पिछले
पिछले पांच वर्षों के दौरान महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या के आंकड़े
स्वयं में खतरनाक संकेत हैं. सर्वविदित है कि महाराष्ट्र नव-उदारवादी
आर्थिक नीति की सफलता का उदाहरण रहा है. यहां दुनिया भर की कंपनियां हैं,
विदेशी पूंजी का निवेश है, आईटी सेक्टर है. व्यापार करने और उसे ऊंचाइयों
तक ले जाने की सारी मूलभूत सुविधाएं तथा इंफ्रास्ट्रचर मौजूद है. बंदरगाह
और एयरपोर्ट हैं. महाराष्ट्र तो देश के उन राज्यों में से है, जिनका दूसरे
ग़रीब राज्य उदाहरण देते हैं और अनुकरण करने की कोशिश करते हैं. नव-उदारवादी
विकास मॉडल में महाराष्ट्र जिस ऊंचाई को हासिल कर चुका है, वहां तक
पहुंचने में बिहार, पश्चिम बंगाल, असम एवं ओडिशा जैसे राज्यों को अभी 25-30
वर्ष लगेंगे. फिर भी महाराष्ट्र किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में
पहले स्थान पर है. हालात से तंग आकर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या
महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है. यह स़िर्फ एक वर्ष की बात नहीं है.
महाराष्ट्र की यह शर्मनाक तस्वीर लगातार विकास के नव-उदारवादी मॉडल को आईना
दिखा रही है.देश के किसान आज आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं. वर्ष 1995 से लेकर अब तक देश में तीन लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. एक दलील दी जाती है कि देश में विकास न होने की वजह से ऐसी स्थिति पैदा हुई है. अगर विकास होगा, तो कई सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी और किसानों द्वारा आत्महत्या भी बंद हो जाएगी. सुनने में तो ये सारी बातें अच्छी और तार्किक लगती हैं, लेकिन सच्चाई इसके ठीक विपरीत है. भारत में विकास की जो धारा बह रही है, उसकी शुरुआत वर्ष 1991 में हुई थी. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि 1990 के दशक से ही देश में कृषि क्षेत्र की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. उत्पादन में भारी गिरावट आई है और कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है. लोग खेती छोड़ने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि उसमें अब मुना़फे की गुंजाइश नहीं रही. हालत यह है कि उसके बेहतर होने की उम्मीद भी अब खत्म होती जा रही है. यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि देश में विकास की जो नीति है, वह नव-उदारवाद की पीठ पर सवार है. नव-उदारवादी आर्थिक नीति पूंजी आधारित व्यवस्था है, जिसमें कम पूंजी वालों, ग़रीबों एवं मज़दूरों के लिए कोई स्थान नहीं है. जबसे नव-उदारवादी नीतियों ने भारत में अपनी जड़ें जमाई हैं, तबसे ग़रीबों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याएं विकराल होती जा रही हैं. इन्हीं नीतियों की वजह से किसान आज आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं. उनके पास अपनी कोई पूंजी नहीं है और सरकार कृषि क्षेत्र में निवेश नहीं करती. देश के किसान सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा एवं चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. किसानों के उत्पादों को बाज़ार से जोड़ने की कोई व्यवस्था नहीं है. वे अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं. कर्ज में डूबे किसान अपनी इस लड़ाई में जब भी किसी प्राकृतिक या मानवीय घटना अथवा बाज़ार के शिकार होते हैं, तो आत्महत्या करने के अलावा उनके पास और कोई चारा शेष नहीं बचता.
