साल १९८३ में देश के ग्रामीण अंचलों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन
औसत कैलोरी उपभोग २३०९ किलो कैलोरी का था जो साल १९९८ में घटकर २०१० किलो
कैलोरी रह गया।*
• सालाना प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता साल १८८७-१९०२ में १९९ किलोग्राम थी जो साल २००२-०३ में घटकर १४१.५० किलोग्राम रह गई।*
• साल १९९० के दशक में एफसीआई के भंडारघरों में खाद्यान्न की बहुलता का एक कारण यह भी था कि इस अवधि में लोगों की क्रयशक्ति में भारी कमी आई। *
• एशिया में प्री-स्कूल संवर्ग के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं।**
• भारत में किशोर वय की ७२.६ फीसदी बच्चियों में एनीमिया का विस्तार है।***
• साल १९९०-९२ और साल फिर साल १९९० के दशक के मध्यवर्ती सालों में भारत में भुखमरी से निपटने की दिशा में खासी प्रगति हुई मगर १९९५-९७ के बाद यह प्रक्रिया मंद पड़ गई।*#
• उड़ीसा, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और पंजाब(अंशतया) में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति १८९० किलो कैलोरी से कम उपभोग करने वाली आबादी की तादाद बढ़ी है। ##
* पटनायक उत्सा(२००३)- एगरेरियन क्राइसिस एंड डस्ट्रेस इन रुरल इंडिया माइक्रोस्कैन
** मेसन जॉन, हंट, जोसेफ, पार्कर, डेविड एंड जॉनसन, अरबन(१९९९):इंवेस्टिंग इन चाइल्ड न्यूट्रिशन, एशियन डेवलपमेंट रिव्यू।खंड. 17,संख्या-. 1,2, पेज 1-32
*** ११ वीं पंचवर्षीय योजना, योजना आयोग, भारत सरकार
*# एफएओ रिपोर्ट- द स्टेट ऑव फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड-२००८
## रिपोर्ट ऑन द स्टेट ऑव फूड इन्सियक्यूरिटी इन रुरल इंडिया(२००९)-एम एस स्वामीनाथन पाऊंडेशन और वर्ल्ड फूड प्रोग्राम द्वारा तैयार दस्तावेज
एफएओ द्वारा प्रस्तुत फूड वेस्टेज फुटप्रिन्टस्: इम्पैक्ट ऑन नेचुरल रिसोर्सेज (2013) नामक दस्तावेज के अनुसार-
http://www.im4change.org/siteadmin/http://www.im4change.or
g/siteadmin/tinymce///uploaded/FAO%20report%20on%20food%20
wastage.pdf
• भारत और चीन अपने अपने इलाके में अनाज के मामले में वाटर- फुटप्रिन्टस् के सबसे बड़े योगदानकर्ता हैं।
• एशिया में अनाज की बर्बादी एक बड़ी समस्या है। इसका सीधा असर कार्बन-उत्सर्जन, पानी और जमीन के इस्तेमाल पर पड़ रहा है।चावल का उत्पादन इस लिहाज से विशेष रुप से उल्लेखनीय है क्योंकि इससे मीथेन का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन हो रहा है और बर्बादी भी बहुत ज्यादा है।
• एफएओ का आकलन है कि हर साल मनुष्यों के उपभोग के लिए हुए वैश्विक खाद्योत्पादन का तकरीबन एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है।
• हर साल जितने खाद्यान्न बर्बाद होता है उसके उत्पादन में उतने ही पानी का खर्च होता है जितना कि रुस की नदी वोल्गा का सालाना जल-प्रवाह है। इसके अतिरिक्त बर्बाद हो जाने वाले खाद्यान्न के उत्पादन से सालाना 3.3 अरब टन ग्रीनहाऊस गैस धरती के वातावरण में पहुंचता है। इसी तरह बर्बाद अन्न के उत्पादन में 1.4 अरब हैक्टेयर जमीन का सालाना उपयोग होता है जो कि विश्व की कुल कृषिभूमि का 28 फीसदी है।
• पर्यावरण की हानि के अतिरिक्त बर्बाद होने वाले खाद्यान्न से खाद्योत्पादकों सालाना 750 अरब डॉलर का नुकसान होता है।
• विश्व में जितना खाद्यान्न सालाना बर्बाद होता है उसका 54 फीसदी हिस्सा उत्पादन, कटाई और भंडारण की प्रक्रिया में नष्ट होता है जबकि 46 फीसदी हिस्सा प्रसंस्करण, वितरण और उपभोग के समय।
• सामान्य तौर पर विकासशील देशों में खाद्यान्न की ज्यादा बर्बादी उत्पादन के चरण में होती है जबकि विकसित देशों में उपभोग के स्तर पर। मध्य और उच्च आय वाले देशों में उपभोग के स्तर पर खाद्यान्न की बर्बादी 31-39 फीसद तक होती है जबकि कम आय वाले देशों में 4-16 फीसदी तक।
• विकासशील देशों में फसल की कटाई के तुरंत बाद होने वाला नुकसान प्रमुख समस्या है। फसल की कटाई और उससे अन्न निकालने की तकनीक के मामले में कमजोरी और वित्तीय बाधाओं के साथ-साथ भंडारण और ढुलाई से जुड़ी समस्याएं इसके लिए खास तौर पर जिम्मेदार हैं।
