बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

“दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवाद, ब्राह्मणवाद है” – दिलीप मंडल


“दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवाद, ब्राह्मणवाद है” – दिलीप मंडल


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ब्राह्मणवाद दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवाद है, क्योंकि इसकी वजह से जो मार खाता है, उसे कोई शिकायत नहीं है। वह मजे से मार खाता है, ताकि उसका परलोक सुधर जाए।
वह अपमानित होता है और अपमानित करने वाले को दक्षिणा भी देता है। इटली के समाजशास्त्री अंतोनियो ग्राम्शी इसे ‘हेजेमनी बाई कंसेंट’ कहते हैं, यानी पीड़ित की सहमति से चल रहा वर्चस्ववाद। इसके लिए सहमति की संस्कृति बनाई जाती है, यही ब्राह्मण धर्म है।
बहुजनों की सहमति से अल्पजन का राज, इसका सबसे बुरा असर यह है कि अपार प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद भारत आज दुनिया के सबसे गरीब, निरक्षर, बीमार और लाचार देशों में एक है। जीवन के हर क्षेत्र में सवर्ण वर्चस्व ने देश का बुरा हाल कर दिया है।
क्या आपने कभी सोचा है कि 1946-47 की विश्व इतिहास की भीषणतम सांप्रदायिक हिंसा के दौर में, जब 10 लाख से ज्यादा लोग मारे गए, तब भी बाबा साहेब जातिमुक्त भारत के बारे में ही लिख रहे थे?
बाबा साहेब जानते थे कि भारत के ज्यादातर लोगों की समस्या जाति है। उससे मुक्ति जरूरी है। यही भारत की असली आजादी है। यही राष्ट्र निर्माण है।
लेकिन यूनियन कैबिनेट में कुल 26 मंत्री हैं। जिनमें…
गृहमंत्री : राजपूत
कृषि मंत्री : राजपूत
ग्रामीण विकास: राजपूत
रक्षा मंत्री : ब्राह्मण
वित्त मंत्री : ब्राह्मण
रेल मंत्री : ब्राह्मण
विदेश मंत्री : ब्राह्मण
शिक्षा मंत्री : ब्राह्मण
सड़क परिवहन मंत्री : ब्राह्मण
स्वास्थ्य मंत्री: ब्राह्मण
कैमिकल मंत्री : ब्राह्मण
पर्यावरण मंत्री : ब्राह्मण
खादी मंत्री : ब्राह्मण
कपड़ा मंत्री : ईरानी ब्राह्मण
स्टील मंत्री : जाट
क़ानून मंत्री : कायस्थ
संचार मंत्री : कम्मा(पिछड़ा)
खाद्य मंत्री : दलित
इनकी टैलेंट और मेरिट की फैक्ट्री महाराष्ट्र में लगी है।
इन नौ भूदेवों में चार अकेले महाराष्ट्र के।
महाराष्ट्र के लोगों को बधाई।
मोहन भागवत को पेशवा राज स्थापित होने पर बधाई।
केंद्रीय मंत्रिमंडल यानी यूनियन कैबिनेट की बैठक।
वित्त मंत्री, रेल मंत्री, रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री, कैमिकल एंड फर्टिलाइजर मंत्री, संसदीय कार्य मंत्री, लघु और मझौले उद्योग मंत्री, ट्रांसपोर्ट और बंदरगाह मंत्री, संसदीय कार्य मंत्री, कॉर्पोरेट अफेयर्स मंत्री, प्रवासी मामले की मंत्री, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री…नरेंद्र मोदी………..
दैनिक जागरण के मालिक ने अखिलेश यादव से पूछा था कि यूपी पुलिस में कितने यादव हैं। अब वे नरेंद्र मोदी से पूछ सकते हैं कि उनकी लगभग आधी कैबिनेट एक ही जाति से क्यों भरी हुई है।
यादव = 00
कुर्मी, पटेल = 00
जाटव = 00
कुशवाहा, मौर्या = 00
मल्लाह, निषाद = 00
लिंगायत = 00
अंसारी, जुलाहा = 00
वन्नियार = 00
कपू = 00
नायर = 00
और संख्या की दृष्टि से ये भारत की कुछ सबसे बड़ी जातियां हैं। ऐसे में 26 में से 9 मंत्री एक ही जाति से बनाना और वह भी उस जाति से जिसकी संख्या काफी कम है, एक गहरे सामाजिक असंतुलन की ओर संकेत करता है।
यह जरूर है मनुस्मृति के हिसाब से चलने वाली केंद्र सरकार कि कैबिनेट मंत्रियों के पदों को पाँच को छोड़कर सभी को सवर्णों से भरने के बाद, राज्य मंत्रियों यानी जूनियर मिनिस्टर बनाने में सामाजिक संतुलन का ध्यान रखा गया है और जूनियर मंत्री पदों पर SC, ST, OBC को जगह दी गई है। लेकिन वहां भी स्वतंत्र प्रभार देने में खेल किया गया है।
-दिलीप मंडल
दिलीप मंडल

(दिलीप मंडल ब्लॉगर, विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इस लेख के विचार पूर्णत: निजी हैं, इस लेख को लेकर अथवा इससे असहमति के विचारों का भी myzaviya.com स्‍वागत करता है । इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है। ब्‍लॉग पोस्‍ट के साथ अपना संक्षिप्‍त परिचय और फोटो भी myzaviya.com@gmail.com भेजें।)

गुजरात : “नवरात्री गरबा के दौरान 25-50% कंडोम बिक्री में बढ़ोतरी”

गुजरात : “नवरात्री गरबा के दौरान 25-50% कंडोम बिक्री में बढ़ोतरी”




नवरात्री में गरबा के दौरान ही 25 फिसदी कंडोम और गर्भ निरोधक गोलियो की बिक्री बढी है।


अहमदाबाद। एक रिपोर्ट के माध्यम से यह बात सामने आई है गुजरात में पिछले कई सालों के आँकड़ो पर नज़र ड़ाले तो साल दर साल रिकोर्ड तोड़ कंडोम की बिक्री में बढोतरी हुई है। नवरात्री में गरबा के दौरान ही 25 फिसदी कंडोम और गर्भ निरोधक गोलियो की बिक्री बढी है। विशेष रुप से गुजरात के सुरत और अहमदाबाद में 50 फिसदी तक बिक्री में बढोतरी हुई हैं।

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इसके अलावा, कंडोम कंपनियों अपने ग्राहकों को लुभाने के लिए प्रोमोशन करती है और साथ में कई ऑफर भी देती हैं। केवल यही नहीं, नवरात्री के दौरान गुजरात में गरबा आयोजन स्थलों पर सरकारी संगठनों की ओर से स्वयंसेवकों को भी तैनात किया जाता है। साथ ही एड्स के बारे में जागरुकता भी फैलायी जाती है।
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screenshot_14सर्वेक्षण किए जाने पर मालुम हुआ कि युवा पूरे वर्ष इस त्योहार के लिए प्रतीक्षा करते हैं ताकि अभिभावको की आँखों में धुल झोक कर नैतिक बाधाओं को तोड़ने का मोका मिल जाए। नवरात्र के दौरान डांडिया और गरबा के अलावा सेक्स जैसे शब्द सुनने से अजीब तो लगता है लेकिन दुर्भाग्य से यह एक चौंकाने वाली हकीकत में बदल गया है।
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कई तरह के गरबा करने के लिए पहने गए कपडो में लड़के लड़कियो के साथ देर रात तक ड़ांस करते हैं। इसके पीछे उनका कुछ ओर ही इरादा छिपा हुआ होता हैं लेकीन आश्चर्य वाली बात यह है कि महिलाएं भी दुकानों से गर्भ निरोधक गोली खरीदने से नही हिचकीचाती।
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लगभग यह सच एक दशक से चला आ रहा हैं लेकिन एसी स्थिति में बच्चों के माता – पिता को यह बात पचती नहीं है।
अब कंडोम कि बिक्री की वृद्दि होने से वहां के निजी जासूसों की मांग सूरत और अहमदाबाद जैसे शहरों में बढ़ती जा रही है। पेरन्टंस अपने बेटे और बेटियों पर नजर रखने के लिए इन जासूसों को हायर करते हैं।
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एचआईवी -एड्स सलाहकार और सामजशास्त्री डॉ गौरांग जानी ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि हम रापथ क्लब, कर्णावती कल्ब साथ ही अन्य क्षेत्रों में गरबा आयोजन स्थलों पर जागरूकता स्टाल लगाते हैं जहां युवाओ को जागुरुक किया जाता हैं और इससे हमें एक सकारात्मक बदलाव का संकेत मिल रहा है। युवा अब इस विषय पर खुल कर चर्चा करने के लिए आगे आ रहें हैं।

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

जानिये किस किस कम्पनी ने लगाया है चुना देश को देशभक्ति के नाम पर

जानिये किस किस कम्पनी ने लगाया है चुना देश को देशभक्ति के नाम पर : आर टी आई से खुलासा :: राज आदिवाल
26 Apr 2016
आप एक विजय माल्या की बात करते हैं.. मैं आपको बता दूँ अभी हाल में एक आरटीआई आवेदन के ज़रिये इस बात का खुलासा हुआ कि 2013 से 2015 के बीच देश के सरकारी बैंकों ने एक लाख 14 हज़ार करोड़ रुपये के कर्जे माफ़ कर दिये। इनमें से 95 प्रतिशत कर्जे बड़े और मझोले उद्योगों के करोड़पति मालिकों को दिये गये थे।

यह रकम कितनी बड़ी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर ये सारे कर्ज़दार अपना कर्ज़ा लौटा देते तो 2015 में देश में रक्षा, शिक्षा, हाईवे और स्वास्थ्य पर खर्च हुई पूरी राशि का खर्च इसी से निकल आता।
इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। पूँजीपतियों के मीडिया में हल्ला मचा-मचाकर लोगों को यह विश्वास दिला दिया जाता है कि अर्थव्यवस्था में घाटे के लिए आम लोग ज़िम्मेदार हैं क्योंकि वे अपने पूरे टैक्स नहीं चुकाते, बिल नहीं भरते, या शिक्षा, अस्पताल, खेती आदि में सरकारी सब्सिडी बहुत अधिक है, आदि-आदि। ये सब बकवास है। देश की ग़रीब जनता कुल टैक्सों का तीन-चौथाई से भी ज़्यादा परोक्ष करों के रूप में चुकाती है। मगर इसका भारी हिस्सा नेताशाही और अफ़सरशाही की ऐयाशियों पर और धन्नासेठों को तमाम तरह की छूटें और रियायतें देने पर खर्च हो जाता है। इतने से भी उनका पेट नहीं भरता तो वे बैंकों से भारी कर्जे लेकर उसे डकार जाते हैं।

ग़रीबों के कर्जे वसूल करने के लिए उनकी झोपड़ी तक नीलाम करवा देने वाली सरकार अपने इन माई-बापों से एक पैसा नहीं वसूल पाती और फिर कई साल बाद उन्हें माफ़ कर दिया जाता है। दरअसल इस सारी रकम पर जनता का हक़ होता है। करोड़ों लोगों की छोटी-छोटी बचतों से बैंकों को जो भारी कमाई होती है, उसी में से वे ये दरियादिली दिखाते हैं।
आइये अब ज़रा देखते हैं कि इन चोरों में से 10 सबसे बड़े चोर कौन हैं।

1. टॉप टेन में सबसे ऊपर हैं, अनिल अम्बानी का रिलायंस ग्रुप जो 1.25 लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ दबाये बैठा है।
2. दूसरे नंबर पर है अपने कारखानों के लिए हज़ारों आदिवासियों को उजाड़ने वाला वेदान्ताल ग्रुप जिस पर 1.03 लाख करोड़ कर्ज़ है।
3. एस्सार ग्रुप पर 1.01 लाख करोड़ कर्ज़ है।
4. मोदी के खास अडानी ग्रुप ने बैंकों के 96,031 करोड़ रुपये नहीं लौटाये हैं। इसके बाद भी उसे 6600 करोड़ रुपये के नये कर्ज़ की मंजूरी दे दी गयी थी लेकिन शोर मच जाने के कारण रद्द हो गयी।
5. जेपी ग्रुप पर 75,163 करोड़ का ऋण है।
6. सज्जन जिन्दल (जो मोदी की पाकिस्तान यात्रा के समय वहाँ पहुँचे हुए थे) के जे.एस.डब्ल्यू. ग्रुप पर 58,171 करोड़ का कर्ज़ है।
7. जी.एम.आर. ग्रुप पर 47,975 करोड़ का ऋण है।
8. लैंको ग्रुप पर 47,102 करोड़ का ऋण है।
9. सांसद वेणुगोपाल धूत की कंपनी वीडियोकॉन पर बैंकों का 45,405 करोड़ का ऋण है।
10. जीवीके ग्रुप कुल 33,933 करोड़ दबाये बैठा है जो 2015 में मनरेगा के लिए सरकारी बजट (34000 करोड़) से भी ज़्यादा है।

डियर जनता आप अभी व्यस्त रहिये अपनी धर्म और जाति पात की गूढ़ ज्ञान गंगा में और अपने अपने नेताओं की जिंदाबाद मुर्दाबाद में लड़ते मरते रहिये आपस में.. देश और देश की संपत्ति का क्या है वो तो आपके यही महान नेता, धर्म गुरु और पूंजीपति मिल बाँट कर जल्द ही चट कर लेंग।.
बस आप अपनी देशभक्ति भारत माता की जय तक सिमित रखिये

