गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

चलो लखनऊ!चलो लखनऊ!चलो लखनऊ! चलो लखनऊ!चलो लखनऊ!चलो लखनऊ!

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पपड़ाती ज़मीन, सूखते होंठ, जर्जर जिस्म

पपड़ाती ज़मीन, सूखते होंठ, जर्जर जिस्म

  • 3 अक्तूबर 2015
सूखा क्या है, ये आयकुर के मौलाना क़ासिम से पूछिए, जिनकी पांच एकड़ खेत की लाल रेतीली मिट्टी ने कपास के बीजों को भीतर ही मुरझाकर मार दिया है.
सूखा क्या है हंचिनाल की हनुमंती से पूछिए, जिनकी शताब्दी देख चुकी जर्जर काया उस भूख को महसूस करने को ज़िंदा है जिसके बारे में जवान होते हुए उन्होंने सोचा तक न था.
सूखा वो भी है जब कीकर की झाड़ियों की चुभती हरियाली के बीच फैली पथरीली ज़मीन पर क़दम बढ़ाते बासु के पैर अपने कपास के अधखिले पौधों में उलझकर रह जाते हैं.
और सूखा उसे भी कहते हैं जब आसमान की ओर मुंह बाए किसान के बीज पूरित खेत की धरती मॉनसून की फुहारों का इंतज़ार करते-करते फट जाती है, लेकिन फिर भी उसमें सरकार की शर्म समाती नहीं.
भारत के दक्षिणी राज्य कर्नाटक के यादगीर ज़िले से शुरू हुई संवेदना यात्रा के पहले दिन ये अहसास मेरे मन में हैं.

पढ़ें विस्तार से

हंचिनाल

पहले दिन मैंने यादगीर ज़िले के हंचिनाल और रायचूर ज़िले के मोरानपुर और कड़गमदुड्डी गांवों को देख लिया है. इस यात्रा के अगले पड़ावों में क्या सामने आएगा मैं नहीं जानता.
सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने संवेदना यात्रा की शुरुआत मॉनसून की बेरुखी से पीड़ित सात राज्यों के गांवों का हाल जानने के लिए की है, और बीबीसी इसी के समानांतर तलाश रहा है अकाल के निशान. ये अकाल यात्रा है.
सूखे और भूख से मरने वालों को अख़बारों के पहले पन्ने पर जगह मिलेगी, यह परंपरा है, लेकिन मुख्य धारा का मीडिया फिर भी देश के इस काले धब्बे वाले इलाक़े से नज़र नहीं मिलाता.
इसीलिए शायद महानगरों के एयरकंडिशन कमरों में बैठे लोगों को शायद पता न चले कि भूख और सूखा असल में है क्या?
मगर दक्षिणी राज्य कर्नाटक पहुँचने के बाद इतना तो साफ़ महसूस होता है कि सरकारी फ़ाइलों में दर्ज भूख और पपड़ाती ज़मीन के बीच में हक़ीक़त ने कितना फ़र्क रखा है.
अकाल यात्रा की शुरुआत में ही मुझे ये लगा है कि सूखे से केवल ज़मीन नहीं तड़की है. सूखा पहले अनिश्चितता लाया है, और इस अनिश्चितता ने किसान की ज़िंदगी और सोच को बदल डाला है.

हंचिनाल

हंचिनाल

Image caption कर्नाटक के सूखाग्रस्त घोषित यादगीर ज़िले के हंचीनाल गांव में ज़मींदार का घर.
पहली गाज गिरी है मवेशियों पर. जब चारा नहीं तो जानवर को रखकर किसान क्या करे.
सूखाग्रस्त यादगीर ज़िले के जिस गांव हंचिनाल से हमारी यात्रा शुरू हुई, वहां मुझे खेती के लिए इस्तेमाल होने वाले जानवर बहुत कम मिले, लेकिन बकरियां बहुतायत में मिलीं.
पता चला कि लगातार तीसरे साल अनपेक्षित बारिश के चलते खेत बर्बाद हो चुके हैं और बहुत से किसान अब चरवाहे बन चुके हैं.
कई घरों पर ताले लटके हैं. क़रीब 3000 की आबादी वाले इस गांव में क़रीब डेढ़ हज़ार लोग मतदाता हैं लेकिन गांव के आधे मर्द काम की तलाश में कर्नाटक के शहरों का रुख कर चुके हैं.
जिन घरों में ताले नहीं तो वहां घर ही नहीं है. घरों के नाम पर जो है उसमें किसी की छत नहीं तो कहीं दीवारें नहीं. किसी का समूचा घर मलबे का ढेर है. क़ुदरत ने अपना चक्र पूरा कर लिया है यहां.

