आखिर क्यों खाया था पांडवों ने अपने मृत पिता के शरीर का मांस ?
आज हम आपको महाभारत से जुडी एक घटना बताते है जिसमे पांचो पांडवों ने अपने
मृत पिता पाण्डु का मांस खाया था उन्होंने ऐसा क्यों किया यह जानने के लिए
पहले हमे पांडवो के जनम के बारे में जानना पड़ेगा। पाण्डु के पांच पुत्र
युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव थे। इनमे से युधिष्ठर, भीम और
अर्जुन की माता कुंती तथा नकुल और सहदेव की माता माद्री थी। पाण्डु इन
पाँचों पुत्रों के पिता तो थे पर इनका जनम पाण्डु के वीर्य तथा सम्भोग
से नहीं हुआ था क्योंकि पाण्डु को श्राप था की जैसे ही वो सम्भोग करेगा
उसकी मृत्यु हो जाएगी (सम्पूर्ण कहानी आप यहाँ पढ़ सकते है -
16 पौराणिक कथाएं - पिता के वीर्य और माता के गर्भ के बिना जन्मे पौराणिक पात्रों की ) . इसलिए पाण्डु के आग्रह पर यह पुत्र कुंती और माद्री ने भगवान का आहवान करके प्राप्त किये थे।
जब पाण्डु की मृत्यु हुई तो उसके मृत शरीर का मांस पाँचों भाइयों ने मिल
बाट कर खाया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योकिं स्वयं पाण्डु की ऐसी
इच्छा थी। चुकी उसके पुत्र उसके वीर्ये से पैदा नहीं हुए थे इसलिए पाण्डु
का ज्ञान, कौशल उसके बच्चों में नहीं आ पाया था। इसलिए उसने अपनी मृत्यु
पूर्व ऐसा वरदान माँगा था की उसके बच्चे उसकी मृत्यु के पश्चात उसके शरीर
का मांस मिल बाँट कर खाले ताकि उसका ज्ञान बच्चों में स्थानांतरित हो जाए।
पांडवो द्वारा पिता का मांस खाने के सम्बन्ध में दो मान्यता प्रचलित है।
प्रथम मान्यता के अनुसार मांस तो पांचो भाइयों ने खाया था पर सबसे ज्यादा
हिस्सा सहदेव ने खाया था। जबकि एक अन्य मान्यता के अनुसार सिर्फ सहदेव ने
पिता की इच्छा का पालन करते हुए उनके मस्तिष्क के तीन हिस्से खाये। पहले
टुकड़े को खाते ही सहदेव को इतिहास का ज्ञान हुआ, दूसरे टुकड़े को खाने पे
वर्तमान का और तीसरे टुकड़े को खाते ही भविष्य का। यहीं कारण था की सहदेव
पांचो भाइयों में सबसे अधिक ज्ञानी था और इससे उसे भविष्य में होने वाली
घटनाओ को देखने की शक्ति मिल गई थी।
शास्त्रों के अनुसार श्री कृष्ण के अलावा वो एक मात्र शख्स सहदेव ही था
जिसे भविष्य में होने वाले महाभारत के युद्ध के बारे में सम्पूर्ण बाते पता
थी। श्री कृष्ण को डर था की कहीं सहदेव यह सब बाते औरों को न बता दे इसलिए
श्री कृष्ण ने सहदेव को श्राप दिया था की की यदि उसने ऐसा किया तो
मृत्यु हो जायेगी।
16 पौराणिक कथाएं - पिता के वीर्य और माता के गर्भ के बिना जन्मे पौराणिक पात्रों की
हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथो वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि में कई ऐसे पात्रों
का वर्णन है जिनका जन्म बिना माँ के गर्भ और पिता के वीर्य के हुआ था।
यहां हम आपको कुछ ऐसे ही पौराणिक पात्रो क़े ज़न्म की 16 कहानी बतायेँगे।
इनमे से कई पात्रो के ज़न्म मे माँ के गर्भ का कोई योगदान नहीं था तो कुछ
पात्रों के ज़न्म में पिता क़े वीर्य का जबकि कुछ मैं दोनो क़ा हीं।
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माँ के गर्भ में बच्चा |
1. धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के जन्म कि कथा :
हस्तिनापुर नरेश शान्तनु और रानी सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य
नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के
बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने
चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल
में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके
अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह
की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और
अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म
ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के
हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन
राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व
के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ
करवा दिया।
राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और
भीष्म से बोली, "हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह
करें।" किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार
नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना
कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, "हे देवि! आप चिन्ता न करें,
मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।" परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा
किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास
पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व
योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप
कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने
चली गई।
विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु
दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो
कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने
एक दिन भीष्म से कहा, "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी
आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता की बात सुन
कर भीष्म ने कहा, "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं
कर सकता।"
यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। तब उन्हें अपने
ज्येष्ठ पुत्र वेदव्यास का स्मरण किया।स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित
हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, "हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई
निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के
लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम नियोग विधि से उनकी पत्नियों से
सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, "माता! आप उन दोनों
रानियों से कह दीजिये कि वो मेरे सामने से निवस्त्र हॉकर गुजरें जिससे
की उनको गर्भ धारण होगा।" सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका और फिर छोटी रानी
छोटी रानी अम्बालिका गई पर अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द
कर लिये जबकि अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। वेदव्यास
लौट कर माता से बोले, "माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु
नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा जबकि अम्बालिका के गर्भ
से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पैदा होगा " । यह जानकार इससे माता
सत्यवती ने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया।
इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया।
दासी बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी। इस बार वेदव्यास
ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त
में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कह कर वेदव्यास
तपस्या करने चले गये।
समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से
पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म
हुआ।
2. कौरवों के जन्म की कथा :
एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए। गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की।
जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने
अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को
गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने
अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।
महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी
के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने
गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और
सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल
छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी ने
कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल
दो। अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास
तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले
दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।
3. पांडवों के जन्म की कथा :
पांचो पांडवो का जन्म भी बिना पिता के वीर्य के हुआ था। एक बार राजा पाण्डु
अपनी दोनों पत्नियों - कुन्ती तथा माद्री - के साथ आखेट के लिये वन में
गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल
अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया,
"राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने
मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु
हो जायेगी।"
इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, "हे
देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा
तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़" उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी
होकर कहा, "नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी
वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।" पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार
कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।
इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के
दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ
ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, "राजन्! कोई
भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको
अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।"
ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, "हे कुन्ती! मेरा
जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण,
देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के
लिये मेरी सहायता कर सकती हो?" कुन्ती बोली, "हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि
ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके
मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को
बुलाऊँ।" इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने
कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में
पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने
की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई।
तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा
दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म
हुआ।
एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे।
वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु
के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और
वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके
साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट
आई।
4. कर्ण के जन्म की कथा :
कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब
एक बार दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक
वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर
उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो
सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान
उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने सूर्य
देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़
में सूर्य के ही समान था, और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो
जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये
लोक-लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा
दिया।
5. राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुधन के जन्म की कथा :
दशरथ अधेड़ उम्र तक पहुँच गये थे लेकिन उनका वंश सम्हालने के लिए उनका
पुत्र रूपी कोई वंशज नहीं था। उन्होंने पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ
तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराने का विचार किया। उनके एक मंत्री सुमन्त्र ने
उन्हें सलाह दी कि वह यह यज्ञ अपने दामाद ऋष्यशृंग या साधारण की बोलचाल में
शृंगि ऋषि से करवायें। दशरथ के कुल गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ थे। वह उनके
धर्म गुरु भी थे तथा धार्मिक मंत्री भी। उनके सारे धार्मिक अनुष्ठानों की
अध्यक्षता करने का अधिकार केवल धर्म गुरु को ही था। अतः वशिष्ठ की आज्ञा
लेकर दशरथ ने शृंगि ऋषि को यज्ञ की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया।
शृंगि ऋषि ने दोनों यज्ञ भलि भांति पूर्ण करवाये तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ के
दौरान यज्ञ वेदि से एक आलौकिक यज्ञ पुरुष या प्रजापत्य पुरुष उत्पन्न हुआ
तथा दशरथ को स्वर्णपात्र में नैवेद्य का प्रसाद प्रदान करके यह कहा कि अपनी
पत्नियों को यह प्रसाद खिला कर वह पुत्र प्राप्ति कर सकते हैं। दशरथ इस
बात से अति प्रसन्न हुये और उन्होंने अपनी पट्टरानी कौशल्या को उस प्रसाद
का आधा भाग खिला दिया। बचे हुये भाग का आधा भाग (एक चौथाई) दशरथ ने अपनी
दूसरी रानी सुमित्रा को दिया। उसके बचे हुये भाग का आधा हिस्सा (एक बटा
आठवाँ) उन्होंने कैकेयी को दिया। कुछ सोचकर उन्होंने बचा हुआ आठवाँ भाग भी
सुमित्रा को दे दिया। सुमित्रा ने पहला भाग भी यह जानकर नहीं खाया था कि जब
तक राजा दशरथ कैकेयी को उसका हिस्सा नहीं दे देते तब तक वह अपना हिस्सा
नहीं खायेगी। अब कैकेयी ने अपना हिस्सा पहले खा लिया और तत्पश्चात्
सुमित्रा ने अपना हिस्सा खाया। इसी कारण राम (कौशल्या से), भरत (कैकेयी से)
तथा लक्ष्मण व शत्रुघ्न (सुमित्रा से) का जन्म हुआ।
6. पवन पुत्र हनुमान के जन्म कि कथा :
पुराणों की कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन
करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग
ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक
नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है
वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब
जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।
अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष
तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश
होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना
को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने
वायु पुत्र नाम दिया।
7. हनुमान पुत्र मकरध्वज के ज़न्म की कथा :
हनुमान वैसे तो ब्रह्मचारी थे फिर भी वो एक पुत्र के पिता बने थे हालांकि
यह पुत्र वीर्य कि जगाह पसीनें कि बूंद से हुआ था। कथा कुछ इस प्रकार है
जब हनुमानजी सीता की खोज में लंका पहुंचे और मेघनाद द्वारा पकड़े जाने पर
उन्हें रावण के दरबार में प्रस्तुत किया गया। तब रावण ने उनकी पूंछ में आग
लगवा दी थी और हनुमान ने जलती हुई पूंछ से लंका जला दी। जलती हुई पूंछ की
वजह से हनुमानजी को तीव्र वेदना हो रही थी जिसे शांत करने के लिए वे समुद्र
के जल से अपनी पूंछ की अग्नि को शांत करने पहुंचे। उस समय उनके पसीने की
एक बूंद पानी में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से
वह मछली गर्भवती हो गई और उससे उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसका नाम पड़ा
मकरध्वज। मकरध्वज भी हनुमानजी के समान ही महान पराक्रमी और तेजस्वी था उसे
अहिरावण द्वारा पाताल लोक का द्वार पाल नियुक्त किया गया था। जब अहिरावण
श्रीराम और लक्ष्मण को देवी के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए अपनी माया के बल पर
पाताल ले आया था तब श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराने के लिए हनुमान
पाताल लोक पहुंचे और वहां उनकी भेंट मकरध्वज से हुई। तत्पश्चात मकरध्वज ने
अपनी उत्पत्ति की कथा हनुमान को सुनाई। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु
श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति
नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
8. द्रोणाचार्य के जन्म की कथा :
द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। द्रोणाचार्य का जन्म
कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है- एक समय गंगा द्वार
नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे।
एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा
कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन
में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस
वीर्य को द्रोण नामक यज्ञ पात्र (यज्ञ के लिए उपयोग किया जाने वाला एक
प्रकार का बर्तन) में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने
सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की
शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी। अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य
ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह
शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था।
9. ऋषि ऋष्यश्रृंग के जन्म की कथा :
ऋषि ऋष्यश्रृंग महात्मा काश्यप (विभाण्डक) के पुत्र थे। महात्मा काश्यप
बहुत ही प्रतापी ऋषि थे। उनका वीर्य अमोघ था और तपस्या के कारण अन्त:करण
शुद्ध हो गया था। एक बार वे सरोवर में पर स्नान करने गए। वहां उर्वशी
अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया। उस वीर्य को जल के
साथ एक हिरणी ने पी लिया, जिससे उसे गर्भ रह गया। वास्तव में वह हिरणी एक
देवकन्या थी। किसी कारण से ब्रह्माजी उसे श्राप दिया था कि तू हिरण जाति
में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को जन्म देगी, तब श्राप से मुक्त हो जाएगी।
इसी श्राप के कारण महामुनि ऋष्यश्रृंग उस मृगी के पुत्र हुए। वे बड़े
तपोनिष्ठ थे। उनके सिर पर एक सींग था, इसीलिए उनका नाम ऋष्यश्रृंग प्रसिद्ध
हुआ। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए
पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था। इस यज्ञ को मुख्य रूप से ऋषि ऋष्यश्रृंग ने
संपन्न किया था। इस यज्ञ के फलस्वरूप ही भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व
शत्रुघ्न का जन्म हुआ था।
10. कृपाचार्य व कृपी के जन्म की कथा :
कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में
पूरा वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है। उसके अनुसार- महर्षि गौतम
के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद
में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके
सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए। शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में
निपुणता देखकर देवराज इंद्र बहुत भयभीत हो गए। उन्होंने शरद्वान की तपस्या
में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम
में आकर उन्हें लुभाने लगी। उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से
धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया, लेकिन
उनके मन में विकार आ गया था। इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। वे
धनुष, बाण, आश्रम और उस सुंदरी को छोड़कर तुरंत वहां से चल गए।
उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था, इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक
कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से
गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। शांतनु ने उन्हें उठा लिया और
अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका नाम रखा कृपी। जब शरद्वान
को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बच्चों के नाम,
गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके
रहस्यों की शिक्षा दी। थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो
गए। कृपाचार्य की योग्यता देखते हुए उन्हें कुरुवंश का कुलगुरु नियुक्त
किया गया।
11. द्रौपदी व धृष्टद्युम्न के जन्म की कथा :
द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन के मित्र थे। राजा बनने के बाद द्रुपद को
अंहकार हो गया। जब द्रोणाचार्य राजा द्रुपद को अपना मित्र समझकर उनसे मिलने
गए तो द्रुपद ने उनका बहुत अपमान किया। बाद में द्रोणाचार्य ने पाण्डवों
के माध्यम से द्रुपद को पराजित कर अपने अपमान का बदला लिया। राजा द्रुपद
अपनी पराजय का बदला लेना चाहते थे था इसलिए उन्होंने ऐसा यज्ञ करने का
निर्णय लिया, जिसमें से द्रोणाचार्य का वध करने वाला वीर पुत्र उत्पन्न हो
सके। राजा द्रुपद इस यज्ञ को करवाले के लिए कई विद्वान ऋषियों के पास गए,
लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की।
अंत में महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया। महात्मा याज
ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य
कुमार प्रकट हुआ। इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट
हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी। ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे
बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड
से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है
इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही
द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।
12. राधा के जन्म की कथा :
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार एक बार गोलोक में किसी बात पर राधा और
श्रीदामा नामक गोप में विवाद हो गया। इस पर श्रीराधा ने उस गोप को असुर
योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। तब उस गोप ने भी श्रीराधा को यह
