शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

महिलाओं का गिरा अनुपात


तकरीबन 60 करोड़ महिलायें, जो कि विश्व की कामकाजी महिलाओं की संख्या के आधे से भी अधिक है, असुरक्षित रोजगार में लगी हैं। ऐसे काम श्रम-सुरक्षा के कानूनों के दायरे से अक्सर दूर हैं।
• वैश्विक रुप से देखें तो तकरीबन 53 फीसदी महिलायें असुरक्षित श्रेणी के कामों में नियुक्त हैं। ये काम या तो खुद के जमाखर्च से चलने वाले हैं अथवा इनके लिए कोई भुगतान नहीं होता( जैसे पारिवारिक व्यवसाय में या अपने खेतों पर काम करना।
• दक्षिण एशिया और उप-सहारीय अफ्रीका में असुरक्षित श्रेणी के कामों में लगी महिलाओं की तादाद 80 फीसदी है। लाखों की तादाद में महिलायें अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र में घर से किसी और के लिए काम करने वाले के रुप में या घरेलू नौकरानी के रुप में काम करती हैं।
• अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा प्रस्तुत 18 देशों के आंकड़े के मुताबिक विकासशील देशों में कार्यबल का 4 से 10 फीसदी रोजगार के लिए घरेलू कामकाज के पेशे में संलग्न है जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा 1 से 1.25 फीसदी का है। विकासशील देशों में घरेलू कामकाज को रोजगार के लिए बतौर पेशा अपनाने वाले लोगों में 74 से 94 फीसदी संख्या महिलाओं की है।

• सिर्फ दक्षिण एशिया में ही घर से किसी दूसरे के लिए काम करने वाले लोगों की तादाद 5 करोड़ से ज्यादा हैI इनमें प्रति 5 व्यक्ति में चार महिलायें हैं। घर से किसी दूसरे के लिए किए जाने वाले कामों में शामिल है- सिलाई-बुनाई-कटाई, रस्सी बांटना, काजू का प्रसंस्करण, जूते तैयार करना, रबड़ या प्लास्टिक के कुछ सामान तैयार करना आदि।ये काम हाथ से किए जाने वाले होते हैं और अत्यधिक परिश्रम की मांग करते हैं। इन कामों के लिए महिलाओं को ना तो सामाजिक सुरक्षा के नाम पर कुछ मिलता है, ना पेंशन और ना ही न्यूनतम मजदूरी।
• विश्व स्तर पर देखें तो औपचारिक रोजगार में लगी या उसमें काम खोजने वाली महिलाओं(कामकाजी उम्र की) का अनुपात साल 2009 में 53 फीसदी था। यह आंकड़ा साल 1991 से लगातार स्थिर बना हुआ है।
• 83 देशों के आंकड़ों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम-संगठन की सूचना है कि महिलाओं को समान काम के लिए पुरुष की तुलना में 10 से 30 फीसदी कम भुगतान हासिल होता है।
• अंतर्राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अनुसार अर्जेंटीना में स्त्री-पुरुष के बीच भुगतान के मामले में अंतर 29 फीसदी का, पोलैंड में 22 फीसदी का और कोरिया गणराज्य में 24 फीसदी का है। इस तथ्य का एक इशारा यह भी है कि कि ज्यादातर महिलायें कम भुगतान वाले कामों में लगी हैं।
•   ताजातरीन आंकड़ों के अनुसार वैश्विक स्तर पर गरीबी की दर भारत और चीन में हुई प्रगति के कारण महत्वपूर्ण रुप से कम हुई है। साल 1990 में प्रति दिन सवा डॉलर से कम में गुजारा करने वाले लोगों की तादाद विकासशील देशों में 1 अरब 80 करोड़ थी जो साल 2005 में घटकर 1 अरब 40 करोड़ हो गई। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का आकलन है कि 2010 में दुनिया में बेरोजगार महिलाओं की संख्या 8 करोड़ 70 लाख है जबकि 2007 में यह संख्या 7 करोड़ 60 लाख थी।
• खाद्य एंवम् कृषि संगठन(एफएओ) का आकलन है कि साल 2010 में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 90 करोड़ 60 लाख थी जबकि साल 1990-92 में 82 करोड़ 70 लाख।