मंगलवार, 3 मई 2016

देश में पानी का भीषण संकट : सूखता भविष्य

ऐसा कई वर्षों से कहा जा रहा है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा. अब, यह विश्व युद्ध कब होगा, कैसे होगा, इसका तो अभी पता नहीं, लेकिन हमारे खुद के देश में पानी को ले कर लड़ाइयां होनी शुरू हो गई हैं. पिछले दिनों महाराष्ट्र के लातूर शहर में कई जगह धारा 144 लगाई गई. मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में एक तलाब के पानी की सुरक्षा के लिए बन्दूकधारी गार्ड तैनात किए गए. यह सब इसलिए हुआ क्योंकि फिलहाल देश के 12 राज्यों के करीब 35 फीसदी जिले भयंकर सूखे की चपेट में है. खेती-बारी तो छोड़िए, पीने के लिए पानी मिलना मुश्किल हो रहा है. लातूर में ट्रेन से पानी पहुंचाया जा रहा है, ताकि लोगों को पीने के लिए पानी मिल सके.
ऐसे हालात में अब जरा देश के  एक ताकतवर केंद्रीय मंत्री का बयान पढ़िए. क्या सूखा हमारे हाथ में है? जब भगवान की मर्जी होगी, बारिश होगी. बारिश नहीं होगी, तब हम वो काम करेंगे जो हमें करना है. यह बयान है देश के एक बड़े और ताकतवर केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू का. एक जिम्मेदार केंद्रीय मंत्री जब ऐसा बोलते हैं, तो मान लेना चाहिए कि ये सरकार का आधिकारिक स्टैंड है. यानी, सूखे को ले कर नरेंद्र मोदी सरकार क्या सोच रखती है, यह इस बयान से पता चलता है. दूसरी तरफ स्थिति यह है कि देश के 12 राज्यों में भीषण सूखा है. केंद्र सरकार ने खुद माना है कि देश के दस राज्य सूखे की चपेट में हैं. पूरे देश के करीब 40 फीसदी जिलों में पानी की कमी हो गई है. बुंदेलखंड में पानी की कमी से बुरा हाल है. तेजी से पलायन हो रहा है. ओड़ीशा में किसानों की हालत दयनीय हो गई है. कर्नाटक में कृष्णा सागर बांध सूख चुका है. इधर, केंद्रीय जल आयोग ने एक रिपोर्ट दी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश के 91 बड़े जलाशयों में पानी का स्तर अभी तक के सबसे निचले स्तर पर आ गया है. दूसरी तरफ, पानी की बर्बादी को लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट चिंतित हैं, लेकिन सरकार की तरफ से अभी तक कोई बड़ी घोषणा सुनने को नहीं मिली है.
मुंबई हाई कोर्ट ने भी बीसीसीआई को डांट लगाते हुए पूछा था कि जहां एक तरफ देश में सूखा है, लोगों के पास पीने को पानी नहीं है, ऐसे में आईपीएल के नाम पर करीब 50 लाख लीटर पानी कैसे बहाया जा सकता है? कोर्ट ने यह सवाल किया कि खेल जरूरी है या लोगों का जीवन. ध्यान देने वाली बात है कि जहां महाराष्ट्र के लातूर में लोगों के पास पीने का पानी नहीं है, वहीं महाराष्ट्र में होने वाले आईपीएल मैच में लाखों लीटर पानी का इस्तेमाल सिर्फ मैदान की प्यास बुझाने के लिए किया जाता. इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए पूछा कि आप सूखे की हालत से निपटने के लिए क्या कर रहे हैं. सूखे को लेकर स्वराज अभियान ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. इसी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करते हुए सरकार से ये सवाल पूछे. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस बात के लिए भी फटकारा कि मनरेगा के तहत सूखा प्रभावित राज्यों को पर्याप्त धन का आवंटन क्यों नहीं किया? सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अभी इन राज्यों में औसतन 48 दिन का ही काम मनरेगा के तहत मिल पा रहा है, जबकि कानूनन यह सौ दिनों का होना चाहिए. दिलचस्प तथ्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान यह भी कहा कि जब तक आप पर्याप्त धन का आवंटन नहीं करेंगे तब तक स्थिति में कोई भी सुधार नहीं होगा. कोर्ट ने यह भी बताया कि गुजरात के भी 256 गांव सूखाग्रस्त हैं. गौरतलब है कि केंद्र की तरफ से इन सूखाग्रस्त राज्यों को मनरेगा के तहत उतना धन भी नहीं भेजा गया है जो कानूनन उनका हक था.
लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि इस समस्या के  समाधान के लिए हमारी सरकार ने अबतक क्या कदम उठाए हैं? इसमें केंद्र समेत तमाम राज्य सरकारें शामिल हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के अधिकांश तालाबों का हाल अतिक्रमण की वजह से खराब हो चुका है. गांवों में अब कुएं रहे नहीं. राज्य सरकारें अब कच्ची की जगह पक्की नहरें बना रही हैं. अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने एक योजना शुरू करने की बात कही थी. यह नदी को जोड़ने की योजना थी. आज वह योजना कहां है, किस हाल में है, किसी को नहीं मालूम. अगर उस योजना पर काम हुआ होता, तो आज इतनी खराब स्थिति देखने को नहीं मिलती.
सरकार के मुताबिक सूखाग्रस्त क्षेत्र में मनरेगा के  तहत 50 अतिरिक्त दिन का काम देने की बात कही गई है. लेकिन, जब सरकार के आंकड़े ही खुद बताते हैं कि औसतन 48 दिनों से ज्यादा का काम नहीं मिल पाता और सरकार ने मनरेगा के तहत आवंटित धन भी संबंधित राज्य सरकारों को नहीं दिया है तो ऐसे में अतिरिक्त 50 दिन का काम देने की बात पर कैसे यकीन किया जा सकता है? इसके अलावा, सरकार ने सूखा प्रभावित क्षेत्र में डीज़ल सब्सिडी देने, बीज सब्सिडी देने, अतिरिक्त चारा उपलब्ध कराने की बात कही है. लेकिन, यह सब आज कहीं भी जमीन पर उतरता नहीं दिख रहा है. फिर, सवाल यह भी है कि सूखा प्रभावित क्षेत्र में पानी की उपलब्धता कैसे सुनिश्चित हो. मनरेगा के तहत वाटर हार्वेस्टिंग संरचना के निर्माण की बात तो सरकार करती है लेकिन असलियत इसके ठीक उलट है. आज, हालत यह है कि महाराष्ट्र में जल शिविर के निर्माण के बाद भी महाराष्ट्र का 2 फीसदी से भी कम जमीन सिंचित भूमि के तहत आता है. सवाल है कि विभिन्न सरकारों की ओर से बारिश के  पानी को सहेजने के लिए क्या कोई कदम उठाए गए हैं?
अभी मानसून आने में डेढ महीने की देरी है. वैसे तो मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की है कि इस बार वर्षा सामान्य से अधिक होगी, लेकिन इन डेढ़ महीनों के दौरान लातूर, बुन्देलखंड जैसे इलाकों का क्या होगा? सूखा करीब-करीब आधे से अधिक राज्यों को प्रभावित कर रहा है. महाराष्ट्र के  मराठवाड़ा में कई इलाकों में पानी के लिए लोग सुबह से लाइन में लगते हैं, फिर भी उन्हें पानी नहीं मिल पा रहा है. लातूर के लिए तो स्पेशल ट्रेन से पानी भेजा जा रहा है लेकिन वह भी नाकाफी है. मराठवाड़ा से लोग पलायन कर के मुंबई में शरण ले रहे हैं. वहां घाटकोपर के मैदान में, खुले आसमान के नीचे लोग जीवन जीने को मजबूर हैं. पानी की कमी की वजह से स्कूल, अस्पताल सब जगह हाहाकार मचा हुआ है. लातूर में तो बकायदा पुलिस निगरानी में पानी का वितरण हो रहा है क्योंकि पानी को लेकर लोगों के बीच झड़पें होनी शुरू हो गई हैं. बुंदेलखंड के बांदा में अगर आप जाते हैं तो वहां करीबन सत्तर फीसदी घरों में आपको ताले लटके मिलेंगे. वजह, वहीं पानी का अभाव. मजबूरी में लोग घर में बूढ़े  मां-बाप, जानवरों को छाड़ कर पलायन कर रहे हैं. यहां तक कि पूर्वी उत्तर प्रदेश समेत दक्षिणी बिहार के भी कई इलाकों में पानी की कमी की खबरें आ रही है. ओड़ीशा में भी सूखे की स्थिति है. यहां के 21 जिलों के 139 ब्लॅाक में सूखे की स्थिति है. बालासोर, बोलांगीर, कटक, गंजाम, जाजपुर, मयूरभंज, पुरी में किसानों की हालत खराब है. किसानों ने तो अब सार्वजनिक तटबंधों को भी तोड़ना शुरू कर दिया है ताकि उनके खेतों को पानी मिल सके. कर्नाटक में कृष्णा सागर बांध  में पानी ही नहीं है. उत्तरी कर्नाटक में लोग टैंकर के भरोसे है जो सप्ताह में सिर्फतीन दिन पीने का पानी देता है. मैसूर और बंगलुरु जैसे शहरों की हालत ये है कि अब सिर्फदो महीने का ही पानी बचा है. दो महीने बाद, यदि बारिश नहीं हुई तो, इन शहरों में भी लोगों को पीने का पानी नहीं मिल सकेगा. 31 मार्च, 2016 तक के  देश के 91 प्रमुख जलाशयों की संग्रहण स्थिति को देखे तो 91 प्रमुख जलाशयों में 39.651 बीसीएम (अरब घन मीटर) जल का संग्रहण है. दिलचस्प रूप से यह इन जलाशयों की कुल संग्रहण क्षमता का महज 25 प्रतिशत है. इन 91 जलाशयों की कुल संग्रहण क्षमता 157.799 बीसीएम है, जो देश की अनुमानित कुल जल संग्रहण क्षमता  का लगभग 62 प्रतिशत है. अब जरा पश्चिमी क्षेत्र, मध्य क्षेत्र और दक्षिणी क्षेत्र के जलाशयों में मौजूद पानी की हालत देखिए. पश्चिमी क्षेत्र में गुजरात तथा महाराष्ट्र आते हैं. इस क्षेत्र में 27.07 बीसीएम की कुल संग्रहण क्षमता वाले 27 जलाशय हैं, जो सीडब्ल्यूसी यानी केंद्रीय जल आयोग की निगरानी में हैं. इन जलाशयों में अभी कुल संग्रहण क्षमता का सिर्फ21 प्रतिशत पानी ही उपलब्ध है जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि में ये 40 प्रतिशत था. मध्य क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ आते हैं. इस क्षेत्र में 12 जलाशय हैं, जो सीडब्ल्यूसी की निगरानी में हैं और इनमें संग्रहण क्षमता का सिर्फ32 प्रतिशत पानी मौजूद है. वहीं, दक्षिणी क्षेत्र यानी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु में सीडब्लूसी की निगरानी में 31 जलाशय हैं और इसमें इन 31 जलाशयों की कुल क्षमता का महज 17 प्रतिशत पानी ही उपलब्ध है. यानी, आप समझ सकते हैं कि देश के 91 बड़े जलाशयों में पानी का स्तर अभी क्या है?
यह सोचने वाली बात है कि आखिर ऐसा दिन हमें देखना क्यों पड़ रहा है? इसमें गलती किसकी है? ये समस्या सिर्फ भौगोलिक या पर्यावरणीय कारणों से पैदा हुई है या फिर यह समस्या मानवजनित भी है. इसका सीधा सा जवाब यही है कि ये समस्या सिर्फऔर सिर्फमानवजनित ही है. इसमें अगर पर्यावरणीय कारण भी है तो वो भी मानवीय हस्तक्षेप की वजह से ही खराब हुई है. सबसे पहले तो हमने अपने पारंपरिक जल स्त्रोतों, पानी को संचित करने के तरीकों को खोते गए. वनों की कटाई, बेतहाशा बढ़ते कंक्रीट के जंगलों ने बाकी का काम कर दिया. तालाबों पर अवैध कब्जे से पानी का ये भी एक स्त्रोत खत्म होता चला गया. खेती के बदलते तरीकों, रासायनिक खादों के बढ़ते उपयोग, खेती के लिए भूजल का दोहन, इस सब ने भी पानी का भरपूर दोहन किया. मसलन, महाराष्ट्र के सूखा ग्रस्त क्षेत्रों में गन्ने की खेती करना कहां तक जायज माना जा सकता है, जिसमें भारी मात्रा में पानी की खपत होती है. इसके अलावा, पैकेज्ड वाटर (बोतलबंद पानी) के व्यापार ने भी भूजल का दोहन किया है. एक तरफ जहां देश में लगातार पानी की कमी हो रही है वहीं दूसरी तरफ बोतलबंद पानी का कारोबार खरबों रुपये का हो चुका है. ये कंपनियां आमतौर पर भूजल का ही इस्तेमाल करती हैं. सवाल है कि जिस देश में करोड़ों लोगों को पीने का पानी इस वजह से नहीं मिल रहा हो कि जमीन के अंदर का पानी सूख गया है, वहां सरकार कैसे पानी के कारोबार को चलने दे रही है? यह अमानवीय है, शर्मनाक है और जीने के मूल अधिकार का हनन भी है.
अब, जरा हम एक काल्पनिक तस्वीर देखते हैं. मान लीजिए, अगले एक महीने के भीतर आने वाला मानसून फेल हो जाता है, गर्मी का पारा इसी तरह से बढ़ता रहा तो क्या होगा? देश के 40 फीसदी जिलों के लोगों, किसानों और जानवरों की हालत क्या होगी? जाहिर है, फसल नहीं होगी. फसल नहीं होगी तो किसान ज्यादा संख्या में आत्महत्या करेंगे. अनाज, सब्जियों के दाम बढ़ेंगे. क्या इस देश की जनता इस सबके  लिए तैयार है? चौथी दुनिया ने देश  में सूखे के हालात का एक ग्राउंड रिपोर्ट तैयार किया है. बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ से चौथी दुनिया संवाददाताओं ने जो ग्राउंड रिपोर्ट भेजी है, उसे इस अंक में लिया गया है. ये रिपोर्ट बताती है कि सूखे की स्थिति कितनी भयावह है. और, अगर समय रहते सरकारों ने उचित कदम नहीं उठाए और अगर दुर्भाग्य से मानसून फेल हुआ या कमजोर हुआ तो आने वाला समय न सिर्फ किसानों बल्कि हमारे और आपके लिए भी बहुत भयावह होने वाला है.
अगर मानसून फेल हुआ तो!
जैसे-जैसे सूरज की तपिश बढ़ती जा रही है, देश में पानी की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है. देश के कई राज्य भयानक सूखे की चपेट में हैं. जल स्तर इतना नीचे चला गया है कि रेत निचोड़ कर प्यास बुझाने की कहावत अक्षरशः सही साबित हो रही है. ऐसे में सब की निगाहें एक अच्छे मानसून पर टिकी हुई हैं. अगर इस वर्ष मानसून अच्छा हो गया तो इससे न सिर्फ प्यासी धरती को राहत मिलेगी बल्कि पिछले दो वर्षों से बारिश की कमी के कारण प्रभावित खरीफ फसल की पैदावार में भी वृद्धि होगी. लेकिन, मानसून एक ऐसी पहेली है जिसे मौसम वैज्ञानिक आज तक नहीं सुलझा सके हैं. लिहाज़ा, इसकी भविष्यवाणी का कोई भी कारगर तरीका नहीं खोजा जा सका है. कुछ वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को अनियमित मानसून का प्रमुख कारण मान रहे हैं तो कुछ अल नीनो को. अल नीनो की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह का तापमान काफी ऊंचा हो जाता है, जिसकी वजह से भारत में आने वाला दक्षिण पश्चिमी मानसून प्रभावित होता है.
बहरहाल, जिस तरह से भारत की नदियां भारत की जीवन रेखा हैं, बिल्कुल उसी तरह मानसून भारतीय जीवन का एक अटूट हिस्सा है. देश में 75 प्रतिशत पानी की आमद बारिश से होती है, जो कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र में जल आपूर्ति का प्रमुख स्त्रोत है. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज भी भारत की आधी से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है. ऐसे में ख़राब मानसून के ख्याल मात्र से किसानों का दिल दहल जाना कोई अनोखी बात नहीं है. दरअसल, इसमें कोई शक नहीं कि मानसून की बारिश प्रत्येक वर्ष सामान्य नहीं होती और इसमें क्षेत्रीय विविधता भी होती है. इसलिए देश में सूखे की मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह सवाल उठाना लाज़मी है कि यदि इस वर्ष मानसून अच्छा नहीं हुआ तो इसके  क्या परिणाम हो सकते हैं? इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार कौन से क़दम उठाएगी? पहले ही से क़र्ज़ की वजह से आत्महत्या कर रहे किसानों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
दरअसल, ये सवाल इसलिए भी अहम हैं क्योंकि भारत में ऐसे बहुत कम अवसर आये हैं जब लगातार दो सालों तक मानसून नाकाम रहा है. वर्ष 1986-87 के बाद वर्ष 2014-15 में एक बार फिर देश में लगातार दो वर्ष सामान्य से कम बारिश हुई है. रोबर्ट डी कप्लान अपनी किताब मानसून में लिखते हैं कि अनियमित मानसून के कारण वर्षा पर निर्भर देश के तकरीबन दो तिहाई कृषि और इस कृषि से जुड़े किसान बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं. क्योंकि अगर बारिश बहुत कम होगी तो सूखे की स्थिति पैदा हो जाएगी. नतीजे में कृषि पैदावार प्रभावित होगी और किसानों की आमदनी पर बट्टा लगेगा, खाद्य सामग्री की कीमतों भी बढ़ोतरी होगी. ज़ाहिर है, इसका व्यापक असर होगा लेकिन इसकी सबसे अधिक मार कम आय वर्ग के लोगों पर पड़ेगी.
बहरहाल, पिछले कुछ वर्षों से मानसून की नाकामी को पहले से अधिक महसूस किया जा रहा है. हालांकि, हरितक्रांति के बाद से ख़राब मानसून का वह प्रभाव देखने को नहीं मिला, जो आज़ादी से पहले देखने को मिलता था, लेकिन अर्थशास्त्र के जानकार मानते हैं कि 1980 के दशक के आखरी वर्षों  के बाद से अनियमित मानसून की वजह से खाद्य उत्पादन में अस्थिरता आई है. एक अन्य अध्ययन के मुताबिक सूखे वाले वर्षों में कृषि पैदावार में स्पष्ट कमी देखने को मिली है. 1979-80, 1987-88 और 2002-03 के सूखे वाले वर्षों में खाद्यान उत्पादन में 3 से 13 प्रतिशत तक की गिरवट दर्ज की गई. जैसा कि पहले ज़िक्र किया जा चुका है कि मानसून की स्थिति पूरे देश में एक जैसी नहीं होती. इसका नतीजा यह होता है कि देश के अलग-अलग क्षेत्रों में कृषि पैदावार में कमी एक सामान नहीं होती. मिसाल के तौर पर वर्ष 2005-06 में बिहार में खाद्यान उत्पादन में 38 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई तो उसी वर्ष राजस्थान में यह गिरावट 13 प्रतिशत थी. इसलिए मानसून की नाकामी पूरे देश में एक जैसी नहीं रहती. भारतीय मानसून की एक विशेषता यह भी है कि पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़ कर देश का हर राज्य कभी न कभी सूखे से प्रभावित जरूर रहता है. सूखे के कारण भूजल स्तर काफी नीचे चला जाता है. खास तौर पर, अगर लगातार कई वर्षों से मानसून की बारिश कम होती है तो जलाशयों और जल के दूसरे  स्त्रोतों में पानी की कमी होगी. नतीजतन, भूजल रिचार्ज नहीं होगा. यह स्थिति गंभीर रूप से सूखा प्रभावित जिलों में देखने को मिल रही है, जहां कुएं और हैंड पंप सूख गए हैं और सरकार को दूसरी जगहों से वहां पानी की आपूर्ति करनी पड़ रही है. अब सवाल यह उठता है कि सरकार वर्षा की कमी के कारण पैदा होने वाली स्थिति से निपटने के लिए क्या कर सकती है? इस क्षेत्र में सबसे पहले उसे मानसून की भविष्यवाणी की प्रणाली को त्रुटिरहित बनाना होगा, क्योंकि अखिल भारतीय स्तर पर तो मानसून का सही अनुमान लगाना तकरीबन संभव हो गया है, लेकिन इसका फायदा किसानों को इसलिए नहीं मिल पाता क्योंकि क्षेत्रीय स्तर अभी भी इसकी सही भविष्यवाणी संभव नहीं हो सकी है. इसलिए कभी अतिवृष्टि के  कारण तो कभी अल्पवृष्टि की कारण किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. नतीजतन, क़र्ज़ में डूबे किसान मजबूरन आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं. इस स्थिति से निपटने का एक तरीका कृषि पर आश्रित किसानों को वैकल्पिक रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराना भी है. सरकारी स्तर पर खाद्य सुरक्षा के लिए कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा. हालांकि,  इस वर्ष वित्त मंत्री ने अपने बजट स्पीच के बड़े हिस्से को कृषि पर केंद्रित रख कर यह संदेश देने की कोशिश की कि उनकी सरकार कृषि क्षेत्र की समस्याओं को लेकर काफी गंभीर है, लेकिन देश में नव उदारवादी आर्थिक नीति अपनाये जाने के बाद से उपेक्षा का शिकार और देश के 60 प्रतिशत लोगों को जीविका के साधन उपलब्ध करने वाले इस क्षेत्र के लिए ठोस एलान उन्होंने भी नहीं किया.
दरअसल, मानसून के कारण सूखे की स्थिति से निपटने के लिए अगर सरकार ने समय रहते उचित क़दम नहीं उठाये तो न सिर्फ खाद्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि होगी बल्कि किसानों की आत्महत्या भी जारी रहेगी और देश में पीने के पानी का संकट और गहरा हो जाएगा.
नदी जोड़ो योजना का क्या हुआ?
भारत एक ऐसा देश है जो भौगोलिक रूप से भी विविध देश है. रेगिस्तान, समंदर, पहाड़ से ले कर समतल जमीन है. नदियों की प्रचुरता है. हर साल देश के एक हिस्से में जहां बाढ़ का पानी कुछ राज्यों को बर्बाद करता है, वहीं सूखे की मार भी पड़ती है. नदियों का अधिकांश पानी समुद्र में जा कर न खेती लायक बचता है, न पीने लायक. यानी, भौगोलिक विविधता की वजह से इस देश में पानी मुसीबत का कारण बनता जा रहा है. दूसरी तरफ, पर्यावरणीय कारणों से पानी के प्राकृतिक स्त्रोत पर असर तो पड़ ही रहा है, बारिश के पानी को भी संजोने में हम असफल रहे हैं. वन की कटाई, कंक्रीट के बढ़ते जंगल, भू-क्षरण, प्रदूषण की वजह से मौसम चक्र में परिवर्तन आदि ने मिल कर भारत जैसे देश में पानी की कमी पैदा कर दी है. बावजूद इसके, हमारी नदियों में इतना पानी जरूर है जिससे कि लातूर या बुन्देलखंड जैसे इलाके  में पड़ने वाले सूखे से निबटा जा सके. इसके लिए बहुत पहले से नदी जोड़ो योजना की बात कही जा रही है. अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तब भी उन्होंने देश की प्रमुख नदियों को जोड़ने की बात कही थी. इस योजना का मकसद सिर्फ इतना था कि नदियों को जोड़ने से पानी का सही जगह पर, सही वक्त पर सही इस्तेमाल हो सकेगा. 15 साल बाद भी इस योजना पर केंद्र सरकार की ओर से कोई ठोस पहल होता हुआ नहीं दिख रहा है. हालांकि, कुछ राज्यों में ऐसी शुरुआत हुई है. आंध्रप्रदेश  में  गोदावरी और कृष्णा को जोड़ने के लिए योजना बनी है. इस योजना से कृष्णा डेल्टा क्षेत्र के किसानों को बहुत राहत मिलेगी. गोदावरी का बहुत सारा पानी हर साल बंगाल की खाड़ी से मिल कर बर्बाद हो जाता है. गौरतलब है कि जहां देश में एक तरफ केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक कावेरी नदी के पानी को लेकर, हरियाणा, दिल्ली और पंजाब पानी को ले कर हमेशा आपस में उलझे रहते हैं, वहां आज भी नदियों को जोड़ने की योजना पर ईमानदारी से काम नहीं हो पा रहा है. अगर, इस योजना को ईमानदारी से पूरा कर लिया जाता तो आने वाले समय में बाढ़ और सूखे से राहत मिलने की उम्मीद की जा सकती थी.
—- शफ़ीक़ आलम / शशि शेखर  