सवाल यह है कि नव-उदारवादी व्यवस्था में अगर कोई राज्य विकसित हो जाता है, तो क्या वहां की सारी आर्थिक समस्याएं खत्म हो जाएंगी? क्या दुनिया भर से विदेशी निवेश आने से रा़ेजगार के अवसर उपलब्ध हो सकेंगे? क्या मूलभूत सुविधाओं से लैस राज्यों में ग़रीबों की विभिन्न समस्याएं खत्म हो जाएंगी? क्या सभी के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा एवं चिकित्सा जैसी सुविधाएं सुनिश्चित हो सकेंगी? क्या विकास का यह मॉडल सभी वर्गों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराएगा या फिर समाज में ग़रीबों और अमीरों के बीच का फासला बढ़ता चला जाएगा? क्या शहर और गांव के बीच मौजूद दूरियां कम होंगी या फिर बढ़ जाएंगी? इन सारे गंभीर सवालों पर देश में ज़ोरदार बहस होनी चाहिए. फिलहाल इस रिपोर्ट में हम बात करेंगे, देश के एक ऐसे विकसित राज्य की, जहां 24 घंटे बिजली है, चा़ैडी सड़कें एवं एक्सप्रेस-वे हैं, विदेशी निवेश है, आईटी सेक्टर का बोलबाला है, बंदरगाह एवं एयरपोर्ट हैं, दुनिया भर की कंपनियों का जमावड़ा है और नव-उदारवादी विकास मॉडल के मुताबिक वह एक आदर्श राज्य है, लेकिन वहां के किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं. जी हां, हम महाराष्ट्र की बात कर रहे हैं, जो देश के सबसे विकसित राज्यों में से एक है, लेकिन वहां के किसानों द्वारा आत्महत्या के नए आंकड़े न स़िर्फ सोचने के लिए मजबूर करते हैं, बल्कि संदेह भी पैदा करते हैं कि विकास के जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं, क्या वह सही है?
महाराष्ट्र में इस वर्ष सितंबर महीने तक 2,016 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. पिछले पांच वर्षों से महाराष्ट्र किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में सबसे आगे रहा है. हैरानी की बात यह है कि महाराष्ट्र देश के विकसित राज्यों में है, लेकिन वहां की राज्य सरकार किसानों को राहत पहुंचाने में विफल रही है. ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र विधानसभा और गत लोकसभा चुनाव के दौरान किसानों की समस्याओं पर ज़ोरदार बहस हुई थी, लेकिन भाजपा की सरकार बनने के बाद किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले घटने के बजाय बढ़ गए. सरकार किसानों की समस्याएं समझने और उनका सही निदान निकालने में इसलिए विफल रहती है, क्योंकि जब भी कोई आपदा आती है, तो सरकार कोई पैकेज घोषित कर या किसी पुरानी योजना को नया नाम देकर उसे लागू कर देती है. अ़खबारों में विज्ञापन देकर उसे प्रचारित-प्रसारित कर देती है और यह समझ बैठती है कि उसने समस्याओं का हल निकाल लिया. महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने किसानों द्वारा आत्महत्या को लेकर एक स्पेशल मिशन की घोषणा की थी, लेकिन उसके बावजूद महाराष्ट्र में रिकॉर्ड तोड़ आत्महत्याएं हुईं. इसका मतलब यही है कि महाराष्ट्र की वर्तमान भाजपा सरकार ने भी किसानों की आत्महत्या रोकने के नाम पर महज खानापूर्ति और बयानबाजी की. क्या सरकारों को वार्षिक रिपोर्ट आने का इंतज़ार रहता है या फिर यह देश के सरकारी तंत्र का अमानवीय चरित्र है कि उसका ध्यान लोगों की मौत के बाद ही समस्याओं पर जाता है.
