शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

एक शूद्र तो हम सबके घरों में !

एक शूद्र तो हम सबके घरों में !

जाति व्यवस्था के मूल में जो ऊंचे और नीचे की भावना है वो इतनी गहरी है कि इसका असर अवर्ण वर्ग में भी दिखाई देता है. अर्वर्णों में भी ऊंचे-नीचे की सी स्थिति बनी हुई है. गंदगी साफ करने वाले, चमड़े, खाल, मांस का काम करने वाले सबसे ज्यादा घृणा और उपेक्षा के पात्र हैं...
गायत्री आर्य

क दलित द्वारा संविधान की रुपरेखा बनाने और 62 साल उस संविधान को लागू हुए होने के बाद भी दलितों के शब्दकोश में ‘सम्मान‘ शब्द ना तो था, ना आज ही है. दलितों की आत्मकथाओं को पढ़कर हम ये सहज ही जान सकते हैं. शायद ही कोई दिन जाता है जब अखबार में किसी ना किसी तरीके से कहीं ना कहीं दलितों को प्रताडि़त किये जाने की खबर प्रकाशित ना होती हो.
हिमाचल प्रदेश में एक 50साल के अध्यापक ने स्कूल के सवर्ण कर्मचारियों द्वारा प्रताडि़त किये जाने के बाद आत्महत्या कर ली. पंजाब में एक सवर्ण ने दलित स्त्री के द्वारा बलात्कार की कोशिश को नाकाम करने के कारण दलित महिला को जिंदा जलाकर मार डाला. मध्यप्रदेश में एक दलित का सिर इसलिए कुल्हाडी से काट दिया गया क्योंकि उसने खेत में गायों को घुसाकर फसल खराब करने की शिकायत की. नौएडा में एक दलित युवक और सवर्ण लड़की के प्रेम पर पंचों ने फैसला सुनाया था कि यदि लड़की 24 घंटों में नहीं मिली तो दलितों के परिवार की किसी भी लड़की को परिवार में नहीं रहने दिया जाएगा. कन्नौज के जूनियर हाईस्कूल में दलित रसोइया के कारण गांव वालो ने इतना हिंसक विरोध किया कि हेडमास्टर ने खुदकुशी की कोशिश की और स्कूल पुलिस-पी.ए.सी की छावनी में तब्दील हो गया......

न्हीं सब शर्मनाक घटनाओं की कतरनों को जेब में रखकर हम आजाद होने और संविधान लागू होने के जश्न साल-दर-साल मनाते जा रहे हैं. क्या कोई बड़े से बड़ा पंडि़त बता सकता है कि हम संविधान के पूरी तरह से लागू होने का जश्न कितने साल बाद मनाएंगे? ये शुभ दिन कभी हमारी जिंदगी में आएगा भी या नहीं?

लित बच्चियों, युवतियों, स्त्रियों द्वारा बलात्कार का विरोध करने पर उन्हें मारने या जिंदा जलाने की घटनाएं किस हद तक बढ़ गई हैं. इन क्रूर घटनाओं के पीछे दो तरह की मानसिकता निश्चित तौर पर काम करती है. एक तो पौरूषीय दंभ कि स्त्री कैसे पुरूष के निर्णय का विरोध कर सकती है. दूसर सवर्णीय दंभ कि एक अवर्ण कैसे सवर्ण की इच्छा का इतना खुला प्रतिरोध कर सकता है और वह भी एक स्त्री.

ये घटनाएं हमें बताती हैं कि जाति और लिंग अभी भी हमारी सोच के मूल निर्धारक तत्व है. इसी कारण माननीय नयायाधीश भी ऐसे शर्मनाक निर्णय देते रहे हैं कि ‘‘एक सवर्ण व्यक्ति तो दलित महिला को छू भी नहीं सकता फिर बलात्कार कैसे करेगा?‘‘ जाहिर है जहां समानता नहीं महसूस की जाती वहां परस्पर प्यार और सम्मान के रिश्ते नहीं बन सकते. सिर्फ हमलावर और पीडि़त का ही रिश्ता बन सकता है. आए दिन दलितों पर हिंसा के जो केस सामने आ रहे हैं वे साफ दर्शाते हैं कि बावजूद तमाम कानूनी दबावों के सवर्ण मानसिकता  समानता, सम्मान और प्यार के रिश्ते बनाने के लिए तैयार नहीं हैं.