http://www.im4change.org/siteadmin/http://www.im4change.or
g/siteadmin/tinymce///uploaded/FAO%20report%20on%20food%20
wastage.pdf
• भारत और चीन अपने अपने इलाके में अनाज के मामले में वाटर- फुटप्रिन्टस् के सबसे बड़े योगदानकर्ता हैं।
• एशिया में अनाज की बर्बादी एक बड़ी समस्या है। इसका सीधा असर कार्बन-उत्सर्जन, पानी और जमीन के इस्तेमाल पर पड़ रहा है।चावल का उत्पादन इस लिहाज से विशेष रुप से उल्लेखनीय है क्योंकि इससे मीथेन का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन हो रहा है और बर्बादी भी बहुत ज्यादा है।
• एफएओ का आकलन है कि हर साल मनुष्यों के उपभोग के लिए हुए वैश्विक खाद्योत्पादन का तकरीबन एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है।
• हर साल जितने खाद्यान्न बर्बाद होता है उसके उत्पादन में उतने ही पानी का खर्च होता है जितना कि रुस की नदी वोल्गा का सालाना जल-प्रवाह है। इसके अतिरिक्त बर्बाद हो जाने वाले खाद्यान्न के उत्पादन से सालाना 3.3 अरब टन ग्रीनहाऊस गैस धरती के वातावरण में पहुंचता है। इसी तरह बर्बाद अन्न के उत्पादन में 1.4 अरब हैक्टेयर जमीन का सालाना उपयोग होता है जो कि विश्व की कुल कृषिभूमि का 28 फीसदी है।
• पर्यावरण की हानि के अतिरिक्त बर्बाद होने वाले खाद्यान्न से खाद्योत्पादकों सालाना 750 अरब डॉलर का नुकसान होता है।
• विश्व में जितना खाद्यान्न सालाना बर्बाद होता है उसका 54 फीसदी हिस्सा उत्पादन, कटाई और भंडारण की प्रक्रिया में नष्ट होता है जबकि 46 फीसदी हिस्सा प्रसंस्करण, वितरण और उपभोग के समय।
• सामान्य तौर पर विकासशील देशों में खाद्यान्न की ज्यादा बर्बादी उत्पादन के चरण में होती है जबकि विकसित देशों में उपभोग के स्तर पर। मध्य और उच्च आय वाले देशों में उपभोग के स्तर पर खाद्यान्न की बर्बादी 31-39 फीसद तक होती है जबकि कम आय वाले देशों में 4-16 फीसदी तक।
• विकासशील देशों में फसल की कटाई के तुरंत बाद होने वाला नुकसान प्रमुख समस्या है। फसल की कटाई और उससे अन्न निकालने की तकनीक के मामले में कमजोरी और वित्तीय बाधाओं के साथ-साथ भंडारण और ढुलाई से जुड़ी समस्याएं इसके लिए खास तौर पर जिम्मेदार हैं।
• भुखमरी और
कुपोषण को घटाने में कृषि की वृद्धि का प्रभावकारी योगदान रहा है। ज्यादातर गरीबजन
अपनी जीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं।
• द ऑर्गनाईजेशन फॉर इकॉनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट(ओईसीडी)
तथा एफएओ एग्रीकल्चरल आऊटलुक 2011-2020 का आकलन है कि विश्व-बाजार में चावल, गेहूं,मकई और
तेलहन के दामों में 2015/16 से 2019/20 के बीच गुजरी 1998/99 से 2002/03 की अवधि
की तुलना में क्रमश 40, 27, 48 और 36 फीसदी का
इजाफा होगा।
• सालाना प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता साल १८८७-१९०२ में १९९ किलोग्राम थी जो साल २००२-०३ में घटकर १४१.५० किलोग्राम रह गई।*
• साल १९९० के दशक में एफसीआई के भंडारघरों में खाद्यान्न की बहुलता का एक कारण यह भी था कि इस अवधि में लोगों की क्रयशक्ति में भारी कमी आई। *
• एशिया में प्री-स्कूल संवर्ग के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं।**
• भारत में किशोर वय की ७२.६ फीसदी बच्चियों में एनीमिया का विस्तार है।***
• साल १९९०-९२ और साल फिर साल १९९० के दशक के मध्यवर्ती सालों में भारत में भुखमरी से निपटने की दिशा में खासी प्रगति हुई मगर १९९५-९७ के बाद यह प्रक्रिया मंद पड़ गई।*#
• उड़ीसा, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और पंजाब(अंशतया) में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति १८९० किलो कैलोरी से कम उपभोग करने वाली आबादी की तादाद बढ़ी है। ##
* पटनायक उत्सा(२००३)- एगरेरियन क्राइसिस एंड डस्ट्रेस इन रुरल इंडिया माइक्रोस्कैन
** मेसन जॉन, हंट, जोसेफ, पार्कर, डेविड एंड जॉनसन, अरबन(१९९९):इंवेस्टिंग इन चाइल्ड न्यूट्रिशन, एशियन डेवलपमेंट रिव्यू।खंड. 17,संख्या-. 1,2, पेज 1-32
*** ११ वीं पंचवर्षीय योजना, योजना आयोग, भारत सरकार
*# एफएओ रिपोर्ट- द स्टेट ऑव फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड-२००८
