इंसाफ़ की सुस्त रफ़्तार और पैसे वालों की चांदी
भारत में न्याय व्यवस्था के लिहाज़ से पिछले सात दिन काफी निराशाजनक रहे हैं.
इस
दौरान तीन अलग-अलग मामलों में हाई प्रोफ़ाइल और प्रभावशाली व्यक्ति - एक
बॉलीवुड सितारा, एक ताक़तवर राजनेता और एक पूर्व उद्योगपति को अदालत से
राहत मिली.सड़क पर सो रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ाने के दोषी पाए गए अभिनेता और कॉर्पोरेट धोखाधड़ी और बेहिसाब संपत्ति बनाने के आरोपी उद्योगपति के फ़ैसले टल गए तो राजनेताको दोषमुक्त कर दिया गया.
महंगे वकीलों का फ़ायदा
भारत में न्याय का पहिया धीरे-धीरे घूमता है. अदालतों में तीन करोड़ से ज़्यादा मामले लंबित हैं. इनमें से एक चौथाई, कम से कम पांच साल से अनसुलझे हैं.इंसाफ़ की सुस्त रफ़्तार से फ़ायदा पैसे वालों को होता है क्योंकि गवाहों को ख़रीदा या प्रभावित किया जा सकता है. पैसे और राजनीतिक ताक़त का इस्तेमाल वकीलों और कई बार तो जजों को वश में करने में किया जा सकता है.
अभियोजन पक्ष के गवाह पलटते रहे थे, फिर भी सलमान ख़ान को ग़ैर इरादतन हत्या का दोषी मानने और उन्हें पांच साल की सज़ा देने में मुंबई की एक अदालत को 13 साल लग गए. लेकिन हाई कोर्ट ने इस सजा पर अमल को सिर्फ़ दो दिन में निलंबित कर उन्हें ज़मानत दे दी.
यक़ीनन देश के सबसे अच्छे और महंगे वकीलों तक पहुंच होने का फ़ायदा भी सलमान ख़ान को मिला.
भारत में 10 लाख से ज़्यादा पंजीकृत वकील हैं लेकिन इनमें से ज़्यादातर स्तरहीन लॉ स्कूलों से संदिग्ध डिग्री के साथ पास हुए होते हैं और बहुत कम पढ़े-लिखे होते हैं.
वकील से पत्रकार बने कियान गंज़ के मुताबिक़ ये "दरअसल यह बिचौलिए की तरह काम करते हैं... केस की तलाश में क्लेम कोर्ट के बाहर घूमते रहते हैं या फिर नोटरी के रूप में काम करते हैं."
'अभियोजन की नाकामी'
अट्ठारह साल बाद पिछले साल सितंबर में एक अदालत ने तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयराम जयललिता को आय से अधिक संपत्ति का दोषी पाया था. उन्हें चार साल की सज़ा सुनाई गई थी.करीब सात महीने बाद सोमवार को एक ऊपरी अदालत ने यह कहते हुए, उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त कर दिया कि निचली अदालत ने उनकी संपत्ति को 'बढ़ा-चढ़ाकर' बताया है.
उनके मामले को तमिलनाडु से कर्नाटक इस उम्मीद में स्थानांतरित किया गया था कि मुकदमा निष्पक्ष रूप से चलेगा लेकिन इससे कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ.
सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने वाले करुणा नंदी कहते हैं कि कर्नाटक हाई कोर्ट ने उन्हीं सबूतों की पड़ताल की और अपने 919 पेज के फ़ैसले में 'बार-बार कहा कि अभियोजन पक्ष की नाकामी की वजह से उन्हें दोषमुक्त किया जा रहा है.'
सत्यम कंप्यूटर्स के पूर्व प्रमुख बी रामालिंगा राजू को आपराधिक षड्यंत्र और धोखाधड़ी का दोषी साबित करने और सात साल जेल की सज़ा देने में एक अदालत को छह साल लगे.
एक महीने बाद सोमवार को ऊपरी अदालत ने बचाव पक्ष की यह दलील स्वीकार कर ली कि उन्होंने अपनी सज़ा का पर्याप्त हिस्सा, 35 महीने जेल में गुज़ार दिए हैं. अदालत ने उनकी सज़ा पर रोक लगाते हुए उन्हें ज़मानत दे दी.
