गुरुवार, 26 सितंबर 2013

भुखमरी-एक आकलन -2

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http://www.im4change.org/hindi/searchResult.php?qryStr=%E0%A4%AD%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%80
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा प्रस्तुत 2010 ग्लोबल हंगर इंडेक्स नामक दस्तावेज के अनुसार, http://www.ifpri.org/pressroom/briefing/2010-global-hunger
-index-crisis-child-undernutrition


•    इस दस्तावेज में 122  विकासशील देशों के बारे में भुखमरी के आंकड़े दिए गए हैं और इन्ही आंकड़ों के आधार पर ग्लोबर हंगर इंडेक्स तैयार किया गया है।

•    इंडेक्स को तैयार करने में मुख्य रुप से तीन आधार मानकों का इस्तेमाल किया गया है- (क)किसी देश की कुल जनसंख्या में अल्पपोषित लोगों का अनुपात कितना है, (ख) किसी देश में पाँच साल की उम्र के बच्चों में औसत से कम वज़न वाले बच्चों का अनुपात कितना है, और (ग) बाल-मृत्यु दर।

•    इंडेक्स पैमाना शून्य से सौ तक के अंकों में विभाजित है। शून्य इसमें सर्वश्रेष्ठ अंक हैं जिसका मतलब है भुखमरी की समस्या नहीं है जबकि इसके विपरीत सौ सर्वाधिक बुरा अंक है जो भुखमरी की अधिकतम मौजूदगी बताता है।

•    अगर ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर किसी देश का स्कोर बढ़ रहा है तो इसका अर्थ है वहां भुखमरी की समस्य़ा तिलनात्मक रुप से बढ़ी है और घट रहा है तो इसका अर्थ है भुखमरी की समस्य़ा तुलनात्मक रुप से घटी है।

•    ग्लोबल हंगर इंडेक्स में साल 2003-2008 तक के आंकड़े उपलब्ध हैं, जो अब तक के अद्यतन आंकड़े हैं।

•   साल 1990 के बाद से वैश्व के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 25 अंकों की गिरावट आई है। फिर भी विश्व में भुखमरी की यह स्थिति गंभीर ही कही जाएगी।

•    दक्षिण अफ्रीका और उप-सहारीय अफ्रीकी देशों में सर्वाधिक भूखमरी है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स पैमाने पर इनके अंक क्रमश 22.9 और 21.7 हैं।

•    एशिया में औसत से कम वज़न वाले सर्वाधिक बच्चे(40 फीसदी)बांग्लादेश, भारत और पूर्वी तिमूर में हैं।

•    हालांकि गुजरे 25 सालों में बांग्लादेश ने पाँच साल तक की उम्र वाले बच्चों के मृत्यु दर में कमी लाने की अच्छी कोशिश की है लेकिन अब भी वहां 1000 में से 54 बच्चे पाँच साल की उम्र पूरी करने से पहले मर जाते हैं जबकि इसी आयु वर्ग के कुल 43 फीसदी बच्चों की बढ़वार औसत से कम है।

•    चीन ने स्वास्थ्य, परिवार-नियोजन और पोषण संबंधी अपनी प्रभावकारी नीतियों के जरिए 1990 से 2002 के बीच बाल-कुपोषण को 25 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी करने में सफलता हासिल की है।

•    भारत: साल 1990 से 2008 के बीच औसत से कम वज़न वाले बच्चों की तादाद 60 फीसदी से घटकर 44 फीसदी हो गई है जबकि पाँच साल तक की उम्र वाले बच्चों की मृत्यु दर 12 फीसदी से घटकर 7 फीसदी हो गई है।

•    साल 2005-06 में भारत में तकरीबन 44 फीसदी बच्चे(पाँच साल तक की उम्र वाले) औसत से कम वज़न के थे। भारत की आबादी अधिक है और इस कारण विश्व के औसत से कम वज़न वाले बच्चों की कुल संख्या का 42 फीसदी और औसत से कम बढ़वार वाले बच्चों का 31 फीसदी भारत में रहता है।
फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन और वर्ल्ड फूड प्रोग्राम द्वारा प्रस्तुत द स्टेट ऑव फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड: एड्रेसिंग फूड इन्सिक्युरिटी इन प्रोट्रैक्टेड क्राइजेज नामक दस्तावेज के अनुसार-

•    हालांकि साल 2010 में विश्वस्तर पर भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या में कमी आई है(इससे पहले ऐसा 1995 में हुआ था) तो भी इनकी संख्या तकरीबन एक अरब है और यह किसी भी लिहाज से बहुत ज्यादा है। भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या में कमी का एक बड़ा कारण विकासशील देशों में हो रही तेज आर्थिक प्रगति और साल 2008 में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य पदार्थों की कीमतों में हुई गिरावट को बताया जा रहा है।

