अगर वे देश के कृषि प्रधान होने के मर्म को वाकई समझते होते तो देश के किसानों का दर्द या उनकी बदहाली को भी शिद्दत से महसूस करते। हमारे ये योजनाकार आए दिन ऊँची विकास दर का हवाला देकर देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश करते रहते हैं और देश के लोगों को सब्ज बाग दिखाते हैं। लेकिन ऐसा करते समय वे देश के किसानों की हालत को नजरअंदाज कर जाते है। जब देश की दो तिहाई आबादी की आजीविका खेती से जुड़ी हुई हो तो ऐसे में कृषि को अलग करके किया जाने वाला आर्थिक विकास का कोई भी दावा कैसे विश्वसनीय माना जा सकता है?
मध्यप्रदेश
में तो अभी हाल ही में कड़ाके की शीतलहर और पाला पड़ने के कारण तकरीबन पाँच
हजार करोड़ रुपए की फसलें बरबाद हो गई हैं और इसी के चलते किसानों के
आत्महत्या करने का सिलसिला भी एक बार फिर शुरू हो गया है
बेशक,
हमारा देश आज भी कृषि प्रधान है, बावजूद इसके कि शहरीकरण और औद्योगीकरण के
चलते खेती का रकबा लगातार घटता जा रहा है। लेकिन यह हकीकत भी किसी से छिपी
नहीं है कि हमारी कृषि गहरे संकट में फँसी हुई है। सरकार के आँकड़ों से भी
इसकी पुष्टि होती है। हाल ही में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा
जारी किए गए आँकड़ों के मुताबिक 1997 से लेकर पिछले साल के अंत तक यानी
तेरह वर्षों में दो लाख सोलह हजार पाँच सौ किसानों ने आत्महत्या की। जबकि
यह अवधि देश में ऊँची विकास दर की रही है।मध्यप्रदेश में तो अभी हाल ही में कड़ाके की शीतलहर और पाला पड़ने के कारण तकरीबन पाँच हजार करोड़ रुपए की फसलें बरबाद हो गई हैं और इसी के चलते किसानों के आत्महत्या करने का सिलसिला भी एक बार फिर शुरू हो गया है। पिछले दस दिन में ही महाजन के कर्ज की सलीब पर चढ़े करीब दस किसानों ने अलग-अलग तरीकों से मौत को गले लगा लिया है।
किसानों की आत्महत्या की त्रासदी यों तो पूरे देश में घटित हुई है, पर कुछ राज्यों में तो यह ज्यादा विकराल रूप में नजर आती है। पाँच राज्यों- महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या की दर सबसे अधिक रही है। अकेले 2009 में ही सत्रह हजार तीन सौ अड़सठ किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ दर्ज हुईं। इनमें से बासठ फीसदी मामले इन्हीं पाँच राज्यों के हैं। इनमें भी महाराष्ट्र की हालत तो सबसे ज्यादा खराब है।
किसानों की आत्महत्या के मामले में यह राज्य लगातार दसवें साल भी बाकी राज्यों से अव्वल रहा है। किसानों की आत्महत्या की घटनाओं को लेकर जब विदर्भ सुर्खियों में था तो प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने वहाँ का दौरा किया था। उनके दौरे के बाद केंद्र सरकार ने राहत-पैकेज की घोषणा की थी। लेकिन उसके बाद सरकार ने यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि विदर्भ के किसानों की हालत में कोई सुधार भी आया है या वे पहले की तरह ही संकटग्रस्त हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र अब भी किसानों की आत्महत्या के मामले में देश में सबसे अव्वल है। उसके बाद दूसरा नंबर कर्नाटक का है। महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है और कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की। कहने की जरूरत नहीं की खेतीबाड़ी और किसानों की उपेक्षा के मामले में देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों के बीच कोई फर्क नहीं है या इस मामले में दोनों के बीच मतैक्य है।
