत सीमांत किसानों के कर्ज पूर्ण रुप से माफ किए जाने थे जबकि अन्य किसानों के लिए कर्ज में ली गई रकम का 25 फीसदी हिस्सा माफ किया जाना था बशर्ते किसान कर्ज ली गई रकम का 75 फीसदी हिस्सा चुका दें। इस योजना के तहत जिन कर्जों को शामिल किया गया उनका ब्यौरा निम्नलिखित है-a. 1 अप्रैल 1997 से 31 मार्च 2007 तक वितरित ऋण, b. 31 मार्च तक बकाया कुल ऋण c. साल 2008 के 29 फरवरी तक बकाया रही कर्ज की शेष राशि। इस योजना पर साल 2010 तक 30 जून तक अमल करना था।
•    भारत सरकार का साल 2008 के मई महीने में अनुमान था कि इस योजना के अंतर्गत 3.69 करोड़ सीमांत किसानों और अन्य किसानों के 0.60 करोड़ ऋण-खातों को कवर किया जा सकेगा। बीते चार सालों में भारत सरकार ने 52000 करोड़ रुपयों की कर्जमाफी की है जो कि 3.45 करोड़ सीमांत किसानों और अन्य कोटि के किसानों से संबंधित है।
•    सीएजी ने अप्रैल 2011 से मार्च 2012 के बीच 25 राज्यों के कुल 90,576 लाभार्थियों/ किसानों के खातों की जांच की जो कि 715 कर्जदाता संस्थाओं की शाखाओं से संबंधित है। ये शाखाएं कुल 92 जिलों में थीं। जांच के लिए नमूने के तौर पर 80299 खाते ऐसे किसानों के लिए गए जो उपरोक्त योजना के तहत लाभार्थी थे जबकि 9334 खाते ऐसे किसानों के थे जिन्हें योजना में लाभार्थी नहीं माना गया लेकिन उन्होंने 1 अप्रैल 1997 से 31 मार्च 2007 के बीच कर्ज लिए थे।
•    ऑडिट में जिन 9334 खातों(नौ राज्यों से चयनित) की जांच हुई उसमें 13.46 फीसदी यानि 1257 खाते ऐसे किसानों के थे जो योजना के तहत कर्जमाफी के हकदार थे लेकिन जब कर्जदाता संस्थाओं ने कर्जमाफी के हकदार किसानों की सूची तैयार की तो उन्हें लाभ का हकदार नहीं माना।
•    जिन 80299 खातों को कर्जमाफी का हकदार ठहराया गया उसमें सीएजी ने 8.5 फीसदी मामलों में पाया कि या तो खाताधारक कर्जमाफी का हकदार नहीं था या फिर कर्ज-राहत का।
•    निजी क्षेत्र के एक अधिसूचित बैंक को दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए कुल 164.60 करोड़ की रकम का पुनर्भुगतान किया गया। यह रकम कर्ज के तौर पर बैंक ने एक माइक्रोफाईनेंस कंपनी को दी थी।
•    रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल 2824 मामलों में इस बात के पुख्ता प्रमाण थे कि कागजों में हेरफेर की गई है जबकि कर्ज से संबंधित कागजात का कर्जमाफी के लिए खास महत्व है। हेरफेर वाले ऐसे मामलों में कर्ज की रकम 8.64 करोड़ थी।
•    ऑडिट में पाया गया कि कुल 4826 खाते(यानि नमूने के तौर पर लिए गए खातों का 6 फीसदी) ऐसे थे जिसमें किसान को लाभार्थी तो दिखाया गया है लेकिन उसे कर्जमाफी या कर्ज-राहत का फायदा नहीं दिया गया। कुल 3262 मामलों में सीएजी ने पाया कि 13.35 करोड़ रुपये की रकम बिना किसी मद के दे दी गई जबकि कुल 1564 मामले ऐसे थे जिसमें किसानों को हक के 1.91 करोड़ रुपये से वंचित किया गया।