वाइब्रेंट गुजरात का है यह हाल
जरात सरकार को सितंबर 2015 में ही मालूम हो गया था कि राज्य में सूखे के हालात हो सकते हैं, लेकिन सरकार आंखें मूंदे रही. जब लाखों लोगों के सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया, पीने के पानी की किल्लत होने लगी, तब जाकर राज्य सरकार की आंख खुल और उसने राज्य के 623 गांवों को सूखा ग्रस्त घोषित किया. वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अख्तियार किया. क्या सरकारों की अब यह आदत हो गई है कि जब कोर्ट का डंडा चलेगा तभी वह कुंभकर्णी नींद से जागेंगी, चाहे लोग मरते रहें. सवाल यह है कि जब गुजरात सरकार को सितंबर में ही यह मालूम था कि राज्य में सूखे के हालात हो सकते हैं, तो उसने राज्य में सूखा घोषित करने के लिए एक अप्रैल 2016 का इंतजार क्यों किया?
ऐसे में यह सवाल भी खड़ा होता है कि वाइब्रेंट गुजरात का यह कैसा विकास है और किसके लिए? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और वह कहीं भी जाते हैं, तो गुजरात का उदाहरण जरूर देते हैं. भाजपा के विकास मॉडल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहराज्य गुजरात का यदि यह हाल है, तो भाजपा को देश को बताना चाहिए कि क्या यही गुजरात का असली मॉडल है? देश में गुजरात को भाजपा विकास का प्रतीक बताती रही है. विकास के उस प्रतीक की हालत यह है कि सरकार को 6 महीने पहले जानकारी थी कि प्रदेश के कई जिले सूखा ग्रस्त हैं, बावजूद इसके राज्य सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही. जब सुप्रीम कोर्ट ने सूखे को लेकर राज्य सरकार को फटकार लगाई तब जाकर उसने 623 गांवों को सूखा ग्रस्त घोषित किया. सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि सूखे को लेकर आप बिलकुल गंभीर नहीं हैं. इसके जवाब में जब गुजरात सरकार ने कहा कि सूखा घोषित किए जाने में देरी चुनाव की वजह से हुई तो कोर्ट ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि अगर चुनाव होंगे, तो क्या राज्य का सारा काम बंद हो जाएगा.
राज्य में सूखे की हालत का अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि गुजरात के सौराष्ट्र में पानी का भयंकर संकट है. सूखे की वजह से वहां के हालात इतने खराब हैं कि वहां के जलाशयों में सिर्फ दस फीसदी पानी शेष बचा है. इतने पानी से किसी तरह अधिक से अधिक दो महीने गुजर जाएंगे. लेकिन इसके बाद क्या? इस सवाल का जवाब फिलहाल सरकार के पास नहीं है. पानी का संकट कच्छ और उत्तरी गुजरात में भी है. नदियां सूख रही हैं, तालाब सूख चुके हैं और जलाशयों में अब उतना पानी नहीं बचा है कि लंबे समय तक लोगों की प्यास बुझ सके. गुजरात का पाटन क्षेत्र सूखे से सबसे ज्यादा प्रभावित है. सरकार ने बनासकांठा, पाटन और अमरेली सहित अन्य जिले के  कलेक्टरों से सूखे के हालात की जानकारी मांगी है.


दक्षिण भारत की हालत भी दयनीय है
दक्षिण भारत के तीन राज्य आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक को आधिकारिक तौर पर सूखाग्रस्त माना गया है. आंध्र और तेलंगाना की स्थिति कुछ ज्यादा ही खराब है. साल 2015-16 के लिए तेलंगाना के 443 ग्रामीण मंडलों में से 231 को सूखाग्रस्त माना गया था. तेलंगाना ने जहां सूखे से राहत के लिए केंद्र सरकार से एक हजार करोड़ रुपये की मांग की थी, वहीं उसे जनवरी 2016 में उसे केंद्र सरकार से 791 करोड़ रुपये मिले. महबूब नगर, मेंडक और निज़ामाबाद जिले के सारे मंडल सूखाग्रस्त घोषित किए गए हैं. रंगा रेड्‌डी के  37 में से 33, करीम नगर के  57 में से 19, नालगोंडा के 59 में से 22 और वारंगल के  51 में से 11 मंडल सूखाग्रस्त घोषित हो चुके  हैं. दूसरी तरफ, खरीफ सीजन के दौरान आंध्र प्रदेश के 670 मंडलों में से 196 मंडल सूखाग्रस्त घोषित हुए. कर्नाटक में स्थिति यह है कि वहां की नदियां तक सूख गई हैं. गांवों की हालत दयनीय है. लोग पानी खरीद कर पी रहे हैं. लोगों को मजबूरी में पलायन करना पड़ रहा है. मैसूर से 25 किलोमीटर दूर एक गांव में लोग सुबह 3 बजे से लाइन लगाकर टैंकर से पानी लेने के लिए खड़े हो जाते हैं. चित्रदुर्गा में लगातार पांच साल से पड़ रहे सूखे की वजह से यहां पीने के पानी की भी किल्लत हो गई है. तुमकुर के पावागडा में फ्लोराइड युक्त पानी के लिए भी मारामारी मची हुई है. इस ताल्लुका से कोई नदी नहीं गुजरती है इसलिए यहां की स्थिति और भयावह है. यहां के भूजल में भारी मात्रा मेें फ्लोराइड मिला हुआ है. पीने का पानी यहां विलासिता की एक वस्तु बनकर रह गया है. कलबुर्गी जिले की हालत भी कोई अलग नहीं है. यहां 1972 के  बाद सबसे बड़ा सूखा पड़ा है. यहां भी पीने का पानी नहीं है. करवार क्षेत्र के 197 गांवों में पानी की कमी है. पिछले 20 सालों में आए सबसे बड़े सूखे की वजह से उत्तर कन्नड़ जिले के कई गांवों में  लोगों को पीने का पानी मुहैय्या नहीं हो पा रहा है. भूजल स्तर के नीचे जाने और जल स्त्रोत में समुद्र के खारे पानी के मिल जाने की वजह से स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है.
कर्नाटक  के लगभग 600 से अधिक गांवों पर सूखे की भयंकर मार पड़ी है. इन ग्रामीणों के लिए पीने के पानी का एकमात्र साधन पानी का टैंकर रह गया है जो कि सप्ताह में सिर्फ तीन बार उनके गांव आता है. राज्य के तेरह बांधों में पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है. पानी की कमी का आलम यहां ऐसा है कि गांव वालों को अपने यहां होने वाली शादियां तक रोकनी पड़ रही हैं. जाहिर है कि जब पीने का पानी ही नहीं है तो नहाने की बात सोचना भी किसी गुनाह से कम नहीं है. इंसान तो इंसान, जानवरों का भी बुरा हाल है. राज्य के दस हजार से अधिक कुएं सूख चुके  हैं. सूखे का आलम यह है कि मैसूर और बंगलुरु जैसे शहरों के लिए भी केवल जून तक का ही पानी शेष है. इसके  बाद के लिए बारिश पर ही निर्भरता है.


