भारतीय विधार्थी मोर्चा का दूसरा राज्य अधिवेशन दिनांक 12 सितम्बर 2013 को लखनऊ के गंगा प्रसाद वर्मा मेमोरियल सभागर, अमीनाबाद में होने जा रहा है जिसमें मूलनिवासियों को अधिक से अधिक संख्या में भाग लेकर इस अधिवेशन को सफल बनाना चाहिए। क्योंकि बाबा साहब ने कहा है ''अपने जीवन का मकसद केवल निजी सुख सुविधा नहीं होना चाहिए बलिक समाज की स्वतंत्रता ;आजादीद्ध और सर्वागींण विकास के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहना ही जीवन जीने का सार है
बाबा साहब भीमराव डा.अम्बेडकर ने विधार्थियाें से अपेक्षा करते हुए कहा था कि सामाजिक उŸारदायित्व निभाने वाले विधार्थी समाज में से तैयार करने के उददेश्य से मैंने 'सिद्धार्थ कालेज का निर्माण किया। लेकिन अनुभव बहुत कड़वा हुआ है। शिक्षा होने के बाद अच्छी नौकरी मिल गयी बस हो गया अपना काम यह संकुचित मानसिकता की वजह से वे भूल जाते हैें कि मैं कौन हूँ? मुझे शिक्षा किसने दी, उन्हाेंने कितना कष्ट सहन किया, इसकी जानकारी न रखकर ये लोग अपने समाज को भूल जाते हैं। ऐसे लोगाें को क्या कहना चाहिए? जो समाज के विधार्थी पढ़-लिखकर समाज की तरफ देखते ही नहीं यह समाज के साथ विश्वासघात नहीं तो और क्या है? मैंने अपना सारा जीवन आप लोगाें के लिए लगाया। मेरे मरने के बाद इस समाज में का क्या होगा? यह चिन्ता दूर हो ऐसी अपेक्षा के मुताबिक अगर आप कार्य नहीं करते हो, तो मुझे लगता है कि मेरा जीवन व्यर्थ में आप लोगाें के लिए लगाया हूँ। यह अपेक्षा (20 जुलार्इ 1952) बाबा साहब ने विधाार्थियाें से किया था। साथ ही आरक्षण का इतिहास 1902 र्इ. से छ. शाहूजी महाराज अपने राज्य में 50 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों (एससीएसटीओबीसी) को घोषित करने के साथ शुरूआत होती है। इसी आरक्षण को बाबा साहब अम्बेडकर संविधान सभा में संघर्ष कर इसे संविधान के मौलिक अधिकार में डालते हंै। जिसे समाप्त करने का पावर सुप्रीम कोर्ट को भी नहीं है। लेकिन आज केन्द्र एवं राज्यों की ब्राह्राणवादी सरकारों द्वारा खत्म करने की धोखेबाजी चल रही है। जिसकी जानकारी समाज को देने के लिए एवं इसका एहसास विधार्थियाें को हो इसलिए उपरोक्त विषय चर्चा के लिए रखा गया है।
बाबा साहब भीमराव डा.अम्बेडकर ने विधार्थियाें से अपेक्षा करते हुए कहा था कि सामाजिक उŸारदायित्व निभाने वाले विधार्थी समाज में से तैयार करने के उददेश्य से मैंने 'सिद्धार्थ कालेज का निर्माण किया। लेकिन अनुभव बहुत कड़वा हुआ है। शिक्षा होने के बाद अच्छी नौकरी मिल गयी बस हो गया अपना काम यह संकुचित मानसिकता की वजह से वे भूल जाते हैें कि मैं कौन हूँ? मुझे शिक्षा किसने दी, उन्हाेंने कितना कष्ट सहन किया, इसकी जानकारी न रखकर ये लोग अपने समाज को भूल जाते हैं। ऐसे लोगाें को क्या कहना चाहिए? जो समाज के विधार्थी पढ़-लिखकर समाज की तरफ देखते ही नहीं यह समाज के साथ विश्वासघात नहीं तो और क्या है? मैंने अपना सारा जीवन आप लोगाें के लिए लगाया। मेरे मरने के बाद इस समाज में का क्या होगा? यह चिन्ता दूर हो ऐसी अपेक्षा के मुताबिक अगर आप कार्य नहीं करते हो, तो मुझे लगता है कि मेरा जीवन व्यर्थ में आप लोगाें के लिए लगाया हूँ। यह अपेक्षा (20 जुलार्इ 1952) बाबा साहब ने विधाार्थियाें से किया था। साथ ही आरक्षण का इतिहास 1902 र्इ. से छ. शाहूजी महाराज अपने राज्य में 50 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों (एससीएसटीओबीसी) को घोषित करने के साथ शुरूआत होती है। इसी आरक्षण को बाबा साहब अम्बेडकर संविधान सभा में संघर्ष कर इसे संविधान के मौलिक अधिकार में डालते हंै। जिसे समाप्त करने का पावर सुप्रीम कोर्ट को भी नहीं है। लेकिन आज केन्द्र एवं राज्यों की ब्राह्राणवादी सरकारों द्वारा खत्म करने की धोखेबाजी चल रही है। जिसकी जानकारी समाज को देने के लिए एवं इसका एहसास विधार्थियाें को हो इसलिए उपरोक्त विषय चर्चा के लिए रखा गया है।
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