•    कुल 92 करोड़ 50 लाख लोग(यानी विकासशील देशों की कुल जनसंख्या का 16 फीसदी हिस्सा) अब भी पूरी दुनिया में किसी ना किसी रुप में भोजन की कमी से जूझ रहे हैं। इससे पता चलता है कि संरचनागत स्तर गंभीर कमियां मौजूद हैं। सहस्राब्दि विकास लक्ष्य और 1996 के विश्व खाद्य सम्मेलन में जिन वैश्विक लक्ष्यों को हासिल करने की बात कही गई है उस दिशा में यह संख्या एक बड़ी बाधा है।

•    रिपोर्ट में वैसे 22 देशों को चिह्नित किया गया है जहां लोग गंभीर रुप से भोजन की कमी से जूझ रहे हैं। इन देशों में भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या 16 करोड़ 60 लाख है जो कि इन देशों की आबादी का 40 फीसदी है और भुखमरी की शिकार कुल वैश्विक आबादी का 20 फीसदी।

•    सामान्यतया, भोजन की गंभीर कमी से जूझ रहे इलाकों में अल्पपोषित लोगों की संख्या कुल आबादी का एक तिहाई है।ज्यादातर विकासशील देशों की भी ऐसी ही स्थिति है(अगर इसमे चीन और भारत की गणना ना करें तो)

•   आमदनी में कमी बेशी, सरकारी नीतियों की प्रभावकारिता, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और भोजन की कमी के हालात की साल दर साल निरंतरता जैसे कारक बहुत हद तक अल्पपोषण की स्थिति के लिए निर्णायक कारक हैं।

•   नवीनतम आंकड़ों के अनुसार विश्व में साल 2009 में अल्पपोषित लोगों की संख्या 1 अरब 20 करोड़ 30 लाख थी। एक साल के अंदर(यानी 2010 में) इसमें 9.6 फीसदी की गिरावट आई है। इस तरह साल 2010 में अल्पपोषित लोगों की संख्या 92 करोड़ 50 लाख तक पहुंची है। विकासशील देशों में अल्पपोषित लोगों की वैश्विक तादाद का 98 फीसदी हिस्सा रहता है।

•    अनाजों के भाव अंतर्राष्ट्रीय मंडियों में हाल के दिनों में अपनी सर्वाधिक ऊँचाई से गिरे हैं। साल 2009-10 में खाद्यान्न की आवक भरपूर हुई है। फिर भी कम आमदनी और खाद्य-संकट वाले देशों में खाद्य-पदार्थों के दाम वहीं के वहीं जमें हैं जहां वे 2008 से पहले(यानी खाद्य-पदार्थों के दामों में तेज बढोतरी से पहले) थे। इससे ऐसे देशों में ज्यादातर आबादी भरपेट भोजन हासिल नहीं कर पा रही।

•    भोजन की कमी से जूझ रहे ज्यादातर लोग विकासशील देशों में रहते हैं। इस आबादी का दो तिहाई हिस्सा सिर्फ सात देशों- बांग्लादेश,चीन, कोंगो, इथोपिया, भारत, इंडोनेशिया और पाकिस्तान में रहता है।

•    एशिया-पैसेफिक क्षेत्र में सर्वाधिक लोग भोजन की कमी के शिकार हैं। यहां साल 2009 में ऐसे लोगों की संख्या 65 करोड़ 80 लाख थी और साल 2010 में 12 फीसदी घटकर 57 करोड़ 80 लाख तक पहुंची।

•   विकासशील देशों को एक समूह के रुप में देखा जाय तो ऐसा नहीं लगता कि ये देश वर्ल्ड फूड समिट के लक्ष्यों(साल 1990-92 में अल्पपोषित लोगों की संख्या 82 करोड़ 70 लाख जबकि साल 2010 में अल्पपोषित लोगों की संख्या 90 करोड़60 लाख) को समय रहते पूरा कर पायेंगे।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम और एम एस स्वामीनाथन फाउंडेशन द्वारा संयुक्त रुप से प्रस्तुत रिपोर्ट ऑन द स्टेट ऑव फूड इनसिक्युरिटी इन रुरल इंडिया नामक दस्तावेज के मुताबिक-
http://documents.wfp.org/stellent/groups/public/documents/
newsroom/wfp197348.pdf

