मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

आवाजें जो वर्गीय तहखानों से उठती हैं.

आवाजें जो वर्गीय तहखानों से उठती हैं.


एक सवाल-एक बात: 5 
राज्य हत्या: कॉमरेडों की याद में बनाए गए स्तूपम (DK) 

माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं. 

अजीत हर्षे की बात-                                               
जब से नक्सली हमले में कुछ सफेदपोश लोग मारे गए हैं चर्चा छिड़ी हुई है कि माओवादी हत्याएं गलत हैं या सही। हर हत्या गलत है, इसमें किसी को क्या शक हो सकता है, विशेषकर जब निर्दोष मारे जा रहे हों। तो जहां तक मेरा मानना है, बहस का विषय यह नहीं है। बहस का विषय है: हत्याएँ क्यों हो रही हैं और आगे से न हों इसके लिए क्या किया जाए। (यहाँ मैं उन हत्याओं की बात नहीं कर रहा हूँ जो साधारण अपराध की श्रेणी में आती हैं। मैं संगठित हत्याओं की बात कर रहा हूँ, जिसे आतंकवाद कह दिया जाता है। और चर्चा भी इन्ही हत्याओं की चल रही है।) प्रश्नों पर आने से पहले संविधान में दिये गए मूल अधिकारों को एक बार याद कर लें: 1)समानता 2)स्वतन्त्रता 3)शोषण का विरोध 4)धर्म और शिक्षा की स्वतन्त्रता और 5) संपत्ति का अधिकार।  
अब पहले प्रश्न को लेते हैं कि हत्याएँ क्यों हो रहीं हैं:आम तौर से कह दिया जाता है भूख के कारण हत्याएँ हो रही हैं। मगर ऐसा नहीं है। कश्मीर में और उत्तर पूर्व में भूख इसका कारण नहीं है। दरअसल अन्याय के कारण हत्याएँ होती हैं, न्याय न मिलने के कारण हत्याएँ होती हैं और आतंकवाद पनपता है। लोगों को न्याय दे दीजिये, आतंकवाद अपने आप समाप्त हो जाएगा। लेकिन साधारण जनता को न्याय प्रदान करना इस संविधान के अंतर्गत सरकारों के लिए मुश्किल होता जा रहा है। जो जितना गरीब है न्याय उससे उतना ही दूर है।
यहाँ बंगाल, झारखंड से लेकर महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश तक फैले आदिवासी बेल्ट में फैले माओवादी आतंकवाद की बात हो रही है। यह इलाका देश का सबसे गरीब और पिछड़ा इलाका है। संयोग से प्रकृतिक संपदाओं के लिहाज से वह सबसे सम्पन्न भी है। इस सम्पदा पर सबसे पहले उन्हीं आदिवासियों का हक है इस बारे में अगर किसी को संदेह है तो आगे न पढ़ें। और अगर आप मेरी बात से सहमत हैं तो आदिवासियों के साथ पिछले 66 सालों में कितना ज़बरदस्त अन्याय हुआ है यह आप देख सकते हैं। और फिर आपकी इस बात से भी सहमति स्वाभाविक है कि यही माओवादी आतंकवाद का कारण है।   इस चर्चा को यहीं समाप्त करें, क्योंकि इस पर चर्चा काफी हो चुकी है और न्याय के बारे में इससे महत्वपूर्ण सवाल मैं उठाना चाहता हूँ। और वह इस प्रकार है:
हम जानते हैं कि देश में गरीबी रेखा तय कर दी गई है और वह है शहरों में, लगभग 900 प्रतिव्यक्ति रुपए प्रतिमाह और गावों में 700 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति माह। यह तो कम से कम है, इसके नीचे बहुत बड़ी खाई है मित्रों। गावों और उन आदिवासी क्षेत्रों में यह खाई कितनी गहरी है इसका अनुमान इन क्षेत्रों में भूख से होने वाली मौतों (या हत्याओं?) से जाना जा सकता है, कुपोषण के आंकड़े देखे जा सकते हैं। देश की औसत प्रति व्यक्ति आय है 5700 रुपए। अगर मैं कहूँ कि इससे ज़्यादा कमाने वाला किसी न किसी रूप में देश में चल रही अन्यायी व्यवस्था से जुड़ जाता है तो फेसबुक पर बैठे सभी मित्र मुझे पागल कहेंगे। मगर सच यही है। इसे थोड़ा बढ़ा (10-20 प्रतिशत) लें या कम कर लें क्योंकि गरीबों में, कामकाजियों में थोड़ा बहुत फर्क तो हो ही सकता है। वैसे भी यह औसत तो है ही। अब पहले इस बात पर थोड़ी चर्चा हो जाए कि कैसे इस औसत से ज़्यादा पाने वाले (कमाने वाले, नहीं कह रहा हूँ क्योंकि मैं न्यायपूर्ण कमाई की बात करना चाहता हूँ।) शोषण में किस तरह सहभागी हैं।
देश में पंजीकृत रोजगार देने वाली मुख्य रूप से दो ही संस्थाएँ हैं: सरकार और कारपोरेट घराने। और इन संस्थाओं में काम करने वाले सबसे छोटे कर्मचारी का ही वेतन (ऊपरी आमदनी छोडकर) इस औसत के (परिवार में 3-4 सदस्य मनाने पर) करीब होता है। दूसरे अधिकांश कर्मचारियों के वेतन तो बहुत ज़्यादा होते हैं। यह अतिरिक्त वेतन कहाँ से आता है? दरअसल यह उसी लाभ का हिस्सा है जो ये सरकारें और कारपोरेट घराने बाकी जनता का शोषण करके कमाती हैं। कर्मचारियों को संतुष्ट रखने के लिए जिनकी तनख़्वाहें इसी नाजायज कमाई में से समय-समय पर बढ़ा दी जाती हैं। अब आप कहेंगे कि सरकारें तो कारपोरेट नहीं हैं। अब इसी समझ में समस्या है। बात यह है कि आर्थिक न्याय की अवधारणा को सरकारीकरण से जोड़ने का समय कम से कम 60-70 साल पुराना हो चुका है। 70 के आसपास का वह दौर हम पार कर आए हैं और चीन तो इसका ज्वलंत उदाहरण है ही। अब दुनिया की कोई सरकार, जनतान्त्रिक-पूंजीवादी, सैनिक-तानाशाही, धार्मिक और यहाँ तक कि कम्यूनिस्ट सरकारें भी एक विशाल कारपोरेट के सिवा कुछ नहीं है। दुनिया भर में सरकारें इस वक़्त दोहरी भूमिका में है। खुद (और अपने कर्मचारियों के लिए) लाभ कमाओ (इसके लिए यहाँ तक कि चोरी करो, डाका डालो, हत्याएँ करो) और कारपोरेट की सेवा और सुरक्षा करो। इस लाभ के गणित की चर्चा भी इस दौरान बहुत हो चुकी है। उसे छोड़ें। 
अब इन सरकारी और कारपोरेट कर्मचारियों में उन्हें और जोड़ लें जो छोटे दुकानदार हैं, मध्यम और बड़ी  खेती वाले किसान हैं, तो इस पूरे शोषण तंत्र में हिस्सेदार मध्यवर्ग का कोरम पूरा हो जाता है। ये लोग दरअसल इन्हीं सरकारों और कारपोरेट घरानों की भीख पर पल रहे नौकर हैं जिनमें से कई संवेदनहीन नौकर उनके एजेन्टों का काम भी करते हैं।
इस चर्चा के बाद यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि 25 मई की माओवादी हत्याओं के बाद माओवादियों के विरुद्ध जनाक्रोश क्यों उमड़ पड़ा। इस विरोध के पीछे इस मध्यवर्ग का बहुत बड़ा हि छिपा हुआ है। बहुत से लोग सिर्फ अंबानी, अनिल अग्रवाल, टाटा वगैरह को गलियाँ देकर समझ रहे हैं कि कर्तव्य की इतिश्री हो गई। इनमें से अधिकांश सरकारी नौकर होंगे। सोचते हैं, हम तो सरकारी कर्मचारी हैं। अगर टाटा या पोस्को की जगह कोल इंडिया या सेल यही काम करे तो इन्हें कोई परेशानी नहीं होने वाली। दरअसल कर भी रही है कई जगह। इनके निजीकरण के विरोध के पीछे भी यही बात है। इनकी 70 साल पुरानी अवधारणा ही यह है सरकारी है तो वह न्यायपूर्ण भी है! सोवियत संघ के पतन के बाद भी इनकी आँखें नहीं खुलीं। खैर।
यह स्पष्ट करने के बाद कि इन आतंकी हत्याओं का जन्म ही अन्याय से हुआ है, हम दूसरे प्रश्न पर आते हैं कि इन हत्याओं को रोका कैसे जाए। कई मित्र यह कहते हैं कि आदिवासियों का शोषण और दमन हो रहा है यह वे मानते हैं मगर माओवादियों की हत्याओं को वे जायज़ नहीं ठहरा सकते। कुछ गांधीवादी हैं और कुछ यह समझते हैं कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है और ये माओवादी आदिवासियों को बहला फुसलाकर, डरा-धमकाकर और अपनी सत्ता स्थापित करने के उद्देश्य से ऐसा कर रहे हैं और दरअसल आदिवासी तो भारतीय न्याय व्यवस्था पर भरोसा करते हैं। बताइये, अगर इन पढे लिखे लोगों का भोलापन देखकर हंसी न आए तो क्या हो। उनसे पूछना ही होगा कि क्या आप भारतीय न्याय व्यवस्था पर भरोसा करते हैं। दिल्ली, पटना, बंगलोर, मुंबई वासियों से और गावों में रहने वाले आप जैसे लोगों से ही मैं पूछना चाहता हूँ, जिनके बच्चे आरक्षण विरोध में आत्मदाह कर रहे हैं, जिनकी लड़कियों को बलात्कार और हत्या करके सड़कों पर डाल दिया जाता है, युवाओं को प्रेमविवाह करने पर फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। मुझे नहीं लगता कि आदिवासियों का इतने अत्याचारों के बाद देश की न्याय व्यवस्था में रत्ती भर भी विश्वास हो सकता है। कानूनों पर हो सकता है, न्यायाधीशों पर हो सकता है मगर व्यवस्था पर नहीं। वैसे तो ईमानदार कर्मचारियों पर, नेताओं पर (विशेषकर कम्यूनिस्ट नेताओं पर, जो बेचारे आजकल उन इलाकों में माओवादियों के डर से जा भी नहीं पाते), एनजीओज़ पर भी हो सकता है। मगर इतना ही काफी नहीं है। और जब ऐसा है तो वे न्याय की गुहार किसके पास करें? तब उन्हें माओवादी ही दिखाई देते हैं जो कार्पोरेट्स से उगाही करते होंगे मगर उनकी हत्याओं का, गलत ही सही, तुरंत बदला भी लेते हैं। वे जंगलों की रक्षा का, अपने मतलब से ही सही, दावा करते हैं, भले ही टीवी नहीं आने देते। वे सोचते हैं इन माओवादियों का साथ देने पर परेशानियाँ तो बहुत हैं मगर आदिकाल से जैसे वे जी रहे थे उसमें इनका कोई सीधा हस्तक्षेप भी नहीं है।
अब सवाल यह है कि आदिवासियों का भारतीय न्याय व्यवस्था पर विश्वास कैसे कायम किया जाए। सीधी सी बात है कि उन्हें न्याय मुहैया कराके। आतंकवादियों से उनका पीछा छुड़ाकर। उन्हें भोजन, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया कराके। उन्हें अपनी मर्ज़ी से जीवन जीने की आज़ादी देकर। यह हो सकता है, उनसे संवाद करके। आप पूछेंगे वे हैं कौन तो वे सबसे पहले माओवादी ही हैं। कम से कम इस समय, जब कि सरकारें, एनजीओज़ ईमानदार कम्यूनिस्ट पार्टियां वहाँ जाने में नाकाम हैं, आदिवासी, माओवादियों से डरकर या उन्हें अपना समझकर उनके साथ हैं तो फिर बात माओवादियों से ही करनी होगी। सिर्फ बात। उनके विरुद्ध कोई भी सैनिक कार्रवाही कारगर नहीं हो सकती, क्योंकि आदिवासी ही उनका ह्यूमन-शील्ड हैं। पहले उनसे बात करें, फिर आदिवासियों के बीच जाकर धीरे धीरे उन्हें अपनी बात समझाएँ। सबसे बड़ी बात उन इलाकों का औद्योगीकरण उनकी मर्ज़ी के विरुद्ध करने की जल्दबाज़ी न करें।
देश को यह समझना होगा कि यही वे लोग हैं जिनके पास जंगल और पहाड़ खोने के बाद खोने के लिए कुछ भी नहीं बचता और ऐसे लोगों को ही सर्वहारा कहा जाता है। ऐसे लोग खुद पर अन्याय होने पर कुछ भी कर सकते हैं, माओवादी, माओ-आतंकवादी (या क्रांतिकारी) हो जाना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं होगी। पूंजीवादी-जनतांत्रिक सरकारों को खुद अपने आपको बचाने के लिए उन्हीं के संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताएँ जनता को फौरी तौर पर मुहैया करा देनी होंगी अन्यथा हिंसा का दौर कभी खत्म नहीं होने वाला। इन्हीं स्वतंत्रताओं को प्रदान करने का सरकारों का अस्वीकार ही इस समस्या का मूल कारण है। 

Thursday, June 06, 2013

जनता होशियार : हमारे संसदीय राजा आखेट पर निकले हैं


सुष्मिता

एक सवाल-एक बात: 4                                                

फोटो- दख़ल की दुनिया.
माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं. सुष्मिता ने यह आलेख ग्रीनहंट के शुरुआती समय में लिखा था जिसे दखल की दुनिया ने एक बुकलेट के रूप में प्रकाशित किया था. बहस में इसकी सार्थकता को देखते हुए इसे यहाँ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है. 


