मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

भ्रष्टाचार और घोटालों का देश भारत

भ्रष्टाचार और घोटालों का देश भारत


corruption in indiaभ्रष्टाचार और घोटालों से लबरेज अगर हम भारत को भ्रष्टाचार और घोटालों का देश कहें तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। देश ने घोटालों की रफ़्तार में इतनी बढ़त जो हासिल कर लि है। ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल नामक संस्था द्वारा जारी वर्ष 2010 के भ्रष्टाचार सूचकांग में हम 87 स्थान पर पहुँच चुके हैं।
भारत घोटालों में सबसे अधिक तेजी से प्रगति करने वाला देश है - इसे भी सभी भ्रष्ट नेताओं को सार्वजानिक कर ही देना चाहिए ताकि नागरिक अपनी एक और उपलब्धि पर गर्वान्वित हो सके।
हालांकि भारत ने घोटालों में रिकॉर्ड कायम करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है, न जाने कितने ही घोटाले देश में हुए। उनमे से कुछ सामने आये तो बात दूर तक गई, वरना न जाने ऐसे कितने ही
घोटाले हुए होंगे और कितने ही होने वाले हैं, आजादी से अब तक देश में काफी बड़े घोटालों का इतिहास रहा है। आइए नजर डालते है हमारे देश के ऐसे ही कुछ बड़े घोटालों पर जिनके कारण भारत भ्रष्टाचार और घोटालों के लिए विश्व विख्यात हो चुका है।