  • फूड एंड एग्रीकल्चरल ऑर्गनाइजेशन द्वारा विश्व में आहार-असुरक्षा की स्थिति पर जारी हाल(साल २००८) की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तकरीबन २३ करोड़ लोगों को रोजाना भरपेट भोजन नसीब नहीं होता यानी भारत में कुल आबादी का २१ फीसदी हिस्सा भुखमरी का शिकार है।
  • उड़ीसा, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और राजस्थान ऐसे राज्य हैं जहां की जनसंख्या में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है जिन्हें रोजाना १८९० किलो कैलोरी से कम ऊर्जा देने वाला भोजन नसीब होता है। पंजाब में भी एसे लोगों की तादाद बढ़ी है मगर कुल जनसंख्या के बीच उनका अनुपात बहुत कम है।
  • साल २००१ में झारखंड के लगभग दो तिहाई घरों को साफ पेयजल हासिल नहीं था।
  • छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, और मध्यप्रदेश में ९० फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास घर के अहाते में शौचालय की सुविधा नहीं है।
  • कुल आठ राज्यों- आंध्रप्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश और राजस्थान में मां बनने के आयु-वर्ग में आने वाली महिलाओं में एनीमिया ( यानी खून में लौहतत्व की कमी ) की घटना बढ़ी है। इस आयु वर्ग की महिलाओं के बीच एनीमिया की सर्वाधिक बढ़ोत्तरी आंध्रप्रदेश में (५१ से ६४ फीसदी ) हुई है। आंध्रप्रदेश के बाद हरियाणा (४८ से ५७ फीसदी) और केरल(२३ से ३२ फीसदी ) का नंबर है।
  • असम में क्रानिक एनर्जी डिफीशिएन्सी से पीडि़त महिलाओं की संख्या में तेज बढोत्तरी हुई है।यहां ऐसी महिलाओं की तादाद २८ फीसदी से बढ़कर ४० फीसदी हो गई। बिहार में ऐसी महिलाओं की तादाद ४० फीसदी से बढ़कर ४६ फीसदी, मध्यप्रदेश में ४२ फीसदी से बढ़कर ४५ फीसदी और हरियाणा में क्रानिक एनर्जी डिफीशिएन्सी से पीडि़त महिलाओं की संख्या ३१ फीसदी से बढ़कर ३३ फीसदी हो गई है।.
  • जिन बीस राज्यों में यह अध्ययन किया गया उनमें १२ में ग्रामीण इलाकों के ८० फीसदी से ज्यादा बच्चे एनीमिया से पीडित थे। बिहार के ग्रामीण इलाके में एनीमिया से पीडि़त बच्चों की तादाद पहले ८१ फीसदी थी जो बढ़कर ८९ फीसदी हो गई है।
  • कर्नाटक के ग्रामीण इलाके में औसत से कम वजन और कद के बच्चों की तादाद ३९ फीसदी से बढ़कर ४३ फीसदी हो गई है।
  • द इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) द्वारा जारी द इंडिया स्टेट हंगर इंडेक्स में १६३२ किलो कैलोरी प्रतिव्यक्ति-प्रतिदिन को मानक मानकर भुखमरी की गणना की गई है जबकि संयुक्त राष्ट्रसंघ के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम और एम एस स्वामीनाथन फाउंडेशन द्वारा संयुक्त रुप से प्रस्तुत रिपोर्ट में १८९० किलो कैलोरी प्रतिव्यक्ति-प्रतिदिन को मानक माना गया है क्योकि अंतर्राष्ट्रीय मानक २७०० किलो कैलोरी का है और अनुशंसा की गई थी कि भुखमरी के आकलन में अंतर्राष्ट्रीय मानक के एक तिहाई को भारत के लिए मानक बनाया जाये।
  • भारत के ग्रामीण इलाके में आहार-असुरक्षा की स्थिति का जायजा लेने के लिए इस अध्ययन में निम्नलिखित बातों की गणना की गई-:
  • १८९० किलो कैलोरी से कम ऊर्जा का भोजन प्राप्त करने वाले लोगों की तादाद कुल जनसंख्या में कितनी है।
  • साफ पेयजल की सुविधा से कितने फीसदी परिवार वंचित हैं। कितने फीसदी परिवारों के घर में शौचालय की सुविधा नहीं है।
  • १५ से ४९ साल की विवाहित महिलाओं में एनीमिया से पीडितों की संख्या(प्रतिशत में) कितनी है।
  • १५ से ४९ साल के आयुवर्ग की कितनी फीसदी महिलायें क्रानिक एनर्जी डफीशिएन्सी से पीड़ित हैं।
  • ६ से ३५ महीने की उम्र के कितने फीसदी बच्चों को एनीमिया है।
  • ६ से ३५ महीने की उम्र के कितने फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन और कद के हैं।
  • ऊपरोक्त मानकों के आधार पर ग्रामीण भारत में आहार-असुरक्षा का जायजा लेने वाले इस रिपोर्ट में कहा गया है कि झारखंड और और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में आहार-असुरक्षा की स्थिति अत्यंत गंभीर है और मध्यप्रदेश, बिहार तथा गुजरात जैसे राज्य इससे थोड़े ही बेहतर हैं।
  • आहार-असुरक्षा के पैमाने पर बेहतर स्थिति दर्ज कराने वाले राज्यों में हिमाचल प्रदेश,केरल ,जम्मू-कश्मीर और पंजाब का नाम लिया जा सकता है जबकि आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा और महाराष्ट्र में आहार असुरक्षा की स्थिति गंभीर है। रिपोर्ट के मुताबिक जारी खेतिहर संकट का एक रुप आहार-असुरक्षा और ग्रामीण भारत में सेहत की गिरती स्थिति के तौर पर नजर आ रहा है।
  • आक्सफैम द्वारा प्रस्तुत नॉरिश साऊथ एशिया- ग्रो अ बेटर फ्यूचर फॉर रिजनल फूड जस्टिस-(लेखक स्वाति नारायण, सितंबर 2011) नामक रिपोर्ट के अनुसार- http://www.oxfam.org/sites/www.oxfam.org/files/cr-nourish-
    south-asia-grow-260911-en.pdf
     
