शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

आजाद देश की गुलाम किशोर आबादी ?


आजाद देश की गुलाम किशोर आबादी ?

एक अरब इक्कीस करोड़ की आबादी वाले भारत में 20 फीसदी व्यक्ति किशोर
उम्र (10-19साल) के हैं,
मतलब किसी भी अन्य देश के किशोरवय लोगों की संख्या की तुलना में ज्यादा।( भारत में इस उम्र के लोगों की कुल तादाद 24 करोड़ 30 लाख है जबकि चीन में किशोरवय लोगों की संख्या तकरीबन 20 करोड़ है।)
हरियाणा के बागपत और असम के गुवाहाटी से आने
वाले महिला-उत्पीड़न �
�ी खबरों
के बीच यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि दुनिया की सबसे बड़ी किशोर आबादी की दशा जीवन के महत्वपूर्ण फैसलों(शादी
, संतान आदि) के मामले में पसंद-नापसंद यानी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिहाज से कैसी है? इस स्वतंत्रता के साथ देश में प्रचलित जाति-पंचायतें क्या बरताव करती हैं और देश के मानव-विकास पर इसका क्या असर पड़ता है?(इन सवालों के उत्तर की एक झलक मिलती है इस एलर्ट के सबसे नीचे पेस्ट की गई विविधा फीचर्स द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट से)
हाल की कई रिपोर्टों में भारत की किशोरवय आबादी, विशेषकर किशोरवय स्त्रियों की दशा पर रोशनी डाली गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ क
ी रिपोर्ट के अनुसार
भारत में 20-24 साल की उम्र की 22 फीसदी महिलाएं साल 2000-2010 की अवधि में 18 साल से कम उम्र में मां बनीं। इस तथ्य का एक संकेत यह है कि भारत जैसे देश में बाल-विवाह का चलन जारी है। सेव द चिलड्रेन की तरफ �
�े जारी एक नई रिपोर्ट
में इसी तथ्य की तरफ इशारा करते हुए कहा गया है कि भारत में 15-19 साल के उम्र की विवाहित महिलाओं की संख्या 30 फीसदी है।जबकि इस उम्र के लड़कों में महज पाँच फीसदी ही शादीशुदा हैं। इन रिपोर्टों के अनुसार चूंकि भारत में
, गरीब परिवारों में 20 साल या इससे कम उम्र की तकरीबन 30 फीसदी माताओं को ही प्रसव के दौरान प्रशिक्षित चकित्साकर्मियों की देखभाल मिल पाती है, सो इस उम्र में मां बनने वाली महिलाओं की प्रसवकालीन मृत्यु-दर भी ज्यादा है।
 
 
                         पंचायतों के ये तानाशाही फैसले
                                                    बाबूलाल नागा
 
इन दिनों जाति पंचायतों की तानाशाही बढ़ती जा रही है। कभी तो वे अपनी पसंद से शादी करने वाले नौजवानों कोमारने का फतवा देते हैं। कहीं जबरन बाल विवाह को नामंजूर करने से रोकते हैं। कहीं ये पंचायतें लोगों की जान की दुश्मन बन जाती है। पिछले दिनों राजस्थान राज्य में ऐसे ही कुछ जाति पंचायतों के तानाशाही फैसलों की खूब चर्चा हुई है।
जोधपुर की एक जातीय पंचायत ने बाल विवाह को निरस्त करने पर लड़की के घरवालों पर नौ लाख रुपए का जुर्माना ठोक दिया है। बिरादरी से बाहर करने की धमकी भी दी है। शोभा नाम की इस लड़की की शादी महज दस साल की उम्र में कर दी गई थी। लड़की ने अब अपनी बीए की पढ़ाई पूरी कर ली है। बचपन में की गई इस शादी को न मानते हुए उसने ससुराल जाने से मना कर दिया है। समाज के लोग उन पर दबाव बना रहे हैं। उसे धमकियां भी दे रहे हैं। जोधपुर जिले में ही बोयल गांव की रेखा और दौसा की संतरा ने भी जाति पंचायत के फैसलों के खिलाफ बगावत की है। संतरा राजपत्रित अधिकारी है। उसका पति दसवीं फेल है और नशे का आदी है। बचपन में कर दी गई यह शादी संतरा को कबूल नहीं। सब कुछ जानते हुए वो एक नशेड़ी आदमी के साथ नहीं रहना चाहती। संतरा ने इस फैसले को नहीं माना है। जातीय पंचायत ने धमकी दी है। कहा है, किसी भी कीमत पर संतरा का अपहरण करके भी ससुराल भेजेंगे। संतरा को रातोंरात घर छोड़कर भागना पड़ा।
उसने कलक्टर व पुलिस अधीक्षक को इस बारे में बताया। रेखा भी बीए अंतिम वर्ष की छात्रा है। उसका मंगेतर नशेड़ी और दसवीं मंे दो बार फेल है। वो जब पांच साल की थी तब उनका रिश्ता तय हुआ था। रेखा के दादा ने उनका मुंह जुबानी रिश्ता तय किया था। रेखा ने ऐसे रिश्ते को मानने से इंकार कर दिया है। इस पर पंचों ने रेखा के घर वालों पर जुर्माना भरने का फरमान सुनाया है। युवक ने रेखा को उठा ले जाने व तेजाब डालने की भी धमकी दी है।
श्रीगंगानगर थाना क्षेत्र की मसानीवाला पंचायत के गांव 7एलसी की पंचायत ने एक दलित युवक को जूतों की माला पहनाकर सरेआम उसे गांव में घुमाने की सजा दी। पंचायत ने दलित युवक मुकेश कुमार पर चोरी का आरोप लगाकर ये सज़ा दी। उसकी पत्नी सुमन मेघवाल ने हिम्मत करके उसे छुड़ाया। पति की बेइज्जती से वह दुखी हो गई और जहरीला पदार्थ खा लिया। तबीयत बिगड़ने पर उसे अस्पताल में भर्ती करवाया गया। टोंक के चंदवाड़ में समाज के पंच पटेलों ने गांव के हंसराज बैरवा को जाति से बाहर कर हुक्का पानी बंद कर दिया। हंसराज ने बाबा रामदेव के मंदिर निर्माण में चंदा देने से मना कर दिया था। इसी बात पर पंचों ने उसे ये सजा दी। हाल ही में जयपुर के बस्सी उपखंड के ग्राम गोठड़ा में जातीय पंचायत के माध्यम से एक परिवार को समाज से बहिस्कृत करने, हुक्का पानी बंद करने, समाज की धर्मशाला, सार्वजनिक स्थानों, मंदिर आदि में जाने पर रोक लगाने का मामला सामने आया। गोठड़ा निवासी नारायण लाल माली के खिलाफ समाज की एक अनौपचारिक सभा का पर्चा बंटवाया। सभा में उसके खिलाफ निर्णय सुनाते हुए 11 हजार रुपए का अर्थदंड लगाया। गत वर्ष भीलवाड़ा जिले के बड़ा महुआ गांव के 31 दलितों परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था। इन दलित परिवारों ने जलझूलनी एकादशी पर लोकदेवता रामदेव पीर की शोभायात्रा निकाली थी। गांव के सवर्ण परिवारों ने इस शोभायात्रा का विरोध किया था। इसी कारण इन दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार किया गया। पूरे पांच माह बीस दिन बाद इन दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार खत्म हो पाया था।
हमारा देश अभी भी जाति पंचायतांे के गैर संवैधानिक और अमानवीय फैसलों के साए में जी रहा है। जातीय पंचायतों की ऐसी हरकतें दिन ब दिन बढ़ती जा रही हंै। ऐसे तमाम मामलों में पंचायतें कानून विरोधी फैसले कर रही हैं। अब तक पंचायतों को इन नाजायज फैसलों से रोकने के लिए कोई असरदार कदम नहीं उठाए गए हैं। इन पंचायतों में एक तरफ आम जनता के इंसानी हकों को छीना जाता है। दूसरी तरफ तरक्की पसंद नौजवानों को सरेआम दंडित किया जा रहा है। सबसे बड़ी बात ये कि इन पंचायतों में औरतों की न तो भागीदारी होती है न ही सुनवाई। सवाल यह भी है कि जाति पंचायतों की बैठकें किसी बंद कमरे की बजाए खुले मैदान में होती है। इसके बाद भी कोई इन जातीय फैसलों के खिलाफ नहीं हो पाता। हैरानी है कि अब तक न्यायपालिका का ध्यान इन पंचायतों की तरफ क्यों नहीं गया। इनके खिलाफ किसी न्यायालय की पहल से अब तक कोई आदेश जारी क्यों नहीं किया गया।

किशोर आबादी के कुछ अनजाने तथ्य - यूनिसेफ की नई रिपोर्ट [Share this article] [Share this article] दुनिया में किशोर उम्र के लोगों की तादाद 1 अरब 20 लाख है लेकिन आबादी के इतने बड़े हिस्से के रोजमर्रा की जिन्दगी के बारे में- उसके आस-निरास, आशा-आकांक्षा और उसके सामने खड़ी बाधाओं के बारे में हमारी जानकारी कितनी है ? यूनिसेफ की नई रिपोर्ट प्रोग्रेस फॉर चिल्ड्रेन- अ रिपोर्टकार्ड ऑन एडोलेसेंट का निष्कर्ष है- “ बहुत कम ।” मिसाल के लिए भारत के बारे में ही सोचें। विज्ञापनों की भाषा और चुनाव-प्रचार के तकाजों से लैस बहस-मुबाहिसों में भारत का एक नाम “ यंगिस्तान ” है। लेकिन शायद ही कभी भारत के बारे में बताया जाता है कि यहां की आबादी में 20 फीसदी व्यक्ति किशोर उम्र (10-19साल) के हैं और भारत में इस उम्र के लोगों की कुल तादाद 24 करोड़ 30 लाख है जो किसी भी अन्य देश के किशोरवय लोगों की संख्या की तुलना में ज्यादा है। (चीन में किशोरवय लोगों की संख्या तकरीबन 20 करोड़ है।) ऐसे में सवाल उठना चाहिए कि, दुनिया की सबसे ज्यादा किशोर आबादी वाले देश भारत में किशोरों की दशा कैसी है- सेहत के मानकों पर या फिर जीवन के महत्वपूर्ण फैसलों(शादी, संतान आदि) के मामले में पसंद-नापसंद के लिहाज से? इसका एक अंदाजा आप खुद लगायें। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 20-24 साल की उम्र की 22 फीसदी महिलाएं साल 2000-2010 की अवधि में 18 साल से कम उम्र में मां बनीं। भारत में, गरीब परिवारों में 20 साल या इससे कम उम्र की तकरीबन 30 फीसदी माताओं को ही प्रसव के दौरान प्रशिक्षित चकित्साकर्मियों की देखभाल मिल पाती है। अगर इन तथ्यों के साथ इस बात का भी ख्याल रखें कि भारत में 15-19 वर्ष की तकरीबन 47 फीसदी महिलायें औसत से कम वज़न की हैं और इस उम्र की 50 फीसदी से ज्यादा महिलायें रक्ताल्पता(एनीमिया) की शिकार हैं तो फिर सहज ही कल्पना की जा सकती है कि स्वास्थ्य, जीवन-संभाव्यता और जीवन के रोजमर्रा की स्थितियों पर पकड़ के मामले में भारत में किशोरवय विवाहित स्त्रियों की दशा कैसी है ! क्या ये तथ्य इशारा करते हैं कि भारत में किशोरावस्था में विवाह ( बाल-विवाह का एक रुप?) अब भी बड़े पैमाने पर प्रचलित है ? रिपोर्ट के आंकड़ों को खंगालने पर इसका उत्तर हां में मिलता है। यूनिसेफ की उपर्युक्त रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया और उप-सहारीय अफ्रीका में 15-19 साल की उम्र की सर्वाधिक महिलायें या तो शादीशुदा हैं या फिर किसी ना किसी रुप में उनका यौन-संबंध बन चुका है। रिपोर्ट में चेतावनी के स्वर में कहा गया है कि किशोरवय में लड़कियों के ब्याहे जाने की तादाद इससे भी ज्यादा हो सकती हैं क्योंकि जो लड़की अभी अब्याही है उसके बारे में शंका करने के पर्याप्त आधार हैं कि किशोरावस्था के पूरा होने से पहले ही उसका ब्याह कर दिया जाएगा। मिसाल के लिए, रिपोर्ट में दिए गए इस तथ्य पर गौर करें- विकासशील देशों में 20-24 साल के आयुवर्ग की एक तिहाई से ज्यादा महिलाओं का ब्याह 18 साल या उससे कम उम्र में हो जाता है। ऐसे विवाह की परिणतियां सामाजिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक धरातल पर महिलाओं को कमजोर करने में होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार- अपने माता-पिता के परिवार से दूर ऐसी किशोरवय महिलायें ज्यादातर मामलों में ना तो अपनी औपचारिक पढ़ाई पूरी कर पाती हैं ना ही उनके अन्य मानवाधिकारों की कायदे से पूर्ति हो पाती है। इस तथ्य की तरफ इशारा करते हुए कि किशोरावस्था व्यक्तित्व के विकास का निर्णायक चरण है रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है कि सह्राब्दी विकास-लक्ष्यों के अनुरुप- “ हमें किशोरवय आबादी के लिए ज्यादा संसाधन खर्च करने चाहिए ” अन्यथा आगे के दिनों में हमारा सामना एक ऐसी पीढ़ी से होगा जो समाज के सदस्य के तौर पर कम कार्य-कुशल और उत्पादक होगी। रिपोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य- प्रोग्रेस फॉर चिल्ड्रेन- अ रिपोर्टकार्ड ऑन एडोलेसेंट(यूनिसेफ), नंबर 10,अप्रैल 2012 नामक दस्तावेज के अनुसार http://www.unicef.org/media/files/PFC2012_A_report_card_on _adolescents.pdf: • दुनिया की कुल आबादी में किशोरवय(10-19 वर्ष) व्यक्तियों की तादाद 1 अरब 20 करोड़ यानी 18 फीसदी है। किशोरवय कुल व्यक्तियों में आधे से अधिक एशिया में रहते हैं। भारत में किशोरवय लोगों की तादाद 24 करोड़ 30 लाख है जो किसी भी अन्य देश के किशोरवय लोगों की संख्या की तुलना में ज्यादा है। चीन में किशोरवय लोगों की संख्या तकरीबन 20 करोड़ है। • वैश्विक स्तर पर प्रतिवर्ष 1 करोड़ 40 लाख किशोरवय व्यक्ति सड़क-दुर्घटना, प्रसवजनित जटिलताओं, आत्महत्या, हिंसा, एड्स और अन्य कारणों से मौत का शिकार होते हैं।. • साल 2010 में भारत में 10-19 साल की उम्र के व्यक्तियों की संख्या कुल आबादी में 20 फीसदी थी। • भारत में 20-24 साल की उम्र की 22 फीसदी महिलाएं साल 2000-2010 की अवधि में 18 साल से कम उम्र में मां बनीं।. • भारत में 15-19 वर्ष की तकरीबन 47 फीसदी महिलायें औसत से कम वज़न की हैं और उनका बॉडी मॉस इंडेक्स 18.5 से कम है।. • भारत में 15-19 साल के आयु वर्ग की 50 फीसदी से ज्यादा महिलायें रक्ताल्पता(एनीमिया) की शिकार हैं। इस आयु-वर्ग में तकरीबन 39 फीसदी महिलायें साधारण तौर पर एनीमियाग्रस्त हैं, 15 फीसदी महिलाओं में एनीमियाग्रस्तता मंझोले दर्जे की है जबकि कुल 2 फीसदी महिलायें गंभीर रुप से एनीमियाग्रस्त हैं।. • बांग्लादेश, भारत और नाइजीरिया को एक साथ मिलाकर देखें तो किशोरवय में मां बनने वाली हर तीन महिला में से एक इन्हीं देशों से है।. • भारत में, गरीब परिवारों में 20 साल या इससे कम उम्र की तकरीबन 30 फीसदी माताओं को ही प्रसव के दौरान प्रशिक्षित चकित्साकर्मियों की देखभाल मिल पाती है जबकि अमीर देशों में इस उम्र की तकरीबन 90 फीसदी महिलाओं को प्रसव के दौरान प्रशिक्षित चिकित्साकर्मियों की सहायता हासिल होती है।. • भारत में अमीर परिवारों की तुलना में गरीब परिवारों में कम उम्र महिलाओं के 18 साल से कम उम्र में मां बनने की संभावना 7 गुना ज्यादा है। • भारत में साल 2002-2010 की अवधि में 15-19 साल की उम्र के तकरीबन 57 फीसदी पुरुषों ने माना कि पत्नी को पति के द्वारा किन्हीं परस्थितियों में पीटना जायज है जबकि इसी अवधि में इसी उम्र की तकरीबन 53 फीसदी महिलाओं की मान्यता थी कि पत्नी का पति के हाथों प्रताडित होना किन्हीं परिस्थितियों में जायज है।. • भारत में साल 2005-2010 के बीच 15-19 साल की तकरीबन 8 फीसदी महिलाओं के 15 साल से कम उम्र में यौन-संबंध बने जबकि इसी अवधि में इसी उम्र के 3 फीसदी पुरुषों के यौन-संबंध बने।. • भारत में 15-19 साल की तकरीबन 19 फीसदी महिलाओं को साल 2005-2010 की अवधि में एड्स की समग्र जानकारी थी जबकि इसी अवधि में इसी उम्र के 35 फीसदी पुरुषों को एडस् की समग्र जानकारी थी। • भारत में 15-19 साल की तकरीबन 30 फीसदी महिलायें वर्ष 2000-2010 की अवधि में या तो विवाहित थीं या उनके यौन-संबंध बन चुके थे।