•    दिशा-निर्देश का उल्लंघन करते हुए कर्जदाता संस्थाओं ने सूद और शुल्क की रकम भी वसूली जबकि योजना में ऐसा करने की मनाही थी। 22 राज्यों से संबंधित कुल 6392 मामले ऐसे थे जिसमें कर्जदाता संस्थाओं ने 5.33 करोड़ रुपये सूद या शुल्क के तौर पर दावे में प्रस्तुत नहीं किए लेकिन उन्हें भारत सरकार की तरफ से इसका भुगतान किया गया।
•    कई मामले ऐसे पाये गए जिसमें कर्ज माफी या कर्ज राहत से संबंधित प्रमाणपत्र लाभार्थियों को नहीं दिए गए। जांचे गए कुल 61793 खातों में 21182 खाते ऐसे थे जिसमें किसानों को दी गई कर्जमाफी या राहत का कोई प्रमाण संलग्न नहीं था जबकि नए कर्ज लेने के लिए ऐसे प्रमाणपत्र का होना जरुरी है।
 राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ५९ वें दौर के आकलन सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे ऑव फार्मरस् इनडेटेनेस ऑव फार्मर हाऊसहोल्ड (जनवरी-दिसंबर २००३) के अनुसार-
  • ८ करोड़ नब्बे लाख ३५ हजार किसान परिवारों में ४ करोड़ ३० लाख ४२ हजार यानी ४३ फीसदी किसान परिवार कर्जदार हैं। साल १९९१ में एनएसएस ने एक ऐसा ही सर्वेक्षण किया था। उस सर्वेक्षण में कर्जदार किसानों की तादाद २६ फीसदी थी। किसान परिवारों के ऊपर औसतन १२५८५ रुपये का कर्जा है।
  • देश में ग्रामीण परिवारों की कुल संख्या १४ करोड़ ७० लाख ९० हजार है और इसमें ६० फीसदी किसान परिवार हैं।
  • देश के कुल ग्रामीण परिवारों में किसान परिवारों की तादाद ६० फीसदी है और इसमें ४८ फीसदी परिवारों पर कर्ज है। 
  • सबसे ज्यादा कर्जदार किसान परिवार आंध्रप्रदेश (८२ फीसदी) हैं । इसके बाद नंबर तमिलनाडु (७४ फीसदी), पंजाब (६५ फीसदी) केरल (६४ फीसदी), कर्नाटक (६१ फीसदी) और महाराष्ट्र (५४ फीसदी) का है।
  • हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में ५० से ५३ फीसदी किसान परिवार कर्जदार हैं। जिन राज्यों में कर्जदार किसान परिवारों की संख्या अपक्षाकृत कम है उनके नाम हैं- मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, और उत्तराखंड। इन राज्यों में कर्जदार किसान परिवारों की  तादाद १० फीसदी है।
  • संख्या के लिहाज से देखें तो उत्तरप्रदेश में कर्जदार किसानों सबसे ज्यादा(६० लाख नब्बे हजार) हैं।आंध्रप्रदेश में कर्जदार किसानों की संख्या ४० लाख नब्बे हजार है।कर्जदार किसान परिवारों की कुल संख्या का आधे से अधिक उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश में रहता है।  
  • अगर आमदनी के स्रोत को आधार मानकर देखें तो किसानों में जीविका के लिए खालिस खेती पर निर्भर किसान परिवारों की तादाद  कुल किसानों में ५७ फीसदी है और इनमें ४८ फीसदी किसान परिवारों पर कर्जा है।
  • कुल किसानों परिवारों को सामाजिक वर्ग के हिसाब से बांटकर देखें तो १३.३ फीसदी किसान परिवार अनुसूचित जनजाति के, १७.५ फीसदी किसान परिवार अनुसूचित जाति के, ४१.५ फीसदी किसान परिवार अन्य पिछड़ा वर्ग के और २७.७ फीसदी किसान परिवार बाकी समाजिक वर्गों के हैं।