    बच्चों की दशा भुखमरी की स्थिति में सबसे ज्यादा दयनीय होती है।भारत में  प्रतिदिनघर, पुनर्वास केंद्र और अस्पतालों में  2000 से ज्यादा बच्चे भोजन की कमी का शिकार होकर मरते हैं और इसकी कोई खबर मीडिया में नहीं बनती।
    खाद्य-संकट और वित्तीय-संकट जिस समय अपनी चरम सीमा पर था उस वक्त दक्षिण एशिया में 10 करोड़ से ज्यादा लोग एकबारगी भोजन की कमी के शिकार लोगों की श्रेणी में शामिल हुए। इस सिलसिले में यह गुजरे चार दशकों की सबसे बड़ी संख्या है।
    भारत में भूमि-सुधार को दशकों बीत चुके हैं लेकिन देश की 41 फीसदी ग्रामीण जनता व्यवहारिक अर्थो में भूमि हीन है।
    पाँच सालों के अंदर(2009-10) महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का विस्तार पाँच करोड़ 30 लाख परिवारों यानी हद से हद भारतीय ग्रामीण आबादी के 33 फीसदी तक हो पाया है।
    चूंकि नरेगा में पंचायत के द्वारा इस बात का फैसला होता है कि किस तरह की योजना पर काम होगा इसलिए नरेगा के तहत होने वाले सार्वजनिक निर्माण के काम पर्यावरणीय सुरक्षा को प्रधान मानकर होते हैं (क्योंकि कामों के चयन में यह दृष्टि कानून के हिसाब से जरुरी है) गुजरे तीन सालों में नरेगा के अन्तर्गत 10 लाख 90 हजार काम जल-संरक्षण और बाढ़-बचाव से संबंधित किए गए हैं।
    भारत में 10 करोड़ हेक्टेयर जमीन जट्रोफा की खेती के लिए रख छोड़ी गई है। व्यवहारिक रुप से देखें तो 85 फीसदी किसानों ने जट्रोफा की खेती से तौबा कर लिया है।
    भारत में खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से नीतिगत स्तर पर लापरवाही की एक मिसाल- भारत सरकार जट्रोफा की खेती को बढ़ावा देने और उसकी खेती के लिए बड़े आक्रामक तरीके से कदम उठा रही है। जट्रोफा की खेती फिलहाल 1 करोड़ 10 लाख हेक्टेयर(2 करोड़ 70 लाख एकड़) जमीन पर हो रही है। इसमें खेती-बाड़ी की नियमित जमीन भी शामिल है। इससे खाद्यान्नी फसलों की खेती बाधित हो रही है। भारत सरकार की मंशा है कि साल 2017 तक पेट्रोल-डीजल की खपत का 20 फीसदी जट्रोफा से पूरा हो। इस मंशा से छुटकारा पाना जरुरी है।
    साल 2008-09 यानी खाद्य-संकट के साल में भी दक्षिण एशिया के ज्यादातर देशों में सरकारी खाद्य-भंडार भरपूर भरे हुए थे( जितना खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से रखा जाना जरुरी है उससे ज्यादा मात्रा में खाद्यान्न भंडारों में मौजूद था)। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने उन दिनों याद दिलाया था कि भारत के सरकारी अन्न-भंडारघरों में जितना अनाज रखा हुआ है उसे अगर बिछा दिया जाय तो वह 10 लाख किलोमीटर लंबाई की सड़क को ढंक लेगा और इतनी लंबाई की सड़क पर चढ़कर कोई चाँद तक पहुंच सकता है।ज्यां द्रेज की यह बात आज के सूरतेहाल में भी सच है।
    यद्यपि दक्षिण एशिया की आबादी में मौजूद गरीबों की तादाद का तीन चौथाई हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है, और इनमें ज्यादातर लोग अन्नोत्पादक हैं फिर भी इन्हें खाद्यान्न खरीदकर पेट भरना पड़ता है।ऐसे परिवारों के बजट में भोजन पर होने वाला खर्चा एक बड़ा मद है।दक्षिण एशिया में गरीब ग्रामीण परिवार अपनी आमदनी का 50 फीसदी हिस्सा भोजन पर खर्च करते हैं जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में यह आंकड़ा 17 फीसदी का है। खाद्य-कीमतों की स्फीति इस लिहाज से बड़ी मारक है। इसका सबसे ज्यादा असर गरीबों पर होता है।
    दक्षिण एशिया में 25 करोड़ से ज्यादा की तादाद में दलितजन बड़ी दयनीय दशा में जीवन बसर करते हैं। असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद अश्पृश्यता ने नए अवतार ग्रहण किए हैं। भारत भर के 35 फीसदी गांवों के सर्वेक्षण के बाद पाया गए कि दलित किसानों को स्थानीय बाजार में अपने उत्पाद बेचने से रोका जाता है। मुसहर जनजाति के लोग खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति में हैं।
    देश की आबादी में जनजातीय की तादाद महज 9 फीसदी है लेकिन गुजरे तीन दशकों में इनमें से 5 करोड़ 50 लाख आदिवासी अपनी परंपरागत रिहायशी इलाके और जीविका को कारखाने, बड़े बाँध तथा अन्य विकास योजनाओं के कारण छोड़ने को बाध्य हुए हैं।
