शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

न्याय:कितना दूर-कितना पास -2

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइटस् इनिशिएटिव(2005)- पुलिस एकाउंटेबेलिटी- टू इम्पोर्टेंट टू नेगलेट, टू अर्जेन्ट टू डिले नामक दस्तावेज के अनुसार- http://www.humanrightsinitiative.org/publications/chogm/chogm_2005/chogm_2005_full_report.pdf
  • हिन्दुस्तान में उपरले स्तर की न्यायपालिका में समाज के अभिजन तबके का बाहुल्य है। उपरले स्तर के न्यायाधीशों की नियुक्ति में उनके द्वारा सरकार के पक्षपोषण में दिए गए फैसलों का बड़ा हाथ होता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है।
 • हिन्दुस्तान की पुलिस तादाद के लिहाज से दुनिया के चंद बड़े पुलिसबलों में एक है लेकिन इसमें महिलाओं की तादाद 2.2 फीसदी है।
 • पूरे भारतवर्ष में महिलाओं पर बड़े पैमाने पर हिंसाचार होता है लेकिन इससे संबंधित मुकदमों या फिर ऐसे अपराध रोकने की कार्रवाई पर सामाजिक रुढछवियां और पुरुष वर्चस्व की छाया होती है।
 • मामला घरेलू हिंसा की शिकार महिला का हो तो उसे खास तवज्जो नहीं दी जाती। इससे संबंधित कानून होने के बावजूद महिला को पुलिस जरुरी मदद नहीं पहुंचाती।

 • भारत भी उन देशों में से एक है जहां डीजीपी स्तर के अधिकारी की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद की चलती है। सूबे के मुख्यमंत्री अपने पसंदीदा व्यक्ति को चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता के अभाव में मनमाने ढंग से चुन लेते हैं।सेवाकालीन वरिष्ठता या फिर गुणवत्ता की उपेक्षा होती है।
• भारत में एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग है और फिर राज्यों के भी अपने मानवाधिकार आयोग हैं लेकिन कुल 35 किस्म के पुलिसबल की ज्यादती पर निगाह रखने के लिए यहां एक भी सविलियन संस्थायी व्यवस्था मौजूद नहीं है।