किशोर आबादी के कुछ अनजाने तथ्य - यूनिसेफ की नई रिपोर्ट

दुनिया में किशोर उम्र के लोगों की तादाद 1 अरब 20 लाख है लेकिन आबादी के इतने बड़े हिस्से के रोजमर्रा की जिन्दगी के बारे में- उसके आस-निरास, आशा-आकांक्षा और उसके सामने खड़ी बाधाओं के बारे में हमारी जानकारी कितनी है ? यूनिसेफ की नई रिपोर्ट प्रोग्रेस फॉर चिल्ड्रेन- अ रिपोर्टकार्ड ऑन एडोलेसेंट का निष्कर्ष है- “ बहुत कम ।”

मिसाल के लिए भारत के बारे में ही सोचें। विज्ञापनों की भाषा और चुनाव-प्रचार के तकाजों से लैस बहस-मुबाहिसों में  भारत का एक नाम “ यंगिस्तान ” है। लेकिन शायद ही कभी भारत के बारे में बताया जाता है कि यहां की आबादी में 20 फीसदी व्यक्ति किशोर उम्र (10-19साल) के हैं और भारत में इस उम्र के लोगों की कुल तादाद 24 करोड़ 30 लाख है जो किसी भी अन्य देश के किशोरवय लोगों की संख्या की तुलना में ज्यादा है। (चीन में किशोरवय लोगों की संख्या तकरीबन 20 करोड़ है।)

ऐसे में सवाल उठना चाहिए कि, दुनिया की सबसे ज्यादा किशोर आबादी वाले देश भारत में किशोरों की दशा कैसी है- सेहत के मानकों पर या फिर जीवन के महत्वपूर्ण फैसलों(शादी, संतान आदि) के मामले में पसंद-नापसंद के लिहाज से?

इसका एक अंदाजा आप खुद लगायें। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 20-24 साल की उम्र की 22 फीसदी महिलाएं साल 2000-2010 की अवधि में 18 साल से कम उम्र में मां बनीं।  भारत में, गरीब परिवारों में 20 साल या इससे कम उम्र की तकरीबन 30 फीसदी माताओं को ही प्रसव के दौरान प्रशिक्षित चकित्साकर्मियों की देखभाल मिल पाती है। अगर इन तथ्यों के साथ इस बात का भी ख्याल रखें कि भारत में 15-19 वर्ष की तकरीबन 47 फीसदी महिलायें औसत से कम वज़न की हैं और इस उम्र की 50 फीसदी से ज्यादा महिलायें रक्ताल्पता(एनीमिया) की शिकार हैं तो फिर सहज ही कल्पना की जा सकती है कि  स्वास्थ्य, जीवन-संभाव्यता और जीवन के रोजमर्रा की स्थितियों पर पकड़ के मामले में भारत में किशोरवय विवाहित स्त्रियों की दशा कैसी है !

क्या ये तथ्य इशारा करते हैं कि भारत में किशोरावस्था में विवाह ( बाल-विवाह का एक रुप?) अब भी बड़े पैमाने पर प्रचलित है ? रिपोर्ट के आंकड़ों को खंगालने पर इसका उत्तर हां में मिलता है। यूनिसेफ की उपर्युक्त रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया और उप-सहारीय अफ्रीका में 15-19 साल की उम्र की सर्वाधिक महिलायें या तो शादीशुदा हैं या फिर किसी ना किसी रुप में उनका यौन-संबंध बन चुका है। रिपोर्ट में चेतावनी के स्वर में कहा गया है कि किशोरवय में लड़कियों के ब्याहे जाने की तादाद इससे भी ज्यादा हो सकती हैं क्योंकि जो लड़की अभी अब्याही है उसके बारे में शंका करने के पर्याप्त आधार हैं कि किशोरावस्था के पूरा होने से पहले ही उसका ब्याह कर दिया जाएगा। मिसाल के लिए, रिपोर्ट में दिए गए इस तथ्य पर गौर करें- विकासशील देशों में 20-24 साल के आयुवर्ग की एक तिहाई से ज्यादा महिलाओं का ब्याह 18 साल या उससे कम उम्र में हो जाता है।

ऐसे विवाह की परिणतियां सामाजिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक धरातल पर महिलाओं को कमजोर करने में होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार- अपने माता-पिता के परिवार से दूर ऐसी किशोरवय महिलायें ज्यादातर मामलों में ना तो अपनी औपचारिक पढ़ाई पूरी कर पाती हैं ना ही उनके अन्य मानवाधिकारों की कायदे से पूर्ति हो पाती है। इस तथ्य की तरफ इशारा करते हुए कि किशोरावस्था व्यक्तित्व के विकास का निर्णायक चरण है रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है कि सह्राब्दी विकास-लक्ष्यों के अनुरुप- “ हमें किशोरवय आबादी के लिए ज्यादा संसाधन खर्च करने चाहिए ” अन्यथा आगे के दिनों में हमारा सामना  एक ऐसी पीढ़ी से होगा जो समाज के सदस्य के तौर पर कम कार्य-कुशल और उत्पादक होगी।

रिपोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य-

प्रोग्रेस फॉर चिल्ड्रेन- अ रिपोर्टकार्ड ऑन एडोलेसेंट(यूनिसेफ), नंबर 10,अप्रैल 2012 नामक दस्तावेज के अनुसार

• दुनिया की कुल आबादी में किशोरवय(10-19 वर्ष) व्यक्तियों की तादाद 1 अरब 20 करोड़ यानी 18 फीसदी है। किशोरवय कुल व्यक्तियों में आधे से अधिक एशिया में रहते हैं। भारत में किशोरवय लोगों की तादाद 24 करोड़ 30 लाख है जो किसी भी अन्य देश के किशोरवय लोगों की संख्या की तुलना में ज्यादा है। चीन में किशोरवय लोगों की संख्या तकरीबन 20 करोड़ है।

• वैश्विक स्तर पर प्रतिवर्ष 1 करोड़ 40 लाख किशोरवय व्यक्ति सड़क-दुर्घटना, प्रसवजनित जटिलताओं, आत्महत्या, हिंसा, एड्स और अन्य कारणों से मौत का शिकार होते हैं।.

• साल 2010 में भारत में 10-19 साल की उम्र के व्यक्तियों की संख्या कुल आबादी में 20 फीसदी थी।

• भारत में 20-24 साल की उम्र की 22 फीसदी महिलाएं साल 2000-2010 की अवधि में 18 साल से कम उम्र में मां बनीं।.

• भारत में 15-19 वर्ष की तकरीबन 47 फीसदी महिलायें औसत से कम वज़न की हैं और उनका बॉडी मॉस इंडेक्स 18.5 से कम है।.

• भारत में 15-19 साल के आयु वर्ग की 50 फीसदी से ज्यादा महिलायें रक्ताल्पता(एनीमिया) की शिकार हैं। इस आयु-वर्ग में तकरीबन 39 फीसदी महिलायें साधारण तौर पर एनीमियाग्रस्त हैं, 15 फीसदी महिलाओं में एनीमियाग्रस्तता मंझोले दर्जे की है जबकि कुल 2 फीसदी महिलायें गंभीर रुप से एनीमियाग्रस्त हैं।.

• बांग्लादेश, भारत और नाइजीरिया को एक साथ मिलाकर देखें तो किशोरवय में मां बनने वाली हर तीन महिला में से एक इन्हीं देशों से है।.

• भारत में, गरीब परिवारों में 20 साल या इससे कम उम्र की तकरीबन 30 फीसदी माताओं को ही प्रसव के दौरान प्रशिक्षित चकित्साकर्मियों की देखभाल मिल पाती है जबकि अमीर देशों में इस उम्र की तकरीबन 90 फीसदी महिलाओं को प्रसव के दौरान प्रशिक्षित चिकित्साकर्मियों की सहायता हासिल होती है।.

• भारत में अमीर परिवारों की तुलना में गरीब परिवारों में कम उम्र महिलाओं के 18 साल से कम उम्र में मां बनने की संभावना 7 गुना ज्यादा है।

• भारत में साल 2002-2010 की अवधि में 15-19 साल की उम्र के तकरीबन 57  फीसदी पुरुषों ने माना कि पत्नी को पति के द्वारा किन्हीं परस्थितियों में पीटना जायज है जबकि इसी अवधि में इसी उम्र की तकरीबन 53 फीसदी महिलाओं की मान्यता थी कि पत्नी का पति के हाथों प्रताडित होना किन्हीं परिस्थितियों में जायज है।.

• भारत में साल 2005-2010 के बीच 15-19 साल की तकरीबन 8 फीसदी महिलाओं के 15 साल से कम उम्र में यौन-संबंध बने जबकि इसी अवधि में इसी उम्र के 3 फीसदी पुरुषों के यौन-संबंध बने।.

• भारत में 15-19 साल की तकरीबन 19 फीसदी महिलाओं को साल 2005-2010 की अवधि में एड्स की समग्र जानकारी थी जबकि इसी अवधि में इसी उम्र के 35 फीसदी पुरुषों को एडस् की समग्र जानकारी थी।

• भारत में 15-19 साल की तकरीबन 30 फीसदी महिलायें वर्ष 2000-2010 की अवधि में या तो विवाहित थीं या उनके यौन-संबंध बन चुके थे।

दुनिया की 40 प्रतिशत बालिका वधू भारत में

दुनिया की 40 प्रतिशत बालिका वधू भारत में  

रांची: नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 में यह बात कही गयी है कि साक्षरता की दर बढ़ने और बाल विवाह पर कानूनी रोक होने के बावजूद भारत में धर्म तथा परंपराओं के चलते बाल विवाह प्रथा आज भी जारी है. दक्षिण एशिया में दुनिया के किसी अन्य हिस्से के मुकाबले सर्वाधिक बाल विवाह होने को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सबसे अधिक बाल विवाह होते हैं. इस रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक, देश भर में 18 से 29 आयुवर्ग की 46 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जिनकी शादी 18 वर्ष से कम उम्र में कर दी गयी.

यह रिपोर्ट बताती है कि भारत में फिलहाल दो करोड़ 30 लाख बालिका वधुएं हैं, जो दुनिया भर में हिस्सेदारी के मामले में 40 प्रतिशत है. सर्वे रिपोर्ट यह भी बताती है कि इसी क्षेत्र में आधे से अधिक नवजात शिशुओं के जन्म को पंजीबद्ध ही नहीं किया जाता. वहीं, दुनियाभर में मानवाधिकार संबंधी काम करनेवाली गैर सरकारी संस्था ‘ब्रेकथ्रू’ ने झारखंड के रांची और हजारीबाग, बिहार के गया जिले में अपने काम के दौरान पाया है कि इन क्षेत्रों में 20 से 24 आयुवर्ग की 60 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जिनकी शादी 18 साल से कम उम्र में कर दी गयी.
कहते हैं आंकड़े
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 (साल 2005-06) में पाया गया कि 20-24 आयुवर्ग की 45 फीसदी महिलाओं का ब्याह 18 साल की वैधानिक उम्र से पहले हुआ. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-2(साल 1998-99) में ऐसी महिलाओं की तादाद 50 फीसदी थी.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 में दो बेटियों वाली (मगर पुत्रवंचित) 62 फीसदी मातओं ने कहा कि उन्हें और बच्चे नहीं चाहिए. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-2 में ऐसी माताओं की तादाद 47 फीसदी थी.
भारत में शिशु मृत्यु दर लगातार घट रही है. साल 1998-99 में
इसकी तादाद प्रति हजार जन्म पर 68 थी, जो साल 2005-06  में घट कर 57 हो गयी.
युनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड (यूएनएफपीए) के मुताबिक, अगर 2011 से 2020 के बीच यही सिलसिला जारी रहा, तो 14 करोड़ लड़कियां बालिका वाधू बन चुकी होंगी, जिनमें एक करोड़ 85 लाख वैसी लड़कियां होंगी, जिनकी उम्र 15 साल से कम होगी.
झारखंड बिहार में कार्यरत अंतरराष्ट्रीय स्तर की गैर सरकारी संस्था ‘ब्रेकथ्रू’ के आंकड़ों के मुताबिक, झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में 18 साल से कम उम्र में ब्याह दी गयी लड़कियों की संख्या 71 प्रतिशत रही, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 33} रही.
बिहार की बात करें तो, यहां ग्रामीण क्षेत्रों में 65.2 प्रतिशत लड़कियां 18 वर्ष से कम उम्र में ब्याह दी गयीं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 37 प्रतिशत रहा.