सामंती युग में राजा-महाराजा जंगलों में शिकार खेलने जाते थे। वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे. अब समय बदल गया है. इसलिए अब राजा का शौक भी बदल गया है. अब तो जंगली जानवर बचाए रखने की चीज बन गए हैं. इसलिए अब जंगलों में रहने वाले आदिवासियों का शिकार होगा. राजा अपने शागिर्दों के साथ नए शिकार पर जाने की तैयारी कर रहा है. टीवी चैनलों पर युद्ध के धुन बजने लगे हैं. यहां तक कि चैनलों ने ‘लाइन ऑफ़ कंट्रोल’ की घोषणा भी कर दी है। इसका नाम दिया गया है ‘आपरेशन ग्रीन हंट’। गृह मंत्रालय ने देश की सबसे गरीब जनता पर युद्ध की घोषणा कर दी है। यह हमला नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर किया जानेवाला है. हालांकि नक्सलवाद के बारे में पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल के विचार थोड़े अलग थे. उनका मानना था कि नक्सलवाद देश के लिए उतना बड़ा खतरा नही है जितना बढ़ा-चढ़ाकर इसे दिखाया जाता है. महज एक साल में इतना बड़ा क्या बदलाव हो गया? मुंबई हमले के बाद चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया और रातों-रात पूरा परिदृश्य बदल गया. अब नक्सलवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा बन गए.
चिदंबरम के इस दृष्टिकोण के पीछे चिदंबरम की व्यावसायिक पृष्ठभूमि भी है। चिदंबरम देश की सबसे बड़ी कारपोरेट धोखाधड़ी करनेवाली कंपनी एनरान के वकील थे। इसके बाद वे पर्यावरण नियमों की अनदेखी करने के लिए कुख्यात दुनिया की सबसे बड़ी खदान कंपनी ‘वेदान्ता’ के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के सदस्य रहे। वितमंत्री बनने से पहले उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफा दे दिया. इनकी व्यावसायिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद चिदंबरम की चिंता को समझना आसान हो जाता है. लेकिन इसके बावजूद चिदंबरम के दावों को समझना जरूरी है. क्या वास्तव में माओवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं? क्या माओवादियों को खत्म करने से विकास का रास्ता पशस्त हो जाएगा? क्या इन सैनिक हमलों से माओवादियों का खात्मा हो जाएगा?