शिक्षा, दलित आंदोलन, सरकारी सहायतार्थ योजनाओं, कानून, आरक्षण, बदलते सामाजिक ढांचे, खुली आर्थिक नीतियों आदि कारणों ने दलितों को आर्थिक, सामाजिक व मानसिक रूप से कहीं न कहीं मजबूत तो किया है. लेकिन जैसे स्त्रियों के सशक्तिकरण की एकतरफा पहल से कभी भी लिंगभेद खत्म नहीं हो सकता, उसी तरह जाति भेद सिर्फ अवर्णों के सशक्त होने भर से खत्म नहीं होगा. सबसे जटिल मसला सवर्णों की सोच बदलने का है. सवर्णों की ‘शूद्र‘ मानसिकता ने अभी भी जाति व्यवस्था खत्म करने की दिशा में गतिरोध बनाया हुआ है. अप्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से घृणा की राजनीति आज भी मुख्य एजंेडे में है.

जाति व्यवस्था के मूल में जो ऊंचे और नीचे की भावना है वो इतनी गहरी है कि इसका असर अवर्ण वर्ग में भी दिखाई देता है. अर्वर्णों में भी ऊंचे-नीचे की सी स्थिति बनी हुई है. गंदगी साफ करने वाले, चमड़े, खाल, मांस का काम करने वाले सबसे ज्यादा घृणा और उपेक्षा के पात्र हैं. ये लोग इसलिए घृणा के, उपेक्षा के पात्र हैं क्योंकि वे (हमारे) मल और (हमारे घरों की) गंदगी से भरी नालियां और गटर साफ करते हैं. वे हमारे घरों, कालोनियों, पूरे के पूरे शहरों को कूडे के ढेर में बदलने से बचाए रखते हैं, इसलिए गंदे हैं, घिनौने हैं, घृणा के पात्र हैं.

दि दूसरे की गंदगी साफ करने वाले घिनौने हैं और इसी कारण से हमारी घृणा के पात्र हैं तो ऐसा एक पात्र, एक शूद्र तो हम सबके घरों में भी है जिससे हमें घृणा करनी चाहिए....लेकिन जिससे हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं....और वो है हमारी मां! अपने जीवन में सबसे पहले जिस शूद्र से हमारा पाला पड़ता है वह तो हमारी अपनी मां है. भारत क्या पूरी दुनिया में ऐसा कोई इंसान नहीं होगा जिसकी टट्टी-पेशाब की सफाई कई सालों तक उसकी मां ने ना की हो.

ई-कई्र बच्चों की मांओं की जिंदगी के कितने ही साल बच्चों की टट्टी-पेशाब साफ करने में बीतते हैं. और भारतीय संदर्भ में तो कितनी माएं हैं जिनके ऊपर न सिर्फ अपने बच्चों की सफाई की जिम्मेदारी होती है बल्कि अपने बूढ़े बीमार सास-ससुर की हर तरह की सफाई का भार भी उन्ही के कंधों पर होता है. गौरतलब है कि ऐसी सफाई तो बूढ़े मां-बाप के अपने बच्चे यानि पतिदेव भी नहीं करते, बहुएं ही यह मोर्चा संभालती हैं. अपवाद हो सकते हैं.

चूंकि बचपन में हमारे मल-मूत्र से लेकर घर के एक-एक कोने की सफाई का भार उन्हीं के कंधों पर है....इस अर्थ में पूरी ना सही पर आधी शूद्र तो हमारी मां जीवन भर बनी रहती है! हम ना सिर्फ उस मां के साथ रहते हैं, बल्कि उनसे अपार स्नेह भी रखते हैं. घृणित गंदगी साफ करने को लेकर भी हमारे मन में उनके लिए कभी कोई गंदा ख्याल नहीं आता. उनके हाथों के स्पर्श से हमें घृणा नहीं होती. ना ही पिताओं से इस कारण से ज्यादा लगाव होता है कि उनके हाथ कभी उस गंदगी में नहीं लिपटे होंगे जिसमें मां के हाथ लिपटे थे. लेकिन इन तमाम शूद्रों, दलितों के लिए हमने जीवनभर की घृणा पाल रखी है ! क्यों भला?

दि गंदगी साफ करने वाले इतने ही घृणा के पात्र हैं तो सोच कर देखें कि दिन की शुरूआत करने वाला कौना सा ऐसा सवर्ण है जो अपने नित्यकर्म से निपटते वक्त कुछ देर के लिए शूद्र नहीं बन जाता! लेकिन उन्हें तो अपने हाथों से कभी घृणा नहीं होती. क्या वे अपने उन्हीं हाथों से खाना नहीं खाते या फिर भगवान की पूजा नहीं करते. साबुन से हाथ धोते ही सब अपनी-अपनी सवर्णताओं के मुलम्मे चढ़ा लेते हैं, जबकि जानते हैं कि दिन के किसी भी पहर उन्हें ‘मल की सफाई‘ का नीच कर्म करना पड़ सकता है. सिर्फ एक दिन कचरा उठाने वाले या नाली साफ करने वाले के ना आने से घर, पूरी सोसाइटी या फिर शहर की सफाई व्यवस्था चरमरा जाती है. यही स्थिति यदि सप्ताह भर या महीना भर हो जाए तो ये घृणा के पात्र हमारे लिए ‘मोस्ट वांटेड‘ हो जाएंगे. लेकिन फिर भी न्यूनतम सम्मान के पात्र हम उन्हे तब भी नहीं मानेंगे.