शिक्षा -4


स्वयंसेवी संस्था असर(एएसईआर) द्वारा प्रस्तुत एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट २००८ के अनुसार-
http://asercentre.org/asersurvey/aser08/pdfdata/aser08nati
onal.pdf

  • स्कूल वंचित बच्चों की तादाद में कमी आ रही है और इस दिशा में बिहार ने अच्छी प्रगति की है.राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो ७-१० साल के आयु वर्ग के बच्चों में स्कूल-वंचितों की संख्या २.७ फीसदी है जबकि ११-१४ आयु वर्ग में ६.३ फीसदी बच्चे स्कूल वंचित हैं।
  • साल २००७ और २००८ के बीच ११-१४ साल के आयु वर्ग की लड़कियों में स्कूल वंचितों की तादाद में कोई खास बदलाव नहीं आया और इस आयु वर्ग की लड़कियों की ७.३ फीसदी संख्या २००८ में स्कूल वंचित है।
  • साल २००७ के बाद से अधिकतर राज्यों में स्कूल वंचित बच्चों की संख्या में कमी आयी है। यूपी और राजस्थान इसके अपवाद हैं। .
  • बिहार में स्कूल वंचित बच्चों(६-१४ साल) की संख्या में चार सालों(२००५-२००८) में कमी आयी है। चार साल पहले ऐसे बच्चों की तादाद १३.१ फीसदी थी जो घटकर ५.७ फीसदी हो गई है। इस अवधि में स्कूल वंचित लड़कियों(११-१४ साल) की संख्या २०.१ फीसदी से घटकर ८.८ फीसदी हो गई है।
प्राइवेट स्कूलों में दाखिला बढ़ रहा है
साल २००५ में प्राइवेट स्कूलों में जाने वाले बच्चों की तादाद राष्ट्रीय स्तर पर १६.४ फीसदी थी जो साल २००८ में बढ़कर २२.५ फीसदी हो गई। अगर साल २००५ को आधार मानें तो प्राइवेट स्कूलों में नाम लिखवाने की घटना में ३७.२ फीसदी का इजाफा हुआ। कर्नाटक, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में यह बात खास रुप से नोट की जा सकती है।
  • साल २००८ में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले लड़कों की तुलना में लड़कियों की तादाद २० फीसदी कम थी। यह बात ७-१० और ११-१४ यानी दोनों ही आयु वर्ग पर लागू होती है।
  • केरल और गोवा में स्कूल जाने वाले बच्चों की कुल संख्या का ५० फीसदी प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा हासिल कर रहा है। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉरमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की सूचना के मुताबिक इन राज्यों में ७० फीसदी प्राइवेट स्कूलों को सरकारी अनुदान मिलता है।
  • नगालैंड, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में ३२ से ४२ फीसदी बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉरमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की सूचना से पता चलता है कि इन राज्यो में अधिकतर प्राइवेट स्कूलों को सरकारी अनुदान नहीं मिलता।
  • मध्यप्रदेश और छ्तीसगढ़ में स्कूली बच्चों में पाठ-वाचन की क्षमता में खास प्रगति हुई है।
  • छ्त्तीसगढ़ में स्कूली बच्चों में पाठ वाचन की क्षमता में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। साल २००७ में यहां तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले महज ३१ फीसदी छात्र पहली कक्षा की पुस्तक पढ़ पाते थे लेकिन २००८ में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या ७० फीसदी हो गई।साल २००७ में पांचवीं क्लास के ५८ फीसदी विद्यार्थी दूसरी क्लास की किताबों की भाषा को पढ-समझ पाते थे जबकि साल २००८ में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या ७५ फीसदी हो गई।
  • मध्यप्रदेश में साल २००६ और २००७ की तुलना में २००८ में बच्चों के पाठ-बोध की क्षमता में अच्छी बढ़त हुई है। यहां सरकारी स्कूलों की पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले ८६ फीसदी बच्चे कक्षा-२  की किताबों की भाषा पढ़-समझ लेते हैं । इस मामले में मध्यप्रदेश असर के मूल्यांकन के लिहाज से बाकी राज्यों से बेहतर है। मिसाल के लिए केरल और हिमाचल प्रदेश में सरकारी स्कूलों की पांचवीं जमात में पढ़ रहे महज ७३-७४ फीसदी बच्चों की भाषाई क्षमता ऐसी थी कि वे कक्षा-२ की पुस्तकों को पढ़-समझ सकें।
  • मध्यप्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश के स्कूली बच्चों की भाषायी क्षमता बाकी राज्यों के स्कूलों बच्चों की तुलना में बेहतर है। इन राज्यों में पहली कक्षा में पढ़ रहे लगभग ८५ फीसदी बच्चे वर्णों को पहचान लेते हैं और कक्षा-२ की किताबें पढ़-समझ लेने वाले बच्चों (पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले) की संख्या भी ७५ फीसदी से ज्यादा है।
  • मध्यप्रदेश ने इस दिशा में तेज गति से प्रगति दो चरणों में की । मध्यप्रदेश को पहली बढ़त साल २००६ में हासिल हुई और दूसरी साल २००८ में।
  • कर्नाटक और उड़ीसा में दूसरी से चौथी जमात तक के छात्रों की पाठ-वाचन की क्षमता में लगातार बेहतरी हुई है। जांच-परीक्षा के परिणामों से पता चलता है कि इन राज्यों में छात्रों की पाठ-वाचन क्षमता में पांच से छह फीसदी का इजाफा हुआ है।
    छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में छात्रों की गणितीय क्षमता में भी बढ़ोतरी हुई है-
  • असर की जांच परीक्षा से पता चलता है कि मध्यप्रदेश और छ्त्तीसगढ़ में पिछले एक साल में छात्रों की गणित की योग्यता में बेहतरी प्रगति हुई है। दोनों ही राज्यों में पहली कक्षा के ९१ फीसदी से ज्यादा विद्यार्थी एक से नौ तक के अंकों को पहचान पाने में सफल रहे। हालांकि केरल में ऐसे बच्चों की तादाद ९६ फीसदी है लेकिन साक्षरता के मामले में देश में सबसे आगे रहने वाले यह राज्य तीसरी जमात के बच्चों की गणितीय योग्यता के मामले में मध्यप्रदेश और छ्तीसगढ़ से पीछे है।
  • साल २००७ में मध्यप्रदेश में तीसरी जमात के ६१.३ फीसदी बच्चे घटाव के सरल प्रश्न हल कर लेते थे जबकि २००८ में ऐसे बच्चों की तादाद बढ़कर ७२.२ फीसदी हो गई। केरल में ऐसे बच्चों की तादाद ६१.४ थी।
  • साल २००८ में मध्यप्रदेश में पांचवी कक्षा के ७८.२ फीसदी बच्चे किसी संख्या में किसी संख्या से ठीक-ठीक भाग देने में सक्षम थे। यह आंकड़ा पूरे देश के हिसाब से सबसे ज्यादा है। कई अन्य राज्यों में यह आंकड़ा ६० फीसदी का है। मिसाल के लिए हिमाचलप्रदेश, छत्तीसगढ़ , मणिपुर और गोवा का नाम लिया जा सकता है। .
  • छत्तीसगढ़ में भी बच्चों की गणित करने की क्षमता में बेहतर प्रगति हुई है। साल २००८ में यहां कक्षा-२ के ७७ फीसदी बच्चे एक से सौ तक के अंकों को पहचानने में सफल रहे। साल २००७ में कक्षा-२ के छात्रों के लिए यही आंकड़ा ३७ फीसदी का था। ठीक इसी तरह साल २००७ में यहां कक्षा-३ के २१ फीसदी बच्चे घटाव के प्रश्नों को ठीक ठीक हल कर पाते थे जबकि साल २००८ में ६३ फीसदी बच्चे यह गणित करने में सफल रहे।
  • समय का हिसाब
  • देश में कक्षा पांच में पढ़ने वाले ६१ फीसदी बच्चे घड़ी में देखकर ठीक-ठीक समय बता सकते हैं।
  • यूपी, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और गुजरात में कक्षा-५ के महज ५० फीसदी छात्र घड़ी में देखकर ठीक-ठीक समय बता पाये। बिहार, झारखंड, उड़ीसा, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों में यह आंकड़ा  राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है।
  • मध्यप्रदेश, केरल, छ्त्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में छात्रों में गणित और भाषायी योग्यता बाकी राज्यों के छात्रों की तुलना में ज्यादा थी और इन राज्यों में कक्षा-५ के ७५ फीसदी से ज्यादा बच्चों ने घड़ी में देखकर सही समय बताया।
असर के सर्वेक्षण की कुछ और महत्वपूर्ण बातें-
  • ९२ फीसदी ग्रामीण बस्तयों के एक किलोमीटर के दायरे में प्राइमरी स्कूल मौजूद है। ६७ फीसदी गांवों में सरकारी मिडिल स्कूल है और ३३.८ फीसदी गांवों में सरकारी हाईस्कूल मौजूद हैं। देश के ४५ फीसदी गांवों में प्राइवेट स्कूल भी हैं। .
  • देश के ५८ फीसदी गांवों में एसटीडी बूथ हैं जबकि ४८ फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास कोई सेलफोन या लैंडलाइन कनेक्शन है। 
  • सर्वेक्षण में जिन घरों का मुआयना किया गया उसमें ६५ फीसदी घरों में बिजली का कनेक्शन लगा था।
  • देश के ७१ फीसदी गांवों का पक्की सड़क के सहारे बाहरी इलाके से संपर्क है। इस मामले में पीछे रहने वाले राज्यों के नाम हैं-असम (यहां महज ३२ फीसदी गांव पक्की सड़क से जुड़े हैं), पश्चिम बंगाल (५३ फीसदी) और मध्यप्रदेश (५८ फीसदी) ।
  • एनएसएस यानी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ५५ दौर के आकलन पर आधारित लिटरेसी एंड लेवल ऑफ एजुकेशन इन इंडिया जुलाई १९९९-जून २००० के अनुसार-

    • भारत के शहरी इलाके में १००० में ७९८ व्यक्ति साक्षर है यानी शहरी इलाके में हर पांचवां व्यक्ति निरक्षर है। शहरी इलाके के साक्षरों में ३२५ व्यक्तियों(७९८ में) ने माध्यमिक या उससे आगे की शिक्षा पायी है। ग्रामीण भारत की तुलना में यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है। शहरी इलाके में १००० में ८६५ पुरुष साक्षर थे जबकि महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा ७२ फीसदी का है।
    • देश के ग्रामीण इलाके में अनुसूचित जनजाति के परिवारों में साक्षरता दर सबसे कम (४२ फीसदी) है। इसके बाद अनुसूचित जाति के परिवारों(४२ फीसदी) का नंबर है। देश के शहरी इलाके में सबसे कम साक्षरता दर अनुसूचित जाति के परिवारों (६६ फीसदी) की है। शहरी इलाके में अनुसूचित जनजाति के परिवारों की साक्षरता दर ७० फीसदी है। शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में अन्य सामाजिक वर्गों के बीच साक्षरता दर अपेक्षाकृत ज्यादा है।   
    • हर शिक्षा-स्तर में महिलाओं का अनुपात पुरुषों की अपेक्षा कम है। अगर ग्रामीण और शहरी परिवारों को प्रति व्यक्ति मासिक खर्चे के आधार पर सोपानिक क्रम में सजाये तो हर ऊपरले पादान पर साक्षर व्यक्तियों की संख्या बढती जाती है। स्त्री-पुरुषों के अनुपात के मामले में भी यही बात है। 
    • भारत के ग्रामीण इलाके में गैर खेतिहर स्वरोजगार में लगे परिवारों में प्रति हजार व्यक्ति में ६३० व्यक्ति साक्षर थे जबकि खेतिहर मजदूर वर्ग में यह आंकड़ा प्रतिहजार ४२६ व्यक्तियों का है।   
    • जमीन की मिल्कियत के लिहाज से देखें तो ग्रामीण भारत में साक्षरता की दर जमीन की बढ़ती हुई मिल्कियत के साथ बड़ी धीमी गति से बढ़ती हुई पायी गई। जिन परिवारों के पास सबसे कम जमीन की मिल्कियत थी उनमें साक्षरता दर ५२ फीसदी की है जबकि सर्वाधिक जमीन की मिल्कियत वाले वर्ग में ६४ फीसदी की।
    • जमीन की मिल्कियत को आधार मानकर देखें तो हर भूस्वामी वर्ग में महिलाओं में साक्षरता की दर पुरुषों की तुलना में कम है।
    • भारत के ग्रामीण इलाके में इस्लाम धर्म के अनुयायियों में साक्षरता दर (स्त्री और पुरुष दोनों के लिए) अन्य धर्मावलंबियों की तुलना में कम है। ग्रामीण इलाके में हिन्दू धर्म या फिर किसी अन्य धर्म को मानने वाले परिवारों में महिलाओं की साक्षरता की स्थिति इससे कुछ ही बेहतर है ज्यादा नहीं। भारत के शहरी इलाके में हिन्दू, सिख या फिर बौद्ध धर्म मानने वाले पुरुषों के बीच साक्षरता दर ८८-८९ फीसदी है। ईसाई या जैन धर्म मानने वाले पुरुषों के बीच साक्षरता दर  ऊंची(९४ फीसदी और इससे अधिक) है। शहरी इलाके में भी इस्लाम धर्म के अनुयायी पुरुष या स्त्रियों में साक्षरता दर तुलनात्मक रुप से कम है। 
    • भारत के ग्रामीण इलाके में बाकी धर्मों की तुलना में हिन्दू या इस्लाम धर्म मानने वालों में स्त्री और पुरुष के बीच साक्षरता दर में ज्यादा का अंतर है। शहरी भारत के लिए भी यही बात लागू होती है लेकिन शहरों में हिन्दू या इस्लाम धर्म मानने वालों में स्त्री-पुरुष के बीच साक्षरता के दर में अन्तर ग्रामीण भारत की तुलना में कम है। 
    • साल १९९३-९४ से १९९९-२००० के बीच देश के कुल १५ बड़े राज्यों में से मध्यप्रदेश और राजस्थान में पुरुषों और स्त्रियों की साक्षरता दर में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। इन राज्यों में पुरुषों के मामले में साक्षरता दर में ९ फीसदी की और महिलाओं के मामले में १० फीसदी के बढोतरी हुई। बड़े राज्यों के दायरे में महाराष्ट्र भी शामिल है और इस राज्य में पुरुषों की साक्षरता में तो नहीं लेकिन महिलाओं की साक्षरता दर में १० फीसदी का इजाफा हुआ। जहां तक भारत के शहरी इलाके का सवाल है साल १९९३-९४ से साल १९९९-२००० के बीच कर्नाटक, राजस्थान, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु के शहरी इलाके साक्षरता-वृद्धि के राष्ट्रीय औसत की तुलना में कहीं आगे रहे।
    • ग्रामीण इलाकों के हिसाब से देखें तो बड़े राज्यों में केरल में साक्षरता दर सबसे ज्यादा रही। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ५० और ५५ वें दोनों ही दौर की गणना में केरल में साक्षरता दर ९० फीसदी की पायी गई। इस गणना में दूसरे स्थान पर असम(६९ फीसदी) रहा। बिहार में सबसे कम साक्षरता-दर(४२ फीसदी) थी। इसके बाद नंबर आंध्रप्रदेश(४६ फीसदी) और राजस्थान का है।
    • भारत के शहरी इलाके में जीविका के लिए दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर परिवारों में साक्षरता दर बहुत कम है। इस वर्ग के प्रति हजार व्यक्तियों में ५९३ यानी लगभग ५९ फीसदी साक्षर पाये गए जबकि इस वर्ग के लिए राष्ट्रीय औसत ८० फीसदी का है। वेतनभोगी या नियमित आमदनी वाले शहरी परिवारों में इसकी तुलना में साक्षरता दर ज्यादा है।
    • कुल ३२ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में महज ८ में ग्रामीण इलाकों में साक्षरता दर ८० फीसदी या उससे ज्यादा है। इन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के नाम हैं- गोवा,  केरल,  मिजोरम,  नगालैंड,  अंडमान निकोबार द्वीपसमूह,  दमन और दिऊ, दिल्ली और लक्षद्वीप। .
    • साल १९९३-९४ से साल १९९९-२००० के बीच राष्ट्रीय स्तर पर साक्षरता दर (प्रतिशत पैमाने पर) बढ़ी है। ग्रामीण इलाके के पुरुषों के मामले में साक्षरता दर ६३ फीसदी से बढ़कर ६८ फीसदी और शहरी इलाके के पुरुषों के मामले में साक्षरता दर ८५ फीसदी से बढ़कर ८७ फीसदी हो गई। महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा ग्रामीण इलाके के लिए ३६ फीसदी बनाम ४३ फीसदी और शहरी इलाके के लिए ६८ फीसदी बनाम ७२ फीसदी का है।व्यक्ति के आधार पर देखें तो ग्रामीण इलाके में १९९३-९४ में ५० फीसदी साक्षरता दर थी जो साल १९९९-२००० में बढ़कर ५६ फीसदी हो गई। शहरी इलाके के लिए यह आंकड़ा ७७ फीसदी बनाम ८० फीसदी का है।
    • राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनगणना के आंकड़ो और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के बीच अन्तर( साक्षरता दर के आंकड़ों के मामले में)३ फीसदी का है। ग्रामीण इलाके के पुरुषों की साक्षरता दर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में ७३ फीसदी बतायी गई है जबकि जनगणना के आंकडों में ७६ फीसदी। ठीक इसी तरह महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः ५१ फीसदी और ५४ फीसदी का है।
    प्राथमिक शिक्षा में प्रगति का ग्राफ (साल १९९९ से)
    Source: RGI; SES, MHRD