  • अनुसूचित जनजाति के ३६.३ फीसदी, अनुसूचित जाति के ५०.२ फीसदी, अन्य पिछड़ा वर्ग के ५१.४ फीसदी और शेष सामाजिक वर्गों के ४९.९ फीसदी किसान परिवारों पर कर्जा है। अनुसूचित जनजाति के किसान परिवारों पर औसतन ५५०० रुपये का, अनुसूचित जाति के कर्जदार किसान परिवारों पर औसतन ७२०० रुपये का. अन्य पिछड़ा वर्ग के किसान परिवारों पर औसतन १३५०० रुपये और शेष सामाजिक वर्ग के कर्जदार किसानों पर औसतन १८१०० रुपये का कर्जा है।
  • सर्वेक्षण में ०.०१ हेक्टेयर,  ०.०१-०.०४ हेक्टेयर, ०.०४-१.०० हेक्टेयर,  १.००-२.०० हेक्टेयर,  २.००-४.०० हेक्टेयर,  ४.००-१०.०० हेक्टेयर और १० हेक्टेयर से ज्यादा की मिल्कियत वाले किसान परिवारों की कोटियां बनायी गई थीं। इन सात कोटियों में किसान परिवारों का अनुपात क्रमशः १.४ फीसदी, ३२.८ फीसदी, ३१.७ फीसदी, १८ फीसदी, १०.५ फीसदी, ४.८ फीसदी और ०.९ फीसदी है। इन सात वर्गों में कर्जदार किसान परिवारों की संख्या क्रमशः.४५.३ फीसदी, ४४.४ फीसदी, ४५.६ फीसदी, ५१.० फीसदी, ५८.२ फीसदी, ६५.१ फीसदी और ६६.४ फीसदी किसान परिवार कर्जदार हैं।
  • अगर राष्ट्रीय स्तर पर मान लें कि कर्जदार किसान परिवारों की संख्या १०० है तो इनमें २९ ने कर्जा महाजनों से लिया। अगर इसी हिसाब को आंध्रप्रदेश पर लागू करें तो वहां १०० (कर्जदार) किसान परिवारों में ५७ ने और तमिलनाडु में ५२ किसान परिवारों ने महाजनों से कर्जा लिया।
  • कर्ज से हासिल प्रत्येक १००० रुपये में १११ रुपये शादी-ब्याह या ऐसे ही किसी आयोजन में खर्च किए गए। बिहार में कर्जदार किसान परिवारों ने बाकी राज्यों के कर्जदार किसान परिवारों से इस मद में कहीं ज्यादा खर्च(१००० में २२९ रुपये) किया। इसका बाद नंबर राजस्थान का है जहां कर्ज से हासिल हर हजार रुपये में १७६ रुपये शादी-ब्याह के खर्चे में सर्फ हुए।
  • कर्ज के सर्वप्रमुख स्रोत बैंक रहे। कर्जदार किसान परिवारों में ३६ फीसदी ने बैंकों से कर्ज लिया जबकि २६ फीसदी ने महाजनों से।
  • कर्ज की सर्वाधिक बकाया रकम पंजाब के किसानों के मत्थे है। इसके बाद नंबर केरल, हरियाणा, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु का है।
  • पी ग्रुएर, गुएलामें, पूर्वी मेहता भट्ट और देबदत्ता सेनगुप्ता द्वारा प्रस्तुत बीटी कॉटन-एंड फार्मर स्यूस्याइड नामक दस्तावेज(२००८,आईएफपीआरआई) के अनुसार-
     
    http://www.ifpri.org/pubs/dp/IFPRIDP00808.pdf

     
    • जोखिम भरे नकदी फसलों की खेती की तरफ रुझान- आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों में, जहां खेती ज्यादातर वर्षाजल से सिंचित है, पहले कम लागत वाली फसलों (अनाज) को उपजाने का चलन था परंतु धीरे धीरे इन राज्यों में नकदी फसलों को उपजाने का चलन बढ़ा। ऐसे राज्यों में अनाजी फसले कम जमीन में उपजायी जाने लगीं। मूंगफली और तेलहन जैसे नकदी फसलों को उपजाने की तरफ रुझान तो बढ़ा लेकिन सिचाईं की कोई कारगर व्यवस्था नहीं हो पायी। इससे किसान आर्थिक संकट में पड़े।
