अंतर्कलह से जूझती माकपा
- Thursday, 12 September 2013 09:55
किसान
नेता रज्जाक अली मोल्ला ने बंगाल में वाम शासन के अवसान के लिए
एकाधिकारवादी जाति वर्चस्व को जिम्मेदार बताते हुए नये नेतृत्व की मांग कर
दी थी. उसके बाद से पार्टी सांगठनिक कवायद में तो जुट गयी है, लेकिन पुरानी
बोतल में नयी शराब पेश करने के आंतरिक संघर्ष में फंसी माकपा में इस वक्त
गृहयुद्ध का नजारा है...
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
कभी
वामपंथियों के गढ कहे जाने वाले पश्चिम बंगाल में सत्ता में वापसी के लिए
सबसे जरूरी सांगठनिक कवायद माकपा के लिए अब जी का जंजाल बन रही है. पुराने
लोग पार्टी के किसान नेता रज्जाक अली मोल्ला की सिफारिश के मुताबिक पार्टी
और जनसंगठनों में सभी समुदायों को समुचित प्रतिनिधित्व देते हुए नये चेहरों
को नेतृत्व में लाने को तैयार नहीं हैं. लेकिन इस कवायद में माकपा राज्य
सचिव और पुरातन युद्धों के परखे हुए सबसे अनुभवी सिपाहसालार विमान बोस की
कुर्सी जरूर हिलने लगी है, जो राज्य वाममोर्चे के चेयरमैन भी हैं.
इससे
माकपा में घमासान मच गया है. बुद्धदेव भट्टाचार्य के समर्थन से मजबूत हुए
गौतम देव बतौर इंचार्ज पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना के पंचायत चुनावों
के नतीजों के मुताबिक सचिव पद के सबसे खास दावेदार बतौर उभर रहे हैं. दूसरी
तरफ, तृणमूल सुप्रीमो व मुख्यमंत्री के तूफानी जमीनी नेतृत्व की तलाश
पूर्व वित्तमंत्री असीम दासगुप्ता तक थम गयी है.
पिछले
चुनावों में पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को सामने कर बुरी तरह
मात खाने के बाद माकपा को दमदार ऐसे नेतृत्व की तलाश है, जो जनमानस में
ममता दीदी का विकल्प बनकर उभरे.
ऐसे में
यह तो जाहिर ही है कि पार्टी के किसान नेता रज्जाक अली मोल्ला की सिफारिशें
हाशिये पर रख दी गयी हैं. गौरतलब है कि मोल्ला ने बंगाल में वाम शासन के
अवसान के लिए एकाधिकारवादी जाति वर्चस्व को जिम्मेदार बताते हुए नये
नेतृत्व की मांग कर दी थी, जिसके मद्देनजर माकपा सांगठनिक कवायद में जुट तो
गयी है, लेकिन पुरानी बोतल में नयी शराब पेश करने के आंतरिक संघर्ष में
फंसी माकपा में इस वक्त गृहयुद्ध का नजारा है.
पूर्व
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बंगाल में औद्योगिक परिदृश्य का
कायाकल्प करने की कोशिश की थी. राज्य में निवेश का माहौल बनाना उनकी
सर्वोच्च प्राथमिकता थी. पूंजी के पीछे अंधी दौड़ ने उन्हें खलनायक बना
दिया. सिंगुर और नंदीग्राम भूमि आंदोलन की वजह ममता बनर्जी जरूर फोकस में आ
गयीं. लेकिन बुद्धदेव बाबू अपनी नाकामी के लिए ममता को नहीं, बल्कि पार्टी
के कट्टरपंथियों को ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं, जिन्होंने सुधार लागू
नहीं करने दिये और राज्य आर्थिक तौर पर दिवालिया होता गया. पिछले विधानसभा
चुनाव में वे मैदान में उतरने के इच्छुक नहीं थे, फिर भी पार्टी ने उन्हें
सिपाहसालार बना दिया. अब वे सामने से लड़ने के लिए एकदम तैयार नहीं हैं.
ऐसे में
बुद्धदेव बाबू का पूरा समर्थन गौतम देव के साथ है. गौतम देव को पिछले
विधानसभा चुनावों में ही माकपा ने बतौर विकल्प पेश किया था, लेकिन उनके
आक्रामक तेवर का पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ. गौतम लोकप्रिय वक्ता हैं और
उनमें सांगठनिक काबिलियत भी है. बावजूद इसके पिछले चुनावों में पार्टी न
सिर्फ सत्ता से बाहर हो गयी, बल्कि वे खुद विधानसभा चुनाव हार गये.
मगर इस
बार बुद्धदेव भट्टाचार्य बहुत मजबूती के साथ गौतम देव के साथ खड़े हो गये
हैं. समझा जाता है कि अबकि दफा गौतम मौका गंवाना भी नहीं चाहते. शारीरिक
तौर पर लड़ाई में बुद्धदेव पिछड़ गये हैं, लेकिन पार्टी संगठन में उनका असर
है. प्रमोद दासगुप्ता के निधन के बाद ज्योति बसु जिस भूमिका में थे,
बुद्धबाबू अब खुद को उसी भूमिका में देखना चाहते हैं.
