PICS: जो मानी होती पटेल की ये बात तो हमारे सामने घुटने टेकता चीन!
dainikbhaskar.com | Oct 19, 2012, 08:58AM IST
20 अक्टूबर को भारत-चीन युद्ध के 50 साल पूरे हो रहे हैं। इस मौके पर
दैनिकभास्कर डॉट कॉम एक सीरीज चलाकर चीन द्वारा थोपे गये युद्ध की वजह से
लेकर इससे जुड़े सभी सुने-अनसुने पहलुओं पर विशेष कवरेज दे रहा हैं। इस
सीरीज में दोनों सेनाओं की स्थिति, रक्षा बजट, कूटनीति से लेकर अब तक की
सभी स्थितियों पर हम विशेष जानकारी देंगे।
इस सीरीज में आज हम आपको तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के पत्र के जरिए बता रहे हैं कि चीन की कूटनीति को कैसे इन्होंने पहले ही पहचान लिया था? उन्होंने भारतीय राज्यों पर मंडरा रहे चीनी खतरे के प्रति पंडित नेहरू को आगाह करने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं उन्होंने कुछ समस्याओं को ध्यान में रखकर प्रशासनिक एवं सैन्य नीतियां बनाने की बात की थी। लेकिन भारतीय -चीनी भाई-भाई के नारे में ये बातें दबकर रह गयीं।
इस सीरीज में आज हम आपको तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के पत्र के जरिए बता रहे हैं कि चीन की कूटनीति को कैसे इन्होंने पहले ही पहचान लिया था? उन्होंने भारतीय राज्यों पर मंडरा रहे चीनी खतरे के प्रति पंडित नेहरू को आगाह करने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं उन्होंने कुछ समस्याओं को ध्यान में रखकर प्रशासनिक एवं सैन्य नीतियां बनाने की बात की थी। लेकिन भारतीय -चीनी भाई-भाई के नारे में ये बातें दबकर रह गयीं।
1. सीमा व आंतरिक सुरक्षा दोनों मोर्चों पर भारत के समक्ष उत्पन्न चीनी
खतरे का सैन्य व गुप्तचर मूल्यांकन।
2. हमारी सैन्य स्थिति का एक परीक्षण.
3. रक्षा क्षेत्र की दीर्घकालिक आवश्यकताओं पर विचार.
4. हमारे सैन्य बलों की ताकत का एक मूल्यांकन.
5. संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश का प्रश्न.
6. उत्तरी व उत्तरी-पूर्वी सीमा को मजबूत करने के लिए हमें कौन से राजनीतिक
व प्रशासनिक कदम उठाने होंगे.
7. चीन की सीमा के करीब स्थित राज्यों जैसे बंगाल व असम के सीमावर्ती
क्षेत्रों में आंतरिक सुरक्षा के उपाय.
8. इन क्षेत्रों और सीमावर्ती चौकियों पर संचार, सड़क, रेल, वायु और बेहतर
सुविधाओं में सुधार.
9. ल्हासा में हमारे दूतावास और गयांगत्से व यातुंग में हमारी व्यापार
चौकियों तथा उन सुरक्षा बलों का भविष्य जो हमने तिब्बत में व्यापार मार्गों
की सुरक्षा के लिए तैनात कर रखे हैं.
10 मैकमोहन रेखा के संदर्भ में हमारी नीति.
