शिक्षा, सत्ता और संपत्ति से स्त्रियों को सदियों तक
वंचित रखा गया. आज भारत की स्त्री के पास मुक्ति की जो भी चेतना है वह उसके
लिए बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही ले कर आया है. स्त्री स्वातंत्र्य
की इस चेतना ने हमारा जीवन बदल दिया. आज जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसे तैयार
करने में हमारी पूर्ववर्ती महिला आंदोलनकारियों, समाजसेवियों और चिंतकों
ने बहुत श्रम किया है. बाबा साहब आंबेडकर ने समानता के जिस अधिकार की बात
संविधान में लिखी थी, उसमें से लिंगाधारित भेदभाव दूर करने के लिए बालिका
शिक्षा अभियान, सर्व शिक्षा अभियान चलाया गया और कार्य स्थल पर यौन शोषण
विरोधी अधिनियम, घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम जैसे कानून बने. दहेज प्रथा,
कन्याभ्रूण हत्या और बाल विवाह आज भी मौजूद हैं और उनके खिलाफ आंदोलन जारी
है. मुड़कर देखें तो पाएंगे कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भारत दुर्दशा पर
कविता और नाटकों से ले कर प्रेमचंद की कहानियों और महादेवी वर्मा के
निबंधों ने मानवीय समकक्षता की चेतना जगा कर सामाजिक बदलाव के तमाम
प्रयासों में साहित्य के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान किया था. आज देखें कि
सामाजिक आंदोलनों ,कानून में बदलाव और सरकार के प्रयासों से आ रही
स्त्रीमुक्ति की इस चेतना का समकालीन हिंदी लेखन, जिसे साहित्य कहने से
परहेज करना उचित होगा, में कैसा इस्तेमाल किया जा रहा है.
स्त्री लेखन होता क्या है? क्या वह, जो कुछ भी स्त्री लिख दे, या वह, जो
स्त्री के विषय में हो, या वह, जो स्त्रीवादी हो, या वह, जो स्त्री समर्थक
हो? स्त्री लेखन के नाम पर आज जो कुछ परोसा जा रहा है, आखिर वह है क्या?
आइए देखें.
कुछ समय पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेत्री और वयोवृद्ध
हिंदी लेखिका रमणिका गुप्ता का एक साक्षात्कार एक पत्रिका में छपा था.
उसमें उनका कहना है कि सत्ता पाने के लिये हर एक को कुछ न कुछ देना पड़ता
है. पुरुष धन देते हैं और स्त्रियां अपना शरीर. वे बताती हैं कि अपनी
पार्टी के लिए जमीन आवंटित करवाने के लिए वे बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री
केबी सहाय से मिलीं, जिन्होंने उन्हें एकांत में बुलाकर कहा कि जो चाहो
मांग लो और तत्काल कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए. फिर मुख्यमंत्री ने लेखिका
को आलिंगन में भर कर चूम लिया. रमणिका गुप्ता आह्लाद से भर उठीं और उन्हें
लगा कि चुंबन द्वारा मुख्यमंत्री ने अपनी सत्ता उन्हें हस्तांतरित कर दी
है. लेन-देन की यही अवधारणा उनकी कहानी ‘ओह ये नीली आंखें’ में भी दिखती है
जिसमें एक स्त्री अपने पति व बच्चे के साथ ट्रेन में यात्रा कर रही है,
साथ वाली बर्थ पर एक नीली आंखों वाला यात्री लेटा है और ऊपर की बर्थ पर पति
और बच्चा. स्त्री सहयात्री के साथ ट्रेन में सहवास करती है क्योंकि उसे
नीली आंखें पसंद हैं और उसे भी सौंदर्यपान करने का पूरा हक है. अपने
साक्षात्कार में प्रगतिशील लेखिका बताती हैं कि वे अपनी मार्क्सवादी
कम्युनिस्ट पार्टी की ट्रेड यूनियन के काम से धनबाद की कोयला खदानों के
राष्ट्रीयकरण के सिलसिले में केंद्र में कांग्रेस सरकार के तत्कालीन
वित्तमंत्री नीलम संजीव रेड्डी से मिलने गईं जहां पर होटल के कमरे में वे
एकदम निर्वस्त्र होकर उनके सामने आ खड़े हुए और लेखिका की मर्जी के विरुद्ध
उनके साथ सहवास किया. जनवादी लेखिका ने शिकायत नहीं लिखवाई (अंग्रेजी
आउटलुक 18 जनवरी 2010). ये हैं ‘युद्धरत आम आदमी’ की संपादक के आचार-विचार.
