रविवार, 22 सितंबर 2013

क्या हो असली हल बलात्कार

यूं तो हमारे देश में बहुत सारे कानून ऐसे हैं जिन पर सख्ती से अमल किया जाए तो काफी सीमा तक समस्याएं हल हो सकती हैं लेकिन उन कानूनों का क्रियान्वयन नहीं के बराबर हैं। आज युवाओं को जागरूक करने, उन्हें संस्कार और नैतिक शिक्षा दिए जाने की जरूरत है। लड़की को आत्मरक्षा की शिक्षा और साथ पढ़ने वाले लड़कों में उनके प्रति सम्मान का भाव पैदा करना आवश्यक है बलात्कार
घनश्याम बादल ‘फांसी केवल डर पैदा कर सकती है, असली कार्य तो संस्कार और चरित्र निर्माण ही कर पाएंगे , जिनका अभाव अनेक समस्याएं खड़ी कर रहा है।’ आखिरकार निर्भया/दामिनी बलात्कार कांड में दोषियों को माननीय न्यायालय ने फांसी की सजा सुना ही दी। ऐसा लग रहा है जैसे सारा देश इसी फैसले का इंतजार कर रहा हो। बेशक, दामिनी के मां-बाप को बड़ी राहत मिली होगी इस फैसले से, पर विपक्षी वकील ने सरकार द्वारा फैसले का राजनीतिकरण करने की जो बात कही, वह भी कुछ सोचने पर मजबूर करती है। क्या एक केस में फांसी के फैसले से समस्या हल हो जाएगी या बार-बार फांसी के फैसले आएंगे? क्या फांसी के फैसलों से बलात्कार जैसी समस्या हल अथवा पूर्णतया बंद हो जाएगी? प्रश्न बहुत से हैं पर हल क्या है, यह समय ही तय करता दिखता है । दिल्ली और मुंबई के गैंगरेप कांडों ने महानगरों की जीवन शैली और वहां अकेली लड़की की सुरक्षा पर जलते हुए सवाल खड़े किये हैं। इनका जवाब पाने को सारा देश इच्छुक है। ‘एक बार फिर एक लड़की दरिंदगी का शिकार हुई’ के समाचार से सारा देश शर्मसार हुआ, संसद में प्रश्न उठे और बैठ गए, आम आदमी का गुस्सा उफना और वक्त की गर्दिश में दब गया। पर, अचेतन मन में हजारों सवाल सांप बनकर डंसते रहे हैं जिनका जवाब देश और व्यवस्था, अभी नहीं ढूंढ पायी। 21वीं सदी, युवाओं का देश, संसार की सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था और कितने भी जुमले उछालिए। फिर भी मां, बहन और बेटियों की इज्जत सुरक्षित न हो तो ये सब बेमानी हैं।
जख्म पर जख्म बीते 16 दिसम्बर को दिल्ली में हुए दामिनी/ निर्भया या ज्योति जैसे छद्म नामों से जाने गए बलात्कार कांड का दर्द अभी कम नहीं हुआ था कि सुरक्षित समझी जानी वाली मुंबई ने दूसरा जख्म दिया। ऐसे जख्म अब छोटे-बड़े शहरों और गांवों-कस्बों तक से लगातार मिल रहे हैं। दरिंदगी का खेल जारी है, कानून अपनी जगह और उसका प्रभाव तथा क्रियान्वयन अपनी जगह। अब बलात्कारी दरिंदों को फांसी, उम्र कैद या कम अथवा ज्यादा सजा, तब तक सब व्यर्थ लगते हैं जब तक यह घृणित प्रवृत्ति रुक नहीं जाती। सजा शायद जरूरी है, पर जो जख्म लड़की को मिलते हैं, उनकी भरपाई कोई नहीं कर पाता। अब तो कुछ ऐसा किए जाने की जरूरत है कि ऐसा होना रुके। उसे सरकार करे, समाज करे या फिर कोई और पर ऐसा होना लाजिमी है।
झूठे रिश्ते, कामुक लोग तथ्य यह है कि जब समाज संवेदनहीन हो, रिश्ते झूठे और चारों तरफ स्वार्थी, कामुक लोग होंत ब अकेली लड़की क्या करे? खोती संवेदनाओं, प्रगति तथा भौतिकता की अंधी दौड़ में, टूटती मर्यादाओं की सबसे ज्यादा शिकार लड़की होती है, आज भी उसकी सुरक्षा सवालों में उलझी है। कभी इज्जत तो कभी डर की वजह से वह अपना दर्द कह नहीं पाती, कहीं चंद रुपए मुंह बंद कर देते हैं तो उसे कहीं परिवार की सुरक्षा चुप रहने को विवश कर देते हैं। आज स्त्री का बलात्कार होना, चुपचाप आत्मा और शरीर पर जख्म सहते रहना उसकी नियति बन गई है। अब ऐसा केवल शहरों में ही नहीं है। गांव तक में हो रहा है। यह अलग बात है कि हर घटना प्रकाश में नहीं आ पाती। वहां अब भी साहूकारी आतंक अड्डे के रूप में मौजूद है। उसकी मर्जी के बिना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हो पाती।
