मंगलवार, 31 जुलाई 2012

चिंतित करती तस्वीर

Updated on: Sun, 29 Jul 2012 06:19 AM (IST)
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से राज्यवार कराई गई समीक्षा के इस निष्कर्ष पर उत्तर प्रदेश सरकार को चिंतित होना चाहिए कि राज्य में शिशु लिंगानुपात तेजी से घट रहा है। समीक्षा के बाद जो आंकड़े सामने आए वे यह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश की स्थिति किस तरह देश के उन चंद राज्यों की तरह है जहां घटते शिशु लिंगानुपात की समस्या गंभीर रूप ले चुकी है। राज्य सरकार को इस समीक्षा के निष्कर्षो पर तत्काल प्रभाव से चेतना चाहिए, अन्यथा यह समस्या कुछ वैसा ही गंभीर रूप ले सकती है जैसी पंजाब, हरियाणा और देश के कुछ अन्य हिस्सों में ले चुकी है। यदि उत्तर प्रदेश में कन्या भ्रूण हत्या को लेकर कोई चर्चा नहीं हो रही है तो इसका यह मतलब नहीं कि यहां सब कुछ ठीक है। इस समस्या के संदर्भ में राज्य सरकार को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि कन्या भ्रूण हत्या की समस्या अल्ट्रा साउंड क्लीनिकों में अवैध रूप से लिंग परीक्षण के कारण बढ़ रही है, बल्कि उसे उन सामाजिक-आर्थिक कारणों की तह में जाना होगा जिनके चलते समाज में कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है। न केवल इन कारणों की पहचान करना आवश्यक है, बल्कि हर स्तर पर उनका निवारण भी किया जाना चाहिए। दरअसल इस संदर्भ में समाज की मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। ऐसा तब होगा जब राजनीतिक दल इस समस्या को अपने एजेंडे पर लेंगे। यह निराशाजनक है कि इस तरह के मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेंडे पर कभी नहीं आ पाते। यह स्थिति बदलनी चाहिए। राजनीतिक दलों को सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए आगे आना होगा और इसके लिए समाज में जागरूकता लाने की ठोस पहल करनी होगी। ऐसा करके ही राजनीतिक दल समाज सेवा के अपने दावे पर खरे उतर सकते हैं। यह निराशाजनक है कि अल्ट्रासाउंड क्लीनिकों में लिंग परीक्षण पर रोक लगाने के लिए बने कानून का उत्तर प्रदेश में सही तरह क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। देखना यह है कि केंद्र सरकार ने इस मामले में लापरवाही बरतने वाले लोगों के खिलाफ सख्ती बरतने का जो निर्देश दिया है वह कितना प्रभावी सिद्ध होता है?

सोमवार, 30 जुलाई 2012

अनोखी प्रथा: यहां गर्म रॉड और लकड़ी से दागे जाते हैं लड़कियों के ब्रेस्ट

Source: दैनिकभास्कर.कॉम   |   Last Updated 11:34(30/07/12)

अफ्रीका के गिनियन गल्फ में स्थित देश कैमरून की आबादी करीब 15 मिलियन है और यहां तकरीबन 250 जातियां रहती हैं। टोगो, बेनिन और इक्वाटोरिअल गुनिया से सटे इस देश को 'मिनिएचर अफ्रीका' भी कहा जाता है। एक अजीबो-गरीब प्रथा के कारण पिछले कुछ समय से कैमरून काफी समय से चर्चा में है। यह अनोखी प्रथा है 'ब्रेस्ट आयरनिंग', जिसमें किशोरावस्था के शुरू होते ही लड़कियों के ब्रेस्ट को लकड़ी के टुकड़ों से दागा जाता है, ताकि वह बढ़ न सकें।

इस अनोखी प्रथा में विचलित करने वाली बात यह है कि इसे लड़की की मां ही अंजाम देती है। इसके पीछे मान्यता यह है कि गर्म वस्तुओं से ब्रेस्ट दागने से लड़कियों की छाती चपटी हो जाती है और उनपर पुरूषों का ध्यान नहीं जाता। इस संबंध में कैमरून की महिलाओं का मानना है कि अगर लड़कियों के जवानी के लक्षण जल्द दिखाई देने लगें तो पुरूषों का ध्यान उनपर जाता है और ऐसे में लड़कियों के शादी से पहले ही गर्भवती होने का डर बना रहता है।

यहां देखिए, दुनिया के सबसे विशालकाय इंसान

कैमरून की अधिकतर लड़कियां 9 साल की उम्र में ब्रेस्ट आयरनिंग की प्रक्रिया से गुजर चुकी होती हैं। ब्रेस्ट आयरनिंग की यह वीभत्स प्रक्रिया किसी लड़की के साथ 2 से 3 महीनों तक लगातार की जाती है। सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार ब्रेस्ट आयरनिंग के 58 प्रतिशत मामलों में लड़की की मां ही इसे अंजाम देती है।