• एफएओ का आकलन है कि महिलाओं की पहुंच खाद, बीज और कृषि-उपकरणों के मामले में पुरुषों के बराबर हो जाय तो दुनिया में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 10 से 15 करोड़ तक घटायी जा सकती है। 
  • दक्षिण अफ्रीका और उप-सहारीय अफ्रीका में अधिकतर महिलायें खेतिहर मजदूर हैं। हर इलाके में महिलायें पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा अभुगतेय(नान-पेड) काम करती हैं।
• जिन 25 देशों के बारे में आंकड़े उपलब्ध हैं उनमें 22 देशों में पाया गया है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में गरीबी ज्यादा है।
• 173 देशों में श्रम कानूनों के तहत पेड मेचरनिटी लीव की गारंटी है। 139 देशों में लैंगिक समानता की संवैधानिक गारंटी है।125 देशों ने घरेलू हिंसा को कानूनी तौर पर संज्ञेय अपराध ठहराया है। 117 देशों में यौन-दुराचार को कानूनी तौर पर परिभाषित करके अपराध की कोटि में रखा गया है। केवल 115 देशों में महिलाओं को संपदा के मामले में पुरुषों के बराबर का हक हासिल है जबकि 93 देशों में स्त्री-पुरुष के बीच उत्तराधिकार से संबंधित मामलों में समानता की बात स्वीकृत है।
• यूरोप में 37 देशों में दो में गर्भपात की अनुमति कभी-कभार ही मिलती है। एशिया में 47 देशों में 18 में गर्भपता की अनुमति बड़ी मुश्किल से हासिल होती है। अफ्रीका में 52 देशों में 21 में यही स्थिति है। लैटिन अमेरिका और कैरीबियाई देशों में 30 में से 14 देशों में गर्भपात की अनुमति विरले ही मिलती है। सात में से एक मातृ-मृत्यु की घटना असुरक्षित गर्भपात के कारण घटती है।
•   माता का जीवन दांव पर लगा हो तब भी पाँच देश ऐसे हैं जहां गर्भपात की कानूनी अनुमति नहीं है। कुल 61 देशों में गर्भपात की अनुमति विरलतम स्थितियों में देने की बात मानी गई है।ऐसी कानूनी बाध्यताओं के कारण तकरीबन 2 करोड़ मामले सालाना असुरक्षित गर्भपात के घटते हैं और तकरीबन 68000 महिलाओं की मौत होती है।
•  48 देशों में विधान है कि महिलाएं सारे उद्योगों में काम नहीं कर सकती। वे जिन उद्योगों में काम कर सकती हैं उन्हें परिभाषित किया गया है। इन देशों ने विधान किया है कि जिन कामों में भारी बोझा उठाना पड़ता है, श्रम अत्यधिक करना पड़ता है, जिन कामों से महिलाओं के शारीरिक-मानसिक सेहत को प्रत्यक्ष हानि पहुंचती है,( साथ ही खदानों में काम करना, फेरी के काम करना आदि) उनमें महिलाएं काम नहीं कर सकतीं। 11 देशों में कुछ कामों में महिलाओं का प्रवेश यह कहकर प्रतिवारित किया गया है कि ये काम महिलाओं की शुचिता-नैतिकता के खिलाफ हैं।
• विश्व के कुल 6 क्षेत्रों के 13 देशों में इस बात के विशेष विधान हैं कि महिलाओं को पुरुषों से कहीं उम्र में अवकाश ग्रहण कर लेना चाहिए। कुल 50 देशों में महिलाओं की विवाह योग्य न्यूनतम उम्र पुरुषों की तुलना में कम रखी गई है। विकासशील देशों में 20-24 साल की उम्र की एक तिहाई से ज्यादा महिलाओं का कहना है कि उनकी शादी 18 साल की उम्र में कर दी गई। कम उम्र में विवाह से एक तो महिला के लिए शिक्षा के अवसर कम हो जाते हैं, साथ ही कम उम्र में गर्भाधान और मातृत्व का खतरा बढ़ता है। विकासशील देशों में 15-19 साल की उम्र की महिलाओं की मृत्यु का यह प्रधान कारण है।
•   साल 2011 के अप्रैल महीने तक दुनिया के 125 देशों में घरेलू हिंसा को प्रतिवारित करने वाला कानून पारित हो चुका था। ऐसे देशों में सभी लातिन अमेरिकी और कैरिबियाई देश शामिल हैं।