## रिपोर्ट ऑन द स्टेट ऑव फूड इन्सियक्यूरिटी इन रुरल इंडिया(२००९)-एम एस स्वामीनाथन पाऊंडेशन और वर्ल्ड फूड प्रोग्राम द्वारा तैयार दस्तावेज
भुखमरी-एक आकलन
एफएओ द्वारा प्रस्तुत फूड वेस्टेज फुटप्रिन्टस्: इम्पैक्ट ऑन नेचुरल रिसोर्सेज (2013) नामक दस्तावेज के अनुसार-
http://www.im4change.org/siteadmin/http://www.im4change.or
g/siteadmin/tinymce///uploaded/FAO%20report%20on%20food%20
wastage.pdf
• भारत और चीन अपने अपने इलाके में अनाज के मामले में वाटर- फुटप्रिन्टस् के सबसे बड़े योगदानकर्ता हैं।
• एशिया में अनाज की बर्बादी एक बड़ी समस्या है। इसका सीधा असर कार्बन-उत्सर्जन, पानी और जमीन के इस्तेमाल पर पड़ रहा है।चावल का उत्पादन इस लिहाज से विशेष रुप से उल्लेखनीय है क्योंकि इससे मीथेन का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन हो रहा है और बर्बादी भी बहुत ज्यादा है।
• एफएओ का आकलन है कि हर साल मनुष्यों के उपभोग के लिए हुए वैश्विक खाद्योत्पादन का तकरीबन एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है।
• हर साल जितने खाद्यान्न बर्बाद होता है उसके उत्पादन में उतने ही पानी का खर्च होता है जितना कि रुस की नदी वोल्गा का सालाना जल-प्रवाह है। इसके अतिरिक्त बर्बाद हो जाने वाले खाद्यान्न के उत्पादन से सालाना 3.3 अरब टन ग्रीनहाऊस गैस धरती के वातावरण में पहुंचता है। इसी तरह बर्बाद अन्न के उत्पादन में 1.4 अरब हैक्टेयर जमीन का सालाना उपयोग होता है जो कि विश्व की कुल कृषिभूमि का 28 फीसदी है।
• पर्यावरण की हानि के अतिरिक्त बर्बाद होने वाले खाद्यान्न से खाद्योत्पादकों सालाना 750 अरब डॉलर का नुकसान होता है।
• विश्व में जितना खाद्यान्न सालाना बर्बाद होता है उसका 54 फीसदी हिस्सा उत्पादन, कटाई और भंडारण की प्रक्रिया में नष्ट होता है जबकि 46 फीसदी हिस्सा प्रसंस्करण, वितरण और उपभोग के समय।
• सामान्य तौर पर विकासशील देशों में खाद्यान्न की ज्यादा बर्बादी उत्पादन के चरण में होती है जबकि विकसित देशों में उपभोग के स्तर पर। मध्य और उच्च आय वाले देशों में उपभोग के स्तर पर खाद्यान्न की बर्बादी 31-39 फीसद तक होती है जबकि कम आय वाले देशों में 4-16 फीसदी तक।
• विकासशील देशों में फसल की कटाई के तुरंत बाद होने वाला नुकसान प्रमुख समस्या है। फसल की कटाई और उससे अन्न निकालने की तकनीक के मामले में कमजोरी और वित्तीय बाधाओं के साथ-साथ भंडारण और ढुलाई से जुड़ी समस्याएं इसके लिए खास तौर पर जिम्मेदार हैं।
एफएओ की - द स्टेट ऑव फूड एंड
एग्रीकल्चर 2013- फूड सिस्टम फॉर बेटर न्यूट्रीशन- नामक रिपोर्ट के अनुसार
• इस रिपोर्ट का तर्क है कि पोषण की दशा सुधारनी हो और कुपोषण के कारण
आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसे कम करना हो तो बहुविध प्रयास करने होंगे। इसके लिए आहार-शृंखला,
सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा आदि में एक साथ अनिवार्य और सकारात्मक हस्तक्षेप किया जाना चाहिए।
आहार-शृंखला में हस्तक्षेप की शुरुआत कृषि-क्षेत्र से की जानी चाहिए।
• भारत से ऐसे साक्ष्य मिले हैं कि यहां अगर कोई व्यस्क व्यक्ति शहर में है
तो उसके कुपोषित होने की संभावना गांव में रहने वाले व्यक्ति की तुलना में कम है।
गुहा-कसनोबिस और जेम्स कृत एक अध्ययन(2010) में पाया गया कि आठ शहरों की झुग्गी
बस्तियों में रहने वाले व्यस्कों के बीच कुपोषण जहां 23 फीसदी था वहीं गांवों में
वयस्क व्यक्तियों के बीच 40 फीसदी मामले कुपोषण के थे।
• स्टेईन और कैम ने अपने एक अध्ययन(2007) में कहा है कि आयरन की कमी से होने
वाले रोग एनीमिया, जिंक की कमी , विटामिन ए और आयोडिन की कमी से होने वाले रोगों के कारण भारत को जो आर्थिक
कीमत चुकानी पड़ती है वह इस देश के सकल घरेलू उत्पाद का तकरीबन 2.5 फीसदी है।
• भारत में स्कूलों में पोषाहार के रुप में दिए जाने वाले विशेष चावल के
कारण एनीमिया के मामले, इस रोग से पीडित छात्रों के बीच 30
से घटकर 15 फीसदी पर आ पहुंचे हैं। (Moretti et al., 2006).