    शैक्षिक संस्थानों की बढ़ोतरी का ग्राफ (साल १९९९ से)
    नीचे दिए गए आरेख से पता चलता है कि साल १९९९-२००० से २००४-०५ के बीच स्कूलों में नामांकन की तादाद(लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए) बढ़ी है लेकिन लड़कों के नामांकन की तादाद लड़कियों के नामांकन से ज्यादा है। 
     Source: SES, MHRD *Provisional
    कन्फेडरेशन ऑव इंडियन इंडस्ट्री नई दिल्ली द्वारा प्रस्तुत- राइट टू एजुकेशन-एक्शन नाऊ नामक दस्तावेज के अनुसार-
    • सातवें एजुकेशन सर्वे (२००२) में कहा गया है कि १०.७१ लाख यानी ८७ फीसदी बस्तियों के एक किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक विद्यालय मौजूद है जबकि १.६ लाख बस्तियों के एक किलोमीटर के दायरे में कोई प्राथमिक विद्यालय नहीं है। .
    • देश के सिर्फ ७८ फीसदी बस्तियों के ३ किलोमीटर के दायरे में अपर प्राइमरी स्कूल की मौजूदगी है और ग्रामीण आबादी के ८६ फीसदी हिस्से की जरुरतें इनसे पूरी हो पाती हैं। साल २००२-०३ के बाद से अबतक ८८९३० नये अपर प्राइमरी स्कूल खोले गए हैं लेकिन इनकी संख्या अब भी जरुरत के लिहाज से कम है।
    • मध्यप्रदेश में सिर्फ एक तिहाई शिक्षक स्कूल में उपस्थित होते हैं जबकि बिहार में यह आंकड़ा २५ फीसदी का और यूपी में २० फीसदी का है।
    • राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साल २००४-०५ में २.८ प्राथमिक विद्यालयों पर अपर प्राइमरी स्कूलों की संख्या एक थी। साल २००५-०६ में देश में २.५ प्राइमरी स्कूलों पर अपर प्राइमरी स्कूलों की संख्या १ थी। हर दो प्राथमिक विद्यालय पर कम से कम एक अपर प्राइमरी स्कूल हो(जैसी कि सर्व शिक्षा अभियान की मान्यता है) इसके लिए १ लाख ४० हजार अपर प्राइमरी स्कूल खोलने होंगे।
    • सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत ७.९५ लाख शिक्षकों की बहाली हुई है ताकि प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ४४ छात्रों पर १ शिक्षक होने के बजाय ४० छात्रों पर १ शिक्षक का छात्र-शिक्षक अनुपात कायम किया जा सके। शिक्षकों को कार्यकालीन प्रशिक्षण भी दिया गया है। इसके अतिरिक्त बच्चों को ६.९ लाख रुपये मूल्य की पाठ्यपुस्तकें मुफ्त बांटी गई हैं। 
    • साल २००२-०३ में ड्राप-आऊट दर १५ फीसदी थी जो साल २००३-०४ में घटकर १३ फीसदी और २००४-०५ में घटकर १२ फीसदी हो गई। ड्राप-आऊट रेट में आ रही कमी उत्साहवर्धक है लेकिन इस दिशा में पूरी गंभीरता से और गहन कोशिश करनी होगी।
    • साल १९९९-२००० से शिक्षकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। साल १९९९-२००० में प्राइमरी स्तर पर १९.२ लाख शिक्षक थे। साल २००३-०४ में इनकी संख्या बढ़कर २०.९ लाख हो गई। इसी अवधि में अपर प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की संख्या १२.९८ लाख से बढ़कर १६.०२ लाख हो गई।
    • सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सर्व शिक्षा अभियान, जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम, प्राथमिक विद्यालयों में पोषाहार सहायता देने का राष्ट्रीय कार्यक्रम ( नेशलन प्रोग्राम ऑव न्यूट्रीशनल सपोर्ट टू प्राइमरी एजुकेशन), मिड डे मील और कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना जैसी संस्थाओं शुरु की हैं।
    यूनेस्कों इंस्टीट्यूट ऑव स्टैटिक्स के अनुसार-
    ४० फीसदी बच्चे प्री-प्राइमरी स्कूलों में नामांकित है
    ८७ फीसदी लड़कियां और ९० फीसदी लड़के प्राइमरी स्कूलों में हैं।
    तृतीयक आयु वर्ग की १२ फीसदी आबादी शिक्षा के तृतीयक स्तर पर है।
    ८६ फीसदी बच्चों ने प्राइमरी की सम्पूर्ण पढ़ाई पूरी की है  
    सरकार के खर्चे का १०.७ फीसदी शिक्षा के मद में जाता है
    ६५.२ फीसदी व्यस्क और ८१.३ फीसदी युवा साक्षर हैं।
     भारत में शिक्षा-एक नजर

    • युवा (१५–२४ साल) साक्षरता दर २०००-२००७*,  पुरुष ८७
    • युवा (१५–२४ साल) साक्षरता दर, २०००-२००७*, महिला ७७
    • प्रति सौ व्यक्तियों पर फोन, (साल २००६) -१५
    • प्रति सौ व्यक्तियों पर इंटरनेट-यूजर की संख्या, साल(२००६)-११
    • प्राइमरी स्कूल में नामांकन का अनुपात (साल २०००-२००७)-सकल, पुरुष ९०
    • प्राइमरी स्कूल में नामांकन का अनुपात (साल २०००-२००७)-सकल, स्त्री ८७
    • प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, पुरुष, ८५
    • प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, स्त्री ८१
    • माध्यमिक विद्यालय में नामांकन- अनुपात, २०००-२००७, पुरूष ५९
    • माध्यमिक विद्यालय में नामांकन- अनुपात, २०००-२००७, स्त्री ४९
    • माध्यमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, पुरुष ५९
    • माध्यमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, स्त्री ४९
    • नोट: नामांकन अनुपात का अर्थ होता है कि किसी विशिष्ट शिक्षा स्तर पर दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या कितनी है। इसमें दाखिला लेने वाले विद्यार्थी की उम्र का आकलन नहीं किया जाता।
    Source: UNICEF, http://www.unicef.org/infobycountry/india_statistics.html
     

शिक्षा -3

स्वयंसेवी संस्था प्रथम द्वारा प्रस्तुत द एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट २००९ के अनुसार-