‘आपरेशन ग्रीन हंट’ और प्रतिरोध
आपरेशन ग्रीन हंट जनता के खिलाफ एक सरकारी बर्बर युद्ध है जिसे तीन चरणों में चलाया जाना है. सबसे पहले छतीसगढ़-आंध्रप्रदेश-उड़ीसा के सीमावर्ती इलाके से इसकी शुरुआत होनी है. इस आपरेशन में स्थानीय बलों के अलावा लगभग एक लाख अर्द्धसैनिक बलों को लगाया जाना है. इस काम में अमरीकी अधिकारी भी लगे हुए हैं. सरकार का कहना है कि आदिवासी इलाकों का विकास इसलिए नहीं हो पाया है चूंकि इनपर माओवादी काबिज हैं. इसलिए जरूरी है विकास के लिए सबसे पहले इन इलाकों को खाली कराया जाए. लेकिन यह सच्चाई से कोसों दूर है. यदि सच में माओवादी इन इलाकों के विकास में बाधा हैं तो फिर सरकार उन इलाकों का विकास क्यों नहीं करती जहां माओवादी नहीं हैं? सरकार के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो देश के 604 में से महज 182 जिले माओवादियों के प्रभाव में हैं. सरकार बाकी के जिलों का विकास क्यों नहीं करती? इन इलाकों में भी माओवादी लगभग 25 सालों से ही हैं इससे पहले सरकार को इसकी विकास की चिंता क्यों नहीं थी. राजस्थान, यूपी अब भी बुरी तरह पिछडे हुए है। सरकार इसको विकास का माडल क्यों नहीं बनाती?
लेकिन सच्चाई तो कुछ और ही है। सरकार ने झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और छतीसगढ़ के तमाम पहाड़ और जंगलों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर दिया है. 2008 के मध्य तक पहाड़ों और खदानों से संबंधित उड़ीसा में 65 एमओयू, झारखंड में 42 एमओयू और छतीसगढ़ में 80 एमओयू बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ किए गए हैं. आदिवासी जनता के पैरों तले बड़ी मात्र में बहुमुल्य खनिज हैं. छतीसगढ़ में एक तरफ सरकार ने 2005 में एमओयू किया तो दूसरी तरफ उसके अगले ही दिन कांग्रेस के नेतृत्व में सलवा जुडुम की घोषणा हुई. यह एक सरकारी बर्बर गिरोह है जो वियतनाम में अमरीका द्वारा गठित खुनी गैंगों की तर्ज़ पर बनाया गया है. केन्द्र सरकार के ग्रामीण विकास विभाग द्वारा जनवरी, 2008 में गठित 15 सदस्यीय समिति की रिपोर्ट (स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस एंड अनफिनिशड टास्क ऑफ़ लैंड रिफार्म ) का सलवा जुडुम के बारे में कहना है कि, ‘‘खुले रूप से इस घोषित युद्ध का अंत अब तक के सबसे बड़ी जमीन हड़प में होगा...टाटा और एस्सार स्टील भारत में उपलब्ध सबसे बेहतर लौह अयस्क की खदान के लिए सात या इससे अधिक गांवों को लेना चाहते थे. आदिवासियों के प्रारंभिक प्रतिरोध के बाद सरकार ने अपनी योजना वापस ले ली. एक नया दृष्टिकोण जरुरी था. यह सलवा जुडुम के साथ सामने आया जो मुरियाओं द्वारा गठित था, इनमें से कुछ पहले माओवादियों के ही कार्यकर्ता थे. इसके पीछे व्यापारी, ठेकेदार, और खदान वाले लोग थे. सलवा जुडुम को धन उपलब्ध करानेवालों में टाटा और एस्सार प्रथम थे. 640 गाँव सूने हो गए. इनको जला दिया गया और सत्ता की मदद से बंदुक की नोंक पर खाली कराया गया. दंतेवाड़ा की कुल जनसंख्या का लगभग आधा साढ़े तीन लाख लोग विस्थापित हो गए. उनकी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. उनकी बेटियों को मार दिया गया और नवयुवकों को अपंग बना दिया गया. जो जंगल में नहीं भाग सके उन्हें सलवा जुडुम द्वारा संचालित शिविरों में ले जाया गया. ताजा जानकारी के अनुसार इन खाली किए गए 640 गांवों को टाटा और एस्सार लेने के लिए तैयार है.’’
इससे साबित हो जाता है कि इन इलाकों को खाली करवा कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप दिया जाना है. सरकार का कहना है कि विकास का यही रास्ता है.
दरअसल यह कम तीव्रतावाले युद्धों की साम्राज्यवादी रणनीति का एक हिस्सा है। इसका इस्तेमाल मुलतः वियतनाम युद्ध के दौरान किया गया था. साम्राज्यवादियों ने संघर्ष के इलाकों में वहीं के लोगों को लेकर अपने तंत्र खड़े किए और इसका इस्तेमाल अपने युद्धों के लिए किया. इसने सत्ता के पक्ष में एक हिस्से को गोलबंद करने की कोशिश भी की. इसी अनुभव का इस्तेमाल आज भारत में हो रहा है. सरकार द्वारा छतीसगढ़ में सलवा जुडुम, झारखंड में नासुस, आंध्रप्रदेश में कई विजलैंट गैंग, असम में सुल्फा, प बंगाल में हर्मद वाहिनी इत्यादि इसके कुछ उदाहरण हैं. इन गिरोहों का काम मुलतः संघर्षरत जनता पर दमन ढाना होता है. यह वितीय पूंजी के पक्ष में एक जनमत का भी निर्माण करता है. नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ संघर्षरत जनता, उड़ीसा में पोस्को के खिलाफ संघर्षरत जनता के खिलाफ इसने जनगोलबंदी के साथ-साथ हमला भी किया. हमें यह समझना चाहिए कि साम्राज्यवाद अपने हमलों में उस देश के पूंजीपति वर्गों को भी शामिल करता है. वियतनाम पर अमरीकी हमले के समय वहां के तमाम बड़े पूंजीपति अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ खड़े थे. इसको समझे बगैर जनसंघर्ष को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. इस तरह आॅपरेशन ग्रीन हंट साम्राज्यवादियों के पक्ष में जनता के खिलाफ छेड़ी जानेवाली युद्ध है.
कई लोग मानवीय और आम नागरिकों के नुकसान होने के तर्क पर इस हमले का विरोध कर रहे हैं. इनका कहना है कि इस लडाई के बीच में आदिवासी फंस गए हैं. इनका कहना है कि माओवादियों के निचली कतार के लोग भी तो गरीबी के कारण ही इस लड़ाई में हैं. यह समझ देश के मध्य वर्ग के चरित्र को ही सामने रखता है. यह वर्ग सोचता है कि कोई गरीब कैसे राजनीतिक लक्ष्यों के लिए लड़ सकता है. यह मध्य वर्ग का एक पारंपरिक चरित्र है और वह गरीबों को ऐसे ही देखते आया है. यह वर्ग यह नहीं समझ पाता कि इन गरीबों के लिए मध्य वर्ग के तरह स्कूल नहीं हैं बल्कि गरीबों के राजनीतिक प्रशिक्षण का केन्द्र संघर्ष ही है. इन गरीबों ने अपनी राजनीतिक ताकत दिखा दी है. लालगढ़ ने भी गरीब जनता के राजनीतिक चेतना को सामने रख दिया है. सच तो यह है कि इन गरीबों की जगह देश के मध्य वर्ग और संसदीय वामपंथियों की लड़ाई आजिविका के लिए है और अब यह राजनीतिक लक्ष्यों को काफी पीछे छोड़ आया है. कुछ लोगों की आलोचना है कि माओवादी महज स्थानीय मुद्दों में ही उलझे रहते हैं और उनका राष्ट्रीय राजनीति में कोई हस्तक्षेप नहीं होता. दरअसल ये लोग स्थानीय संघर्षों के राजनीतिक अंतर्वस्तु को समझ नहीं पाते तथा संसद के अंदर के बहसों को ही मूल संघर्ष समझते हैं. वे एक जमींदार और पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के बीच के संबंधों को ठीक से नहीं समझ पाते. वे इन ग्रामीण लड़ाइयों के शहरों के साथ के संबंधों को नहीं समझ पाते. नीचे से उपर तक सरकारी मशीनरी शासक वर्गों के इशारे पर ही काम करती है, यह है सामंतों, दलाल पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों का वर्ग. साम्राज्यवाद इन स्थानीय दलालों के जरिए ही शोषण चलाता है. इसके लिए वह स्थानीय संरचनाएं भी खड़ा करता है और ये साम्राज्यवादी शोषण के एक औजार बन जाते हैं. यदि चुपचाप लूट को बर्दाश्त किया जाए तो ये कुछ नहीं करते लेकिन जैसे ही इनकी आमदनी के हजारवें हिस्से पर भी चोट होता है तो ये बौखला जाते हैं. जैसा कि मार्क्स ने चर्च के बारे में कहा था कि इनको लाख गालियां दो ये कुछ नहीं कहेंगे लेकिन जैसे ही इनकी आमदनी के हजारवें हिस्से पर भी चोट होगा तो ये बौखला जाएंगे. अपने मुनाफे पर चोट से यह वर्ग बौखला गया है. इस तरह इन तमाम स्थानीय लड़ाइयों की राष्ट्रीय राजनीति में एक भूमिका है. यह भूमिका आज देश की जनता के सामने है कि किस तरह आदिवासियों के विस्थापन और साम्राज्यवादी लूट को मुद्दे के रुप में इन स्थानीय लड़ाइयों ने ही सामने लाया न कि संसद ने.
आज नक्सलवादियों को ‘अराजकतावादी’ और ‘आतंकवादी’ कहा जा रहा है. इस काम में वाम से दक्षिण तक काफी मुस्तैदी से जुटे हैं. लेकिन सच तो यह है कि 1970 में अपनी पार्टी के लाइन की तुलना में आज ये काफी उदार हुए हैं. उस समय सीपीआइ(एमएल) ने सफाया को संघर्ष के एकमात्र स्वरूप के रूप में स्वीकार किया था. इसके अलावा जनसंगठन और जनसंघर्ष को संशोधनवाद माना जाता था. माओवादियों ने इसमें कार्यनीतिक गलती की बात कहते हुए इसमें सुधार किया और सफाया को महज एक संघर्ष का स्वरुप तथा जनसंगठन-जनसंघर्ष को क्रांति के एक अभिन्न हिस्से के रुप में स्वीकार कर अपनी गलती सुधारी लेकिन पार्टी की बुनियादी रणनीति से दृढ़ता पर डटे रहे. सशस्त्र संघर्ष के मसले में बदलाव बस इतना हुआ कि 1970 में पार्टी के पास सशस्त्र संघर्ष की एक ठोस दिशा थी लेकिन व्यवहार में इसे और ठोस होना था. माओवादियों ने उस ठोस दिशा पर कायम रहते हुए व्यवहार में इसे ठोस किया. हालांकि इन्होने भी काफी बाद में किया जब इन्हे आंध्रप्रदेश में भारी नुकसान उठाना पड़ा. शांतिपूर्ण संघर्ष का स्वाद तो खुद माओवादियों को भी चखना पड़ा. 2004 में वार्ता के दौर में इन्होने 10-15 लाख लोगों तक की रैलियां की. इसके जरिए इन्होने अपने जनाधार और जनसमर्थन के बारे में उठने वाले तमाम सवालों का करारा जबाब दिया. लेकिन इसके बाद भारी पैमाने पर इनके कार्यकर्ताओं की हत्या की गई और अंततः उन्हे आंध्रप्रदेश से पीछे हटना पड़ा. क्या किसी भी संघर्ष का राजनीतिक चरित्र केवल इसलिए खत्म हो जाता है चूंकि वह हथियारबंद संघर्ष में विश्वास करती है? हथियारबंद संघर्ष तो महज संघर्ष का एक पहलु है. अगर माओवादी संघर्ष को केवल सैनिक रुप से देखते तो इस विशाल सेना के सामने कबका झुक गए होते. इसके बजाए उनका जनता की ताकत में विश्वास है. इसीलिए उन्होने इस हमले को व्यापक जनगोलबंदी और सैनिक प्रतिरोध के बदौलत हराने की बात कही है. सच तो यह है कि आदिवासियों का मसला इसिलिए एजेंडे में आया है. चूंकि उनके एक हाथ में राजनीति तो दुसरे में हथियार है. नर्मदा के विस्थापितों का दर्द कौन सुनने गया? हाल का विस्थापन पहला नहीं है बल्कि इससे पहले भी विस्थापन हुए हैं.
विकास या लूट और जमीन हरण
पूंजीवादी विकास बिना हिंसा के रास्ता पकड़े आगे नहीं बढ़ सकता. यदि ऐतिहासिक तथ्यों पर नजर डाली जाए तो यह सरकार भी वही कर रही है जो पहले इंगलैंड, अमरीका, लैटिन अमरीका और वियतनाम जैसे देशों में किया गया था. यह वह दौर था जब सामंतवाद को तोड़कर पूंजीवाद खड़ा हो रहा था. 16 वीं शताब्दी के शुरू में इंगलैंड में भी सामंतों ने सामुहिक भूमि से किसानों को खदेड़कर उनकी जमीनों को भेड़ों के बाड़े में बदल दिया था. हालांकि इस सामूहिक जमीन पर किसानों का भी उतना ही अधिकार था जितना सामंतों का. इसके बावजूद इन किसानों को भारी हिंसा के जरिए उन जमीनों से उजाड़ दिया गया. जमींदारों ने एक नारा दिया था कि खेती की जमीनों को भेड़ों के बाड़े में बदल डालो. इस काम को उस दौर में बढ़ते ऊन के भाव ने भी काफी गति दी. इसके अलावा इसका दूसरा फायदा यह हुआ कि पूंजीपतियों को भारी मात्रा में काफी सस्ते मजदूर मिल गए. अमरीका का इतिहास भी वहां कि आदिम प्रजाति रेड इंडियंस के भारी नरसंहार और खून से लिखी गई. वेस्टवार्ड मुवमेंट के नाम से चर्चित इस परिघटना में हम इसे देख सकते हैं. उस दौरान उन इलाकों में सोने के खदानों पर कब्जा करने के लिए भारी मात्रा में बाहरी लोग गए. रेड इंडियंस की पूरी प्रजाति को लगभग नष्ट कर दिया गया. रेड इंडियंस वहां के मूल निवासी थे. आज वहां उन्हें अजायबघरों में रखा जाता है. लैटिन अमरीका और वियतनाम में भी वहां के आदिवासियों की पूरी प्रजाति को ही खत्म कर दिया गया. भारत में भी उनके उतराधिकारी यही नरसंहार चलाना चाहते हैं. अब आदिवासियों के सामने दो ही रास्ते हैं कि या तो विकास के इस ऐतिहासिक परिघटना का हिस्सा बनें या फिर एक नई तरह की विकास का इतिहास रचें. इतिहास गढ़ने के सवाल पर पारंपरिक से लेकर वामपंथी पार्टियां कान खड़े कर लेंगी. बाड़ाबंदी आंदोलन के भारतीय उतराधिकरी कहेंगे कि कोई भी इतिहास गढ़ने कि बात अतीत हो गई. अब हमें नए तरह से सोचना चाहिए. संसद की पुजारी वामपंथी पार्टियां कहेंगी कि नरसंहार तो ठीक नहीं है लेकिन कोई शांतिपूर्ण रास्ता तलाशना होगा. हिंसक संघर्ष के बजाए सामाजिक सद्भाव से ही कुछ मिल सकता है. मतलब इनका पतन वर्ग संघर्ष से अब वर्ग सहयोग तक हो गया. कई अन्य लोग कहेंगे कि सेज के खिलाफ संघर्ष तो ठीक है लेकिन लोकतंत्र में जनवादी क्रांति की बात करना अनुचित है. इस तरह संसदीय वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी तक अपने निष्कर्ष में यही कहते हैं कि विकास की कोई नई रणनीति नहीं हो सकती. भले ही पुरानी रणनीति को ही मानवीय बनाया जा सकता है,
सच्चाई यह है कि बुर्जुआ विकास के इस रणनीति के लोकतांत्रिक बनने की कोई गुंजाइश नहीं है. लूट और नरसंहार तो इसका अंतर्निहित चरित्र है. इससे नरसंहार और जमीन के हरण को अलग नहीं किया जा सकता. इसका कारण यह है कि यह अपनी समृद्धि का इतिहास अपनी मेहनत के बल पर नहीं बल्कि जनता की बहुसंख्या के शोषण, लूट और हत्या पर लिखता है. अब तक का इतिहास तो यही रहा है. जो लोग बीच का रास्ता तलाशने की बात कहते हैं वे इस बात का जबाब नहीं देते की नर्मदा के विस्थापितों का क्या हुआ. आदिवासी इलाकों में लगे बड़े-बड़े उद्योगों का कौन सा फायदा आदिवासियों को मिला? आदिवासियों के पैरों के नीचे से निकला कोयला तो दिल्ली को चकाचैंध करता है लेकिन आदिवासी बिना दवा दारु के मर-खप जाते हैं. छतीसगढ़ से निकला लोहा जापान के स्कुटर उद्योग को चमकाता है लेकिन यहां के आदिवासी आज तक स्कुटर के बारे में नहीं जानते. तमाम आदिवासी अपने ही घरों को उजाड़ कर लगाए गए उद्योगों के बाबुओं से लेकर किरानियों तक के गुलाम बन गए. आदिवासी बेटियां दिल्ली और अन्य बड़े शहरों के रइस घरों की दासी बन गईं. खुद अपना ही घर बेगाना हो गया. जंगल पर फारेस्टर का कब्जा तो जमीन पर बड़े लुटेरे दैत्यों का कब्जा. चिदंबरम जी को समझना चाहिए की यह इक्सवीं सदी है न कि सोलहवीं सदी. आदिवासियों ने अपने पिछले संदर्भों से समझा है कि समझौते का मतलब है कि इन बाबुओं की गुलामी करो. अपनी बेटियों को इन बाबुओं के हवाले कर दो. अब यह आदिवासियों को मंजुर नहीं है. पिछले साठ सालों में पहली बार आदिवासियों का सवाल एजेंडे पर आया है. आज तक संसद में बैठे लोंगों ने बर्बादी और लूट के सिवाय क्या दिया. पुर्व जस्टीश पीबी सावंत ने दिल्ली के एक कार्यक्रम में माओवादियों को इस बात के लिए धन्यवाद दिया कि उन्होने आदिवासियों के एजेंडे को देश के सामने रख दिया है. त्रासदी यह है कि अब भी उन्हीं इलाकों की बात हो रही है जिन इलाकों में संधर्ष है, इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि यदि अविकास और शोषण के कोहरे से निकलना है तो संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है. तमाम पिछड़ी जनता के लिए यह एक सबक होगी.
बीसवीं सदी के मध्य तक इस आबादी के पास इस नरसंहार से बचने की कोई ठोस वैकल्पिक योजना नहीं थी. खासकर उन आदिवासियों के पास जिनको अबतक उनकी जमीन से बेदखल नहीं किया गया था. कार्ल मार्क्स ने 19 वीं सदी में पूंजीवादी दैत्य और लूट से मुक्ति का जनता को उपाय बताया. उन्होने मेहनतकशों को स्पष्ट कर दिया कि ब्यापक जनता की बदहाली का कारण बाबुओं और पूंजीपतियों की समृद्धि है. इससे मुक्ति के लिए मार्क्स ने समाजवादी क्रांति का हथियार मेहनतकशों के हाथों में दिया. इसके बाद लेनिन ने 20 वीं शताब्दी के शुरू में बताया के यह पूंजीवादी दैत्य अब साम्राज्यवाद में बदल गया. उन्होने यह भी बताया के यह दैत्य अब और खूनी हो गया है. यानी इसके अंदर की प्रगतिशील चिजें भी अब प्रतिगामी हो गई हैं. मुनाफे की गिरती दरों की वजह से अब इन हत्यारों के खून की प्यास और बढ़ गई थी. इस आबादी को अब और खतरा बढ़ गया था. ये तमाम आबादियां उस समय ब्रिटेन या फिर यूरोप के उपनिवेश थे. ऐसे समय में माओ-त्से-तुंग ने इस आबादी को नरसंहार से बचने का रास्ता सुझाया. उन्होने कहा कि दो ही रास्ते हैं. या तो सत्ता की चाबी अपने हाथों में लेने के लिए कुर्बानियां दो या फिर नरसंहार का दंश झेलो. लेकिन नरसंहार की तुलना में कुर्बानियां नगण्य होगी. उन्होने उस आबादी को रास्ता सुझाया जो अब भी पूर्व पूंजीवादी संबंधों के दौर से गुजर रही थी और इसक साथ-साथ कई साम्राज्यवादी देशों के शोषण का शिकार थी. उन्होनें कहा कि इसका हल एक नई तरह की जनवादी क्रांति है जो बराबरी के लिए रास्ता प्रशस्त करेगी. यह वही ऐतिहासिक कार्यभार है जिसे पूरा करने से बुर्जुआ वर्ग ने अपनी जबाबदेही खींच ली थी. लेकिन अब इस जनवादी क्रांति का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगा. इस तरह से अर्धऔपनिवेशिक शोषण के शिकार जनता के हाथों में नवजनवादी क्रांति का एक नया हथियार था. माओ ने इसे पूरा करने का ठोस रास्ता भी सुझाया. आज छतीसगढ़ से लेकर उडीसा, प बंगाल, बिहार, झारखंड की जनता इतिहास से सबक लेकर इसी लड़ाई को आगे बढ़ा रही है. अब वह समझती है कि कोई भी सम्मानजनक समझौता इस व्यवस्था में संभव नहीं है. इसलिए किसी नए विकल्प और नए रास्ते की ही जरुरत है. एक अध्ययन के अनुसार उड़ीसा में मौजूद बाक्साइट की कीमत 2004 की कीमत पर 2270 अरब डालर है. यह रकम भारत के सकल घरेलु उत्पाद से दोगुनी है. वर्तमान में इसकी कीमत 4000 अरब डालर के करीब होगी. इसमें सरकार को आधिकारिक रुप से महज सात फीसदी रायल्टी मिलेगी. इसके अलावा झारखंड, छतीसगढ़ में लगभग 4000 अरब डालर से अधिक की अकूत खनिज अलग है. यह विकास है या फिर लूट इसका अंदाजा हम इसी से लगा सकते हैं.