भारत के प्रमुख आर्थिक घोटाले: 
बोफोर्स घोटाला- 64 करोड़ रुपये
यूरिया घोटाला- 133 करोड़ रुपये
चारा घोटाला- 950 करोड़ रुपये
शेयर बाजार घोटाला- 4000 करोड़ रुपये
सत्यम घोटाला- 7000 करोड़ रुपये
स्टैंप पेपर घोटाला- 43 हजार करोड़ रुपये
कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला- 70 हजार करोड़ रुपये
2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला- 1 लाख 67 हजार करोड़ रुपये
अनाज घोटाला- 2 लाख करोड़ रुपए ;अनुमानितद्ध
कोयला खदान आवंटन घोटाला- 192 लाख करोड़ रुपये
राजनीति में घोटाला या घोटाले की राजनीति:
राजनीति में घोटाला या घोटाले की राजनीति कुछ भी कह लीजिए। भारतीय राजनीति में घोटाला शब्द तो एक अहम हिस्सा बन गया है, नेताओं का शायद ही कोई ऐसा काम हो जो बिना घोटाले और तीन तीगडम के बिना पूरा हो जाए। वैसे देखा जाए तो यह बात कोई नई नहीं है जब राजनेताओं द्वारा किये गये घोटाले जनता के सामने आ रहे हों, सभी को यह पता है कि हमारे कौन से नेता कितने बिकाऊ हैं और कितने इमानदार। दलाली की इस राजनीति में हर नेता बिकाऊ है बस उसकी कीमत अच्छी मिलनी चाहिए।
2005 में भारत में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा ही किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि 62% से अधिक भारतवासियों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम करवाने के लिये रिश्वत या ऊँचे दर्ज़े के प्रभाव का प्रयोग करना पड़ा। वर्ष 2008 में पेश की गयी इसी संस्था की रिपोर्ट ने बताया है कि भारत में लगभग 20 करोड़ की रिश्वत अलग-अलग लोकसेवकों को (जिसमें न्यायिक सेवा के लोग भी शामिल हैं) दी जाती है। उन्हीं का यह निष्कर्ष है कि भारत में पुलिस और कर एकत्र करने वाले विभागों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है। आज यह कड़वा सच है कि किसी भी शहर के नगर निगम में रिश्वत दिये बगैर कोई मकान बनाने की अनुमति नहीं मिलती। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति भी यह मानकर चलता है कि किसी भी सरकारी महकमे में पैसा दिये बगैर गाड़ी नहीं चलती।
किसी को निर्णय लेने का अधिकार मिलता है तो वह एक या दूसरे पक्ष में निर्णय ले सकता है। यह उसका विवेकाधिकार है और एक सफल लोकतन्त्र का लक्षण भी है। परन्तु जब यह विवेकाधिकार वस्तुपरक न होकर दूसरे कारणों के आधार पर इस्तेमाल किया जाता है तब यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आ जाता है, अथवा इसे करने वाला व्यक्ति भ्रष्ट कहलाता है। किसी निर्णय को जब कोई शासकीय अधिकारी धन पर अथवा अन्य किसी लालच के कारण करता है तो वह भ्रष्टाचार कहलाता है।
भ्रष्टाचारियों ने लूटी देश की इज्जतः
यहां अगर हम यह कहते हैं कि सभी नेता चोर (भ्रष्ट) हैं तो सबको यह बात हजम नहीं होती है। लेकिन अधिकतर नेता भ्रष्टाचार में लिप्त है, क्योंकि लगभग जितने भी स्टींग आपरेशन और एकत्र आंकड़ों तो यही साबित करते हैं कि अधिकतर नेता बलात्कारी हैं- भ्रष्टाचारी हैं। बलात्कार यानी देश की प्रतिष्ठा और मान सम्मान के साथ बलात्कार करने वाले अपराधी। अभी तक देश में हुए जिनते भी घोटाले सामने आए हैं उसमें भी अधिकतर नेता ही शामिल हैं। आम जनता कहां हैं? वह तो सिर्फ बलात्कार की शिकार होती आ रही है। उसकी तो रोज इज्जत दुनिया के सामने निलाम रही है। यदि देश का हर नागरिक भारत है तो यकीनन उसकी इज्जत हर रोज लूट रही है, और हर नागरिक बलात्कार का शिकार है।
सही अर्थों में देखें तो घोटाले दर घोटाले कर हमारे देश में नये कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इस नए कीर्तिमान की बदौलत ही हम दुनिया के सबसे भ्रष्टत्तम देशों में शुमार हो चुके हैं। दुनिया के सामने हमारी जो किरकिरी हुई है, वह अलग से। सवाल यह है कि भारत में घोटोलों का यह सिलसिला थमता क्यों नहीं? लेकिन, जो भी है हमारे सामने ही है। हमारे देश में सबसे अधिक भ्रष्टाचार में संलिप्त होने वाले लोग ये ही हैं, जो भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अपने पदों पर नियुक्त हैं।
वह चाहे नौकरशाह हो, नेता हो या फिर खुद सरकार। सिर्फ न्यायपालिका की बदौलत हम भ्रष्टाचार पर कितना काबू पा सकेते हैं? भ्रष्टाचारिष्यों के दिन प्रतिदिन बढ़ते मनोबल और आए दिन नये घोटालों ने सोचने पर मजबूर कर दिया है। लोकतंत्र में सभी की स्वतंत्रता इसकी विशेषता है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की छूट सबसे बड़ी और शर्मनाक पहचान बनती जा रही है। घोटालों में आयी इस रफ्तार के पीछे कई कारण दिखते हैं। सबसे पहला कारण नजर आता है वह है नैतिक पतन। हम दुनिया के विकसित देशों से हर चीज उधार ले रहे हैं, और इस उधार लेने की अंधी प्रवृति में हम वह चीजे भी ले रहे हैं जो हमारे पास उनसे कहीं अधिक समृद्ध है।
