लुटेरे थैलीशाहों के लिए “अच्छे दिन” – मेहनतकशों और ग़रीबों के लिए “कड़े क़दम”!
सम्पादक मण्डल
‘मोदी
सरकार’ के आते ही जिन अच्छे दिनों का शोर मचाया गया था, उनकी असलियत को अब
आम लोग भी कुछ-कुछ समझने लगे हैं। बेशक़, ज़्यादा समझदार लोगों को इसे
समझने में अभी वक़्त लगेगा। देशभर के तमाम बड़े पूँजीवादी घरानों से पाये
हुए दस हज़ार करोड़ रुपये के चकाचौंध भरे चुनावी प्रचार के दौरान तूमार बाँधा
गया था कि “अच्छे दिन बस आने वाले हैं”। तब कोई न कहता था कि इनके आने में
अभी कई बरस लगेंगे। मगर सत्ता मिलते ही ‘ख़ज़ाना ख़ाली है’, ‘दुनिया में
आर्थिक संकट है’, ‘कड़े कदम उठाने होंगे’ जैसी बातें शुरू हो गयी हैं। मानो
पहले इनके बारे में कुछ पता ही नहीं था, जब जनता से लम्बे-चौड़े वादे किये
जा रहे थे।
सिर्फ़ एक महीने के घटनाक्रम पर नज़र डालें
तो आने वाले दिनों की झलक साफ़ दिख जाती है। एक ओर यह बिल्कुल साफ़ हो गया
है कि निजीकरण-उदारीकरण की उन आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव नहीं होने
वाला है जिनका कहर आम जनता पिछले ढाई दशक से झेल रही है। बल्कि इन नीतियों
को और ज़ोर-शोर से तथा कड़क ढंग से लागू करने की तैयारी की जा रही है। दूसरी
ओर, संघ परिवार से जुड़े भगवा उन्मादी तत्वों और हिन्दुत्ववादियों के
गुण्डा-गिरोहों ने जगह-जगह उत्पात मचाना शुरू कर दिया है। पुणे में
राष्ट्रवादी हिन्दू सेना नामक गुण्डा-गिरोह ने सप्ताह भर तक शहर में जो
नंगा नाच किया जिसकी परिणति मोहसिन शेख नाम के युवा इंजीनियर की बर्बर
हत्या के साथ हुई, वह तो बस एक ट्रेलर है। इन दिनों शान्ति-सद्भाव और सबको
साथ लेकर चलने की बात बार-बार दुहराने वाले नरेन्द्र मोदी या उनके
गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस नृशंस घटना पर चुप्पी साध ली। मेवात, मेरठ,
हैदराबाद आदि में साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं और कई अन्य जगहों पर ऐसी
हिंसा की घटनाएँ हुई हैं।
विरोध के हर स्वर को कुचल देने के इरादों
का संकेत अभी से मिलने लगा है। केरल में एक कालेज की पत्रिका में नरेन्द्र
मोदी का चित्र तानाशाहों की कतार में छापने पर प्रिंसिपल और चार छात्रों पर
मुकदमा दर्ज करने का मामला पुराना भी नहीं पड़ा था कि उसी राज्य में नौ
छात्रों को इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने पत्रिका में मोदी
का मज़ाक उड़ाया था। दिल्ली में हिन्दी की एक युवा लेखिका को फेसबुक पर मोदी
की आलोचना करने के कारण पहले भाजपा के एक कार्यकर्ता ने धमकियाँ दीं और जब
वह उसके ख़िलाफ़ अदालत में गयीं तो मजिस्ट्रेट ने उल्टे उन्हीं को
‘देशद्रोही’ बताकर उनके विरुद्ध मुक़दमा दर्ज करा दिया। इलाहाबाद में
छात्रों-युवाओं की लोकप्रिय दीवार पत्रिका ‘संवेग’ निकालने वाले ग्रुप को
चुनाव के बाद से मोदी-समर्थकों की ओर से लगातार धमकियाँ दी जा रही हैं।
ज़ाहिर है, यह तो केवल झाँकी है। जब इस सरकार का असली एजेण्डा लोगों के
सामने आयेगा और इसकी नीतियों से बढ़ने वाली तबाही-बदहाली के विरुद्ध मेहनतकश