    90 फीसदी जनजातीय आबादी या तो भूमिहीन है या फिर उनके पास इतनी कम जमीन है कि पेट भरने लायक अनाज नहीं हो पाता। द सेंटर फॉर एन्वायर्नमेंट एंड फूड सिक्युरिटी के एक सर्वेक्षण(2005) का निष्कर्ष है कि कि 99 फीसदी आदिवासी परिवार निरंतर भोजन की कमी झेलते हैं। उन्होंने साल के किसी भी महीने हर रोज दो जून की रोटी नसीब नहीं होती।
    दक्षिण एशिया की दो तिहाई आबादी सामंती ग्रामीण परिवेश में रहती है। यहां भोजन के लिए जमीन का होना जरुरी है लेकिन इन इलाकों में जमीन कुछेक लोगों के हाथ में केंद्रित है। हालांकि जमींदारी की प्रथा कानून खत्म हो गई है लेकिन सही मायनों में अभी भूमि-सुधार(आबंटन के अर्थ में) होना बाकी है।
    दक्षिण एशिया में तकरीबन दो तिहाई किसानों के पास 5 एकड़ से भी कम जमीन है। ज्यादातर किसान ऐसे हैं जिनके पास जोती जा रही जमीन की मिल्कियत नहीं है।
    भारत में कृषिगत श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी 30 फीसदी की है।
    तकरीबन 46 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिनका कृषिगत श्रम में योगदान तो है लेकिन उन्हें इससे आय अर्जित नहीं होता क्योंकि वे कृषिकर्म में पारिवारिक सदस्य के तौर पर भाग लेती हैं और इस तरह उन्हें कोई भुगतान नहीं होता।
    भारत में महज 40 फीसदी गरीबों को 11 सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं से किसी तरह का लाभ हासिल होता है। इन 11 योजनाओं पर सरकार जीडीपी का 2 फीसदी व्यय करती है।
    भारत में 1960 में खेती का जीडीपी में हिस्सा 62 फीसदी था जबकि 2011 में मात्र 17 फीसदी। इस समस्या की मूल बात यह है कि ग्रामीण इलाके में आधी से अधिक आबादी जीविका के लिए खेती पर निर्भर है।
    1950 के बाद से अबतक दक्षिण एशिया की जनसंख्या तीन गुनी हो गई है। अगले चालीस सालों में इलाके की आबादी 2.3 अरब हो जाएगी। पैदावार की कमी और खाद्य-सुरक्षा की मौजूदा स्थिति जारी रही तो इतनी बड़ी आबादी का पेट भरना मुश्किल होगा।
    फिलहाल पूरे दक्षिण एशिया में 1730 फीसदी आबादी को उतनी खाद्य-उर्जा हासिल नहीं है जितने को वैश्विक स्तर पर मानक माना गया है।
    गुजरे चार दशकों में दक्षिण एशिया में खाद्यान्न का उत्पादन तीन गुना बढ़ा है लेकिन प्रति व्यक्ति खाद्य-उपलब्धता इसके परिमाण में नहीं बढ़ी है।बीते 17 सालों में भारत की आबादी 17 फीसदी बढ़ी है जबकि खाद्यान्न का उत्पादन इस वृद्धि-दर की तुलना में आधा रहा है।
    छोटे और सीमांत किसानों को मिल रही सब्सिडी को व्यस्थित रुप से खत्म किया गया है। साल 2010 में उर्वरक-सब्सिडी का स्थान कैश-सब्सिडी ने लिया। एक्सटेंशन सर्विसेज के लिए बज़ट अब ना के बराबर होता है और कृषिगत शोधसंस्थान दयनीय दशा में हैं।
    भारत सरकार का आकलन है कि साल 1990 से अबतक महज 1.5 फीसदी कृषिगत जमीन गैर खेतिहर कामों में इस्तेमाल की गई है। परंतु जमीन की इतनी मात्रा से भी 4 करोड़ 30 लाख लोगों के पेट को भरने लायक अनाज सालाना उपजाया जा सकता था।
    पूरे दक्षिण एशिया में 60 फीसदी कृषि-क्षेत्र मॉनसून की वर्षा पर निर्भर है।
    भारत सरकार द्वारा निर्गत अनाज का महज 41 फीसदी हिस्सा गरीबों को मिल पाता है।
    साल 2008 में भारत सरकार ने किसानों की आत्महत्या के मद्देनजर तकरीबन 4 करोड़ किसानों को दिए गए 15 बिलियन डॉलर का कर्ज माफ कर दिया लेकिन इसका ज्यादा सकारात्मक असर देखने में नहीं आया।
    भारत में प्रतिदिन तकरीबन 130 करोड़ रुपये के फल-सब्जी बाजार में पहुंचने से पहले बर्बाद हो जाते हैं।
    फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन (एफएओ) द्वारा प्रस्तुत द स्टेट ऑव फूड इनसिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड-२००८ नामक दस्तावेज के अनुसार-  ftp://ftp.fao.org/docrep/fao/011/i0291e/i0291e02.pdf
