खास बात
• साल २००९ के अप्रैल महीने तक सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मुकदमों की संख्या ५०१४८ थी। केसों के निपटारे की गति बढ़ी है मगर शिकायतों के आने की गति और जजों की संख्या केसों के आने की गति की तुलना में अपर्याप्त साबित हो रही है।*
• दो साल पहले यानी साल २००७ के जनवरी महीने में सुप्रीम कोर्ट में लंबित केसों की संख्या ३९७८० थी। सुप्रीम कोर्ट लंबित केसों के निपटारे में तेजी लाने असहाय महसूस कर रहा है और लंबित मुकदमों की संख्या सालों साल बढ़ रही है।*
• देश के २१ उच्च न्यायालयों में जजों के कुल पद हैं ८८६ मगर सिर्फ ६३५ जजों के बूते ही काम चल रहा है। साल २००९ के १ जनवरी को देश के उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या ३८.७ लाख थी। एक साल पहले यानी १ ली जनवरी २००८ को देश के उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की कुल संख्या थी ३७.४ लाख।*
• भारत का पुलिस बल विश्व के सबसे बड़े पुलिस बल में एक है मगर इसमें महिलाओं की संख्या महज २.२ फीसदी है।**
• भारत में एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग है और फिर राज्यों के भी अपने मानवाधिकार आयोग हैं मगर देश में एक भी ऐसा व्यापक तंत्र नहीं है जो मौजूदा ३५ पुलिस बलों पर अतिचारिता की स्थिति में निगरानी रखे।**
* सुप्रीम कोर्ट ऑव इंडिया।
** कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव(२००५)- पुलिस एकाऊंटेबिलिटी, टू इंपोर्टेंट टू नेगलेट, टू अर्जेंट टू डिले।
पीआरएस द्वारा प्रस्तुत नवीनतम आंकड़ों के अनुसार-
http://www.prsindia.org/administrator/uploads/general/1251796330~~Vital%20Stats%20-%20Pendency%20of%20Cases%20in%
• साल 2009 के जुलाई महीने के अंत तक देश के सर्वोच्च न्यायालय में ५३००० हजार मुकदमे निबटारे की बाट जोह रहे थे।
• देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में साल २००९ के जुलाई तक ४० लाख मुकदमों पर फैसला सुनाया जाना बाकी था जबकि निचली अदालतों में लंबित मुकदमों की तादाद २.७ करोड़ है।
• अगर साल २००० के जनवरी महीने को आधार माने तो सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में लंबित पड़े मुकदमों की संख्या में क्रमशः १३९ फीसदी, ४६ फीसदी और ३२ फीसदी का इजाफा हुआ है।
• गौरतलब है कि देश के विभिन्न जेलों में कैद कुल ७० फीसदी व्यक्ति विचाराधीन कैदी की श्रेणी में आते हैं और इतनी बड़ी तादाद में मुकदमों के लंबित रहने का मामले खास इस कारण भी संगीन है ।
• जिस गति से मुकदमों का निपटारा होता है उससे कहीं ज्यादा तेज गति से नये मुकदमों अदालत में दाखिले का दरवाजा खटखटाते हैं।
• एक रोचक तथ्य है कि पिछले एक दशक में हर साल निपटाये जाने वाले मुकदमों की तादाद बढ़ी है लेकिन मुकदमों के निपटारे के बावजूद नए मुकदमों के दाखिल होने की रफ्तार कहीं ज्यादा तेज है।
• साल २००८ में निचली अदालतों ने १.५४ करोड़ मुकदमों का फैसला सुनाया। एक दशक पहले यानी साल १९९९ में निचली अदालतों में निपटाये गए मुकदमों की तादाद इससे कहीं कम (१.२४ करोड़) थी और इस तरह देखें तो एक दशक के अंदर निपटाये गए मुकदमों की संख्या में कुल ३० लाख का इजाफा हुआ मगर साल २००८ में अदालतों में १.६४ करोड़ नए मुकदमे आ जमे।
• एक दशक पहले यानी साल १९९९ में अदालतों में दाखिल नये मुकदमों की संख्या इससे ३७ लाख कम थी। उस साल अदालतों में कुल १.२७ करोड़ नए मुकदमे दर्ज हुए थे।