लोग सड़कों पर उतरने लगेंगे तब ये सारे रामनामी दुशाले फेंककर नंगे दमन का
सहारा लेंगे और लोगों को आपस में बाँटने के लिए जमकर धर्मोन्माद फैलायेंगे।
अभी तो मोदी सरकार का पहला एजेण्डा है
पूँजीपतियों से किये गये अच्छे दिनों के वादों को जल्दी से जल्दी पूरा
करना। इसमें वे बड़ी तेज़ी से जुट गये हैं। ऐलान कर दिया गया है – जनता बहुत
से कड़े क़दमों के लिए तैयार हो जाये। नरेन्द्र मोदी का कहना है कि इन कड़े
क़दमों के कारण समाज के कुछ वर्गों के लोग मुझसे नाराज़ हो सकते हें, लेकिन
देशहित में ऐसा करना ज़रूरी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये सारे कड़े क़दम इस
देश के मज़दूरों-मेहनतकशों और आम ग़रीब लोगों के लिए ही होंगे। जब भी
अर्थव्यवस्था के संकट की बात होती है, तब ग़रीबों से ही क़ुर्बानी करने और
अपने खाली पेट को थोड़ा और कसकर बाँध लेने के लिए कहा जाता है। संकट के कारण
कभी ऐसा नहीं होता कि अपनी अय्याशियों में करोड़ों रुपये फूँकने वाले
अमीरों पर लगाम कसी जाये। उनकी फ़िज़ूलख़र्चियों पर रोक लगायी जाये, उनकी
लाखों-करोड़ों की तनख़्वाहों में कटौती की जाये या उनकी बेतहाशा आमदनी पर
टैक्स बढ़ाकर संकट का बोझ हल्का करने के लिए संसाधन जुटाये जायें।
अरबों-खरबों के ख़र्च वाली नेताशाही और अफ़सरशाही की अश्लील शाहख़र्चियों पर
कोई अंकुश लगाने की बात कभी नहीं होती। “कड़े क़दमों” का हमेशा ही मतलब होता
है, आम मेहनतकश लोगों की थाली से बची-खुची रोटी भी छीन लेना, उनके बच्चों
के मुँह से दूध की आिख़री बूँद भी सुखा देना, उन्हें मजबूर कर देना कि जीने
के लिए बैल की तरह दिनो-रात अपनी हड्डियाँ निचुड़वाते रहें।
इसके लिए मज़दूरों के जो भी थोड़े-बहुत
अधिकार कागज़ पर बचे हैं, उन्हें भी हड़प लेने की तैयारी शुरू हो गयी है।
राजस्थान में वसुन्धरा राजे की भाजपा सरकार ने मज़दूर अधिकारों पर हमला
बोलकर रास्ता दिखा दिया है। 300 तक मज़दूरों वाले कारख़ानों के मालिक अब
सरकार की अनुमति के बिना मज़दूरों को निकाल बाहर कर सकते हैं। 40 मज़दूरों
वाले कारख़ानों को फैक्ट्री क़ानून से ही बाहर कर दिया गया है और यूनियन
बनाना पहले से भी ज़्यादा मुश्किल बना दिया गया है। (इसकी विस्तृत रिपोर्ट
पेज 7 पर पढ़ें।) श्रम क़ानूनों में सुधार के नाम पर जल्दी ही ऐसे क़दम
देशभर में लागू किये जाने हैं। पूँजीपतियों और उनके भोंपू मीडिया ने इसका
स्वागत करके अपनी इच्छा ज़ाहिर कर ही दी है।
जिस तरह अटलबिहारी वाजपेयी की 13 दिन वाली
सरकार ने 1996 में सत्ता में आने के साथ ही देशव्यापी विरोध के बावजूद
कुख्यात अमेरिकी कम्पनी एनरॉन की फ़ाइलें पास करायी थीं उसी तरह मोदी सरकार
ने आने के साथ ही रिलायंस की गैस के दाम दोगुने करने को हरी झण्डी दे दी
है। पाकिस्तान से बात करने पर पिछली सरकार को पानी पी-पीकर कोसने वाली
भाजपा के नेता पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को मोदी के शपथग्रहण
समारोह में बुलाकर लहालोट हो रहे थे। पहले सैनिक हेमराज का कटा सिर वापस
माँगने वाले मोदी अब नवाज़ शरीफ़ से साड़ी और शॉल का आदान-प्रदान कर रहे थे।