भारत शुरू से ही धर्म-नियमों पर चलने वाला देश है। देश के नागरिक जन्म से ही इस बात में विश्वास करने वाले रहे हैं कि चोरी पाप है, किसी का हक छीनना बुरी बात है। ईश्वर है और वह हमारी तरफ हर पल देख रहा है। हमारी कोई भी बुराई उससे छुपी नहीं है और हमारी सजा भी वह तय करता है। हमारी इस सोच से हमारा नैतिक बल तो बढ़ता ही, हमारा चरित्र - बल भी सभी देशों से अधिक रहा। जब तक यह मान्यता, यह सोच, यह परंपरा चलती रही तब तक हम दुनिया में सबसे अधिक सभ्य, संस्कृत, चरित्रवान नागरिक थे। लेकिन जैसे ही हम पर पश्चिमी आधुनीकरण का भूत सवार हुआ हमारी यह समृद्धशाली सोच, परंपरा कहीं पीछे छूटती चली गई।
आज यह हमसे इतनी दूर जा चुकी है कि हम पलटकर चाहने पर भी उसके नजदीक नहीं जा सकते। हम आधुनीकरण के दौर में इतने आगे निकल चुके हैं, निकलते जा रहे हैं कि हम पश्चिमी देशों से भी अधिक असभ्य होते जा रहे हैं। जितनी तेजी से हमारा भौतिक विकास हो रहा हैं, उससे भी कहीं अधिक तेजी से हम नैतिक भ्रष्टाचार की ओर अग्रसर हो रहे हैं। हमारे नेता, हमारे नौकरशाह भी इससे अछूत नहीं। अब भ्रष्टाचार अधिकार का रूप ले चुका है। यह कितनी हद तक बढ़ चुका है इसका अंदाजा देश के एक मजदूर से लेकर एक बड़े रसूख वाले व्यक्ति तक को है।
हर नागरिक या तो भ्रष्टाचार का शिकार है या फिर खुद भ्रष्टाचार में सहभागी बन चुका है। एक किसान को कर्ज लेने में भी घूस देना पड़ता है- इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है? एक तो कर्ज, उसमें भी घूस? एक आम किसान ही, क्यों, देश का सबसे धनी व्यक्ति भी भ्रष्टाचार का कितना बड़ा शिकार है, इस बात से तो हम सभी अच्छे से वाकिफ हैं।
अब भ्रष्टाचार करते समय हममे यह भावना कभी नहीं आती, कि ऐसा करना गलत है, पाप है। अब तो इसे छुपाकर भी नहीं करना पड़ता। भ्रष्टाचार कुछ लोगों का व्यवसाय बना चुका है तो कुछ लोगों के ख्याति का जरिया। यानी, भ्रष्टाचार अब वह सबकुछ दे रहा है जो बड़ी मेहनत के बाद भी प्राप्त करना मुश्किल होता है। अब जनता भी जानती है कि चुनाव लड़ने वालों का मकसद क्या है। 'ये पब्लिक है सब जानती है’ लेकिन शायद, कुछ भी नहीं जानती। पब्लिक के जानने से भी आगे बहुत कुछ है जो ये भ्रष्ट नेता करते हैं, सरकारे करती हैं। यदि ऐसा नहीं है तो भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती?
यदि एक लड़की का बलात्कार होने पर पूरे देश के नागरिकों का खून खौल उठता है, तो फिर पूरे देश की प्रतिष्टा के साथ बलात्कार करने वालों की सजा क्या है? और इन्हें सजा क्यों नहीं मिलती? आप कहेंगे मिलती है। लेकिन, क्या यह वैसी होती है जितना के सवा अरब लोगों के साथ बलात्कार करने की सजा होनी चाहिए? पूरी दुनिया में हमारी प्रतिष्ठा खत्म हुई, हम शर्म से डूब मरे, क्योंकि यह भी तो बलात्कार जैसा ही है।
देश आए दिन होने वाले घोटालों की संख्या यूँ बढ़ रही है कि अब तो घाटाले याद भी नहीं रहते हैं। लेकिन क्या इस मामले में किसी को फांसी हुई? यदि फांसी मानवाधिकार के खिलाफ है, तो क्या किसी भ्रष्टाचारी की देश की नागरिकता समाप्त की गई? क्या ऐसे लोगों को देश का नागरिक बने रहने का अधिकार है, जो देश की ही इज्जद को निलाम कर ऐशो-आराम की जिन्दगी जी रहे हैं? भारत की जनता तो शुरू से ही सहनशील रही है, लेकिन क्या इतना सबकुछ होने के बावजूद अब भी उसे सहना ही चाहिए? हमें लगता है कि सारी सीमाएं अब पार हो चुकी हैं। जनता को अपनी ताकत का अहसास करा ही देना चाहिए।
हम यह भी नहीं कहते कि जनता अहिंसक बन जाए, वह अहिंसायुक्त ही रहे, लेकिन अब कम से कम अपनी सहनशीलता तो तोड़ ही दे। आखिरकार कब तक हम अपनी इज्जत खुद ही लुटाता हुआ देखते रहेंगे। अपनों या अपनी लूटती इज्जत को बचाने के लिए हमें खड़ा होना ही पड़ेगा। जब तक जनता जागृत नहीं हो जाती, भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढ़ता ही जाएगा और हमारी-जनता की इज्जत लूटती रहेगी।
भ्रष्टाचार भारत के महाशक्ति बनने में रोड़ा:
यह सच है कि भारत महाशक्ति बनने के करीब है परन्तु हम भ्रष्टाचार की वजह से इस से दूर होते जा रहे है। भारत के नेताओ को जब अपने फालतू के कामो से फुरसत मिले तब ही तो वो इस सम्बन्ध मे सोच सकते है उन लोगो को तो फ्री का पैसा मिलता रहे देश जाये भाड मे।भारत को महाशक्ति बनने मे जो रोडा है वो है नेता। युवाओ को इस के लिये इनके खिलाफ लडना पडेगाए आज देश को महाशक्ति बनाने के लिये एक महाक्रान्ति की जरुरत है, क्योकि बदलाव के लिये क्रान्ति की ही आवश्यकता होती है लेकिन इस बात का ध्यान रखना पडेगा की भारत के रशिया जैसे महाशक्तिशाली देश की तरह टुकडे न हो जायेए क्योंकि अपने को बचाने के लिये ये नेता कभी भी रुप बदल सकते है।
भ्रष्टाचार पिछड़ेपन का द्योतक है। भ्रष्टाचार का बोलबाला यह दर्शाता है कि जिसे जो करना है वह कुछ ले.देकर अपना काम चला लेता है, और लोगों को कानों-कान खबर तक नहीं होती। और अगर होती भी हो तो यहाँ हर व्यक्ति खरीदने और बिकने के लिए तैयार है। गवाहों का उलट जानाए जाँचों का अनन्तकाल तक चलते रहनाए सत्य को सामने न आने देना . ये सब एक पिछड़े समाज के अति दुरूखदायी पहलू हैं। अत: भ्रष्टाचार और असमानता की समस्याओं को रोकने में हम असफल हैं। यही हमारी महाशक्ति बनने में रोड़ा है।