• लंबित मुकदमों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन अदालतों में न्यायाधीश सहित अन्य खाली पड़े पदों को भरने का कोई खास प्रयास नहीं किया जा रहा है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अनुसार देश के विभिन्न अदालतों में न्यायाधीश के कुल १७ फीसदी पद बरसों से खाली हैं।
• अगर सुप्रीम कोर्ट में कोई नया मुकदमा दाखिल नहीं हो और जजों का तादाद भी ना बढ़े तब भी उसे अपने यहां लंबित पड़े मुकदमों को मौजूदा गति से निपटाने में कुल नौ महीने लग जायेंगे।
• देश के उच्च न्यायालयों को नये मामले ना दाखिल होने की शर्त पर मौजूदा जज-संख्या के साथ सारे मुकदमों को निपटाने में दो साल सात महीने लगेंगे और निचली अदालतों को १ साल ९ महीने।
• देश की अदालतों में ना तो जरुरत के हिसाब से जजों की संख्या प्रयाप्त है और ना ही जजों की संख्या को जनसंख्या के अनुपात के लिहाज से उचित कहा जा सकता है।
• फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या तय सीमा से २३ फीसदी कम है। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के २६ फीसदी पद खाली हैं और निचली अदालतों में १८ फीसदी।
• इलाहाबाद हाईकोर्ट की दशा इस मामले में सबसे ज्यादा खराब है। वहीं जजों के ४५ फीसदी पद खाली पड़े हैं।
• साल १९८७ में विधि आयोग ने अनुशंसा की थी कि देश में १० लाख की आबादी पर जजों की संख्या १०.५ है और इसे जल्दी से जल्दी बढ़ाकर ५० कर देना चाहिए। विधि आयोग का सुझाव था कि साल २००० तक दस लाख की जनसंख्या पर देश में जजों की संख्या १०० होनी चाहिए।
• इस सुझाव पर संसद की स्थायी समित ने फरवरी २००२ में मंजूरी की मुहर लगायी थी। जहां तक विकसित मुल्कों का सवाल है भारत में फिलहाल प्रति दस लाख जनसंख्या पर जजों की संख्या १२.५ है जबकि अमेरिका में साल १९९९ में प्रति दस लाख जनसंख्या पर जजों की संख्या १०४ थी।
• साल २००९ के अप्रैल महीने तक सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मुकदमों की संख्या ५०१४८ थी। केसों के निपटारे की गति बढ़ी है मगर शिकायतों के आने की गति और जजों की संख्या केसों के आने की गति की तुलना में अपर्याप्त साबित हो रही है।*
• दो साल पहले यानी साल २००७ के जनवरी महीने में सुप्रीम कोर्ट में लंबित केसों की संख्या ३९७८० थी। सुप्रीम कोर्ट लंबित केसों के निपटारे में तेजी लाने असहाय महसूस कर रहा है और लंबित मुकदमों की संख्या सालों साल बढ़ रही है।*
• देश के २१ उच्च न्यायालयों में जजों के कुल पद हैं ८८६ मगर सिर्फ ६३५ जजों के बूते ही काम चल रहा है। साल २००९ के १ जनवरी को देश के उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या ३८.७ लाख थी। एक साल पहले यानी १ ली जनवरी २००८ को देश के उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की कुल संख्या थी ३७.४ लाख।*
• भारत का पुलिस बल विश्व के सबसे बड़े पुलिस बल में एक है मगर इसमें महिलाओं की संख्या महज २.२ फीसदी है।**
• भारत में एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग है और फिर राज्यों के भी अपने मानवाधिकार आयोग हैं मगर देश में एक भी ऐसा व्यापक तंत्र नहीं है जो मौजूदा ३५ पुलिस बलों पर अतिचारिता की स्थिति में निगरानी रखे।**
* सुप्रीम कोर्ट ऑव इंडिया।
** कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव(२००५)- पुलिस एकाऊंटेबिलिटी, टू इंपोर्टेंट टू नेगलेट, टू अर्जेंट टू डिले।
पीआरएस द्वारा प्रस्तुत नवीनतम आंकड़ों के अनुसार-
http://www.prsindia.org/administrator/uploads/general/1251796330~~Vital%20Stats%20-%20Pendency%20of%20Cases%20in%
• साल 2009 के जुलाई महीने के अंत तक देश के सर्वोच्च न्यायालय में ५३००० हजार मुकदमे निबटारे की बाट जोह रहे थे।
• देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में साल २००९ के जुलाई तक ४० लाख मुकदमों पर फैसला सुनाया जाना बाकी था जबकि निचली अदालतों में लंबित मुकदमों की तादाद २.७ करोड़ है।
• अगर साल २००० के जनवरी महीने को आधार माने तो सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में लंबित पड़े मुकदमों की संख्या में क्रमशः १३९ फीसदी, ४६ फीसदी और ३२ फीसदी का इजाफा हुआ है।
• गौरतलब है कि देश के विभिन्न जेलों में कैद कुल ७० फीसदी व्यक्ति विचाराधीन कैदी की श्रेणी में आते हैं और इतनी बड़ी तादाद में मुकदमों के लंबित रहने का मामले खास इस कारण भी संगीन है ।
• जिस गति से मुकदमों का निपटारा होता है उससे कहीं ज्यादा तेज गति से नये मुकदमों अदालत में दाखिले का दरवाजा खटखटाते हैं।
• एक रोचक तथ्य है कि पिछले एक दशक में हर साल निपटाये जाने वाले मुकदमों की तादाद बढ़ी है लेकिन मुकदमों के निपटारे के बावजूद नए मुकदमों के दाखिल होने की रफ्तार कहीं ज्यादा तेज है।
• साल २००८ में निचली अदालतों ने १.५४ करोड़ मुकदमों का फैसला सुनाया। एक दशक पहले यानी साल १९९९ में निचली अदालतों में निपटाये गए मुकदमों की तादाद इससे कहीं कम (१.२४ करोड़) थी और इस तरह देखें तो एक दशक के अंदर निपटाये गए मुकदमों की संख्या में कुल ३० लाख का इजाफा हुआ मगर साल २००८ में अदालतों में १.६४ करोड़ नए मुकदमे आ जमे।
• एक दशक पहले यानी साल १९९९ में अदालतों में दाखिल नये मुकदमों की संख्या इससे ३७ लाख कम थी। उस साल अदालतों में कुल १.२७ करोड़ नए मुकदमे दर्ज हुए थे।
• लंबित मुकदमों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन अदालतों में न्यायाधीश सहित अन्य खाली पड़े पदों को भरने का कोई खास प्रयास नहीं किया जा रहा है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अनुसार देश के विभिन्न अदालतों में न्यायाधीश के कुल १७ फीसदी पद बरसों से खाली हैं।
• अगर सुप्रीम कोर्ट में कोई नया मुकदमा दाखिल नहीं हो और जजों का तादाद भी ना बढ़े तब भी उसे अपने यहां लंबित पड़े मुकदमों को मौजूदा गति से निपटाने में कुल नौ महीने लग जायेंगे।
• देश के उच्च न्यायालयों को नये मामले ना दाखिल होने की शर्त पर मौजूदा जज-संख्या के साथ सारे मुकदमों को निपटाने में दो साल सात महीने लगेंगे और निचली अदालतों को १ साल ९ महीने।
• देश की अदालतों में ना तो जरुरत के हिसाब से जजों की संख्या प्रयाप्त है और ना ही जजों की संख्या को जनसंख्या के अनुपात के लिहाज से उचित कहा जा सकता है।
• फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या तय सीमा से २३ फीसदी कम है। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के २६ फीसदी पद खाली हैं और निचली अदालतों में १८ फीसदी।
• इलाहाबाद हाईकोर्ट की दशा इस मामले में सबसे ज्यादा खराब है। वहीं जजों के ४५ फीसदी पद खाली पड़े हैं।
• साल १९८७ में विधि आयोग ने अनुशंसा की थी कि देश में १० लाख की आबादी पर जजों की संख्या १०.५ है और इसे जल्दी से जल्दी बढ़ाकर ५० कर देना चाहिए। विधि आयोग का सुझाव था कि साल २००० तक दस लाख की जनसंख्या पर देश में जजों की संख्या १०० होनी चाहिए।
• इस सुझाव पर संसद की स्थायी समित ने फरवरी २००२ में मंजूरी की मुहर लगायी थी। जहां तक विकसित मुल्कों का सवाल है भारत में फिलहाल प्रति दस लाख जनसंख्या पर जजों की संख्या १२.५ है जबकि अमेरिका में साल १९९९ में प्रति दस लाख जनसंख्या पर जजों की संख्या १०४ थी।
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