कहां गए हमारे तालाब?
देश में सूखे की वजह से जो जल संकट पैदा हुआ है, उसके लिए केवल मानसून/वर्षा को दोषी ठहराना ठीक नहीं है. क्योंकि बहुत कम ऐसे मौके  आए हैं, जब देश के किसी एक क्षेत्र में लगातार दो वर्षों तक मानसून की बारिश सामान्य से कम हुई हो. देश के जिन क्षेत्रों में जल संकट का इतिहास रहा है, वहां लोगों ने जल प्रबंधन के अपने स्थानीय उपाय निकाले थे. उन उपायों में तालाबों का निर्माण और प्राकृतिक झीलों का संरक्षण शामिल था. तालाबों और झीलों से जहां एक तरफ पीने और खेतों की सिंचाई का पानी मिलता था, वहीं इनमें लंबे समय तक पानी संचित रहने की वजह से आसपास का भूजल स्तर भी ऊंचा रहता था. इन झीलों और तालाबों के आसपास के कुएं बहुत विकट स्थिति में ही सूखते थे. दरअसल, ऐसे जल स्त्रोत हर शहर और हर गांव में होते थे, जहां बरसात के बाद भी पानी जमा रहता था. लेकिन, अब उनमें से बहुत से जल स्त्रोतोंे पर अवैध क़ब्ज़ा जमा लिया गया है, या अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए लोगों ने उन जलाशयों को कूड़ादान बना कर कूड़े से पाट दिया है. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट और कई राज्यों के उच्च न्यायालयों को इसमें हस्तक्षेप तक करना पड़ा. अगस्त 2006 में एक मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि प्राकृतिक जल स्त्रोतों का संरक्षण बुनियादी मौलिक अधिकार, यानि जीवन का अधिकार है, जिसकी व्यवस्था संविधान की धारा 21 में दी गई है. अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा था कि प्राकृतिक जल स्त्रातोंे की न सिर्फ रक्षा होनी चाहिए, बल्कि अगर वे इस्तेमाल में नहीं हैं तो उन्हें बहाल करके  इस्तेमाल योग्य बनाना चाहिए. कोर्ट ने यह भी कहा कि जल स्त्रोतों की रक्षा और बहाली की ज़िम्मेदारी सरकार की है. इस संबंध में जो याचिका दायर की गई थी, उसमें गांवों में हाइवेज से लगे तालाबों और पानी के स्त्रोतों पर ताक़तवर बिल्डर माफियाओं द्वारा अवैध रूप से क़ब्ज़ा किया जाने का मामला उठाया गया था. हालांकि, याचिकाकर्ता ने जिस मामले को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाया था, उसमें उसे राहत नहीं मिली.
सितम्बर 2014 में मद्रास हाईकोर्ट की मदुरई खंडपीठ ने अपने फैसले में सरकार को आदेश दिया था कि सरकार जल स्त्रोतों पर निर्माण कार्य की अनुमति नहीं दे. अगस्त 2014 में ही जल संचय से संबंधित एक जनहित याचिका पर अपने फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने दिल्ली जल बोर्ड को यहां मौजूद प्राचीन बावलियों और तालाबों की दयनीय स्थिति की ओर ध्यान दिलाते हुए यह टिप्पणी की थी कि यदि जल की कमी ऐसे ही होती रही तो जल के लिए युद्ध होने में बहुत समय नहीं है. अप्रैल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कानपुर देहात के अधिकारियों को आदेश दिया कि जिले में जल स्त्रोतों पर हो रहे अतिक्रमण को रोकें. इस तरह के कई और फैसले हैं, जो जल स्त्रोतों की रक्षा और उनकी बहाली की बात करते हैं. अखबारों में छपी रिपोर्टों के मुताबिक देश में कई जगहों पर तालाबों और झीलों की बहाली का काम भी चल रहा है. सरकारें भी पिछले कुछ वर्षों के दौरान इसके  लिए क़दम बढ़ा रही हैं. मिसाल के तौर पर वर्ष 2004 के बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कृषि से जुड़े जल स्त्रोतों की बहाली के लिए आरआरआर (रिपेयर, रेनोवेट एंड रिस्टोर) नामक एक बड़ी योजना शुरू की थी, जिसके  लिए दसवीं योजना में वित्त आवंटन को बढ़ा दिया गया था. उसी तरह, मौजूदा वर्ष के बजट में जल संचय को मनरेगा से जोड़ने की बात की गई है.
लेकिन, पिछले कुछ दशकों से हो रहे अंधाधुंध शहरीकरण ने जल स्त्रोतों को कूड़ेदान में परिवर्तित कर दिया है. सबसे हैरानी वाली बात यह कि जल संपदा पर संसद की स्थायी समिति ने अपनी 2012-13 की रिपोर्ट में कहा कि देश के अधिकतर जल स्त्रोतों पर नगर निगमों और पंचायतों ने अतिक्रमण किया हुआ है. 2013 की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक साल के भीतर उत्तर प्रदेश में लगभाग एक लाख जल स्त्रोत अतिक्रमण का शिकार हुए. अब जब सरकारी संस्थाओं का यह हाल है तो भूमाफिया और दूसरे अतिक्रमणकारियों  का कहना ही क्या.
इसमें कोई शक नहीं है कि पारंपरिक जल स्त्रोतों के अनगिनत लाभ हैं. जहां इससे एक तरफ किसानों को सिंचाई का सस्ता साधन मिल जाता है, वहीं यह पर्यावरण के अनुकूल भी है. इससे जल संचय भी होता है और भूजल भी रिचार्ज होता रहता है. लिहाज़ा, अगर इन स्त्रोतों को पूरी तरह से बहाल कर लिया जाता है तो जल संकट की गंभीरता में ज़रूर कमी आएगी और अगर ऐसा नहीं होता है तो, जैसा कि दिल्ली हाईकोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि जल युद्ध प्रारंभ होने में अधिक समय नहीं है. हालांकि, इन अदालती फैसलों के बाद भी अतिक्रमण का सिलसिला जारी है.

इस बार उम्मीद करें झूम कर बरसेगा मानसून
अल-नीनो एक असामान्य मौसमी पैटर्न है, जो दक्षिण अमेरिका के तट से सटे ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत महासागर के पूर्वी भाग में वायुमंडलीय परिस्थितियों में बदलाव के कारण पैदा होता है. आमतौर पर कुछ वर्षों के अंतराल के बाद पूर्वी प्रशांत महासागर के भूमध्य रेखा (इक्वेटर) क्षेत्र में समुद्र तल का तापमान सामान्य से अधिक हो जाता है जिसकी वजह से दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में असामान्य मौसमी बदलावों के साथ भारतीय उप-महाद्वीप में हर साल आने वाला दक्षिण-पश्चिमी मानसून भी प्रभावित होता है.
अल नीनो की स्थिति उस समय पैदा होती है, जब वाणिज्य हवाएं (ट्रेड विंड्‌स) कमज़ोर पड़ जाती हैं या फिर उल्टी दिशा में चलने लगती हैं. जिसका नतीजा यह होता है कि प्रशांत महासागर के पश्चिमी भाग की गर्म जल धाराएं अपना रुख पूर्व की तरफ मोड़ लेती हैं. यह गर्म जलधारा पूर्वी प्रशांत महासागर के भूमध्यरेखीय क्षेत्र के शीतल जल को विस्थापित कर देती है. जिसकी वजह से इस पूरे क्षेत्र में समुद्र तल का तापमान बढ़ जाता है, और यह कई वायुमंडलीय बदलावों का कारण बनता है. अल-नीनो की वजह से पूरी दुनिया की सामान्य मौसमी परिस्थितियों में बदलाव आ जाता है. इसकी वजह से कम वर्षा क्षेत्रों में अधिक और अधिक वर्षा क्षेत्रों में कम बारिश होने लगती है. आम तौर पर यह देखा गया है कि अल-नीनो वाले वर्षों में मानसून की बारिश कम होती है. एक अध्ययन के मुताबिक 65 प्रतिशत अल-नीनो वाले वर्षों में मानसून की बारिश कम या सामान्य से कम (96 प्रतिशत से कम) रहती है, जबकि 71 प्रतिशत अल-नीनो के बाद के वर्षों में यह बारिश सामान्य या सामान्य से अधिक (96 प्रतिशत से अधिक) होती है. इसलिए भारतीय मौसम विभाग प्रशांत महासागर के मौसमी बदलाव को लेकर सतर्क रहता है. और इस पर हमेशा अपनी नज़रें बनाए रखता है.
पिछले दो वर्षों से भारत में मानसून की बारिश सामान्य से कम हुई है. इन दो वर्षों में भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर का तापमान ऊंचा रहा है. मौसम विभाग के मुताबिक पिछले वर्ष अप्रैल से ही पूर्वी प्रशांत महासागर में तापमान बढ़ने लगा था. जिसने जुलाई आते-आते प्रचंड रूप धारण कर लिया और सितंबर में अपने चरम पर पहुंच गया. हालांकि सितंबर 2015 के बाद अल-नीनो की स्थिति कमज़ोर पड़ने लगी, लेकिन अभी भी वहां समुद्र तल का तापमान सामान्य से अधिक है. लेकिन सितम्बर के बाद से इसमें जो गिरावट आनी शुरू हुई थी वह पैटर्न अब तक जारी है. इसलिए उम्मीद करनी चाहिए प्रशांत महासागर में अल-नीनो की स्थिति नहीं बनेगी और भारत में मानसून की वर्षा सामान्य से अधिक होगी, जिसकी उम्मीद मौसम विभाग ने भी अप्रैल 2016 में अपनी पहली भविष्यवाणी में की है. मौसम विभाग के तकनीकि आकलन से देश के आम लोगों के साथ-साथ सरकारों की उम्मीदें भी जागी हैं कि बारिश आई तो उनका सिरदर्द कम हो. बारिश झूम कर आई तो फिर नेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदार-दलालों की बल्ले-बल्ले होगी, क्योंकि खूब बारिश हुई तो बाढ़ आएगी और बाढ़ उनके लिए फिर से कमाई का जरिया बन कर आएगी. आम आदमी को तो कभी सूखा झेलना है तो कभी बाढ़.


बुंदेलखंड
आधा दर्जन नदियां, दो दर्जन से अधिक बांध, सैकड़ों तालाब, बेशुमार प्राचीन कुंए, ढेर सारे ट्यूबवेल और अनगिनत हैंडपंप! ये सब मिलकर भी बुंदेलखंड की नियति नहीं बदल सके, जिसे राजनीतिक और प्रशासनिक मक्कारी ने स्याह बना दिया. बुंदेलखंड आज अकालग्रस्त है. कभी अपनी चंदेलकालीन जल धरोहरों पर इतराने वाला यह क्षेत्र अब बेहद बेबस और लाचार नज़र आ रहा है. सूखे की चपेट में आकर यहां के विशालकाय बांध जबाब दे चुके हैं और नदियों की गर्म रेत सूरज को आंख दिखा रही है. हैंडपम्पों का गला अब पूरी तरह सूख चुका है और ट्यूबवेल हिचकियां ले रहे हैं. कुएं कूड़ेदान और तालाब खेल के मैदान बन चुके हैं. इन बिगड़े हालातों का ही नतीज़ा है कि कुछ गांवों में बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी और कहीं नौजवान पलायन की राह पर निकल लिए. कहीं सूखे के चलते तयशुदा शादियां रद्द करनी पड़ीं, तो कुछ गांव में पानी कुंआरों की बढ़ती संख्या का सबब बना हुआ है. किसी करिश्मे की दरकार में टकटकी लगाए बुंदेलखंड के गांवों की पथराई उम्रदराज़ आंखें, सूखे खेत और चारागाहों में पड़े मृत मवेशियों के अस्थिपंजर एक ऐसे बुंदेलखंड की शिनाख्त कर रहे हैं जो आज पूरी तरह थक चुका है, टूट चुका है और बिखरने की कगार पर है.
बुंदेलखंड का नाम आते ही जेहन में एक ऐसी तस्वीर उभरने लगती है जो बहुत भयावह भी है और डरावनी भी. उत्तर प्रदेश के दक्षिणी भू-भाग वाला यह हिस्सा कभी अपने विशालकाय सरोवरों और चंदेलकालीन कुओं के लिए जाना जाता था लेकिन अब सूखा और अकाल इसका परिचय करा रहे हैं. यहां हर तरफ बस सूखे का शोर है. वही सूखा जो राजनीतिक दलों के लिए सियासत की ज़मीन और बुन्देलों के लिए जी का जंजाल बन चुका है. प्राचीन हों या फिर मौजूदा, कमोवेश यहां के सारे जलस्रोत विफल हो चुके हैं. बात यदि नदियों की करें तो यमुना, बेतवा, केन, धसान, उर्मिल, शहजाद, जामिनी, रोहनी, उतारी और सजनाम जैसी हर छोटी-बड़ी नदी जल विहीन हो चुकी है. कुछ एक को छोड़कर ज्यादातर नदियों में सिर्फ रेत बची है जबकि कुछ नदियां विलुप्त होने को हैं. महोबा की चन्द्रावल नदी इसका एक बड़ा उदाहरण है. प्रशासनिक मक्कारी और संरक्षण के अभाव में पूरी तरह विलुप्त हो चुकी इस नदी के जीर्णोद्धार पर अब तक करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जा चुके हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि यह नदी वर्षों पहले अस्तित्वविहीन हो चुकी थी. यदि इन आंकड़ों को सच मान लें तो एक बड़ा सवाल यह उठता है कि फिर उसमें बांध बनाने की आवश्यकता ही क्या थी और उस बांध से अभी तक कितना लाभ मिला है. सिंचाई विभाग के रिकॉर्ड इस बात की तस्दीक करते हैं कि सूखे से निपटने के नाम पर यहां सिर्फ क़ाग़जी खानापूर्ति की गई और उसके नाम पर मिले धन को ठिकाने लगाया गया है. आंकड़ों की बाज़ीगरी का शिकार केवल यहां की नदियां ही नहीं हुईं बल्कि बुंदेलखंड में बनाए गए करीब दो दर्जन बांधों के निमार्ण पर भी यही फलसफा अपनाया गया है. आगौसी पम्प कैनाल, पारीक्षा, माटाटीला, मझगवां, उर्मिल, गंगउ, बरयारपुर, लहचूरा, रैघट, पहारी, कबरई, मौदहा, क्योलारी, उतारी, रंगावन, ओहन, गुन्ता, खप्पर, सजनम, पुंज, चन्द्रावल, गोविन्दसागर, शहजाद, जामिनी और अर्जुन सरीखे सभी सूखे पड़े बांध नीति निर्धारकों की चूक और प्रशासनिक नीयत को साफ उजागर कर रहे हैं. अरबों रुपये की लागत डकार जाने के बाद भी ये बांध सूखे क्यों हैं इसका जवाब आज किसी के पास नहीं.
कभी बुंदेलखंड के मुख्य जल स्त्रोत रहे चंदेलकालीन तालाब और कुओं का हश्र तो जग जाहिर है. रखरखाव के अभाव में सिसकियां लेतीं इन प्राचीन धरोहरों का हैंडपंप और ट्यूबवेल तकनीक ने गला ही घोंट दिया है. लोगों का मानना है कि इस नई तकनीक के आने से बुंदेलखंड का दोहरा नुकसान हुआ. इनके वजूद में आने के बाद जहां प्राचीन जल स्रोतों को उपेक्षित कर दिया गया, वहीं इस तकनीक के सहारे हमारा वह भंडारण भी समाप्त हो गया जो भूमिगत था. नतीजे के तौर पर आज कुएं कूड़ेदान और तालाब खेल के मैदान बन चुके हैं. एक गैर सरकारी संस्था द्वारा किए गए सर्वे के मुताबिक बुन्देली धरती की छाती में पग-पग पर खोंसे गए लाखों हैंडपम्पों में से 90 प्रतिशत या तो पानी देने में असमर्थ हैं या फिर उनसे निकलने वाला पानी पीने योग्य नहीं है. इस संस्था की रिपोर्ट बताती है कि यहां कुछ हैंडपम्पों में पानी का टीडीएस 2500 से 3000 तक पहुंच गया है जो कि मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक है. इस क्षेत्र में पानी की किल्लत और अकालग्रस्त हालातों का अंदाजा यहां के सुनसान गांव और सूखे खेतों से लगा सकते हैं. सरकारी आंकड़ों से ठीक विपरीत यहां की सच्चाई स्तब्ध कर देने वाली है. झांसी जनपद के बबीना विकासखंड में शामिल खजराहा खुर्द गांव के बच्चों ने सिर्फ इसलिए स्कूल छोड़ दिया क्योंकि उन्हें पेयजल बंदोबस्त के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था. ग्रामीणों की मानें तो पढ़ाई से ज्यादा पानी जरूरी है. यहां पानी की कीमत के बारे में वे गड्‌ढे और पोखरें भी बयान कर रहे हैं जिनका पानी कीचड़युक्त होने के बाद भी ग्रामीणों के लिए वरदान बना हुआ है. सूखे का प्रतिकूल असर केवल यहां की पेयजल व्यवस्था पर ही नहीं पड़ा, बल्कि इस जल संकट ने बुंदेलखंड में कुंआरों की संख्या भी बढ़ा दी है. हमीरपुर और बांदा जनपद के बहुत सारे गांव आज इस कथन के गवाह बने हैं. गुसियारी हमीरपुर और माखनपुर बांदा सरीखे गांव आज कुआरों से भरे पड़े हैं. सूखे ने बुंदेलखंड से पलायन करने वालों की संख्या भी बढ़ा दी है. आज तीन करोड़ की चौथाई आबादी दिल्ली, मुम्बई, गुजरात, हरियाणा और पंजाब का रुख कर चुकी है. महोबा के सिजहरी, पलका, मामना और बांदा जिले के दर्जन भर गांवों में लटकते ताले इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं. इन गांवों में अब सिर्फ सन्नाटा पसरा है या फिर वे वृद्ध दिखाई देते हैं जो पथराई आंखों में किसी करिश्मे की आस लिए घरों के बाहर दरबान बने बैठे हैं. सूखे ने बुन्देलखंडी जनता को ही हलकान नहीं किया, बल्कि मवेशियों पर भी इसका बहुत गहरा असर डाला है. लाखों की तादात और झुंड की शक्ल में भटकते जानवर तथा चारागाहों में मृत पड़े मवेशियों के अस्थिपंजर इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि बुंदेलखंड सूखे की मार से थक चुका है, टूट चुका है और अब पूरी तरह बिखरने की कगार पर है.
प्रशासन सुस्त समाजसेवी चुस्त
सूखे से निपटने में भले यहां का प्रशासन सुस्त नज़र आ रहा हो पर बुंदेलखंड में सक्रिय समाजसेवी संस्थाएं और समाजसेवा की मंशा वाले लोग इस समस्या से निपटने जैसे मामले में बेहद गंभीर दिख रहे हैं. महोबा जनपद के खरेला गांव में अपना डीजल और समय खर्च कर रामविहोर उर्फ राजू मिश्रा ने पशुओं के पेयजल की जो व्यवस्था की है वह काबिले तारीफ भी है और प्रशासन के गाल पर एक तमाचा भी. बताते हैं कि इस क्षेत्र के ज्यादातर गांवों में मवेशियों के लिए पीने का पानी नहीं बचा है, जिसके  चलते श्री मिश्रा ने अपने एकमात्र कामयाब ट्यूबवेल की मदद से एक बंधी भर दी है जिसमें प्रतिदिन हजारों पशु पानी पी रहे हैं. महोबा जिले में ही आनन्दम नामक संस्था ने जगह-जगह सीमेन्ट की टंकी रखवाकर मवेशियों के पेयजल की व्यवस्था की है.
पानी व्यापार से जुड़े लोगों की बल्ले-बल्ले
बुंदेलखंड में गहराया पेयजल संकट कुछ लोगों के लिए व्यापार बन गया है. पानी उपलब्ध कराने के  नाम पर जबरदस्त जल दोहन किया जा रहा है. पानी को ठंडा कर 50 रुपये प्रति केन की दर से यहां पानी बेचा जा रहा है. जानकार कहते हैं कि समूचे बुंदेलखंड में एक करोड़ रुपये का पानी व्यापार प्रतिमाह हो रहा है. इस कारोबार में कुछ रजिस्टर्ड फर्म हैं तो ज्यादातर इस काम को डग्गामारी के रूप में कर रहे हैं. सरकारी अफसरों और बाबुओं को मुफ्त में पानी पिलाने के कारण इन पर कोई कार्रवाई भी नहीं होती.
विदेशों तक गूंजा बुंदेलखंड का सूखा
प्रदेश और केन्द्र सरकारें बुंदेलखंड की बदहाल होती स्थिति से लाख आंखें चुराए, पर इससे हक़ीकत छिपने वाली नहीं. बुंदेलखंड में किस कदर सूखा है और यह क्षेत्र कितना भूखा है इसकी गूंज सात समंदर पार तक पहुंच चुकी है. बीते 11 अप्रैल को खजुराहो से चलकर यहां आईं नीदरलैंड की दो छात्राओं ने जब यहां की स्थिति देखी तो वे भी सन्न रह गईं. मेट और सायने नामक इन छात्राओं ने महोबा जनपद  के जैतपुर विकास खंड पहुंचकर थुरट गांव का जायजा लिया. उन्होंने ग्रामीणों से बात की और खाद्य सुरक्षा, सूखा राहत, पेयजल, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और आंगनबाड़ी व्यवस्था सहित मनरेगा का सच खंगाला. चौथी दुनिया प्रतिनिधि से हुई बातचीत में उन्होंने स्वीकार किया कि बुंदेलखंड के हालात ठीक नहीं हैं. उन्होंने कहा कि वे अपने स्तर से एक रिपोर्ट तैयार कर इस विभीषिका से भारत सरकार को अवगत कराएंगी.
वाहन धुलाई पर लाखों लीटर पानी स्वाहा
सूखा और पेयजल संकट से निपटने को लेकर बुंदेलखंड का प्रशासनिक तंत्र कितना गंभीर है यह अंदाज़ उन सर्विस स्टेशनों से  लगा सकते हैं जो वाहन धुलाई के नाम पर प्रतिदिन लाखों लीटर पानी बर्बाद कर रहे हैं. बुंदेलखंड के सातों जनपदों में करीब एक हजार से भी ज्यादा धुलाई सेंटर आबाद हैं जो सूखे के संकट को और अधिक तल्ख कर रहे हैं. इनके लिए न कोई नियम हैं और न इन पर कोई पाबंदी. इन पर नकेल कसना तो दूर उल्टे जल संस्थान इनको टैंकरों से जल आपूर्ति कर पैसे बटोर रहा है. बताते हैं कि महोबा जनपद में सूखा प्रभावित क्षेत्रों को टैंकर भेजने पर ना नुकुर करने वाले अधिकारी धुलाई संचालकों के एक फोन पर पानी भेज देते हैं हालांकि यह अलग बात है कि इसके  एवज़ में उनकी मुट्‌ठी गर्म की जाती है.
सूखे की असल वजह नीतियों में चूक
ललितपुर सिंचाई प्रखंड-द्वितीय के अधिशासी अभियंता  के के अग्रवाल स्वीकारते हैं कि बुंदेलखंड के हालात बेहद खराब हो चुके  हैं. इनकी मानें तो इस क्षेत्र में गहरा चुके जल संकट  से उबरने के लिए सरकार को अपनी नीति में अमूल-चूल परिवर्तन करना होगा. श्री अग्रवाल के मुताबिक लोगों को पानी के उपयोग में सावधानी और दूरदर्शी सोच से काम लेना होगा. गेहूं की फसल में 40 से 50 सेमी पानी खर्च होता है जो यहां के जल भंडारण को निगल रहा है, ऐसे में किसानों को खेती के प्रकार बदलने होंगे. बतौर सुझाव वह दलहन, तिलहन और फलों की खेती करने पर बल देते हैं. उनका मत है कि यदि हम टेक्नोलॉजी की मदद लें और वाटर रीचार्जिंग पर फोकस करें तो बुंदेलखंड को सूखा मुक्त किया जा सकता है. उदाहरण के रूप में वह रबर डैम का नाम लेते हैं. और कहते हैं कि बेमतलब साबित हो रहे स्थाई चेक डैमों की जगह रबर डैम वाटर रिचार्ज करने में अधिक कारगर सिद्ध होंगे. इनसे हुई बातचीत में जो अहम बिन्दु उभर कर सामने आया वह था व्यवस्था को लागू करने में हो रही चूक. जिस प्रकार गैर तकनीकी विभागों को जल संचयन, सर्ंवधन और संरक्षण का काम सौंपा जा रहा है उससे धन की बर्बादी तो हो रही है पर सकारात्मक परिणाम न निकले हैं और न कभी निकल पाएंगे. बुंदेलखंड की तस्वीर बदलनी है तो तकनीकी जानकार अधिकारियों का चयन कर उन्हें इस काम पर लगाया जाना आवश्यक हो जाता है.
— इसरार पठान


मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश के आधे से अधिक हिस्से में गर्मी प्रारंभ होते ही पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है. बुंदेलखंड में सर्वाधिक जल संकट है, जबकि शिवपुरी, बालाघाट, बैतूल और मालवा अंचल के अनेक क्षेत्रों में पानी का परिवहन करना पड़ रहा है. लगभग 30 जिलों में पानी का अतिरिक्त प्रावधान करने के लिए सरकार को रिपोर्ट सौंपी गई है. बुंदेलखंड की धरती तो लगातार पिछले पांच सालों से सूखे का सामना कर रही है. उत्तर प्रदेश के साथ ही मध्यप्रदेश की सीमा में आने वाले छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, दतिया, दमोह, सागर जिलों में पानी की समस्या लगातार गहराती जा रही है. छतरपुर नगर में तीन से चार दिनों में एक बार पानी प्रदाय किया जा रहा है. बोर सूख गए हैं. भूमिगत जल स्तर की स्थिति यह है कि कई जगह पांच सौ फुट गहराई पर भी पानी नहीं मिल रहा है. एक हजार फुट तक के बोर खुदवाए जा रहे हैं, उनमें भी मामूली मात्रा में पानी उपलब्ध हो पा रहा है. आलम यह है कि लोग कई-कई मील पैदल चलकर और पहाड़ चढ़कर पानी लाने को मजबूर हैं. छतरपुर के आसपास सबसे बड़ी समस्या पानी के स्त्रोत की है जो कि दूर एक पहाड़ पर स्थित है. लोग मीलों का सफर तय करने के बाद पानी लाने के लिए पहाड़ पर चढ़ते हैं.
टीमकगढ़ जिले में भी लगातार सूखा पड़ रहा है. खेतों की जमीन तो चटक ही रही है साथ ही पीने के लिए लोगों को पानी नहीं मिल पा रहा है. यहां पुलिस की निगरानी में पानी का वितरण किया जा रहा है. नहरों पर प्रशासन को पुलिस का पहरा लगाना पड़ा है, हालांकि कई नहरों में भी पानी खत्म होता जा रहा है. सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बहुत कम हो गई है. उपलब्ध पानी को पीने के लिए एकत्र करने के निर्देश दिए गए हैं. पन्ना और दमोह जिले के शहरों में टैंकरों से पानी वितरित किया जा रहा है. यहां भी भूमिगत जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है. दमोह में चार सौ फुट से नीचे के स्रोतों में ही थोड़ा बहुत पानी बचा है. दतिया जिले के अधिकांश गांवों में लोगों को पानी एक से तीन किलोमीटर दूर से लाना पड़ रहा है. सागर शहर में प्रतिदिन पानी सप्लाई नहीं हो पा रहा है. यहां का तालाब लगातार सूखता जा रहा है. इस वजह से पेयजल सप्लाई दो से तीन दिन में हो रही है.
डेढ़ किमी से ला रहे पानी
बैतूल जिले की भैंसदेही विधानसभा के धायवानी पंचायत के 900 की आबादी वाले टाकी गांव में पानी का भयंकर संकट है. गांव के दोनों हैंडपंप सूख चुके हैं. क्या बच्चे और क्या बूढ़े, सभी सुबह जंगल के बीच से पथरीला रास्ता तय कर पानी का इंतजाम करने निकल जाते हैं. हर घर को बराबर पानी मिलता है. एक समय में एक साथ गांव के हर घर के लोग डेढ़ किमी दूर और 300 मीटर नीचे उतरकर एक नाले में बनी झिरिया (गड्ढे) से पानी भरने पहुंचते हैं. यह झिरिया भी 15 दिन में सूख जाएगी. सरपंच बाबूलाल जावलकर का कहना है कि लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग को पत्र लिखा है कि गांव में पानी परिवहन किया जाए, परंतु अभी तक कोई व्यवस्था नहीं की गई है. गांव का एकमात्र सहारा वही झिरिया है.
ग्वालियर-चंबल संभाग में भी पानी का संकट गहराता जा रहा है. इस क्षेत्र में सर्वाधित जल संकट का शिकार शिवपुरी शहर है. यहां सालभर से पानी का परिवहन किया जा रहा है. गर्मी में तो हाल यह कि वार्ड में टैंकर के आते ही लोग टूट पड़ते हैं. पांच मिनट के भीतर पूरा टैंकर खाली हो जाता है. यहां पानी की जद्दोजहद में लोगों के बीच न केवल झगड़े हो जाते हैं, बल्कि कई बार लाठी-फरसे तक चल चुके हैं. महाकौशल के बालाघाट नगर में पेयजल की समस्या गहरा गई है. वार्डवासियों ने यहां पेयजल की आपूर्ति कराए जाने की मांग की है. यहां पिछले 10 दिनों से पानी की सप्लाई बाधित हो रही है. प्रत्येक वार्ड में एक ही हैंडपंप है, इस वजह से आए दिन पानी को लेकर वार्डवासियों में विवाद होता है.
मालवा-निमाड़ में हालांकि पिछले कुछ वर्षों में नर्मदा नदी पर बांध बन जाने के कारण जल संकट कुछ कम हुआ है लेकिन इसके बाद भी अनेक क्षेत्र गर्मी का मौसम आते ही जल संकट से जूझने लगे हैं. खंडवा शहर की जल वितरण व्यवस्था तीन बड़े जल स्रोतों पर आश्रित होने के बावजूद शहर में एक दिन के अंतराल में पानी का वितरण हो रहा है. नर्मदा जल वितरण के लिए निगम द्वारा कोई कार्ययोजना तैयार नहीं की गई है. निगम ने नर्मदा जल योजना का दायरा तो बढ़ाया लेकिन इससे आमजन को कोई खास राहत नहीं मिली है, क्योंकि नर्मदा जल की लाइन का कनेक्शन सुक्ता की लाइन से ही जोड़ा गया है. एक ही मुख्य पाइप लाइन में सुक्ता से जहां 24 लाख गैलन पानी रोज छोड़ा जा रहा है वहीं चारखेड़ा से 10 एमसीएफटी नर्मदा का पानी आ रहा है. इंदौर में भू-जल स्तर गिरने से अप्रैल में ही जलसंकट गंभीर रूप लेता जा रहा है. बीते तीन साल में यह पहला मौका है जब निगम को अप्रैल में पानी के टैंकर दौड़ाने पड़ रहे हैं. फिलहाल शहर के सौ से ज्यादा क्षेत्रों में जलसंकट ने दस्तक देना शुरू कर दिया है. शहर के 25 प्रतिशत क्षेत्रों में नर्मदा लाइन नहीं है. वहां लोग निजी व सरकारी बोरिंग पर निर्भर हैं. जलस्तर कम होने से बोरिंग सूख रहे हैं या कम पानी दे रहे हैं. वहीं पानी की जरूरत बढ़ रही है. इसे पूरा करने के लिए निगम को सौ से ज्यादा टैंकर भेजने पड़ रहे हैं.प
मध्य प्रदेश को केंद्र सरकार ने दिया 405 करोड़ का राहत पैकेज 
सूखे की समस्या से जूझ रहे मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र को राहत देने के लिए केंद्र सरकार ने बुंदेलखंड पैकेज के तहत 405 करोड़ रुपये प्रदेश को दे दिए. इसे हासिल करने के लिए राज्य सरकार लंबे समय से कोशिश कर रही थी. विभागों पर 1 हजार करोड़ रुपये की उधारी चढ़ गई थी, इसे चुकाने के लिए फरवरी में प्रस्ताव भेजकर राशि मांगी गई थी, जिसके मद्देनजर वित्तीय वर्ष समाप्त होने से तीन दिन पहले राशि जारी कर दी गई. इसमें पेयजल का इंतजाम करने के लिए 70 करोड़ रुपये दिए गए हैं. हालांकि, राज्य योजना आयोग ने 210 करोड़ मांगे थे. आयोग के  अधिकारियों ने बताया कि बुंदेलखंड पैकेज का दूसरा चरण 2016-17 में समाप्त होगा. जल संसाधन, कृषि, सहकारिता, वन, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी सहित अन्य विभागों ने दतिया, छतरपुर, दमोह, पन्ना, टीकमगढ़ और सागर में 1 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा राशि के काम कर  दिए, लेकिन राशि का भुगतान नहीं हुआ. राज्य सरकार ने विभागों को देनदारी  चुकाने  के लिए यह राशि अपने खजाने से दी. इस राशि को हासिल करने के लिए आयोग ने फरवरी में केंद्र को प्रस्ताव भेजा था.
—-सोरिन शर्मा