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

बहुजन मुकित पार्टी की विशाल संकल्प यात्रा

बहुजन मुकित पार्टी की विशाल संकल्प यात्रा शुरू!
सभी पार्टियों के होश उड़े!
लखनऊदै.मू.समाचार
उŸार प्रदेश में बहुजन मुकित पार्टी की संकल्प यात्रा की शुरूआत हो गयी है। यह यात्रा पूरे प्रदेश के तीन स्थानों से शुरू होकर पूरे प्रदेश का भ्रमण और जगह-जगह जनसभाओं को संबोधित करते हुए भ्रमण करेगी। यह संकल्प यात्रा उŸार प्रदेश के हर मुख्यालय से होकर गुजरेगी जिसमें सभी जिम्मेदार साथी भागेदारी निभायेंगे। इस संकल्प यात्रा का मकसद पार्टी की जो नीतियां है उनको लोगों के बीच पहुँचाने का है। और जनमत तैयार करके मूलनिवासी बहुजन समाज के महापुरूष राष्ट्रपिता जोतिराव फुले, भारत रत्न डा.बाबा साहब अम्बेडकर जी के सपनों का भारत निर्माण करने के लिए उनकी विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाने के लिए और मूलनिवायाें में योग्यता पैदा करना ही बहुजन मुकित पार्टी के संकल्प यात्रा का उíेश्य है।
बहुजन मुकित पार्टी की उíेश्य राजनैतिक नहीं है। बलिक शासन सŸाा पर एकाधिकार स्थापित  ब्राह्राणाें से मुकित का उíेश्य है। इस देश में अनके राजनैतिक पार्टियांं है मगर वह राजनैतिक पार्टी यह सब मिलकर इस देश के मूलनिवासी बहुजन समाज को गुमराह करने का काम करती है। इस राजनैतिक पार्टियाें के बहकावें में आकर हमारा मूलनिवासी समाज आज अनके समस्याआें से जूझ रहा है। इस समस्याआें के निदान और निर्वाण के लिए ही बहुजन मुकित पार्टी का निर्माण कि गया है।
बहुजन मुकित पार्टी ने प्रदेश के सभी मतदाताओं के हित में काम करने हेतु यह संकल्प यात्रा की शुरूआत किया है। जिससे प्रदेश के सभी मतदाताओं को यह जानकारी दी जा सके कि उनके साथ हो रही अन्याय, अत्याचार से निजाद दिलाने और मतदाताओं के अन्दर नेतृत्व का निर्माण   है।
बहुजन मुकित पार्टी की संकल्प यात्रा उŸार प्रदेश के तीन स्थानों  इलाहाबाद, वनारस , और गोरखपुर से शुरू हो रही है। जिसमें बहुजन मुकित पार्टी के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष एड.जे.एस.कश्यप गोरखपुर से इस संकल्प यात्रा की अध्यक्षता करते हुए पूरे प्रदेश में भ्रमण बनारस से इस संकल्प यात्रा की अध्यक्षता डा.एस.अकमल (राष्ट्रीय महासचिव, बहुजन मुकित पार्टी) करेंगे। और इलाहाबाद से बहुजन मुकित पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बाबूराम यादव जी करेगे।
यह संकल्प यात्रा पूरे प्रदेश का भ्रमण करते हुए 9 रामलीला मैदान नर्इ दिल्ली की महारैलीमें शामिल होगी। बहुजन मुकित पार्टी का इस देश में समता, स्वतंत्रता, बन्धुता और न्याय पर आधारित राष्ट्र का निर्माण करने का मकसद है इस मकसद को पूरा करने के लिए बहुजन मुकित पार्टी ने अपने घोषण पत्र में जारी करते हुए 54 सूत्रीय घोषणा पत्र कहा कि अगर हमारी सरकार आयेगी तो विश्वस्तरीय शिक्षा (गुणवŸाा युक्त) के लिए 85 मूलनिवासी के लोगों को प्रतिवर्ष कम से कम एक लाख तथा ज्यादा से 5 लाख लोगाें को विदेश में शिक्षा के लिए भेजेगी।    बहुजन मुकित पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में यह भी कहा कि भारत में 83 करोड़ लोगों की आय प्रतिदिन कम से कम 6 रूपये तथा अधिकतम 20 रूपये है। ऐसे 20 करोड़ लोगों को भुखमरी रेखा पर जीवन जीने वाला परिवार माना जायेगा और उनको सम्मान पूर्वक जीने के लिए ''सम्मानित जीवन निर्वाह निधि योजना के अन्तर्गत 11000 रूपये (ग्यारह हजार रूपये) प्रतिमाह दिया जायेगा।
बहुजन मुकित पार्टी ने इस देश की अर्थव्यवस्था को बचारक रखने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले किसानाें के हित को ध्यान में रखकर अपने घोषणा पत्र में कहा है कि अगर बहुजन मुकित पार्टी की सरकार आती है तो भारत में कृषि विकास के लिए कृषि मंत्रालय को अलग से कृषि बजट पेश करने की व्यवस्था करेगी। और किसानों को उनके कृषि उत्पादन लागत मूल्य से 25 प्रतिशत ज्यादा मूल्य दिया जायेगा। और केन्द्र सरकार इसकी गारेण्टी लेगी। भारत के अलग-अलग  कृषि उत्पाद होेते है उन सभी मूल्यावान कृषि उत्पादों का औधोगिक कार्यो के लिए उपयोग किया जायेगा। कृषि उत्पाद आधारित उधोगों का मालिकाना हक किसानों का होगा। बहुजन मुकित पार्टी ने इस देश के सभी मूलनिवासी बहुजनाें को ध्यान में रखकर कार्य करने का वादा किया है।
बहुजन मुकित पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मा.वी.एल.मातंग ने बताया कि जब बहुजन मुकित पार्टी की सरकार केन्द्र में आती है तो बहुजन मुकित पार्टी इस देश के मूलनिवासी समाज के हितों के लिए भारत का संविधान पूर्ण रूप से लागू किया जायेगा। और इस देश की सŸाा पर एक ही  वर्ग का अधिकार खत्म करके। मूलनिवासी बहुजन समाज के सभी वर्गो के वास्तविक प्रतिनिधित्व देकर भारत की सŸाा को चालने का काम करेगी।







गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

.देवदासी प्रथा


.देवदासी प्रथा एक घिनौना रूप जिसे धर्म के नाम पर सहमति प्राप्त ( सच का आईना )