हिंसा का सवाल
अब फिर हिंसा का सवाल सामने आ जाता है. लेकिन इतिहास साक्षी है कि ऐतिहासिक रुप से हिंसा की जिम्मेवारी तथाकथित समृद्धि का तानाबाना रचने वाले नरसंहारियों पर है न कि आदिवासी और मेहनतकश जनता पर. आज समूचे देश के सामने यह सवाल यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा है कि आप किसकी हिंसा कि आलोचना करेंगे रोमन साम्राज्य के हत्यारों की या फिर स्पार्टकस के नेतृत्व में विद्रोह करने वाले गुलामों की. जाहिर तौर पर स्पर्ताकास के विद्रोह में हिसा और बर्बादी हुई. यदि कभी हिंसा का इतिहास लिखा गया तो यही बात सामने आएगी कि दुनिया कि समूची हिंसा में प्रतिरोध की ताकतों की हिस्सेदारी न के बराबर है. हिंसा का सहारा तो सबसे पहले सत्ता में बैठे वर्गों ने लिया. कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट की लड़ाई में खून की नदी बह गई. इस्लाम का उदय तो युद्ध करते हुए ही हुआ. एक अध्ययन बताता है कि सर्वाधिक भयंकर और युद्ध का अभिशाप और ‘गौरव’ 20वीं सदी को ही है. इस सदी के केवल 25 वर्षों में जितनी हत्यायें की गई है, अतीत में किसी एक सदी में भी नहीं हुई है. इस हिंसा कि वजह मुनाफे और वर्चस्व की लड़ाई थी. भारत में तो हिंसा की पूरी संस्कृति ही रही है. रामायण और महाभारत की कहानियां हिंसा और खून से लथपथ है. भारत में बौद्धों को भारी पैमाने पर हिंसा के जरिए शंकराचार्य के चेलों ने नष्ट किया. अबतक जनता मालिकों के लिए अपना जान गंवाती रही है लेकिन अब वह अपने बेटे-बेटियों के लिए लड़ रही है. यह बात जरुर नई है.
दरअसल शासकों को हिंसा शब्द से आपति होती है. शासकीय भाषा में इसी हिंसा को शक्तिपूजा, बल की साधना, आत्मरक्षा, देश की सुरक्षा आदि कहा जाता है. इतिहास में इस बात के कहीं भी प्रमाण नहीं हैं कि कोई भी राजा बगैर हथियारों के सत्ता में कायम रहा हो. जिस वर्ग के हाथ में सत्ता रहा है उस वर्ग के हाथ में हथियार भी रहे है. राष्ट्रीयता के संघर्ष वाले इलाकों को खून के समंदर में डुबो दिया गया है. अकेले काश्मीर में पिछले 20 सालों में 70,000 जानें गई हैं. इनमें दसियों हजार लोगों का टार्चर किया गया, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, हजारों लोग लापता हो गए. समूचा उतर-पूर्व सरकारी हिंसा और आतंक का रंगमंच बना हुआ है. महज दो महीने पहले मणिपुर में एक निहत्थे युवक को सरेआम गोली मारकर मुठभेड़ बता दिया गया. तहलका ने जब इस हत्या कि सिलसिलेवार तस्वीर छापी तो इसपर एक जांच की घोषणा हो गई. आंध्रप्रदेश में ही पिछले एक दशकों में सैंकड़ों छात्रों सहित लगभग चार हजार युवकों की हत्या कर दी गई. गुजरात के दंगों में ही लगभग दो हजार मुस्लिमों को मार दिया गया. इन लोगों का हत्यारा कौन है? कौन इन होनहार बेटों को लील रहा है. संघर्ष के इलाके ऐसे इलाके में तब्दील हो गए हैं जहां बेटियां लापता हो जाती हैं और फिर उनकी नंगी लाशें बरामद होती है. मायें अपने बेटों का उम्र भर इंतजार करती है लेकिन पूरी उम्र इंतजार खत्म नहीं होती. बहनों को अपने भाइयों की कोई खबर नहीं मिलती. 1970 के दशक में पूरा प बंगाल नवयुवकों के खून से लथपथ हो गया. पिछले एक दशक में बर्ज में डुबने के कारण 1,80,000 किसानों ने अपनी जान दे दी. कौन है इन सबका हत्यारा? इन बेटे-बेटियों का जुर्म बस इतना था कि ये यथास्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. यदि हिंसा के सवाल का हल ढूंढ़ना है तो इनके हत्यारों को ढूंढ़ना होगा. कितनी अजीब बात है कि सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करनेवाले देश में जन हत्या खुद एक सत्तापोषित राजनीति है. जनता ने तो व्यवहार से ही सीखा है कि यदि संघर्ष को एक मुकाम पर पहुंचाना है तो खूद को सशक्त करना होगा और शासक वर्गों के हथियार पर एकाधिकार को तोड़ना होगा. कौन अपनी सुख-शांति नीलाम कर देना चाहता है. हिंसा तो सत्ताओं का प्रिय शगल रहा है. सत्ता में बैठे लोग और धनाढ्य लोग रोमन साम्राज्य के थियेटरों में रंगमंच पर हत्या और महिला-पुरुष संबंधों की वास्तविक दृश्यों का लुत्फ उठाते थे. इसके बाद साम्राज्यवादियों ने विश्वयुद्धों में इस हत्या का लुत्फ उठाया. हिरोशिमा-नागासाकी के हत्यारो और हिटलर ने फिर इनकी विरासत को आगे बढ़ाया. इस तरह हिंसा और हत्या की पूरी जबाबदेही भी इन सत्ताओं के माथे है न कि संघर्षरत जनता के माथे. जनता ने तो इस हिंसा से मुक्ति के लिए प्रतिरोध शुरु किया चूंकि इनके पास इसके अलावा आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प था.