आम आदमी युद्धरत है और आम औरत?
गीताश्री की एक कहानी ‘प्रगतिशील इरावती’ मार्च, 2013 के महिला
विशेषांक में छपी है- ताप. एक युवा पुत्री की मां अपने बूढ़े पति की
शारीरिक भूख से त्रस्त है. वह अपनी व्यथा पुत्री को बताती है. एक आधुनिक
युवा पुत्री पिता को समझाने, किसी सलाहकार के पास भेजने या उनके आगे कोई
अन्य विकल्प रखने के बजाय खुद उनके लिये एक युवा वेश्या खरीद लाती है जो घर
पर ही आकर पिता को होमसर्विस देकर उनकी भूख शांत कर दे. यानी एक युवा
स्त्री अपने वृद्ध पिता के लिए दूसरी युवा स्त्री को यौनदासी बनाती है.
स्त्री सशक्तीकरण की चरम अवस्था को प्राप्त कर चुकी इस लेखिका की कहानी में
एक ट्विस्ट है. कहानी के अंत में युवा वेश्या युवा पुत्री से कहती है- ‘ये
किसी काम का नहीं है. तुम बेकार अपने पैसे बर्बाद कर रही हो. मैं ठरकी
बुड्ढों को खूब जानती हूं. अंग्रेज़ी मुहावरा याद है न- ‘द डिजायर इज हाइ
बट द फ़्लेश इज वीक.’ बोल्ड लेखिका के रूप में एक विशेष समूह द्वारा अति
प्रशंसित गीताश्री इससे पूर्व ‘इंद्रधनुष के उस पार’ कहानी में दिखा चुकी
हैं कि कॉरपोरेट दफ्तर में काम करने वाली युवती परेशान है कि उसका बॉस उसके
कपडे-लत्तों पर हरदम रोक-टोक करवाता रहता है. युवती की चिंता सही भी है
क्योंकि सभ्य समाज यही मानता है कि स्त्री को अपने वस्त्र स्वयं चुनने और
पहनने का पूरा हक है . मगर इस कहानी में भी ट्विस्ट है. लड़की अपनी पोशाक
स्वयं तय करने के अधिकार का प्रयोग करते हुए पूर्णतया निर्वस्त्र होकर
न्यूड पार्टी में जाती है जहां पर सभी लोग निर्वस्त्र आए हैं, वह बॉस भी जो
उसे स्लीवलेस टॉप पहनने पर टोकता था. ऐसी पार्टियां हमारे समाज में होती
हैं या ‘इंद्रधनुष के उस पार’ यह कह पाना कठिन है.
जयश्री रॉय की ‘औरत जो एक नदी है’ नाम की कहानी भी है और इसी नाम का
उपन्यास भी. पुरुष की ओर से लिखा पूरा उपन्यास शयनकक्ष, शराब, फेनी, बियर,
बकार्डी, बिस्तर और उस पर केंद्रित लंबे उबाऊ संवादों से भरा है. कई दशक
पूर्व के घोर मर्दवादी लेखक जैनेंद्र की धारणा थी, पत्नी घर में, प्रेयसी
मन में. इस विषय पर शायद एक लंबी चर्चा भी चलाई गई थी. लेखिका इस धारणा के
अनुरूप स्वयं को ढाल चुकी हैं. पुरुष के पास तीन औरतें हैं, एक पत्नी उमा,
और दो प्रेयसियां-दामिनी और रेचल ,जो तलाकशुदा हैं. पुरुष को पत्नी की
‘साड़ी से रसोई की गंध’ आती है और प्रेमिका के शरीर से ‘परफ़्यूम’ की.
कामना पुरुष की ही है और स्त्रियां अन्नपूर्णा नहीं, थाली में रखे हुए
व्यंजन हैं, स्वयं को परोसती. दामिनी शादी को वेश्यावृत्ति बताती है जिसमें
‘स्त्री को आजन्म गुलामी करनी पड़ती है’,पर खुद क्या करती है? एक विवाहित
आदमी की देह पर आइस क्यूब रगड़ते हुए कहती है, ‘अपनी वाइल्ड फैटेंसी पूरी
कर लो. देह से ही मन का रास्ता जाता है.’ विवाहित आदमी कहता है , ‘तो क्या
मैं तुम्हारी इस न जाने किस किस की जूठन बनी देह के पीछे था?’ शादी को
वेश्यावृत्ति बताने वाले और अजनबियों के साथ यौनसंसर्ग करते ये नर-मादा
क्या एक-दूसरे का सम्मान या एक-दूसरे से प्रेम कर पाते हैं?