धर्म के नाम पर महिलाओं के साथ यौनाचार होगा तो भारत जैसे मुल्क का भविष्य क्या होगा
देवदासी प्रथा भारत के दक्षिणी पश्चिम हिस्से में सदियों से चले आ रहे धार्मिक उन्माद की उपज है ! धर्म के नाम औरतों के साथ हो रहे यौनाचार का इतिहास बहुत पुराना है ! भारत के कुछ क्षेत्रों में धर्म और आस्था के नाम पर महिलाओं को वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला जाता है ! महिलायें सामाजिक और पारिवारिक दवाब के चलते हुये इस धार्मिक कुरीत का हिस्सा बनने को मजबूर हो जाती हैं ! कुछ दिनों पहले वेलोर पर खबर कुछ ऐसी थी कि १२-१३ साल की बच्चियों  को देवदासी बनाया गया जिसके तहत इन किशोरियों का विवाह किसी मंदिर या देव से कर दिया जाता है ! घोषित रूप से ब्रह्मचार्य का पालन करना होता है !  पर विशेष अधिकार के तौर पर हिन्दू संस्कारो से इतर वैवाहिक संस्था को तार- तार कर के पुरुष सन्सर्ग भी कर सकती है !. इस प्रथा के तहत उन किशोरियों को अगले कुछ सालों तक देवियों और देवताओं की सेवा मे अपना जीवन व्यतीत करना होगा ! बालिकायें ये समझ रहीं थी कि समाज मे उनका दर्जा जरुर कुछ श्रेष्ठ हो गया है ! पर वो मासूम क्या जाने कि देवदासी प्रथा के तहत उनकी आज़ादी छिन गई है इस बात से अनजान ये बच्चियां सिर्फ इस बात से खुश हो रहीं थी कि अब उन्हें मंदिर की स्वामिनीऔर देख-रेख का अधिकार प्राप्त हो गया है ! इस स्थिती में रहने के दौरान वस्त्र और अच्छा खाना खाने को मिलेगा साथ ही उस गरीबी से भी छुटकारा जिनके साथ वह पैदा हुई थी ! कमर के उपरी हिस्से तक निर्वस्त्र इन बच्चियो के सर पर मटकियां रख कर जुलुस भी निकाला गया ! सरकार आँखें बंद करके सारे नज़ारे को नजरअंदाज करती रही ! क्या यही है हमारे देश का भविष्य ? भीड़ के आगे प्रतिनिधितित्व करती ये अल्लहड् किशोरियां जब परिपक्व होगी ! फिर बढती हुई उम्र और मातृत्व की लालसा जब चरम पर होगी ,तो ये यादें क्या उन्हें एक सम्मानित जीवन की नींव रखने देंगी इन कड़वी यादों के साथ कैसे जी पाएंगी ये दूसरी ओर एक खुशहाल जिंदगी न मिल पाना और समाज द्वारा नकार दिया जाना इनके क़दमों को क्या वेश्यावृति की ओर नहीं ले जाएगा ? क्या इसका जवाब है इन धर्म के ठेकेदारों के पास ? न चाहते हुए भी उन्हें वेश्यावृति के गहरे दलदल मे ढकेल दिया जाएगा !
जाहिरा तौर पर देखा जाए तो सभी धर्मों में मिलती जुलती धारणाएं जुड़ी हैं !
अगर हम अपने पीछे के इतिहास के आइने को देखें तो यह समझना बहुत ही आसान है कि छठी और दसवीं शत्ताब्दी मे इसका क्या स्वरुप था और बाद मे यह कितना विकृत हो गया था  प्रान्तीय राजाओं और सामंतो के लिए यह भोग विलासऔर समाज में अपनी प्रतिष्ठा की पहचान बन चुका था !
अब ईसाई धर्म के तहत ही देख लीजिए चर्च और कॉन्वेंटस में नन रहने लगीं जो चिरकुमारियों के नाम से जानी जाने लगीं ! कैथोलिक चर्च में भी सैक्स से सम्बंधित खेल के खुले-खुलासे होते आ रहे है ! दूर क्यों जाते है कुछ दिनों पहले ही एक नन ने पादरियों के व्यभिचार का सनसनीखेज खुलासा किया था ! नन ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि पादरी ननों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाते हैं ! इससे जब वह गर्भवती हो जाती है ! तो बच्चों को गर्भ में ही मार देते है !
नन सिस्टर मैरी चांडी ने अपनी आत्मकथा `ननमा निरंजवले सवस्तिमें लिखा है कि मैंने वायनाड गिरजाघर में हाशिल अनुभवों को सहेजने की कोशिश की है ! चर्च के भीतर की जिन्दगी आध्यात्मिकता की वजाय वासना से भरी थी ! एक पादरी ने मेरे साथ बलात्कार करने की कोशिश की थी ! मैंने उस पर स्टूल चलाकर इज्जत बचाई थी !उनके मुताबिक़ चर्च में नर्सें सैक्सी किताबें पढ़तीं  थी !
नन सिस्टर जेस्मी ने `आमेन : द ऑटोबायोग्राफीनामक किताब लिखकर धार्मिक पाखंडों का खुलासा किया था ! 
अब देखिये महात्मा बुद्द मठों में औरतों का प्रवेश वर्जित था ! उनका मत था कि औरतों की मौजूदगी व्यक्ति के मन को काम वासना के लिए आकर्षित करती है ! पर उनके महाप्रयास के बावजूद भी औरतों के लिए मठ के द्वार खुल गये ! बौद्ध धर्म की कारगुजारियां पूरी तरह तंत्र पर ठहर गई और तंत्र प्रणाली में औरतों की देह को मोक्ष का नाम देकर औरतों को छला जाने लगा !
हिंदू धर्म के तहत मंदिरों में देवदासी प्रथा का प्रचलन शुरू हो गया ! और यहीं बेबीलोन के मंदिरों में देवदासियां रहा करती थी ! जैन धर्म के संतों के साथ साध्वियां भी होती थी !  
देवदासी प्रथा के चलते ऊँची जाति की महिलायें मंदिरों में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा में लीन रहती थी ! और देवता खुश हो जाये इसलिए मंदिरों में नृत्य करतीं थी ! देवदासी प्रथा से जुड़ी महिलाओं के साथ मंदिर से जुड़े पुजारियों ने ये कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि शारीरिक सम्बन्ध बनाने से उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है ! धीरे-धीरे पुजारी इसे अपना अधिकार समझने लगे और सामाजिक रूप से किसी ने भी हस्तक्षेप नहीं किया ! सही मायने में कहा जाए तो वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं कर सकती ! सभी पुरुषों में देवी-देवता का अक्श मान उसकी इच्छा पूर्ति करती हैं !
इस कुप्रथा को सबसे ज्यादा बढावा देने वाले (चोल वंश के राजा ) थे ! सदियां गुजर गई फिर भी ये प्रथा ज्यों की त्यों चली आ रही हैकुछ भी ना बदला अगर बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण जो दिखावे की भेंट चढ़ कर  इस कुप्रथा की जड़ों को इतनी मजबूत और गहरी कर रहे है कि वो इन बच्चियों के सुनहरे वर्तमान और भविष्य पर भारी पड़ रहे हैं ! प्रशासन को कोई खबर नहीं है ! यह शुद्ध रूप से धर्मक्षेत्र की वेश्यावृत्ति है,जिसे धार्मिक स्वीकृति हासिल है इतिहास गवाह है कि राजा-महाराजाओं ने अपने महलों में देवदासियों को रखने का चलन शुरू किया था ! मुग़ल-काल में जब देवदासियों की संख्या जरुरत से ज्यादा बढ़ गई तो देवदासियों के पालन पोषण में कठिनाई आने के कारण उन्हें सार्वजानिक सम्पत्ति बना दिया गया!
विचार करने की बात ये है कि आंध्र-प्रदेश के 14 और कर्नाटक के 10
जिलों में ये प्रथा बदस्तूर अभी भी जारी है ! खबर है कि उड़ीसा के पुरी मंदिर में एक देवदासी है ! लेकिन आंध्र-प्रदेश ने 16,624 देवदासियां का आंकड़ा पेश किया ! जब महिला आयोग ने देवदासियों के लिए भत्ते का एलान किया ! तब आयोग को 8793 आवेदन मिले !
जिसमें से 2479 को भत्ता दिया गया ! बाकी 6314 कि पात्रता सही नहीं थी !
यहाँ पर में ये बताना चाहूंगी कि हिंदू धर्म में देवदासियां ऐसी स्त्रियों को कहते हैं जिनका विवाह मंदिर या अन्य किसी भी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है ! इनका काम नृत्य संगीत सीखना और मंदिरों की देखभाल करना होता है ! समाज में इन्हें एक उच्च दर्जा प्राप्त होता है ! 
परम्परागत रूप से ब्रह्मचारी होना और साथ – साथ पुरुषों से सम्भोग का अधिकार भी होना ये एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है ! दक्षिण भारत में इसका प्रचलन मुख्य रूप से था !
अब देखिये यहाँ सवाल ये उठता है कि अगर कोई मौत हो जाती है तो गाजे -बाजे के साथ मौत का जनाजा निकलता है ! और लोगो को खबर हो जाती  हैपर यहां तो गाजे-बाजे के साथ इन बच्चियों के भविष्य का तमाशा निकाला जाता है ! सदियो से चली आ रही परम्परा का अब समाप्त होना बहुत ही आवश्यक है ! इस प्रथा के समाप्त होने से कहीं ज्यादा उन बच्चियों के भविष्य की नींव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है ! क्योंकि उनके ऊपर हमारे भारत का भविष्य हैउनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है ! देखा जाये तो बीसवीं सदी में देवदासियों कि स्थिती में कुछ सुधार आया ! पेरियार जैसे कई नेताओं ने इस प्रथा को समाप्त करने की भरसक कोशिश की ! देवदासी प्रथा हमारी संस्कृति पर एक काला दाग है ! ये प्रथा हमारे इतिहास का वो काला पन्ना है जिसे अब समाप्त होना चाहिए ! आज के युग में इसका कोई औचित्य नहीं है ! देवदासी की परम्परा हमारे समाज का एक घृणित चेहरा है ! इसपर तत्काल प्रभाव से रोक लगानी चाहिए ! सरकार को चाहिए कि इस विषय को गंभीरता से लें और हमारे देश की कानून व्यवस्था के तहत कोई ठोस कदम उठाए जिससे न केवल इस कुप्रथा का उन्मूलन हो बल्कि देवदासियों और उनके बच्चों को भी पुनर्वासित किया जा सके ताकि वे इस कुप्रथा की गिरफ्त से बाहर आयें !
                  ...सुनीता दोहरे .....