लोकतंत्रः सिद्धांत और व्यवहार
क्या लोकतंत्र महज हाथों में लगाए गए नीली स्याही का प्रतीक भर रह गया है. अगर लोकतंत्र का मर्म पुछना है तो सुगना से पुछिए. एसपीओ ने उसका बलात्कार किया और फिर कहा कि तुमसे शादी कर लेंगे. मकदम मुके से पुछिए जिसके पति की पिछले महीने हत्या कर दी गई. कश्मीर और मणिपुर की महिलाओं से पुछिए. सुप्रीम कोर्ट ने जब ज्यादतियों की जांच की बात की तब मानवाधिकार आयोग ने इन हत्याओं और बलात्कार के लिए माओवादियों को ही जवाबदेह ठहरा दिया. जबकि बलात्कार से पीड़ित महिलाओं के बयान तक नहीं लिए गए. ये लोग महज नाम नहीं बल्कि इस लोकतंत्र के शिकार लोगों का प्रतीक बन गए हैं.
लोकतंत्र एक बहुत ही निरीह शब्द बनकर रह गया है. इसका इस्तेमाल साम्राज्यवादी से लेकर फासीवादी तक अपने-अपने फायदों के लिए करते हैं. यानी हरेक तरह का कुकर्म इस लोकतंत्र के नाम पर ही होता है. लेकिन लोकतंत्र सच में कोई ऐसी चीज नहीं थी. एक राजनीतिक संस्था के रुप में लोकतंत्र फ्रांस की राज्य क्रांति के साथ सामने आया. जहां बुर्जुआ वर्ग ने बसटिले को ध्वस्त करते हुए समानता, एकता और बंधुत्व का नारा दिया. सामंतों की जागीरें जप्त कर ली गई और जोतनेवालों को बांट दिया गया. इस तरह यह एक सामंतवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई थी जिसकी बुनियाद औद्योगिक क्रांति ने गढ़ी थी. जोतनेवालों को जमीन, महिलाओं की आजादी, मेहनतकशों को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार जैसे कई कई प्रगतिशील काम इसने किए. लेकिन मुनाफे की प्यास यहां भी बरकरार रही. 19 वीं सदी के उतरार्द्ध में पूंजीपतियों के मुनाफे की दर में गिरावट होने लगी. अब यह मंदी का शिकार हो गया था. 20 वीं सदी के शुरु में यह अपने विकास के चरम पर पहुंच गया और अब मुनाफे की लूट के लिए यह पूरी तरह जनविरोधी हो गया. अब वित्तिय पूंजी के युग में लोकतंत्र भी बड़े पूंजीपतियों का गुलाम हो गया. मुक्त व्यापार की धारणा से लैस अमरीकी साम्राज्यवाद के लिए भी लोकतंत्र एक आम जुमला हो गया. लेकिन इसका दंश भी वियतनाम और चिली की जनता को झेलना पड़ा. इराक और अफगानिस्तान तो अब भी इस ‘लोकतंत्र’ का दंश झेल रहे हैं. दरअसल लोकतंत्र अब मुक्त व्यापार का पूरक बन गया था.
भारत का तो कहना ही क्या. अंग्रेजों के जाने के बाद तमाम जमींदार और पूंजीपति ही राष्ट्रभक्त बन गए. ये वही लोग थे जो नीचले स्तर पर अंग्रेजों के लिए काम करते थे. सारे राजे-रजवाड़े ही भारतीय जनता के भविष्य निर्धारक बन गए. दुनिया में लोकतंत्र जहां सामंतवाद को ध्वस्त कर खड़ा हुआ वहीं यह भारत में सामंतवाद के गठजोड़ में खड़ा हुआ. फासीवाद भारतीय संसद की एक मुख्य विशेषता भी है. भारतीय संसद को इतने अधिकार प्राप्त हैं कि यह जब चाहे संसद को रद्द कर दे. आपातकाल के रुप में इसका व्यावहारिक इस्तेमाल हुआ. यह गैरजनवादी हो सकता है लेकिन कानूनी रुप से जायज था. संकट के दौर में तो यह और ज्यादा प्रतिगामी हो गया है. आज सत्ता का ज्यादा से ज्यादा केन्द्रीकरण कैबिनेट और उससे भी ज्यादा संसदीय समितियों में हो गया है. संसद का मतलब पक्ष और विपक्ष दोनो होता है. लेकिन आज कोई भी पार्टी सबसे पहले अपनी पार्टी की कार्यसमिति में मुद्दों को को तय करता है और फिर इसे कैबिनेट में पास करा लेता है. संयुक्त सरकार के बावजूद बहुमत वाली पार्टी को इसका फायदा होता है. संसद में पास होने की गुजाइश में इसे संसद में लाया जाता है नहीं तो अध्यादेश के रुप में इसे लागू कर दिया जाता है. अब बिल की जगह अध्यादेशों ने ले ली है. संसदीय राजनीति ने 1947 के बाद से जाति, धर्म और क्षेत्रवाद जैसे तमाम प्रतिगामी चीजों का इस्तेमाल किया है. कई लोगों का तर्क है कि जाति, धर्म के कारण लोकतंत्र का नुकसान हुआ है जबकि सच तो यह है कि संसदीय राजनीति ने इन संस्थाओं का इस्तेमाल कर इसकी खाई को और बढ़ा दिया है. संसदीय राजनीति में जगह बनाने के लिए क्षेत्रवादी उन्माद बढ़ाया जाता है. क्षेत्रवाद राष्ट्रीयता का सवाल नहीं बल्कि संसदीय राजनीति का साईड अफेक्ट है.आज सत्ता को प्राप्त तमाम आपातकालीन अधिकार ही शासन के आम औजार बन गए हैं. संसद आर्थिक और विदेश मामलों में बहस के अलावा कुछ कर भी नहीं सकती हैं ऐसे में भारतीय लोकतंत्र भारतीय जनता पर दमन ढाने के एक और औजार के रुप में सामने आता है.
इस बाजार के युग में संसद खुद एक बाजार बन गयी है. सांसद रिश्वत कांड, नोट के बदले वोट कांड, तहलका घोटाला इसके ताजा और खूलेआम उदाहरण हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में संसदीय पार्टियों का आधिकारिक घोषित खर्चा लगभग 2 अरब डालर (लगभग 92 अरब रुपए)था. लेकिन आकलनकर्ताओं का मानना है कि यह आंकड़ा 10 बिलियन डालर (लगभग 460 अरब रुपए) के बराबर होगा. इस खर्चे में वामपंथी पार्टियों की हिस्सेदारी भी कम नहीं है. इन पार्टियों के पास यह धन कहां से आता है? यह किसकी कमाई का पैसा है? स्विस बैंक में खरबों डालर किसकी कमाई का पैसा जमा है? कौन है इसका मालिक? यह साबित करता है कि संसद को जमीदारों और पूंजीपतियों के हाथों में गिरवी रख दिया गया है.
हमें पढ़ाया जाता है कि जनता की ताकत संसद में निहित होती हैं. संसदीय वामपंथी तो संसद के पुजारी बन गए हैं. इनके लिए हरेक समस्याओं का रामबाण है इनको चुनाव जिताकर संसद भेजना. सच तो यह है कि संसद में जमींदारों और पूंजीपतियों की ताकत निहित है. पिछले साठ सालों में संसद ने कितने फैसले जनता से जुड़े हुए लिए? आज तक भूमिहीनों को जमीन क्यों नहीं दी जा सकी? दलित आज भी जूते के नीचे रखे जाने वाली चीज क्यों रह गए हैं? पहचान की राजनीति के नाम पर खड़ी हुई कई दलितवादी, पिछड़ावादी पार्टियों ने लूट का साम्राज्य खड़ा किया और साम्राज्यवाद के एक नंबर दलाल साबित हुए. आदिवासी इतने सालों बाद भी महज शिकार खेलने की चीज रह गए हैं. पूंजीपतियों से जुड़े फैसले रातों-रात लिए जाते हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में श्रम सुधारों और कर रियायतों को रातों-रात पास कर दिया जाता है. संसदीय वामपंथियों के साथ दिक्कत यह है कि ये संसद की ताकत और सत्ता की दमनकारी ताकत का आकलन तो अधिक करते हैं. लेकिन जनता की ताकत पर अब उनको विश्वास नहीं रह गया. जनता ने तो भारी निराशा के बाद ही सशस्त्र संघर्ष का रास्ता चुना.
संसद और विधानसभाएँ गरीब जनता को अधिकार नहीं दे सकती. इसका ताजा उदाहरण बिहार साबित हुआ है.बिहार की सरकार ने भूमि सुधार आयोग गठित किया. आयोग ने अपनी अनुसंशाएं सरकार को सौंप दी. सरकार ने ना-नुकुर करते हुए बटाइदारी की चर्चा शुरु की. यह पुनः एक एजेंडा बन गया. इसके तुरंत बाद के उपचुनाव में सरकार को भारी हार झेलनी पड़ी. कहा जाने लगा कि इसकी वजह बटाइदारी है. फिर सरकार ने बातचीत भी बंद कर दी. बाकि कुछ हो या न हो इससे इतना तो साफ हो जाता है कि जो भी सरकार भूमिहीनों के लिए जमीन, गरीबों के लिए अधिकार की बात करेगी उसे अपदस्थ कर दिया जाएगा. वामपंथियों ने भी क्या किया. प बंगाल में 1982 में विधानसभा चुनाव और 1983 में पंचायत चुनाव में वाम फ्रंट की जीत के बाद आपरेशन बर्गा और बंजर जमीनों के वितरण का काम भी बंद हो गया. यही नहीं 2004 के मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 14.31 फीसदी बर्गादार विभिन्न जगहों पर पिस्थापित हो गए. यदि कुल वितरित जमीनों पर नजर डाली जाए तो सितंबर 2001 तक कुल 10.58 लाख एकड़ बंजर जमीनों को वितरित किया गया और दर्ज किए हुए बर्गादार 11.08 लाख एकड़ पर काबिज थे. यदि दोनों को मिलाकर देखा जाए तो भूमि सुधार के अंदर आने वाली जमीन का यह महज 15.5 फीसदी है. नरेगा, इंदिरा आवास योजना की लूट में क्या वामपंथी पार्टियों के पंचायत प्रधान शामिल नहीं हैं? इसका मतलब है कि मुख्य सवाल यह नहीं है कि सत्ता में कौन सी पार्टी है. हमें यह समझना चाहिए कि अर्धसामंतवाद का खात्मा अर्धऔपनिवेशिक परिस्थितियों में संभव नहीं है. दलाल बड़े बुर्जुआ और जमींदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली सत्ता भूमिहीनों और गरीबों को अधिकार नहीं दे सकती है. यदि देश में सबसे अधिक कही भूमि सुधार हुआ भी है तो वह है जम्मु और काश्मीर न कि प बंगाल.
जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल है तो यह भी उसी समय तक कायम रहता है जब तक यह सत्ता के लिए चुनौती न बन जाए. इसका ताजा उदाहरण लालगढ़ है. वहां पुलिय संत्रास प्रतिरोध समिति ने प्रतिरोध के तमाम जनवादी स्वरुपों पर खुद का कायम रखा. इसने अपने लक्ष्यों और मांगों के साथ कोई समझौता नहीं किया. जब आंदोलन एक उंचाई पर पहुंचा तो सुरक्षा बलों का भारी दमन इस इलाके में शुरु हो गया. अंततः इसने हथियार उठाने की घोषणा कर दी और कहा कि अब दमन की वजह से जनवादी प्रतिरोध की कोई गुजाइश नहीं बच गई. यानी कि कोई भी संघर्ष यदि इमानदारी के साथ अपने लक्ष्यों को हासिल करना चाहता है तो उसे अंततः संघर्ष के स्वरुप के बंधन से निकलना ही होगा.
इस तरह भारत का लोकतंत्र एक मृग-मरीचिका की तरह है. बाहर से देखने के लिए कुछ और और अंदर से कुछ और. विधायिका से लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका तक वित्तिय पूंजी की गुलाम हो गई है. खदान कंपनी वेदान्त के पर्यावरण संबंधी काले रिकार्ड को देखते हुए वहां के एक व्यक्ति ने इसे खदानों का ठेका देने पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की. न्यायाधीश जस्टीश कपाड़िया ने भरी अदालत में कहा कि स्टरलाइट एक अच्छी कंपनी है. यह ठेका स्टरलाइट को दिया जाए. इसमें हमारा शेयर भी है. हालांकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की विशेषज्ञ समिति ने जंगल के तबाह होने के चलते खनन की छुट नहीं देने की सलाह दी थी. यहां यह जानना जरुरी है कि स्टरलाइट वेदान्ता की ही एक सहायक कंपनी है. इस तरह हम देखते हैं कि समुचा तंत्र वित्तिय पूंजी की तीमारदारी में व्यस्त है ऐसे में तो जनता की बात करनी भी बेमानी है.

आशा की किरण
हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब पूरी दुनिया एक भारी आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही है. ऐसा दौर संघर्षों और उथल-पुथल से भरा हुआ दौर होता है. ऐसे संकट में शासक वर्ग का और फासीवादी होना लाजिमी है. देश की सबसे गरीब जनता के पैरों के तले से जमीन छीनने के लिए युद्ध की घोषणा हो चुकी है. शासकवर्गीय पाटियों की तो बात ही छोड़ दें वामपंथी भी नक्सलवादियों पर बर्बर हिंसा में लिप्त रहने का आरोप लगाते हुए उनकी आलोचना कर रह हैं और इस तरह वे अंततः फासीवादी ताकतों के साथ ही खड़े हो रहे हैं. इन लोगों में केवल माओवादियों को खत्म किए जाने के तरीकों को लेकर बहस है. इनका बस ये कहना है कि माओवादियों को सैनिक हमले के बजाए विकास के बल पर खत्म किया जाना चाहिए. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इन्हे सैनिक कार्रवाई और विकास के समन्वय में खत्म किया जाना चाहिए. ऐसे लोगों के लिए फिदेल कास्त्रो द्वारा कोलंबिया के एक क्रांतिकारी संगठन फार्क पर किए गए हमले का जेम्स पेत्रास द्वारा दिया गया जबाब पर्याप्त है. जेम्स पेत्रास ने कहा था,‘‘ इन तर्कों (फार्क के बर्बर हिंसा में शामिल होने) के साथ कास्त्रो को 20वीं सदी के शुरु के रूस की क्रांति से लेकर चीन और वियतनामी क्रांतियों की भी आलोचना करनी चाहिए. क्रांतियां निदर्यी होती हैं लेकिन कास्त्रो यह भूल जाते हैं कि प्रतिक्रांतियां कहीं अधिक निर्दयी होती है. युद्ध के दौरान वियतनाम में खड़े किए गए खुफिया नेटवर्क की तरह ही युरीब (कोलंबिया की सरकार) ने स्थानीय अधिकारियों को शामिल कर स्थानीय खुफिया नेटवर्क गठित किया. वियतनामी क्रांतिकारियों ने इस खुफिया नेटवर्क के स्थानीय सहयोगियों का सफाया इसलिए किया क्योंकि ये दसियों हजार वियतनामी ग्रामीण मिलिशिया के फांसी और हत्या के लिए जिम्मेवार थे.’’
इन तमाम आलोचनाओं को मुंह चिढ़ाते हुए आदिवासी अपने दुश्मन के सामने सीना ताने खड़े हैं. देश की सबसे गरीब जनता कह रही है कि संसद में बैठे लोग भले ही साम्राज्यवादियों के जुठन खाने के लिए आपस में लड़ते रहें हम अपने बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए युद्ध में शामिल होने जा रहे हैं. हमने अपनी मुक्ति का एजेंडा देश के सामने रख दिया है. हम कोई भी पुराना विकल्प स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. अब देश को तय करना है. तय करना है उन सभी को जो ‘आइवरी टावर’ पर बैठे सुनहरे सपने बुनते हैं. बेहतर भविष्य की कल्पनाओं में डूबे रहते हैं. अब समय आ गया है जब हम तय करें कि हमें किसके पक्ष में खड़ा होना है. रोमन साम्राज्य के हत्यारों के पक्ष में या फिर स्पार्टाकस के पक्ष में. एक सकारात्मक संकेत यह है कि देश की व्यापक जनता और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आदिवासियों के पक्ष में खड़ा होने का जज्बा दिखाया है भले ही संसद और विधानसभाओं में बैठी तमाम ताकतें सरकार के साथ खड़ी हों. जीत अंततः जनता की ही होगी चूंकि जनता ही इतिहास का निर्माण करती है. सत्तायें तो केवल और केवल दमन करती है.

Tuesday, May 28, 2013

माओवादियों द्वारा प्रेस को भेजी गई विज्ञप्ति

 पिछले तीन दिनों से छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा की गई कार्यवाही पर लगातार सोसल साइटों पर और टी.वी. अखबारों के जरिए बहस चल रही है. इस हमले को लेकर माओवादियों ने एक ऑडियो जारी किया है जिसके कुछ विन्दुओं को बीबीसी के छत्तीसगढ़ संवादाता ने बीबीसी की हिन्दी साइट पर खबर के रूप में प्रस्तुत किया है. मेल के जरिए प्राप्त प्रेसविज्ञप्ति को यहाँ बिना किसी काट छांट के प्रस्तुत किया जा रहा है. 