इस अनोखी प्रथा से कैमरून के सभी 10 क्षेत्रों की महिलाओं की मानसिक और शारीरिक स्थिति पर बुरा असर पड़ रहा है। यह प्रथा कैमरून के लिटोरल प्रांत में सबसे अधिक (53 प्रतिशत) प्रचलित है।

गौरतलब है कि अन्य अफ्रीकी देशों की तुलना में कैमरून की साक्षरता दर सबसे अधिक सन् (2003 में 79 प्रतिशत) है, जबकि किशोरियों के गर्भधारण के मामले सन् 1996 से कम हुए हैं। सेक्सुअल आकर्षण और दिखावे से बचाने के लिए की जाने वाली वीभत्स प्रथा ब्रेस्ट आयरनिंग के बावजूद यहां लड़कियों के कम उम्र में गर्भवती होने के मामले अभी भी सामने आ रहे हैं। मानव अधिकार संस्थाएं और बुद्धिजीवी ब्रेस्ट आयरनिंग को एक टैबू के रूप में देखते हैं।

रविवार, 29 जुलाई 2012

महंगाई की आग को और भड़काएगी सरकार


विजय गुप्ता/नई दिल्ली

Story Update : Sunday, July 29, 2012    12:06 AM
government may add another woes adding inflation
कमजोर मानसून से सूखे की आशंका के चलते सुलग रही महंगाई की आग में अब सरकार भी तड़का लगाने जा रही है। खुले बाजार बिक्री योजना (ओएमएसएस) के तहत बेचे जा रहे गेहूं के दामों में खाद्य मंत्रालय 115 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बढ़ोतरी करने की तैयारी में है।

इससे न सिर्फ थोक व खुदरा में गेहूं की कीमतों में और इजाफा होगा बल्कि केंद्रीय भंडार की ओर से गरीबों को बेचे जा रहे 14.25 रुपये किलो के रियायती दर वाले आटे के दामों में भी 1.50 से 2 रुपये किलो की बढ़ोतरी हो सकती है।

सरकार के इस कदम से न सिर्फ थाली महंगी हो जाएगी बल्कि रसोई के बजट को तगड़ा झटका लग सकता है। जून और जुलाई में अपेक्षित बरसात न होने से महंगाई का खासा असर ग्रासरी वस्तुओं पर है। सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चार दिन पूर्व ही उपभोक्ता मामलों के मंत्री प्रो. के.वी.थॉमस को निर्देश दिए थे। लेकिन महंगाई पर अंकुश लगाने के उपाय करने के बजाय खाद्य मंत्रालय उल्टे ओएमएसएस के तहत बेचे जाने वाले गेहूं के दामों में 115 रुपये की बढ़ोतरी की तैयारी कर रहा है।

इस वृद्धि के पीछे थॉमस का कहना है कि अभी तक सरकार ओएमएसएस के तहत गेहूं की बिक्री पिछले वर्ष के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1170 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर कर रही है। जबकि इस वर्ष का एमएसपी 1285 रुपये प्रति क्विंटल है।

थॉमस के मुताबिक पिछले वर्ष के एमएसपी पर गेहूं बेचने का उद्देश्य बाजार में रियायती दरों पर गेहूं की उपलब्धता बढ़ाना है। लेकिन बाजार पर इसका जरा भी असर नहीं है बल्कि गेहूं के दाम 1400 रुपये क्विंटल तक पहुंच गए हैं। दरअसल बड़े व्यापारी ओएमएसएस का गेहूं खरीदकर उसे ऊंची दरों पर बाजार में बेच कर मोटा मुनाफा कमा रहे हैं।

इसके चलते अब मंत्रालय ने ओएमएसएस की बिक्री नए एमएसपी पर करने की योजना बनाई है। इसे अगले महीने से लागू किया जा रहा है। जाहिर है कि पिछले महीने ही प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट ने ओएमएसएस के तहत 30 लाख टन गेहूं की बिक्री 1170 रुपये क्विंटल पर करने की मंजूरी दी थी। खास बात यह है कि दक्षिणी राज्यों को भी बगैर किसी अतिरिक्त शुल्क के इसी मूल्य पर गेहूं बेचा जा रहा है।

तेजी से बढ़ी कीमतें
--10 से 15 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है खाद्य तेल, दाल और चीनी के दामों में पिछले डेढ़ महीने में।
--20 से 55 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है आलू, प्याज, टमाटर सहित हरी सब्जियों के खुदरा दामों में।