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

देवदासी प्रथा

देवदासी प्रथा

http://www.mynews.in/merikhabar/News/_N34497.html

भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा करने के नाम पर पुजारियों और मठाधिशों की सेवा के लिए शुरू की गई ‘देवदासी प्रथा’ घोषित रूप से भले ही समाप्त हो गई हो, लेकिन देवदासियां आज भी हैं। इस बात को बल हाल ही में रितेश शर्मा की एक डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘द होली वाइव्स’ से मिला है। दिल्ली में प्रदर्शित की गई इस फिल्म में देवदासी प्रथा जैसी उस कुरीति पर सवाल उठाए गए, जिस पर मेनस्ट्रीम मीडिया में आजकल मुश्किल से ही कोई बहस होती है। यह फिल्म बताती है किस तरह इस दौर में जहां महिला अधिकारों को लेकर हल्ला मचाया गया, घरेलू हिंसा विरोधी कानून बने और महिला अधिकारों पर कई बहसें हुईं, बावजूद इसके कर्नाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई इलाके ऐसे हैं, जहां इन कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। वह भी धर्म के नाम पर और पूरी तरह सार्वजनिक तौर पर।

अपनी फिल्म के निर्माण के दौरान रितेश उन इलाकों में गए, जहां महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला जाता है और कई बार बलात्कार तक का शिकार होना पड़ता है। लेकिन, जीविकोपार्जन और सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हैं। अपने प्रारंभिक दौर में देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं जो पढ़ी-लिखी और विदुषी हुआ करती थीं, मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं और देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। समय ने करवट ली और इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकार्यता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगल काल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं।

आज भी कहीं वैसवी, कहीं जोगिनी, कहीं माथमा तो कहीं वेदिनी नाम से देवदासी प्रथा देश के कई हिस्सों में कायम है। कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं। इन संगठनों का मानना है कि अगर यह प्रथा आज भी बदस्तूर जारी है, तो इसकी मुख्य वजह इस कार्य में लगी महिलाओं की सामाजिक स्वीकार्यता है। इससे बड़ी समस्या इनके बच्चों का भविष्य है। ये ऐसे बच्चे हैं, जिनकी मां तो ये देवदासियां हैं, लेकिन जिनके पिता का कोई पता नहीं है। ये तमाम समस्याएं उठाने वाली रितेश की इस फिल्म को मानवाधिकारों के हनन का ताजा और वीभत्स चित्रण मानते हुए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शित किया जा रहा है। रितेश हालांकि मानते हैं कि फिल्म के प्रदर्शन से ज्यादा जरूरी है कि इस विषय पर हमारे देश की कानून व्यवस्था कोई ठोस कदम उठाए, जिससे न केवल इस कुप्रथा का उन्मूलन हो, बल्कि ऐसी महिलाओं और उनके बच्चों को भी पुनर्वासित किया जा सके, जो इस कुप्रथा की गिरफ्त में हैं।