इन्हीं लेखिका की ‘देह के पार’ कहानी में प्रौढ़ स्त्री नव्या अपनी बेटी
को स्कूल छोड़ कर आने के बाद अपने से 10 वर्ष छोटे बेरोजगार युवक को खरीद
लाती है. ‘इस साल यह उसकी चौथी नौकरी छूटी थी. ‘अब खाओगे क्या?’ ‘तुम हो न
मेरी सेठानी’ कहते हुए उसने नव्या के पर्स में से 500 का नोट निकाल लिया जो
नव्या को अच्छा नहीं लगा. युवक ने तीन तस्वीरें दिखाते हुए कहा ‘इनमें से
एक तस्वीर चुनो मुझे इस साल शादी करनी पड़ेगी….’ मैं तो कहती हूं तीनों से
कर लो, तुम तो हो ही कैसानोवा सौ को भी एक साथ संभाल लोगे.’… अय्याश
अफसरों की बूढ़ी-अधबूढ़ी सेठानियों को शरीर बेचने वाला युवक कहता है, ‘कोई
अपना हुनर बेचता है कोई फन कोई अक्ल. मैं अपनी सुंदरता बेचता हूं. इट्स
दैट सिम्पल. बास. अगले हफ्ते दुबई जा रहा हूं, शेख़ साहब का मेहमान बन कर.’
जयश्री रॉय की अन्य अनेक कहानियों के अनेक पात्रों की तरह युवक भी विवाह
को वेश्यावृत्ति मानता है. देह से ही मन का रास्ता जाता है, जयश्री रॉय के
इस सिद्धांत के आधार पर उम्मीद की जानी चाहिए कि शायद युवक भी दुबई में शेख
साहब की देह से ही शेख साहब के मन में दाखिल हो जाएगा.
जयश्री रॉय की कहानियों में से एक को दूसरी से अलग कर पाना कठिन है.
एक-सा कथानक, एक-से संवाद ,एक-सी बनावटी भाषा यहां तक कि एक-से शीर्षक.
उनके पात्र परस्पर देह संबंधी लंबी चर्चाएं करते हैं पर देह के पार नहीं
पहुंच पाते. एक-दूसरे को खरीद कर दैहिक भूख पर विस्तृत विचार-विमर्श करने
वालेे ये पात्र कहां के रहने वाले हैं? वे जो भाषा बोलते हैं वह कहां बोली
जाती है? पुरुष वेश्या और पुरुष शरीर खरीदने वाली सेठानी क्या परस्पर
जयशंकर प्रसाद की कामायनी या स्कन्दगुप्त वाली भाषा में बात करते होंगे?
नदी सीरीज में वरिष्ठ जया जादवानी भी शरीक हो गईं. उनकी ‘समंदर में
सूखती नदी’ में ‘दोनों बच्चों के होस्टल चले जाने के बाद वे दोनों अकेले रह
गए थे. अब उसे अपनी पत्नी की देह पका हुआ कद्दू लगती थी जिस पर वह अक्सर
स्वयं को निष्प्राण लेटा हुआ पाता था…. उसे कुछ नया चाहिए था…. उसने सोचा
था उसका सामना ऐसी लड़की से होगा जिसने अपनी देह को दुकान की तरह सजाया
होगा. ‘प्रौढ़ पुरुष और युवा लड़की लांग ड्राइव पर जाते हैं और
स्त्री-पुरुष संबंधों पर सात पृष्ठ लंबी चर्चा करते हैं, ‘तुम स्त्रियां ही
ढिंढोरा पीटती हो कि तुम मात्र जिस्म नहीं हो. यही एक चीज ले कर खड़ी रहती
हो तुम पुरुषों के सामने.’ यह कहानी शायद जादवानी ने कॉलगर्ल की गरीबी के
बारे में लिखी है क्योंकि अंतिम पंक्ति में वह ‘बहुत जोर से रोना चाहती है
पर आंसू कहीं घुट कर रह गए.’ (कथादेश, सितंबर 2012)
जयश्री रॉय की कहानी में एक प्रौढ़ स्त्री युवा पुरुष वेश्या को खरीदती
है तो जया जादवानी की कहानी में एक प्रौढ़ पुरुष एक युवा स्त्री वेश्या को .