पारंपरिक उपायों को भूलने की वजह से सूख रहा है राजस्थान : एक फीसद जल से जी रहा मरु प्रदेश
राजस्थान स्थाई रूप से पानी की कमी वाला राज्य है. यह और बात है कि यह राज्य अपने जुझारू तेवरों के चलते इस समस्या से निपटने के पारंपरिक साधनों के सहारे पानी की कमी की समस्या से पार पाता रहा है. हालांकि, बदलते दौर में परंपराओं का तेज़ी से हो रहा लोप राज्य के लिए संकट का संकेत भी है. जहां तक पानी की उपलब्धता की बात है तो चम्बल, टिहरी, माही, रावी, व्यास आदि नदियों के पानी के बंटवारे के मामले अभी हल नहीं हुए हैं. देश में उपलब्ध जल का केवल एक प्रतिशत जल ही राज्य में उपलब्ध है. राज्य में होने वाली औसत वर्षा भी लगभग 57.51 सेमी है. चम्बल ही एक ऐसी नदी है, जो मौसमी नहीं है. इसमें पूरे बरस पानी का प्रवाह रहता है.
10 बरस में 5 से 10 मीटर तक नीचे गया जल स्तर
राजस्थान के बड़े भू-भाग में जल स्तर पिछले 10 वर्षों में 5 से 10 मीटर तक नीचे गया है और कुल 237 ब्लॉकों में अधिकतर ब्लॉक पानी की उपलब्धता की दृष्टि से डार्क और अति दोहन जोन के रूप में घोषित किए जा चुके हैं.
भू-गर्भीय जल का बिना सोचे-समझे और बढ़ता उपयोग चिंता का विषय बन रहा है. पानी की कमी के कारण खेती, काम-धंधे, मजदूरी और रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं, जिनके  कारण गांवों के लोग पलायन कर शहरों में आने लगे हैं. गांव खाली होते जा रहे हैं. राजस्थान में तो हर साल किसी न किसी क्षेत्र में अकाल व सूखे की स्थिति अवश्य पाई जाती है. राजस्थान में पशुओं की संख्या भी अधिक है. लगभग 70 प्रतिशत लोगों का जीवन निर्वाह कृषि व पशुपालन पर निर्भर है.
राजधानी जयपुर का हाल बदहाल
जलस्तर नीचे जाने के कारण पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक हो रही है. राजधानी जयपुर जैसे शहर में भी कई इलाकों में ट्यूबवेल, हैंडपंप, टैंकरों से पानी पहुंचाना पड़ता है. भू-जल दोहन का स्तर लगभग 200 मीटर तक पहुंच गया है. अब तक तो करीब 200 किलोमीटर दूर से आने वाला बीसलपुर बांध का पानी जयपुर की प्यास बुझाता रहा है, लेकिन जिस तरह से जनसंख्या और जलसंकट बढ़ रहा है, उससे कुछ समय पश्चात अकेला बीसलपुर जयपुर की प्यास नहीं बुझा सकेगा.
25 शहर जूझ रहे जल संकट से
जहां तक पूरे राजस्थान की बात है, जल संकट के मामले में राज्य की स्थिति बहुत गंभीर है. राज्य के 25 शहरों में तीन से सात दिन में एक बार पेयजल की आपूर्ति होती है. राजधानी जयपुर के कई इलाकों में भी गर्मी बढ़ने के साथ ही टैंकरों से पानी की आपूर्ति का प्रबंध करना पड़ता है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य के गांवों की क्या स्थिति होगी. आजादी के बाद की सरकारों ने विकास का जो मॉडल चुना, उससे औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा मिला. भू-जल के अंधाधुंध दोहन की प्रवृत्ति तो बढ़ी ही, नदियों और दूसरे जल स्रोतों को भी दूषित करने का सिलसिला शुरू हो गया. परंपरागत पेयजल स्रोतों की उपेक्षा हुई.
भूलने लगे लोग अपना पारंपरिक हुनर
जो राजस्थान अपनी पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों के लिए मशहूर था, वहां के लोग भी अपने इस हुनर को भूलने लगे. नतीजा सामने है. जो तालाब, कुएं, खूबसूरत बावड़ियां और कुंड अपनी शान पर इतराते थे, उन्हें हमने भुतहा बना दिया. हजारों जल स्रोतों को गंदगी से पाट दिया गया. जल स्रोतों के साथ हमने जो दुर्व्यवहार किया, उसके दुष्परिणाम हमें भुगतने पड़ रहे हैं. गांवों में ही नहीं शानदार फ्लैटों में रहने वाले लोग भी पानी के लिए तरस रहे हैं. जल स्रोतों का श्राप असर कर रहा है. लातूर में पैदा हुए विकट हालात के बाद तो हमें संभल जाना चाहिए. जल स्रोतों की सुध लेनी चाहिए. पानी और उसके स्रोतों के संरक्षण, संवर्धन से लेकर उनके प्रबंधन के प्रति गंभीरता बरतने की आवश्यकता है.
राजस्थान में बारिश का हाल
बारिश के मौसम में बरसे पानी को आंकड़ों के नज़रिए से देखें तो पूर्वी राजस्थान में जहां सामान्य वर्षा का आंकड़ा साल 2015 के लिए 574.6 मिमी था, वह मानसून की विदाई तक महज 539.7 मिमी रह गया. कुछ ऐसा ही हाल आमतौर पर पश्चिमी राजस्थान का भी रहता है. हालांकि, पिछले कुछ सालों में पश्चिमी राजस्थान में बारिश का आंकड़ा कुछ सुधरा है, लेकिन वह इतना भी नहीं है कि इससे राजस्थान सूखे की आशंका से निजात पा ले.
अकाल का घर
बाड़मेर जिले के पिछले 100 साल के आंकड़े देखें तो 80 साल सूखे के काले साये में बीते हैं. बाकी बचे 20 सालों में से 10  साल सुकाल और 10 साल 50-50 वाला हिसाब-किताब रहा. यहां पानी की उपलब्धता देखें तो कुल जरूरत का 10 प्रतिशत भी पूरा नहीं हो पाता, बाकी 90 प्रतिशत की पूर्ति के लिए निजी टांके  से 40 प्रतिशत, सरकारी टैंकरों से 10 प्रतिशत और खारे पानी से 20 प्रतिशत तक की भरपाई होती है. फिर भी 30 प्रतिशत का भारी अंतर रहता है, जिसका कोई स्त्रोत नहीं है. निजी टांके  से जिस 40 प्रतिशत पानी की भरपाई होती है, वह भी बरसात के भरोसे हैं. अगर बूंदे न बरसीं तो निजी टांके  की भरपाई का प्रतिशत 40 से लुढ़ककर 5 प्रतिशत तक आ जाता है. 
—- सुनीता सिंह


झारखंड
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून रहीम की उक्त उक्ति झारखंड में चरितार्थ होती दिखाई दे रही है. उत्पन्न गंभीर जल संकट को देखते हुए राज्य सरकार को पूरे राज्य में आपदा घोषित करनी पड़ी. पूरे राज्य में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है तालाब, कुएं और राज्य के लगभग सभी हैंडपम्प सूख चुके हैं. एक बाल्टी पानी के लिए लोगों को पूरी रात जागना पड़ रहा है, स्थिति इतनी विकराल हो गई है कि राज्य सरकार को पेयजल एवं सिंचाई विभाग से जुड़े सभी अधिकारी एवं कर्मचारियों की छुट्‌टी रद्द करनी पड़ी. शहर में तो कभी-कभी पानी मिल भी जाता है, पर ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति अत्यंत भयावह है. स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकारी स्कूलों में मिड-डे-मिल को पानी के अभाव के कारण बंद करना पड़ा. ग्रामीण क्षेत्रों से लोेग पलायन करने लगे हैं, पंद्रह सौ फीट बोरिंग करने के बाद भी पानी नहीं मिल पा रहा है. खेतों की स्थिति तो और भयावह है पानी के अभाव में खेतों में दरारें पड़ गईं हैं. पूरा राज्य सूखाग्रस्त घोषित हो गया है.
राज्य में लोगों को पानी की कमी की वजह से तड़पता देख झारखंड उच्च न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई और कहा कि लोगों को पेयजल मुहैया कराने के लिए अगर सेना की भी मदद लेनी पड़े तो सरकार ले. राज्य में उच्च न्यायालय की फटकार एवं गंभीर जल संकट उत्पन्न होने के बाद राज्य सरकार की नींद खुली. सरकार ने खराब पड़े हैंडपम्पों को ठीक कराने के साथ ही वर्षा के जल संचयन को लेकर एक लाख छोटे तालाब खोदने के निर्देश दिए हैं. मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कहा कि जलसंकट से निबटने के लिए सख्त निर्देश अधिकारियों को दिया गया है. सरकार अपने टैंकरों के साथ ही किराए पर टैंकर लेकर आम लोगों को पानी मुहैया करा रही है. बड़े कुओं के साथ ही एक लाख छोटे तालाब पूरे राज्य में बनाए जा रहे हैं. किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए अनुदान भी दिए जा रहे हैं. इससे भविष्य में बहुत हद तक जलसंकट से उबरा जा सकता है.
सबसे गंभीर स्थिति पलामू प्रमंडल के साथ ही पठारी क्षेत्रों की है जहां पानी है ही नहीं. इन क्षेत्रों में लगातार सूखा भी पड़ता रहा है. लोगों को स्वच्छ पानी देने का नारा इन क्षेत्रों में महज नारा ही बनकर रह गया है. पीने का पानी नहीं मिलने की वजह से लोग गड्‌ढे से कीचड़ को छानकर पानी पीने को मजबूर हैं. यहां डीप बोरिंग भी फेल है. चुल्लू भर पानी के लिए लोग आपस में लड़ रहे हैं. नलों पर बंदूकों के साथ पहरेदारी हो रही है. बच्चों का स्कूल जाना मुश्किल हो गया है. लोग पानी के अभाव में इन क्षेत्रों से दूसरे क्षेत्रों में पलायन करने लगे हैं.
जलसंकट का असर राज्य में पढ़ने वाले बच्चों पर भी पड़ रहा है. सरकारी स्कूलों में चलने वाली मिड-डे-मिल योजना पानी के अभाव के कारण बंद हो गई है. अगर किसी स्कूल में यह योजना चल भी रही है, तो वहां पढ़ने वाले बच्चों से ही दो-दो किलोमीटर से पानी मंगाकर उनके लिए खाना बनाया जा रहा है. पानी के अभाव में सरकारी स्कूलों मेें बच्चों की उपस्थिति भी कम हो गई है.
झारखंड के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् नीतीश प्रियदर्शी का कहना है कि पृथ्वी का दो तिहाई भाग जल से घिरा है. फिर भी शुद्ध पानी की मात्रा सीमित है, पानी का दुरुपयोग न हो इस पर गंभीरता से विचार कर ठोस रास्ता निकालना होगा. नहीं तो आने वाले वर्षों मेें रांची ही नहीं पूरे राज्य में गंभीर जलसंकट उत्पन्न होगा और लोग पानी के लिए पलायन करेंगे. राज्य में इस संकट के लिए राज्य सरकार ने कभी ठोस प्रयास नहीं किए. योजनाएं कागज पर तो बनी पर धरातल पर नहीं उतर सकीं. रुपयों का केवल बंदरबाट हुआ. यह जलसकंट सरकार की गलत नीतियों का ही परिणाम है, सरकार ने पानी की तरह पैसा बहाया, लेकिन बिना किसी योजना के. राज्य सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में दस साल में पेयजल आपूर्ति के लिए लगभग बीस हजार करोड़ और शहरी क्षेत्रों में 6 हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए, लेकिन जल संकट कम होने की जगह बढ़ता ही गया.
जलापूर्ति के लिए योजना ही गलत बनी और जो पाईपलाइन बिछाई गई वह बेकार साबित हो रही है. अधिकारियों ने केवल जमीन का पानी निकालने का ही काम किया, रिचार्जजिंग पर कोई ध्यान नहीं दिया. कई इलाकों में तो भू-जल स्तर 800 से 1500 फीट नीचे तक पहुंच गया है. यही वजह है कि जल निदेशालय को यह चेतावनी देनी पड़ी कि अगर इसी तरह पानी का दोहन होता रहा, तो दस साल में जमीन के भीतर का पानी खत्म हो जाएगा.
रांची एवं अन्य क्षेत्रों में जलसंकट के लिए अधिकारियों के साथ भूमाफिया भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं केवल रांची में 40 तालाब थे, अब केवल शेष 22 बच गए हैं. शेष बड़े तालाबों को भूमाफियाओं ने अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर बेच डाला और अब तालाबों की जगह आलीशान मकान बन गए हैं. इस शहर से चार बड़ी नदियां गुजरती थीं, पर नदियों का अतिक्रमण कर उनको अब नाला बना दिया गया है. झारखंड में राज्य गठन के समय 75 हजार कुएं थे जो घटकर अब दस हजार रह गए हैं और अब वह भी सूख गए हैं. राज्य में सिंचाई की स्थिति इतनी भयावह है कि पानी के अभाव में खेत सूख गए हैं. पिछली बार कम वर्षा की वजह से अनाज की पैदावर मात्र तीस प्रतिशत हुई थी. इस बार भी उम्मीद कम ही दिखाई पड़ रही है. सिंचाई की सुविधा के लिए राज्य सरकार ने दो हजार से भी अधिक चेकडैम बनाए पर इसमें पानी ही नहीं है. वह बच्चों के लिए खेल का मैदान बन गया है. अगर अब भी हम नहीं चेते और सरकार वर्षा जल संरक्षण के लिए ठोस नीति नहीं बनाती है और उसका पालन कड़ाई से नहीं कराती है, तो आने वाले दिनों मे पानी के लिए ही खून-खराबा होगा, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है.
राज्य में जलसंकट आपदा घोषित-चौधरी
झारखंड के पेयजल एवं स्वच्छता विभाग के मंत्री चंद्रप्रकाश चौधरी का कहना है कि जल संकट से निबटने के लिए सरकार पूरी तरह तैयार है. जल संकट को देखते हुए विभाग ने इसे आपदा घोषित किया है और सारे कर्मचारी एवं अधिकारियों के अवकाश को रद्द कर दिया गया है. राज्य में खराब पड़े हैंडपम्पों के मरम्मत का निर्देश दिया गया है, ताकि लोगों को पानी मुहैय्या कराया जा सके. विभाग के टैंकरों के साथ ही किराए पर टैंकर लेकर लोगों को पेयजल मुहैय्या कराया जा रहा है. राज्य में गंभीर जल संकट है.  इससे उबरने की तैयारी के संबंध में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि राज्य में पिछले वर्ष वर्षा बहुत ही कम हुई थी जिसकी वजह से ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है. मंत्री ने कहा कि पूरा राज्य गंभीर जलसंकट से गुजर रहा है, लेकिन पलामू प्रमंडल एवं पठारी क्षेत्रों की स्थिति अत्यंत भयावह है. उन्होंने कहा कि राज्य में चालीस हजार हैंडपम्प खराब पड़े हैं. हम इसे गर्मी में ही ठीक कर देना चाहते हैं, नए हैंडपम्प न लगाने पड़ें. इस कार्य के लिए अभियंताओं की टीम को लगाया गया है. उन्होंने कहा कि राज्य में हो रहे डीप बोरिंग भी गंभीर समस्या पैदा कर रही है, उससे काफी नुकसान हो रहा है. डीप बोरिंग पर रोक लगाई है. इसे रोकने के लिए स्वयंसेवी संगठनों एवं आमजनों को भी आगे आना होगा.
—- प्रशान्त शरण