देवदासी हिन्दू धर्म में ऐसी स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। समाज में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त होता है और उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है। यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। पेरियार तथा अन्य नेताओं ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। कुछ लोगों ने अंग्रेजों के इस विचार का विरोध किया कि देवदासियों की स्थिति वेश्याओं की तरह होती है।

कुछ दिनों पहले मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर वेल्‍लोर की खबर चलते देखी। खबर कुछ ऐसी थी कि 12-13 साल की बच्चियों को देवदासी चुना गया और उन्हें अगले कुछ सालों तक देव और देवियों यानी भगवान की सेवा में अपना जीवन व्यतित करना है। समाज में इन बालिकाओं का दर्जा जरुर कुछ श्रेष्ठ हो जायेगा, पर देवदासी प्रथा के तहत उनकी आज़ादी छिन चुकी है, इस बात से अनजान ये बच्चियां सिर्फ इस बात से खुश थीं कि अब उन्हें मंदिर की स्वामिनी का दर्जा और देखरेख का अधिकार प्राप्त हो गया है। वहां रहने के दौरान वस्त्र और अच्छा खाना खाने को मिलेगा, साथ ही उस गरीबी से भी छुटकारा भी मिलेगा, जिसके साथ वह पैदा हुई हैं। कमर के उपरी हिस्से तक निर्वस्त्र इन बच्चियों के सर पर मटकियां रख कर जुलुस भी निकाला गया। भीड़ का नेतृत्‍व करती इन किशोरियों का बालमन जब परिपक्व होगा, बढ़ती उम्र और मातृत्व की लालसा चरम पर होगी और ये यादें साथ होंगी, तो क्या वो एक सम्मानित जीवन की नीव रख पाएंगी? कैसे जी पाएंगी वो इन कड़वी यादों के साथ? दूसरी ओर एक खुशहाल जिंदगी न मिल पाने पर, समाज द्वारा नकार दिए जाने पर क्या वेश्यावृति की ओर इनके कदम नहीं मुडेंगे? न चाहते हुए भी उन्हें वेश्यावृति के गहरे दलदल मे ढकेल दिया जाएगा।

हम थोड़ा पीछे इतिहास के आइने में देखें, तो यह समझना आसान हो जाएगा कि छठी और 10वीं शत्ताब्दी में इसका क्या स्वरुप था और बाद में यह कितना विकृत हो गया था। राजाओं और सामंतों के लिए यह भोग विलास और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान बन चुका था। इस प्रथा को सबसे ज्यादा बढावा दिया चोलों (चोल वंश के राजा) ने। सदियां गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यों की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण। इस कुप्रथा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वो इन बच्चियों के सुनहरे वर्तमान और भविष्य पर भारी हैं। जो मैंने देखा और जो अनुभव किया, उसमें दो चीजे थीं। पहली यह कि बच्चियों को निर्वस्त्र कर के घुमाया जा रहा था। दूसरा, लोगो का हुजूम, जो इन नाबालिग बच्चियों का उत्साहवर्द्धन कर रहा था और प्रशासन को कोई खबर नहीं थी।

गौरतलब है कि कर्नाटक में प्रशासन ने 1982 में और आन्ध्र प्रदेश में 1988 में इस प्रथा पर रोक लगा दी थी। पर 2006 में हुए सर्वे में यह बात निकल कर सामने आई कि इस परम्परा का निर्विरोध पालन होता चला आ रहा है। उन समुदायों की भावना प्रगतिशील देश की कल्पना पर भारी पड़ रही है। और, उन्हें कोई मतलब नहीं है कि इस बुराई को अपने साथ ढोते रहना कितना गलत है। समय-समय पर फिल्मकारों ने इस विषय की गंभीरता को उठाने की कोशिश की है, लेकिन हमारे यहां की जनता, जो मलिका और प्रियंका चोपड़ा को अधनंगी देखने की आदि हो चुकी है, ने नकार दिया। फिल्म ‘प्रणाली’ इसका बेहतरीन उदहारण है कि कैसे देवदासी बनी नायिका अपने ख़ोल से बाहर आ कर मातृत्व सुख और अपने बच्चे को सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए समाज के ठेकेदारों से लड़ती है।

सदियों से चली आ रही परम्परा का अब ख़तम होना बहुत ही जरुरी है। देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है, जिसका आज के समय में कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के खात्मे से कहीं ज्यादा उन बच्चियों के भविष्य की नींव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है, जिनके ऊपर हमारे आने वाले भारत का भविष्य है। उनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है।

इसके इतर एक अच्छी खबर यह है कि पुरी के प्रसिद्ध श्री जगन्नाथ मंदिर में 800 साल पुरानी देवदासी परंपरा खत्म होने के कगार पर है और यहां विशेष अनुष्ठानों के लिए केवल दो ही देवदासियां हैं। इस बात का पहले से ही आभास होने पर मंदिर प्रशासन ने परंपरा को जीवंत रखने के लिए 90 के दशक की शुरुआत में नई देवदासियों को जोडऩे का प्रयास किया था, लेकिन इस पद्धति के खिलाफ देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन के चलते और महिलाओं के इसमें रुचि नहीं दिखाने से ये कोशिशें नाकाम रहीं। 12वीं सदी के इस मंदिर में 36 अलग-अलग सेवाएं देवदासियों द्वारा की जाती हैं। स्थानीय तौर पर इन्हें ‘महरी’ कहा जाता है।

