सियासी बहस का शिकार काले धन का मामला
भारत में काले धन को वापस लाने का मुद्दा एक बार फिर गर्म है. इस बार तो इस बहस की जद में जर्मनी भी आ गया है. सियासतदानों के लिए ब्लैकमनी का मुद्दा एक दूसरे को ब्लैकमेल करने का भी बेहतर औजार बन गया है.
विदेशी बैंकों में जमा लगभग 70 लाख करोड़ रुपये का कालाधन वापस लाकर अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के बदले फिलहाल इस मामले पर सियासी जुमलेबाजी ही होती दिख रही है. दरअसल हाल ही में इस मामले पर मोदी सरकार के दोहरे मापदंड सामने की वजह से कालेधन का जिन्न इस बार बोतल से बाहर आया है. विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापस लाने की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल ने खाताधारकों के नाम उजागर करने से मना कर सियासी अखाड़ों में हलचल मचा दी. भाजपा और मोदी सरकार की मंशा पर हमले तेज हो गए. आरोप लग रहे हैं कि कालाधन वापस लाने के मोदी के चुनावी दावे खोखले थे.
इसका बचाव करने के लिए मैंदान में उतरे वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जर्मनी के साथ 1995 में किए गए दोहरे कराधान समझौते का हवाला देकर सरकार की इस मजबूरी के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया है. जेटली ने दलील दी है कि कांग्रेस के शासनकाल में किए गए इस समझौते के तहत संधिबद्ध देश दोहरे कराधान से बचने के लिए बैंकों में जमा राशि को निवेश का हिस्सा मानते हैं. इसलिए इसकी गोपनीयता शर्तों को मानना दोनों देशों की बाध्यता है. हालांकि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कानूनों का हवाला देकर यूरोपीय देशों से इस तरह की संधियों की समीक्षा कर इनमें संशोधन करने का भरोसा दिलाया है.
इस बीच स्विस सरकार ने अंतरराष्ट्रीय कानून की मजबूरियों को समझते हुए द्विपक्षीय कर संधियों में संशोधन के लिए एकतरफा विचार विमर्श की प्रक्रिया शुरु कर दी है. स्विस सरकार का यह कदम निसंदेह भारतीय सुप्रीम कोर्ट में चल रहे कालेधन के मामले की जांच में सहायक साबित होगा. साथ ही अगर स्विटजरलैंड इस संधि में संशोधन को मंजूरी देता है तब फिर जर्मनी सहित अन्य देशों के साथ हुई डीटीएए संधि में भी संशोधन का रास्ता साफ हो जाएगा.
इसके दो तात्कालिक फायदे हो सकते हैं. पहला विदेशों में कालाधन जमा करने वालों के नाम उजागर होने से भारत सहित तमाम अन्य देशों की अर्थव्यवस्था को टैक्स चोरी के नुकसान की भरपाई हो सकेगी. दूसरा यूरोपीय देशों पर कालाधन इकट्ठा करने के लिए जन्नत बनने का धब्बा भी धुल सकेगा. हकीकत यह है कि इस समस्या से सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विकसित देशों सहित खुद यूरोप भी परेशान है. ऐसे में भारत के लिए यह बेहतर अवसर है कि वक्त की नजाकत को समझते हुए इन वैश्विक परिस्थितियों का लाभ उठाकर दशकों पुरानी इस समस्या से अपनी अर्थव्यवस्था को मुक्त कर ले.
हालांकि भारत में सरकारों का हर कदम सियासी चश्मे से देखकर उठाने की फितरत थोड़ा शक पैदा करती है. इसका ज्वलंत उदाहरण कालेधन का मुद्दा उठाने वाले बाबा रामदेव हैं. जो दो साल पहले संप्रग सरकार के लिए कालेधन के मुद्दे पर सड़क से संसद तक मुसीबतें पेश कर रहे थे. मगर अब उनकी पसंदीदा सरकार द्वारा इस मामले में यूटर्न लेने पर उनका मौन सियासी सच की बानगी पेश करता है.
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