स्त्री लेखन के नाम से परोसी गई यह सामग्री कोई अलग स्वीट डिश नहीं, अब
इसे ही स्त्री लेखन का महाभोज माना जा रहा है. ये सच्ची कहानियां हैं या
काल्पनिक? यह यथार्थ है या जादुई यथार्थ?
लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास चाक की नायिका सारंग किशोरी बालिका
के रूप में ‘सत्यार्थप्रकाश के बीच रखी ऋतुसंहार की पतली सी किताब पढ़ती
है’ और बताती है ‘40 वर्ष की अवस्था के, गोरे रंग और लंबे कद के मुलायम मुख
वाले शास्त्री जी की छवि बुरी तरह तंग किए थी. खादी के वस्त्र पहने हुए –
काश महीन वस्त्र पहने होते. मैं भोग की इच्छा रखती हुई भी शास्त्री जी की
बांहों में फिसल रही थी.’ (चाक, पृ. 89-90). अधेड़ उम्र की भाभी रिश्ते
के ननदोई की मालिश करती है, ‘ज्यादा ही सरमदार का घुसला बन रहा था, तैमद
ऊपर को सरकावै ही न. लत्ता जितना ही ऊपर उठाऊं , उतना ही भींचता जाय तैमद
को. मैंने कही, लुगाई है रे तू? जबरदस्ती तैमद खोल कर फेंक दिया बंजमारे
का… मैंने ऐसी मालिश करी जैसे छः महीने का बालक हो और फिर खाट पर लोट गई
उसके बरब्बर में. बोल दिया कि लल्लू कैलासी, भूल जाओ रिश्ते नाते… और फिर
ये तो देह रहते के खेला हैं रे. पाप पुन्न मत सोचना’ (चाक, पृ.104). रंजीत
की पत्नी सांरग श्रीधर के साथ आनंद में मग्न है, ‘श्रीधर, अगर तुम्हारी
आंखें इस देह को देख कर आनंद पाती हैं तो जी भर कर देखो मुझे. मेरी सुंदरता
सार्थक हुई. भोग करने से तुम्हारे प्राण तृप्त हों तो आओ रात बाकी है अभी’
(पृ. 329 चाक)? जून, 2008 के संपादकीय में राजेंद्र यादव कहते हैं, ‘औरतों
के पास उनकी देह है वरना योग्यता के नाम पर उनके पास रखा ही क्या है.’
मैत्रेयी पुष्पा की नायिका कहती है, ‘मेरे पास था ही क्या – हरी भरी देह.’
(चाक, पृ. 329 )
लेनिनवादी लेखिका रमणिका गुप्ता की एक अन्य कहानी में एक स्त्री एक आकर्षक
अश्वेत पुरुष के शरीर का उपभोग करना चाहती है. वह रात को स्त्री के होटल के
कमरे में आ पहुंचता है. आगे की गतिविधि का वर्णन लेखिका ने विस्तार से
किया है. अजनबी अश्वेत पुरुष जाते वक्त एक गुड़िया छोड़ जाता है. गुड़िया
शीर्षक कहानी में यह गुड़िया नायिका को संदूक में मिलती है.
जैसी गुड़िया रमणिका की नायिका को संदूक में मिली वैसी ही एक गुड़िया
मैत्रेयी पुष्पा के भीतर भी है. वे किसी कार्यक्रम में आमंत्रित की गईं और
गेस्ट हाउस में ठहराई गईं . लॉबी में उनके पीछे चल रहे राजेंद्र यादव कहीं
‘बुखार का ताप देखने के लिये उनकी कलाई न पकड़ लें’ इस डर से वे उनसे अधिक
बात न बढ़ाकर जल्दी से अपने कमरे में चली गईं. मगर आधी रात को प्यास लगने
पर रूमसर्विस से पानी न मंगा कर वे राजेंद्र यादव के कमरे का दरवाजा
खटखटाती हैं और दरवाजा छूते समय उन्हें लगता है कि उन्होंने ‘राजेंद्र यादव
को छू लिया’. (गुड़िया भीतर गुड़िया, पृ. 315-316 )
विचार का विषय है कि रिश्ते के ननदोई की लुंगी खींच कर उसे फुल बॉडी
मसाज देने वाली अधेड़ भाभी के लल्लू कैलासी के साथ स्वच्छंद यौनाचार का
विशद वर्णन करने वाली 1944 में जन्मी वयस्क लेखिका ने 2008 में एकाएक
‘गुड़िया’ बनकर लकड़ी के दरवाजे को छू कर राजेंद्र यादव कैसे समझा? यही
नहीं, कैसे उन्होंने इस प्रसंग को इतना अधिक महत्वपूर्ण समझा कि उसे अपनी
आत्मकथा का हिस्सा बनाया. यौन सक्रियता के वर्णन में सारे लेखकों को पीछे
छोड़ कर इस क्षेत्र की पुरोधा के रूप में प्रतिष्ठा पा चुकी लेखिका
मैत्रेयी पुष्पा संपादक के आगे चाइल्ड वुमन बन जाती हैं, उन्हें छूने को
लालायित. क्यों?