• अधिकतर देशों में देखा गया है कि कृषि के क्षेत्र में उत्पादकता बढ़े तो
कुपोषित बच्चों की संख्या में कमी आती है। ऐसे देशों में भारत भी शामिल है। भारत
में ऐसा हरित क्रांति के दौर में हुआ जब खेती में उच्च उत्पादकता के लिए
प्रौद्योगिकी पर विशेष बल दिया गया। सन् 1990 तक यही चलन देखने में आया लेकिन साल
1992 के बाद देखने में आया है कि भारत के ज्यादातर राज्यों में खेती की उच्च-उत्पादकता
से वहां के कुपोषित बच्चों की संख्या में कमी से रिश्ता नहीं है। (Headey, 2011).
• भारत में कुपोषण की व्यापकता के कई कारण गिनाये जाते हैं। ऐसे कारणों में
आर्थिक असमानता, लैंगिक असमानता. साफ-सफाई की कमी,
स्वच्छ पेयजल तक पहुंच का अभाव आदि प्रमुख हैं। बहरहाल,
कुपोषण की व्यापकता की व्याख्या के लिए अभी और ज्यादा
शोध की जरुरत है। (Deaton and Drèze, 2009;
Headey, 2011).
• विकासशील देशों
में प्रसंस्करित और डिब्बाबंद भोजन की बिक्री बहुत तेजी से बढ़ रही है। साल 2010
में भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में पाये जाने वाले किरान
दुकानों में डिब्बाबंद भोजन की 53 फीसदी बिक्री हुई।
• एफएओ को अधुनातन आकलन के हिसाब से विश्व की आबादी का 12.5 फीसद हिस्सा(868
मिलियन व्य़क्ति) भोजन के अभाव से ग्रस्त हैं। इस आंकड़े से विश्व में व्याप्त
कुपोषण की सम्पूर्णता का नहीं बल्कि उसके एक बिस्से भर की ही झलक मिलती है।
अनुमानों के हिसाब से विश्व में 26 फीसदी बच्चे कुपोषण के कारण सामान्य से कम
लंबाई के हैं, 2 अरब से ज्यादा लोग एक ना एक
माइक्रोन्यूट्रीएन्ट के अभाव से पीडित हैं जबकि 1 अरब 40 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनका
वज़न सेहत के मानकों के हिसाब से ज्यादा है और इस तादाद में 50 करोड़ लोग मोटापे
का शिकार हैं।
• साल 1990–92 से विकासशील देशों में भोजन की
कमी के शिकार लोगों की संख्या 98 करोड़ से घटकर 85 करोड़ 20 लाख पर पहुंच गई है और
भोजन की अभावग्रस्तता का विस्तार 23 फीसदी से कम होकर 15 फीसदी पर पहुंचा है। (FAO,
IFAD and WFP, 2012).
• साल 1990 से 2011 के बीच कुपोषण जनित स्टटिंग के मामलों में विकासशील
देशों में 16.6 फीसदी की कमी आई है। कुपोषण जनित स्टटिंग की व्यापकता विकासशील
देशों में 44.6 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर आ गई है। फिलहाल विकासशील देशों में
सामान्य से कम ऊँचाई(कुपोषण जनिक स्टटिंग) के बच्चों की तादाद विकासशील देशों में
16 करोड़ है जबकि साल 1990 में 24 करोड़ 20 लाख थी। (UNICEF, WHO and The
World Bank, 2012).