उप्र में अंबेडकर प्रतिमाएं तोड़ने से बवाल

Updated on: Sun, 29 Jul 2012 08:13 AM (IST)
Three Ambedkar statues vandalised
उप्र में अंबेडकर प्रतिमाएं तोड़ने से बवाल
आजमगढ़। उत्तर प्रदेश के लखनऊ में बहुजन समाजवादी पार्टी [बसपा] प्रमुख मायावती की मूर्ति तोड़े जाने का मामला अभी शात भी नहीं हुआ था, कि सूबे के आजमगढ़ जिले में कुछ अराजक तत्वों ने तीन अलग-अलग गावों में बसपा प्रणेता बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की प्रतिमाएं क्षतिग्रस्त कर दीं।
इन घटनाओं से नाराज बसपा कार्यकर्ताओं ने करीब चार घटे तक मुख्य मार्ग जामकर प्रदर्शन किया। पुलिस सूत्रों ने शनिवार को बताया कि कुछ अराजक तत्वों ने कल देर रात मेहनगर क्षेत्र के कटात-चककटात गाव में स्थित अंबेडकर की प्रतिमा को खंडित करके उसका एक हिस्सा खेत में फेंक दिया। नई पलिया तथा जियासठ गावों में स्थित अंबेडकर की प्रतिमाओं को भी क्षतिग्रस्त किया गया। इन मूर्तियों के अवशेष देखकर ग्रामीणों में नाराजगी व्याप्त हो गई।
सूत्रों ने बताया कि नाराज ग्रामीणों तथा बसपा कार्यकर्ताओं ने घटना के विरोध में कटात-चककटात के मुख्य मार्ग पर करीब चार घटे तक जाम लगाया। मौके पर पहुंचे अधिकारियों द्वारा नई मूर्तिया लगवाने तथा जिम्मेदार अराजक तत्वों के खिलाफ कार्रवाई का आश्वासन दिए जाने पर ही जाम खुल सका। पुलिस ने मामला दर्ज कर जाच शुरू कर दी है।

शनिवार, 28 जुलाई 2012

जब फिल्म में जेम्स बॉंड 007 के साथ थीं महारानी...

 शनिवार, 28 जुलाई, 2012 को 11:47 IST तक के समाचार

queen
महारानी की वेशभूषा में एक महिला ओलंपिक स्टेडियम में हेलिकॉप्टर से उतरी
शनिवार को लंदन में ओलंपिक का उद्घाटन समारोह कुछ ऐसा था कि ओलंपिक स्टेडियम और टीवी दर्शकों को ब्रिटेन की संस्कृति, सभ्यता, विकास और इतिहास के बदलने और बनने की झलक एक साथ एक मंच पर देखने को मिल गई.
इसी कार्यक्रम के दौरान कई छोटी फिल्में दिखाई गईं जिनमें से एक में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ 'जेम्स बॉन्ड' फिल्मों के नायक, अभिनेता डेनियल क्रेग के साथ दिखाई गईं.
इस छोटी सी फिल्म में दिखाया गया कि कैसे 'जेम्स बॉन्ड' ब्रिटेन की महारानी 'एलिजाबेथ' को पहले एक कार और फिर एक हेलिकॉप्टर में एस्कॉर्ट करके ओलंपिक स्टेडियम तक लेकर आते हैं और परंपरा के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के प्रमुख जॉक रोखे उनका स्वागत करते हैं.
इस वीडियो को इसी साल मार्च के अंत में 'स्लम डॉग मिलियनेयर' के निर्देशक डैनी बॉयल ने फिल्माया था.
"इसे महारानी पर फिल्माया जाना था और ये सब कुछ उनकी सुरक्षा घेरे को बिना तोड़े करना था जो एक बेहद संवेदनशील मुद्दा थे."
निक ब्राउन, बीबीसी निर्देशक, यूके ड्रामा प्रोडक्शन्स
बीबीसी के यूके ड्रामा प्रोडक्शन के निर्देशक निक ब्राउन के अनुसार इस दृश्य की शूटिंग बहुत ही खुशनुमा माहौल में की गई, जिसमें डेनियल क्रेग, महारानी एलिजाबेथ और कुछ स्कूली बच्चों ने भाग लिया था.
फिल्म की शूटिंग दो दिन तक चली और इसका थीम था ''हैप्पी एंड ग्लोरियस''.
निक के अनुसार जब डैनी ने इस फिल्म को बनाने की परिकल्पना की थी तब सब कुछ असंभव सा लग रहा था, क्योंकि इसमें बंकिमघम पैलेस के लॉन से लेकर खुले आसमान और टेम्स नदी की लहरों पर शूटिंग करनी थी.
और चूंकि इसे महारानी पर फिल्माया जाना था और ये सब कुछ उनकी सुरक्षा घेरे को बिना तोड़े करना था तो ये एक बेहद संवेदनशील मुद्दा था.
बॉंड
बॉन्ड फिल्मों के अभिनेता डेनियल क्रेग इस फिल्म में महारानी के साथ नजर आए
ये शूटिंग मार्च महीने में की गई थी और दुर्भाग्यवश उस समय वहां का मौसम भी काफी खराब था. भयंकर बारिश के कारण यहां लंदन में बाढ़ जैसी स्थिती हो गई थी.
उड़ने की इजाज़त
इस सब के दौरान महारानी की तरफ से तो नहीं लेकिन अन्य औपचारिकताओं को पूरा करने में काफी दिक्कतें आ रहीं थी.
टेम्स नदी के उपर दो हेलिकॉप्टरों के उड़ने, उसे फिल्माने और नदी पर होने वाली ट्रैफिक से बचने के लिए कई जगहों से मंजूरी लेनी पड़ी.
जब ये सारी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद ये दृश्य फिल्माने की मंज़ूरी मिल गई तो कभी बादलों ने तो कभी लंदन के किसी कोने में बम की खबर ने सब कुछ बिगाड़ दिया.
लेकिन बॉयल की कोशिशें नाकाम नहीं हुई और एक दिन सुबह-सुबह जब आसमान पर लगे बादल छंटे और सूरज ने गरमाहट बिखेरी तब टॉवर ब्रिज पर की जाने वाली शूटिंग पूरी हुई.
निक ब्राउन के अनुसार, ''मुझे वो दिन अभी भी याद है जब फिल्म की निर्माता लीसा ऑसबर्न ने उन्हें उस दिन की तस्वीरें भेजीं जिसमें दिन की शुरुआत में पूरी टीम को बारिश में भीगते हुए, फिर बाद में बादल रहित नीला आसमान और अंतिम दृश्य की कुछ बेहतरीन तस्वीरें कैद थीं.''
''हम खुशकिस्मत थे कि तीसरी कोशिश के दौरान टेम्स नदी के घुमावदार रास्तों की खूबसूरती को फिल्मा सके और इस दौरान सूरज ने भी हमारा पूरा साथ दिया.''
निक कहते हैं, ''इस फिल्म को बनाने में काफी मेहनत की गई है. तकनीकी मदद के अलावा जिस चीज का इसे बनाने में अहम् योगदान रहा वो टीम के उन कुछ लोगों का साथ था जो हर नाउम्मीदी, निराशा और खराब मौसम के दौरान डटकर मैदान में खड़े रहे.''
''अंत में जो परिणाम सबके सामने आया है वो बहुत सारी खुशी, प्यार, आश्चर्य और उत्साह से भरा हुआ है..जिसने इस यादगार रात को स्मरणीय बना दिया है.''