बार्बी डॉल 1959 में बनाई गई थी. उसका चेहरा बच्चों जैसा था पर शरीर
वयस्क. कम्युनिस्ट रूस ने इन गुड़ियों पर प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि
इन्हें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया (द ऑबजर्वर,
नवंबर 2002). लेकिन हमारे हिंदी के जनवादी मठाधीशों ने अनेक बार्बी डॉल्स
तैयार कर ली हैं जो वयस्क हैं, पर जो अपने हाव-भाव शिशुवत रखती हैं. चाइल्ड
वुमन पोर्नोग्राफर का सबसे हसीन ख्वाब होती है. बालबुद्धि वाली इठलाती,
तुतलाती, पलकें झपकाती वयस्क शरीर वाली स्त्री. विडंबना यह है कि यह सारा
खेल स्वयं को जनपक्षधर, प्रगतिशील, सेक्युलर बताने वालों के दरबार में चल
रहा है, न कि रूढि़वादियों के बीच. ये डॉल्स वृद्धवृंद की फरमाइश पर रचनाएं
प्रस्तुत करती हैं, और उनके सुझाव पर रचना में परिवर्तन, परिवर्द्धन करते
हुए उसे मनोरंजन का खजाना बना देती हैं.
इसी बीच एक युवा लेखिका ज्योति कुमारी की किताब को अचानक बेस्टसेलर
घोषित कर दिया गया. इस किताब में शरीफ लड़की नामक कहानी में पाठकों को
चौंकाने के लिए लड़की के 14 वर्ष की हो जाने का विस्तृत विवरण है. ऐसा और
इससे भी अधिक विस्तृत विवरण पाठक आज से 40 साल पहले कमला दास की आत्मकथा
में पढ़ चुके थे अतः वे चौंके ही नहीं. जुगुप्सा जगाने में कोई कसर न रह
जाए इसलिए उसके तत्काल बाद लड़की के प्रेम प्रसंग का वर्णन है- ‘लड़की
वीर्य से लिथड़ी है…ऊपर से नीचे तक…आगे से पीछे तक…अंदर से बाहर तक उसका
रोम रोम लिथड़ा है.’(हंस). यह किशोर-किशोरी के प्रेम का वर्णन है या किसी
सूनामी का? क्षमा कीजिएगा, मेरी जिज्ञासा है कि आखिर एक किशोर बालक के पास
कितने लीटर वीर्य होता है? देश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जेएनयू के
साम्यवादी प्रोफेसर नामवर सिंह ने इसकी प्रशंसा में ‘इसे अनदेखा करना
मुमकिन नहीं’ शीर्षक आलेख लिखा और स्त्री लेखन के क्षेत्र की इस ज्योति की
शान में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता उद्धृत की. युवा लेखिका की
क्रांति न केवल कथ्य में है बल्कि शिल्प में भी है. प्रतिष्ठित साहित्यकार
महेंद्र राजा जैन ने हिंदी के विराम चिह्नों के उपयोग के बारे में एक
महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है. ज्योति कुमारी ने अर्धविराम, अल्पविराम और
पूर्णविराम को तिलांजलि देकर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया. वे हर
वाक्यांश के बाद तीन बिंदु लगाती हैं. कहानी में लगभग 595 बार तीन बिंदुओं
का प्रयोग है. लगभग 1,785 बिंदुओं वाली इस रचना को देखकर निर्णय करना कठिन
हो जाता है यह गद्य लिखा गया है या बूंदों वाली रंगोली.