•    साल 2011 के अप्रैल महीने तक दुनिया के 52 देशों ने दांपत्य-बंधन में घटने वाले बलात्कार को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखने वाला कानून पारित किया है।
• वैश्विक स्तर पर देखें तो जजों की कुल संख्या में महिलाओं की तादाद 27 फीसदी है। मध्य और पूर्वी यूरोप के देशों में न्यायपालिका में महिला जजों की तादाद तकरीबन 50 फीसदी है लेकिन दक्षिण एशिया में इस दिशा में प्रगति संतोषजनक नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के एक अध्ययन में पाया गया कि अगर मुकदमा रोजगार के मामले में भेदभाव का हो तो संभावना इस बात की है कि महिला जज की तरफ से फैसला फरियादी के पक्ष में होगा।
•  विकसित देशों में मंत्रीपद पर बैठी महिलाओं की संख्या 30 फीसदी तक जरुर जा पहुंची है लेकिन दुनिया में फिलहाल एक भी देश ऐसा नहीं है जहां संसद में महिलाओं की संख्या 30 फीसदी भी हो।
• प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। साल 1999 में स्कूल वंचित बच्चों की संख्या 10 करोड़ 60 लाख थी जो साल 2009 में घटकर 6 करोड़ 70 लाख हो गई। विकासशील देशों के आंकड़े कहते हैं कि प्रति 100 बालक-छात्र पर बालिका-छात्र का स्कूली नामांकन साल 1999 में 91 था जो 2009 में बढ़कर 96 हो गया।साल 2009 में स्कूल वंचित बच्चों की संख्या में छात्राओं की संख्या 53 फीसदी थी।
•  साल 2009 में गैर-खेतिहर क्षेत्र में महिलाओं को हासिल वेज-एम्पलॉयमेंट का हिस्सा 40 फीसदी था। साल 1990 से 2009 के बीच इसमें 5 फीसदी का इजाफा हुआ है।
•   जब महिलायें श्रम-बजार में पहुंचती हैं तो इस बात की संभावना बड़ी कम होती है कि उन्हें एक गरिमापूर्ण काम हासिल होगा। वैश्विक रुप से देखें तो महिला श्रमशक्ति का 53 फीसदी हिस्सा ऐसे कामों में लगा है जिसे श्रम-कानूनों के लिहाज से असुरक्षित काम कहा जाएगा, यानी ऐसा काम जिसमें किसी किस्म की सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है और ना ही न्यूनतम मजदूरी ही हासिल होती है।दक्षिण एशिया और उपसहारीय अफ्रीकी देशों में ऐसी महिलाओं की तादाद 80 फीसदी है।
•    अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का अनुमान है कि मादा भ्रूण की हत्या या फिर नवजात कन्या शिशु की उपेक्षा के कारण एशिया में हर साल 10 करोड़ महिला-जीवन अपनों को जैविक रुप से अभिव्यक्त तक नहीं कर पाता। नये आकलन में यह संख्या 13 करोड़ 40 लाख बतायी गई है। 
•    यद्यपि जैविक रुप से इस बात की संभावना रहती है कि कन्या शिशु नर शिशु की तुलना में एक सी परिस्थिति में जीवित रहने की कहीं ज्यादा क्षमता से संपन्न होता है परंतु पाँच साल से कम उम्र की बच्चियों की मृत्यु-दर एशिया के कुछ देशों में बहुत ज्यादा है। मिसाल के लिए भारत में पाँच साल से कम उम्र की बच्चियों की मृत्यु दर भारत में साल 2008 में 73 थी जबकि लड़कों की 65।चीन में यह दर क्रमश 24 और 18 है।
एक्शन एड और इन्टरनेशनल डेवेलपमेंट रिसर्च सेंटर द्वारा संयुक्त रुप से प्रस्तुत योजित परिवार नियोजित लिंग-मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के कुछ जिलों में बालिकाओं के गिरते अनुपात पर एक रिपोर्ट नामक दस्तावेज(2009) के अनुसार- 
    रिपोर्ट ऑन कंडीशन ऑव वर्क्स् एं प्रोमोशन ऑव लाइवलीहुड इन अन-ऑर्गनाइज्ड सेक्टर नामक दस्तावेज के तथ्यों के अनुसार, http://nceus.gov.in/Condition_of_workers_sep_2007.pdf:
  देश की महिला श्रमशक्ति(वर्कफोर्स) में खेतिहर महिलाओं की तादाद(साल 2004-05) बहुत ज्यादा(72.8) है। खेतिहर पुरुषों की तादाद 48. फीसदी है।.