इस बार कुछ बदले-बदले से नजर आ रहे हैं भारतीय खिलाड़ी

Source: BBC Hindi   |   Last Updated 11:54(28/07/12)
 


वी कृष्णास्वामी
वरिष्ठ खेल पत्रकार

अन्य क्षेत्रों की तरह ओलिंपिक में भी बदलते भारत के दर्शन होते हैं।  वो ज़माने गया जब भारतीय खिलाड़ी ओलिंपिक में केवल संख्या बढ़ाते थे और विजिटिंग कार्डों पर 'ओलिंपियन' बड़ा सा सजाकर लिखा जाता था। अब भारतीय खिलाड़ियों की ज़हनियत बदल रही है। अब खिलाड़ी 'ओलिंपियन'  से 'मेडलिस्ट' या 'पदक विजेता' बनना चाहता है। ओलिंपिक ग्राम में मौजूद 81 भारतीय खिलाड़ियों में से कुछ विश्व स्तर के हैं। इनमें से कई ने भिन्न-भिन्न विश्व स्तर के आयोजनों जैसे ओलिंपिक, एशियाड, कॉमनवेल्थ या फिर अपने-अपने खेलों की विश्व प्रतियोगिताओं में मेडल जीते हैं। इन ओलिंपिक आयोजनों में भारत के खिलाड़ियों के लिए तीरंदाजी, बॉक्सिंग, बैडमिन्टन, शूटिंग, टेनिस और कुश्ती जैसे छह खेलों में पदक की काफ़ी उम्मीदें दिख रही हैं. इसके अलावा हॉकी भी है, जिससे लोगों को भावनात्मक कारण से उम्मीदें हैं। स्थिति बदली 2008 में बीजिंग से

आज के हालात ओलिंपिक में भारतीय खेलों के इतिहास से जुदा हैं. साल 1928 से 1980 के बीच के ओलिंपिक  खेलों में भारत को आठ स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य मिला. साल 1952 में भारत को महज़ एक पदक हासिल हुआ - कुश्ती में कांस्य. साल 1984 से लेकर 1992 भारत को एक भी पदक नहीं हासिल हुआ. साल 1996 से साल 2002 तक हर खेल में भारत को केवल एक पदक ही मिला. साल 1996 में लिएंडर पेस, भारोत्तोलन में करनम मल्लेश्वरी को 2000 में कांस्य और 2004 में शूटिंग में राज्यवर्धन राठौर. चीज़ें बदलना आरंभ हुईं साल 2008 में बीजिंग ओलिंपिक से. बीजिंग में ना केवल भारत को तीन पदक मिले पर कई और भी पदक के एकदम नज़दीक जा खड़े हुए. भारतीयों को मेडल जितनी ही ख़ुशी मिली अपने बॉक्सरों जितेन्दर कुमार और अखिल कुमार के प्रदर्शन से, जो क्वाटर फाइनल तक जा पहुंचे. बैडमिन्टन में साइना नेहवाल और टेनिस में लिएंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी ने बहुत ही बढ़िया प्रदर्शन किया. इसी तरह से कुश्ती में योगेश्वर दत्त भी क्वाटर फाइनल में पहुँच कर हारे, इनमे से हर कोई मेडल जीतने की कगार पर था। यह हुआ कैसे?