असली जीवन में जमीनी काम करते हुए हमने सैकड़ों किशोर- किशोरियों के
प्रेम प्रसंग देखे हैं. इनका प्रेम टूटते भी देखा, टूटते दिलों की कहानी भी
सुनी, उन्हें सांत्वना दी और आत्महत्या करने से रोक कर फिर से जीने के लिए
प्रेरित भी किया. मेरा विश्वास है कि कोई भी 18 वर्ष के किशोर-किशोरी अपने
पहले प्यार का वर्णन उन शब्दों में नहीं कर सकते जिनमें ज्योति कुमारी ने
किया. असली प्रेमी आज भी एक-दूसरे को खून से चिट्ठी लिख रहे हैं, मां-बाप
का घर छोड़ कर भाग रहे हैं, नदी में कूद कर एक साथ जान देने को तैयार हैं.
मेरा अनुभव है कि आज भी प्रेम में पड़ने वाले लोग प्रेम ही करते हैं.
ज्योति कुमारी की प्रशस्ति नामवर सिंह के हस्तलेख में इंटरनेट पर भी उपलब्ध
है. जाहिर है, ऐसा विशद वर्णन वृद्धजनों की खातिर ही किया जाता है.
यह सब यूं ही नहीं हुआ है. हंस संप्रदाय के सतत और अथक प्रयासों से
पोर्नोग्राफी का जो अश्लील अनुष्ठान हिंदी लेखन में जनवाद के नाम से आयोजित
किया गया है, उसमें उसी प्रकार की स्त्रियां भी शामिल कर ली गई हैं. यह
मर्दों द्वारा चयनित स्त्रियों का नृत्य है जिसमें वयोवृद्ध रमणिका गुप्ता,
मैत्रेयी पुष्पा, प्रौढ़ गीताश्री और जयश्री रॉय आदि तथा युवा ज्योति
कुमारी जैसी अनेक स्त्रियां शरीक हैं. यह सूची बड़ी लंबी है.
दरअसल
विगत कई दशकों से हंस संप्रदाय सारी स्त्रियों को यौनकर्मी साबित करने पर
तुला हुआ है. हंस के स्तंभकार अभय कुमार दुबे के शब्दों में, ‘लेकिन क्या
सेक्सवर्क के जरिये भी स्त्री सबलीकरण की राह पर चल सकती है? यौनकर्म में
समाजसेवा या सेक्सुअल थेरेपी के पहलू अंतर्निहित होने का तो तर्क बनता है.’
दुबे नारीवाद से असहमत हैं, ‘नारीवाद की बौद्धिक दुनिया सेक्सवर्क को दो
हिस्सों में बांट देती है. वह वेश्या के सेक्सवर्क को बिना पारिश्रमिक लिए
सेक्सवर्क कर रही औरतों के बरक्स रखते हुए विभिन्न तर्कों के आधार पर उसे
निकृष्ट और स्त्री की आजादी के लिए नुकसान देह मान लेती है. चाहे वह
प्रेमिका द्वारा किया गया हो या विवाहिता पत्नी द्वारा, मुफ्त में किया गया
सेक्सवर्क उच्चतर, उदात्त और एक हद तक मुक्तिकारक बन जाता है…. नारीवाद
उसमें ज्यादा से ज्यादा दैहिक संतुष्टि की दावेदारी और प्रेम के तहत किए
जाने वाले सेक्स को और जोड़ देता है. लेकिन प्रेम और प्रजनन से रहित,
पारिश्रमिक की अपेक्षा में किया गया सेक्सवर्क इस विचारधारा की निगाह में
जिंसीकरण कहलाता है या यौन दासता का पर्याय मानकर उसे कलंकित कर दिया जाता
है.’ (हंस, जुलाई 2008)
दुबे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि ‘स्त्री हमेशा सेक्सवर्क ही करती है
भले ही वह अपनी दैहिक संतुष्टि के लिए करे, प्रेम के तहत करे, प्रजनन के
लिए करे, विवाहिता के रूप में करे, चाहे प्रेमिका के रूप में, वह मुफ्त का
वर्क है.’ दुबे जी के इतना विस्तार से समझाने पर अब तक इतना तो पाठकगण समझ
ही चुके होंगे कि सारी स्त्रियां यौनकर्मी हैं, नाचने-गाने की तरह यौनकला
भी स्त्री सबलीकरण का माध्यम है और स्त्री यौनकर्म द्वारा समाज सेवा या
सेक्स थेरेपी करती है. मेरा सवाल यह है कि क्या उसी गतिविधि में संलग्न
उनके साथी, प्रेमी, पति भी यौनकर्मी ही हैं या कुछ और एक ही खेल का एक
प्रतिभागी ग्राहक-उपभोक्ता और दूसरा प्रतिभागी वर्कर किस आधार पर बनता है?