• एक अनुमान में कहा गया है कि अगर
हरित-क्रांति ना हुई रहती तो विश्व में भोजन की कीमतें 35–65 फीसदी ज्यादा होतीं, विकासशील देशों
में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या वर्तमान संख्या से 6-8 फीसदी ज्यादा होती और
औसत कैलोरी उपभोग की मात्रा अभी की तुलना में 11-13 फीसदी कम होती। (Evenson
and Rosegrant, 2003)
एफएओ द्वारा
प्रस्तुत फूड वेस्टेज फुटप्रिन्टस्: इम्पैक्ट ऑन नेचुरल रिसोर्सेज (2013) नामक दस्तावेज के अनुसार-
http://www.im4change.org/siteadmin/http://www.im4change.or
g/siteadmin/tinymce///uploaded/FAO%20report%20on%20food%20
wastage.pdf
• भारत और चीन अपने अपने इलाके में अनाज के मामले में वाटर- फुटप्रिन्टस् के सबसे बड़े योगदानकर्ता हैं।
• एशिया में अनाज की बर्बादी एक बड़ी समस्या है। इसका सीधा असर कार्बन-उत्सर्जन, पानी और जमीन के इस्तेमाल पर पड़ रहा है।चावल का उत्पादन इस लिहाज से विशेष रुप से उल्लेखनीय है क्योंकि इससे मीथेन का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन हो रहा है और बर्बादी भी बहुत ज्यादा है।
• एफएओ का आकलन है कि हर साल मनुष्यों के उपभोग के लिए हुए वैश्विक खाद्योत्पादन का तकरीबन एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है।
• हर साल जितने खाद्यान्न बर्बाद होता है उसके उत्पादन में उतने ही पानी का खर्च होता है जितना कि रुस की नदी वोल्गा का सालाना जल-प्रवाह है। इसके अतिरिक्त बर्बाद हो जाने वाले खाद्यान्न के उत्पादन से सालाना 3.3 अरब टन ग्रीनहाऊस गैस धरती के वातावरण में पहुंचता है। इसी तरह बर्बाद अन्न के उत्पादन में 1.4 अरब हैक्टेयर जमीन का सालाना उपयोग होता है जो कि विश्व की कुल कृषिभूमि का 28 फीसदी है।
• पर्यावरण की हानि के अतिरिक्त बर्बाद होने वाले खाद्यान्न से खाद्योत्पादकों सालाना 750 अरब डॉलर का नुकसान होता है।
• विश्व में जितना खाद्यान्न सालाना बर्बाद होता है उसका 54 फीसदी हिस्सा उत्पादन, कटाई और भंडारण की प्रक्रिया में नष्ट होता है जबकि 46 फीसदी हिस्सा प्रसंस्करण, वितरण और उपभोग के समय।
• सामान्य तौर पर विकासशील देशों में खाद्यान्न की ज्यादा बर्बादी उत्पादन के चरण में होती है जबकि विकसित देशों में उपभोग के स्तर पर। मध्य और उच्च आय वाले देशों में उपभोग के स्तर पर खाद्यान्न की बर्बादी 31-39 फीसद तक होती है जबकि कम आय वाले देशों में 4-16 फीसदी तक।
• विकासशील देशों में फसल की कटाई के तुरंत बाद होने वाला नुकसान प्रमुख समस्या है। फसल की कटाई और उससे अन्न निकालने की तकनीक के मामले में कमजोरी और वित्तीय बाधाओं के साथ-साथ भंडारण और ढुलाई से जुड़ी समस्याएं इसके लिए खास तौर पर जिम्मेदार हैं।
एफएओ की - द स्टेट ऑव फूड एंड
एग्रीकल्चर 2013- फूड सिस्टम फॉर बेटर न्यूट्रीशन- नामक रिपोर्ट के अनुसार
• इस रिपोर्ट का तर्क है कि पोषण की दशा सुधारनी हो और कुपोषण के कारण
आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसे कम करना हो तो बहुविध प्रयास करने होंगे। इसके लिए आहार-शृंखला,
सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा आदि में एक साथ अनिवार्य और सकारात्मक हस्तक्षेप किया जाना चाहिए।
आहार-शृंखला में हस्तक्षेप की शुरुआत कृषि-क्षेत्र से की जानी चाहिए।
• भारत से ऐसे साक्ष्य मिले हैं कि यहां अगर कोई व्यस्क व्यक्ति शहर में है
तो उसके कुपोषित होने की संभावना गांव में रहने वाले व्यक्ति की तुलना में कम है।
गुहा-कसनोबिस और जेम्स कृत एक अध्ययन(2010) में पाया गया कि आठ शहरों की झुग्गी
बस्तियों में रहने वाले व्यस्कों के बीच कुपोषण जहां 23 फीसदी था वहीं गांवों में
वयस्क व्यक्तियों के बीच 40 फीसदी मामले कुपोषण के थे।
• स्टेईन और कैम ने अपने एक अध्ययन(2007) में कहा है कि आयरन की कमी से होने
वाले रोग एनीमिया, जिंक की कमी , विटामिन ए और आयोडिन की कमी से होने वाले रोगों के कारण भारत को जो आर्थिक
कीमत चुकानी पड़ती है वह इस देश के सकल घरेलू उत्पाद का तकरीबन 2.5 फीसदी है।
• भारत में स्कूलों में पोषाहार के रुप में दिए जाने वाले विशेष चावल के
कारण एनीमिया के मामले, इस रोग से पीडित छात्रों के बीच 30
से घटकर 15 फीसदी पर आ पहुंचे हैं। (Moretti et al., 2006).
• अधिकतर देशों में देखा गया है कि कृषि के क्षेत्र में उत्पादकता बढ़े तो
कुपोषित बच्चों की संख्या में कमी आती है। ऐसे देशों में भारत भी शामिल है। भारत
में ऐसा हरित क्रांति के दौर में हुआ जब खेती में उच्च उत्पादकता के लिए
प्रौद्योगिकी पर विशेष बल दिया गया। सन् 1990 तक यही चलन देखने में आया लेकिन साल
1992 के बाद देखने में आया है कि भारत के ज्यादातर राज्यों में खेती की उच्च-उत्पादकता
से वहां के कुपोषित बच्चों की संख्या में कमी से रिश्ता नहीं है। (Headey, 2011).
