डाक्टर ऋताम्भरा हैब्बर(सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीजस, स्कूल ऑव सोशल साईंसेज, टीआईआईएस) द्वारा प्रस्तुत ह्यूमन सिक्युरिटी एंड द केस ऑव फार्मर-ऐन एक्सपोलेरेशन(२००७) नामक शोध आलेख के अनुसार-
http://humansecurityconf.polsci.chula.ac.th/Documents/Presentations/Ritambhara.pdf
सीपी चंद्रशेखर और जयति घोष द्वारा प्रस्तुत आलेख बर्डेन ऑव फार्मरस् डेट नामक आलेख में कहा गया है-
http://www.macroscan.com/the/food/sep05/fod140905Farmers_Debt.htm
* किसानों की आत्महत्या की घटना को मानवीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से देखने की जरुरत है। अगर इस कोण से देखा जाय तो पता चलेगा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाएं ठीक उस वक्त हुईं हैं जब भारत के ग्रामीण अंचलों में आर्थिक और सामाजिक रुप से मददगार साबित होने वाली बुनियादी संरचनाएं ढह रही हैं। .
* हरित क्रांति, वैश्वीकरण और उदारीकरण की वजह से ढांचागत बदलाव आये हैं मगर अधिकारीगण किसानों की आत्महत्या की व्याख्या के क्रम में इन बदलावों की अनदेखी करते हैं। साधारण किसानों की आजीविका की सुरक्षा के लिए फौरी तौर पर उपाय किए जाने चाहिए थे लेकिन इस पहलू की उपेक्षा हुई। आत्महत्या की व्याख्या करने के क्रम में ज्यादा जोर मनोवैज्ञानिक कारणों पर दिया गया।
* मुख्यतया महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के किसानों ने आत्महत्या की। इन राज्यों में ज्यादातर इलाकों में किसानी वर्षाजल से होने वाली सिंचाई पर निर्भर है। इन राज्यों(खासकर महाराष्ट्र) के आत्महत्या करने वाले किसान नकदी फसल मसलन, कपास (खासकर महाराष्ट्र), सूरजमुखी, मूंगफली और गन्ना (खासकर कर्नाटक) उगा रहे थे।
* उत्पादन की बढ़ी हुई लागत के कारण किसानों को निजी हाथों से भारी मात्रा में कर्ज लेना पड़ा।
* ऑल इंडिया बॉयोडायनेमिक एंड ऑर्गेनिक फार्मिंग एसोसिएशन ने महाराष्ट्र के एक जिले जालना के किसानों की आत्महत्या की खबर पर चिन्ता जताते हुए मुंबई हाईकोर्ट को एक पत्र लिखा। इस पत्र का संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज को एक सर्वेक्षण करने को कहा। सर्वेक्षण के आधार पर कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से किसानों की आत्महत्या की घटना पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए कहा। टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज की सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया था कि किसानों की आत्महत्या की मुख्य वजह उत्पादन लागत में हुई असह बढ़ोत्तरी और कर्जदारी है।दूसरी तरफ इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑव डेपलपमेंट रिसर्च (आईजीडीआर) के शोध में किसानों की आत्महत्या का संबंध सरकार या उसकी नीतियों से नहीं जोड़ा गया है। आईजीडीआर की शोध रपट में कहा गया है कि सरकार को ग्रामीण विकास योजनाओं के जरिये गांवों में ज्यादा हस्तेक्षेप करना चाहिए और वहां गैर खेतिहर कामों का विस्तार करना चाहिए।
* साल २००५ के दिसंबर में महाराष्ट्र की सरकार ने छह जिलों-अमरावती, अकोला, बुलडाना, यवतमाल, वासिम और वर्धा के लिए एक विशेष राहत पैकेज की घोषणा की।
* कीटनाशक और उर्वरक बेचने वाली कंपनियों ने कर्नाटक और महाराष्ट्र में किसानों को कर्ज देना शुरु किया । इससे किसानों के ऊपर कर्जे का बोझ और बढ़ा।
* सेहत की गिरती दशा, संपत्ति को लेकर परिवारिक विवाद, घरेलू समस्याएं और बेटी के ब्याह की भारी चिन्ता के मिले जुले प्रभावों के बीच किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। यह बात जीके वीरेश की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट में कही गई है।
* जिन सालों में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ीं उन सालों में किसान आंदोलन कमजोर पड़ गया था जबकि १९८० के दसक में महाराष्ट्र में शेतकरी संगठन की अगुआई में किसान आंदोलन मजबूत था।
* किसानों के ऊपर कर्जदारी के बड़े कारणों में एक है शादी ब्याह के खर्चे की वजह से लिया जाने वाला कर्ज लेकिन किसानों द्वारा लिए गए कुल कर्ज में इस कारण से लिए कर्ज की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम(११ फीसदी) है। शादी ब्याह के खर्चे की वजह से सबसे ज्यादा कर्जा बिहार के किसान परिवारों ने लिया। वहां २२.९ फीसदी किसान परिवारों ने इस मद में कर्ज लिए। इसके तुरंत बाद नंबर राजस्थान का है जहां शादी ब्याह के खर्चे को पूरा करने के लिए १७.६ फीसद किसान परिवारों ने कर्ज लिए।
* किसानों की एक बड़ी तादाद महाजनों से कर्ज लेने के लिए बाध्य हुई। कर्ज लेने वाले किसानों में २९ फीसदी ने महाजनों से कर्ज लिया है। .