चौथी दुनिया ने पहले भी महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के बारे में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी. महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या की मूल वजह सूखा, फसल की बर्बादी, उत्पाद की क़ीमत न मिलना या कम मिलना है. ये ऐसे कारण हैं, जिनके लिए सीधे तौर पर सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. किसानों को सिंचाई के लिए पानी मुहैय्या कराना, फसलों का बीमा कराना और उन्हें उनके उत्पाद की उचित क़ीमत दिलाना सरकार का काम है. अगर सरकार यह साधारण-सा काम भी नहीं कर सकती, तो फिर उसके होने का औचित्य क्या है? अगर सरकार किसानों को आत्महत्या करने से रोकना चाहती है, तो उसे इन तीन बिंदुओं पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा. महाराष्ट्र में पानी की कमी नहीं है, बल्कि समस्या उसके वितरण को लेकर है. महाराष्ट्र का पश्चिमी इलाका वाटर सरप्लस एरिया है, लेकिन मराठवाड़ा और विदर्भ का इलाका अक्सर सूखे से जूझता है. मतलब सा़फ है कि कमी सरकार में है, जो अब तक नहरों और बांधों का वह नेटवर्क तैयार नहीं कर सकी, जिसके ज़रिये वाटर सरप्लस एरिया का पानी सूखे इलाकों की तऱफ भेजा जा सके. देश में एक दूसरा उदाहरण भी है. वह यह कि हिमाचल और पंजाब का पानी राजस्थान के रेगिस्तान को आबाद कर सकता है, लेकिन महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य में पानी की उपलब्धता रहते हुए भी कई इलाके सूखे की मार झेलते हैं. महाराष्ट्र के कई इलाकों में सूखे का आलम यह है कि इंसान तो क्या, जानवरों को भी इसकी मार झेलनी पड़ती है. किसानों द्वारा आत्महत्या का दूसरा सबसे बड़ा कारण फसलों की बर्बादी या कम पैदावार होना है. इस समस्या से निपटने के लिए सरकार को आगे आना होगा. उसे फसलों की बीमा नीति कारगर तरीके से लागू करनी होगी. या फिर कोई ऐसी नीति बनाई जाए कि अगर किसी कारण से उत्पादन में गिरावट आती है, तो उसी अनुपात में किसानों को राहत राशि दी जाएगी. वैसे ऐसी अनेक योजनाएं देश में मौजूद हैं, लेकिन उन्हें लागू करने वाला पूरा तंत्र अमानवीय हो चुका है. किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले सरकारों और अधिकारियों के लिए महज आंकड़े बनकर रह गए हैं.
पिछले पांच वर्षों के दौरान महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या के आंकड़े स्वयं में खतरनाक संकेत हैं. सर्वविदित है कि महाराष्ट्र नव-उदारवादी आर्थिक नीति की सफलता का उदाहरण रहा है. यहां दुनिया भर की कंपनियां हैं, विदेशी पूंजी का निवेश है, आईटी सेक्टर है. व्यापार करने और उसे ऊंचाइयों तक ले जाने की सारी मूलभूत सुविधाएं तथा इंफ्रास्ट्रचर मौजूद है. बंदरगाह और एयरपोर्ट हैं. महाराष्ट्र तो देश के उन राज्यों में से है, जिनका दूसरे ग़रीब राज्य उदाहरण देते हैं और अनुकरण करने की कोशिश करते हैं. नव-उदारवादी विकास मॉडल में महाराष्ट्र जिस ऊंचाई को हासिल कर चुका है, वहां तक पहुंचने में बिहार, पश्चिम बंगाल, असम एवं ओडिशा जैसे राज्यों को अभी 25-30 वर्ष लगेंगे. फिर भी महाराष्ट्र किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में पहले स्थान पर है. हालात से तंग आकर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है. यह स़िर्फ एक वर्ष की बात नहीं है. महाराष्ट्र की यह शर्मनाक तस्वीर लगातार विकास के नव-उदारवादी मॉडल को आईना दिखा रही है. वर्ष 2009 में महाराष्ट्र में 1,600 किसानों ने आत्महत्या की, यह संख्या वर्ष 2010 में बढ़कर 1,740 हो गई. वर्ष 2011, 2012 और 2013 में किसानों पर भगवान इंद्र की कृपा रही. खूब बारिश हुई, नतीजतन आत्महत्या के मामलों में कमी आई. वर्ष 2011 में 1,495 और वर्ष 2012 में 1,467 किसानों ने आत्महत्या की. आत्महत्या के सबसे कम यानी 1,298 मामले वर्ष 2013 में दर्ज किए गए.