• भारत में कुपोषण की व्यापकता के कई कारण गिनाये जाते हैं। ऐसे कारणों में
आर्थिक असमानता, लैंगिक असमानता. साफ-सफाई की कमी,
स्वच्छ पेयजल तक पहुंच का अभाव आदि प्रमुख हैं। बहरहाल,
कुपोषण की व्यापकता की व्याख्या के लिए अभी और ज्यादा
शोध की जरुरत है। (Deaton and Drèze, 2009;
Headey, 2011).
• विकासशील देशों
में प्रसंस्करित और डिब्बाबंद भोजन की बिक्री बहुत तेजी से बढ़ रही है। साल 2010
में भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में पाये जाने वाले किरान
दुकानों में डिब्बाबंद भोजन की 53 फीसदी बिक्री हुई।
• एफएओ को अधुनातन आकलन के हिसाब से विश्व की आबादी का 12.5 फीसद हिस्सा(868
मिलियन व्य़क्ति) भोजन के अभाव से ग्रस्त हैं। इस आंकड़े से विश्व में व्याप्त
कुपोषण की सम्पूर्णता का नहीं बल्कि उसके एक बिस्से भर की ही झलक मिलती है।
अनुमानों के हिसाब से विश्व में 26 फीसदी बच्चे कुपोषण के कारण सामान्य से कम
लंबाई के हैं, 2 अरब से ज्यादा लोग एक ना एक
माइक्रोन्यूट्रीएन्ट के अभाव से पीडित हैं जबकि 1 अरब 40 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनका
वज़न सेहत के मानकों के हिसाब से ज्यादा है और इस तादाद में 50 करोड़ लोग मोटापे
का शिकार हैं।
• साल 1990–92 से विकासशील देशों में भोजन की
कमी के शिकार लोगों की संख्या 98 करोड़ से घटकर 85 करोड़ 20 लाख पर पहुंच गई है और
भोजन की अभावग्रस्तता का विस्तार 23 फीसदी से कम होकर 15 फीसदी पर पहुंचा है। (FAO,
IFAD and WFP, 2012).
• साल 1990 से 2011 के बीच कुपोषण जनित स्टटिंग के मामलों में विकासशील
देशों में 16.6 फीसदी की कमी आई है। कुपोषण जनित स्टटिंग की व्यापकता विकासशील
देशों में 44.6 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर आ गई है। फिलहाल विकासशील देशों में
सामान्य से कम ऊँचाई(कुपोषण जनिक स्टटिंग) के बच्चों की तादाद विकासशील देशों में
16 करोड़ है जबकि साल 1990 में 24 करोड़ 20 लाख थी। (UNICEF, WHO and The
World Bank, 2012).
• एक अनुमान में कहा गया है कि अगर
हरित-क्रांति ना हुई रहती तो विश्व में भोजन की कीमतें 35–65 फीसदी ज्यादा होतीं, विकासशील देशों
में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या वर्तमान संख्या से 6-8 फीसदी ज्यादा होती और
औसत कैलोरी उपभोग की मात्रा अभी की तुलना में 11-13 फीसदी कम होती। (Evenson
and Rosegrant, 2003)
एफएओ,
डब्ल्यूएफपी,आएफएडी द्वारा
प्रस्तुत द स्टेट ऑव फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड 2012 नामक दस्तावेज के अनुसार-,
•नए आकलनों
के अनुसार खाद्य-पदार्थ की कीमतों और आर्थिक संकट के वर्षो (2007–10) में भुखमरी की
व्यापकता उतनी गंभीर नहीं थी जितना पहले के अनुमानों में कहा गया था।सकल घरेलू
उत्पाद से संबंधित नए आकलनों के अनुसार साल 2008-09 की आर्थिक महामंदी के समय कई
विकासशील देशों में जीडीपी की बढ़त बहुत कम प्रभावित हुई। चीन, भारत और
इंडोनेशिया(तीन बड़े विकासशील देश) में घरेलू बाजार में खाद्य-पदार्थों की कीमतों
में मामूली वृद्धि हुई।
•साल
1990-1992 की अवधि में भारत में पोषणगत कमी झेल रहे लोगों की संख्या तकरीबन 24
करोड़ थी, साल
1999-2001 की अवधि में यह संख्या 22 करोड़ 40 लाख थी। साल 2004-06 के बीच पोषणगत
कमी के शिकार लोगों की संख्या 23 करोड़ अस्सी लाख थी जबकि स3ल 2007-09 में 22
करोड़ 70 लाख और साल 2010-12 की अवधि में ऐसे लोगों की संख्या 21 करोड़ 70 लाख थी।
•भारत की
कुल आबादी में पोषणगत कमी के शिकार लोगों की तादाद साल 1990-92 में 26.9 फीसद, साल 1999-2001 में
21.3 फीसद, साल
2004-06 में 20.9 फीसद, साल
2007-09 में 19.0 फीसद तथा साल 2010-12 में 17.5 फीसद थी।
•भारत में
आयरन और आयोडिन की कमी से होने वाले कुपोषण के कारण सालाना जीडीपी के 2.95 फीसद का
नुकसान होता है।
•साल 2008
में भारत में कुल कृषियोग्य भूमि का 41.9 फीसद हिस्सा सिंचाई की सुविधा से युक्त
था जबकि साल 2004 में ऐसी भूमि कुल कृषियोग्य भूमि का 40.1 फीसद थी।
•भारत में
खाद्यान्न निर्भरता अनुपात[ इसकी गणना के लिए खाद्यान्न-आयात में {( खाद्यान्न का कुल
उत्पादन और कुल आयात का योग खाद्यान्न निर्यात को घटाया जाता है }]
साल 2008 में 0.5 फीसद थी जबकि साल 2007 में 1.5 फीसद।
•शहरों और
नगरों के नजदीक पड़ने वाले भारतीय गांवों का रिकार्ड गरीबी घटाने के मामले में
तुलनात्मक रुप से बेहतर है।
•बांग्लादेश
में सरकार भारत और पाकिस्तान की तुलना में स्वास्थ्य के मद में दोगुना ज्यादा खर्च
करती है।.
