बाढ़ के बाद हिंसा की आग | |
| Story Update : Wednesday, July 25, 2012 9:02 PM | |
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असम के कोकराझार, चिरांग और धुबरी
जिलों में भड़की जातीय हिंसा के तात्कालिक कारण चाहे जो निकाले जाएं, लेकिन
हकीकत यह है कि वहां काफी दिनों से भीतर ही भीतर आग सुलग रही थी, जिसे
नजरंदाज किया गया। अगर ऐसा नहीं होता, तो न इतनी मौतें होतीं और न ही
हजारों लोगों को अपना घर छोड़कर भागना पड़ता। असम में बोडो छात्र संगठन और
अल्पसंख्यक छात्र संगठन के बीच तनाव नया नहीं है, अतीत में भी उनके बीच
हिंसक झड़पें हुई हैं, लेकिन लगता है कि सरकार ने उनसे कोई सबक नहीं सीखा।
वास्तव में इस तनाव की जड़ में कहीं न कहीं पृथक बोडोलैंड का भी मुद्दा है,
जिसे 2003 में दूसरे बोडो समझौते के तहत बोडो क्षेत्रीय परिषद् के गठन के
बाद खत्म मान लिया गया था।
मगर हकीकत यह है कि यह मुद्दा बोडो जनजाति और गैर बोडो आबादी के बीच विवाद की जड़ है। एक बार फिर से इस विवाद के भीषण रूप से लेने से केंद्र और राज्य सरकारों की अदूरदर्शिता भी उजागर होती है कि कैसे वे तात्कालिक राजनीतिक फायदे के लिए मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल देती हैं। मुख्यमंत्री तरुण कुमार गोगोई इस संकट की वजह बोडो क्षेत्र के आर्थिक पिछड़ेपन और बेरोजगारी को बता रहे हैं। मगर सवाल उठता है कि दस वर्षों से भी ज्यादा समय से तो उनकी अगुआई में ही कांग्रेस की सरकार वहां है, तो इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? यही नहीं, स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा के सदस्य हैं। ऐसा लगता है कि सरकार बोडो क्षेत्र के स्थानीय लोगों की भावनाओं और उनकी जरूरतों को या तो ठीक से समझ नहीं पा रही, या फिर उसे टालने की कोशिश कर रही है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बोडो क्षेत्रीय परिषद् की कमान अभी जिस बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के हाथों में है, उसका 2006 से कांग्रेस के साथ गठबंधन है। फिर ऐसा क्या हुआ कि स्थिति इतनी भीषण हो गई? यह विडंबना ही है कि जब असम राजनीतिक स्थिरता के साथ शांति और विकास की राह पर चल पड़ा था, तब जातीय हिंसा ने उसे एक नए संकट में डाल दिया है। दूसरी ओर असम का एक बड़ा हिस्सा पहले ही बाढ़ की चपेट में है, जहां अभी राहत पहुंचाने की जरूरत है। आपदा मानवीय हो या प्राकृतिक, दोनों ही आम आदमी खासतौर से बुजुर्गों, असहायों, महिलाओं और बच्चों पर भारी पड़ती है। |

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