    ·         दुनिया में भुखमरी से पीडित लोगों की संख्या बढ़ रही है। वर्ल्ड फूड समिट का लक्ष्य है कि विश्व में भुखमरी से पीडित लोगों की संख्या को साल २०१५ तक कम करके आधा कर देना है लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करना कई देशों के लिए कठिन होता जा रहा है। एफएओ का हालिया आकलन कहता है कि साल २००७ में विश्व में भुखमरी से पीडि़त लोगों की तादाद ९२ करोड़ ३० लाख थी और साल १९९०-९२ की मुकाबले भुखमरी से पीडित लोगों की संख्या में ८ करोड़ लोगों का इजाफा हुआ है। .
    ·         भुखमरी के बढ़ने का एक बड़ा कारण खाद्य सामग्री की कीमतों का बढ़ना है। भुखमरी से पीडित लोगों की संख्या में सर्वाधिक तेज गति से बढोत्तरी साल २००३-०५ से २००७ के बीच हुई। एफएओ के आकलन के मुताबिक साल २००३-०५ में जितने लोग भुखमरी से पीडि़त थे उनकी संख्या में साल २००७ में साढे सात करोड़ का इजाफा हुआ। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें लोगों को आहार असुरक्षा की स्थिति में ढकेल रही हैं। जो पहले से आहार असुरक्षा के दुष्चक्र में हैं उनकी स्थिति और दयनीय हो रही है।
    ·         निर्धनतम,भूमिहीन और जीविकोपार्जन के लिए महिलाओं पर आश्रित परिवारों पर सबसे ज्यादा चोट पड़ी है।विकासशील देशों में शहरी और ग्रामीण इलाके के अधिसंख्य परिवार अपने भोजन सामग्री के लिए खरीदारी पर निर्भर हैं। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों से लोगों की वास्तविक आमदनी में कमी आयी है ।नतीजतन ,  भोजन की मात्रा तथा उसकी गुणवत्ता में कमी आने से गरीबों में कुपोषण बढ़ा है।
    ·         खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों को रोकने के लिए सरकारों ने जो शुरूआती प्रयास किये वे असफल रहे हैं। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के नकारात्मक असर को रोकने के लिए सरकारों वने कई उपाय किये। मिसाल के लिए कीमतों पर नियंत्रण की कोशिशें की गईं और निर्यात पर अंकुश लगाया गया। सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से ऐसे त्वरित उपाय करना लाजिमी था लेकिन ये सारे प्रयास अस्थायी तौर पर किए गए और बहुत संभव है कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में हो रही लगातार बढ़ोत्तरी के मद्देनजर ये प्रयास कारगर ना सिद्ध हों।
    ·         भारत और चीन का आकार बड़ा है। यहां विश्व के सर्वाधिक लोग निवास करते हैं और ठीक इसी कारण भारत और चीन को एक साथ मिला दें तो इन दो देशों में विकासशील देशों में मौजूद भुखमरी से पीड़ित लोगों की कुल संख्या के ४२ फीसदी लोग रहते हैं।
    ·         साल १९९०-९२ और फिर १९९० के दशक के मध्यवर्ती सालों में भारत में भुखमरी से पीड़ित लोगों की संख्या में कमी आयी लेकिन १९९५-९७ के बाद ये सिलसिला रुक गया। चूंकि भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की तादाद कुल जनसंख्या में २१ फीसदी है इसलिए इनकी संख्या में तेजी से कमी लाना अपने आप में बहुत मुश्किल चुनौती है।
    ·         साल १९९५-९७ के बाद भारत में प्रति व्यक्ति-प्रतिदिन आहार-ऊर्जा की आपूर्ति में कमी आयी। इससे जनसंख्या में कुपोषण से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ी। जहां तक प्रति व्यक्ति-प्रतिदिन आहार-ऊर्जा में मांग की बढ़ोत्तरी का सवाल है, भारत में लाइफ एक्सपेक्टेन्सी (जीवनधारिता) १९९०-९२ से ५९ साल से बढ़कर ६३ साल हो गई है। इससे जनसंख्या की बनावट में बुनियादी बदलाव आये हैं और आहार उर्जा की आपूर्ति की अपेक्षा उसकी मांग की गति बढ़ गई है।
    ·         १९९० के दशक मध्यवर्ती सालों से भारत में प्रति व्यक्ति-प्रतिदिन आहार ऊर्जा की आपूर्ति में कमी आयी तो दूसरी तरफ इसकी मांग में बढ़ोत्तरी हुई। नतीजतन भारत में साल २००३-०५ में आहार की कमी से पीड़ित लोगों की संख्या में लगभग ढाई करोड़ का इजाफा हुआ। बुजुर्गों की बढ़ी हुई तादाद से प्रतिवर्ष लगभग ६५ लाख टन अतिरिक्त आहार की जरुरत बढ़ी।बहरहाल, प्रतिशत के हिसाब से देखें तो साल १९९०-९२ में भारत में भुखमरी २४ फीसदी थी जो २००३-०५ में घटकर २१ फीसदी हो गई। इससे संकेत मिलते हैं कि भारत मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स को पूरा करने की दिशा में प्रगति कर रहा है।