गरीब-विरोधी व्यवस्था
इत्तेफ़ाक ही है कि ये फ़ैसले क़रीब-क़रीब एक ही वक्त आए हैं लेकिन यह तय है कि इनसे कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं हो रहा है. यह भी सच है कि भारत की ऊपरी अदालतें अक्सर ही निचली अदालतों के फ़ैसलों को बदलती रहती हैं.उदाहरण के लिए राजनेता लंबे समय से भ्रष्टाचार के मामलों को टालते रहे हैं और अमीर और मशहूर लोग महंगे वकीलों की मदद से आपराधिक मामलों में ज़िम्मेदारी से बचते रहे हैं.
लेकिन बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि हालिया फ़ैसले, भारत की बीमार और अनुचित न्याय व्यवस्था का कलंकित दस्तावेज़ है जो गरीबों के बुरी तरफ़ ख़िलाफ़ हैं और पुलिस की कुत्सित जांच पर निर्भर हैं.
भारत की जेलों में हज़ारों विचाराधीन कैदी इसलिए जेल में रह जाते हैं क्योंकि ज़मानत लेने की उनकी हैसियत नहीं होती. जजों पर भी अक्सर गरीब-विरोधी होने का आरोप लगता है.
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के जयललिता को ज़मानत देने के बाद सुप्रीम कोर्ट के वकील राजीव धवन ने ज़मानत में भेदभाव की बात स्पष्ट रूप से की.
उन्होंने लिखा, "जितने ज़्यादा को ज़मानत मिले वह ठीक है लेकिन इसमें भेदभाव नहीं. हमारे यहां ज़मानत देने की प्रणाली स्पष्ट नहीं है - ख़ासतौर पर दोष साबित होने के बाद. ऐसे मामलों में जज अपराध और बर्ताव का आकलन मनमाने ढंग से पूरी तरह गरीबों के ख़िलाफ़ करते हैं."
न्याय प्रक्रिया ही सज़ा
हालिया फ़ैसलों से मुझे हाल ही में आई भारतीय फ़िल्म 'कोर्ट' की याद आ गई जो संभवतः अब तक बनी साल की सबसे अच्छी फ़िल्म है. यह भारत की भेदभावपूर्ण और अप्रचलित न्याय प्रणाली को बहुत सलीके से एक सीख में पिरो देती है.एक अल्पकालिक शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता को फर्जी आरोपों में, कि उनके भड़काऊ गाने सुनकर सीवर में काम करने वाले एक कर्मचारी ने ख़ुदकुशी कर ली, अदालत में घसीट लिया जाता है.
यह मामला नीरस अदालती कक्षों में घिसटता रहता है और इसका अंत नज़र ही नहीं आता.
हॉवर्ड लॉ स्कूल के प्रोग्राम ऑन दि लीगल प्रोफ़ेशन और दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के फेलो निक रॉबिन्सन ने मुझे बताया कि ऐसे जज भी होते हैं जो अक्सर सही काम करने की कोशिश कर रहे होते हैं. लेकिन राजनीति और पैसा इस व्यवस्था में इस क़दर घुसा हुआ है कि यह पलड़े को साफ़तौर पर ताक़तवर लोगों के पक्ष में झुका देता है.
वो कहते हैं, "मुझे ऐसा भी लगता है कि कुछ जज यह भी सोचते हैं कि अगर वह ताक़तवर लोगों को ज़्यादा ही सज़ा देते हुए दिखेंगे तो उनके ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया भी हो सकती है जो उनके करियर या उनके न्यायिक अधिकार पर असर डाल सकती है."
भारत को ज़्यादा जजों की ज़रूरत है, ज़्यादा और बेहतर पढ़े-लिखे वकीलों की ज़रूरत है. इसके साथ ही बुद्धिजीवी देवेश कपूर और मिलान वैष्णव के शब्दों में 'जीर्ण-शीर्ण और बंद' अदालतों की मरम्मत की भी जरूरत है.
कपूर और वैष्णव कहते हैं कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो न्यायिक प्रक्रिया खुद ही एक सज़ा बनी रहेगी.
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