* महाजनी कर्ज की सबसे ज्यादा तादाद बिहार(४४ फीसदी) और राजस्थान(४० फीसदी) है। खेती के काम में जिन सामानों का प्रयोग होता है उन्हें बेचने वाले सौदागर या फिर वैसे सौदागर जो खेतिहर उत्पाद को खरीदते हैं-कर्ज के प्रमुख स्रोत बनके उभरे हैं। कर्जदार किसानों में १२ फीसदी ने ऐसे ही सौदागरों से कर्ज लिए। बहरहाल कर्ज हासिल करने सरकारी स्रोत अब भी प्रमुथ बने हुए हैं। कर्जदार किसानों में से ५० फीसदी से अधिक ने सहकारी समितियों अथवा सरकारी बैंकों से कर्ज लिया।
* लिए गए कर्ज की मात्रा का संबंध जमीन की मिल्कियत से भी है। जो किसान जितनी बड़ी जमीन का मालिक है उस पर उतना ही कर्ज है। एक तथ्य यह भी है कि जमीन की मिल्कियत के बढ़ने के साथ कर्जदार किसानों की संख्या में भी बढोतरी को भी चिह्नित किया जा सकता है।
* बहुत छोटे और सीमांत किसानों के ऊपर भी कर्ज का भारी बोझ है। ऐसे किसानों की आमदनी बहुत कम है और इससे संकेत मिलते हैं कि किसान एक से ज्यादा कारणों से लगातार कर्ज के दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं।
http://humansecurityconf.polsci.chula.ac.th/Documents/Presentations/Ritambhara.pdf
सीपी चंद्रशेखर और जयति घोष द्वारा प्रस्तुत आलेख बर्डेन ऑव फार्मरस् डेट नामक आलेख में कहा गया है-
http://www.macroscan.com/the/food/sep05/fod140905Farmers_Debt.htm
* किसानों की आत्महत्या की घटना को मानवीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से देखने की जरुरत है। अगर इस कोण से देखा जाय तो पता चलेगा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाएं ठीक उस वक्त हुईं हैं जब भारत के ग्रामीण अंचलों में आर्थिक और सामाजिक रुप से मददगार साबित होने वाली बुनियादी संरचनाएं ढह रही हैं। .