बिहार : जल बिना मुश्किल में जीवन
पिछले दो सालों से सूखे की मार झेल रहे बिहार को इस साल भी राहत नहीं मिली और सूबे के लगभग आधे से अधिक जिले पानी के बिना बिलबिला रहे हैं. किसानों को खेतों की सिंचाई के लिए भी पानी नहीं मिल रहा है और बर्बाद होती फसलों को देखकर उनकी आंखों से खून के आंसू निकल रहे हैं. मार्च के महीने में ही जलस्तर दो फीट नीचे चला गया और
मई-जून महीने में इसके पांच फीट नीचे जाने की आशंका है. इसका नतीजा यह है कि पानी के बिना अब लोग बिलबिलाने लगे हैं. किसानों के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती हैं. हालात की नज़ाकत को देखते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अधिकारियों को साफ निर्देश दिए हैं कि सूखा व जल संकट से निपटने के लिए मिशन मोड पर काम किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि लोगों को परेशानी न हो. सूखे और जल संकट की भयावहता पर नज़र डालें तो लगता है कि शाहावाद का इलाका इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है.
शाहाबाद की धरती इस समय पानी के सवाल पर बेपानी हुए जा रही है. कहीं पीने के पानी से जुड़े सवाल, तो कहीं खेतों के पानी से जुड़े सवाल आम लोगों के हलक सुखा रहै हैं. इस भूखंड के चार में से दो जिले तपती हुई कैमूर पहाड़ी से बरस रहे आग के गोले और नीचे गए जल स्तर के बीच झुलस-झुलसकर स्याह हुए हैं, तो दो जिले खेतों के पानी के सवाल पर अपनी रंगत उड़ाए बैठे हैं. कैमूर और रोहतास में कैमूर पहाड़ी का प्रभाव है तो गंगा के किनारे स्थित भोजपुर के साथ बक्सर का संपूर्ण दियरांचल खेती के लिए बूंद बूंद पानी को तरस रहा है. यहां का आर्सेनिक युक्त पानी पहले से ही आम लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी समस्या है. ऊपर से खेतों में खड़ी रबी(गरमा) की फसल को अब पानी नहीं मिलेगा. इसकी संभावना प्रबल हो उठी है. शाहाबाद प्रक्षेत्र के कैमूरांचल और दियारांचल प्रक्षेत्रों की समस्या एक ही है. कहीं पीने का पानी तो कहीं खेतों का पानी समस्या बना हुआ है. दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कहीं ना कहीं इस समस्या का सीधा प्रभाव आम जन और जीव जंतुओं पर पड़ता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009 में कैमूर की पहाड़ी पर भीषण गर्मी और पानी की कमी की वजह से पांच हजार पालतू पशुओं की जान गई थी. इसके बाद भले ही इतने बड़े पैमाने पर पालतू पशुओं या वन्य प्राणियों की भीषण गर्मी और पेयजल के अभाव में जान नहीं गई लेकिन इनका पलायन जरूर हुआ है. इन पशुओं का पलायन समीप के झारखंड और उत्तर प्रदेश राज्यों में हुआ था जो कि अब भी जारी है. कैमूर पहाड़ी के ऊपरी हिस्से से लेकर तलहटी के बीच 139 गांव बसे हैं. जिनका जीवन पहाड़ी झरनों पर आधारित है. ये झरने पिछले कई वर्षोें से मार्च महीने के आते-आते सूख जाते हैं. जिसका सीधा असर यहां पानी की उपलब्धता पर पड़ता है. इन झरनों से निकला पानी रोहतास और कैमूर के यदुनाथपुर से लेकर अधौरा तक के वन्य प्राणियों, पालतू पशुओं और आम लोगों के लिए सदैव जीवनदायी रहा है. हाल के दशकों में इन झरनों से पानी नहीं निकलना कैमूरांचल के लिए बुरे संकेत हैं.
इस बार भी यही हाल है. सिर्फ दुर्गावती नदी ही एकमात्र जल स्त्रोत है. जो अभी लोगों के लिए पानी उपलब्ध कराती है. इस वर्ष इस क्षेत्र में लगभग सत्रह हजार हेक्टेयर ज़मीन पर लगी रबी की फसल पानी के आभाव में पूरी तरह बर्बाद हो गई है. प्रति हेक्टेयर अनाज की उपज दो क्ंविटल कम हुई है. उधर दियरांचल की बात करें तो भोजपुर और बक्सर जिले में गंगा के झाड़न से लेकर ऊपरी हिस्से तक आर्सेनिक युक्त पानी पीकर हर साल हजारों लोग अस्तपालों तक पहुंच रहे हैं. यहां का जलस्तर औसतन चार मीटर नीचे खिसक गया है. जिसके कारण पहले से लगाए गए चापाकल और नलके जबाव दे चुके हैं. अलबत्ता गंगा में मिलने वाली कुछ सहायक नदियों का जल किसानों के लिए डूबते को तिनके का सहारा मिलने जैसा है. परंतु यह लाभ सिर्फ बीस प्रतिशत लोगों को ही मिल पाता है. एक तरफ सोन नहरों के अंतिम छोर पर पर बसे इस क्षेत्र को नहरों का लाभ तो मिलता नहीं है वहीं दूसरी तरफ गंगा की धारा के लगातार बदलने और खिसकने की वजह से जलस्तर में काफी गिरावट आई है. हाल ही में सासाराम में आयोजित जल सम्मेलन में पहुंचे देश के पानी विशेषज्ञ राजेेंद्र सिंह ने कहा था कि यदि शाहाबाद की जल समस्या का समाधान समय से नहीं हुआ तो यहां की कृषि को बचाना तो दूर की बात है विषम भागौलिक परिस्थितियों वाले इस क्षेत्र में सबको पानी दे पाना भी कठिन हो जाएगा. उन्होंने कैमूर पहाड़ी पर बांध बनाने और दियरांचल में छोटी-छोटी नदियों पर छोटे-छोटे बांध बनाने का सुझाव दिया था. पानी से जुड़े आंदोलन की अगुआई कर रहे समाजवादी नेता राम बिहारी सिंह ने बताया कि शाहाबाद में पानी बहुत ही बड़ी समस्या के रूप में उभरेगा. उन्होंने कैमूर पहाड़ी की तलहटी में कदवन परियोजना, इंद्रपुरी जलाशय परियोजना, पहाड़ी पर महादेवा परियोजना, मैदानी भाग में मलई बैराज परियोजना और चौसा लिफ्ट कैनाल परियोजना को पूरा करने के लिए केंद्र व राज्य सरकार से मांग की. गौरतलब हो कि पूरे शाहाबाद क्षेत्र में अधूरी पड़ी छह सिंचाई परियोजनाओं में से 40 वर्षो में सिर्फ एक (दुर्गावती जलाशय परियोजना) पूरी हो पाई है. बाकी पांच परियोजनाओं में अभी भी अस्सी प्रतिशत से ज्यादा काम होना बाकी है. अब देखना यह है कि वर्ष 2016 में पड़ने वाली भीषण गर्मी के प्रकोप का सामना यहां के चारों जिला प्रशासन कैसे करते हैं.
कैमूर पहाड़ी पर बसे तीस हजार से ज्यादा वनवासियों के सामने अभी से ही भीषण पेयजल संकट खड़ा हो गया है. निचले हिस्से के चेनारी, सासाराम, शिवसागर और तिलौथू प्रखंडो में लगभग दो लाख लोग पेयजल के लिए सुबह से ही इंतजाम में लग जाते हैं. कैमूर जिले में पूरा अधौरा प्रखंड, चांद, चैनपुर, भगवानपुर और रामपुर के आधे हिस्से घोर पेयजल संकट में हैं. बक्सर का इटाढ़ी, सेमरी, नया भोजपुर, आरा का बड़हरा, शाहपुर सहित आधा दर्जन प्रखंड दियरांचल में पेयजल संकट झेल रहे हैं. बीच का हिस्सा सिंचाई छाया क्षेत्र बना हुआ है. जहां के खेतों को पिछले कई वर्षों से पानी नहीं मिला है.
इसी तरह इस साल मगध प्रमंडल में भी पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है. गौरतलब है कि मगध प्रमंडल के पांच जिलों की अधिकांश खेती वर्षा के पानी पर निर्भर रहती है. आज भी कमोबेश यही स्थिति है. पिछले दो सालों से बेहद कम वर्षा होने की वजह से यहां के किसानों को भारी निराशा हुई. इस साल अब तक जो हालात हैं उससे किसानों के दमफूल रहे हैं. नवादा, जहानाबाद और गया जिले के अधिकतर किसान पूरी तरह अपने खेतों की सिंचाई के लिए वर्षा के पानी पर निर्भर हैं. इन क्षेत्रों में कुछ सिंचाई परियोजनाएं या पुरानी नहरें हैं भी तो वे अपना अस्तित्व को खो चुकी हैं. इनके जीर्णोद्धार के लिए कोई योजना सरकार की ओर से नहीं चलाई जा रही है. जहानाबाद में खेतों की सिंचाई के लिए कोई नहर, तालाब या बड़ा आहर नहीं है. जिसके कारण यहां के किसानों को अपनी फसल के लिए वर्षा के जल पर ही निर्भर रहना पड़ता है.
सूबे के आपदा प्रबंधन मंत्री चंद्रशेखर कहते हैं कि सूखे पर सरकार की पूरी नज़र है और किसी को किसी भी तरह की परेशानी नहीं होने नहीं दी जाएगी. सरकार हर संभव प्रयास कर रही है. उन्होंने कहा कि इस बार अच्छे मानसून के आसार हैं इसलिए घबराने की जरूरत नहीं है. लेकिन भाजपा नेता सुशील मोदी कहते हैं कि सरकार को किसानों और आम लोगों की कोई चिंता नहीं है. आधे से अधिक सूबा सूखे की चपेट में है और सरकार सोई हुई है. लगता है वह भगवान भरोसे है और बारिश का इंतजार कर रही है लेकिन तब तक तो बहुत कुछ बर्बाद हो जाएगा. उधर लालू प्रसाद ने भी जल संकट पर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि राजद कार्यकर्ताओं को इस बारे में पार्टी को जल्द से जल्द अवगत कराना चाहिए ताकि उस फीडबैक के आधार पर सरकार को समस्या के समाधान के लिए कहा जा सके. साफ है कि सूखे के नाम पर राज्य में राजनीति हो रही है क्योंकि जिसकी सूबे में सरकार है वह कार्यकर्ताओं से फीडबैक मांग रहा है. बहरहाल इस राजनीति में सूबे की जनता पिस रही है और आधे बिहार में पानी के लिए हाहाकार मचा है.
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सोमवार, 4 जनवरी 2016