खेतिहर कामों में लगी महिलाओं में विशुद्ध रुप से किसानी में लगी महिलाओं की संख्या शुरुआती सालों में पुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत कम थी (एंप्लायमेंट-अनएंप्लायमेंट सर्वे, एनएसएसओ)। बहरहाल साल 2004-05 तक स्थिति बदली और किसानी में लगी स्त्रियों की संख्या पुरुषों के बराबर हो गई( महिला 64.4 फीसदी , पुरुष 64 फीसदी)
  • छोटे किसानों (कम जोत वाले) में 62 फीसदी पुरुष और 85 फीसदी स्त्रियां या तो निरक्षर हैं या फिर उन्हें प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा हासिल हुई है। छोटे किसानों में मात्र 20 फीसदी पुरुष और 6 फीसदी महिलायें ही माध्यमिक या उससे ऊंचे दर्जे की शिक्षा हासिल कर पाये हैं।
  • ग्रामीण इलाकों में खेतिहर मजदूरी करने वाली महिलाओं की तादाद साल 1999-2000 में 36.5% फीसदी थी जो साल in 2004-05.में घटकर 29.2% हो गई।  
  • साल 2004-05 में बाल खेतिहर-महिला मजदूरों की तादाद (2.4 फीसदी) बाल पुरुष मजदूरों (1.5 फीसदी) से ज्यादा थी।
  • खेतिहर क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव बहुत ज्यादा है। साल 1993-94 के बाद के आंकड़ों से पता चलता है कि खेतिहर मजदूरी में पुरुषों को स्त्रियों की तुलना में 1.4 गुना ज्यादा मजदूरी मिलती है।
  • साल 1993-94 में महिला खेतिहर मजदूर को 196 दिन की दिहाड़ी मजदूरी हासिल थी जबकि साल 2004-05 में इसकी संख्या घटकर 184 दिन हो गई।
  • साल 2000 तक खेती का स्त्रीकरण(यानी खेतिहर कामों में स्त्रियों की संख्या वृद्धि) नहीं हुआ था लेकिन2004-05 के आंकड़े कहते हैं कि खेतिहर कामों में लगी महिलाओं की संख्या में बढोत्तरी हुई है और यह संख्या वृद्धि महिला किसानों में नहीं बल्कि खेतिहर महिला मजदूरों में हुई है।
रुपम सिंह और रंजना सेनगुप्ता द्वारा प्रस्तुत आलेख द ईयू इंडिया एफटीए इन एग्रीकल्चर एंड लाइकली इम्पैक्ट ऑन इंडियन विमेन नामक दस्तावेज के अनुसार,
http://www.esocialsciences.com/data/articles/Document14320
10510.149914.pdf
:
  • साल 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल श्रमशक्ति की तादाद 40 करोड़ है जिसमें 68.37 फीसद पुरुष और 31.63 फीसद महिला कामगार हैं।
  • भारत में खेतिहर कामगारों की संख्या- 234,270,000 है( साल 2001 की जनगणना के अनुसार)। इसमें 38.99 हिस्सेदारी  महिला श्रमशक्ति की और 60.93 फीसदी हिस्सेदारी पुरुष श्रमशक्ति की है।
  • खेतिहर मजदूरों में 46.23 फीसदी तादाद महिलाओं की है,जबकि कुल किसानों में  32.91 फीसदी महिलायें हैं। तुलनात्मक रुप से देखें तो किसानों में 67.09% फीसदी तादाद पुरुषों की है।.
