अन्नदाता की आवाज को टिकैत जैसे संगठित आन्दोलन की दरकार
(किसान मसीहा चौधरी टिकैत की चैथी पुण्यतिथि पर विशेष)
धर्मेन्द्र मलिक
{लेखक भारतीय किसान यूनियन उत्तर प्रदेश प्रवक्ता हैं }
संसद
से लेकर गांव के गली-कूचों तक आज किसान की बदहाली का शोर सुनाई दे रहा है।
किसान की इस स्थिति के लिए राजनैतिक दल एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे
है, लेकिन किसानों को राहत देने के लिए वहीं ढाक के तीन पात नजर आ रहे है।
अस्सी के दशक में जब किसानों का उत्पीडन चरम सीमा पर था। किसानों के साथ
अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उस समय देश का किसान सरकारी तन्त्र से
पीडि़त था। इस उत्पीडन के विरूद्ध देश के विभिन्न कौनों से अन्नदाता की
मजबूत आवाज को कई गैर राजनैतिक किसान नेताओं ने धार देने का काम किया। उसी
आवाज में से एक आवाज थी, चै. महेन्द्र सिंह टिकैत जी की थी। जिसका उद्भव
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनपद मुजफ्फरनगर के कस्बा सिसौली से हुआ था। बिहार
में इसकी अगुवाई स्वामी सहजानन्द सरस्वती, महाराष्ट्र में शरद जोशी,
कर्नाटक में प्रो. नजुन्डा स्वामी, गुजरात के विपिन देसाई व उत्तर भारत में
चै. महेन्द्र सिंह टिकैत ने की। किसानों की आवाज को सरकारी स्तर पर दबाने
के तमाम प्रयास किये गये, लेकिन शुद्ध खांटी किसान, लम्बी कदकाठी व राजनीति
से परहेज रखने वाले चै. महेन्द्र सिंह टिकैत जी ने किसानों की आवाज को
प्रदेशों की सरकार से लेकर दिल्ली तक की सरकार को किसान एकता के बल पर
सुनने को मजबूर किया।
वर्तमान परिदृश्य में आज
किसान तमाम समस्याओं से जूझ रहा है। रिकाॅर्ड पैमाने पर किसान आत्महत्या कर
रहा है। आज किसान को टिकैत जैसे खांटी नेता की दरकार है। आज देश के गन्ना
किसानों का लगभग 25 हजार करोड़ रुपया बकाया है। लम्बे समय से प्राकृतिक
आपदाओं की मार झेल रहे किसानों को हाल में ही आयी प्राकृतिक आपदा से फसलों
की बर्बादी ने किसानों को इस कदर तोड़ दिया कि देश के सैकड़ों किसानों ने
सदमें व आत्महत्याओं के कारण जान दे दी। सभ्यता और विकास के नाम पर जिस तरह
से आदिवासियों को जमीन एवं जंगल से बेदखल किया जा रहा है। उसी तरह
औद्योगिकरण एवं विकास के नाम पर किसानों की जमीन से बेदखली का कार्य बडे
पैमाने पर जारी है। सरकारें किसानों को जमीन से हटाने पर आमादा है। जिसका
ताजा उदाहरण वर्तमान में लाया गया, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश है। चै. टिकैत
की लड़ाई का एक मुख्य मुद्दा फसलों का वाजिब दाम था। विभिन्न मंचों एवं
आन्दोलन के माध्यम से चै. टिकैत जीवन पर्यन्त किसानों के इस महत्वपूर्ण
मुद्दे को उठाते रहे, लेकिन आंकड़ों की जादूगरी सरकारों मंे इच्छा शक्ति का
अभाव के कारण आज भी किसानों को उनकी फसलों का उचित लाभकारी मूल्य नहीं मिल
पाता है। आज किसानों के सामने हालात यह है कि देश के भण्डारों को अन्न से