११-१४ आयु वर्ग की लड़कियों में स्कूल वंचितों की कमी
• साल २००८ में ६-१४ आयु वर्ग के स्कूल वंचित बच्चों की तादाद ४.३ फीसदी थी जो साल २००९ में घटकर ४ फीसदी हो गई।
• साल २००८ में ११-१४ आयु वर्ग की बच्चियों में स्कूल वंचितों की संख्या ७.२ फीसदी थी जो साल २००९ में घटकर ६.८ फीसदी हो गई। प्रतिशत पैमाने पर यह कमी सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़  (3.8) , बिहार  (2.8), राजस्थान (2.6), ओडिसा (2.1), जम्मू-कश्मीर  (1.9) में नजर आई। मेघालय को छोड़कर पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में भी यही रुझान रहा। .
• आंध्रप्रदेश में साल २००८ में ११-१४ आयु वर्ग की बच्चियों में स्कूल वंचितों की संख्या ६.६ फीसदी थी जो साल २००९ में बढ़कर १०.८ फीसदी हो गई। पंजाब में यह आंकड़ा ४.९ फीसदी से बढ़कर ६.३ फीसदी पर पहुंचा।
प्राइवेट स्कूलों में नामांकन के मामले में रुझान में ज्यादा बदलाव नहीं
• कुल मिलाकर देखें तो ६-१४ आयु वर्ग के बच्चो के प्राइवेट स्कूलों में नामांकन के मामले में साल २००९ के मुकाबले साल २००९ में महज नामालूम (0.8 प्रतिशत अंक) सी कमी आई। बहरहाल, छह राज्यों में इस मामले में प्रतिशत पैमाने पर पांच अंकों की कमी आई है। पंजाब में इस आयु वर्ग के बच्चों का प्राइवेट स्कूल में नामांकन प्रतिशत पैमाने पर सर्वाधिक है और वहां इस मामले में कुल 11.3 अंकों की कमी दर्ज की गई।
देश में पांच साल के आयु वर्ग के कुल बच्चों में ५० फीसदी स्कूलों में नामांकित हैं
• साल २००९ में ५ साल की उम्र वाले ५० फीसदी बच्चे स्कूलों में नामांकित थे। साल २००८ में भी यही स्थिति थी।
• आंगनवाड़ी या बालवाड़ी जैसे प्रीस्कूल स्तर पर देखें तो ३-४ साल के आयु वर्ग के बच्चों के मामले में स्थिति पिछले साल की ही तरह है।  खासकर बिहार, ओडिसा, छत्तीसगढ़ और गुजरात में इस आयु वर्ग के बच्चों का दाखिला प्रीस्कूल स्तर की संस्थाओं में प्रतिशत पैमाने पर पांच अंक बढ़ा है।
कक्षा-१ के स्तर पर सीखने की क्षमता में सुधार आया
• बच्चे की बोध क्षमता की बुनियादी शुरुआती कक्षाओं में पड़ती है। कुल मिलाकर देखें तो जहां साल २००८ में कक्षा-१ के स्तर पर कुल ६५.१ फीसदी बच्चे वर्णमाला के अक्षरों को पहचान पाते थे वहीं साल २००९ में ऐसे बच्चों की तादाद ६८.८ फीसदी हो गई। ठीक इसी तरह संख्याओं को पहचानने के मामले में एक साल के अंदर यह आंकड़ा ६५.३ फीसदी से बढ़कर ६९.३ फीसदी तक जा पहुंचा है।
•  संख्या १-९ तक की पहचान या वर्णमाला के अक्षरों की पहचान के मामले में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, झारखंड और ओड़िसा में कक्षा-१ के स्तर पर बच्चों की बोध क्षमता के लिहाज से पिछले साल के मुकाबले प्रतिशत पैमाने पर १० अंकों की बढ़त दर्ज की गई है। तमिलनाडु और गोवा में पाठवाचन क्षमता और गणितीय योग्यता के मामले में उक्त स्तर पर पांच अंकों की बढत दर्ज की गई है। यही रुझान उत्तराखंड,महाराष्ट्र और करनाटक में भी नजर आई ।
कक्षा-५ के स्तर पर बोध क्षमता में तमिलनाडु (पाठ वाचन क्षमता) को छोड़कर कोई खास बदलाव नहीं
• ग्रामीण बच्चों के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि साल २००८ में जहां कक्षा- ५ के ५६.२ फीसदी छात्र कक्षा-२ के लिए मानक रुप में तैयार की गई पुस्तक को पढ़-समझ लेते थे वहीं साल २००९ में ऐसे बच्चों की तादाद घटकर ५२.८ फीसदी हो गई। इसके मायने हुए कि कम से पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले कम से कम ४० फीसदी बच्चे बोध के लिहाज से ३ कक्षा पीछे चल रहे हैं।
• तमिलनाडु में, सरकारी स्कूलों की पांचवीं कक्षा में पढ़ने बच्चों के मामले में यह तथ्य प्रकाश में आया कि उनके पाठन वाचन की क्षमता में पिछले साल के मुकाबले प्रतिशत पैमाने पर ८ अंकों का इजाफा हुआ है। कर्नाटक और पंजाब में भी साल २००८ के मुकाबले इस मामले में प्रगति नजर आई मगर बाकी राज्यों में मामला कमोबेश पिछले साल वाला ही रहा।
• जहां तक गणितीय योग्यता का सवाल है, देशव्यापी स्तर पर देखें तो कक्षा पांच में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में घटाव करने की क्षमता में खास बढोत्तरी नहीं हुई है।इस मामले में कुल सात राज्यों में प्रतिशत पैमाने पर ५-८ फीसदी बढत (विद्यार्थियों की संख्या के मामले में) नजर आई। इन राज्यों के नाम हैं- हिमाचल प्रदेश, पंजाब, असम, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक।
देशस्तर पर अंग्रेजी पढ़ सकने और उसे समझ पाने के की क्षमता के मामले में पर्याप्त विभिन्नता है।
• अखिल भारतीय आंकड़े संकेत करते हैं कि कक्षा -५ में पढ़ रहे ग्रामीण विद्यार्थियों में २५ फीसदी की तादाद अंग्रेजी में लिखे सरल वाक्य पढ़ लेते हैं। अंग्रेजी के सरल वाक्यों को बच्चों की जो तादाद पढ़ लेती है उसमें ८० फीसदी बच्चे उक्त वाक्य का अर्थ भी समझते हैं।
• कक्षा -८ के स्तर पर पढ़ने वाले कुल बच्चों में ६०.२ फीसदी बच्चे अंग्रेजी के सरल वाक्य पढ़ पाते हैं। त्रिपुरा के छोड़कर सभी उत्तर पूर्वी राज्यों, गोवा, हिमाचल प्रदेश और केरल में कक्षा- ८ में पढ़ रहे कुल विद्यार्थियों में ८० फीसदी की तादाद ना सिर्फ अंग्रेजी में लिखे वाक्य धड़ल्ले से पढ़ लेती है बल्कि उसके मायने भी समझती है।
हर कक्षा के ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों की तादाद में इजाफा
• राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साल २००७ से २००८ के बीच ट्यूशन फड़ने वाले बच्चों की तादाद बढ़ी है और ऐसा हर कक्षा के विद्यार्थी के साथ देखने में आया। यह तथ्य सरकारी और निजी दोनों तरह के स्कूल के बच्चों पर लागू होती है। सिर्फ कर्नाटक और केरल में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के मामले में ट्यूशन पढ़ने के इस चलन में किंचित गिरावट देखने में आई।
• जहां तक सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का सवाल है, ट्यूशन पढ़ने का रुझान कक्षाओं की बढ़ती के साथ बढ़ोतरी करता नजर आया। पहली की कक्षा के १७.१ फीसदी छात्र ट्यूशन पढ़ते पाये गए तो आठवीं कक्षा के ३०.८ फीसदी छात्र।
•जो बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं उनमें पहली कक्षा में पढ़ने वाले कम से कम २३.३ फीसदी छात्र ट्यूशन पढ़ते पाये गए जबकि कक्षा- ४ के मामले में यही आंकड़ा बढ़कर २९.८ फीसदी तक पहुंचता है। .
• ट्यूशन पढ़ने की सर्वाधिक प्रवृति पश्चिम बंगाल के छात्रों में नजर आई। यहां सरकारी स्कूल की पहली कक्षा में पढ़ रहे ५० फीसदी बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं और यही तादाद कक्षा ८ तक जाते-जाते ९० फीसदी तक पहुंच जाती है। बिहार और ओड़िसा में भी ट्यूशन पढने वाले बच्चों की तादाद बहुत ज्यादा ( कक्षा-१ में एक तिहाई तो कक्षा -८ में ५० फीसदी) है।
कुछ राज्यों में बच्चों की स्कूल-उपस्थिति में सुधार की जरुरत
• तीन सालों (2005, 2007 और 2009) के आंक़ड़ों की तुलना से संकेत मिलते हैं कि विभिन्न राज्यों में स्कूल उपस्थिति के मामले में पर्याप्त अंतर है।बिहार जैसे राज्यों में हमारी टीम ने अपने दौरे के दौरान पाया कि जिन बच्चों ने स्कूल में दाखिला लिया है उनमें सिर्फ ६० फीसदी ही स्कूल आये हैं जबकि दक्षिण के राज्यों में में बच्चों की स्कूल उपस्थिति का आंकड़ा ९० फीसदी का था। इसके अतिरिक्त राजस्थान, उत्तरप्रदेश, झारखंड, ओडिसा और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में बच्चों की स्कूल उपस्थिति को बढ़ाने की दिशा में प्रयास किये जाने की जरुरत है। अधिकांश राज्यों में हमारी पर्यवेक्षक टीम ने पाया कि दौरे के दिन कुल नियुक्त शिक्षकों में से ९० फीसदी स्कूल में उपस्थित थे।
दो या अधिक कक्षा के विद्यार्थियों का पढ़ाई के लिए एक साथ बैठने का रुझान व्यापक
• साल २००७ और २००९ के सर्वेक्षण के दौरान पर्येवक्षकों से कहा गया कि अगर कक्षा-२ और ४ के विद्यार्थियों को एक साथ करके किसी अन्य कक्षा के साथ बैठाकर पढाया जाता हो तो वे इस बात की अपने सर्वेक्षण में निशानदेही करें।दोनों ही सालों में यह घटना व्यापक स्तर पर पायी गई। अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो कक्षा-२ और ४ के ५० फीसद विद्यार्थियों को एक साथ करके किसी अन्य कक्षा के साथ बैठाकर पढाने की घटना सामने आई।
शौचालयों की संख्या में बढ़ोतरी और पेयजल की सुविधाओं में सुधार
• अखिल भारतीय स्तर के आंकड़ों का संकेत है कि शौचालय और पेयजल की व्यवस्था से हीन विद्यालयों के चलन में कमी आई है। ७५ फीसदी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों और अपर प्राइमरी कहे जाने वाले ८१ फीसदी विद्यालयों में पेयजल की सुविधा उपलब्ध है। सरकारी विद्यालयों में हर १० विद्यालय में ४ विद्यालय ऐसे थे जहां लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं थी। अपर प्राइमरी स्कूल के मामले में यह संख्या २६ फीसदी तक है। लगभग १२-१५ फीसदी शौचालय(लड़कियों के लिए) बंद पाये गए जबकि ३०-४० फीसदी ऐसी अवस्था में थे कि उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था।
पिछले वित्तीय वर्ष (स्कूलों के लिए लागू) में बहुत से विद्यालयों को अनुदान नहीं मिला-
• अनुदान के मामले में स्कूलों में राज्यवार पर्याप्त अंतर देखने में आया। नगालैंड में हमारी टीम जितने स्कूलों पर पर्येवक्षण के लिए गई उनमें ९० फीसदी को अनुदान हासिल हुआ था जबकि झारखंड ओड़िसा और मध्यप्रदेश में ऐसे विद्यालयों की तादाद (साल 2008-2009) ६० फीसदी या उससे भी कम थी ।
भारत में शिक्षा-एक नजर
    * युवा (१५–२४ साल) साक्षरता दर २०००-२००७*,  पुरुष ८७
    * युवा (१५–२४ साल) साक्षरता दर, २०००-२००७*, महिला ७७
    * प्रति सौ व्यक्तियों पर फोन, (साल २००६) -१५
    * प्रति सौ व्यक्तियों पर इंटरनेट-यूजर की संख्या, साल(२००६)-११
    * प्राइमरी स्कूल में नामांकन का अनुपात (साल २०००-२००७)-सकल, पुरुष ९०
    * प्राइमरी स्कूल में नामांकन का अनुपात (साल २०००-२००७)-सकल, स्त्री ८७
    * प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, पुरुष, ८५
    * प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, स्त्री ८१
    * माध्यमिक विद्यालय में नामांकन- अनुपात, २०००-२००७, पुरूष ५९
    * माध्यमिक विद्यालय में नामांकन- अनुपात, २०००-२००७, स्त्री ४९
    * माध्यमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, पुरुष ५९
    * माध्यमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, स्त्री ४९
    * नोट: नामांकन अनुपात का अर्थ होता है कि किसी विशिष्ट शिक्षा स्तर पर दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या कितनी है। इसमें दाखिला लेने वाले विद्यार्थी की उम्र का आकलन नहीं किया जाता।
 
एनएसएस द्वारा प्रस्तुत एजुकेशन इन इंडिया २००७-०८, पार्टिसिपेशन एंड एक्सपेंडिचर, रिपोर्ट संख्या- 532(64/25.2/1): (जुलाई 2007–जून 2008) के अनुसार-

•    केरल (94%), असम (84%), और महाराष्ट्र (81%) अपेक्षाकृत उच्च साक्षरता दर वाले राज्य हैं।
•    अपेक्षाकृत निम्न साक्षरता दर वाले राज्यों के नाम हैं-- बिहार (58%), राजस्थान (62%) और आंध्रप्रदेश(64%)
•    निम्न साक्षरता दर वाले अन्य राज्यों के नाम हैं-- झारखंड (64.6%), उत्तरप्रदेश (66.2%), जम्मू-कश्मीर(67.7%) और ओड़िसा (68.3%)
•    देश की व्यस्क आबादी( १५ साल और उससे ज्यादा की उम्र)  का 66% हिस्सा साक्षर है।
•    ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति मासिक खर्चे के आधार पर सबसे निचली श्रेणी में ५१.२ फीसदी आबादी निरक्षर है। प्रति व्यक्ति मासिक खर्चे के हिसाब से सबसे ऊंचसी श्रेणी में आने वाली ग्रामीण आबादी में भी महज २२.८ फीसदी लोग साक्षर हैं।
•    ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों तथा शहरी इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः  51.1%, 68.4%, 71.6%  और  82.2% पायी गई। ४२ दौर की गणना( साल ) में यही आंकड़ा क्रमशः  24.8%, 47.6%, 59.1% और 74.0% का था। 
•    98% फीसदी ग्रामीण घरों और  99% फीसदी शहरी घरों के दो किलोमीटर की परिधि में प्राथमिक विद्यालय मौजूद हैं।
•     79% फीसदी ग्रामीण घरों और 97%  फीसदी शहरी घरों के दो किलोमीटर की परिधि में माध्यमिक विद्यालय मौजूद हैं।
•    47% फीसदी ग्रामीण घरों और 91%   फीसदी शहरी घरों के दो किलोमीटर की परिधि में माध्यमिक और प्राथमिक विद्यालय दोनों मौजूद हैं।
•    ५-२९ साल के आयु वर्ग के लोगों में ४६ फीसदी आबादी अभी किसी भी शैक्षिक संस्था में नामांकित नहीं है, इस आयु वर्ग के दो फीसदी लोगों का नामांकन तो है लेकिन इनकी शैक्षिक संस्था में उपस्थिति नहीं है। इस आयु वर्ग के ५२ फीसदी व्यक्तियों की शैक्षिक संस्था में उपस्थिति दर्ज की गई है।
•    5-29 साल के आयु वर्ग में प्राथमिक और उससे ऊंचे दर्जे की कक्षा में नामांकित व्यक्तियों के हिसाब से देखें तो - 49% प्राथमिक स्तर पर,  24% माध्यमिक स्तर पर ; 20% उच्च माध्यमिक स्तर पर और  7% हायर सेकेंडरी स्तर पर नामांकित हैं।
•    सामान्य पाठ्यक्रम में 97.8% व्यक्तियों ने दाखिला लिया है। तकनीकी प्रकृति के पाठ्यक्रम में 1.9% और रोजगारपरक पाठ्यक्रम में  लोगों ने दाखिला लिया है।
•    अखिल भारतीय स्तर पर नेट अटेन्डेंट रेशियो कक्षाI-VIII के लिए  86% है।
•    अपेक्षाकृत उच्च नेट अटेन्डेंट रेशियो (कक्षाI-VIII के लिए) वाले बड़े राज्यों के नाम हैं- : हिमाचल प्रदेश  (96%),केरल(94%) और तमिलनाडु (92%)।
•    अपेक्षाकृत निम्न नेट अटेन्डेंट रेशियो (कक्षाI-VIII के लिए) वाले बड़े राज्यों के नाम हैं-: बिहार (74%), झारखंड (81%), उत्तरप्रदेश (83%)
•    प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिहाज से निजी संस्थाओं में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों में 73% ही किसी मान्यता प्राप्त संस्था से संबद्ध हैं।
•    माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिहाज से निजी संस्थाओं में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों में 78% विद्यार्थी ही किसी मान्यता प्राप्त संस्था से संबद्ध हैं।
•    प्राथमिक स्तर पर 71% फीसदी छात्रों को मुफ्त शिक्षा हासिल है( ग्रामीण - 80%, शहरी - 40%)
•    माध्यमिक स्तर पर 68%  फीसदी छात्रों को मुफ्त शिक्षा हासिल है( ग्रामीण - 75%, शहरी - 45%)
•    उच्च माध्यमिक स्तर या हायर सेकेंडरी स्तर पर 48%  फीसदी छात्रों को मुफ्त शिक्षा हासिल है( ग्रामीण - 54%, शहरी - 35%)