25 मई 2013 को जन मुक्ति गुरिल्ला सेना की एक टुकड़ी ने कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं के 20 गाड़ियों के काफिले पर भारी हमला कर बस्तर की उत्पीड़ित जनता का जानी दुश्मन महेन्द्र कर्मा, छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल समेत कुल कम से कम 27 कांग्रेसी नेताओं, कार्यकर्ताओं और पुलिस बलों का सफाया कर दिया। यह हमला उस समय किया गया था जब आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस के दिग्गज नेता ‘परिवर्तन यात्रा’ चला रहे थे। इस कार्रवाई में भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री व वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल समेत कम से कम 30 लोग घायल हो गए। इस ऐतिहासिक हमले में उत्पीड़क, हत्यारा, बलात्कारी, लुटेरा और भ्रष्टाचारी के रूप में बदनाम महेन्द्र कर्मा के कुत्ते की मौत मारे जाने से समूचे बस्तर क्षेत्र में जश्न का माहौल बन गया। पूर्व में गृहमंत्री के रूप में काम करने वाला नंदकुमार पटेल जनता पर दमनचक्र चलाने में आगे ही रहा था। उसके समय में ही बस्तर क्षेत्र में पहली बार अर्द्धसैनिक बलों (सीआरपीएफ) की तैनाती की गई थी। यह भी किसी से छिपी हुई बात नहीं कि लम्बे समय तक केन्द्रीय मंत्रीमंडल में रहकर गृह विभाग समेत विभिन्न अहम मंत्रालयों को संभालने वाला वी.सी. शुक्ल भी जनता का दुश्मन है जिसने साम्राज्यवादियों, दलाल पूंजीपतियों और जमींदारों के वफादार प्रतिनिधि के रूप में शोषणकारी नीतियों को बनाने और लागू करने में सक्रिय भागीदारी ली। इस हमले का लक्ष्य मुख्य रूप से महेन्द्र कर्मा तथा कुछ अन्य प्रतिक्रियावादी कांग्रेस नेताओं का खात्मा करना था। हालांकि इस भारी हमले में जब हमारे गुरिल्ला बलों और सशस्त्र पुलिस बलों के बीच लगभग दो घण्टों तक भीषण गोलीबारी हुई थी उसमें फंसकर कुछ निर्दोष लोगों और निचले स्तर के कांग्रेस कार्यकर्ताओं, जो हमारे दुश्मन नहीं थे, की जानें भी गईं। इनकी मृत्यु पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी खेद प्रकट करती है और उनके शोकसंतप्त परिवारजनों के प्रति संवेदना प्रकट करती है।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी इस हमले की पूर्ण जिम्मेदारी लेती है। इस बहादुराना हमले का नेतृत्व करने वाले पीएलजीए के कमाण्डरों, हमले को सफल बनाने वाले वीरयोद्धाओं, इसे सफल बनाने में प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग देने वाली जनता और समूची बस्तरिया क्रांतिकारी जनता का दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी इस मौके पर क्रांतिकारी अभिनंदन करती है। इस वीरतापूर्ण हमले से यह सच्चाई फिर एक बार साबित हो गई कि जनता पर अमानवीय हिंसा, जुल्म और कत्लेआम करने वाले फासीवादियों को जनता कभी माफ नहीं करेगी, चाहे वे कितने बड़े तीसमारखां भी क्यों न हो आखिर जनता के हाथों सजा भुगतनी ही होगी।
आदिवासी नेता कहलाने वाले महेन्द्र कर्मा का ताल्लुक दरअसल एक सामंती मांझी परिवार से रहा। इसका दादा मासा कर्मा था और बाप बोड्डा मांझी था जो अपने समय में जनता के उत्पीड़क और विदेशी शासकों के गुर्गे रहे थे। इसके दादा के जमाने में नवब्याहाता लड़कियों को उसके घर पर भेजने का रिवाज रहा। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसका खानदान कितना कुख्यात था। इनका परिवार पूरा बड़े भूस्वामी होने के साथ-साथ आदिवासियों का अमानवीय शोषक व उत्पीड़क रहा। महेन्द्र कर्मा की राजनीतिक जिंदगी की शुरूआत 1975 में एआईएसएफ के सदस्य के रूप में हुई थी जब वह वकालत की पढ़ाई कर रहा था। 1978 में पहली बार भाकपा की तरफ से विधायक बना था। बाद में 1981 में जब उसे भाकपा की टिकट नहीं मिली थी तो कांग्रेस में चला गया। बीच में जब कांग्रेस में फूट पड़ी थी तो वह माधवराव सिंधिया द्वारा बनाई गई पार्टी में शामिल होकर 1996 में लोकसभा सदस्य बना था। बाद में फिर कांग्रेस में आ गया। 1996 मेें बस्तर में छठवीं अनुसूची लागू करने की मांग से एक बड़ा आंदोलन चला था। हालांकि उस आंदोलन का नेतृत्व मुख्य रूप से भाकपा ने किया था, उस समय की हमारी पार्टी भाकपा (माले) (पीपुल्सवार) ने भी उसमें सक्रिय रूप से भाग लेकर जनता को बड़े पैमाने पर गोलबंद किया था। लेकिन महेन्द्र कर्मा ने बाहर के इलाकों से आकर बस्तर में डेरा जमाकर करोड़पति बने स्वार्थी शहरी व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करते हुए उस आंदोलन का पुरजोर विरोध किया था। इस तरह उसी समय उसके आदिवासी विरोधी व दलाल चरित्र को जनता ने साफ पहचाना था। 1980 के दशक से ही बस्तर के बड़े व्यापारी व पूंजीपति वर्गों से उसके सम्बन्ध मजबूत हुए थे।
उसके बाद 1999 में ‘मालिक मकबूजा’ के नाम से चर्चित एक घोटाले में कर्मा का नाम आया था। 1992-96 के बीच उसने लगभग 56 गांवों में फर्जीवाड़े आदिवासियों की जमीनों को सस्ते में खरीदकर, राजस्व व वन अधिकारियों से सांठगांठ कर उन जमीनों के अंदर मौजूद बेशकीमती पेड़ों को कटवाया था। चोर व्यापारियों को लकड़ी बेचकर महेन्द्र कर्मा ने करोड़ों रुपए कमा लिए थे, इस बात का खुलासा लोकायुक्त की रिपोर्ट से हुआ था। हालांकि इस पर सीबीआई जांच का आदेश भी हुआ था लेकिन सहज ही दोषियों को सजा नहीं हुई।
दलाल पूंजीपतियों और बस्तर के बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस की ओर से चुनाव जीतने के बाद महेन्द्र कर्मा को अविभाजित मध्यप्रदेश शासन मेें जेल मंत्री और छत्तीसगढ़ के गठन के बाद उद्योग मंत्री बनाया गया था। उस समय सरकार ने नगरनार में रोमेल्ट/एनएमडीसी द्वारा प्रस्तावित इस्पात संयंत्र के निर्माण के लिए जबरिया जमीन अधिग्रहण किया था। स्थानीय जनता ने अपनी जमीनें देने से इनकार करते हुए आंदोलन छेड़ दिया जबकि महेन्द्र कर्मा ने जन विरोधी रवैया अपनाया था। तीखे दमन का प्रयोग कर, जनता के साथ मारपीटकर, फर्जी केसों में जेलों में कैद कर आखिर में जमीनें बलपूर्वक छीन ली गईं जिसमें कर्मा की मुख्य भूमिका रही। नगरनार में जमीनें गंवाने वाली जनता को आज तक न तो मुआवजा मिला, न ही रोजगार मिला जैसे कि सरकार ने वादा किया था। वो सब तितर-बितर हो गए।
क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति महेन्द्र कर्मा शुरू से ही कट्टर दुश्मन रहा। ठेठ सामंती परिवार में पैदा होना और बड़े व्यापारी/पूंजीपति वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में ‘बड़ा’ होना ही इसका कारण है। क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ 1990-91 में पहला जन जागरण अभियान चलाया गया था। इसमें संशोधनवादी भाकपा ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। इस प्रति-क्रांतिकारी व जन विरोधी अभियान में कर्मा और उसके कई रिश्तेदारों ने, जो भूस्वामी थे, सक्रिय भाग लिया था। 1997-98 के दूसरे जन जागरण अभियान की महेन्द्र कर्मा ने खुद अगुवाई की थी। उसके गृहग्राम फरसपाल और उसके आसपास के गांवों में शुरू हुआ यह अभियान भैरमगढ़ और कुटरू इलाकों में भी पहुंच चुका था। सैकड़ों लोगों को पकड़कर, मारपीट करके जेल भेज दिया गया था। लूटपाट और घरों में आग लगाने की घटनाएं हुईं। महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। हालांकि हमारी पार्टी और जन संगठनों के नेतृत्व में जनता ने एकजुट होकर इस हमले का जोरदार मुकाबला किया। इससे कम समय के अंदर ही वह अभियान परास्त हो गया था।
उसके बाद क्रांतिकारी आंदोलन और ज्यादा संगठित हो गया। कई इलाकों में सामंतवाद-विरोधी संघर्ष तेज हो गए। इसके तहत हुए जन प्रतिरोध में महेन्द्र कर्मा के सगे भाई जमींदार पोदिया पटेल समेत कुछ नजदीकी रिश्तेदार मारे गए थे। गांव-गांव में सामंती ताकतों व दुष्ट मुखियाओं की सत्ता को उखाड़ फेंककर क्रांतिकारी जन राजसत्ता के अंगों के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। गांवों में जन विरोधी व सामंती तत्वों से जमीनें छीनकर जनता में बंटवारा करना, अतीत में जारी कबीले के मुखियाओं द्वारा नाजायज जुर्माने वसूले जाने की पद्धति को बंद कर जनता का जनवादी शासन को शुरू करना कट्टर सामंती अहंकार से सराबोर महेन्द्र कर्मा को बिल्कुल रास नहीं आया। महिलाओं की जबरिया शादियां करवाने पर रोक, बहुपत्नीत्व आदि रिवाजों को हतोत्साहित करना आदि प्रगतिशील बदलाव भी सामंती ताकतों के गले नहीं उतरे। उसी समय बस्तर क्षेत्र में भारी परियोजनाएं शुरू कर यहां की जनता को बड़े पैमाने पर विस्थापित कर यहां की प्राकृतिक सम्पदाओं का दोहन करने की मंशा से उतरे टाटा, एस्सार जैसे कार्पोरेट घरानों के लिए भी यहां का विकासशील क्रांतिकारी आंदोलन आंखों की किरकिरी बना था। इसलिए उन्होंने सहज ही महेन्द्र कर्मा जैसी प्रतिक्रांतिकारी ताकतों से सांठगांठ कर ली। उन्हें करोड़ों रुपए की दलाली खिला दी ताकि अपनी मनमानी लूटखसोट के लिए माकूल माहौल बनाया जा सके। दूसरी ओर, देश भर में सच्चे क्रांतिकारी संगठनों के बीच हुए विलय के बाद एक संगठित पार्टी के रूप में भाकपा (माओवादी) के आविर्भाव की पृष्ठभूमि में उसे कुचल देने के लिए शोषक शासक वर्गों ने अपने साम्राज्यवादी आकाओं के इशारों पर प्रतिक्रांतिकारी हमला तेज कर दिया। अपनी एलआईसी नीति के तहत महेन्द्र कर्मा जैसी कट्टर प्रतिक्रांतिकारी ताकतों को आगे करते हुए एक फासीवादी हमले की साजिश रचाई। इस तरह, कांग्रेस और भाजपा की सांठगांठ से एक बर्बरतापूर्ण हमला शुरू कर दिया गया जिसे ‘सलवा जुडुम’ नाम दिया गया। रमन सिंह और महेन्द्र कर्मा के बीच कितना बढ़िया तालमेल रहा इसे समझने के लिए एक तथ्य काफी है कि मीडिया में कर्मा को रमन मंत्रीमण्डल का ‘सोलहवां मंत्री’ कहा जाने लगा था। सोयम मूका, रामभुवन कुशवाहा, अजयसिंह, विक्रम मण्डावी, गन्नू पटेल, मधुकरराव, गोटा चिन्ना, आदि महेन्द्र कर्मा के करीबी और रिश्तेदार सलवा जुडूम के अहम नेता बनकर उभरे थे। साथ ही, उसके बेटे और अन्य करीबी रिश्तेदार सरपंच पद से लेकर जिला पंचायत तक के सभी स्थानीय पदों पर कब्जा करके गुण्डागर्दी वाली राजनीति करते हुए, सरकारी पैसों का बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करते हुए कार्पोरेट कम्पनियों और बड़े व्यापारियों का हित पोषण कर रहे हैं।