अकाल यात्रा

सूखा

हंचिनाल और रायचूर में कपास, सेंगा (मूंगफली), तूर और बाजरा की खेती होती है. तीन साल से ठीक से पानी नहीं बरसा. किसान ने कर्ज़ लिया, पर बीज नहीं फला. तो कर्ज़ में दब गया.
मजबूरी में मज़दूरी की पर पेट न भरा तो गांव छोड़ा और जिसने नहीं छोड़ा, उसने जीवन छोड़ दिया. ये कहानी कोई नई नहीं पर इतनी पुरानी भी नहीं कि इसे अनदेखा किया जा सके.
संवेदना यात्रा के साथ-साथ बीबीसी की अकाल यात्रा 15 अक्तूबर तक भारत के दक्षिण से उत्तर तक जाएगी.
इसमें कुल सात राज्यों के 25 ज़िलों में सबसे ज़्यादा सूखा प्रभावित गांवों का हाल आपके सामने आएगा.
इसी के साथ शायद उत्तर कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दक्षिण हरियाणा के किसानों का 'सूखा सच' भी आप तक पहुँचे.

कार लोन 10%, फ़सल पर क़र्ज़ 16%

कार लोन 10%, फ़सल पर क़र्ज़ 16%

  • 17 अक्तूबर 2015
    किसान महाराष्ट्र
अगर आप नई कार या घर ख़रीदने के लिए क़र्ज़ चाहते हैं तो आपका काम घर बैठे हो सकता है.
अगर आप किसान हैं और फ़सल के लिए सरकारी बैंक से कर्ज़ चाहते हैं तो आपको वो पापड़ बेलने पड़ेंगे कि आप शायद दोबारा इस बारे में सोचेंगे भी नहीं.
सूखा सिरीज़ की अन्य कहानियां यहां पढ़ें.
सरकारी वादे एक तरफ़ लेकिन असलियत ये है कि कार के लिए कर्ज़ पर आप उस किसान से कम ब्याज़ देते हैं जो अपनी फ़सल पर क़र्ज़ लेता है.

शहरी बनाम काश्तकार

इसका पता मुझे महाराष्ट्र में जालना के किसान जनार्दन पिंपले से मुलाक़ात के बाद चला. जनार्दन किसान के साथ ही डॉक्टर भी हैं और उन्होंने पहले कार ख़रीदने के लिए लोन लिया, फिर अपनी फ़सल पर.
दोनों क़र्ज़ हासिल करने के दौरान उन्हें पता चला कि बैंकों के सामने किसान और शहरी भारतीय एक समान नहीं.
डॉक्टर जनार्दन ने नवंबर 2012 में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से कार के लिए ऋण लिया, जो उन्हें 10 फ़ीसदी की दर पर मिला. उसी बैंक से 2014 में उन्होंने कम अवधि वाला कृषि ऋण लिया जो उन्हें छह महीने के लिए 13.15% प्रतिवर्ष की दर पर मिला.
कार लोन का अप्रैल 2012 से नवंबर 2012 के बीच का बैंक स्टेटमेंट और एग्रीकल्चर लोन के लिए अप्रैल 2014 से जून 2014 के बीच का बैंक स्टेटमेंट देखकर कोई भी इसे आसानी से समझ सकता है.
एक और ख़ास बात, फ़सल पर क़र्ज़ लेने के बाद उन्हें इंस्पेक्शन चार्ज के नाम पर एक बार 1,073 रुपए और फिर दूसरी बार 1,326 रुपए देने पड़े.
इसके अलावा उनसे अकाउंट कीपिंग फ़ीस भी वसूली गई. और यहीं तक बात नहीं रुकती. इंस्पेक्शन चार्जेज़ और अकाउंट कीपिंग फ़ीस के पैसे पर भी उन्हें ब्याज चुकाना पड़ा.