क्योंकि अब उनके आका पूँजीपतियों को पाकिस्तान के बाज़ार की ज़रूरत है। दोनों
तरफ़ के पूँजीपति एक-दूसरे के साथ पूँजीनिवेश और व्यापार बढ़ाने के मौक़े
तलाश रहे हैं। कुछ रिपोर्टों के अनुसार मोदी के प्रिय उद्योगपति घराने
अडानी ने गुजरात में पाकिस्तान सीमा के निकट 10,000 मेगावाट का जो बिजलीघर
लगाया है उसकी ज़्यादा बिजली वह पाकिस्तान को सप्लाई करना चाहता है, इसलिए
भी नवाज़ शरीफ़ का इतना स्वागत किया गया है। अभी दोनों मुल्कों के शासक वर्ग
की ज़रूरत है कि शान्ति के माहौल में उद्योग-व्यापार बढ़ाया जाये। लेकिन
जैसे ही दोनों तरफ महँगाई, बेरोज़गारी, दमन-उत्पीड़न से बदहाल जनता सड़कों पर
उतरने लगेगी वैसे ही एक बार फिर अन्धराष्ट्रवादी नारे देकर लोगों की
भावनाओं को भड़काने का खेल शुरू कर दिया जायेगा।
मोदी सरकार के नये एजेण्डे में श्रम
क़ानूनों में सुधार के अलावा मनरेगा में कटौती करना, रेल का माल ढुलाई भाड़ा
और यात्री किराये में बढ़ोत्तरी, पूँजीपतियों के लिए ज़मीनें हड़पना आसान
बनाने के वास्ते भूमि अधिग्रहण क़ानून को बदलना, जनता को मिलने वाली
सब्सिडी में कटौती, खाद के दामों में बढ़ोत्तरी, खाद्य सुरक्षा विधेयक का
दायरा कम करना, एलपीजी और डीज़ल के दामों में मासिक वृद्धि की प्रणाली लागू
करना जैसी चीज़ें सबसे ऊपर हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि इनकी सबसे ज़्यादा
मार आम ग़रीब-मेहनतकश जनता पर पड़ेगी। इस एजेण्डा में मज़दूरों के लिए न्यूनतम
मज़दूरी और बुनियादी हक़ों की गारण्टी करना, उनके शोषण-उत्पीड़न को ख़त्म
करना, मालिकान द्वारा जब चाहे काम पर रखने जब चाहे निकाल बाहर करने की
मनमानी को ख़त्म करना जैसी चीज़ें निश्चित तौर पर नहीं हैं। इन बातों से तो
देश का विकास बाधित होता है। इसीलिए, गुजरात में मोदी सरकार ने राज्य से
श्रम विभाग को ही ग़ायब कर दिया था। अब इतने के बाद यह बताने की ज़रूरत नहीं
होनी चाहिए कि मोदी की नज़र में देश का मतलब कौन है? गुजरात में सिर्फ तीन
कम्पनियों टाटा, मारुति और फोर्ड को 80,000 करोड़ की सब्सिडी देने वाले और
अडानी ग्रुप को हज़ारों एकड़ ज़मीन एक रुपये एकड़ की दर से देने वाले मोदी की
सरकार अब कह रही है कि ग़रीबों को मिलने वाली सब्सिडी से अर्थव्यवस्था पर
बुरा असर पड़ता है इसलिए उन्हें ख़त्म करना ज़रूरी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि
इन सबकी क़ीमत देश की आम मेहनतकश आबादी की हड्डियाँ निचोड़कर ही वसूली
जायेगी। चुनावों में लगभग 40,000 करोड़ रुपये का जो भारी खर्च हुआ है,
जिसमें करीब 10,000 करोड़ रुपये का ख़र्च अकेले मोदी के प्रचार पर बताया जा
रहा है, उसकी भरपाई भी तो आम जनता को ही करनी है।
दरअसल नरेन्द्र मोदी का सत्ता में आना
पूरी दुनिया में चल रहे सिलसिले की ही एक कड़ी है। पूँजीवादी व्यवस्था का
संकट जैसे-जैसे गम्भीर होता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनियाभर में फासीवादी
शक्तियों में नयी जान फूँकी जा रही है। मिस्र, ग्रीस, स्पेन, इटली, फ्रांस,
उक्रेन, जर्मनी, नार्वे जैसे यूरोप के कई देशों में फासिस्ट किस्म की धुर
