शनिवार, 9 नवंबर 2013

कितने आदिवासी लापता किसी को पता नहीं'

कितने आदिवासी लापता किसी को पता नहीं'

 शनिवार, 9 नवंबर, 2013 को 07:38 IST तक के समाचार
छत्तीसगढ़
अँधेरी सियाह रात में छत्तीसगढ़ के जंगली इलाक़ों में आदिवासी मुडिया और माड़िया समुदाय की महिलाएं और युवतियां अपना लोक गीत गाकर मनोरंजन कर रहीं हैं. मगर इनके कुछ एक गीतों में इनका दर्द भी छुपा हुआ है.
अपने लोक गीतों के माध्यम से वो बता रहीं हैं कि बस्तर के जंगलों में अपने गाँव में वो किस तरह की ज़िन्दगी जीती रही हैं.
ज़ाहिर है इस इलाके में बद से बदतर होते हालात की वजह से आदिवासी समुदाय को अपना कोई भविष्य नज़र नहीं आ रहा है.
इन जंगलों में चल रही हिंसा ने अब इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा.
इस पूरे इलाके को युद्ध क्षेत्र के रूप में चिन्हित कर दिया गया है. इस बार विधान सभा के चुनाव अप्रत्याशित हैं क्योंकि बस्तर संभाग में इससे ज्यादा सुरक्षा बालों का जमावड़ा पहले कभी नहीं हुआ है.
संगीनों के साए में प्रचार हो रहा है और संगीनों के साए में ही मतदान होगा. बहिष्कार भी संगीनों के साए में.
जगह-जगह नाकाबंदी, जगह जगह चेकिंग. हमारी गाड़ी को भी इन रुकावटों से होते हुए गुज़रना पड़ रहा है. अपनी गाड़ी पर प्रेस लिखा हो तो क्या, शक के दायरे में सब हैं.
बस्तर, सुरक्षाबल
सड़क पर चलना दूभर हो गया है. चुनाव की डयूटी के लिए बड़े और छोटे वाहन पकड़े जा चुके हैं. लोगों के पास आवाजाही के साधन भी नहीं हैं.

बदहाल सड़कें

उस पर ज़ख्मों पर नमक छिड़कती है सड़कों की बदहाली. पिछले कई सालों से सुकमा से लेकर कोंटा तक की सड़क बन नहीं पायी है. इस सड़क को माओवादी बनने नहीं देते हैं. गड्ढों का ये आलम है कि सुकमा से कोंटा तक 80 किलोमीटर के सफ़र में दस से 12 घंटे लग सकते हैं. और अगर कहीं गाड़ी फँसी, तो मुसीबत.
हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ जब गड्ढों और उनमें मौजूद कीचड़ वाली मिटटी में हमारी गाड़ी फंस गयी. छत्तीसगढ़ के दौरे पर मेरे साथ आये मेरे सहयोगी देवाशीष कुमार और ड्राइवर की मदद से हमने उस गीली मिटटी पर पत्थर डालकर किसी तरह वाहन को बाहर निकाला.
ये सब कुछ एर्रबोरे के पास बीच जंगल में हुआ जहाँ किसी की मदद की संभावना बिलकुल ही नहीं थी. इस इलाके में कोई मोबाइल भी काम नहीं करता. ये इस सड़क का हमारा नहीं भूल पाने वाला अनुभव रहा.
नक्सल, बहिष्कार
नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में चुनाव के बहिष्कार की अपील की है.
बस्तर के इलाके में इतना तो समझ में आया कि चुनाव का माहौल जंगली इलाकों में नहीं के बराबर है. अलबत्ता शहरों और कस्बों में चुनावी सरगर्मी ज़रूर देखी जा रही है. जहां शहरों में राजनीतिक दलों के पोस्टर पटे पड़े हैं, वहीं जंगली इलाकों में माओवादियों के पोस्टर छाए हुए हैं जो चुनाव के बहिष्कार की बात कहते हैं. यहाँ भी काफी रस्साकशी है.

'आदिवासियों की सुध नहीं'

आखिर शहर तो शहर हैं क्योंकि यहीं पर तो सबकी नज़र है. शहरी लोगों के ही तो वोट सबको चाहिए. सुदूर इलाकों वालों के वोटों की किसी को ज़रुरत नहीं. जिनके वोटों की ज़रुरत नहीं उन्हें भला कौन पूछता है.
दंतेवाड़ा में मेरी मुलाक़ात आदिवासी नेता बोमड़ाराम कोवासी से हुई जो कहते हैं कि पूरे बस्तर संभाग से दो लाख से भी ज्यादा आदिवासी पलायन कर कहाँ गए किसी को पता नहीं. ताज़ा सर्वेक्षणों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि बस्तर संभाग में 600 से ज्यादा गाँव वीरान पड़े हुए हैं.
चिंता वाली बात ये हैं कि इस इलाके के मुद्दे सभी राजनीतिक दलों के एजेंडे से ग़ायब हैं. आदिवासियों की संस्कृति पर हो रहे हमले का कहीं कोई ज़िक्र नहीं.
उनके पलायन पर किसी को कुछ नहीं कहना है. नक्सली कहकर जेलों में बंद कर दिए गए निर्दोष आदिवासियों की सुध लेने वाला भी कोई नहीं.
जहाँ तक चुनाव की बात है. ये शोर शराबा बस आज थम जाएगा और रेखाएं एक बार फिर खिंच जाएंगी. एक तरफ बस्तर के आदिवासी तो दूसरी तरफ सामर्थ्य का खेल.

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