पहला उत्तर है ज़हनियत में बदलाव, दूसरा - सरकार खिलाड़ियों को विदेश भेजने के मामले में ज़्यादा उदारता के साथ निर्णय ले रही है। इसके अलावा खेल पर होने वाला ख़र्च भी बढ़ा है. यह बदली हुई ज़हनियत दिखती है 2008 के ओलिंपिक में स्वर्ण पदक के विजेता अभिनव बिंद्रा की बातों में. बिंद्रा कहते हैं "बीता समय बीत चुका है. मैंने चार साल पहले स्वर्ण पदक जीता था. वो बात ख़त्म हुई. इस क्षण तक मेरे पास लंदन में कुछ नहीं है."साफ़ दिखता है कि वो लंदन से कुछ लेकर जाना चाहते हैं. मुक्केबाज़ विजेंदर, जो शायद भारत के सबसे चर्चित गैर क्रिकेट खिलाड़ी हैं, वो कहते हैं "जब मुक्केबाज़ या अन्य पदक की बात करते हैं तो वो शेखी नहीं मार रहे, यह उनके विश्वास का प्रतीक है" ।  खेलों में निजी कंपनियां


इसके अलावा एक बहुत ही महवपूर्ण बदलाव है खेलों में निजी कंपनियों और संगठनों के पैसे का आना. जैसे एक संगठन है 'ओलिंपिक गोल्ड क्वेस्ट' जिसके निदेशकों में प्रकाश पादुकोण, बिलियर्ड्स के सितारे गीत सेठी और शतरंज के विश्व चैम्पियन विश्वनाथन आनंद शामिल हैं. इसके अलावा स्टील किंग लक्ष्मी नारायण मित्तल के द्वारा शुरू किया 'मित्तल स्पोर्ट्स फांउडेशन' जो भारतीय तीरंदाजों, मुक्केबाजों शूटरों के अलावा भी कई खिलाड़ियों की मदद कर रहा है. साथ ही 'लक्ष्य' और 'गो स्पोर्ट्स' जैसे संगठन भी हैं. इसके अलावा पैसे वाले प्रायोजक हैं जैसे मोनेट, टाटा, सहारा और सैमसंग जिन्होंने क्रिकेट के अलावा भी खेलों में पैसा लगाने की हिम्मत दिखाई. यह सब मिल कर ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों को बदल रहा है।
हां यह सच है कि इस सबकी वजह से पदकों की कोई बाढ़ नहीं आ जाएगी, लेकिन यह तय है कि ओलिंपिक  2012 में भारतीय खिलाड़ियों प्रदर्शन का 2008 से बेहतर रहेगा. आख़िर में जो पदक जीतते हैं और उनके बाद के दो तीन खिलाड़ियों में कोई खास अंतर नहीं रहता. यह तय है कि इस बार कई भारतीय खिलाड़ी पहले पांच या छह में रहने वाले हैं. ओलिंपिक की भावना खिलाड़ियों में पहले भी थी अभी भी है, लेकिन इस बार पदकों के लिए भारतीय खिलाड़ियों में भूख ज़्यादा है।

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

बाढ़ के बाद हिंसा की आग




Story Update : Wednesday, July 25, 2012    9:02 PM
असम के कोकराझार, चिरांग और धुबरी जिलों में भड़की जातीय हिंसा के तात्कालिक कारण चाहे जो निकाले जाएं, लेकिन हकीकत यह है कि वहां काफी दिनों से भीतर ही भीतर आग सुलग रही थी, जिसे नजरंदाज किया गया। अगर ऐसा नहीं होता, तो न इतनी मौतें होतीं और न ही हजारों लोगों को अपना घर छोड़कर भागना पड़ता। असम में बोडो छात्र संगठन और अल्पसंख्यक छात्र संगठन के बीच तनाव नया नहीं है, अतीत में भी उनके बीच हिंसक झड़पें हुई हैं, लेकिन लगता है कि सरकार ने उनसे कोई सबक नहीं सीखा। वास्तव में इस तनाव की जड़ में कहीं न कहीं पृथक बोडोलैंड का भी मुद्दा है, जिसे 2003 में दूसरे बोडो समझौते के तहत बोडो क्षेत्रीय परिषद् के गठन के बाद खत्म मान लिया गया था।