क्या दुबे के लोकतंत्र में स्त्री-पुरुष समकक्ष नहीं हो सकते? कैसे एक
क्रेता बनता है, दूसरा क्रीत? (नवरीतिकालीन, कथादेश, सितंबर 2008). हिंदी
की जिन प्रवृत्तियों का उल्लेख मैंने उस लेख में किया था, वे आज अपनी पूरी
कुरूपता में सबके सामने खड़ी हैं. स्वस्थ साहचर्य में अक्षम व्यक्ति अक्सर
ब्लू फिल्में बनाते-देखते, अश्लील एसएमएस भेजते और फोन पर अश्लील वार्तालाप
करते हुए धरे-पकडे़ जाते रहे हैं. यह उसी तरह का मानसिक व्यभिचार है.
मर्दों के इस खेला में पुरुषों को आनंद देने के लिए औरतों की एक ऐसी
पोर्न छवि गढ़ी गई है जो पूर्णतया यौनीकृत है. उसमें न चेतना है, न हृदय, न
मन और न भावना. यह पोर्न की क्लासिकल सेडोमेसोचिस्ट छवि है. इन औरतों को
यौनिक वस्तु होने, कष्ट पाने और अपमानित होने में आनंद आता है. गीताश्री की
नायिका के वस्त्र कोई बलात्कारी नहीं उतारता, वह स्वयं ही निर्वस्त्र होकर
न्यूड पार्टी में जाती है. उनकी दूसरी कहानी में युवा वेश्या का शोषण कोई
पुरुष नहीं करता, कहानी की नायिका ही दूसरी स्त्री का शरीर खरीद कर अपने
वृद्ध पिता के आगे परोसती है. बोल्ड मानी जाने वाली मैत्रेयी की नायिका
सारंग अपनी
हरी-भरी देह परोसती है, मास्टर श्रीधर भोग लगाता है. यह समकक्षता की भाषा नहीं है.
अखबार पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की खाप पंचायतों के मनमाने निर्णयों
से भरे हैं जिनमें प्रेम करने के अपराध में युवक-युवतियों के नाक-कान काटे
जा रहे हैं. उन्हें खुलेआम पेड़ों पर लटकाया जा रहा है. उन्हें बिरादरी के
बाहर भी प्रेम करना मना है और गोत्र के भीतर भी. महिलाओं का 33 प्रतिशत
आरक्षण ग्राम पंचायतों में है, समाज के निर्णय ले रही खाप पंचायतों में
कहां?
मगर ग्रामीण जीवन की चर्चित चितेरी मैत्रेयी पुष्पा की ग्रामीण स्त्री
कहती है, ‘चल लुच्ची, हम जाटिनी तो जेब में बिछिया धरे फिरती हैं. मन आया
ताके पहर लिए.’ (चाक, पृ.104). ऐसी स्वयंसिद्धा-स्वयंवरा स्त्रियों वाले
गांव पश्चिमी उत्तर प्रदेश या बुंदेलखंड के किस जिले में हैं? घर पर एक
पत्नी के रहते दूसरी स्त्री को ले आने पर पत्नियां त्रस्त हो कर पति की
शिकायत करती देखी जाती हैं. शिकायत लिखवाने पर भारतीय दंड संहिता की
एडल्ट्री के विरुद्ध बनी धारा 497 के अंतर्गत पुरुष दंडित होता है. मगर
अपनी ससुराल में ही एक पति के रहते हुए रंजीत की युवा पत्नी सारंग स्कूल के
मास्टर श्रीधर के साथ भोगविलास में मग्न है. पति के प्रतिरोध करने पर उसका
ससुर अपने बेटे को समझाता है कि पति का काम पत्नी के ‘लहंगे की चैकीदारी
करना नहीं.’ क्यों न खाप के निर्णयों से त्रस्त जोड़ों को मैत्रेयी पुष्पा
वाले उसी जिले में भेज दिया जाए जहां पर यौनक्रांति का ऐसा बिगुल बज चुका
है कि स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से जब चाहे जितने चाहे उतने यौन साथी चुन सकते
हैं?