दक्षिणपंथी पार्टियों की ताक़त बढ़ रही है और कई देशों में नव-नाज़ी ग्रुपों
का उत्पात तेज़ हो रहा है। आने वाले समय में मोदी की आर्थिक नीतियों का
बुलडोज़र जब चलेगा तो अवाम में बढ़ने वाले असन्तोष को भटकाने के लिए यहाँ भी
साम्प्रदायिक और जातिगत आधार पर मेहनतकश जनता को बाँटकर उसकी वर्गीय
एकजुटता को ज़्यादा से ज़्यादा तोड़ने की कोशिशें की जायेंगी। देश के भीतर
के असली दुश्मनों से ध्यान भटकाने के लिए उग्र अन्धराष्ट्रवादी नारे दिये
जायेंगे और सीमाओं पर तनाव पैदा किया जायेगा। संघ परिवार के अनेक संगठन
लम्बे समय से जैसा ज़हरीला प्रचार करते आ रहे हैं उसके द्वारा पैदा किये
माहौल में इनके अनगिनत संगठनों के चरमपंथी तत्वों के उत्पात के कारण
दंगे-फसाद की आशंका कभी भी बनी रहेगी। फासिस्ट स्वभाव से कायर होते हैं
लेकिन जब सत्ता की ताक़त इनके साथ होती है तब ये कोई भी दुस्साहस करने से
नहीं चूकते। वैसे भी, पूँजीपति वर्ग फासीवाद को ज़ंजीर से बँधे कुत्ते की
तरह इस्तेमाल करना चाहता है ताकि जब असन्तोष की आँच उस तक पहुँचने लगे तो
ज़ंजीर को ढीला करके जनता को डराने और आतंकित करने में इसका इस्तेमाल किया
जा सके। लेकिन कई बार कुत्ता उछलकूद करते-करते ज़ंजीर छुड़ाकर अपने मालिक की
मर्ज़ी से ज़्यादा ही उत्पात मचा डालता है। इसलिए मेहनतकशों, नौजवानों और
सजग-निडर नागरिकों को चौकस रहना होगा। उन्हें ख़ुद साम्प्रदायिक उन्माद में
बहने से बचना होगा और उन्माद पैदा करने की किसी भी कोशिश को नाकाम करने के
लिए सक्रिय हस्तक्षेप करने का साहस जुटाना होगा।
इतिहास में हमेशा ही फासीवाद विरोधी
निर्णायक संघर्ष सड़कों पर हुआ है और मज़दूर वर्ग को क्रान्तिकारी ढंग से
संगठित किये बिना, संसद में और चुनावों के ज़रिए फासीवाद को कभी शिकस्त नहीं
दी जा सकी है। फासीवाद विरोधी संघर्ष को पूँजीवाद विरोधी संघर्ष से काटकर
नहीं देखा जा सकता। फासीवाद विरोधी संघर्ष एक लम्बा संघर्ष है और उसी
दृष्टि से इसकी तैयारी होनी चाहिए। अब हमारे सामने एक फौरी चुनौती आ खड़ी
हुई है। हमें इसके लिए भी तैयार रहना होगा।
फासीवाद हर समस्या के तुरत-फुरत समाधान के
लोकलुभावन नारों के साथ तमाम मध्यवर्गीय जमातों, छोटे कारोबारियों,
सफ़ेदपोश कर्मचारियों, छोटे उद्यमियों और मालिक किसानों को लुभाता है।
उत्पादन प्रक्रिया से बाहर कर दी गयी मज़दूर आबादी का एक बड़ा हिस्सा भी
फासीवाद के झण्डे तले गोलबन्द हो जाता है जिसके पास वर्ग चेतना नहीं होती
और जिनके जीवन की परिस्थितियों ने उनका लम्पटीकरण कर दिया होता है। निम्न
मध्यवर्ग के बेरोज़गार नौजवानों और पूँजी की मार झेल रहे मज़दूरों का एक
हिस्सा भी अन्धाधुन्ध प्रचार के कारण मोदी जैसे नेताओं द्वारा दिखाये सपनों
के असर में आ जाता है। जब कोई क्रान्तिकारी सर्वहारा नेतृत्व उसकी
लोकरंजकता का पर्दाफाश करके सही विकल्प प्रस्तुत करने के लिए तैयार नहीं
होता तो फासीवादियों का काम और आसान हो जाता है। आरएसएस जैसे संगठनों
द्वारा लम्बे समय से किये गये प्रचार से उनको मदद मिलती है। लेकिन अगर
क्रान्तिकारी शक्तियाँ अपनी ताक़तभर इनके झूठे प्रचार का मुकाबला करती हैं