  • भारत में खेतिहर क्षेत्र लैंगिक भेदभाव से भरा हुआ है। तकरीबन 75.38%फीसदी महिला श्रमशक्ति खेती-किसानी के कामों में संलग्न है।. खाद्यान्न के उत्पादन में जितनी श्रमशक्ति लगती है उसका 33 फीसदी महिला श्रमशक्ति है।गन्ना और चुकंदर उत्पादन में लगी कुल श्रमशक्ति में महिला श्रमशक्ति की हिस्सेदारी 25.5 फीसदी है।
  • पशुपालन में महिला श्रमशक्ति का 7.03% हिस्सा रोजगारय़ाफ्ता है।
  • खेती के साथ एक खास बात यह है कि इसमें ज्यादा कौशल की जरुरत नहीं है और खेती के काम को घर के काम के साथ-साथ आसानी से किया जा सकता है, इस वजह से खेतिहर काम ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार का आसान जरिया हैं। फिर, शिक्षा और प्रशिक्षण के अभाव के कारण खेतिहर कामों में लगी महिलाये बाआसानी दूसरे कामों का रुख नहीं कर सकतीं। इस कारण ज्यादातर ग्रामीण महिलायें जीविका के लिहाज से खेती पर निर्भर हैं।
  • साल 2004-05 की एनएसएस रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न खेतिहर गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी प्रतिशत पैमाने पर निम्नलिखित हिसाब से हैं- खेत जोतना- 1.23 फीसदी, 4.2 फीसदी बीज डालना, 6.13 फीसदी रोपाई, 23.82 फीसदी ओसवनी दौनी, 23.64 फीसदी फसल कटाई तथा शेष 40.98 फीसदी फसल संबंधी अन्य कामों में।
  • चूंकि हल चलाने के काम में पुरुषों की संख्या ज्यादा है इसलिए लैंगिक भेदभाव के तर्क से इस काम में मजदूरी भी अपेक्षाकृत ज्यादा है जबकि निकाई-गुराई, ओसवन-दौनी आदि काम जिसमें महिलाओं का तादाद ज्यादा है, वहां मजदूरी कम है। ऐसे कामों में भी पुरुष और महिला की आमदनी के बीच. 9.46 रुपये की कमाई(प्रतिदिन) का अन्तर है। निकाई गुराई से महिलाओं को जो मजदूरी मिलती है वह हल जोतने के काम से हासिल होने वाले पैसे से(जिसमें पुरुषों की संख्या ज्यादा है) 21.47 रुपये कम है।
  • ग्रामीण इलाके में दिहाड़ी करने वाली किसी स्त्री को पुरुष की कमाई की तुलना में महज 70 फीसदी ही हासिल हो पाता है। फिर स्थान, शिक्षा, हैसियत और उम्र के हिसाब से भी कमाई में अंतर देखा गया है।
  • शायद ही कभी किसी महिला के हिस्से में उसके नाम पर जायदाद होता है। अगर जायदाद महिला के नाम पर हो, तब भी जायदाद(खासकर खेत) पर उसका वास्तविक नियंत्रण नहीं होता। खेत में बोयी-रोपी जाने वाली फसल से लेकर जमीन की खरीद-बिक्री तक के फैसले महिला से पूछकर नहीं होते।
  • २००१ की सबसे ताज़ा दशकीय जनगणना, जिसके जनसंख्या-परक बुनियादी आंक[ड़े  भी उपलब्ध हैं, बताती है कि देश में पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ साढे  तीन करोड  कम हैं.
  • पिछले दशक में, पहली बार भारत में पूरी आबादी के समग्र लिंग अनुपात में थोड़ा सा सुधार दिखाई दिया था - ९२७ से बढ कर ९३१ - जिसका मूल कारण था प्रौढ  स्त्रियों की बढती हुई जीवन-अवधि.
  • दूसरी तरफ २००१ की जनगणना बताती है कि अलग से देखने पर ० से ६ वर्ष के आयु-वर्ग में पूरे देश के स्तर परबाल लिंग अनुपात में बहुत भारी गिरावट आयी है.
  • इस जनगणना के अनुसार ६ वर्ष से ऊपर की आबादी में लिंग अनुपात ९२४ से बढ़कर ९३४ हो गया है, पर ०-६ आयु वर्ग में बाल लिंग अनुपात १९९१ से २००१ के बीच के दस वर्षों में ९४५ से घटकर ९२७ रह गया है.
  • एक दशक के अन्दर १८ अंकों की गिरावट के साथ बाल लिंग अनुपात इतिहास में पहली बार समग्र आबादी के लिंग अनुपात से नीचे आ गया है।
  • २००१ के आंकड़े बताते हैं कि भारत में सिर्फ चार ऐसे राज्य हैं (दक्षिण में केरल, और उत्तरपूर्व में सिक्किम, त्रिपुरा और मिजोरम) जहाँ यह गिरावट बढी नहीं है, हालाँकि यहाँ भी वयस्क लिंग अनुपात की तुलना में बाल लिंग अनुपात नीचा ही है.
