सोमवार, 16 सितंबर 2013

देश को बचाने के लिए धर्म का राजनीति तलाक़ ज़रुरी

देश को बचाने के लिए धर्म का राजनीति तलाक़ ज़रुरी


तनवीर जाफ़री
religion & Politicsदेश में अगले साल 2014 में लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं. इन चुनावों में बढ़त हासिल करने की गरज़ से राजनीतिक दलों ने अपनी फसलें अभी से बोनी शुरू कर दी हैं. कुछ समय पहले तक चुनावी वर्ष को घोषणा वर्ष के रूप में जाना जाता था. यानी 4 साल तक मंहगाई, भ्रष्टाचार तथा लूट-खसोट मचाने के बाद जब सत्तारुढ़ दल जनता के बीच फिर से वोट मांगने जाता था, तो उससे पहले पूर्व कई लोकलुभावनी घोषणाएं की जाती थीं. हालांकि सत्तासीन दलों द्वारा अब भी यह हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, मगर जो राजनीतिक दल विपक्ष में हैं उन्होंने सत्ता में आने का एक नया और $खतरनाक रास्ता तलाश कर लिया है. वह है देश में सांप्रदायिकता का ज़हर घोलना तथा सांप्रदायिक दंगे-फसाद करवा कर धर्म के आधार पर मतों का ध्रुवीकरण करना और नफरत, विद्वेष तथा सांप्रदायिक हिंसा की फसल काटकर सत्ता के सिंहासन पर बैठना.
देश में यह प्रयोग पहले भी किये जा चुके हैं. ध्रुवीकरण की ‘सफल प्रयोगशाला’ संचालित करने वाली ताकतें अब देश में बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों के मध्य धर्म आधारित ध्रुवीकरण करना चाह रही हैं. ठीक वैसा ही ध्रुवीकरण जैसा भारत विभाजन के समय 1947 में देखने को मिला था. देश के तमाम भागों में सामाजिक सदभाव खराब हो रहा है. चारों ओर सांप्रदायिकता के काले बादल मंडरा रहे थे.1947 जैसी भयंकर विभाजन की त्रासदी का मोटे तौर पर आज जो परिणाम सामने है, वह यह कि भारत से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों को आज भी वहां के मुसलमान मुहाजिर कहकर बुलाते हैं. ठीक उसी तरह पाकिस्तान से भारत आने वाले हिंदुओं को यहां भी ‘रिफ्यूज़ी’ कहकर संबोधित किया जाता है.उधर पाकिस्तान अपनी भारत विरोधी नीतियों के चलते तथा सत्ता के कई केंद्र होने के नाते आज दुनिया के सबसे खतरनाक देश के रूप में अपनी पहचान बना रहा है. पाकिस्तान भूख, बेरोज़गारी, अशिक्षा तथा आतंकवाद का पर्याय बनता जा रहा है, तो भारत भी इस दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के बाद अपने भूभाग से अलग हुए इसी देश से सबसे ज्यादा सशंकित रहा करता है. यहां तक कि तीन बार छोटे-बड़े युद्ध का सामना यह दोनों देश कर चुके हैं.
ऐसे में सवाल है कि क्या एक बार फिर देश को उसी मोड़ पर ले जाने का प्रयास किया जा रहा है? सांप्रदायिक ताकतें अपनी पूरी शक्ति के साथ इन प्रयासों में लगी हुई हैं कि किसी भी तरह देश का सामाजिक सदभाव खराब हो तथा उसका राजनीतिक लाभ उठाया जाए. तरह-तरह की छोटी, व्यक्तिगत एवं पारिवारिक स्तर की बातों का बतंगड़ बनाकर देश के सामाजिक सदभाव के वातावरण को बिगाडऩे की कोशिश की जा रही है. जहां-जहां ऐसे विभाजनकारी प्रयास किए जा रहे हैं वहां-वहां विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की सक्रियता साफतौर पर देखी जा रही है.

जिन राजनीतिज्ञों से आम जनता को यह उम्मीद रहती है कि वे लोगों को हिंसा से बचाने, बिगड़े हुए माहौल को शांत करने, सदभाव $कायम करने तथा हिंसक वातावरण को अहिंसापूर्ण माहौल में बदलने की कोशिश करेंगे, वही ठीक इसके विपरीत सांप्रदायिकता फैलाने, नफरत के बीज बोने, एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों के खिलाफ उकसाने तथा हिंसा का तांडव खेलने में सक्रिय दिखाई दे रहे हैं.