•विश्वस्तर
पर तकरीबन 87 करोड़ लोग साल 2010-12 में भोजन से हासिल होने वाली ऊर्जा की कमी के
शिकार थे। यह तादाद विश्व की आबादी का 12.5 फीसद है यानी विश्व में हर आठ व्यक्ति
में एक व्यक्ति भोजन से हासिल होने वाली ऊर्जा की कमी का शिकार है। इस तादाद में
से 85 करोड़ 20 लाख लोग विकासशील देश में रहते हैं। विकासशील देशों में पोषणगत कमी
के शिकार लोगों की संख्या ऐसे देशों की कुल आबादी का 14.9 फीसद है।.
•साल
1990-92 से साल 2010-12 के बीत विश्व में भुखमरी झेल रहे लोगों की संख्या में 13
करोड़ 20 लाख की कमी आई यानि विश्व में भुखमरी झेल रहे लोगों की संख्या 18.6 फीसद
से घटकर 12.5 फीसद हो गई जबकि विकासशील देशों में यह संख्या घटकर 23.2 फीसद से
14.9 फीसद पर पहुंची है।
• पोषणगत कमी
के शिकार लोगों की संख्या में सर्वाधिक कमी दक्षिणी-पूर्वी एशिया(13.4 फीसद से
घटकर 7.5 फीसद) और पूर्वी एशिया( 26.1 फीसद से घटकर 19.2 फीसद) के देशों में आई
है। लैटिन अमेरिकी देशों में पोषणगत कमी के शिकार लोगों की संख्या 6.5 फीसद से
घटकर 5.6 फीसद पर पहुंची है लेकिन दक्षिणी एशिया में पोषणगत कमी झेल रहे लोगों की
संख्या 32.7 फीसद से बढ़कर 35.0 फीसद पर पहुंची है।
• सारे
विकासशील देशों को एकसाथ मिलाकर देखें तो भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या
साल 1990-2010 के बीच 23.2 फीसदी से घटकर 14.9 फीसद पर आई है जबकि इस अवधि में
गरीबों की तादाद 47.5 फीसदी से घटकर 22.4 फीसदी पर पहुंची और बाल मृत्यु-दर 9.5
फीसदी से घटकर 6.1 फीसदी पर।
सेव
द चिल्ड्रेन और वर्ल्डविजन नामक संस्था द्वारा प्रस्तुत द न्यूट्रीशन बैरोमीटर: गॉजिंग नेशनल रेस्पांसेज टू
अंडरन्यूट्रीशन (2012) नामक दस्तावेज के अनुसार- http://www.savethechildren.in/images/resources_documents/n
utrition_barometer_asia.pdf:
utrition_barometer_asia.pdf:
• डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑव कांगो, भारत और
यमन की प्रगति बाल-पोषण के मामले में काफी कमजोर रही, परिणाम अच्छे नहीं आये और इन
देशों ने बाल-पोषण के मामले में बड़ी लचर प्रतिबद्धता जाहिर की। इस दस्तावेज में बाल-पोषण
के मोर्चे पर भारत की प्रगति के आंकड़े पुराने हैं। ये आंकड़े नेशनल फैमिली हैल्थ
सर्वे-3 पर आधारित हैं जिसकी अवधि 2005-06 है। चूंकि भारत ने आधिकारिक तौर पर
बाल-पोषण के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर कोई सर्वेक्षण प्रस्तुत नहीं किया है
इसलिए नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-3 के ही आंकड़ों का व्यवहार होता है।
• साल 2005-06 के बाद भारत में बाल-पोषण के
लिहाज से क्या प्रगति हुई, इसे जानने के लिए राष्ट्रीय स्तर के सर्वे की त्वरित
जरुरत है। चौथा फैमिली हैल्थ सर्वे साल 2014 में होना है।
• भारत की अर्थव्यवस्था ने भले चमत्कारिक
प्रगति की हो लेकिन इस प्रगति की प्रतिबिंब बाल-पोषण के रुप में नहीं दिखता।
अर्थव्यवस्था की प्रगति के कारण करोड़ों लोग गरीबी के जाल से बाहर निकले हैं लेकिन
आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के एक छोटे से तबके को बाकी लोगों की तुलना में बहुत
ज्यादा हुआ है। कई शोध-आकलनों में कहा गया है कि भारत में आधे से ज्यादा बच्चे
सामान्य से कम वज़न के हैं और उनकी लंबाई भी सामान्य से कम है। भारत में 70 फीसदी
से ज्यादा महिलाएं और बच्चे गंभीर पोषणगत कमियों से जूझ रहे हैं जिसमें एनीमिया एक
है।
• इस बात की संभावना दोगुनी है कि कोई
बच्चा अगर गरीब घर में पैदा हुआ है तो धनी घर में पैदा हुए बच्चे की तुलना में