और सलवा जुडूम ने बस्तर के जन जीवन में जो तबाही मचाई और जो क्रूरता बरती उसकी तुलना में इतिहास में बहुत कम उदाहरण मिलेंगे। कुल एक हजार से ज्यादा लोगों की हत्या कर, 640 गांवों को कब्रगाह में तब्दील कर, हजारों घरों को लूट कर, मुर्गों, बकरों, सुअरों आदि को खाकर और लूटकर, दो लाख से ज्यादा लोगों को विस्थापित कर, 50 हजार से ज्यादा लोगों को बलपूर्वक ‘राहत’ शिविरों में घसीटकर सलवा जुडूम जनता के लिए अभिशाप बना था। सैकड़ों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। कई महिलाओं की बलाात्कार के बाद हत्या कर दी गई। कई जगहों पर सामूहिक हत्याकाण्ड किए गए। हत्या के 500, बलात्कार के 99 और घर जलाने के 103 मामले सर्वोच्च अदालत में दर्ज हैं तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन अपराधों की वास्तविक संख्या कितनी ज्यादा होगी। सलवा जुडूम के गुण्डा गिरोहों, खासकर पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों, नगा और मिज़ो बटालियनों ने जनता पर जो कहर बरपाया और जो जुल्म किए उसकी कोई सीमा नहीं रही। ऐसी कई घटनाएं हुईं जिसमें लोगों को निर्ममता के साथ टुकड़ों-टुकड़ों में काटकर नदियों में फेंक दिया गया। चेरली, कोत्रापाल, मनकेली, कर्रेमरका, मोसला, मुण्डेर, पदेड़ा, परालनार, पूंबाड़, गगनपल्ली... ऐसे कई गांवों में लोगों की सामूहिक रूप से हत्याएं की गईं। सैकड़ों आदिवासी युवकों को एसपीओ बनाकर उन्हें कट्टर अपराधियों में तब्दील कर दिया गया। महेन्द्र कर्मा ने खुद कई गांवों में सभाओं और पदयात्राओं के नाम से हमलों की अगुवाई की। कई महिलाओं पर अपने पशु बलों को उकसाकर बलात्कार करवाने की दरिंदगी भरे उसके इतिहास को कोई भुला नहीं सकता। जो गांव समर्पण नहीं करता उसे जलाकर राख कर देने, जो पकड़ में आता है उसे अमानवीय यातनाएं देने और हत्या करने की कई घटनाओं में कर्मा ने खुद भाग लिया था। इस तरह महेन्द्र कर्मा बस्तर की जनता के दिलोदिमाग में एक अमानुष हत्यारा, बलात्कारी, डकैत और बड़े पूंजीपतियों के वफादार दलाल के रूप में अंकित हुआ था। पूरे बस्तर में जनता कई सालों से हमारी पार्टी और पीएलजीए से मांग करती रही कि उसे दण्डित किया जाए। कई लोग उसका सफाया करने में सक्रिय सहयोग देने के लिए स्वैच्छिक रूप से आगे आए थे। कुछ कोशिशें हुई भी थीं लेकिन छोटी-छोटी गलतियों और अन्य कारणों से वह बचता रहा। आखिरकार, कल, जनता के सक्रिय सहयोग से किए गए इस बहादुराना हमले में हमारी पीएलजीए ने महेन्द्र कर्मा का सफाया कर बस्तर की जनता को बेहद राहत पहुंचाई।
इस कार्रवाई के जरिए हमने उन एक हजार से ज्यादा आदिवासियों की ओर से बदला ले लिया जिनकी सलवा जुडूम के गुण्डों और सरकारी सशस्त्र बलों के हाथों हत्या हुई थी। हम उन सैकड़ों मां-बहनों की ओर से बदला ले लिया जो बेहद अमावीय हिंसा, अपमान और अत्याचारों का शिकार हुई थीं। हम उन हजारों बस्तरवासियों की ओर से बदला ले लिया जो अपने घरों, मवेशियों, मुर्गों-बकरों, गंजी-बर्तनों, कपड़ों, अनाज, फसलों... सब कुछ गंवाकर ठहरने की छांव तक छिन जाने से घोर बदहाली झेलने पर मजबूर कर दिए गए थे। घरबार गंवाकर, टिककर रहने तक की जगह के अभाव में, इस अनभिज्ञता से कि अपने प्रियजनों में कौन जिंदा बचा है और कौन खत्म हो गया, बदहवास तितर-बितर हुए तमाम लोगों के गुस्से और आवेश को एक न्यायोचित और आवश्यक अभिव्यक्ति देते हुए हमने महेन्द्र कर्मा का सफाया कर दिया।
इस हमले के तुरंत बाद प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री रमनसिंह... सभी ने इसे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला बताया। भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यह आह्वान किया कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सबको मिलजुलकर नक्सलवाद और आतंकवाद का मुकाबला करना चाहिए। हम पूछते हैं कि क्या शोषक वर्गों के इन पालतू कुत्तों को लोकतंत्र का नाम तक लेने की नैतिक योग्यता है। अभी-अभी, 17 मई को बीजापुर जिले के एड़समेट्टा गांव में तीन मासूमों समेत आठ लोगों की जब पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों ने हत्या की तब क्या इनको ‘लोकतंत्र’ की याद नहीं आई? जिस काण्ड को खुद कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को भी मजबूरन ‘नरसंहार’ बताना पड़ा था, उस पर इन नेताओं के मुंह पर ताले क्यों लग गए थे? 1 मई को नारायणपुर जिले के मड़ोहनार गांव के फूलसिंह और जयसिंह नामक दो आदिवासी भाइयों को पुलिस थाना बुलाकर हरी वद्रियां पहनाकर गोली मारकर जब ‘मुठभेड़’ की घोषणा की गई थी तब क्या इनका ‘लोकतंत्र’ खुश था? 20-23 जनवरी के बीच बीजापुर जिले के पिड़िया और दोड्डि तुमनार गांवों पर हमले कर 20 घरों में आग लगाकर, जनता द्वारा संचालित स्कूल तक को जला देने पर क्या इनका ‘लोकतंत्र’ फलता-फूलता रहा? 6-9 फरवरी के बीच अबूझमाड़ कहलाने वाले बेहद पिछड़े आदिवासी इलाके के गरीब माड़िया लोगों का गांव गट्टाकाल पर जब सरकारी सशस्त्र बलों ने हमला कर, घरों को लूटकर, जनता के साथ मारपीट कर, गांव में क्रांतिकारी जनताना सरकार द्वारा संचालित स्कूल को जलाकर राख कर दिया था तब इनका ‘लोकतंत्र’ क्या कर रहा था? आज से ठीक 11 महीने पहले 28 जून 2012 की रात में सारकिनगुड़ा में 17 आदिवासियों के खून की होली खेलना और 13 युवतियों के साथ बलात्कार करना क्या ‘लोकतंत्रिक मूल्यों’ का हिस्सा था? क्या यह लोकतंत्र महेन्द्र कर्मा जैसे हत्यारों और नंदकुमार पटेल जैसे शोषक शासक वर्गों के गुर्गों पर ही लागू होता है? बस्तर के गरीब आदिवासियों, बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं पर लागू नहीं होता? उनका चाहे कितनी बड़ी संख्या में, चाहे कितनी ही बार कत्लेआम करना क्या ‘लोकतंत्र’ का हिस्सा ही था? क्या इन सवालों का जवाब उन लोगों के पास है जो इस हमले पर हाय तौबा मचा रहे हैं?
2005 से 2007 तक चला सलवा जुडूम जनता के प्रतिरोध से पराजित हो गया। उसके बाद 2009 में कांग्रेस-नीत यूपीए-2 सरकार ने देशव्यापी हमले के रूप में आपरेशन ग्रीनहंट की शुरूआत की। इसके लिए अमेरिकी साम्राज्यवादी न सिर्फ मार्गदर्शन और मदद व सहयोग दे रहे हैं, बल्कि अपने स्पेशल फोर्स को तैनात करके काउण्टर इंसर्जेन्सी आपरेशन्स का संचालन करवा रहे हैं। खासकर माओवादी नेतृत्व की हत्या करने पर उनका जोर है। आपरेशन ग्रीनहंट के नाम से ‘जनता पर जारी युद्ध’ के अंतर्गत कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने अभी तक 50 हजार से ज्यादा अर्द्धसैनिक बल छत्तीसगढ़ में भेज दिए। इसके फलस्वरूप नरसंहारों और तबाही में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई। अब तक 400 से ज्यादा आदिवासियों को केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा भेजे गए सशस्त्र पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों ने मार डाला। 2011 के मध्य से यहां पर प्रशिक्षण के नाम से सैन्य बलों की तैनाती शुरू कर दी गई। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के अलावा पहले चिदम्बरम और शिंदे दोनों ही रमनसिंह द्वारा चलाए जा रहे हमले से खुश होकर लगातार वादे पर वादे कर रहे हैं कि मुंहमांगी सहायता दी जाएगी। रमनसिंह भी केन्द्र से मिल रही मदद पर तारीफ के पुल बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। छत्तीसगढ़ में क्रांतिकारी आंदोलन के दमन की नीतियों के मामले में सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस के बीच कोई मतभेद नहीं है। सिर्फ जनता के दबाव में और साथ ही, चुनावी फायदों के मद्देनजर कांग्रेस के कुछ स्थानीय नेताओं ने सारकिनगुड़ा, एड़समेट्टा जैसे नरसंहारों का खण्डन करने का दिखावा किया। जबकि उसमें ईमानदारी बिल्कुल अभाव है। राज्य में रमनसिंह द्वारा लागू जन विरोधी और कार्पोरेट अनुकूल नीतियों के प्रति और दमनात्मक नीतियों के प्रति कांग्रेस को कोई विरोध नहीं है। वह विरोध का महज दिखावा कर रही है जो अवसरवाद के अलावा कुछ नहीं है। दमन की नीतियों को लागू करने में इन दोनों पार्टियों की समान भागीदारी है। इतना ही नहीं, आंध्रप्रदेश से ग्रेहाउण्ड््स बलों का बार-बार छत्तीसगढ की सीमा के अंदर घुसना और पहले कंचाल (2008) और अभी-अभी पुव्वर्ति (16 मई 2013) में भारी हत्याकाण्डों को अंजाम देना भी कांग्रेस द्वारा लागू दमनात्मक नीतियों का ही हिस्सा है। इसीलिए हमने कांग्रेस के बड़े नेताओं को निशाने पर लिया।
आज दण्डकारण्य के क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ खड़े हुए छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री रमनसिंह, गृहमंत्री ननकीराम कंवर, मंत्री रामविचार नेताम, केदार कश्यप, विक्रम उसेण्डी, राज्यपाल शेखर दत्त, महाराष्ट्र गृहमंत्री आर.आर. पाटिल आदि; डीजीपी रामनिवास, एडीजी मुकेश गुप्ता जैसे पुलिस के आला अधिकारी इस गफलत में हैं कि उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। महेन्द्र कर्मा ने भी इस भ्रम को पाल रखा था कि जड प्लस सेक्यूरिटी और बुलेटप्रूफ गाड़ियां उसे हमेशा बचाएंगी। दुनिया के इतिहास में हिटलर और मुस्सोलिनी भी इसी घमण्ड में थे कि उन्हें कोई नहीं हरा सकता। हमारे देश के समकालीन इतिहास में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे फासीवादी भी इसी गलतफहमी के शिकार थे। लेकिन जनता अपराजेय है। जनता ही इतिहास का निर्माता है। मुठ्ठी भर लुटेरे और उनके चंद पालतू कुत्ते आखिरकार इतिहास के कूड़ादान में ही फेंक दिए जाएंगे।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी मजदूरों, किसानों, छात्र-बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों, मीडियाकर्मियों, तमाम जनवादियों से अपील करती है कि वे सरकारों से मांग करें कि आपरेशन ग्रीनहंट को तत्काल बंद कर दिया जाए; दण्डकारण्य में तैनात सभी किस्म के अर्द्धसैनिक बलों को वापस लिया जाए; प्रशिक्षण के नाम से भारत की सेना को बस्तर में तैनात करने की साजिशों को बंद किया जाए; वायुसेना के हस्तक्षेप को रोक दिया जाए; जेलों में कैद क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं और आम आदिवासियों को फौरन व बिना शर्त रिहा किया जाए; यूएपीए, छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून, मकोका, अफस्पा जैसे क्रूर कानूनों को रद्द किया जाए; तथा प्राकृतिक संपदाओं के दोहन की मंशा से विभिन्न कार्पोरेट कम्पनियों के साथ किए गए एमओयू को रद्द किया जाए।
(गुड्सा उसेण्डी)
प्रवक्ता,
दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)