मगर हकीकत यह है कि यह मुद्दा बोडो जनजाति और गैर बोडो आबादी के बीच विवाद की जड़ है। एक बार फिर से इस विवाद के भीषण रूप से लेने से केंद्र और राज्य सरकारों की अदूरदर्शिता भी उजागर होती है कि कैसे वे तात्कालिक राजनीतिक फायदे के लिए मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल देती हैं। मुख्यमंत्री तरुण कुमार गोगोई इस संकट की वजह बोडो क्षेत्र के आर्थिक पिछड़ेपन और बेरोजगारी को बता रहे हैं। मगर सवाल उठता है कि दस वर्षों से भी ज्यादा समय से तो उनकी अगुआई में ही कांग्रेस की सरकार वहां है, तो इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? यही नहीं, स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा के सदस्य हैं। ऐसा लगता है कि सरकार बोडो क्षेत्र के स्थानीय लोगों की भावनाओं और उनकी जरूरतों को या तो ठीक से समझ नहीं पा रही, या फिर उसे टालने की कोशिश कर रही है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बोडो क्षेत्रीय परिषद् की कमान अभी जिस बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के हाथों में है, उसका 2006 से कांग्रेस के साथ गठबंधन है। फिर ऐसा क्या हुआ कि स्थिति इतनी भीषण हो गई? यह विडंबना ही है कि जब असम राजनीतिक स्थिरता के साथ शांति और विकास की राह पर चल पड़ा था, तब जातीय हिंसा ने उसे एक नए संकट में डाल दिया है। दूसरी ओर असम का एक बड़ा हिस्सा पहले ही बाढ़ की चपेट में है, जहां अभी राहत पहुंचाने की जरूरत है। आपदा मानवीय हो या प्राकृतिक, दोनों ही आम आदमी खासतौर से बुजुर्गों, असहायों, महिलाओं और बच्चों पर भारी पड़ती है।