भरने वाले किसान खुद भूखे व बदहाल है। आज अगर किसान कम उत्पादन करता है तो
भी मुसीबत, अधिक पैदावार करता है तो भाव नहीं मिलने के कारण मुसीबत अखिर
किसान करें तो क्या करें? आज देश का अन्नदाता राजनीतिक दलों के लिए मुद्दा
बन गया है, लेकिन किसी भी दल के एजेन्डे में किसान नहीं है। यह कहना
अतिश्योक्ति नहीं है कि किसान सिर्फ वोट बैंक व लैण्ड बैंक बनकर रह गया
है।
देश के कौने-कौने में किसान त्राही-त्राही
कर रहा है, लेकिन सरकार देश को जीडीपी समझाने में लगी हुई है। देश में
गन्ना, गेहूं, धान, रबड, कपास, जूट, आलू, टमाटर, नारियल, काली मिर्च,
इसबगोल हर उत्पाद को किसान लागत मूल्य से कम कीमत पर बेचने को मजबूर है।
ऐसा नहीं है कि इन सब मसलों पर सरकार अनजान है। संसद के सभी सत्रों में
किसानों की बदहाली पर छोटी-छोटी चर्चा जरूरी होती है। किसान के नाम पर सभी
दलों की एक जुटता भी दिखाई देती है, लेकिन नीति निर्माता किसानों के लिए
बनी सरकारी योजनाओं में किसानों को राहत देने के कतई मूड में नहीं होती।
तमाम दावों के बावजूद आज भी किसानों का बीज खाद एवं मण्डी तक उत्पीडन जारी
है। लम्बे समय से किसान विभिन्न राज्यों में बाढ़, सूखा, असमय बारिश,
हुद-हुद जैसे हालात से जूझ रहें किसानों को राज्य व देश की सरकारें सिवाय
एक दूसरे को नीचा दिखाने के धरातल पर कोई राहत देती नजर नहीं आ रही।
ऐसी
विषम परिस्थितियों में 80 के दशक में भारतीय किसान यूनियन के नाम से
सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार व बिजली के दाम बढ़ाये जाने व किसानों को
उनकी फसलों का मूल्य न मिलने के कारण गैर राजनैतिक आन्दोलन का उद्भव हुआ
था। किसानों का उत्पीडन चरम पर था। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बिजली के
दामों में भारी वृद्धि कर दी गयी थी। ऐसे में शुद्ध रूप से किसान देशी
अंदाज राजनीति से परहेज करने वालें चै. महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की
आवाज को धार दी। भारतीय किसान यूनियन द्वारा चै. महेन्द्र सिंह टिकैत की
अगुवाई में पहला आन्दोलन करमुखेडी बिजली घर पर 27 जनवरी 1987 को किया गया।
किसानों के अचानक खडे़ हुए इस आन्दोलन से निपटने हेतु पुलिस ने निहत्थे
किसानों पर गोलियां चलाई जिसमें मुजफ्फरनगर के गांव लिसाढ़ के जयपाल सिंह व
सिंभालका के अकबर अली पुलिस की गोली से शहीद हो गये। जिसमें पीएसी के एक
जवान की भी मौत हो गई, लेकिन इस गोली काण्ड ने किसानों में क्रांति का
संचार किया। किसान आन्दोलन का यह कारवां इस तरह से बढ़ा कि शहीद किसान
जयपाल सिंह की अस्थियां गंगा में प्रवाहित किये जाने हेतु 25 किलोमीटर से
भी अधिक किसानों के टैªक्टरांे का काफिला सडक पर उमड पडा।
इसके
बाद चै. टिकैत ने किसानों की समस्याओं को लेकर मेरठ कमिश्नरी को घेरने का
ऐलान कर दिया। जिससे उत्तर प्रदेश की सरकार में हडकम्प मच गया। तमाम
प्रयासों के बावजूद भी टिकैत अपनी घोषणा से टस से मस नहीं हुए और 27 जनवरी