Monday, August 03, 2009

यह सांस्कृतिक सलवा-जुडूम है

आशुतोष कुमार
अशोक वाजपेयी ने लिखा है ('कभी-कभार' 19 जुलाई, 2009, 'जनसत्ता') कि कुछ लेखकों ने 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान समारोह' का बहिष्कार इसलिए किया कि छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलियों का 'जनसंहार' कर रही है।

यह एक झूठ है. सीधा-सादा सिद्ध झूठ।
बहिष्कार करनेवालों में एक थे पंकज चतुर्वेदी. विश्वरंजन के नाम उनका खुला पत्र 'अनुनाद' ब्लॉग पर समारोह के पहले ही प्रकाशित हो चुका था. सुना है, उसकी मुद्रित प्रतियाँ वहाँ बाँटी भी गयी थीं. उसमें कहा गया है कि समारोह के आयोजक विश्वरंजन ने मंगलेश डबराल द्वारा संपादित पत्रिका 'पब्लिक एजेंडा' के तभी प्रकाशित अंक में 'सलवा जुडूम' का खुलकर समर्थन किया है. 'सलवा-जुडूम' के आलोचकों को नक्सलियों का सहयोगी बताकर उनके खिलाफ़ हर तरह की लड़ाई लड़ने का संकल्प दोहराया है. विश्वरंजन छत्तीसगढ़ के डीजीपी और एक कवि भी हैं. 'सलवा-जुडूम' के क्रियान्वयन में उनकी नेतृत्वकारी भूमिका स्वाभाविक है. ख़ास बात यह है कि वे इसके सिद्धांतकार भी हैं. वे इसके पक्ष में पत्र-पत्रिकाओं में विस्तार से लिखते रहे हैं. लम्बे-लम्बे साक्षात्कार देते रहे हैं. 'दैनिक छत्तीसगढ़' में उनका एक साक्षात्कार सात खंडों में प्रकाशित हुआ था. वे महज़ पुलिस-अफ़सर नहीं, पुलिस-चिन्तक हैं.

क्या 'सलवा-जुडूम' की आलोचना करना नक्सली होना या उनकी हिमायत करना है ?

अप्रैल, 2008 में 'सलवा-जुडूम ' के सन्दर्भ में छत्तीसगढ़ की सरकार से सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था: 'यह सीधे-सीधे कानून-व्यवस्था का सवाल है। आप किसी भी नागरिक को हथियार थमाकर यह नहीं कह सकते कि जाओ, हत्याएँ करो! आप 'भारतीय दंड संहिता' की धारा 302 के तहत अपराध के उत्प्रेरक ठहराये जायेंगे.' विश्वरंजन के मुताबिक़ 'सलवा-जुडूम' के आलोचक वे नक्सली हैं, जिन्होंने तमाम मानवाधिकार संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों और जनतांत्रिक आन्दोलनों में घुसपैठ कर ली है. या नक्सली नहीं भी हैं, तो उन्हें 'लोजिस्टिक सपोर्ट' देनेवाले हैं. संगी-साथी हैं. जैसे बिनायक सेन. क्या सर्वोच्च न्यायालय में भी नक्सलियों ने घुसपैठ कर ली है? तो उसके खिलाफ़ विश्वरंजन कौन-सी लड़ाई छेड़नेवाले हैं? दिसम्बर, 2008 में सर्वोच्च न्यायालय के सामने छत्तीसगढ़ सरकार ने क़बूल किया कि 'ख़ास पुलिस अफ़सरों' (एसपीओज़) ने आदिवासियों के घरों में आग लगाई है, लूटपाट भी की है. कुछ के खिलाफ़ दंडात्मक कार्रवाई भी हुई है.' लेकिन असली सवाल यह है कि क्या किसी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य को 'सलवा-जुडूम 'जैसा अभियान चलाने का हक़ दिया जा सकता है? सर्वोच्च न्यायालय की राय है कि नहीं. हमारी-आपकी?

'तहलका' (अँग्रेज़ी) के ताज़ा अंक में उन आदिवासी युवतियों के विस्तृत बयान छपे हैं, जिनके साथ 'ख़ास पुलिस अफसरों'(एसपीओज़) ने आम पुलिस की मदद से नृशंस बलात्कार किये हैं. वे महिलाएँ 'सलवा-जुडूम' के कैम्पों में ही थीं, किसी 'नक्सली' गाँव में नहीं! छत्तीसगढ़ पुलिस तो उनकी मदद क्या करेगी, 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' की जाँच टीम ने भी अपनी रिपोर्ट में लिख दिया कि ये झूठे आरोप हैं. यहाँ दिलचस्प बात यह है कि उस 'जाँच टीम' के सभी सदस्य पुलिस अधिकारियों में-से चुने गये थे. 'सलवा-जुडूम' क्या है?
countercurrents.org पर "विश्वरंजन के नाम एक आम नागरिक का खुला ख़त" प्रकाशित है. लेखक हैं-----अनूप साहा. इस ख़त से 'सलवा-जुडूम' को समझना आसान हो जाता है.
'स्ट्रेटेजिक हैमलेटिंग' (इसकी हिन्दी सुझायें, अशोक जी!) का प्रयोग अमेरिकी सेना ने विएतनाम में किया था। इसकी तीन ख़ास बातें हैं. आबादियों की ऐसी घेराबंदी की जाये कि उन्हें जीवन-निर्वाह के सभी साधनों के लिए घेरा डालनेवाली फ़ौज पर निर्भर हो जाना पड़े. अगर यह मुमकिन न हो, तो उन्हें गाँवों से हटाकर विशेष कैम्पों में स्थानांतरित कर दिया जाये. इन कैम्पों की निगरानी करने और उनमें रहनेवालों को नियंत्रित करने के लिए उन्हीं में-से 'सहयोगी' तत्त्वों को चुनकर उन्हें हरबा-हथियार, रुपये-पैसे के साथ फ़ौजी ट्रेनिंग मुहैया करायी जाये. दुश्मनों के साथ लड़ाई में उन्हें अग्रिम दस्ते की तरह इस्तेमाल किया जाये. बदले में उन्हें मनमानी करने की छूट दी जाये. इसके दो अहम फ़ायदे हैं. एक, इन 'ख़ास पुलिस अधिकारियों'(एसपीओज़) से वह सब कुछ कराया जा सकता है, जिसे करने में संविधान के तहत काम करनेवाली पुलिस हिचकती है. दूसरे, इसे स्थानीय आबादियों की आपसी लड़ाई के रूप में दिखाया जा सकता है, जिससे सरकार का दमनकारी चेहरा दिखायी न पड़े. 'सलवा-जुडूम' के विषय में किये गये सभी स्वतन्त्र अध्ययनों में उसकी ये तमाम विशेषताएँ उजागर होती हैं. स्थानीय लोगों को आतंकित और अपमानित करने की सबसे आसान तरकीब है-----महिलाओं का अपमान और उत्पीड़न. सीएवीओडब्ल्यू (C.A.V.O.W. ) ने 'सलवा-जुडूम' से सम्बन्धित अपनी 2007 की एक रपट में इसका ब्योरा दिया है. 'फ़ोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डॉक्युमेंटेशन एंड एडवोकेसी' ने अपने अध्ययन में पाया है कि केवल दंतेवाड़ा के दक्षिणी ज़िले में 'सलवा-जुडूम' ने बारह हज़ार नाबालिग़ बच्चों का इस्तेमाल किया है. 'एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स' की रपट भी इसकी पुष्टि करती है. 'विकीपीडिया' पर यह सारी जानकारी सुलभ है. 'सलवा-जुडूम' के चलते दहशत में जीनेवाले आदिवासियों की आबादी कम-से-कम डेढ़ लाख है.

छत्तीसगढ़ के जंगल और ज़मीन क़ीमती हैं। वहाँ अपार खनिज संपदा है. उन पर बलशाली कम्पनियों की नज़र है. छत्तीसगढ़ सरकार ने सन 2000 से अब तक तिरेपन समझदारी पत्रों (एमओयू ) पर दस्तख़त किये हैं. 23,774 एकड़ भूमि के अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. बिड़ला ग्रुप, टाटा ग्रुप, गुजरात अम्बुजा सीमेंट, एसीस, लाफार्ज, एस्सार, बाल्को, वेदान्त-----अनगिनत कंपनियाँ हैं, जिन्हें वहाँ लाखों एकड़ मुक्त ज़मीन चाहिए. आदिवासी इन्हीं ज़मीनों को बचाने के लिए लड़ते हैं. उनके खिलाफ़ सरकारी मशीनरी साम-दाम-दंड-भेद की पूरी ताक़त से टूट पड़ती है. अब वे क्या करें कि ऐसे में उनके साथ खड़े होने के लिए केवल नक्सली पहुँचते हैं. राज्य की विराट हिंसा के सामने आत्म-रक्षा के लिए हिंसा का सहारा लेना पड़े, इसे गाँधीजी तक ने अनुचित नहीं ठहराया है. लेकिन उत्तेजक, अराजक और आक्रामक हिंसात्मक कार्रवाइयां जन-आन्दोलनों को व्यापक जनता से अलगाव में डालती हैं. न सुधारी जा सकने लायक़ ग़लतियों, विकृतियों और बन्धुघाती हिंसा की संभावना बढ़ जाती है. इससे संघर्ष की असली ज़मीन छूट जाती है. दमन और उत्पीड़न आसान हो जाता है. आम आबादी की दो पाटों के बीच पिस जाने की-सी हालत हो जाती है. नक्सलियों की ओर से की गयी अराजक हिंसा निन्दनीय है. लेकिन राज्य द्वारा की जा रही हिंसा अलग है. लोकतंत्र में राज्य की मशीनरी आम आदमी के खून-पसीने से चलती है. 'सलवा-जुडूम' के बलात्कारी 'ख़ास पुलिस अफ़सरों' (सपीओज़) को पालने-पोसने में जो धन ख़र्च हो रहा है, उसमें मेरे-आपके खून-पसीने की कमाई शामिल है. इसमें हमारी-आपकी सीधी ज़िम्मेदारी बनती है. ऐसा नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसा के साथ नहीं है .

सरकार भी नक्सलियों का नहीं, आदिवासियों का जनसंहार कर रही है। अशोक जी के अवचेतन में भी कहीं यही बात रही होगी, इसीलिए वे नक्सलियों का 'जनसंहार ' लिख गये। नहीं तो सभी जानते हैं कि इतनी जनसंख्या उनकी नहीं है कि 'जनसंहार' जैसे शब्द का प्रयोग संगत जान पड़े। इस प्रसंग में मूल प्रश्न यह है कि क्या विश्वरंजन जैसे 'सलवा-जुडूम' के सिद्धांतकार केवल शौक़-शौक़ में सांस्कृतिक समारोहों का आयोजन कर रहे हैं? 'दैनिक छत्तीसगढ़ 'में छपे उनके एक लम्बे लेख में बड़ी मशक्कत से जनता को यह समझाने की कोशिश की गयी है कि नक्सली एक रणनीति के तहत छात्रों, बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों के बीच घुसपैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। नक्सलियों की इस रणनीति से निपटना विश्वरंजन को सबसे बड़ी चुनौती जान पड़ती है. सुना है कि वे फ़िराक़ के नाती हैं. ख़ुद कवि हैं. निराला को पढ़ा ही होगा. "आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर. " घुसपैठ का दृढ़ घुसपैठ से दो उत्तर! अब जब हिन्दी के बड़े कवि-लेखक उनके समारोहों में उनकी जय-जयकार करेंगे, सम्मानित होंगे, विरोधियों को नक्सली बताकर लांछित करने में उनके सुर-में-सुर मिलायेंगे, तो उन्हें अपनी रणनीति की कामयाबी पर गर्व क्यों न होगा!

यह 'सांस्कृतिक सलवा-जुडूम' है. 'स्ट्रैटेजिक हैमलेटिंग'. विरोधियों को अलग-थलग करो. उनकी सप्लाई-लाइन काट दो. सहयोगियों की घेराबंदी सम्मानों और सुविधाओं से करो. जनता से अलगाव में डालो. गोरखपुर के योगी को भी सम्मानित करने के लिए उदय प्रकाश ही क्यों मिले? उन्हें हिन्दी के तरुण विजयों की याद क्यों न आयी? यह भूल-चूक-लेनी-देनी है ? या "सांस्कृतिक स्ट्रैटेजिक हैमलेटिंग"?

('जनसत्ता', दिल्ली, 2 अगस्त, 2009 से साभार)

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