शनिवार, 14 जुलाई 2012

गरीबी और भूख से हर हफ्ते दिल्ली में मरता है कोई एक

शुक्रवार, जुलाई 13, 2012,15:02 [IST]
 1 Dies Every Week Of Hunger

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

परमाणु हादसाग्रस्त न्यूक्लियर कामर्स

 
परमाणु हादसाग्रस्त न्यूक्लियर कामर्स

मैक्सिको की खाड़ी में ब्रिटिश पेट्रोलियम के तेल कुएं से जो रिसाव हुआ था उसके लिए बहुराष्ट्रीय ब्रिटिश पेट्रोलियम को 34 अरब डॉलर का हर्जाना भरने के लिए कहा गया है. बीपी कंपनी केवल तैयार ही नहीं हुई है बल्कि उसने 20 अरब डॉलर (करीब 92,000 करोड़) रूपये का हर्जाना अदा भी कर दिया है. मैक्सिको की खाड़ी में हुए तेल रिसाव और किसी परमाणु रियेक्टर में भारी पानी के रिसाव में आप किसे ज्यादा खतरनाक मानेंगे? अगर परमाणु भट्टी में रिसाव को आप ज्यादा खतरनाक मानते हैं तो भला बताइये कि मैक्सिको खाड़ी में हुए तेल रिसाव से कितने गुने अधिक मुआवजा तय किया जाना चाहिए?
अधिक तो छोड़िए भारत सरकार भविष्य में किसी परमाणु बिजलीघर में संभावित परमाणु हादसे के लिए अधिकतम मुआवजे की जो राशि निर्धारित कर रही है वह महज 1500 करोड़ रुपये होगा. इसमें भी जो कंपनी शामिल होगी उसके हिस्से में अधिकतम 300 करोड़ अदा करने की जिम्मेदारी होगी और ऐसा ही कोई हादसा परमाणु शोध केन्द्र पर हो जाए तो उक्त शोध कंपनी को केवल 100 करोड़ अदा करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति मिल जाएगी. जिस विभाग द्वारा किसी संभावित परमाणु हादसे के लिए यह मुआवजा निर्धारित किया जा रहा है उस विभाग के मुखिया कोई और नहीं बल्कि हमारे दयाल, शांत, शर्मीले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं. 18 अगस्त को प्रधानमंत्री द्वारा संभाले जा रहे एटामिक एनर्जी विभाग द्वारा तैयार किये गये ड्राफ्ट को भारतीय संसद के दोनों सदनों में रख दिया गया. टी सुब्बीरामी रेड्डी की अध्यक्षतावाली संसदीय समिति पहले ही इस ड्राफ्ट पर अपने सहमति की मुहर लगा चुकी थी. लेकिन प्रशासन से जुड़े कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कह रहे हैं कि उनसे पूछा तक नहीं गया है. ये वो लोग हैं भारत सरकार की संरचना में इस प्रस्तावित ड्राफ्ट से अपनी जिम्मेदारियों को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं. और उनकी जिम्मेदारियां जुड़ी हुई हैं भी. स्वास्थ्य, पर्यावरण, श्रम और जल संसाधन ऐसे विभाग या मंत्रालय हैं जिनकी सहमति लिये बिना इस ड्राफ्ट को अंतिम रूप नहीं दिया जा सकता था. लेकिन उनकी सहमति नहीं ली गयी. विज्ञान और तकनीकि मामलों की इस संसदीय समिति का तर्क है कि उसने संबंधित मंत्रालयों और विभागों को पत्र भेजे थे लेकिन मंत्रालय या विभाग ने बहुत नकारात्मक रुख अख्तियार किया इसलिए ड्राफ्ट पर समिति ने 25 पेज की अपनी रिपोर्ट संसद को सौंप दी.
असल में आज जिसे नागरिक परमाणु सुरक्षा विधेयक बताकर संसद की मुहर लगवाने की कोशिश की जा रही है उसके लिए एक 25 सदस्यीय समिति का गठन किया गया था जिसने बेसिक ड्राफ्ट तैयार किया है. इस समिति का निर्माण फिक्की ने किया था जिसके अध्यक्ष न्यूक्लियर पॉवर कारपोरेशन आफ इंडिया के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक डॉ एस के जैन थे. इस समिति ने एक 57 पेज का ड्राफ्ट तैयार किया. फिक्की द्वारा गठित इस समिति का मकसद था कि कैसे परमाणु बिजली निर्माण के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को निर्बाध रूप से प्राप्त किया जा सके. इस समिति की बैठकों का मुख्य लक्ष्य था कि सन 2022 तक 35,000 मेगावाट और उसके दस साल बाद 2032 तक 60 हजार मेगावाट परमाणु बिजली उत्पादन का लक्ष्य कैसे हासिल किया जा सकता है. इसी पर बातें भी हुईं. फिक्की कैसा संगठन है इसे बताने की जरूरत नहीं है. हालांकि यह अपने आपको एक गैरसरकारी एवं गैरमुनाफाखोर संगठन बताता है लेकिन यह बड़ी कंपनियों के लिए लॉबिंग करनेवाला एक भीमकाय संगठन है जिसमें देश के लगभग सभी प्रभावशाली व्यावसायिक घरानों के मालिक जुड़े हुए हैं. फिक्की से लगभग 83 हजार छोटे बड़े व्यावसायिक घराने सदस्य के रूप में जुड़े हैं. फिक्की ऐसा संगठन है जो अपने सदस्यों के हित के लिए न केवल सरकार में लाबिंग करता है बल्कि अपने अंतरराष्ट्रीय संपर्कों का उपयोग करके भारत सरकार की नीतियों को भी प्रभावित करता है. परमाणु नागरिक सुरक्षा विधेयक के लिए ड्राफ्ट तैयार करते वक्त फिक्की द्वारा गठित समिति ने ऐसी परिस्थितियों में किसका ध्यान ज्यादा रखा होगा इसे समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है.
और केवल फिक्की ही क्यों? सरकार में बैठे हुक्मरान किसके हुक्म की तालीम कर रहे हैं? डॉ श्रीकुमार बनर्जी परमाणु उर्जा आयोग के अध्यक्ष हैं जिन्होंने अनिल काकोदकर के बाद यह जिम्मेदारी संभाली है. बनर्जी ने इस विधेयक को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, वे मानते हैं कि यह विधेयक निर्विवाद है. जब उनके प्रधानमंत्री और संबंधित संसदीय समिति इस विधेयक पर अपनी मंशा जाहिर कर चुके हैं तो बनर्जी भला क्यों उस राय अलग रखेंगे? लेकिन उनकी सहमति को गृहसचिव जी के पिल्लई यह कहते हुए खारिज कर देते हैं कि डॉ बनर्जी अमेरिकी परमाणु उर्जा कंपनियों द्वारा पीछे की गयी गलतियों को नजरअंदाज कर रहे हैं. अमेरिकी परमाणु उर्जा कंपनियां दावा करती हैं कि परमाणु हादसा कोई ऐसा संकट नहीं है जिसका तत्काल हल न निकाला जा सके. ये कंपनियां मानती हैं कि भविष्य में अगर कोई ऐसा हादसा होता है तो तत्काल उसे निष्प्रभावी किया जा सकता है. अमेरिकी कंपनियों की मान्यता तब थोड़ी और जटिल हो जाती है जब वे औद्योगिक हादसे को परमाणु हादसों से बड़ा संकट बताने लगती हैं. जी के पिल्लई इन्हीं आधारों पर डॉ बनर्जी की मंशा पर सवाल उठाते हैं कि आखिर वे प्रस्तावित विधेयक को लेकर इतनी जल्दी में क्यों है? पिल्लई कहते हैं कि यह विधेयक कई विस्तृत पहलुओं को छूता है लेकिन विधेयक में लगभग सभी महत्वपूर्ण बातों को ऩजरअंदाज कर दिया गया है. सुरक्षा के सवाल पर केवल गृहसचिव ही सवाल नहीं उठा रहे हैं. जल संसाधन सचिव यू एन पांजियार की भी आपत्ति है कि हमारे मंत्रालय के पास पानी में किसी संभावित न्यूक्लियर कंटामिनेशन को जांचने परखने की कोई सुविधा ही नहीं है. यह काम एटामिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड के जिम्मे है. लेकिन एईआरबी परमाणु विकिरण को पकड़ने में कितना सक्षम है इसका ताजा उदाहरण दिल्ली के दिल में हुए एक कबाड़ी बाजार में विकिरण के बाद सामने आया था. मायापुरी में रेडियोएक्टिव पदार्थ मिलने के बाद अपनी जांच पड़ताल में एईआरबी ने इलाके को सुरक्षित घोषित कर दिया लेकिन उसके बाद हफ्तों वहां से रेडियोएक्टिव सामग्री बरामद होती रही. अगर यह विभाग एक कबाड़ी बाजार की पड़ताल नहीं कर सकता तो क्या किसी परमाणु बिजली घर के आपदाग्रस्त होने पर लोगों के जानमाल को सुरक्षित कर पायेगा?