1988 को किसानों के साथ मेरठ के लिए कूच कर दिया। लाखों की संख्या में
किसान मेरठ कमिश्नरी पर 19 फरवरी तक डटे रहे। यह किसानों का ऐसा अदभूत संगम
था कि हर कोई राजनीतिक दल इस आन्दोलन से अपने आप को जोड़ना चाहता था। इस
आन्दोलन में लोकदल के अध्यक्ष हेमवती नन्दन बहुगुणा, जनमोर्चा नेता सतपाल
मलिक, वीरेन्द्र वर्मा, आरिफ बेग, कल्याण सिंह, चन्द्रजीत यादव, गायत्री
देवी, वीपी सिंह, शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी, मेनका गांधी, फिल्म अभिनेता
राजबब्बर आदि तमाम नेताओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। इस आन्दोलन के समय
मेरठ साम्प्रदायिक दंगों की आग से झुलस रहा था, लेकिन चै. टिकैत के दिये
नारे अल्लाह हु अकबर, हर हर महादेव के नारे से लोगों को साम्प्रदायिकता से
निकालकर किसान बना दिया। इसके बाद जनपद मुरादाबाद के रजबपुर में गन्ना
किसानों की समस्याओं को लेकर किसानों ने 6 मार्च 1988 को किसानों ने सड़क
और रेलमार्ग ठप कर दिया। पुलिस ने रास्ता खुलवाने को लेकर किसानों पर
फायरिंग की जिसमें पांच किसान शहीद हो गए और सैकड़ों किसान घायल हुए। इसके
बाद भी यह आन्दोलन 23 मार्च तक चला।
इसके बाद
चै. टिकैत ने किसानों की आवाज को दिल्ली के हुक्मरानों तक पहुंचाने के लिए
दिल्ली में किसान पंचायत की घोषणा कर दी। 25 अक्टूबर 1988 को कई लाख
किसानों के साथ चै. टिकैत ने वोट क्लब नई दिल्ली पर किसान महापंचायत का
आयोजन किया, लेकिन सरकार की बेरूखी के कारण चै. टिकैत ने इस महापंचायत को
अनिश्चित कालीन धरने में तब्दील कर दिया। किसान आन्दोलन के इतिहास में यह
आन्दोलन महत्वपूर्ण इतिहास रखता है। किसानों के इस आन्दोलन की गूंज सिसौली
से संसार के अन्य देशों में भी सुनाई पडी। इसी दौरान देश की पूर्व
प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी की पुण्यतिथि का आयोजन वोट क्लब पर
किया जाना था। पुलिस ने लाठियों के दम पर वोट क्लब से किसानों को हटाने का
प्रयास किया, लेकिन किसानों की एकता के सामने देश की सरकार को झुकना पडा।
कांगे्रस पार्टी ने इस आयोजन के स्थान बदलने का निर्णय लिया। इसके बाद
टिकैत ने पीछे मुडकर नहीं देखा। इसी क्रम में 27 मई 1989 को जनपद अलीगढ के
खैर में बडा आन्दोलन चलाया गया। 2 अगस्त 1989 को जनपद मुजफ्फरनगर के भोपा
में नहर के किनारे नईमा अपहरण काण्ड के विरोध में 40 दिन तक लम्बा आन्दोलन
किया। इसके बाद चै. टिकैत ने देश के सभी किसान संगठनों को एक मंच पर लाने
की कवायद शुरू की। जिससे देश के अन्नदाता की आवाज की धमक को और मजबूती मिल
सके। चौ. टिकैत के इस प्रयास से कर्नाटक के किसान नेता नजुन्डा स्वामी,
आन्ध्रप्रदेश के किसान नेता पी. शंकर रेड्डी, पंजाब के भूपेन्द्र सिंह मान,
महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी, हरियाणा से घासीराम नैन, प्रेम सिंह
दहिया आदि के साथ मिलकर एक किसान समन्वय समिति का गठन किया। इसी मंच से देश
के किसानों की लडाई को इकट्ठा होकर लड़ा गया।
चौ.