  • २००१ की जनगणना के अनुसार घटते बाल लिंग अनुपात की यह प्रवृत्ति उन राज्यों में भी विराट आकार ले रही है जहाँ पहले कभी बालिका भ्रूण हत्या की प्रथा नहीं देखी गई
  • इसका अच्छा उदाहरण है हिमाचल प्रदेश जहाँ बाल लिंग अनुपात १९९१ में ९५१ था और २००१ में गिराकर ८९७ रह गया (५४ अंकों की गिरावट), उडीसा (१७ अंकों की गिरावट), बिहार (१५ अंकोंकी गिरावट).
  • इसके अलावा, अब यह प्रवृत्ति पहले की तरह सिर्फ़ कुछ समुदायों तक सीमित नहीं है. बहुत से अनुसूचित जाति समुदायों में बाल लिंग अनुपात लगातार गिर रहा है.
  • जिलों में जहाँ पहले शहरी केन्द्रों में ही प्रतिकूल लिंग अनुपात देखा जाता था, अब देहाती इलाके भी उनकी 'बराबरी' पर आ रहे हैं.
  • जो ग़रीबी के स्त्रीकरण (औरतों के बीच बढती साधनहीनता) और गरीब तबके  की औरतों और बालिकाओं की असमय मृत्यु की संभावना को
  • रेखांकित करते रहे हैं, उनके लिए यह तथ्य हतप्रभ कर देने वाला है कि १९९१ और २००१ के बीच जिन राज्यों में बाल लिंग अनुपात सबसे ज्यादा गिरा है वे आर्थिक रूप से सम्पन्नतर राज्य हैं.
  • इन राज्यों में हाल के सालों में साक्षरता दर ऊँची रही है, प्रजनन दर कम हुई है और छोटे परिवार की ओर रुझान बढा है.
  • तथ्य यह है कि पंजाब और हरियाणा में साक्षरता का स्तर तो ऊंचा हुआ ही है, स्त्री और पुरुष साक्षरता स्तरों के बीच अंतर भी कम हुआ है. फिर भी बाल लिंग अनुपात की दृष्टि से ये देश के सबसे ख़ाराब राज्यों में हैं, और गुजरात और महाराष्ट्र जैसे संपन्न राज्य भी इनके आसपास ही है.
  • दिल्ली, चंडीगढ और अहमदाबाद जैसे अमीर और आधुनिक शहरों में बाल लिंग अनुपात बहुत ही बुरा है
  • ०-६ आयु वर्ग में हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के बाल लिंग अनुपातों में बहुत ही नाटकीय और चिंताजनक पतन हुआ है
  • पंजाब और हरियाणा के इस मामले में ख़ाराब इतिहास को देखते हुए वहाँ की यह नई गिरावट इन राज्यों में विकास की प्रकृति के बारे में सवाल खडे  करती है. देखा जाए तो ऊँची स्त्री साक्षरता दर, शादी की अच्छी औसत आयु - ये दोनों विकास के महत्वपूर्ण लक्षण हैं
  • हिमाचल प्रदेश का लड़कियों और औरतों से भेदभाव के मामले में हर जगह और हर दौर में खराब इतिहास नहीं है लेकिन कांगडा जिले में बाल लिंग अनुपात में नाटकीय गिरावट हुई है।
  • मध्यप्रदेश और राजस्थान में बाल लिंग अनुपात कम रफ़्तार से गिरा है, बल्कि राजस्थान में कुल लिंग अनुपात में कुछ सुधार भी दिखाई देता है. दोनो राज्य अपेक्षाकृत पिछडे हुए हैं और बालिका के प्रति उपेक्षा और कभी कभार बालिका-हत्या के लिए भी जाने जाते हैं
  • रेखांकित करने लायक तथ्य यह है कि पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बाल लिंग अनुपात बहुत तेज़ी से गिरा है और इस दृष्टि से शहर तथा गाँव में बहुत कम भेद रह गया है.
  • सन १९९१ से २००१ के बीच प्रत्येक जिले में लिंग अनुपात और लिंग अनुपात में गिरावट आई हैं. अपने अपने राज्यों (बाल लिंग अनुपातों में हाल की गिरावट के अध्ययन के लिए निम्न लिंग अनुपात वाले ये राज्य चुने गए : उत्तर भारत से हरियाणा(रोहतक), पंजाब(फतेहगढसाहब) और हिमाचल प्रदेश(कांगड़ा),पश्चिम से राजस्थान(धौलपुर), तथा मध्य भारत से मध्यप्रदेश(मुरैना).में ये ज़िले न सिर्फ राज्य औसत से नीचे का बाल लिंग अनुपात दिखाते हैं बल्कि इनमें अनुपात की गिरावट की दर राज्य औसत से नीचे है
  • फतेहगढ  साहब और कांगडा में यह गिरावट क्रमशः १०८ और १०३ अंकों की है, जबकि रोहतक में यह ७७ अंक की है. मुरैना में अनुपात की गिरावट ४१ अंकों से हुई है, जबकि धौलपुर में गिरावट सबसे कम, १५ अंक, की है.