इन तमाम आंकड़ों को देखकर सरकार और अधिकारी खुश हो सकते हैं, अपनी पीठ थपथपा सकते हैं, क्योंकि उनके लिए इंसानों की मौत के मामले महज आंकड़े बनकर रह गए हैं. मानवीय दृष्टि से किसी भी कल्याणकारी राज्य के लिए यह एक शर्मनाक स्थिति है कि एक सूबे में एक वर्ष में 1,298 किसान आत्महत्या कर लें. मतलब यह कि वर्ष 2013 में हर सातवें घंटे में महाराष्ट्र के किसी न किसी किसान ने हालात से तंग आकर आत्महत्या कर ली. यह हाल है देश के एक विकसित राज्य का. ऐसे में ग़रीब और पिछड़े राज्यों की दशा क्या होगी, यह सोचकर ही सिहरन पैदा हो जाती है. लेकिन, देश चलाने वालों के कानों पर जूं फिर भी नहीं रेंग रही है. नतीजा सामने है, महाराष्ट्र में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या वर्ष 2014 में बढ़कर 1,949 हो गई. राज्य में नई सरकार आई, तो लगा कि कुछ मूलभूत परिवर्तन होंगे, किसानों की समस्याओं पर सरकार का ध्यान जाएगा. लेकिन हुआ वही, जिसका डर था. सरकार का ध्यान किसानों पर नहीं गया. नतीजतन, आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या वर्ष 2015 (सितंबर तक) में 2,016 का आंकड़ा पार कर गई. ये आंकड़े खुद महाराष्ट्र सरकार के हैं यानी जनवरी से सितंबर तक के आंकड़े. इनमें शेष तीन महीने के आंकड़े जुड़ने अभी बाकी हैं. शायद महाराष्ट्र किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में नए शर्मनाक कीर्तिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर है. यदि इस समस्या का निदान नहीं निकाला जा सकता, तो फिर राज्य में इतने विभागों और अधिकारियों की क्या ज़रूरत है? यदि किसानों को राहत पहुंचाने के लिए कोई ठोस योजना नहीं बन सकती, तो राजनीतिक दलों को चुनाव के दौरान किसानों से वादे करना छोड़ देना चाहिए. यदि किसानों को आत्महत्या करने से नहीं रोका जा सकता, तो फिर ऐसे विकास मॉडल का आ़िखर क्या औचित्य है?
सरकार और अधिकारियों द्वारा समस्या का हल निकालने के बजाय सरकारी तंत्र की विश्वसनीयता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. सरकारी तंत्र में किसानों की समस्याएं दूर करने की न तो कोई मंशा नज़र आती है और न ही कोई योजना. उसने आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ करके समस्या पर नियंत्रण का दांव खेलना शुरू कर दिया है. किसानों को राहत देने और आत्महत्याएं रोकने में विफल रहीं केंद्र एवं राज्य सरकारें आत्महत्या के आंकड़े में हेरफेर करके अपनी पीठ थपथपा रही हैं. देश में किसानों द्वारा आत्महत्या के आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) जारी करता है और ऐसा वर्ष 1995 से हो रहा है. एनसीआरबी की रिपोर्ट सरकारी रिपोर्ट और पुलिस रिकॉर्ड की मदद से तैयार होती है. राज्य सरकार और नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े खासे भिन्न हैं, लेकिन इससे ़फायदा यह हुआ कि मीडिया और लोगों की नज़र इस भीषण समस्या पर गई. लोगों को पता चला कि भारत में हर आधे घंटे में एक किसान हालात से हार कर आत्महत्या कर लेता है. ऐसी रिपोर्ट आने के बाद तो सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी. किसानों की मदद, विकास की नीतियों पर बहस और भविष्य की चिंता होनी चाहिए थी. लेकिन, सरकार ने कुछ ऐसा किया, जिसे सुनकर आप दंग रह जाएंगे.
वर्ष 2014 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में अप्रत्याशित रूप से 50 प्रतिशत की गिरावट दर्ज देखी गई. एनसीआरबी के मुताबिक, वर्ष 2013 में देश भर में 11,772 किसानों ने आत्महत्या की थी, यह संख्या वर्ष 2014 में घटकर 5,650 रह गई. आ़िखर यह करिश्मा कैसे हुआ? क्या सरकार ने किसानों के लिए खजाने खोल दिए या राहत का ऐसा पिटारा खोल दिया कि उनकी हालत सुधर गई. दरअसल, ऐसा कुछ नहीं हुआ. किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, लेकिन सरकार ने आत्महत्या की गणना के तरीके बदल दिए हैं. एनसीआरबी ने रिपोर्ट में टैबुलिंग के तरीके में ही बदलाव कर दिया. भूमिहीन किसानों एवं खेतिहर मज़दूरों, जो पहले किसानों की श्रेणी में आते थे, को अलग-अलग श्रेणियों में दर्शाया गया. मसलन, खेतिहर मज़दूरों को स्व-रोज़गार की श्रेणी में डाल दिया गया. इससे हुआ यह कि रिपोर्ट में आत्महत्या के मामलों में तो कमी नहीं आई, लेकिन किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले कम हो गए. मतलब सा़फ है कि सरकारी अधिकारियों ने अपनी कमियां छिपाने के लिए यह घिनौना खेल किया. उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2014 की रिपोर्ट में कर्नाटक में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में भारी गिरावट दिखाई गई. कर्नाटक में वर्ष 2013 में 1,403 किसानों ने आत्महत्या की थी, यह संख्या एनसीआरबी की रिपोर्ट में वर्ष 2014 में घटकर 321 हो गई. लेकिन, आत्महत्या के अन्य श्रेणी के मामलों में बड़े पैमाने पर वृद्धि हो गई. मतलब यह कि आत्महत्या के जो मामले अब तक किसानों की श्रेणी में दिखाए जाते रहे, उन्हें एनसीआरबी ने अन्य की श्रेणी में डाल दिया. आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ और जनता को धोखा देने के इस सरकारी खेल ने हास्यास्पद शक्ल अख्तियार कर ली.