सवाल उठता है कि खेतीबाड़ी पर निर्भर लोग क्यों मौत को गले लगा रहे हैं और यह सिलसिला आखिर क्यों नहीं थम पा रहा है? दरअसल खेती कभी मुनाफे का धंधा हुआ करती थी, लेकिन अब वह घाटे का कारोबार हो गई है। देश में खेतीबाड़ी की बदहाली हाल के वर्षों की कोई ताजा परिघटना नहीं है, बल्कि इसकी शुरूआत आजादी के पूर्व ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही हो गई थी। कोई समाज कितना ही पिछड़ा क्यों न हो, उसमें बुनियादी बुध्दिमानी तो होती ही है।
अंग्रेजों से पहले के राजे-रजवाड़े खेतीबाड़ी के महत्व को समझते थे। इसलिए वे किसानों के लिए नहरें-तालाब इत्यादि बनवाने और उनकी साफ-सफाई करवाने में पर्याप्त दिलचस्पी लेते थे। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि किसान की जेब गरम रहेगी तो ही हम मौज कर सकेंगे। उस दौर में देश के हर इलाके में खेतों की सिंचाई के लिए नहरों का जाल बिछा हुआ था।
भारत ही नहीं, कृषि पर आधारित दुनिया की किसी भी सभ्यता में नहरों का केंद्रीय महत्व हुआ करता था। यह भी कह सकते हैं कि यही नहरें उनकी जीवन रेखा होती थीं। भारत में इस जीवन रेखा को खत्म करने का पाप अंग्रेज हुक्मरानों ने किया। जहाँ-जहाँ उन्होंने जमींदारी व्यवस्था लागू की वहाँ-वहाँ नहरें या तो सूख गईं या फिर उन्हें पाट दिया गया।
भ्रष्ट और बेरहम जमींदार पूरी तरह अंग्रेज परस्त थे और राजाओं के कारिंदे होते हुए भी अंग्रेजों को ही अपना भगवान मानते थे। किसानों के दुख-दर्द और समस्याओं से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। उन्हें तो बस किसानों से समय पर लगान चाहिए होता था। समय पर लगान न चुकाने वाले किसानों पर जमींदार और उनके कारिंदे तरह-तरह के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक जुल्म ढहाते थे। रही सही कसर सूदखोर महाजन पूरी कर देते थे, जो किसानों को कर्ज और ब्याज की सलीब पर लटकाए रहते थे। तो इस तरह ब्रिटिश हुक्मरानों के संरक्षण में, जालिम जमींदारों और लालची महाजनों के दमनचक्र के चलते भारतीय खेती का सत्यानाश हुआ।
खेती की बरबादी के इसी दौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय हो चुका था और उसके झंडे तले हमारा राष्ट्रीय आंदोलन भी परवान चढ़ने लगा था। किसी भी आह को कोई न कोई आवाज मिलती ही है, सो राष्ट्रीय आंदोलन के चलते किसानों के राजनीतिक शुभचिंतक भी उभरने लगे थे। चूँकि वे लोग भारत की मिट्टी से जुड़ाव रखते थे, इसलिए भारत को और भारत की समस्याओं से बखूबी वाकिफ थे। उनका इतिहासबोध भी सचेत था। वे जानते थे कि बरतानवी राज के पहले भारत समृध्द था और उसके शहर उस वक्त के पेरिस, लंदन आदि के मुकाबले समृध्द थे, तो इसीलिए कि भारत की खेती हरी-भरी थी और देश के अलग-अलग इलाकों में परंपरागत उद्योग-धंधों का जाल बिछा हुआ था। अंग्रेजों आए तो उन्होंने यहाँ की खेती को ही नहीं, उद्योग-धंधों को भी चौपट करने का सिलसिला शुरू कर दिया। महात्मा गाँधी अंग्रेजों से पहले के भारत का पुनर्वास करने का सपना देखते थे।
आजादी मिली तो लोगों को उम्मीद बँधी कि गाँधी का सपना परवान चढ़ेगा। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। गाँधी और उन्हीं की तरह सोचने वालों को प्रतिक्रियावादी और दकियानूस कहा-समझा जाने लगा। लेकिन जो खुद को आधुनिक और गाँधी को पीछे-देखू मानते थे, उन्होंने क्या किया? वे चाहते तो भारतीय खेती को पटरी पर लाने के ठोस जतन कर सकते थे, लेकिन गुलामी के कीटाणु खून से नहीं जाते तो नहीं जाते। उनकी भी विकासदृष्टि अपने पूर्ववर्ती गोरे शासकों से ज्यादा अलहदा नहीं रह पाई।
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