•    निजी शैक्षिक संस्था में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा  1413 रुपये का है।  (ग्रामीण- . 826 रुपये , शहरी - .3626 रुपये )
•    निजी शैक्षिक संस्था में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा  2088 रुपये का है।  (ग्रामीण- .  1370 रुपये , शहरी - .4264 रुपये )
•    निजी शैक्षिक संस्था में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा  2088 रुपये का है।  (ग्रामीण- .  1370 रुपये , शहरी - .4264 रुपये )
•निजी शैक्षिक संस्था में सेंकेंडरी या हायर सेकेंडरी स्तर की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा 4351रुपये का है( ग्रामीण-3019, शहरी-7212)
•    सेंकेंडरी या हायर सेकेंडरी स्तर से आगे की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा 7360 रुपये का है( ग्रामीण-6327, शहरी-8466)
•    तकनीकी शिक्षा के लिए यही खर्चा प्रति छात्र सालाना 32112 रुपये का है( ग्रामीण-27177 रुपये, शहरी-34822 रुपये)।
•    रोजगारपरक शिक्षा के लिए यही खर्चा प्रति छात्र सालाना 14881 रुपये का है( ग्रामीण- 13699 रुपये, शहरी-17016 रुपये)।
•    बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओड़ीसा में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए अगर छात्र निजी स्कूलों में दाखिल है तो उसका सालाना औसत खर्चा ६००-८०० रुपये का है जबकि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में ३५०० रुपये तक।
•    ग्रामीण इलाकों में मासिक खर्चे के लिहाज से सबसे निचली श्रेणी में आने वाला तबके के एक छात्र पर उसका परिवार प्राथमिक शिक्षा के लिए ३५२ रुपये सालाना खर्च करता है तो मासिक खर्चे के लिहाज से सबसे उंचले पादान पर आने वाली श्रेणी के छात्र के लिए यही खर्चा ३५१६ रुपये का है। शहरी क्षेत्र में उपरोक्त वर्गों के लिए यह खर्चा क्रमशः 1035 रुपये और 13474 रुपये का है।
•    अगर अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो शिक्षा पर कुल सालाना खर्चा प्रति छात्र ३०५८ रुपये का है जिसमें ट्यूशन फीस का हिस्सा 1034 रुपये का, परीक्षा शुल्क सहति अन्य शुल्कों(४५९ रुपये) का हिस्सा कुल खर्चे का आधा है। किताब और स्टेशनरी की खरीद पर ८५६ रुपये का खर्चा बैठता है तथा प्राइवेट कोचिंग पर ३५४ रुपये का।
•    जहां तक ग्रामीण भारत का सवाल है शिक्षा पर कुल खर्चे का ४० फीसदी हिस्सा ट्यूशन फीस, परीक्षा और अन्य शुल्कों के मद में आता है जबकि कुल खर्चे का २५ फीसदी हिस्सा किताबों और स्टेशनरी की खरीदारी पर। शहरी क्षेत्र में ट्यूशन फीस का हिस्सा कुल खर्चे में ४० फीसदी का है।
•    ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर छात्र सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की तादाद ७६ फीसदी है, माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की तादाद ७३ फीसदी और हायर सेकेंडरी स्तर पर यह आंकड़ा ६२ फीसदी का है।  
•    शहरी क्षेत्र में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिहाज से कुल छात्रों का ५९ फीसदी निजी स्कूलों में पढ़ता है। मिडिल और सेकेंडरी स्तर पर यह आंकड़ा शहरी क्षेत्रों में ५४-५५ फीसदी का है। शहरी क्षेत्र में प्राथमिक स्तर पर कुळ छात्रों का महज ३५ फीसदी सरकारी स्कूलों में पढ़ता है, माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए कुल छात्रों का ४० फीसदी हिस्सा सरकारी स्कूलों में जाता है और हायर सेकेंडरी स्तर पर यह आंकड़ा ४३ फीसदी का है। .
•    असम बिहार छ्तीसगढ़ और ओड़िसा में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए कुल छात्रों का ९० फीसदी हिस्सा सरकारी स्कूलों या फिर स्थानीय निकायों द्वारा संचालित स्कूलों में जाता है जबकि केरल में ३५ फीसदी और पंजाब में ४५ फीसदी। इन दो राज्यों में अधिकतर छात्र निजी संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करते हैं।
•    सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों में ६० फीसदी को मिड डे मील हासिल होता है। इसकी तुलना में सराकारी सहायता प्राप्त निजी संस्थानों में पढ़ने वाले १६ फीसदी बच्चों को और  सरकारी सहायता विहीन निजी संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्रों में से महज २ फीसदी छात्रों को मिड डे मील मिलता है।
•    सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे कुल 69% फीसदी छात्रों को मुफ्त पाठ्यपुस्तकें मिलती है, सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में पढने वाले कुल २२ फीसदी छात्रों को जबकि गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में पढ़ने वाले कुल ४ फीसदी छात्रों को मुफ्त पाठ्यपुस्तकें हासिल होती हैं।
•    स्कूली पढ़ाई पूरी ना कर पाने की मुख्य वजहें- धन की कमी (21%), विद्यार्थी का पढ़ाई में मन ना लगना (20%), पढाई में असफल होने का तनाव ना झेल पाना (10%), अपेक्षा का पूरा हो जाना यानि जहां तक पढना था पढ़ लिया का भाव-(10%), माता पिता का बच्चे की पढ़ाई में दिलचस्पी ना लेना- (9%)
•    स्कूल में नाम ना लिखाने की तीन वजहें बार बार अध्ययन के दौरान लोगों ने स्वीकार की-क) माता पिता का बच्चे की पढ़ाई के प्रति रुचि ना रखना (33.2%), ख) धन की कमी  (21%) और  ग) शिक्षा को जरुरी ना मानना  (21.8%).
Note: Net Attendance Ratio (I-VIII)=(Number of persons in age-group 6-13 currently attending Classes I-VIII divided by Estimated population in the age-group I-VIII years) multiplied by hundred  

•      मानव विकास सूचकांकों में गिरावट के रुझान हैं। तकरीबन १२ करोड़ पचास लाख अतिरिक्त लोग साल २००९ में कुपोषण के जाल में फंसे और आशंका है कि ९ करोड़ की और आबादी साल २०१० तक गरीबी के जाल में फंसेगी।
•        बढती गरीबी, बेरोजगारी और घटती मजदूरी के कारण कई गरीब परिवार शिक्षा पर हो रहे अपने खर्चे में कटौती कर रहे हैं और अपने बच्चों का नाम स्कूल से कटवा रहे हैं।
•        साल १९९९ से लेकर अबतक स्कूल वंचित बच्चों की तादाद में में विश्वस्तर पर कमी(३ करोड़ ३० लाख) आई है। दक्षिण और पश्चिम एशिया में स्कूल वंचित बच्चों की तादाद में ५० फीसदी से ज्यादा की कमी आई है। यह संख्या तकरीबन २ करोड़ १० लाख के बराबर पहुंचती है।
•        विश्वस्तर पर देखें तो स्कूल वंचित बच्चियों की संख्या भी कम हुई है। पहले यह ५८ फीसदी थी और अब घटकर ५४ फीसदी हो गई है। प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर लैंगिक-असमानता में कई देशों में कमी आ रही है।
•        साल १९८५-१९९४ और साल २०००-२००७ के बीच विश्वस्तर पर व्यस्क साक्षरता की दर में १० फीसदी का इजाफा हुआ। फिलहाल व्यस्क साक्षरता दर ८४ फीसदी है। व्यस्क पुरुषों की तुलना में व्यस्क महिलाओं की साक्षरता दर इस अवधि में कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ी है।
•        प्रति वर्ष १७ करोड़ ५० लाख बच्चे विश्व में कुपोषण से प्रभावित होते हैं। यह तथ्य सेहत और शिक्षा के लिहाज से एक आपात् स्थिति की सूचना देता है।
•        साल २००७ में ७ करोड़ २० लाख बच्चे स्कूल वंचित थे। अगर मौजूदा हालात जारी रहे तो २०१५ तक कुल ५ करोड़ ६० लाख बच्चे स्कूल वंचित रहेंगे।
•        शिक्षा से संबंधित लक्ष्यों में साक्षरता को सबसे कम महत्व मिला है। विश्व में कुल ७५ करोड़ ९० लाख लोग निरक्षर हैं और इनमें महिलाओं की संख्या दो तिहाई है।
•        साल २०१५ तक सार्विक प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए १० लाख ९० हजार अतिरिक्त शिक्षकों की जरुरत पड़ेगी।
•        कुल २२ देशों में ३० फीसदी से ज्यादा नौजवानों को महज चार साल तक की शिक्षा हासिल हुई है। ऐसे नौजवानों की तादाद उप सहारीय अफ्रीकी के ११ देशों में ५० फीसदी से भी ज्यादा है।
 

शिक्षा -2

आठवीं ऐनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट(जारी 17 जनवरी 2013) की मुख्य बातें-
http://img.asercentre.org/docs/Publications/ASER%20Reports
/ASER_2012/nationalfinding.pdf

http://img.asercentre.org/docs/Publications/ASER%20Reports
/ASER_2012/fullaser2012report.pdf

-- कुल मिलाकर 6-14 आयु-वर्ग के बच्चों के नामांकन की दर 96 फीसदी से अधिक बनी हुई है। सभी राज्यों में निजी स्कूलों में नामांकन बढ़ा है।
-- ग्रामीण भारत में 6-14 आयु-वर्ग के बच्चों की नामांकन दर ऊच्च बनी हुई है। 2012 में ग्रामीण भारत में इस आयु वर्ग के 96.5 फीसदी से भी अधिक बच्चे स्कूलों में नामांकित थे। यह लगातार चौथा वर्ष है जब नामांकन दर 96 फीसदी या उससे अधिक है।
-- राष्ट्रीय स्तर पर 6-14 आयु वर्ग में उन बच्चों का अनुपात जो किसी स्कूल में नामांकित नहीं कुछ बढ़ा है। जहां 2011 में 3.3 फीसदी था वहीं 2012 में बढ़कर यह 3.5 फीसदी हो गया । यह बढ़ोत्तरी 11-14 आयु-वर्ग की लड़कियों के लिए सर्वाधिक है, इस वर्ग के लिए अनामांकित बच्चों का प्रतिशत 2011 में 5.2 फीसदी था जो साल 2012 में बढ़कर 6 फीसदी पर पहुंच गया।
-- राजस्थान और उत्तरप्रदेश में 11-14 आयु वर्ग की लड़कियों में उन लड़कियों का प्रतिशत जो स्कूल में नामांकित नहीं थीं, 2011 में क्रमश 8.9 फीसदी और 9.7 फीसदी था जो साल 2012 में भड़कर 11 फीसदी से अधिक हो गया।
-- राष्ट्रीय स्तर पर, 6-14 आयु-वर्ग के लिए निजी स्कूलों में नामांकन साल दर साल बढ़ा है। साल 2006 में सौ में अगर 18.7 बच्चे निजी स्कूलों में जा रहे थे तो साल 2012 में 28.3 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों में जाने लगे। यानि बीते तीन सालों में निजी स्कूलों में दाखिले की दर 10 फीसदी प्रतिवर्ष रही है।

-- निजी स्कूलों में नामांकन में बढोत्तरी करीब-करीब सभी राज्यों में देखने को मिल रही है। 2012 में जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गोवा और मेघालय में 6-14 आयुवर्ग के 40 फीसदी से अधिक बच्चे निजी स्कूलों में नामांकित थे। केरल और मणिपुर के लिए यह प्रतिशत 60 से ज्यादा था।
-- देश के ग्रामीण हिस्से में, प्रारंभिक स्तर पर यानि कक्षा 1-8 के करीब एक चौथाई बच्चे चाहे वे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हों या सरकारी स्कूलों में, पैसे देकर निजी ट्यूशन के लिए जाते हैं। सामान्यतया जो बच्चे ट्यूशन हासिल करते हैं उनका शिक्षण-स्तर उन बच्चों से बेहतर था जो ट्यूशन हासिल नहीं कर रहे थे
-- 2010 में राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा 5 के आधे से अधिक (53.7 फीसदी) विद्यार्थी कक्षा 2 के स्तर का पाढ़ पढ़ पाने में सक्षम थे और ऐसे बच्चों का अनुपात गिरकर साल 2011 में 48.2 फीसदी पहुंचा तो साल 2012 में 46 फीसदी। पढ़ाई लिखाई के बुनियादी कौशल के मामले में गिरावट निजी स्कूलों में जा रहे बच्चों की तुलना में सरकारी स्कूलों में दिखाई दे रही है। सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 के उन बच्चों का प्रतिशत जो कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं 2010 में 50.7 फीसदी था जो साल 2012 में गिरकर 41.7 फीसदी हो गया।
-- 2011 और 2012 के बीच कक्षा 5 में पढ़ने वाले सभी बच्चों के लिए, हरियाणा, बिहार मध्यप्रदेश महाराष्ट्र और केरल में पढ़ने के स्तर में बड़ी गिरावट(5 फीसदी प्वाईंट) देखी गई। महाराष्ट्र और केरल में तो निजी स्कूलों में जिनमें बड़े अनुपात में सहायता प्राप्त करने वाले स्कूल भी शामिल हैं, कक्षा 5 में पढ़ने की क्षमता में गिरावट दिखा रहे हैं।
-- 2012 को भारत में गणित के वर्ष के रुप में मनाया गया परन्तु भारतीय बच्चों के लिए बुनियादी गणित के मान से यह वर्ष खराब रहा। 2010 में 10 में 7(70.9 फीसदी) कक्षा 5 में नामांकित बच्चे दो अंकों का घटाव(जिसमें हासिल लेना पड़ता हो) कर सकते थे। 2011 में यह अनुपात घटकर 10 में 6(61 फीसदी) और 2012 में गिरकर 10 में से 5(53.5फीसदी) हो गया है। आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल को छोड़कर हर बड़ा राज्य गणित कर पाने के स्तरों में भारी गिरावट के संकेत दिखा रहा है।
-- 2011 में सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 में पढ़ने वाले बच्चों और 2012 में सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 में पढ़ने वाले बच्चों की तुलना करें तो लगभग सभी राज्यों में बुनियादी घटाव करने की क्षमता में 10 प्रतिशत बिन्दु से अधिक की गिरावट देखा जा सकती है। इसमें अपवाद हैं बिहार, असम और तमिलनाडु जहां गिरावट कम है, आंध्रप्रदेश कर्नाटक और केरल में या तो 2011 की तुलना में सुधार हुआ है या खोई खास बढलाव नहीं हुआ है।
-- भारत में छोटे स्कूलों का अनुपात बढ़ रहा है। असर 2012 के दौरान कुल 14591 स्कूलों का अवलोकन किया गया। समय के साथ सरकारी प्राथमिक विद्याल्यों में 60 या उससे कम नामांकन वाले सरकारी प्राथमिक स्कूलो का अनुपात बढ़ा है। 2009 में यह 26.1 फीसदी था जो साल 2012 में बढ़कर 32.1 फीसदी हो गया।
-- प्राथमिक कक्षाओं में उन बच्चों का अनुपात भी बढ़ रहा है जो मल्टीग्रेड कक्षाओं में बैठते हैं। कक्षा 2 के लिए यह प्रतिशत 2009 में 55.8 था जो साल 2012 में बढ़कर 62.6 फीसदी हो गया। क्क्षा 4 के लिए यह प्रतिशत 2010 में 51 फीसदी से बढ़कर 2012 में 56.6 फीसदी हो गया है।
-- शिक्षा के अधिकार के मानकों के आधार पर छात्र शिक्षक अनुपात में समय के साथ सुधार दिख रहा है। 2010 में उन स्कूलों का अनुपात जो छात्र-शिक्षक अनुपात के मानको को पूरा कर रहे थे 38.9 फीसदी था जो साल 2012 में बढ़कर 42.8 फीसदी हो गया।
-- राष्ट्रीय स्तर पर स्कूलों में सुविधाओं में भी समय के साथ सुधार दिख रहा है। स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता में सुधार स्पष्ट दिख रहा है- 2012 में अवलोकित सभी स्कूलों में 73 फीसदी स्कूलों में पेयजल उपलब्ध था। उन विद्यालयों का अनुपात जिनमें उपयोग करने योग्य शौचालय है 2010 में 47.2 फीसदी से बढ़कर साल 2012 में 56.5 फीसदी हो गया है। अवलोगन किए गए स्कूलों में लगभग 80 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था थी। अवलोगन किए गए स्कूलों में 87.1 फीसदी स्कूलों में सर्वे के दिन देखा गया कि मध्याह्न भोजन दिया जा रहा है।