श्राप दिया कि आपको भी मानव योनि में जन्म लेना पड़ेगा। वहां गोकुल में
श्रीहरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छाया रूप उनके
साथ रहेगा। भूतल पर लोग आपको रायाण की पत्नी ही समझेंगे, श्रीहरि के साथ
कुछ समय आपका विछोह रहेगा।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का समय आया तो
उन्होंने राधा से कहा कि तुम शीघ्र ही वृषभानु के घर जन्म लो। श्रीकृष्ण के
कहने पर ही राधा व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं। राधा देवी अयोनिजा
थीं, माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई। उनकी माता ने गर्भ में वायु को
धारण कर रखा था। उन्होंने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया
परंतु वहां स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गईं।
13. राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के जन्म की कथा :
रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा हुए। उनकी दो
रानियां थीं- केशिनी और सुमति। दीर्घकाल तक संतान जन्म न होने पर राजा अपनी
दोनों रानियों के साथ हिमालय पर्वत पर जाकर पुत्र कामना से तपस्या करने
लगे। तब महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को साठ हजार अभिमानी
पुत्र प्राप्त तथा दूसरी से एक वंशधर पुत्र होगा।
कालांतर में सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया। राजा
उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हजार
बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में
साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे। इसे महादेव का विधान मानकर सगर ने उन्हें
वैसे ही सुरक्षित रखा। समय आने पर उन मटकों से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए।
जब राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को
उस घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त किया।
देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध
दिया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब कपिल मुनि
के आश्रम पहुंचे तो उन्हें लगा कि मुनि ने ही यज्ञ का घोड़ा चुराया है। यह
सोचकर उन्होंने कपिल मुनि का अपमान कर दिया। ध्यानमग्न कपिल मुनि ने जैसे
ही अपनी आंखें खोली राजा सगर के 60 हजार पुत्र वहीं भस्म हो गए।
14. जनक नंदिनी सीता के जन्म की कहानी :
भगवान श्रीराम की पत्नी सीता का जन्म भी माता के गर्भ से नहीं हुआ था।
रामायण के अनुसार उनका जन्म भूमि से हुआ था। वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड
में राजा जनक महर्षि विश्वामित्र से कहते हैं कि-
अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा।
अर्थात्- एक दिन मैं यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय खेत में हल चला रहा
था। उसी समय हल के अग्र भाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। सीता
(हल द्वारा खींची गई रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया।
पृथ्वी से प्रकट हुई वह मेरी कन्या क्रमश: बढ़कर सयानी हुई।
15. मनु व शतरूपा के जन्म की कहानी :
धर्म ग्रंथों के अनुसार मनु व शतरूपा सृष्टि के प्रथम मानव माने जाते हैं।
इन्हीं से मानव जाति का आरंभ हुआ। मनु का जन्म भगवान ब्रह्मा के मन से हुआ
माना जाता है। मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव सृष्टि के आदि प्रवर्तक
और समस्त मानव जाति के आदि पिता के रूप में किया जाता रहा है। इन्हें 'आदि
पुरूष' भी कहा गया है। वैदिक संहिताओं में भी मनु को ऐतिहासिक व्यक्ति
माना गया है। ये सर्वप्रथम मानव थे जो मानव जाति के पिता तथा सभी क्षेत्रों
में मानव जाति के पथ प्रदर्शक स्वीकृत हैं। मनु का विवाह ब्रह्मा के
दाहिने भाग से उत्पन्न शतरूपा से हुआ था।
मनु एक धर्म शास्त्रकार भी थे। धर्मग्रंथों के बाद धर्माचरण की शिक्षा देने
के लिये आदिपुरुष स्वयंभुव मनु ने स्मृति की रचना की जो मनुस्मृति के नाम
से विख्यात है। उत्तानपाद जिसके घर में ध्रुव पैदा हुआ था, इन्हीं का पुत्र
था। मनु स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का प्रथम क्षत्रिय
माना जाता है। इनके द्वारा प्रणीत 'स्वायंभुव शास्त्र' के अनुसार पिता की
संपत्ति में पुत्र और पुत्री का समान अधिकार है। इनको धर्मशास्त्र का और
प्राचेतस मनु अर्थशास्त्र का आचार्य माना जाता है। मनुस्मृति ने सनातन धर्म
को आचार संहिता से जोड़ा था।
16. राजा पृथु के जन्म की कथा :
पृथु एक सूर्यवंशी राजा थे, जो वेन के पुत्र थे। स्वयंभुव मनु के वंशज राजा
अंग का विवाह सुनिथा नामक स्त्री से हुआ था। वेन उनका पुत्र हुआ। वह पूरी
धरती का एकमात्र राजा था। सिंहासन पर बैठते ही उसने यज्ञ-कर्मादि बंद कर
दिये। तब ऋषियों ने मंत्रपूत कुशों से उसे मार डाला, लेकिन सुनिथा ने अपने
पुत्र का शव संभाल कर रखा। राजा के अभाव में पृथ्वी पर पाप कर्म बढऩे लगे।
तब ब्राह्मणों ने मृत राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिसके फलस्वरूप
स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम पृथु तथा स्त्री का नाम
अर्चि हुआ। अर्चि पृथु की पत्नी हुई। पृथु पूरी धरती के एकमात्र राजा हुए।
पृथु ने ही उबड़-खाबड़ धरती को जोतने योग्य बनाया। नदियों, पर्वतों, झरनों
आदि का निर्माण किया। राजा पृथु के नाम से ही इस धरा का नाम पृथ्वी पड़ा।