    • मॉनसून पर बढती निर्भरता-नकदी फसलों को उपजाने वाले इलाकों में मॉनसून और वर्षाजल से सिंचाई करने पर निर्भरता बढ़ी और इससे किसानों की परेशानियां बढ़ीं। नकदी फसलों को उपजाने का दायरा बढ़ा लेकिन उसके मुताबिक सिंचाई व्यवस्था ना हो पायी जबकि नकदी फसलें कहीं ज्यादा सिंचाई की मांग करती हैं। इस बात के प्रर्याप्त प्रमाण हैं कि बीटी कॉटन भरपूर सिंचाई की दशा में बेहतर ऊपज देता है फिर बी बीटी कॉटन और गैर बीटी कॉटन दोनों की कपासी खेती एक जैसी सिंचाई सुविधा के बीच हुई। 
    • कर्जदारी इसलिए भी बढ़ी क्योंकि सांस्थानिक कर्जे किसानों को समुचित मात्रा और सही वक्त पर ना मिल पाये। महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में जिन किसानों ने आत्महत्या की उनपर कर्जे की बकाया रकम बहुत ज्यादा थी। महाराष्ट्र में १९९१ से २००४ के बीच कुल कर्जे में किसानी पर खर्च की जाने वाली रकम २०.२ फीसदी से घटकर ११.२ फीसदी हो गई। आंध्रप्रदेश में महाजनों और गैर सांस्थानिक स्रोतों से ली गई कर्ज की रकम को खेती में लगाने का तलन बढ़ा। आंध्रप्रदेश में इन स्रोतों से प्राप्त कर्ज की रकम में से ६८ फीसदी किसानी में लगायी गई। आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा करवाये गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि ८० फीसदी कृषि-ऋण गैर-सांस्थानिक स्रोतों से लिए गए। कर्ज की ऐसी रकम पर किसानों को २४-३६ फीसदी का सूद चुकाना पड़ा।
    • न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ा लेकिन खेती की लागत बढ़ गई- अधिकतर छोटे और मंझोले किसान स्थानीय स्तर पर मौजूद सरकारी केंद्रों पर अपनी ऊपज बेचते हैं। इन केंद्रों पर कीमतें बड़ी कम हैं। जिस तेजी से खेती में लागत बढ़ी उसकी तुलना में न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा नहीं हुआ। साल २००५ के दांडेकर रिपोर्ट में कहा गया है कि महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों में किसानों को अपनी ऊपज लागत से कम मूल्य पर बेचनी पड़ी। इस रिपोर्ट के मुताबिक साल १९९६ से २००४ के बीच किसानों को धान बेचने पर ३८ फीसदी, कपास बेचने पर ३८ फीसदी, मूंगफली बेचने पर ३२ फीसदी, सोयाबीन बेचने पर ३७ फीसदी और गन्ना बेचने पर १२ फीसदी का घाटा उठाना पड़ा।  
    • सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि-एख तऱफ किसानों ने घाटा उठाकर फसल बेची तो दूसरी तरफ घाटे के कारण कर्ज भी ना चुका सके लेकिन कर्ज अपने सूद के साथ लगातार बढ़ता रहा। फसल के मारे जाने के बाद जिन किसानों ने आत्महत्या की उन पर कर्ज चुकाने लिए लगातार दबाब बना हुआ था और कर्जदाता तगादा कर रहा था।
     
 

कोई टिप्पणी नहीं:

 रानी फाॅल / रानी जलप्रपात यह झारखण्ड राज्य के प्रमुख मनमोहन जलप्रपात में से एक है यहाँ पर आप अपनी फैमली के साथ आ सकते है आपको यहां पर हर प्...