न्याय:कितना दूर-कितना पास

द एक्सेस टू जस्टिस, प्रैक्टिस नोटस्, यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम-यूएनडीपी(2004) के नामक दस्तावेज के अनुसार-
न्यायिक सेवा हासिल करने वालों के पक्ष से देखें तो भारत में न्याय व्यवस्था निम्नलिखित कारणों से कमजोर है-
  1. बहुत देरी से मिलता है न्याय, न्यायिक सेवा हासिल करने में खर्चे ज्यादा लगते हैं। इससे हर पीड़ित उसे हासिल नहीं कर पाता।सत्ता का दुरुपयोग।इसके परिणाम जबरिया जामातलाशी, कुर्की जब्ती, नजरबंदी और गिरप्तारी के रुप में नजर आता है। अदालती फैसलों पर अमल बड़ी मशक्कत के बाद हो पाता है।
2. विधि व्यवस्था भेदभावमुक्त नहीं है और वह समय रहते पीड़ित को अत्याचार से बचाने के उपाय नहीं प्रदान कर पाती।
  3. विधि व्यवस्था में लैंगिक तथा जातिगत पूर्वग्रह काम करते हैं। बच्चे, महिलायें, वंचित तबके के लोग और गरीब इसी कारण आसानी से न्याय हासिल नहीं कर पाते।निरक्षर और शारीरिक रुप से अक्षमता के शिकार लोगों को भी प्रभावकारी ढंग से इंसाफ नहीं मिल पाता।
4. बंदीगृह में बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा का अभाव।
5. कानूनी बारिकियों सहित कानून द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बारे में जानकारी का अभाव।
6. पीडित को जरुरत के समय पर्याप्त विधिक सहायता ना मिल पाना।
7. सुधार के कार्यक्रमों में जन-भागीदारी की कमी।
8. कानूनों का बाहुल्य।
9. कानूनी प्रक्रिया में औपचारिकता की भरमार और खर्चे की अधिकता।
10.लोगों का हताशा में यह सोचना कि कुछ नहीं हो सकता या फिर आर्थिक कारणों या भय-भावना के कारण विधिक अदालती व्यवस्था के प्रति उत्साहित ना रहना।
विनायक सेन का मामला
(बिजनेस स्टैन्डर्ड, द हिन्दू आदि समाचार पत्र)
• नागरिक अधिकारों के लिए सक्रिय बिनायक सेन ने 14 मई 2009 को विचाराधीन कैदी के रुप में जेल में दो साल पूरे किए। उन पर नक्सलवादियों (छत्तीसगढ़) के मददगार होने का आरोप लगाया गया था।
  • बिनायक सेन और उनकी पत्नी इलीना सेन ने अपना सारा जीवन समाज के वंचित तबके, गरीब और आदिवासियों के बीच स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने में लगाया है। सेन की गिरफ्तारी के बाद यह कार्य रुका और उनकी क्लीनिक तहस नहस हो गई।
  .• सुप्रीम कोर्ट से बिनायक सेन को 25 मई 2009 के दिन जमानत मिली। पीयूसीएल के उपाध्यक्ष श्री सेन को मई 2007 से अनलॉफुल एक्टिविटी(प्रीवेंशन) एक्ट के तहत नक्सलवादियों का मददगार होने का आरोप लगाकर नजरबंद रखा गया था। उन पर छत्तीसगढ़ पब्लिक सिक्युरिटी एक्ट, 2005 की धारायें भी मढ़ी गईं। दोनों कानून नागरिक स्वतंत्रता का हनन करते हैं।
  • बिनायक सेन को समाज सेवा के लिए कई अवार्ड मिल चुके हैं। इसमें जोनाथन मॉन अवार्ड ऑव ग्लोबल हेल्थ एंड ह्यूमन राइटस् भी शामिल है.
  ईरोम शर्मिला का मामला
(विविध समाचार पत्र)
• साल 2009 के नवंबर में इरोम चानू शर्मिला के आमरण अनशन के ठीक नौ साल पूरे हो गए।शर्मिला लगातार नौ सालों से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट के विरोध में भूख हड़ताल पर है।  वह फिलहाल इंफाल के जे एन इंस्टीट्युट ऑव मेडिकल साईंसेज के सिक्टुरिटी वार्ड में बंदी है।
  • उसपर आत्महत्या की कोशिश करने का आरोप है।
  • पिछले सितंबर में शर्मिला को इंफाल के किमनेईंगनाग स्थित एडीशनल चीफ मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उसकी न्यायिक हिरासत की अवधि अदालत ने दोबारा 15 दिनों के लिए बढ़ा दी ।
  • अदालत में पेश किए जाने और रिमांड पर लिए जाने का यह सिलसिला शर्मिला के साथ पिछले नौ सालों से बदस्तूर जारी है।
  • आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट की बेरहमी से शर्मिला के सामना आज से नौ साल पहले 2002 के 2 नवंबर को हुआ था। एक दिन पहले यानी 1 नवंबर 2000 के दिन मणिपुर में सक्रिय एक उग्रवादी धड़े ने सेना के एक दस्ते पर बम पर फेंका था।बदले की कार्रवाई पर उतारु 8 वीं असम राईफल्स के जवानों ने मलोम स्थित एक बस स्टैंड पर अंधाधुंध फायरिंग की। अगले दिन मणिपुर के अखबारों में हताहतों की हृदयविदारक तस्वीरें छपीं ।
  • इस घटना का शर्मिला पर गहरा असर पडा और 4 नंवबर 2000 के दिन से वह सेना को विशेषाधिकार देने वाले इस खास कानून के विरोध में आमरण अनशन पर बैठ गई।
  • मानवाधिकार संगठनों की मानें तो  आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर) एक्ट(1958) पिछले 45 सालों में भारतीय संसद द्वारा पास किया गया सबसे क्रूर कानून है।
  • आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावरस्) एक्ट (1958) का पहला प्रयोग असम और मणिपुर में हुआ।
• साल 1972 के संशोधन के बाद इसे पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों पर लागू किया गया। इस कानून के द्वारा फौजों को उपद्रवग्रस्त घोषित इलाकों में अपना ऑपरेशन मनमाने तरीके से चलाने की अकूत ताकत दी गई है ।
  • यह कानून एक गैर-कमीशंड अधिकारी तक को शक के आधार पर या कानून व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर जबरिया तलाशी ही नहीं किसी पर भी गोली चलाने का अधिकार देता है।यह कानून कई कोणों से न्यायभावना के विरूद्ध है।
  • मिसाल के लिए इस कानून में यह नहीं बताया गया कि किन परिस्थितयों की मौजूदगी हो तो किसी इलाके को उपद्रवग्रस्त माना जाय। बस इतना कहा गया गया है कि अधिकारी वर्ग को लगना चाहिए कि किसी इलाके में हालात इतने बिगड़ उठें हैं कि सैन्य बल की तैनाती के बिना कानून-व्यवस्था नहीं बहाल की जा सकती।
  • इस परिभाषा की अस्पष्टता को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट में इंद्रजीत बरुआ बनाम असम सरकार नाम का एक मुकदमा चला था। अदालत ने तब गोलमटोल फैसला सुनाया कि परिभाषा की अस्पष्टता कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि सरकार और भारतीय जनता इसका आशय बखूबी समझती है।
• इस कानून को लेकर एक दफे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी भारत की किरकिरी हुई है।  1991 में भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ की मानवाधिकार समिति के सामने अपनी दूसरी रिपोर्ट पेश की तो समिति के सदस्यों ने स्पेशल एक्ट की वैधता पर सवाल उठाये और पूछा कि इस कानून को भारतीय कानूनों की न्यायभावना के विपरीत क्यों ना माना जाय।



ललित मेहता की हत्या

(स्रोत- राइट टू फूड इंडिया)

• विकास सहयोग केंद्र( पलामू जिला ) के सदस्य ललित मेहता की 14 मई 2008 के दिन बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी गई। श्री मेहता इस दिन मोटरसाइकिल से डाल्टेनगंज से छत्तरपुर लौट रहे थे।

  • ललित मेहता(उम्र 36 साल), भोजन का अधिकार अभियान और ग्राम स्वराज अभियान के सक्रिय सहयोगी थे। वे भोजन और काम के अधिकार को लेकर पिछले पंद्रह वर्षों से इलाके में कार्य कर रहे थे।स्वभाव से अति विनम्र श्री मेहता के कार्यों की इलाके में खूब सराहना हो रही थी। भ्रष्टाचार की पोल खोलने, शोषण के खिलाफ आवाज उठाने और निहित स्वार्थों से टकराने में श्री मेहता ने अद्भुत साहस का परिचय दिया था।
  • जिन दिनों श्री मेहता की हत्या हुई उन दिनों वे नरेगा के कामों के सामाजिक अंकेक्षण के लिए पलामू जिले के छत्तरपुर और चैनपुर प्रखंड में दिल्ली से आये स्वयंसेवकों की टोली की रहबरी कर थे।

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