पूर्व
स्वास्थ्य मंत्री सूर्यकांत मिश्र को माकपा ने विधायक दल का नेता बनाया है,
लेकिन वे मैदान में ममता दीदी का मुकाबला करने की हालत में नहीं हैं. वे
माकपाई मानदंड के मुताबिक आक्रामक तो नहीं ही हैं, जननेता के बतौर भी कभी
खुद को साबित नहीं कर पाये. जबकि माकपा को अब ऐसे करिश्माई नेतृत्व की
जरूरत है जो दीदी को कडी टक्कर दे सके.
सादगी,
निष्ठा और प्रतिबद्धता के लिहाज से विमान बोस अब भी प्रतिद्वंद्वी कहे जा
सकते हैं, लेकिन पार्टी संगठन पर उनकी पकड़ लगातार ढीली होती जा रही है. वे
अपने स्वभाव के मुताबिक कड़ाई से प्रमोद दासगुप्ता या अनिल विश्वास की तरह
पार्टी संगठन को संभालने में नाकाम रहे हैं.
दासगुप्ता
और विश्वास दोनों में से कोई न तो जननेता था और न ही करिश्माई, पर संगठन
और सरकार दोनों पर उनकी पकड़ जबर्दस्त थी. बिना उनकी मर्जी के कोई पत्ता भी
नहीं हिलता था. कड़े निर्णय करके फेरबदल के लिए दोनों मशहूर रहे हैं.
विमान बोस की सरकार पर तो कोई पकड़ थी ही नहीं, इसलिए बहुत लोग मानते हैं
कि हालात बेकाबू हो जाने और वाम सत्ता के अवसान का सबसे बड़ा कारण अनिल
विश्वास का असामयिक निधन है. प्रमोद दासगुप्ता की कमी अनिल विश्वास ने कभी
महसूस नहीं होने दी, लेकिन विमान बोस के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता.
इसीलिये माकपा के भीतर जल्द से जल्द सचिव बदलने की मांग जोर पकड़ती जा रही
है.
असीम
दासगुप्ता लगातार तेइस साल तक वाममोर्चा सरकार के वित्तमंत्री रहे हैं.
बुद्धदेव के सुधार अभियान में वे नहीं, बल्कि उद्योग मंत्री निरुपम सेन ही
सिपाहसालार रहे हैं. बंगाल की मौजूदा आर्थिक बदहाली के लिए कुछ लोग उन्हें
सबसे ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं. बहुत कम समय तक बंगाल के वित्तमंत्री
रहने के बावजूद आज भी अशोक मित्र की जो छवि है, वैसी छवि बनाने में असीम
दासगुप्ता नाकाम रहे. वे लोकप्रिय जननेता भी कभी नहीं रहे, लेकिन विडंबना
यह है कि सूर्यकांत के फेल हो जाने और निरुपम के हाशिये पर चले जाने और
बुद्धदेव के बैराग्य की हालत में माकपा के सामने उन्हें आगे करनेके सिवाय
फिलहाल कोई विकल्प है ही नहीं.
पार्टी
रज्जाक मोल्ला जैसे जमीनी नेता को सामने लाना भी नहीं चाहती, खासकर जब वे
पार्टी अनुशासन के दायरे से बाहर जाने से भी नहीं हिचकते. रज्जाक मोल्ला की
हालत अब दिवंगत सुभाष चक्रवर्ती जैसी हो गयी है, जो पार्टी के लिए लिए
अपरिहार्य तो हैं ,पर पार्टी उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देने से बच रही है.
पार्टी उन्हें किसान सभा में ही रखना चाहती है.
माकपा में
अब असीम-बुद्ध-गौतम तिकड़ी की खूब चल रही है. उन्हें संगठन में सबसे
ज्यादा समर्थन प्राप्त है. गौतम चुनाव न लड़कर संगठन को संभालने के इच्छुक
हैं, तो असीम दासगुप्ता को सूर्यकांत के विकल्प बतौर पेश किया जा रहा है.
विधानसभा
चुनावों की तरह वाममोर्चा और माकपा को पंचायत चुनावों में भी मुंह की खानी
पड़ी. अपने गढ़ों में तक माकपा उम्मीदवार खड़ा करने में नाकाम रही. अब
लोकसभा चुनाव निकट है. केंद्र में नयी सरकार बनते न बनते बंगाल में
विधानसभा चुनावों की तैयारियां शुरू होनी है. 2016 के मद्देनजर वापसी का
रास्ता बनाने के लिए माकपा के सामने सांगठनिक कवायद पूरी करने और लोकसभा
चुनाव में कुछ कर दिखाने का यह आखिरी मौका है.
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