टिकैत के आन्दोलन के समय हर नेता सिसौली की दौड लगाने को आतुर था। यहीं
कारण था कि श्री मुलायम सिंह यादव, श्री चन्द्रशेखर, श्री वी.पी. सिंह,
श्री वीर बहादुर सिंह से लेकर श्री देवगौडा तक सिसौली पहुंचकर चौ.टिकैत के
साथ मंच साझा किया।
चौ. टिकैत के आन्दोलन में न
तो कोई नेता था, न ही कोई पदाधिकारी इस आन्दोलन में हर आदमी किसान होता था।
चै. टिकैत के आन्दोलन में कभी भी न तो कोई बडा मंच होता था और न ही कोई
नेता संस्कृति। चै. टिकैत जनता के बीच में बैठते और अपना भाषण देकर जनता के
बीच ही बैठे रहते थे। चै. टिकैत की इसी सहजता से वे किसानों के लोकप्रिय
नेता हो गये। किसानों द्वारा चैधरी टिकैत को महात्मा, किसान मसीहा, बेताज
बादशाह की संज्ञा भी दी गयी, लेकिन चै. टिकैत की मृत्यु के बाद किसान
आन्दोलन में उनके स्थान शून्यता की भरपाई नहीं हो पाई है। आज देश का किसान
आत्महत्या कर रहा है, किसानों को उनकी फसलों का मूल्य नहीं मिल पा रहा है।
किसान खेती छोड रहा है, लेकिन अन्नदाता की आवाज की धमक दिल्ली में कमजोर
पडी है। आज सरकारें तानाशाह की तरह कार्य कर रही है। चै. टिकैत का संघर्ष
किसानों के लिए सतत जारी रहा। चै. टिकैत ने जहां बडे किसानों की जमीन बचाने
की लडाई लडी वहीं छोटे किसानों की खेतीहर मजूदर बनने पर हमेशा चिंतित
रहें। चै. टिकैत हमेशा जात-पात से परे थे। अपने करिश्माई नेतृत्व और भोलेपन
के अंदाज से सरकारों की चूले हिला देने वाले चै. टिकैत पर कोई अंगुलियां
नहीं उठी। चौ. टिकैत के सिसौली की चारपाई पर बैठकर किये गये फैसलों को कभी
किसी अदालत मंे चुनौती नहीं दी जा सकी।
देश में
किसानों के अनेक संगठन है, लेकिन किसानों की आत्महत्याएं कुछ ओर ही इशारा
कर रही है। व्यक्तिगत कारणों व वर्चस्व की लडाई में अन्नदाता की आवाज की
धार में कमी आयी है। इसके तमाम दूसरे कारण भी है। आज देश के किसान को बचाने
हेतु एवं उनकी आवाज बुलन्द करने हेतु किसानों को उनके मुद्दों को समझाने
एवं संगठित करने की आवश्यकता है। भू-मण्डलीकरण एवं औद्योगिकरण के इस दौर
में काॅर्पोरेट आन्दोलन को चै. टिकैत के संगठित कोपरेटिव किसान आन्दोलन से
टक्कर देने की दरकार है। किसान नेताओं को भी यह समझना होगा कि चै. टिकैत एक
आन्दोलन नहीं देश के किसानों के लिए एक विचार है। चै. टिकैत के साधा भोजन
उच्च विचार वाले जीवन का अनुसरण करके ही किसान की आवाज को धार दी जा सकती
है। चै. टिकैत के जीवन का उद्देश्य किसानों को इतना जागरूक करना था कि देश
का किसान भी बिना किसी नेतृत्व और नेता के अपनी बात को हुक्मरानों को कह
सके। उनका यह सपना बखूबी पूरा भी हुआ, आज किसान में इतनी जागरूकता है कि
उत्पीडन के खिलाफ आये दिन किसान सडकों पर अपनी आवाज बुलन्द करते देखे जाते
है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर किसानों की एकता में आयी कमी के कारण किसान
खेती किसानी के मुद्दों पर आक्रमक लडाई नहीं लड पा रहा है। ऐसे समय में
किसानों को संगठित करने की जिम्मेदारी भारतीय किसान यूनियन की अधिक बढ़
जाती है। ऐसा एक प्रयास की शुरूआत पिछले माह में गांधी जी के आश्रम
सेवाग्राम (वर्धा) से हुई भी है। जिसमें देश के विभिन्न राज्यों से करीब 50
से अधिक किसान संगठनों व चिन्तकों ने राष्ट्रीय मुद्दों पर संयुक्त लडाई
लडने हेतु मुद्दों पर आधारित एक मांग पत्र तैयार किये जाने हेतु संयुक्त
कमैटी का गठन भी किया गया है। देश में जारी अन्नदाता की आत्महत्याओं को
रोकना भारतीय किसान यूनियन व अन्य संगठनों के लिए बडी चुनौती है। जिसका हल
मिल बैठकर ही निकाला जा सकता है। किसानों की आवाज को धार देना ही किसान
मसीहा चै. टिकैत साहब के प्रति सच्ची श्रृद्धांजली होगी।
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