ऐसे नहीं रुकेंगी : किसानों की आत्महत्याएं

पिछले
 पिछले पांच वर्षों के दौरान महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या के आंकड़े स्वयं में खतरनाक संकेत हैं. सर्वविदित है कि महाराष्ट्र नव-उदारवादी आर्थिक नीति की सफलता का उदाहरण रहा है. यहां दुनिया भर की कंपनियां हैं, विदेशी पूंजी का निवेश है, आईटी सेक्टर है. व्यापार करने और उसे ऊंचाइयों तक ले जाने की सारी मूलभूत सुविधाएं तथा इंफ्रास्ट्रचर मौजूद है. बंदरगाह और एयरपोर्ट हैं. महाराष्ट्र तो देश के उन राज्यों में से है, जिनका दूसरे ग़रीब राज्य उदाहरण देते हैं और अनुकरण करने की कोशिश करते हैं. नव-उदारवादी विकास मॉडल में महाराष्ट्र जिस ऊंचाई को हासिल कर चुका है, वहां तक पहुंचने में बिहार, पश्चिम बंगाल, असम एवं ओडिशा जैसे राज्यों को अभी 25-30 वर्ष लगेंगे. फिर भी महाराष्ट्र किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में पहले स्थान पर है. हालात से तंग आकर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है. यह स़िर्फ एक वर्ष की बात नहीं है. महाराष्ट्र की यह शर्मनाक तस्वीर लगातार विकास के नव-उदारवादी मॉडल को आईना दिखा रही है.
1देश के किसान आज आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं. वर्ष 1995 से लेकर अब तक देश में तीन लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. एक दलील दी जाती है कि देश में विकास न होने की वजह से ऐसी स्थिति पैदा हुई है. अगर विकास होगा, तो कई सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी और किसानों द्वारा आत्महत्या भी बंद हो जाएगी. सुनने में तो ये सारी बातें अच्छी और तार्किक लगती हैं, लेकिन सच्चाई इसके ठीक विपरीत है. भारत में विकास की जो धारा बह रही है, उसकी शुरुआत वर्ष 1991 में हुई थी. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि 1990 के दशक से ही देश में कृषि क्षेत्र की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. उत्पादन में भारी गिरावट आई है और कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है. लोग खेती छोड़ने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि उसमें अब मुना़फे की गुंजाइश नहीं रही. हालत यह है कि उसके बेहतर होने की उम्मीद भी अब खत्म होती जा रही है. यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि देश में विकास की जो नीति है, वह नव-उदारवाद की पीठ पर सवार है. नव-उदारवादी आर्थिक नीति पूंजी आधारित व्यवस्था है, जिसमें कम पूंजी वालों, ग़रीबों एवं मज़दूरों के लिए कोई स्थान नहीं है. जबसे नव-उदारवादी नीतियों ने भारत में अपनी जड़ें जमाई हैं, तबसे ग़रीबों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याएं विकराल होती जा रही हैं. इन्हीं नीतियों की वजह से किसान आज आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं. उनके पास अपनी कोई पूंजी नहीं है और सरकार कृषि क्षेत्र में निवेश नहीं करती. देश के किसान सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा एवं चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. किसानों के उत्पादों को बाज़ार से जोड़ने की कोई व्यवस्था नहीं है. वे अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं. कर्ज में डूबे किसान अपनी इस लड़ाई में जब भी किसी प्राकृतिक या मानवीय घटना अथवा बाज़ार के शिकार होते हैं, तो आत्महत्या करने के अलावा उनके पास और कोई चारा शेष नहीं बचता.
सवाल यह है कि नव-उदारवादी व्यवस्था में अगर कोई राज्य विकसित हो जाता है, तो क्या वहां की सारी आर्थिक समस्याएं खत्म हो जाएंगी? क्या दुनिया भर से विदेशी निवेश आने से रा़ेजगार के अवसर उपलब्ध हो सकेंगे? क्या मूलभूत सुविधाओं से लैस राज्यों में ग़रीबों की विभिन्न समस्याएं खत्म हो जाएंगी? क्या सभी के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा एवं चिकित्सा जैसी सुविधाएं सुनिश्चित हो सकेंगी? क्या विकास का यह मॉडल सभी वर्गों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराएगा या फिर समाज में ग़रीबों और अमीरों के बीच का फासला बढ़ता चला जाएगा? क्या शहर और गांव के बीच मौजूद दूरियां कम होंगी या फिर बढ़ जाएंगी? इन सारे गंभीर सवालों पर देश में ज़ोरदार बहस होनी चाहिए. फिलहाल इस रिपोर्ट में हम बात करेंगे, देश के एक ऐसे विकसित राज्य की, जहां 24 घंटे बिजली है, चा़ैडी सड़कें एवं एक्सप्रेस-वे हैं, विदेशी निवेश है, आईटी सेक्टर का बोलबाला है, बंदरगाह एवं एयरपोर्ट हैं, दुनिया भर की कंपनियों का जमावड़ा है और नव-उदारवादी विकास मॉडल के मुताबिक वह एक आदर्श राज्य है, लेकिन वहां के किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं. जी हां, हम महाराष्ट्र की बात कर रहे हैं, जो देश के सबसे विकसित राज्यों में से एक है, लेकिन वहां के किसानों द्वारा आत्महत्या के नए आंकड़े न स़िर्फ सोचने के लिए मजबूर करते हैं, बल्कि संदेह भी पैदा करते हैं कि विकास के जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं, क्या वह सही है?
महाराष्ट्र में इस वर्ष सितंबर महीने तक 2,016 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. पिछले पांच वर्षों से महाराष्ट्र किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में सबसे आगे रहा है. हैरानी की बात यह है कि महाराष्ट्र देश के विकसित राज्यों में है, लेकिन वहां की राज्य सरकार किसानों को राहत पहुंचाने में विफल रही है. ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र विधानसभा और गत लोकसभा चुनाव के दौरान किसानों की समस्याओं पर ज़ोरदार बहस हुई थी, लेकिन भाजपा की सरकार बनने के बाद किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले घटने के बजाय बढ़ गए. सरकार किसानों की समस्याएं समझने और उनका सही निदान निकालने में  इसलिए विफल रहती है, क्योंकि जब भी कोई आपदा आती है, तो सरकार कोई पैकेज घोषित कर या किसी पुरानी योजना को नया नाम देकर उसे लागू कर देती है. अ़खबारों में विज्ञापन देकर उसे प्रचारित-प्रसारित कर देती है और यह समझ बैठती है कि उसने समस्याओं का हल निकाल लिया. महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने किसानों द्वारा आत्महत्या को लेकर एक स्पेशल मिशन की घोषणा की थी, लेकिन उसके बावजूद महाराष्ट्र में रिकॉर्ड तोड़ आत्महत्याएं हुईं. इसका मतलब यही है कि महाराष्ट्र की वर्तमान भाजपा सरकार ने भी किसानों की आत्महत्या रोकने के नाम पर महज खानापूर्ति और बयानबाजी की. क्या सरकारों को वार्षिक रिपोर्ट आने का इंतज़ार रहता है या फिर यह देश के सरकारी तंत्र का अमानवीय चरित्र है कि उसका ध्यान लोगों की मौत के बाद ही समस्याओं पर जाता है.
चौथी दुनिया ने पहले भी महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के बारे में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी. महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या की मूल वजह सूखा, फसल की बर्बादी, उत्पाद की क़ीमत न मिलना या कम मिलना है. ये ऐसे कारण हैं, जिनके लिए सीधे तौर पर सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. किसानों को सिंचाई के लिए पानी मुहैय्या कराना, फसलों का बीमा कराना और उन्हें उनके उत्पाद की उचित क़ीमत दिलाना सरकार का काम है. अगर सरकार यह साधारण-सा काम भी नहीं कर सकती, तो फिर उसके होने का औचित्य क्या है? अगर सरकार किसानों को आत्महत्या करने से रोकना चाहती है, तो उसे इन तीन बिंदुओं पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा. महाराष्ट्र में पानी की कमी नहीं है, बल्कि समस्या उसके वितरण को लेकर है. महाराष्ट्र का पश्चिमी इलाका वाटर सरप्लस एरिया है, लेकिन मराठवाड़ा और विदर्भ का इलाका अक्सर सूखे से जूझता है. मतलब सा़फ है कि कमी सरकार में है, जो अब तक नहरों और बांधों का वह नेटवर्क तैयार नहीं कर सकी, जिसके ज़रिये वाटर सरप्लस एरिया का पानी सूखे इलाकों की तऱफ भेजा जा सके. देश में एक दूसरा उदाहरण भी है. वह यह कि हिमाचल और पंजाब का पानी राजस्थान के रेगिस्तान को आबाद कर सकता है, लेकिन महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य में पानी की उपलब्धता रहते हुए भी कई इलाके सूखे की मार झेलते हैं. महाराष्ट्र के कई इलाकों में सूखे का आलम यह है कि इंसान तो क्या, जानवरों को भी इसकी मार झेलनी पड़ती है. किसानों द्वारा आत्महत्या का दूसरा सबसे बड़ा कारण फसलों की बर्बादी या कम पैदावार होना है. इस समस्या से निपटने के लिए सरकार को आगे आना होगा. उसे फसलों की बीमा नीति कारगर तरीके से लागू करनी होगी. या फिर कोई ऐसी नीति बनाई जाए कि अगर किसी कारण से उत्पादन में गिरावट आती है, तो उसी अनुपात में किसानों को राहत राशि दी जाएगी. वैसे ऐसी अनेक योजनाएं देश में मौजूद हैं, लेकिन उन्हें लागू करने वाला पूरा तंत्र अमानवीय हो चुका है. किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले सरकारों और अधिकारियों के लिए महज आंकड़े बनकर रह गए हैं.
पिछले पांच वर्षों के दौरान महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या के आंकड़े स्वयं में खतरनाक संकेत हैं. सर्वविदित है कि महाराष्ट्र नव-उदारवादी आर्थिक नीति की सफलता का उदाहरण रहा है. यहां दुनिया भर की कंपनियां हैं, विदेशी पूंजी का निवेश है, आईटी सेक्टर है. व्यापार करने और उसे ऊंचाइयों तक ले जाने की सारी मूलभूत सुविधाएं तथा इंफ्रास्ट्रचर मौजूद है. बंदरगाह और एयरपोर्ट हैं. महाराष्ट्र तो देश के उन राज्यों में से है, जिनका दूसरे ग़रीब राज्य उदाहरण देते हैं और अनुकरण करने की कोशिश करते हैं. नव-उदारवादी विकास मॉडल में महाराष्ट्र जिस ऊंचाई को हासिल कर चुका है, वहां तक पहुंचने में बिहार, पश्चिम बंगाल, असम एवं ओडिशा जैसे राज्यों को अभी 25-30 वर्ष लगेंगे. फिर भी महाराष्ट्र किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में पहले स्थान पर है. हालात से तंग आकर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है. यह स़िर्फ एक वर्ष की बात नहीं है. महाराष्ट्र की यह शर्मनाक तस्वीर लगातार विकास के नव-उदारवादी मॉडल को आईना दिखा रही है. वर्ष 2009 में महाराष्ट्र में 1,600 किसानों ने आत्महत्या की, यह संख्या वर्ष 2010 में बढ़कर 1,740 हो गई. वर्ष 2011, 2012 और 2013 में किसानों पर भगवान इंद्र की कृपा रही. खूब बारिश हुई, नतीजतन आत्महत्या के मामलों में कमी आई. वर्ष 2011 में 1,495 और वर्ष 2012 में 1,467 किसानों ने आत्महत्या की. आत्महत्या के सबसे कम यानी 1,298 मामले वर्ष 2013 में दर्ज किए गए.
इन तमाम आंकड़ों को देखकर सरकार और अधिकारी खुश हो सकते हैं, अपनी पीठ थपथपा सकते हैं, क्योंकि उनके लिए इंसानों की मौत के मामले महज आंकड़े बनकर रह गए हैं. मानवीय दृष्टि से किसी भी कल्याणकारी राज्य के लिए यह एक शर्मनाक स्थिति है कि एक सूबे में एक वर्ष में 1,298 किसान आत्महत्या कर लें. मतलब यह कि वर्ष 2013 में हर सातवें घंटे में महाराष्ट्र के किसी न किसी किसान ने हालात से तंग आकर आत्महत्या कर ली. यह हाल है देश के एक विकसित राज्य का. ऐसे में ग़रीब और पिछड़े राज्यों की दशा क्या होगी, यह सोचकर ही सिहरन पैदा हो जाती है. लेकिन, देश चलाने वालों के कानों पर जूं फिर भी नहीं रेंग रही है. नतीजा सामने है, महाराष्ट्र में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या वर्ष 2014 में बढ़कर 1,949 हो गई. राज्य में नई सरकार आई, तो लगा कि कुछ मूलभूत परिवर्तन होंगे, किसानों की समस्याओं पर सरकार का ध्यान जाएगा. लेकिन हुआ वही, जिसका डर था. सरकार का ध्यान किसानों पर नहीं गया. नतीजतन, आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या वर्ष 2015 (सितंबर तक) में 2,016 का आंकड़ा पार कर गई. ये आंकड़े खुद महाराष्ट्र सरकार के हैं यानी जनवरी से सितंबर तक के आंकड़े. इनमें शेष तीन महीने के आंकड़े जुड़ने अभी बाकी हैं. शायद महाराष्ट्र किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में नए शर्मनाक कीर्तिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर है. यदि इस समस्या का निदान नहीं निकाला जा सकता, तो फिर राज्य में इतने विभागों और अधिकारियों की क्या ज़रूरत है? यदि किसानों को राहत पहुंचाने के लिए कोई ठोस योजना नहीं बन सकती, तो राजनीतिक दलों को चुनाव के दौरान किसानों से वादे करना छोड़ देना चाहिए. यदि किसानों को आत्महत्या करने से नहीं रोका जा सकता, तो फिर ऐसे विकास मॉडल का आ़िखर क्या औचित्य है?
सरकार और अधिकारियों द्वारा समस्या का हल निकालने के बजाय सरकारी तंत्र की विश्वसनीयता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. सरकारी तंत्र में किसानों की समस्याएं दूर करने की न तो कोई मंशा नज़र आती है और न ही कोई योजना. उसने आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ करके समस्या पर नियंत्रण का दांव खेलना शुरू कर दिया है. किसानों को राहत देने और आत्महत्याएं रोकने में विफल रहीं केंद्र एवं राज्य सरकारें आत्महत्या के आंकड़े में हेरफेर करके अपनी पीठ थपथपा रही हैं. देश में किसानों द्वारा आत्महत्या के आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) जारी करता है और ऐसा वर्ष 1995 से हो रहा है. एनसीआरबी की रिपोर्ट सरकारी रिपोर्ट और पुलिस रिकॉर्ड की मदद से तैयार होती है. राज्य सरकार और नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े खासे भिन्न हैं, लेकिन इससे ़फायदा यह हुआ कि मीडिया और लोगों की नज़र इस भीषण समस्या पर गई. लोगों को पता चला कि भारत में हर आधे घंटे में एक किसान हालात से हार कर आत्महत्या कर लेता है. ऐसी रिपोर्ट आने के बाद तो सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी. किसानों की मदद, विकास की नीतियों पर बहस और भविष्य की चिंता होनी चाहिए थी. लेकिन, सरकार ने कुछ ऐसा किया, जिसे सुनकर आप दंग रह जाएंगे.
वर्ष 2014 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में अप्रत्याशित रूप से 50 प्रतिशत की गिरावट दर्ज देखी गई. एनसीआरबी के मुताबिक, वर्ष 2013 में देश भर में 11,772 किसानों ने आत्महत्या की थी, यह संख्या वर्ष 2014 में घटकर 5,650 रह गई. आ़िखर यह करिश्मा कैसे हुआ? क्या सरकार ने किसानों के लिए खजाने खोल दिए या राहत का ऐसा पिटारा खोल दिया कि उनकी हालत सुधर गई. दरअसल, ऐसा कुछ नहीं हुआ. किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, लेकिन सरकार ने आत्महत्या की गणना के तरीके बदल दिए हैं. एनसीआरबी ने रिपोर्ट में टैबुलिंग के तरीके में ही बदलाव कर दिया. भूमिहीन किसानों एवं खेतिहर मज़दूरों, जो पहले किसानों की श्रेणी में आते थे, को अलग-अलग श्रेणियों में दर्शाया गया. मसलन, खेतिहर मज़दूरों को स्व-रोज़गार की श्रेणी में डाल दिया गया. इससे हुआ यह कि रिपोर्ट में आत्महत्या के मामलों में तो कमी नहीं आई, लेकिन किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले कम हो गए. मतलब सा़फ है कि सरकारी अधिकारियों ने अपनी कमियां छिपाने के लिए यह घिनौना खेल किया. उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2014 की रिपोर्ट में कर्नाटक में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में भारी गिरावट दिखाई गई. कर्नाटक में वर्ष 2013 में 1,403 किसानों ने आत्महत्या की थी, यह संख्या एनसीआरबी की रिपोर्ट में वर्ष 2014 में घटकर 321 हो गई. लेकिन, आत्महत्या के अन्य श्रेणी के मामलों में बड़े पैमाने पर वृद्धि हो गई. मतलब यह कि आत्महत्या के जो मामले अब तक किसानों की श्रेणी में दिखाए जाते रहे, उन्हें एनसीआरबी ने अन्य की श्रेणी में डाल दिया. आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ और जनता को धोखा देने के इस सरकारी खेल ने हास्यास्पद शक्ल अख्तियार कर ली.
वर्ष 2014 की रिपोर्ट में देश के 12 राज्यों एवं छह केंद्र शासित राज्यों में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले शून्य बताए गए. मतलब यह कि इन 12 राज्यों एवं छह केंद्र शासित राज्यों में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की. इनमें पश्चिम बंगाल, राजस्थान एवं बिहार भी शामिल हैं. यदि यही हक़ीक़त होती या सरकार इस दिशा में प्रयास करती, तो यह खुशी की बात होती, लेकिन आंकड़ों की बाजीगरी करके ऐसे दावे करना न स़िर्फ हास्यास्पद है, बल्कि घोर अमानवीय भी है. किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं के आंकड़े के साथ छेड़छाड़ छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ने शुरू की थी और वर्ष 2011 में वहां ऐसी आत्महत्याओं की संख्या अचानक शून्य दर्शा दी गई. जबकि 2006 से 2010 तक छत्तीसगढ़ में किसानों द्वारा आत्महत्या का सालाना औसत 1,555 था. छत्तीसगढ़ सरकार ने स़िर्फ 2011 के आंकड़ों में ही गड़बड़ नहीं की, बल्कि 2012 में भी वहां ऐसे मामलों की संख्या महज चार दर्शाई गई. 2013 में फिर शून्य का आंकड़ा दोहराया गया. छत्तीसगढ़ द्वारा निकाली गई इस राह का पश्चिम बंगाल ने फौरन अनुकरण किया. वर्ष 2014 आते-आते देश के 12 राज्यों एवं छह केंद्र शासित राज्यों ने आंकड़ों की यह बाजीगरी सीख ली. किसानों की आत्महत्या पर कलम चलाने वाले सबसे विश्वसनीय लेखक पी साईंनाथ ने जब इस पर सवाल खड़े किए, तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने जवाब दिया कि उसकी रिपोर्ट में किसी भी प्रकार से नए ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है, केवल आंकड़ों को थोड़ा विभाजित करके दिखाया गया है.
किसानों द्वारा आत्महत्या भारतीय समाज का एक बदनुमा दाग है, लेकिन राजनीतिक दलों ने इसे महज एक राजनीतिक मुद्दा बना दिया. उन्हें लगता है कि यह चुनाव के दौरान उठाया जाने वाला एक लाभप्रद मुद्दा है. इसलिए यह राजनीतिक विरोधियों पर हमला करने का हथियार भी बन गया. यही वजह है कि सरकारें किसानों की समस्याओं का हल निकालने के बजाय आंकड़े सुधारने में जुट गई हैं. यह राजनीतिक वर्ग की घृणित और कुंठित मानसिकता है, जो उन्हें किसानों की मौत पर राजनीति करने के लिए मजबूर करती है. विडंबना यह है कि जो राज्य विकसित नहीं है, जहां मूलभूत सुविधाएं मसलन बिजली, पानी, शिक्षा एवं चिकित्सा का अभाव है, जैसे कि बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम एवं ओडिशा, वहां किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले कम दिखते हैं, लेकिन महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. सवाल यह है कि अगर पिछड़े राज्य विकसित होने लगेंगे, तो क्या वहां भी महाराष्ट्र की पुनरावृत्ति होगी या फिर महाराष्ट्र एक अपवाद है. यह एक गंभीर मसला इसलिए है, क्योंकि भारत आज समय के उस मोड़ पर खड़ा है, जहां जरा-सी चूक उसे कई दशक पीछे धकेल देगी.
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