सब्सिडी बेमानी

जनार्दन के मुताबिक़ नो ड्यूज़ और डॉक्यूमेंटेशन चार्जेज़ के नाम पर ये ख़र्च तक़रीबन 2000 रुपए और आया. चूंकि फ़सल के लोन पर बीमा ज़रूरी है तो इसके लिए उन्होंने 3000 रुपए और दिए.
जनार्दन कहते हैं कि हॉर्टीकल्चर लोन पर 3 लाख 30 हज़ार का क़र्ज़ लेने पर सरकार की ओर से एक लाख 32 हज़ार रुपए सब्सिडी मिलती है पर सवा 13 फ़ीसदी की ब्याज देने पर ये सब्सिडी असल में बेमानी साबित होती है.
उनके मुताबिक़, ''अगर आप शहरवासियों के 10 फ़ीसदी और किसान के सवा 13 फ़ीसदी के क़र्ज़ के बीच अंतर की पड़ताल करेंगे तो सात साल के लोन का ब्याज सब्सिडी के भी ऊपर जा रहा है तो सरकार किसान पर कोई अहसान नहीं कर रही है. सवा तीन फ़ीसदी उसे ज़्यादा ब्याज का भुगतान करना पड़ रहा है. तो ये कैसी नीति है. पहले ज़्यादा ब्याज मांगते हैं और फिर सब्सिडी देकर उन्हें उल्लू बनाते हैं. किसान क्यों नहीं खुदकुशी करेगा.’’
जनार्दन के मुताबिक़ होम या कार लोन लेते वक़्त इंस्पेक्शन चार्ज नहीं लगाते हैं. मगर किसान की फ़सल के लिए मुआयना करते हैं. किस चीज़ का मुआयना करते हैं. क्रॉप लोन छह महीने का रहता है तो 1300-1400 रुपए लगाते हैं. वह कहते हैं कि अगर ये अतिरिक्त चार्जेज़ और उन पर ब्याज जोड़ लें तो कम अवधि वाले क़र्ज़ के लिए उन्हें 16.5% तक ब्याज चुकाना पड़ा.

क़ानूनों का मकड़जाल

किसान को कम अवधि वाले फ़सल कर्ज़ पर आम शहरी के मुक़ाबले ज़्यादा कागज़ी कार्रवाई करनी पड़ती है, ज़्यादा ब्याज देना होता है, कई तरह के चार्ज देने पड़ते हैं, जो कई बार चक्रवृद्धि ब्याज की शक्ल ले लेते हैं.
संवेदना यात्रा के संयोजक योगेंद्र यादव कहते हैं, ''कागज़ पर भारत सरकार की नीतियां बहुत अच्छी हैं. नीतियां कहती हैं कि किसान को सस्ती दर पर क़र्ज़ दिया जाएगा. पहले तो किसान को आसानी से क़र्ज़ा मिलता नहीं. दूसरे किसान से वो-वो कागज़ मांगे जाते हैं जिनकी आवश्यकता ही नहीं. मजबूर किसान से अगर कोई बैंक मैनेजर तरह-तरह के कागज़ मांगता है तो क्या किसान सुप्रीम कोर्ट जाएगा इसकी शिकायत करने के लिए. जब किसान बैंक में जाता है तो न तो वो बैंक के क़ानून जानता है न उससे अच्छा व्यवहार होता है और न इज़्ज़त मिलती है.''
अकाल की दहलीज़ पर बैठे किसान के लिए कर्ज़, ब्याज और क़ानूनों का मकड़जाल उस लाठी की तरह है जो उसकी चमड़ी तक छील लेता है और उसे दोबारा उठने नहीं देता.
योगेंद्र यादव के नेतृत्व में हुई इस संवेदना यात्रा के दौरान मैं जिन राज्यों में पहुँचा वहां किसानों के लिए सरकारी साहूकार भी विलेन की तरह दिखे.

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