हालांकि अब तो सवाल यह होना चाहिए कि अभी भी वे सिर्फ न्यूनतम सम्मान के लिए ही क्यों तरस रहे हैं बराबरी का सलूक और सम्मान के लिए क्यों नहीं ? और कब तक नहीं? क्यों सफाई का काम हमने उनके जिम्मे सौंप दिया है हमेशा के लिए? हम क्यों नहीं कर लेते अपने-अपने घरों, गली-मोहल्लों की सफाई अपने ‘शुभ हाथों‘ से? अपनी आजादी, सुख-सुविधा और सम्मान को अधिकतम निचोड़न के लिए हम हर संभव आधुनिकता और तर्कों का सहारा लेते हैं. लेकिन जाति व्यवस्था में ‘शूद्र‘ का दर्जा पाए इन लोगों के सम्मान, समानता और इनके लिए मानवीय व्यवहार की बात तक करने में हमारी जबान आज भी लड़खड़ाती है! हमारे दिमाग को लकवा मार जाता है! उनके साथ उठने-बैठने में, उन्हें छूने में हमें छूत का रोग लगता है...और उनसे रोटी-बेटी का संबंध जोड़ने में तो हमारी फटती है! सारी आधुनिकता, शिक्षा, विज्ञान, तर्क सब के सब धूल चाटने लगते हैं. क्यों?

र के भीतर का सबसे ज्यादा बोरिंग और गंदगी साफ करने का काम लगभग हमेशा माओं के जिम्मे होता है. घर के बेहद जरूरी और अपवित्र स्थान की नियमित सफाई अक्सर ही सिर्फ मां की सहज जिम्मेदारी होती है, बावजूद इसके कि घर का प्रत्येक सदस्य उस स्थान का नियमित प्रयोग करता है. घर के किसी कोने में कुत्ता, बिल्ली, गाय या कोई अन्य जानवर गंदा करता है तो सफाई कि स्वाभाविक जिम्मेदारी सिर्फ मां की ही होती है. मांओं को अक्सर ही घर के खाने, फल, मिठाईयों पर हमेशा अपने बच्चों और पति का ही पहला व ज्यादा अधिकार लगता है. मां का अपने जाए बच्चे के लिए समर्पण समझ में आता है.

लेकिन पति नाम के जीव के लिए खुद से पहले और खुद से ज्यादा का भाव प्राकृतिक रूप से बेहद असहज है. इस भावना के पीछे प्यार की आड़ में छिपा स्वयं के नकार का भाव है. इसी तरह आज भी समाज के अधिकांशतः अचेत शूद्रों को यही लगता है कि पूरे समाज में जो अच्छा है उस पर पहला अधिकार सवर्णों का है. समाज में घरेलू मांओं की हैंसियत ‘कुछ नहीं करती‘ की है, बावजूद इसके कि उनका ‘अंतहीन अदृश्य श्रम‘ दुनिया की बड़ी से बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का आधार है. इसी तरह समाज की सारी तरक्की, हुनर, ज्ञान, तकनीक का श्रेय सवर्ण खुद ले लेते हैं जैसे दलितों, दलितों में भी ज्यादा दलितों या कहें अतिशूद्रों ने इस दुनिया में सिर्फ खाने और ‘..‘ का काम किया हो!

म से कम अवर्णों को तो अपने भीतर फैली जाति व्यवस्था से जन्मी घृणा को नकारना चाहिए. पढ़े-लिखे दलितों को सबसे निचले पायदान पर बैठे लोगों को ये अहसास दिलाना चाहिए वे समाज की बहुत महत्वपूर्ण कड़ी हैं. समाज में सम्मान पाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति वे भी अपना सकते हैं. सिर्फ एकजुटता में ही वह शक्ति हैं जो मोटी और खांटी सवर्ण बुद्वि को अहसास दिला सकती है कि सब दिन एक जैसे नहीं होते. ....... अब सूर्य ब्रिटिश राज में भी छिपने लगा है!

कोई टिप्पणी नहीं:

 रानी फाॅल / रानी जलप्रपात यह झारखण्ड राज्य के प्रमुख मनमोहन जलप्रपात में से एक है यहाँ पर आप अपनी फैमली के साथ आ सकते है आपको यहां पर हर प्...