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में नामांकनों की संख्या में तेज बढ़त
  ·         ग्रामीण भारत में 6-14 साल की उम्र के 96.7% बच्चे स्कूलों में नामांकित हैं। साल 2010 से इस संख्या में खूब तेज बढ़त हुई है।
  ·         साल 2006 में जिन राज्यों में 11-14 साल की उम्र की स्कूल-वंचित लड़कियों की संख्या ज्यादा(10 फीसदी से अधिक) थी, उन राज्यों ने लड़कियों के स्कूली दाखिले के मामले में अच्छी प्रगति की है। मिसाल के लिए बिहार में साल 2006 में स्कूल वंचितों की तादाद 17.6% थी जो साल 2011 में घटकर 4.3% रह गयी। राजस्थान में साल 2006 में यह संख्या 18.9% थी जो साल 2011 में घटकर 8.9% पर आ गई है। ठीक ऐसे ही यूपी के मामले में यह संख्या साल 2006 में 11.1% थी जो 2011 में घटकर 9.7% रह गई है।
  ·         पाँच साल की उम्र वाले बच्चों की बड़ी संख्या फिलहाल स्कूलों में नामांकित है। पाँच साल की उम्र के स्कूल-दाखिल बच्चों की संख्या अखिल भारतीय स्तर पर साल 2011 में 57.8% है। राज्यवार इस आंकड़े में बड़ी भिन्नता है। नगालैंड में यह तादाद 87.1% है तो कर्नाटक में 18.8%
  अधिकतर राज्यों में निजी स्कूलों में दाखिले का चलन बढ़ा है-
  ·         6-14 साल की उम्र वाले बच्चों के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर निजी स्कूलों में दाखिले का चलन साल दर साल बढ़ रहा है।साल 2006 में अगर निजी स्कूलों में इस आयुवर्ग के 18.7% बच्चे निजी स्कूलों में नामांकित थे तो साल 2011 में 25.6%। बिहार को छोड़कर बाकी राज्यों में यह रुझान जारी है।
  ·         उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, केरल, मणिपुर और मेधालय में गुजरे पाँच सालों में निजी स्कूलों में दाखिले के मामले में प्रतिशत पैमाने पर 10 अंकों की बढ़ोतरी हुई है।
  ·         ASER 2011 के आंकड़ों के अनुसार हरियाणा, उत्तरप्रदेश, नगालैंड, मेघालय, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, उत्तराखंड,महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में 30-50 फीसद बच्चे निजी श्रेणी के स्कूलों में नामांकित हैं।
पठन की बुनियादी क्षमता के मामले में कई राज्यों में कमी के रुझान हैं-
  ·         राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो उत्तर भारत के कई राज्यों में पठन की योग्यता के मामले में गिरावट आई है। अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो साल 2010 में ऐसे बच्चों की तादाद 53.7% थी जो Std V में थे लेकिन Std 2 की किताबों को बढ़ सकते थे। साल 2011 में ऐसे बच्चों की तादाद घटकर 48.2% हो गई है। दक्षिण भारत के राज्यों में ऐसी गिरावट के रुझान नहीं हैं।
  ·         इस मामले में कुछ राज्यों से अच्छी खबर भी है। गुजरात,पंजाब और तमिलनाडु कक्षा 2 की किताबों को पढ़-समझ सकने की योग्यता रखने वाले कक्षा पाँच में दाखिल विधार्थियों का प्रतिशत 2010 की तुलना में 2011 में बढ़ा है। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मामले में सकारात्मक रुझान हैं।कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में इस मामले में आंकड़े में कोई तबदीली नहीं आई है।
अधिकतर राज्यों में गणित करने की क्षमता के मामले में गिरावट के रुझान हैं-
  ·          गणित करने की बुनियादी क्षमता की जांच के मामले में ASER 2011 के आकलन कहते हैं कि इसमें गिरावट आई है।  मिसाल के लिए, साल 2010 में कक्षा 3 के 36.3% विद्यार्थी दो अंकों के घटाव का गणित (जिसमें हासिल लेना पड़ता हो) सफलता पूर्वक करते पाये गए जबकि साल 2011 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या घटकर 29.9% पर आ गई है। साल 2010 में इसी स्तर के घटाव का गणित करने वाले कक्षा पाँच के विद्यार्थियों की संख्या राष्ट्रीय स्तर पर 70.9% थी जो साल 2010 में 61.0% पर आ गई है।.
  ·         गणित कर सकने की क्षमता में कमी का यह रुझान सभी राज्यों में देखा जा सकता है। सिर्फ आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में साल 2010 के मुकाबले 2011 में आंकड़े में इजाफा हुआ है। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मामले में सकारात्मक रुझान देखने को मिले जबकि गुजरात में 2010 के मुकाबले 2011 में साधारण गणित कर सकने की क्षमता में कोई बदलाव नहीं आया है।
स्कूलों के सर्वेक्षण के आधार पर उनके बारे में तैयार किए गए कुछ निष्कर्ष-
  बच्चों की उपस्थिति घटी है-
  ·         अखिल भारतीय स्तर पर साल 2007 में कक्षाओं में बच्चों की उपस्थिति 73.4% थी जो साल 2011 में घटकर 70.9% पर आ गई है( ग्रामीण भारत के प्राथमिक विद्यालयों में)
 
·         कुछ राज्यों में कक्षाओं में बच्चों की उपस्थिति में भारी गिरावट आई है, मिसाल के लिए बिहार में प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति साल 2007 में 59.0% थी जो साल 2011 में घटकर 50.0% पर आ गई। मध्यप्रदेश में साल 2007 में यह आंकड़ा 67.0% का था जो साल 2011 में घटकर 54.5% पर आ गया जबकि उत्तरप्रदेश में 64.4% (2007) से घटकर 57.3% (2011) पर।
  कक्षा 2 और कक्षा 4 के आधे से अधिक विद्यार्थी एक साथ किसी अन्य कक्षा में बैठते हैं-
·         स्कूलों के सर्वेक्षण के दौरान ASER ने अपना ध्यान कक्षा 2 और 4 के विद्यार्थियों पर केंद्रित किया और जानना चाहा कि इन कक्षाओं के विद्यार्थी कहां बैठते हैं।
  ·         राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो, ग्रामीण भारत के प्राथमिक विद्यालयों में जितनी भी कक्षाएं लगती हैं उसमें 50 फीसदी से ज्यादा मामलों में एक से ज्यादा कक्षा के विद्यार्थी बैठाए जाते हैं। मिसाल के लिए अखिल भारतीय स्तर पर कक्षा 2 के 58.3% विद्यार्थी प्राथमिक विद्यालयों में किसी अन्य कक्षा के साथ बैठाए जाते हैं। कक्षा-4 के लिए विद्यार्थियों का यह आंकड़ा 53% का है।
  ·         स्कूलों को अनुदान की राशि मिलती है, लेकिन समय पर नहीं।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुपालन से संबंधित निष्कर्ष
  शिक्षक-छात्र अनुपात और कक्षा-शिक्षक अनुपात के मामले में आंकड़ों में ज्यादा बदलाब नहीं
  ·         छात्र-शिक्षक अनुपात के मामले में अखिल भारतीय स्तर पर शिक्षा के अधिकार अधिनियम के मानकों के अनुपालन करने वाले स्कूलों की संख्या आनुपातिक तौर पर सुधरी है मगर यह सुधार बड़ा कम है। इस मामले में शिक्षा का अधिकार अधिनियम के मानक का पालन करने वाले स्कूलों की तादाद साल 2010 में 38.9% थी तो साल 2011 में 40.7% फीसदी। साल 2011 में कर्नाटक में इस मामले में 94.1% फीसदी स्कूल मानक का पालन करते मिले जबकि जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और मणिपुर में ऐसे स्कूलों की तादाद 80% से ज्यादा थी।
  ·         साल 2010 में प्रति शिक्षक एक क्लासरुम की मौजूदगी अखिल भारतीय स्तर पर 76.2% स्कूलों में थी जो साल 2011 में घटकर 74.3% स्कूलों में रह गई है। मिजोरम में 94.8% स्कूल प्रति शिक्षक एक क्लासरुम के मानक का पालन कर रहे हैं जबकि पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में ऐसे स्कूलों की तादाद 80 फीसदी से ज्यादा है।
भवन, खेल के मैदान,चहारदीवारी और पेयजल के मामले में ज्यादा बदलाव नहीं-
·         साल 2011 में अखिल भारतीय स्तर पर ऐसे स्कूलों का अनुपात ज्यादा नहीं बदला जहां कार्यालय-सह-स्टोररुम की व्यवस्था हो। यह आंकड़ा 74% पर स्थिर है। ठीक इसी तरह सर्वेक्षण के दौरान जिन स्कूलों का मौका-मुआयना किया गया उनमें कुल 62 फीसदी में साल 2010 में भी खेल के मैदान थे और 2011 में भी इतने ही स्कूलों में यह सुविधा पायी गई। चहारदीवारी युक्त स्कूलों की संख्या में बढ़ोतरी(साल 2010 में 50.9% तो साल 2011 में 54.1%) है।
  ·         राष्ट्रीयस्तर पर साल 2010 के सर्वेक्षण में पेयजल की सुविधा से हीन विद्यालयों की संख्या 17.0% थी और साल 2011 में 16.6% ऐसे विद्यालय जहां पेयजल की सुविधा(इस्तेमाल करने लायक) हो, साल 2010 में तकरीबन 73 फीसदी थे तो साल 2011 में भी कमोबेश इतने ही। इस मामले में केरल का रिकार्ड( 93.8% स्कूलों में इस्तेमाल कर सकने लायक पेयजल सुविधा) सबसे अच्छा पाया गया।
  बालिकाओं के लिए शौचालय की व्यवस्था बेहतर हुई है-
  ·         साल 2010 में ऐसे विद्यालयों की तादाद 31.2% थी जहां बालिकाओं के लिए अलग से शौचालय की सुविधा नहीं थी। साल 2011 में यह तादाद घटकर 22.6% पर आ गई है। बालिकाओं के लिए अलग से बने ऐसे शौचालय जो उपयोग करने लायक हों, पिछले साल की तुलना में बढ़े हैं( साल 2010 में ऐसे शौचालय वाले स्कूलों की तादाद  32.9% थी तो साल 2011 में 43.8%
  स्कूलों में पुस्तकालय की संख्या बढ़ी है और उनका इस्तेमाल करने वाले विद्यार्थियों की भी-
·         साल 2010 में पुस्तकालय वंचित विद्यालयों की संख्या 37.5% थी जो साल 2011 में घटकर 28.6% पर आ गई है वहीं साल 2010 में कुल 37.9% विद्यालयों में पिछले साल विद्यार्थी पुस्तकालय की सुविधा का लाभ उठा रहे थे जबकि अब 2011 में ऐसे स्कूलों की संख्या  42.3% पर जा पहुंची है। 
स्वयंसेवी संस्था प्रथम द्वारा प्रस्तुत एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट 2010(असर) के अनुसार-
  
·       नामांकन- सर्वेक्षण के अनुसार देश के:ग्रामीण इलाके में 6-14 साल की उम्र के 96.5 फीसदी बच्चों का नामांकन स्कूल में है।इनमें से कुल 71.1% बच्चे सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं जबकि, 24.3 % फीसदी बच्चों ने प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लिया है।
·       स्कूल वंचित लडकियां--  11-14 आयुवर्ग की कुल 5.9% लड़कियां भी स्कूल-वंचित हैं। बहरहाल साल 2009 में स्कूल वंचित लड़कियों की तादाद 6.8 फीसदी थी यानि सर्वेक्षण के अनुसार स्कूल वंचित बच्चियों की तादाद में कमी आई है।
·       राजस्थान(12.1%) और यूपी (9.7%) जैसे राज्यों में स्कूल वंचित बच्चियों की संख्या अब भी ज्यादा है और साल 2009 की तुलना में इसमें कुछ खास कमी नहीं आई है। इस सिलसिले में बिहार का जिक्र जरुरी है। बिहार में साल 2005 के बाद से स्कूल वंचित लड़के और लड़कियों की तादाद में उल्लेखनीय कमी आई है। साल 2006 में बिहार में 11-14 आयुवर्ग के स्कूल वंचित लड़कों की तादाद 12.3 फीसदी और लड़कियों की तादाद 17.7 फीसदी थी जो साल 2010 में घटकर क्रमश 4.4% और 4.6% फीसदी हो गई है।
·       प्राईवेट स्कूलों में दाखिले में बढोतरी- ग्रामीण भारत में प्राईवेट स्कूलों में दाखिले का चलन बढ़ा है। साल 2009 में देश के ग्रामीण इलाके में कुल 21.8% फीसदी बच्चे प्राईवेट स्कूलों में दाखिल थे तो साल 2010 में उनकी तादाद बढ़कर 24.3% फीसदी हो गई है। इस आंकड़े में साल 2005(असर की प्रथम रिपोर्ट) से ही इजाफा हो रहा है। 2005 में देश के गंवई इलाके में प्राईवेट स्कूलों में दाखिल बच्चों की तादाद 16.3% फीसदी थी।
·       साल 2009 से 2010 के बीच दक्षिण के राज्यों में गंवई इलाके में प्राईवेट स्कूलों में दाखिले का चलन उल्लेखनीय गति से बढ़ा है। आंध्रप्रदेश में प्राईवेट स्कूल में दाखिल बच्चों की तादाद एक साल के अंदर 29.7% फीसदी से बढ़कर to 36.1% फीसदी हो गई है। तमिलनाडु में प्राईवेट स्कूलों में दाखिल बच्चों की तादाद 19.7% फीसदी से बढ़कर 25.1% फीसदी, कर्नाटक में 16.8% फीसदी से बढ़कर 20% फीसदी और केरल में  51.5% फीसदी से बढ़कर 54.2% फीसदी हो गई है।
·       प्राईवेट स्कूल में बच्चों के दाखिले के मामले में अन्य राज्यों में पंजाब कहीं आगे है। वहां यह तादाद साल भर के अंदर 30.5% फीसदी से बढ़कर 38% फीसदी तक पहुंच गई है। बहरहाल बिहार में यह अनुपात (5.2%) फीसदी, पश्चिम बंगाल में (5.9%), झारखंड में (8.8%) ओड़ीसा में (5.4%) और त्रिपुरा में (2.8%) है।
·       पाँच साल की उम्र के बच्चों के स्कूल-नामांकन की तादाद बढ़ी- राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साल 2009 में स्कूलों में दाखिला ले चुके पाँच साल की उम्र के बच्चों की तादाद 54.6% फीसदी थी जो साल 2010 में बढ़कर 62.8% फीसदी हो गई। कर्नाटक में यह बढ़ोतरी खास तौर पर देखने में आई।यहां साल 2009 में पाँच साल की उम्र के 17.1% फीसदी बच्चे स्कूलों में दाखिल थे। साल 2010 में इनकी तादाद बढ़कर 67.6 फीसदी हो गई।
·       पाँच साल की उम्र के बच्चों के स्कूली नामांकन में अन्य राज्यों में भी तादाद बढ़ी है। पंजाब में यह तादाद साल भर के अंदर बढ़कर 68.3% से  79.6% फीसदी, हरियाणा में (62.8% से 76.8%), राजस्थान में (69.9% से75.8%), यूपी में (55.7% से 73.1%) और असम में 49.1% से बढ़कर 59% फीसदी हो गई है।
·       कुछ राज्यों को छोड़कर पढ़ पाने की क्षमता के मामले में खास बढ़त दर्ज नहीं हुई--: स्कूली शिक्षा के पाँच साल के बाद भी स्कूलों में दाखिल तकरीबन आधे बच्चे पढ़ पाने की क्षमता के मामले में दूसरी कक्षा के विद्यार्थी से अपेक्षित योग्यता तक भी नहीं पहुंच पाये हैं।कक्षा पाँच में दाखिल केवल 53.4% फीसदी बच्चे ही कक्षा दो के बच्चे से अपेक्षित पाठ को पढ़ पाने में सक्षम हैं।
·       गणित कर पाने की क्षमता में फिसड्डीपन--: औसतन कहा जा सकता है कि सरल गणित करने की क्षमता के मामले में बच्चों में फिसड्डीपन बढ़ा है। कक्षा-1 के कुल 69.3% फीसदी बच्चे साल 2009 में 1-9 तक की संख्या पहचान पाने में सक्षम थे लेकिन साल 2010 में ऐसे बच्चों की तादाद घटकर 65.8% फीसदी हो गई। ठीक इसी तरह कक्षा तीन के कुल 39% फीसदी छात्र साल 2009 में दो अंकों के घटाव का गणित कर पाने में सक्षम पाये गये जबकि साल 2010 में ऐसे बच्चों की तादाद घटकर 36.5 फीसदी हो गई। भाग करने की गणितीय क्षमता से लैस क्लास पाँच के बच्चों की तादाद साल 2009 में 38% फीसदी थी जो साल 2010 में घटकर 35.9% फीसदी हो गई।
·       रोजमर्रा के हिसाब के मामले में मिडिल स्कूल के छात्र कमजोर हैं— साल 2010 में असर सर्वेक्षण के दौरान मिडिल स्कूल के बच्चों से रोजमर्रा के हिसाब वाले सवाल मसलन मेन्यूकार्ड से जुड़े प्रश्न, कैलेंडर पढ़ने के बारे में और खेत या जमीन का क्षेत्रफल या फिर किसी चीज का आयतन बचाने के सवाल पूछे गए। आठवीं क्लास के तकरीबन तीन चौथाई बच्चों ने मेन्यूकार्ड से संबंधित सवाल हल कर दिये, दो तिहाई छात्र कलैंडर पर आधारित सवाल के सही जवाब दे पाये जबकि सिर्फ 50 फीसदी छात्र ही क्षेत्रफल-आयतन से जुड़े सवालों को हल कर पाये।क्षेत्रफल के सवालों को हल कर पाना छात्रों के लिए कहीं ज्यादा कठिन साबित हुआ जबकि ऐसे सवाल चौथी क्लास की पाठ्यपुस्तक से ही शुरु हो जाते हैं। केरल(79% ) और बिहार(69%) के आठवीं क्लास के छात्र क्षेत्रफल पर आधारित सवालों को हल करने में बाकी राज्यों से कहीं आगे थे।
·       प्राईवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में ट्यूशन का चलन पिछले साल के मुकाबले कम हुआ है--  प्राईवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में आठवीं क्लास तक के बच्चों के बीच ट्यूशन का चलन एक साल के अंदर साफ-साफ कम होता नजर आ रहा है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में ट्यूशन लेने का चलन कम नहीं हुआ है हालांकि बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडीसा जैसे राज्यों में जहां प्राईवेट स्कूलों में दाखिल बच्चों की संख्या कम है, पांचवीं क्लास में पढ़ रहे बच्चों में ट्यूशन लेने वाले बच्चों की संख्या ज्यादा( पश्चिम बंगाल-75.6%, बिहार -55.5% और ओडीसा -49.9%) है।