उसकी लंबाई सामान्य से कम होगी। बहरहाल भारत के सर्वाधिक धनी 20 फीसदी परिवारों
में हर पाँच में से एक बच्चा पोषणगत कमी का शिकार है।
• पोषण के पैमाने पर शून्य से 2 साल की
अवधि को बच्चे के आगे के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। समेकित बाल
विकास योजना की एक आलोचना यह कहकर की जाती है कि इस योजना में उपर्युक्त आयु-वर्ग
के बच्चों की अनदेखी की जाती है।
• इस सर्वेक्षण में कुल 36 देशों को शामिल
किया गया था। इसमें 13 यानी तकरीबन एक तिहाई देशों में बाल-पोषणगत प्रतिबद्धता और
परिणाम एक ही दिशा में संकेत करते हैं।
तीन देश- ग्वाटेमाला, मलावी और पेरु बाल-पोषण के मामले में राजनीतिक और
वित्तीय प्रतिबद्धता दिखाने तथा इसी के अनुरुप बेहतर परिणाम हासिल करने के मामले
में बाकी देशों से आगे हैं।
• इस सर्वेक्षण में यह भी पता चला कि
सर्वेक्षण में शामिल देशों में कुल 12 देश ऐसे हैं जहां बाल-पोषण के मामले में राजनीतिक-वैधानिक
और वित्तीय प्रतिबद्धता तो खूब है लेकिन नतीजे के मोर्चे पर हासिल बड़ा कम है।
आईएफएडी, डब्ल्यू एफ पी और एफएओ द्वारा प्रस्तुत द
स्टेट ऑव फूड इन्स्क्यूरिटी इन द वर्ल्ड- हाऊ डज इंटरनेशनल प्राईस वोलाटिलिटी
अफेक्ट डोमेस्टिक इकॉनॉमिज एंड फूड सिक्यूरिटी नामक दस्तावेज के अनुसार http://www.fao.org/docrep/014/i2330e/i2330e.pdf
• साल 2006-08 में
भारत में आहार की कमी के शिकार लोगों की संख्या 22 करोड़ 40 लाख 60 हजार थी जबकि
चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान में इसी अवधि में
भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या क्रमश 12 करोड़ 90 लाख 60 हजार , 4 करोड़ 10
लाख 40 हजार, 30 लाख 90 हजार और
4 करोड़ 20 लाख 80 हजार थी।
• साल 1995-97 में भारत में भोजन के अभाव के शिकार लोगों की
संख्या 16 करोड़ 70 लाख 10 हजार से बढ़कर 20 करोड़ 80 लाख तक पहुंची थी। यह तादाद
साल 2000-02 में बढ़कर 22 करोड़ 40 लाख 60 हजार के आंकड़े तक पहुंच गई।
• साल 2006 में भारत में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या
कुल आबादी में 19 फीसदी थी जबकि चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका
और पाकिस्तान में इसी अवधि में कुल आबादी में भोजन की कमी के शिकार लोगों की
संख्या क्रमश 10 फीसदी, 26 फीसदी, 20 फीसदी और 25
फीसदी थी।
• भारत की कुल आबादी में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या
साल 1995-96 में 17 फीसदी थी जो बढ़कर साल 2000-02 में 20 फीसदी तक पहुंच गई, साल
2006-08 में इस तादाद में हल्की सी कमी(19 फीसदी) आई थी।
• साल 2006-08 के खाद्यान्न संकट के समय चावल और गेहूं की घरेलू
कीमतें चीन भारत और इंडोनेशिया में स्थिर रहीं क्योंकि इन देशों में सरकार ने इनके
निर्यात पर अंकुश लगा रखा था।
• भारत में किसान आमदनी में होने वाली तेज घट-बढ़ के कारण बैलों
की खरीददारी पर कम खर्च करते हैं।
• साल 2007 और 2008 के बीच एशिया में आहार की कमी के शिकार लोगों
की संख्या तकरीबन स्थिर( महज 0.1 फीसदी का इजाफा) रही जबकि इसी अवधि में अफ्रीका
में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 8 फीसदी बढ़ी।
• विश्व-बाजार में खाद्य-वस्तुओं की कीमतें, मुद्रास्फीति
के स्थिति के हिसाब से अनुकूलित किए जाने पर, साल 1960 के दशक के
शुरुआती सालों से नीचे आनी शुरु हुईं और साल 2000 के दशक के आरंभिक सालों में
ऐतिहासिक रुप से सर्वाधिक निचले स्तर पर पहुंची। साल 2003 से कीमतों में इजाफा
शुरु हुआ, फिर साल 2006 से 2008 के बीच कीमतों में तेज गति से बढ़ोतरी
हुई।
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