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जि़ले में कुछ ऐसा ही नज़ारा देखा गया. पिछ्ले छह दशकों से परस्पर प्रेम, सदभावना व भाईचारे के वातावरण में रहने वाले जाट व मुस्लिम समुदाय एक साधारण सी घटना को लेकर आमने-सामने आ गए. एक हत्या ने हिंसा का रूप ले लिया. राजनीतिज्ञों की दिलचस्पी इस घटना में बढ़ी और पंचायत बुला ली गई. उसके बाद हिंसा का तांडव शुरू हो गया.उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य पुलिस से हिंसा पर काबू होते न देखकर तुरंत प्रभावित क्षेत्रों को सेना के हवाले कर दिया. मुज़फ्फरनगर में तो स्थितियां सुधरती दिखीं, मगर इस घटना के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई और क्षेत्रों में तनाव फैल गया है. यूं कहा जाए कि सांप्रदायिकता फैलाने वाली राजनीतिक शक्तियों द्वारा बोए गए नफरत के बीज अब उनकी लहलहाती हुई फसलों की शक्ल में नज़र आने लगे हैं, तो ज्यादा ठीक रहेगा.
दो समुदायों के किसी लडक़े-लडक़ी के प्रेम संबंध या इस सिलसिले में होने वाली हत्या जैसी घटना को लेकर माहौल का हिंसक हो जाना या दो परिवारों के बीच संघर्ष होना, यहां तक कि एक-दूसरे पक्ष के लोगों के बीच होने वाली हिंसा के दौरान किसी की मौत हो जाना जैसी घटनायें हमारे देश में होती रहती हैं. हालांकि ये ठीक नहीं है, मगर फिर भी देश के किसी न किसी भाग से ऐसी खबरें आती ही रहती हैं.परंतु जब ऐसी घटनाएं किन्हीं दो अंतर्जातीय व अंतर्धार्मिक पक्षों के मध्य हों, तो ऐसी घटनाओं को तिल का ताड़ बनते देर भी नहीं लगती. उदाहरण के तौर पर इन दिनों देश में बलात्कार की खबरें सुखियों में है. इनमें यदि कन्या दलित या मुस्लिम समुदाय से होती है, तो मीडिया एक सनसनीखेज़ शीर्षक यह जानकर बनाता है कि वह इस शीर्षक के माध्यम से ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंककर लहरें पैदा करने का काम कर देगा. यह खबर इस शीर्षक के साथ लिखी जाती है-‘दलित लडक़ी के साथ दबंगों ने किया बलात्कार’ अथवा ‘मुस्लिम लडक़ी बलात्कार की शिकार.’
सवाल यह है कि आज हमारे देश में किस धर्म व किस संप्रदाय अथवा जाति की लडक़ी सुरक्षित है. बलात्कारी किसी का धर्म अथवा जाति देखकर तो बलात्कार करते नहीं. विभाजनकारी राजनीतिज्ञों के लिए अंतर्जातीय या अंतर्धामिक विवाह अथवा इन रिश्तों के मध्य होने वाली कोई अनहोनी घटना उनके लिए राजनीतिक ऊर्जा हासिल करने का माध्यम बन जाती है. अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता तथा जातीय अस्तित्व को जि़ंदा रखने अथवा बचाने जैसे खोखले दावों के साथ यह ताकतें अपने समाज के रखवाले के रूप में सामने आ खड़ी होती है.इस प्रकार नफरत और विद्वेष की हांडी उबलने लगती है तथा सांप्रदायिकता व जातिवाद का ज़हर फिज़ा में घुलने लगता है. चुनाव आने पर होने वाली विषैली रक्तरंजित बारिश से इन्हें मनचाही फसल काटने का मौका मिल जाता है. अनपढ़, शरीफ व सीधा-साधी आम जनता इन राजनीतिक हथकंडों से नावाकिफ रहती है और इनके बहकावे में आकर इनके मनमुताबिक चलने लगती है.नतीजतन देश के सदभावनापूर्ण वातावरण पर गहरा आघात लगता है और समाज में धर्म व जाति के आधार पर नफरत का ज़हर घुल जाता है. जैसाकि इन दिनों मुज़फ्फरनगर व उसके आसपास के क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है. जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट व मुस्लिम समुदाय के लोग स्वतंत्रता से लेकर अब तक कभी भी आपस में नहीं लड़े, बल्कि एक-दूसरे के सहयोगी व सहायक बनकर रहे, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व खुशियों में शरीक नज़र आते रहे, मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों की ‘कृपा दृष्टि’ से आज आमने-सामने खड़े हैं.
देश के हालात को बिगाडऩे की साजि़श में बड़े ही नियोजित ढंग से अफवाहें फैलाने का भी काम किया जा रहा है. सोशल मीडिया विशेषकर सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पर ऐसी भडक़ाऊ सामग्री डाली जा रही है, जो विभिन्न समुदायों के बीच हिंसा बढ़ाने में सहायक हो. मिसाल के तौर पर पाकिस्तान में कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा वहां के अल्पसंख्यक मुसलमानों की बेरहमी से पिटाई करते अथवा उनका नरसंहार करते हुए चित्रों को मुज़फ्फरनगर की हिंसक घटना बताकर इस क्षेत्र के लोगों की भावनाओं को भडक़ाने की कोश्शि की जा रही है.
राजनीतिज्ञों के संरक्षण में व उनके निर्देशन पर चली जाने वाली इन विध्वंशकारी चालों से देश के आम लोगों, सरकार एवं मुख्य रूप से देश के चुनाव आयोग को सतर्कता बरतने की ज़रूरत है. अपने द्वारा किए गए चंद हितकारी कार्यों, उपलब्धियों, विशेषताओं तथा लाभकारी योजनाओं के दम पर वोट मांगने की क्षमता खो चुकने वाले राजनीतिज्ञ अब सांप्रदायिकता व जातिवाद के ज़हरीले बीज बोकर सत्ता की फसल काटने में लग गए हैं. यह रास्ता बेहद खतरनाक तथा विघटनकारी है.समय रहते राजनीतिज्ञों को नियंत्रित नहीं किया गया, तो निकट भविष्य में देश को टूटने से बचा पाना एक चुनौती बन सकती है. लिहाज़ा जहां आम लोगों को कट्टरपंथियों व विभाजनकारी प्रवृति रखने वाले राजनीतिज्ञों से सचेत होने की ज़रूरत है, वहीं सरकार व चुनाव आयोग का भी कर्तव्य है कि वह देश को संगठित रखने की खातिर राजनीति व राजनीतिज्ञों द्वारा धर्म व राजनीति को एक तराज़ू पर रखने के प्रयासों को खारिज करते हुए राजनीति से धर्म के तलाक के उपाय करे

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