एक शोधकर्ता रवि नारायण मिश्रा ने कहा कि देश में यह एक मात्र विष्णु मंदिर है, जहां महिलाओं को नृत्य और गायन के अलावा विशेष अनुष्ठान करने की भी इजाजत होती है। महरी सेवा एकमात्र सेवा है, जिसमें महिलाओं की एक बड़ी भूमिका होती है। पुजारी रवींद्र प्रतिहारी कहते हैं कि एक महिला के बिना इस अनुष्ठान को नहीं किया जा सकता। जगन्नाथ मंदिर प्रशासन के उप प्रशासक भास्कर मिश्रा ने कहा कि इस बार नंदोत्सव के दौरान महिलाओं की सेवा नहीं ली जा सकी। उन्होंने कहा कि भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव में देवदासियां उनकी मां की भूमिका में होती हैं। भास्कर मिश्रा ने कहा कि 80 साल पहले इस मंदिर में दर्जनों देवदासियां थीं, लेकिन अब केवल दो शशिमणि और पारसमणि रह गई हैं। उन्होंने कहा कि 85 वर्षीय शशिमणि के बाएं पैर में फ्रैक्चर होने के कारण वह बिस्तर पर हैं, वहीं पारसमणि ने भी लंबे समय से मंदिर आना बंद कर दिया है। मंदिर के पास अपने कमरे में बिस्तर पर ही रहने को मजबूर शशिमणि कहती हैं कि वह अब सेवा नहीं कर सकतीं, जो वह आठ साल की उम्र से करती आ रहीं हैं। उन्होंने कहा, ‘मैं आठ साल की उम्र में महरी बन गई थी। मैं उस समय से मंदिर के अनुष्ठानों में भाग ले रही हूं।’ शशिमणि ने कहा कि लोग देवदासियों का सम्मान करते हैं। उन्होंने कहा कि देवदासियों को भगवान जगन्नाथ की ‘जीवित पत्नी’ माना जाता है। उन्होंने कहा, वह (भगवान जगन्‍नाथ) मेरे पति हैं और मैं उनकी पत्नी। इस बारे में कोई विवाद नहीं है।’

उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र की देवदासियों ने इस साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मुंबई में अपना अर्धनग्न प्रदर्शन किया। वे सरकार के सामने पहले ही अपनी मांगें कई बार रख चुकी हैं तथा विरोध प्रदर्शन कर चुकी हैं। उन्हें उम्मीद है कि अब इस अनोखे अर्धनग्न प्रदर्शन से सरकार दबाव में आ जायेगी और उनकी सुनवाई हो सकेगी। यह एक अलग ही प्रश्न है, जो हमारे समाज की संरचना पर विचार करने के लिए मजबूर करता है कि इस जमाने में भी देवदासी प्रथा जीवित क्यों है? यह प्रथा, जिसमें माना जाता है कि इन महिलाओं का विवाह भगवान से हुआ है और वे उन्हीं की सेवा के लिए मंदिर के प्रांगण में रहती है, की हकीकत का सभी को पता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ये महिलायें निराश्रित और बदहाल होती हैं। इन्‍हें भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा की आड़ में पुजारियों और मठाधीशों की सेवा करनी पड़ती है।

यह शुद्ध रूप से धर्मक्षेत्र की वेश्यावृत्ति है, जिसे धार्मिक स्वीकृति हासिल है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इन देवदासियों, जिन्हें जोगिनियां भी कहा जाता है, के बच्चों की स्थिति का संज्ञान लिया और आंध्र प्रदेश सरकार से पूछा कि उसने इन बच्चों के कल्याण के लिए क्या किया है? 2007 में सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र मिला था, जिसमें इन बच्चों की दुर्दशा को बयान किया गया था, जिसे कोर्ट ने जनहित याचिका मान लिया था। मानवाधिकार आयोग के 2004 की एक रिपोर्ट में इन देवदासियों के बारे में बताया गया है कि देवदासी प्रथा पर रोक के बाद वे देवदासियां नजदीक के इलाके में या शहरों में चली गई, जहां वे वेश्यावृत्ति के धंधें में लग गई। 1990 के एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 45।9 प्रतिशत देवदासियां एक ही जिलें में वेश्यावृत्ति करती हैं तथा शेष अन्य रोजगार जैसे खेती-बाड़ी या उद्योगों में लग गईं। 1982 में कर्नाटक सरकार ने और 1988 में आंध्र प्रदेश सरकार ने देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 15 जिलों में अब भी यह प्रथा कायम है।

इस प्रथा को कई सारे दूसरे स्थानीय नामों से भी जाना जाता है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी अपनी तरफ़ से पहल कर इन महिलाओं के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए राज्य सरकारों से सूचना मांगी। इसमें तमिलनाडु आदि कई राज्‍यों ने कहा कि उनके यहां यह प्रथा समाप्त हो चुकी है। उड़ीसा में बताया गया कि केवल पुरी मंदिर में एक देवदासी है, लेकिन आंध्र प्रदेश ने 16,624 देवदासियों का आंकड़ा पेश किया। महाराष्ट्र सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी। जब महिला आयोग ने उनके लिए भत्ते का एलान किया, तब आयोग को 8793 आवेदन मिले, जिसमें से 2479 को भत्ता दिया गया। बाकी 6314 में पात्रता सही नहीं पायी गई।

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