तो जल्दी ही इनकी ख़ुद की हरकतों से इनको नंगा करने के मौके सामने आने
लगेंगे।
संशोधनवादी, संसदमार्गी नकली कम्युनिस्ट
और सामाजिक जनवादी, जिन्होंने पिछले कई दशकों के दौरान मात्र आर्थिक
संघर्षों और संसदीय विभ्रमों में उलझाकर मज़दूर वर्ग की वर्गचेतना को
कुण्ठित करने का काम किया, आज फासीवादियों के सत्ता में आ जाने से सकपकाये
हुए हैं। ये संशोधनवादी फासीवाद- विरोधी संघर्ष को मात्र चुनावी हार-जीत के
रूप में ही प्रस्तुत करते रहे, या फिर सड़कों पर मात्र कुछ प्रतीकात्मक
विरोध-प्रदर्शनों तक सीमित रहे। दरअसल ये संशोधनवादी आज फासीवाद का जुझारू
और कारगर विरोध कर ही नहीं सकते। आज पूँजीवादी ढाँचे में किसी कल्याणकारी
राज्य के विकल्प की सम्भावनाएँ बहुत कम हो गयी हैं, इसलिए पूँजीवाद के लिए
भी ये संशोधनवादी काफी हद तक अप्रासंगिक हो गये हैं। ये बस मज़दूर वर्ग को
अर्थवाद और संसदवाद के दायरे में कैद रखकर उसकी वर्गचेतना को कुण्ठित करते
रहेंगे। जब फासीवादी आतंक चरम पर होगा तो ये संशोधनवादी चुप्पी साधकर बैठ
जायेंगे। ना इनके कलेजे में इतना दम है और ना ही इनकी ये औक़ात रह गयी है
कि ये फासीवादी गिरोहों और लम्पटों के हुजूमों से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने
के लिए लोगों को सड़कों पर उतार सकें। न पहले कभी इन्होंने ऐसा किया है और
अब कर सकेंगे।
आने वाले समय में क्रान्तिकारी शक्तियों
के प्रचार एवं संगठन के कामों का बुर्जुआ जनवादी स्पेस और कम हो जायेगा, यह
तय है। लेकिन दूसरी तरफ, मोदी सरकार की नीतियों के अमल तथा हर प्रतिरोध को
कुचलने की कोशिशों के चलते पूँजीवादी ढाँचे के सभी अन्तरविरोध उग्र होते
चले जायेंगे। लोगों के भ्रम और झूठी उम्मीदें टूटेंगे। मज़दूर वर्ग और समूची
मेहनतकश जनता रीढ़विहीन ग़ुलामों की तरह सबकुछ झेलती नहीं रहेगी। वह सड़कों
पर उतरेगी। व्यापक मज़दूर उभारों की परिस्थितियाँ तैयार होंगी। यदि इन्हें
नेतृत्व देने वाली क्रान्तिकारी शक्तियाँ तैयार रहेंगी और साहस के साथ ऐसे
उभारों में शामिल होकर उनकी अगुवाई अपने हाथ में लेंगी तो क्रान्तिकारी
संकट की उन सम्भावित परिस्थितियों में संघर्ष को व्यापक बनाने और सही दिशा
देने का काम किया जा सकेगा। अपने देश में और और पूरी दुनिया में बुर्जुआ
जनवाद के कम होते जाने और नव फासीवादी ताक़तों का उभार दूरगामी तौर पर नयी
क्रान्तिकारी सम्भावनाओं के विस्फोट की दिशा में भी संकेत कर रहा है।
निश्चित तौर पर, आने वाला समय में हमें
ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा। बिखरी
हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके
विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चौकसी दस्ते आदि
तैयार करने होंगे। मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों को राज्यसत्ता के
दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के
लिए तैयार रहना होगा। लेकिन इतिहास का यह भी सबक है कि मज़दूर वर्ग ने हमेशा
ही फासीवाद को धूल चटायी है।
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