    मैक्रोस्कैन नामक वेवसाइट पर उपलब्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक के आलेख एग्ररेरियन क्राइसिस एंड डिस्ट्रेस इन रुरल इंडिया(साल २००३) के अनुसार-
    http://www.macroscan.org/fet/jun03/fet100603Agrarian%20Cri
    sis_1.htm


    • साल १९९० के दशक में प्रति व्यक्ति आहार उपलब्धता में लगातार गिरावट आई। यह बात ग्रामीण भारत के लिए भी कही जा सकती है और शहरी भारत के लिए भी। साल २००२-०३ में हालत ये हो गई कि भारत में प्रतिव्यक्ति आहार उपलब्धता उतनी भी नहीं रही जितनी दूसरे विशव युद्ध के सालों में थी जबकि उन सालों में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था।
    • साल १९८३ में ग्रामीण भारत में हर व्यक्ति को प्रतिदिन औसतन २३०९ किलो कैलोरी का आहार हासिल था जो साल १९९८ में घटकर २०११ किलो कैलोरी रह गया।
    • साल १८९७-१९०२ के बीच देश में हर व्यक्ति पर सालाना १९९ किलोग्राम खाद्यन्न उपलब्ध था जो साल २००२-०३ में घटकर १४१ किलो ५०० ग्राम रह गया। इससे पता चलता है कि खाद्यान्न की उपलब्धता के लिहाज से अंग्रेजो का जमाने में हालत आज के वक्त से कहीं ज्यादा अच्छी थी।
    • एक तथ्य ये भी है कि इन सालों में अनाज के सरकारी गोदाम भरे हुए थे जबकि इन्ही सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आयी। इससे संकेत मिलते में हैं कि ग्रामीण भारत के लोगों के पास खरीददारी की ताकत कम हुई और इसके फलस्वरुप ना खरीदा हुआ अनाज गोदामों में पड़ा रहा।
    • साल १९९० के दशक में मजदूरों-किसानों की खरीददारी की क्षमता में काफी कमी आई-खासकर ग्रामीण भारत में। इससे एक तरफ ग्रामीण भारत में खेतिहर संकट गहराया तो दूसरी तरफ अनाज के सरकारी गोदामों में अनाज सड़ता रहा।
    • खेतिहर उत्पाद की बढ़ोत्तरी की दर में ही कमी नहीं आई, बल्कि १९९० के दशक में बढ़ोत्तरी की दर (चाहे हम पूरी कृषि के लिहाज से देखें या फिर अनाज के उत्पादन के लिहाज से)  जनसंख्या की बढ़ोत्तरी की दर के मुकाबले पीछे रही जबकि १९८० के दशक में स्थिति उल्टी थी। आजादी के बाद के दशकों में सिर्प १९९० का दशक ही ऐसा रहा जब प्रति व्यक्ति अनाज उत्पादन में कमी आयी।
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    • ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज के अनुसार-
      http://www.planningcommission.nic.in/plans/planrel/fiveyr/
      11th/11_v2/11v2_ch4.pdf