उपदेश, उपदेश और उपदेश ऐसी घटनाएं समाज के बदलते वीभत्स रूप का नंगा प्रकटन हैं। उसी भारतीय समाज का, जिसमें स्त्री की इज्जत करने की समृद्ध परंपरा और रिश्तों की ऐसी संस्कृति रही है जिसमें अपने आसपास की स्त्रियों तक की भी इज्जत की जाती रही है पर, आज तो महिलाएं अपने घर तक में सुरक्षित नहीं हैं। पीड़ित होने पर उसे ही उपदेश दिए जाते हैं। अपने कपड़ों पर ध्यान देने, आचरण सुधारने, एक्सपोज करने वाली वेशभूषा न पहनने को कहा जाता है। परिधान और खुलेपन को बलात्कार की वजह बताकर पल्ला झाड़ने वालों को समझना होगा कि यदि उनके या उनके परिवार के साथ ऐसा हो जाए तो ऐसे उपदेश सुनकर उन्हें कैसा लगेगा? शहर या महानगरों में तो एक्सपोजर कपड़े पहने जाते हैं, पर गांवों में बलात्कार और यौन शोषण की घटनाएं बड़ी तादाद में क्यों घट रही हैं? शायद असली जड़ है असामाजिक तत्वों को मिलता हर तरह का संरक्षण, कानून का डर न होना, संस्कारों की कमी, क्षणिक आक्रोश और बदले की भावना। औरत को घर की चारदीवारी से बाहर निकलने की कीमत भी चुकानी पड़ रही है।
शोषण का अंतहीन सिलसिला कार्य स्थलों पर यौन शोषण की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। सहकर्मियों की छींटाकशी और यौन शोषण आम हो चले हैं। महिला कर्मियों की सुरक्षा के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं है। दोषी के खिलाफ कार्रवाई करने पर महिलाकर्मी को ही समझौता करने को विवश होना होता है। इससे उसके शोषण का एक अंतहीन सिलसिला चल पड़ता है। यदि बात सार्वजनिक हो जाए तो फिर जीना दूभर मानिए, पीड़िता का साथ न घरवाले देते हैं, न बाहर का समर्थन मिल पाता है। ताजा आंकड़ों के अनुसार, बलात्कार या छेड़खानी की करीब 71 प्रतिशत घटनाएं महिला के पूर्व
फांसी होगी, कितनी कारगर बलात्कार के लिए फांसी की सजा की मांग करने वालों में संवेदनशील कम और खबरों में बने रहने की प्रवृत्ति वाले ज्यादा हैं। वास्तविकता यह है कि बदलती दुनिया में अरब देशों को छोड़कर इस कृत्य के लिए कहीं भी फांसी की सजा का प्रावधान नहीं है, आज दुनिया हत्या तक के लिए फांसी की सजा को हटा रही है। ऐसे में न्यायालय ऐसे कानून का सही प्रयोग पाएंगे, इसमें संशय है। क्या इस कानून का लाभ कमजोर आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि वाली ऐसी औरत को मिल पाएगा, जिसके पास वकील करने तक के पैसे नहीं होते परिचित और रिश्तेदार ही अंजाम देते हैं।
समस्या, कानून और हल क्या ये समस्या फांसी का कानून लाने से हल हो जाएगी? भारत में बहुत सारे कानून ऐसे हैं जो अस्तित्व में तो हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं के बराबर हैं। आज युवाओं को जागरूक करना जरूरी है, संस्कार और नैतिक शिक्षा पर जोर दिए जाने का जरूरत है। लड़की को आत्मरक्षा की शिक्षा और साथ पढ़ने वाले लड़कों में उनके प्रति सम्मान का भाव पैदा करना आवश्यक है। अच्छा हो कि सेक्स एजुकेशन को यथार्थवादी बनायें, उन्हें कानून की पर्याप्त जानकारी दी जाए ताकि बच्चे कुछ गलत करने के परिणाम भी जान ले। प्राय: बलात्कार जैसा घिनौना कृत्य क्षणिक आवेग और आवेश में ज्यादा होता है, उस समय यह होश नहीं होता कि इसका परिणाम क्या होगा। अत: अच्छा हो कि शिक्षा में योगा जैसी क्रियाएं भी शामिल की जाएं जिससे आने वाली पीढ़ियां आत्म नियंतण्रऔर आत्म संयम भी सीख सकें। फांसी तो केवल डर ही पैदा करने का काम करती है। असली कार्य तो संस्कार और चरित्र निर्माण द्वारा ही हो पाएगा जिसका अभाव आज एक नहीं, अनेक समस्याएं खड़ी कर रहा है।

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