बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ
रिजर्व बैंक की हाल की रिपोर्ट के मुताबिक
सरकारी बैंकों ने पूँजीपतियों का एक लाख करोड़ का कर्ज़ माफ़ कर दिया है।
रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती ने बताया कि एक वर्ष के दौरान
जुटाये गये आँकड़ों से पता चला है कि ये वे ऋण थे जो पूँजीपति कई वर्षों से
दबाकर बैठे थे। 2008 में जब सरकार ने किसानों का 60,000 करोड़ का ऋण माफ़
किया था तो पूँजीपतियों ने भारी शोर मचाया था। यही पूँजीपति और मीडिया में
इनके दलाल सरकारी शिक्षा और बस, रेल, पानी, बिजली, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी
सुविधाओं पर दी जाने वाली सब्सिडी पर भी बेशर्मी से हो-हल्ला मचाते हैं कि
इससे अर्थव्यवस्था चौपट हो जायेगी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दो वर्ष
पहले के बजट में सरकार ने पूँजीपतियों को पाँच लाख करोड़ रुपये की छूट दी
थी। उन्हें तमाम तरह के टैक्सों आदि में भी हर केन्द्र और राज्य सरकार से
भारी छूट मिलती है। इसके बाद भी उन्हें देने के लिए जो देनदारी बचती है उसे
भी न देने के लिए वे तरह-तरह की तिकड़में करते हैं। इसके लिए उनके पास
एकाउण्ट्स के विशेषज्ञों और वक़ीलों की पूरी फौज़ रहती है।
रिजर्व बैंक के मुताबिक 2007 से 2013 के
बीच बैंकों के न चुकाये जाने वाले ऋणों की कुल राशि में क़रीब पाँच लाख
करोड़ का इज़ाफा हो गया। इसमें से भारी हिस्सा वे ऋण हैं जो कारपोरेट
कम्पनियों को दिये गये थे।
कुछ सबसे बड़े लोन डिफॉल्टरों की सूचीः
मोज़रबियर इंडिया और ग्रुप कम्पनियाँ – 581 करोड़ रुपये
सेंचुरी कम्युनिकेशंस लि. – 624 करोड़ रुपये
इंडिया टेक्नोमैक – 629 करोड़ रुपये
डेक्कन क्रॉनिकल होल्डिंग लि. – 700 करोड़ रुपये
मुरली इण्डस्ट्रीज़ एंड एक्सपोर्ट लि. 884 करोड़ रुपये
केमरॉक इण्डस्ट्रीज़ एंड एक्सपोर्ट 929 करोड़ रुपये
वरुण इण्डस्ट्रीज़ लि. – 1129 करोड़ रुपये
स्टर्लिंग ऑयल रिसोर्सेज़ 1197 करोड़ रुपये
कारपोरेट इस्पात एलॉय – 1360 करोड़ रुपये
सूर्या विनायक इण्डस्ट्रीज़ 1446 करोड़ रुपये
स्टर्लिंग बायोटेक लि. – 1732 करोड़ रुपये
ज़ूम डेवलपर्स प्रा. लि. – 1810 करोड़ रुपये
इलेक्ट्रोथर्म इण्डिया लि. – 2211 करोड़ रुपये
विनसम डायमंड एंड ज्यूलरी – 2660 करोड़ रुपये
किंगफिशर एअरलाइंस – 2673 करोड़ रुपये
इसके अलावा किंगफिशर के मालिक विजय माल्या
को 6500 करोड़ रुपये कर्ज़ देने वाले 14 बैंकों पर माल्या ने कर्ज़ न
चुकाने के लिए कई अदालतों में मुक़दमा कर रखा है। यह वही विजय माल्या है जो
हर साल आईपीएल के तमाशे के लिए करोड़ों रुपये क्रिकेट खिलाड़ियों को ख़रीदने
पर खर्च करता है और पार्टियों पर पानी की तरह पैसे बहाता है।
फरवरी माह में वित्त राज्य मंत्री जेडी
सीलम ने लोकसभा में बताया कि कारपोरेट घरानों पर 2,46,416 करोड़ रुपये के
भारी टैक्स बकाया हैं। 45 ऐसे मामले हैं जिनमें एक-एक कम्पनी पर 500 करोड़
रुपये से अधिक बकाया है। इनमें ऐसे घराने भी शामिल हैं जो केजरीवाल के
भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन को समर्थन देते रहे हैं।
पिछले दिनों एक संस्था द्वारा कराये गये
अध्ययन से पता चला कि 2004-05 के बीच छह राष्ट्रीय पार्टियाँ की आय का 75
प्रतिशत – यानी 4,895 करोड़ रुपये – ‘‘अज्ञात स्रोतों’’ से आया। इनमें