·       शिक्षा के अधिकार का अनुपालन – असर 2010 के सर्वेक्षण में कुल 13000 स्कूलों को शामिल किया गया। इसमें 60 फीसदी स्कूल इमारत के मामले में शिक्षा के अधिकार के मानकों के अनुरुप पाये गये। बहरहाल इन स्कूलों में से आधे से अधिक में शिक्षकों की तादाद बढ़ानी होगी।एक तिहाई स्कूलों में क्लासरुम की संख्या बढ़ानी होगी। सर्वेक्षण में शामिल कुल 13 हजार स्कूलों में से 62% में खेलकूद के लिए मैदान था, 50 फीसदी में चहारदीवारी थी और कुल 90 फीसदी स्कूलों में शौचालय मौजूद थे। बहरहाल शौचालय की सुविधायुक्त स्कूलों में केवल आधे ऐसे हैं जहां शौचालय इस्तेमाल करने लायक दशा में है। सर्वेक्षण में शामिल शौचालययुक्त स्कूलों में से 70% में लड़कियों के लिए अलग से इसकी सुविधा है लेकिन इस्तेमाल करने लायक दशा में शौचालय केवल 37 फीसदी स्कूलों में पाये गए।  81% स्कूलों में रसोईघर बने थे और 72 फीसदी स्कूलों में पेयजल की सुविधा थी।
·       प्राइमरी स्कूलों में सभी शिक्षकों की मौजूदगी के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर गिरावट के रुझान हैं। सर्वेक्षण के दिन सभी शिक्षकों की मौजूदगी वाले प्राइमरी स्कूलों की तादाद साल 2007 में 73.7%, साल 2009 में 69.2% और साल 2010 में 63.4% पायी गई।
·        समग्र ग्रामीण भारत में साल 2007 से 2010 के बीच स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति के मामले में कोई खास बदलाव देखने में नहीं आया। इस अवधि में स्कूलों में छात्रों की मौजूदगी तकरीबन 73% फीसदी पर स्थिर रही। हां, राज्यवार इसमें खास अन्तर जरुर है।

शिक्षा -1

साल १९९३-९४ में ग्रामीण इलाकों में पुरुष साक्षरता की दर(राष्ट्रीय स्तर) ६३ फीसदी थी जो साल १९९९-२००० में बढ़कर ६८ फीसदी हो गई।*
• साल १९९३-९४ में ग्रामीण इलाकों में महिला साक्षरता की दर(राष्ट्रीय स्तर) ३६ फीसदी थी जो साल १९९९-२००० में बढ़कर ४३ फीसदी हो गई।*
 • भारत के ग्रामीण अंचल में अनुसूचित जनजाति के तबके के लोगों में साक्षरता दर सबसे कम(४२ फीसदी) पायी गई है। इसके तुरंत बाद अनुसूचित जाति के परिवार के लोगों में साक्षरता दर की कमी(४७ फीसदी) लक्षित की जा सकती है।*
• शिक्षा के हर मरहले पर पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की मौजूदगी कम है। इससे शिक्षा के मामले में स्त्री-पुरुष के बीच अन्तर का खुलासा होता है। *
• मध्यप्रदेश और राजस्थान में साल १९९३-९४ से १९९९-२००० के बीच साक्षरता दर में सर्वाधिक तेज बढ़ोतरी हुई।*
•  सर्वाधिक कम भूमि की मिल्कियत वाले वर्ग में साक्षरता दर ५२ फीसदी है जबकि सर्वाधिक बड़े आकार की भू-मिल्कियत वाले वर्ग में साक्षरता दर ६४ फीसदी है।*
• ग्रामीण भारत में 6-14 साल की उम्र के 96.7% बच्चे स्कूलों में नामांकित हैं। साल 2010 से इस संख्या में खूब तेज बढ़त हुई है।**
• निजी स्कूलों में नामांकन में बढोत्तरी करीब-करीब सभी राज्यों में देखने को मिल रही है। 2012 में जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गोवा और मेघालय में 6-14 आयुवर्ग के 40 फीसदी से अधिक बच्चे निजी स्कूलों में नामांकित थे। केरल और मणिपुर के लिए यह प्रतिशत 60 से ज्यादा था। **
• 2010 में राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा 5 के आधे से अधिक (53.7 फीसदी) विद्यार्थी कक्षा 2 के स्तर का पाढ़ पढ़ पाने में सक्षम थे और ऐसे बच्चों का अनुपात गिरकर साल 2011 में 48.2 फीसदी पहुंचा तो साल 2012 में 46 फीसदी। **
• 2010 में 10 में 7(70.9 फीसदी) कक्षा 5 में नामांकित बच्चे दो अंकों का घटाव(जिसमें हासिल लेना पड़ता हो) कर सकते थे। 2011 में यह अनुपात घटकर 10 में 6(61 फीसदी) और 2012 में गिरकर 10 में से 5(53.5फीसदी) हो गया है। **

* लिटरेसी एंड लेवलस् ऑव एजुकेशन इन इंडिया १९९९-२००० ५५ वें दौर की गणना एनएसएस जुलाई १९९९-जूल २०००
** एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट(असर) 2012
चाइल्ड राइट एंड यू(क्राई) नामक स्वयंसेवी संगठन ने 13 राज्यों के 71 जिलों में शिक्षा का अधिकार कानून का जायजा लेने के लिए एक अध्ययन किया है। अध्ययन में अग्रलिखित राज्यों के जिलों को शामिल किया गया- आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड, ओडिसा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश। अध्ययन में दिल्ली, कोलकाता, मुबंई और हैदराबाद जैसे शहर को भी शामिल किया गया।अध्ययन के लिए आंकड़ों का संकलन सितंबर-अक्तूबर 2012 की अवधि में किया गया। अध्ययन में शामिल आंकड़ें 747 प्राथमिक और अपर प्राथमिक विद्यालयों के हैं।
चाइल्ड राइट एंड यू (क्राई) द्वारा प्रस्तुत लर्निंग ब्लॉक नामक अध्ययन(जून 2013) के अनुसार अनुसार
http://www.cry.org/mediacenter/afarcryfromequitablequality
educationforall.html


शौचालय:
•   अध्ययन के अनुसार 11 फीसदी स्कूलों में शौचालय नहीं है और केवल 18 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था है। 34 फीसदी स्कूलों में शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं है। ज्यादातर स्कूलों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है। तकरीबन 49 फीसदी स्कूलों में स्कूल के कर्मचारी और छात्रों के लिए कॉमन टॉयलेट है।
पेयजल
•   20 फीसदी स्कूलों में स्वच्छ पेयजल की सुविधा नहीं थी।12 फीसदी स्कूल ऐसे मिले जो पेयजल के लिए टैप या हैंडपंप पर आश्रित थे और ये टैप अथवा हैंडपंप स्कूल के आहाते से बाहर थे।
प्रधानाध्यापक के लिए अलग कमरा :
•    तकरीबन 59 फीसदी स्कूलों में प्रधानाध्यापक के लिए अलग से कमरा नहीं था।
रसोईघर और मिड डे मील :
•    मिड डे मील प्रोग्राम के तहत भोजन पकाने के लिए स्कूल के आहाते के अंदर रसोईघर का रहना अनिवार्य है। लेकिन 18 फीसदी स्कूलों में मिड डे मील स्कूल के अहाते में जिस तरह के रसोईघर में पकाया जाता था उसे या तो समुचित नहीं कहा जा सकता या फिर ऐसे स्कूलों में रसोईघर की ही व्यवस्था नहीं थी।
खेल के मैदान और खेलकूद की सामग्री :
•    सर्वेक्षण में शामिल तकरीबन 63 फीसदी स्कूलों में खेल का मैदान नहीं था और 6द फीसदी स्कूलों में खेल की सामग्री नहीं थी।
स्कूल-परिसर की दीवार :
•    तकरीबन 60 फीसदी स्कूल ऐसे थे जिनके आहाते की दीवार या तो टूटी हुई थी, या अभी उसका निर्माण हो रहा था या फिर दीवार बनी ही नहीं थी।
पुस्तकालय :
•    अध्ययन में पाया गया कि 74 फीसदी स्कूलों में पुस्तकालय नहीं थे। जिन स्कूलों में पुस्तकालय था उनमें 84 फीसदी स्कूलों में एक्टिविटी बुक्स नहीं थे और 80 फीसदी में कहानी या सामान्य ज्ञान की किताबें नहीं थीं।
आयु के औचित्य से नामांकन :
•    अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार केवल 13 फीसदी स्कूलों में आयु-औचित्य से नामांकन दिया जा रहा था। इनमें से ज्यादातर स्कूलों में आयु-औचित्य के आधार पर नामांकन पाने वाले छात्रों के लिए विशेष कोचिंग या प्रशिक्षण की व्यवस्था थी।
•   
हालांकि शिक्षा के अधिकार कानून में कहा गया है कि नामांकन के समय किसी विद्यार्थी के द्वारा उम्र का प्रमाणपत्र देना जरुरी नहीं है, बावजूद इसके 61 फीसदी स्कूलों में उम्र का प्रमाणपत्र मांगा गया और 47 फीसदी स्कूलों में उम्र का प्रमाणपत्र देना नामांकन के लिए अनिवार्य था।
•   
शिक्षा के अधिकार कानून के विधानों के विपरीत, 66 फीसदी स्कूलों में नामांकन के समय पीछे प्राप्त शिक्षा का प्रमाणपत्र मांगा गया। उनमें से तकरीबन 46 फीसदी स्कूलों ने नियम के विपरीत छात्र से नामांकन के समय स्थानांतरण प्रमाणपत्र की मांग की।
स्कूल प्रबंधन समिति :
•   
9 फीसदी स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समिति नहीं थी और जिन स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समिति गठित की गई थी उनमें से 9 फीसदी के पास किसी बैठक की विवरणी नहीं थी। तकरीबन 45 फीसदी प्राथमिक विद्यालय और 38 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों के अभिभावक को स्कूल प्रबंधन समिति का सदस्य नहीं बनाया गया था। तकरीबन 59 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों और 54 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों को स्कूल प्रबंधन समिति का सदस्य नहीं बनाया गया था।
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44 फीसदी प्राथमिक और 32 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में महिलायें स्कूल प्रबंधन समिति की सदस्य नहीं बनायी गई थीं। तकरीबन 52 फीसदी प्राथमिक विद्यालय और 41 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालय ऐसे थे जहां स्कूल प्रबंधन समिति में वंचित तबके के लोगों को सदस्य नहीं बनाया गया था। 51 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों और 47 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को स्कूल प्रबंधन समिति का सदस्य नहीं बनाया गया था। सर्वेक्षण में शामिल 55 फीसदी विद्यालयों की प्रबंधन समिति स्कूल के विकास की योजना बनाने में शामिल नहीं थी।
छात्र-शिक्षक अनुपात :
•    शिक्षा के अधिकार कानून में लोअर प्राइमरी स्कूल के लिए 30 छात्र पर एक शिक्षक का और अपर प्राइमरी स्कूल में 35 छात्र पर एक शिक्षक का विधान है। अध्ययन में पाया गया कि लोअर प्राइमरी स्कूल में 39 छात्र पर एक शिक्षक है और अपर प्राइमरी स्कूल में 40 छात्र पर एक शिक्षक।
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अध्ययन में पाया गया कि 21 फीसदी प्राइमरी स्कूलों और 17 फीसदी अपर प्राइमरी स्कूलों में शिक्षक मिड डे मील की तैयारी से जुड़ी किसी ना किसी गतिविधि में संलग्न थे जो कि कानून के खिलाफ है।
शिक्षक :
•    28 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों और 31 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में प्रधानाध्यापक नहीं थे।

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कुल 35 फीसदी प्राथमिक स्कूल ऐसे थे जहां शिक्षक या तो बारहवीं पास थे अथवा जिनके पास शिक्षण का डिप्लोमा था। तकरीबन 56 फीसदी प्राथमिक स्कूल ऐसे थे जहां शिक्षक स्नातक या स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त थे।

डोंबारी बुरु

 झारखंड का जालियांवाला बाग है खूंटी जिले का डोंबारी बुरु आज से 122 साल पहले नौ जनवरी 1899 को अंग्रेजों ने डोंबारी बुरु में निर्दोष लोगों को ...