आपका
सरदार वल्लभ भाई पटेल
पिछले कई महीनों से रूसी गुट से परे केवल हम ही अकेले थे, जिन्होंने चीन को
संयुक्तराष्ट्र की सदस्यता दिलवाने की कोशिश की तथा फारमोसा के प्रश्न पर
अमेरिका से कुछ न करने का आश्वासन भी लिया। मुझे इसमें संदेह है कि चीन को
अपनी सद्इच्छाओं, मैत्रीपूर्ण उद्देश्यों और निष्कपट भावनाओं के बारे में
बताने के लिए हम जितना कुछ कर चुके हैं, उसमें आगे भी कुछ किया जा सकता है।
हमें भेजा गया उनका अंतिम टेलिग्राम घोर अशिष्टता का नमूना है। इसमें न
केवल तिब्बत में चीनी सेनाओं के घुसने के प्रति हमारे विरोध को खारिज किया
गया है, बल्कि परोक्ष रूप से यह गंभीर संकेत भी दिया गया है कि हम विदेशी
प्रभाव में आकर यह रवैया अपना रहे हैं।
उनके टेलिग्राम की भाषा साफ बताती है कि यह किसी दोस्त की नहीं, बल्कि भावी
शत्रु की भाषा है। हमें इस नई स्थिति को देखना और संभालना होगा। तिब्बत के
गायब हो जाने के बाद हमें यह पता था चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है।
इतिहास में कभी भी हमें अपनी उत्तर-पूर्वी सीमा की चिंता नहीं हुई है।
हिमालय श्रृंखला उत्तर से आने वाले किसी भी खतरे के प्रति एक अभेद्य अवरोध
की भूमिका निभाती रही है। तिब्बत हमारे एक मित्र के रूप में था, इसलिए हमें
कभी समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र संधि कर हमेशा उसकी
स्वायत्तता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले
राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का
कारण बन सकते हैं।
चीन की कुदृष्टि हमारी ओर वाले हिमालयी इलाकों तक ही सीमित नहीं है। वह असम
के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा पर भी उसकी नजर
है। बर्मा के साथ और भी समस्या है, क्योकि उसकी सीमा को निर्धारित करने
वाली कोई रेखा नहीं है, जिसके आधार पर वह कोई समझौता कर सके। हमारे
उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के
आदिवासी क्षेत्र आते हैं। संचार की दृष्टि से उधर हमारे साधन बड़े ही कमजोर
व अपर्याप्त हैं, सो यह क्षेत्र ‘कमजोर’ है। उधर कोई स्थायी मोर्चे भी
नहीं हैं।
इसलिए घुसपैठ के अनेक रास्ते हैं। मेरे विचार से अब आत्मसंतुष्ट रहने या
आगे-पीछे सोचने का समय नहीं है। हमारे मन में यह स्पष्ट धारणा होनी चाहिए
कि हमें क्या प्राप्त करना है और किन साधनों से प्राप्त करना है। इन खतरों
के अलावा हमें गंभीर आंतरिक संकटों का भी सामना करना पड़ सकता है। मैंने
एचवीआर आयंगर को पहले ही कह दिया है कि वह इन मामलों की गुप्तचर रिपोर्टों
की एक प्रति विदेश मंत्रालय का भेज दें। निश्चित रूप से सभी समस्याओं को
बता पाना मेरे लिए थकाऊ और लगभग असंभव होगा, लेकिन नीचे मैं कुछ समस्याओं
का उल्लेख कर रहा हूं, जिनका मेरे विचार से तत्काल समाधान करना होगा और
जिन्हें दृष्टिगत रखते हुए ही हमें अपनी प्रशासनिक या सैन्य नीतियां बनानी
होंगी तथा उन्हें लागू करने का उपाय करना होगा-
नई दिल्ली
7 नवंबर, 1950
मेरे प्रिय जवाहरलाल
चीन सरकार ने हमें अपने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आडंबर में उलझाने का
प्रयास किया है। मेरा यह मानना है कि वे हमारे राजदूत के मन में यह झूठा
विश्वास कायम करने में सफल रहे कि चीन, तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग
से सुलझाना चाहता है। चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्वासघात
जैसी ही है। तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है। हम उनका मार्गदर्शन भी
करते रहे हैं और अब हम ही उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भावना के जाल से
बचाने में असमर्थ हैं। यह दुखद बात है। ताजा प्राप्त सूचनाओं से ऐसा लग
रहा है कि हम दलाई लामा को भी नहीं निकाल पाएंगे। यह असंभव ही है कि कोई भी
संवेदनशील व्यक्ति तिब्बत में एंग्लो-अमेरिकन दुरभिसंधि से चीन के समक्ष
उत्पन्न तथाकथित खतरे के बारे में विश्वास करेगा।
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