      • साल २००६ के दिसंबर में द नेशनल न्यूट्रीशनल मॉनिटरिंग ब्यूरो (एनएनएमबी) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इससे पता चला कि भारत में दाल, हरी सब्जियों, दूध और फल जैसे स्वास्थ्यवर्धक चीजों का उपभोग अप्रर्याप्त  है। नतीजतन, सूक्ष्म पोषक तत्त्व जैसे विटामिन ए , आयरन, राइबोफ्लेविन और फोलिक एसिड का उपयोग भी सभी आयु-वर्गो में जरुरत के हिसाब से कम है।  .
      • पांच साल से कम उम्र के बच्चों के सर्वेक्षेण से प्राप्त आंकड़े कहते हैं कि इन बच्चों में विटामिन ए और विटामिन बी कांप्लेक्स की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग के लक्षण पाये गए। प्रति हजार बच्चे में छह बच्चे विटामिन ए कमी से होने वाले रोग से ग्रस्त हैं तो ८ बच्चे विटामिन बी कांप्लेक्स की कमी से होने वाले रोग के लक्षणों से। जहां तक स्कूल जाने की उम्र में पहुंच चुके बच्चों का सवाल है उनमें तकरीबन दो फीसदी बच्चों में विटामिन ए की कमी के लक्षण थे और इतने ही बच्चों में विटामिन बी कांप्लेक्स की कमी के लक्षण मौजूद थे।
      • साल २००२-२००४ में हुये जिला स्तरीय स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार किशोर वय की ७२ फीसदी लड़कियां आयरन (खून में लौहतत्त्व की कमी ) से पीडित हैं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की तुलना (२.१ फीसदी) में किशोर वय की लड़कियों में आयरन की कमी की घटनाएं कहीं ज्यादा गँभीर हैं।
      • ६ से ३५ माह के बच्चों. १५ से ४९ साल उम्र की विवाहित महिलाओं और गर्भवती स्त्रियों में  एनीमिया की मौजूदगी बहुत ज्यादा है। कुल मिलाकर देखें तो शहरी इलाके में तीन साल तक की उम्र के ७२ फीसदी बच्चे और ग्रामीण इलाके में ८१ फीसदी बच्चे एनीमिया से पीडि़त हैं।
      • एनीमिया की पीडित लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है। साल १९९८-९९ में ७४ फीसदी आबादी एनीमिया से पीडित थी तो साल २००५-०६ में ७९ फीसदी आबादी। नगालैंड में एनीमिया से पीडित लोगों की तादाद सबसे कम (४४ फीसदी) है। इसके बाद गोवा (४९ फीसदी) और मिजोरम (५१ फीसदी) का नंबर है। बिहार में सर्वाधिक लोग(८७ फीसदी) एनीमिया से पीड़ित.हैं और राजस्थान में भी एनीमिया पीडितों की तादाद कम (८५ फीसदी) नहीं है। एनीमिया से सामान्य या गंभीर रुप से पीडित परिवार शहरों में भी हैं और गांवों में भी और पढ़े-लिखे परिवार इसके अपवाद नहीं हैं।
       
     
     

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