वर्ष 2014 की रिपोर्ट में देश के 12 राज्यों एवं छह केंद्र शासित राज्यों में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले शून्य बताए गए. मतलब यह कि इन 12 राज्यों एवं छह केंद्र शासित राज्यों में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की. इनमें पश्चिम बंगाल, राजस्थान एवं बिहार भी शामिल हैं. यदि यही हक़ीक़त होती या सरकार इस दिशा में प्रयास करती, तो यह खुशी की बात होती, लेकिन आंकड़ों की बाजीगरी करके ऐसे दावे करना न स़िर्फ हास्यास्पद है, बल्कि घोर अमानवीय भी है. किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं के आंकड़े के साथ छेड़छाड़ छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ने शुरू की थी और वर्ष 2011 में वहां ऐसी आत्महत्याओं की संख्या अचानक शून्य दर्शा दी गई. जबकि 2006 से 2010 तक छत्तीसगढ़ में किसानों द्वारा आत्महत्या का सालाना औसत 1,555 था. छत्तीसगढ़ सरकार ने स़िर्फ 2011 के आंकड़ों में ही गड़बड़ नहीं की, बल्कि 2012 में भी वहां ऐसे मामलों की संख्या महज चार दर्शाई गई. 2013 में फिर शून्य का आंकड़ा दोहराया गया. छत्तीसगढ़ द्वारा निकाली गई इस राह का पश्चिम बंगाल ने फौरन अनुकरण किया. वर्ष 2014 आते-आते देश के 12 राज्यों एवं छह केंद्र शासित राज्यों ने आंकड़ों की यह बाजीगरी सीख ली. किसानों की आत्महत्या पर कलम चलाने वाले सबसे विश्वसनीय लेखक पी साईंनाथ ने जब इस पर सवाल खड़े किए, तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने जवाब दिया कि उसकी रिपोर्ट में किसी भी प्रकार से नए ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है, केवल आंकड़ों को थोड़ा विभाजित करके दिखाया गया है.
किसानों द्वारा आत्महत्या भारतीय समाज का एक बदनुमा दाग है, लेकिन राजनीतिक दलों ने इसे महज एक राजनीतिक मुद्दा बना दिया. उन्हें लगता है कि यह चुनाव के दौरान उठाया जाने वाला एक लाभप्रद मुद्दा है. इसलिए यह राजनीतिक विरोधियों पर हमला करने का हथियार भी बन गया. यही वजह है कि सरकारें किसानों की समस्याओं का हल निकालने के बजाय आंकड़े सुधारने में जुट गई हैं. यह राजनीतिक वर्ग की घृणित और कुंठित मानसिकता है, जो उन्हें किसानों की मौत पर राजनीति करने के लिए मजबूर करती है. विडंबना यह है कि जो राज्य विकसित नहीं है, जहां मूलभूत सुविधाएं मसलन बिजली, पानी, शिक्षा एवं चिकित्सा का अभाव है, जैसे कि बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम एवं ओडिशा, वहां किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले कम दिखते हैं, लेकिन महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. सवाल यह है कि अगर पिछड़े राज्य विकसित होने लगेंगे, तो क्या वहां भी महाराष्ट्र की पुनरावृत्ति होगी या फिर महाराष्ट्र एक अपवाद है. यह एक गंभीर मसला इसलिए है, क्योंकि भारत आज समय के उस मोड़ पर खड़ा है, जहां जरा-सी चूक उसे कई दशक पीछे धकेल देगी.
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