स्वास्थ्य मंत्रालय की सचिव सुजाता राव की भी आपत्ति है कि नागरिक परमाणु सुरक्षा विधेयक को तैयार करने से पहले उनसे कोई सलाह नहीं ली गयी. परमाणु उर्जा विभाग ने उनके मंत्रालय से कोई सलाह नहीं ली. यही वह मंत्रालय होगा जो किसी भी परमाणु हादसे के वक्त लोगों के जान की रक्षा करेगा. लेकिन परमाणु उर्जा विभाग ने ड्राफ्ट तैयार करते समय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को यह पूछना भी जरूरी नहीं समझा कि अगर कोई हादसा हो ही जाता है तो भारत के अस्पताल उस हादसे से निपटने के लिए तैयार हैं? अगर सरकार पीड़ितों को मुआवजा भी बांटना चाहेगी तो उसके लिए अस्पताल ही निर्धारित करेंगे कि किसको कितना नुकसान हुआ है और बदले में उन्हें कितना मुआवजा मिलना चाहिए. लेकिन सुजाता राव कहती हैं कि इस विधेयक में ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं किया गया है कि हादसे के स्थान पर अस्पताल की कैसी सुविधा होगी या फिर ऐसे किसी संभावित हादसे से निपटने के लिए उपकरणों, डॉक्टरों की क्या व्यवस्था होगी? एक और मंत्रालय है जिसकी सलाह नहीं ली गयी. खाद्य आपूर्ति मंत्रालय की सचिव डॉ अलका सिरोही ने भी अपना विरोध दर्ज कराते हुए साफ कहा है कि किसी भी संभावित परमाणु हादसे से अन्न और पौधों पर विकिरण का असर होगा. कृषि सचिव प्रबीर कुमार बासु का भी कहना है कि उनके विभाग से सलाह नहीं ली गयी. बासु का कहना है कि अगर चेर्नोबिल जैसा कोई हादसा कभी होता है तो तीस से 100 किलोमीटर के दायरे की जमीन पर उसका सीधा असर होगा. ऐसे में संबंधित मंत्रालय उस खतरे से कैसे निपटेगा, उसका क्या प्रावधान आगामी विधेयक में होना चाहिए, इसके बारे में उनके विभाग से भी कोई सलाह मशविरा नहीं किया गया.
असल में परमाणु हादसों की संभावना होते हुए भी भारत सरकार के शीर्ष पर बैठे लोग इसकी अनदेखी कर रहे हैं. शर्मीले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जानते हैं कि वे आग की ऐसी भट्टी पर उर्जा की खेती करने जा रहे हैं जिसमें थोड़ी सी भी चूक फसल ही नहीं पूरे खेत को खा जाएगा. लेकिन वे न्यूक्लियर कामर्स के ट्रैप में बुरी तरह से फंसे हैं और जब कभी कोई हादसा होगा तो कम से कम मनमोहन सिंह उसे देखने भुगतने के लिए तो नहीं रहेंगे. वे सीधे सीधे अमेरिकी कंपनियों के दबाव में हैं और तुरत-फुरत परमाणु उर्जा उत्पादन को हकीकत बना देना चाहते हैं, भले ही इसके लिए देश को कोई भी कीमत चुकानी पड़े. जहां तक परमाणु उर्जा आयोग और परमाणु उर्जा से जुड़े अन्य विभागों का सवाल है तो वे प्रधानमंत्री के आदेश पर न्यूक्लियर कामर्स के रास्ते की हर बाधा को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं. 26 अप्रैल 1986 को चेर्नोबिल परमाणु हादसे के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो कन्वेंशन हुए. 1995 में जेनेवा में और 2001 में कीव, यूक्रेन में. इन दोनों कन्वेंशन में क्या बातें हुई, क्या समझा और समझाया गया वह आज तक आम जन के लिए टॉप सीक्रेट बना हुआ है. लगता है हमारे संबंधित विभागों और प्रधानमंत्री ने भी चेर्नोबिल हादसे को जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया, ठीक वैसे ही जैसे आईएईए से हाथ मिला लेने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन भी न्यूक्लियर कामर्स का समर्थक बन बैठा है. पूंजी और प्रभाव के इस खेल में आम आदमी की भला क्या बिसात? भोपाल हादसे के छब्बीस साल बाद आये फैसले को देखकर हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री हमें नर्क की किस भट्टी में झोंकने की तैयारी कर रहे हैं. हम न सही, हमारी नस्लें किसी न किसी दिन उस हादसे का शिकार जरूर होंगी जिसका दस्तावेज आज तैयार किया जा रहा है.

सोमवार, 9 जुलाई 2012

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