  • अगर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अलग करके देखें तो मुरैना में शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में ४१ अंकों की गिरावट है, जबकि धौलपुर में यह गिरावट शहरी इलाकों में ही ज्यादा है.
  • दिलचस्प यह है कि कांगडा और फतेहगढ  साहब में शहरी इलाके  के बजाय ग्रामीण इलाके  में बाल लिंग अनुपात ज्यादा गिरा है, जो शहरीकृत होते हुए देहात में ग्रामीण-शहरी सम्मिलन का संकेत देता है.
  • रोहतक में शहरी इलाके में गिरावट ज्यादा है. यहाँ शहरीकरण तो तेजी से हो रहा है पर अभी असंतुलित बाल लिंग अनुपात में कांगडा और फतेहगढ साहब की 'टक्कर' का नहीं है।
  • १९७१ से १९९८-९९ के बीच की अवधि के आंकड़े बताते हैं कि सभी राज्यों में शादी की उम्र बढ ती गयी है. इस मामले में मध्यप्रदेश और राजस्थान पीछे हैं जहाँ यह उम्र १९ और १८ साल है.
  • पंजाब और हिमाचल में औसत उम्र २२ साल है, जबकि हरियाणा में यह २० साल है. हरियाणा में पुरुषों और स्त्रियों की विवाह की उम्र में अंतर सबसे ज् यादा है.
  • २००२-२००४ के रिप्रोडक्टिव एंड चाइल्ड हैल्थ  के आंकडों के अनुसार मध्यप्रदेश और राजस्थान में करीब आधी लड कियाँ शादी की कानूनी उम्र (१८ वर्ष) तक पहुँचने से पहले ही ब्याह दी जाती हैं.
  • जिन जिलों में सर्वेक्षण स्थल चुने गए हैं वहाँ यह आंकडा थोडा सा ऊंचा है. हरियाणा में २९ प्रतिशत लड कियाँ शादी की क ानूनी उम्र तक आने से पहले ब्याह दी जाती हैं; रोहतक जिले का आंकडा भी यही है.
  • फतेहगढ  साहब में जरूर केवल पाँच प्रतिशत लड कियाँ क कानूनी उम्र से पहले ब्याही जाती हैं, जो पंजाब के औसत (१० प्रतिशत) से आधा है।
  • मुरैना में १२ प्रतिशत ग्रामीण परिवारों में २ लड़के, १०.५ परिवारों में दो लड के-एक लडकी; और १५ प्रतिशत शहरी परिवारों में एम लडका-एक लडकी और १४.५ परिवारों में दो लडके-एक लडकी का परिदृश्य दिखाई देता है. दूसरे बडे और छोटे संयोजन भी नजर आते हैं.
  • धौलपुर में १० प्रतिशत ग्रामीण और शहरी परिवारों में एक लडका-एक लडकी और दो लडके-एक लडकी की वरीयता दिखने लगती है.
  • बाक़ी सभी अन्य स्थलों पर एक लड का-एक लडकी का मानदंड ज्यादा बडे पैमाने पर प्रचलन में आने लगा है (कांगडा के ३३ प्रतिशत ग्रामीण परिवार,
  • फतेहगढ साहब और रोहतक के २५ प्रतिशत ग्रामीण परिवार).
  • सभी स्थलों पर दृष्टि डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सिर्फ़ दो बेटियों वाले परिवार तादाद में लगभग नगण्य हैं; मुरैना और धौलपुर में इनका अनुपात ३ प्रतिशत, शहरी कांगडा में ६ प्रतिशत,और फतेहगढ  साहब में सिर्फ  २ प्रतिशत है.
  • इस सब के अवलोकन से इस तरह की विरोधाभासी तस्वीर उभरती है : एक ओर तो ज्य़ादा से ज्यादा परिवार एक लड का/एक लडकी मानदंड पर चलने लगे हैं, लेकिन इनसे भी ज्यादा छोटे परिवार ऐसे हैं जिनमें लडके ज्यादा हैं और बहुत कम ऐसे परिवार हैं जहाँ सिर्फ बेटियाँ हैं.