कारपोरेट घरानों से लेकर हवाला कारोबारी तक शामिल हैं। कांग्रेस तो सबसे
बड़ी राशि पाने वाली है ही मगर इसमें तथाकथित लाल झण्डे वाली भाकपा-माकपा से
लेकर शुचिता की दुहाई देने वाली भाजपा तक शामिल हैं। इस रक़म का आधा
हिस्सा ऐन चुनावों के पहले जमा किया गया था।
बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ
• भूख और कुपोषण से दुनिया भर में रोज़ 24
हज़ार लोग मरते हैं। इनमें से एक तिहाई मौतें भारत में होती हैं। भूख से
मरने वालों में 18 हज़ार बच्चे होते हैं, जिनमें से 6 हज़ार बच्चे भारत के
होते हैं। (जनसत्ता, 7 जुलाई 2013)
• इस समय
दुनिया में 80 करोड़ लोगों को दो वक़्त की रोटी नहीं मिलती। इनमें से 40
करोड़ भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में हैं। इन तीनों देशों के खाद्यान्न
के भण्डार अन्न से भरे हैं।
• देश में हर साल जितना अनाज बरबाद होता है उससे दस करोड़ बच्चों को एक साल तक खाना ख़िलाया जा सकता है।
• सरकार हर
साल 12-13 रुपये प्रति किलो के भाव गेहूँ ख़रीदती है जिसका भारी हिस्सा
गोदामों पड़े-पड़े ख़राब हो जाता है। फिर उसे 5-6 रुपये या उससे भी कम पर
शराब कम्पनियों को बेच दिया जाता है। मगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावज़ूद
गोदामों में पड़ा अनाज भूखे लोगों तक पहुँचाने के लिए सरकार तैयार नहीं
है।
• पिछले दस वर्षों में एक्सप्रेस वे,
अत्याधुनिक हवाई अड्डे, होटल, अन्तरराष्ट्रीय स्तर के स्टेडियम, शॉपिंग
कॉम्प्लेक्स आदि बनवाने पर सरकार ने सार्वजनिक धन से क़रीब 25 लाख करोड़
रुपये खर्च किये हैं। केवल एक वर्ष, 2011-12 के बजट में ही बड़े
पूँजीपतियों को 5 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गयी। इसके बहुत छोटे-से
हिस्से से पूरे देश में अनाज के सुरक्षित भण्डारण का इन्तज़ाम किया जा सकता
है।
• संयुक्त
राष्ट्र संघ के खाघ व कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार हर तीन में से
एक, भारतीय को अक्सर भूखे पेट सोना पड़ता है। इसका कारण खाद्यान्न की कमी
नहीं बल्कि खाने-पीने की चीज़ों की बढ़ती महँगाई ओर लोगों की घटती वास्तविक
आय है।
• संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अन्य रिपोर्ट
के अनुसार, भारत में 1991 में (यानी नयी आर्थिक नीतियों की शुरुआत के समय)
प्रति व्यक्ति औसत 580 ग्राम खाद्यान्न उपलब्ध था, जो 2007 तक घटकर 445
ग्राम रह गया। ध्यान देने की बात है कि इस दौरान समाज के समृद्ध तबके का
खान-पान पर ख़र्च और बरबादी काफ़ी बढी है। यानी खाद्यान्न की औसत उपलब्धता
में आयी कमी का का भारी हिस्सा ग़रीब के भोजन से कम हुआ है। इसी रिपोर्ट
के अनुसार, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के दौर में ग़रीबों की प्रति
व्यक्ति कैलोरी की खपत में भी काफ़ी कमी आयी है
• भारत में
प्रोटीन के मुख्य स्रोत के रूप में औसतन एक आदमी को प्रतिदिन 50 ग्राम दाल
मिलनी चाहिए। लेकिन भारत की नीचे की 30 प्रतिशत आबादी को औसतर 13 ग्राम ही
दाल मिल पाती है। पिछले कुछ वर्षों में दालों की क़ीमत में दोग़ुने से भी
अधिक की बढ़ोत्तरी ने इसे और भी कम कर दिया है। आज से 55 वर्ष पहले 5
व्यक्तियों का परिवार एक साल में औसतन जितना अनाज खाता था, आज उससे 200
किलो कम खाता है।
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