* हरित क्रांति, वैश्वीकरण और उदारीकरण की वजह से ढांचागत बदलाव आये हैं मगर अधिकारीगण किसानों की आत्महत्या की व्याख्या के क्रम में इन बदलावों की अनदेखी करते हैं। साधारण किसानों की आजीविका की सुरक्षा के लिए फौरी तौर पर उपाय किए जाने चाहिए थे लेकिन इस पहलू की उपेक्षा हुई। आत्महत्या की व्याख्या करने के क्रम में ज्यादा जोर मनोवैज्ञानिक कारणों पर दिया गया।
* मुख्यतया महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के किसानों ने आत्महत्या की। इन राज्यों में ज्यादातर इलाकों में किसानी वर्षाजल से होने वाली सिंचाई पर निर्भर है। इन राज्यों(खासकर महाराष्ट्र) के आत्महत्या करने वाले किसान नकदी फसल मसलन, कपास (खासकर महाराष्ट्र), सूरजमुखी, मूंगफली और गन्ना (खासकर कर्नाटक) उगा रहे थे।
* उत्पादन की बढ़ी हुई लागत के कारण किसानों को निजी हाथों से भारी मात्रा में कर्ज लेना पड़ा।
* ऑल इंडिया बॉयोडायनेमिक एंड ऑर्गेनिक फार्मिंग एसोसिएशन ने महाराष्ट्र के एक जिले जालना के किसानों की आत्महत्या की खबर पर चिन्ता जताते हुए मुंबई हाईकोर्ट को एक पत्र लिखा। इस पत्र का संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज को एक सर्वेक्षण करने को कहा। सर्वेक्षण के आधार पर कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से किसानों की आत्महत्या की घटना पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए कहा। टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज की सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया था कि किसानों की आत्महत्या की मुख्य वजह उत्पादन लागत में हुई असह बढ़ोत्तरी और कर्जदारी है।दूसरी तरफ इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑव डेपलपमेंट रिसर्च (आईजीडीआर) के शोध में किसानों की आत्महत्या का संबंध सरकार या उसकी नीतियों से नहीं जोड़ा गया है। आईजीडीआर की शोध रपट में कहा गया है कि सरकार को ग्रामीण विकास योजनाओं के जरिये गांवों में ज्यादा हस्तेक्षेप करना चाहिए और वहां गैर खेतिहर कामों का विस्तार करना चाहिए।
* साल २००५ के दिसंबर में महाराष्ट्र की सरकार ने छह जिलों-अमरावती, अकोला, बुलडाना, यवतमाल, वासिम और वर्धा के लिए एक विशेष राहत पैकेज की घोषणा की।
* कीटनाशक और उर्वरक बेचने वाली कंपनियों ने कर्नाटक और महाराष्ट्र में किसानों को कर्ज देना शुरु किया । इससे किसानों के ऊपर कर्जे का बोझ और बढ़ा।
* सेहत की गिरती दशा, संपत्ति को लेकर परिवारिक विवाद, घरेलू समस्याएं और बेटी के ब्याह की भारी चिन्ता के मिले जुले प्रभावों के बीच किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। यह बात जीके वीरेश की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट में कही गई है।
* जिन सालों में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ीं उन सालों में किसान आंदोलन कमजोर पड़ गया था जबकि १९८० के दसक में महाराष्ट्र में शेतकरी संगठन की अगुआई में किसान आंदोलन मजबूत था।
* किसानों के ऊपर कर्जदारी के बड़े कारणों में एक है शादी ब्याह के खर्चे की वजह से लिया जाने वाला कर्ज लेकिन किसानों द्वारा लिए गए कुल कर्ज में इस कारण से लिए कर्ज की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम(११ फीसदी) है। शादी ब्याह के खर्चे की वजह से सबसे ज्यादा कर्जा बिहार के किसान परिवारों ने लिया। वहां २२.९ फीसदी किसान परिवारों ने इस मद में कर्ज लिए। इसके तुरंत बाद नंबर राजस्थान का है जहां शादी ब्याह के खर्चे को पूरा करने के लिए १७.६ फीसद किसान परिवारों ने कर्ज लिए।
* किसानों की एक बड़ी तादाद महाजनों से कर्ज लेने के लिए बाध्य हुई। कर्ज लेने वाले किसानों में २९ फीसदी ने महाजनों से कर्ज लिया है। .
* महाजनी कर्ज की सबसे ज्यादा तादाद बिहार(४४ फीसदी) और राजस्थान(४० फीसदी) है। खेती के काम में जिन सामानों का प्रयोग होता है उन्हें बेचने वाले सौदागर या फिर वैसे सौदागर जो खेतिहर उत्पाद को खरीदते हैं-कर्ज के प्रमुख स्रोत बनके उभरे हैं। कर्जदार किसानों में १२ फीसदी ने ऐसे ही सौदागरों से कर्ज लिए। बहरहाल कर्ज हासिल करने सरकारी स्रोत अब भी प्रमुथ बने हुए हैं। कर्जदार किसानों में से ५० फीसदी से अधिक ने सहकारी समितियों अथवा सरकारी बैंकों से कर्ज लिया।
* लिए गए कर्ज की मात्रा का संबंध जमीन की मिल्कियत से भी है। जो किसान जितनी बड़ी जमीन का मालिक है उस पर उतना ही कर्ज है। एक तथ्य यह भी है कि जमीन की मिल्कियत के बढ़ने के साथ कर्जदार किसानों की संख्या में भी बढोतरी को भी चिह्नित किया जा सकता है।
* बहुत छोटे और सीमांत किसानों के ऊपर भी कर्ज का भारी बोझ है। ऐसे किसानों की आमदनी बहुत कम है और इससे संकेत मिलते हैं कि किसान एक से ज्यादा कारणों से लगातार कर्ज के दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं।
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