  • ये ही वे संयोजन या समीकरण हैं जो बढते हुए पुंजातीयकरण और बाल लिंग अनुपात में विकृति के लिए जिम्मेदार हैं.
  • केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर हाल के वर्षों में महिला और बालिका की स्थिति में सुधार के लिए अनेक योजनाएं शुरू की गईं. हमारे सभी अध्ययन-स्थलों पर पाया गया कि कहीं भी किसी तरह की कोई सरकारी योजना न तो लागू हो रही है और न ही लोगों के बीच उनकी कोई भनक है.
  • पाया गया कि आँगनवाड़ी संभालती महिलाओं पर 'अच्छे नतीजे' दिखाने के लिए, खासकर लड के-लड कियों के अनुपात के सन्दर्भ में, रजिस्टर में फर्जी
  • इन्द्राज करने के लिए बहुत दबाव डाला जाता है
मसले जो समाधान के इन्तिजार में हैं-

  • जन स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधाओं का सभी क्षेत्रों में विस्तार और जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों का पुनर्गठन : सभी स्थलों पर देखा गया कि जन स्वास्थ्य सुविधाएं ठप्प हैं या चरमरा रही हैं और अवाम की नजर में अच्छी स्वास्थ्य सेवा का मतलब पैसे से प्राप्त निजी चिकित्सा सेवा होता जा रहा है. गरीब इलाकों में इसके निहितार्थ स्पष्ट हैं (ऊँची बाल मरण दर,विशेषतः बालिका-मरण दर), पर अपेक्षाकृत संपन्न इलाकों में भी स्वास्थ्य की देखभाल महँगी होती जा रही है जिसका नतीजा है बारीक लिंग-आधारित भेदभाव
  • जन शिक्षा का विस्तार और सुधार : सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरता गया है और प्राइवेट स्कूलों के माध्यम से शिक्षा की प्रतिष्ठा और कीमत बढती गई है. स्थिति यह है कि सिर्फ गरीब लोग और निचली जातियों के लोग ही सरकारी स्कूलों पर निर्भर रह गए हैं. स्कूली शिक्षा पर बढते खर्च के चलते बेटियों की शिक्षा बोझ को बढाती है. जन शिक्षा का इस तरह से पुनर्गठन किया जाना चाहिए कि वह वर्ग-जाति-और लिंग-आधारित मूलभूत विषमताओं को बढने न दे. यह काम तत्काल शुरू किया जाना चाहिए.
  • शादी की अनिवार्यता और माता-पिता तथा जाति-बिरादरी के नियंत्रण के चलते ही यह हुआ है कि हाल की कुछ मुक्तिकामी उपलब्धियों (अधिक शिक्षा, बेटियों की विरासत में हकदारी की दिशा में कानूनी सुधार, शादी की बढ़ती उम्र, और पॉपुलर कल्चर में प्रेम तथा यौनेच्छा के थोडे से इजहार को प्रोत्साहन) के विरुद्ध भीषण स्त्री-विरोधी लहर चल पडी है. अध्ययनकर्ताओं का विश्वास है कि विवाह के वर्तमान नियमों और रीति पर ज्यादा मजबूती से सवाल उठाए जाने चाहिएं.
  • बुढ़ापे में माँ-बाप की मदद और देखभाल का मसला एक बडा मसला है. आम तौर पर परिवार और खास तौर पर बेटे पर ही इसकी सारी जिम्मेदारी नहीं रहनी चाहिए, और इस मसले पर सामाजिक संस्थानों को आगे आने की जरूरत है.
  • स्थानीय डाक्टरों-कम्पाउन्डरों-नर्सों, सरकारी स्वास्थ्य सेवा अधिकारियों और प्राइवेट रेडीयोलाजिस्टों व स्त्रीरोग-विशेषज्ञों के बीच साँठ - गाँठ का उद्‌घाटन : इस अध्ययन के दौरान क्षुब्ध करने वाली खोज यह सामने आई कि सहायक नर्स-दाइयों (एएनएम) की दूसरे स्थानीय स्तर के निदान-गृहों और चिकित्सालयों और अनसे जुड़े लोगों से पक्की साँठ -गाँठ रहती है, और इसी वजह से लिंग-परीक्षण कराना इतना आसान हो जाता है।

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