स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहे अश्लीलता के इस यज्ञ में हवि डालने पर
स्त्रियों को भी उनका यज्ञफल पर्याप्त मात्रा में मिला है. दैनिक अखबार
नवभारत टाइम्स में अक्टूबर, 2013 में एक खबर छपी. इसके मुताबिक लखनऊ
विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पाठ्यक्रम में से महादेवी वर्मा की
‘श्रृंखला की कड़ियां’ हटा कर उसके स्थान पर मैत्रेयी पुष्पा की ‘चाक’ नहीं
लगाई जा सकी इसलिए साम्यवादी विचारधारा वाले स्वैच्छिक संगठन ने
विश्वविद्यालय की निंदा की है.
स्त्रीमुक्ति के नाम पर क्रांति के इस नए चलन में फेसबुक वाली नई तकनीक के
भी दर्शन होते हैं. 75 वर्षीय लेखक प्रेमचन्द सहजवाला की फेसबुक वाली कहानी
एक युवक की ओर से लिखी गई है, जो एक युवती के आमंत्रण पर उसके घर जाता है
और उसके माता पिता के सामने ही युवती के साथ सहवास करके वापस अपने शहर लौट
जाता है. गीताश्री ने भी एक युवा स्त्री के बारे में कहानी लिखी जिसमें
नायिका अपने पार्टनर से उस समय रूठ जाती है जब वे दोनों बेड पर थे.
‘इंद्रजीत बिना किसी भूमिका के भड़क उठा था – ‘तुम्हें अपने बॉस के साथ
अकेले बार में नहीं जाना चाहिए था. ….अर्पिता के मन में आया कह दे कि
तुम्हारे पांव की जूती नहीं हूं. पति की तरह सामंत मत बनो पर कह न सकी….
अधखुली किताब की तरह अर्पिता को आतुर, अतृप्त और फड़फड़ाती छोड़ कर इंद्र
जा चुका था.’ गीताश्री की नायिका सशक्त है. वह एक रात भी अकेली क्यों
गुजारे? वह तत्काल ‘लैपटॉप लेकर बेड पर बैठ गई, फेसबुक ऑन किया. ‘क्या कर
रही हो?’ .. ‘मर्द ढूंढ रही हूं, मिलेगा क्या?’.. ‘जोकिंग?’ .. ‘क्यों,
व्हाई जस्ट बिकॉज आई एम अ गर्ल इसलिए आपको जोक लग रहा है? बट आइ रियली नीड अ
मैन फॉर टुनाइट.’ आमंत्रण देख कर कुछ बत्तियां इनविजिबिल हो गईं.
‘स्सालों, फट गई क्या? तुम औरतें ढूंढो, जाल फेंको तो ठीक, और कोई औरत वही
करे तो जोक लगता है.’ आधी रात को आकाश नाम का एक अजनबी युवक आ भी पहुंचता
है. लेखिका ने उन दोनों अजनबियों के ‘गोरिल्ला प्यार’ का पूरा वृत्तांत
लिखा है- ‘देह देर तक एक दूसरे को मथती रही’ आदि. इसके बाद पार्टनर मोबाइल
फोन से माफी मांगने लगता है और तब अजनबी के साथ क्रीड़ा कर चुकी नायिका का
‘गला रुंध गया. बमुश्किल उसने रुलाई रोकी.’ (हंस, सितंबर, 2012)
रुंधे गले से बमुश्किल रुलाई रोकते हुए गीताश्री ने बाजार में बेची जाती
हुई औरतों की दशा पर भी पूरी एक किताब लिख डाली. इस किताब में एशिया में
वेश्यावृत्ति मे झोंकी गई स्त्रियों की उपलब्धता तथा उनके रेट्स का वर्णन
इस प्रकार किया गया है मानो किसी होटल के व्यंजनों का मेन्यू कार्ड हो.
‘औरत की बोली’ शीर्षक इस किताब के मुखपृष्ठ पर औरतों के आंसुओं की जगह
औरतों की नंगी टांगें बनी हुई हैं. वृद्ध लेखक तथा प्रौढ़ लेखिका उत्तम
पुरुष में 20 वर्ष के युवक-युवती बनकर फेसबुक के बहाने कितनी वीभत्स कल्पना
को यथार्थ रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं. बढ़ती उम्र के साथ लोग बेशर्म
होते चले जाते हैं पर क्या इतने बेरहम भी हो जाते हैं ?
‘भावना, प्रेम, चाहत रहित दैहिक प्रक्रियाओं का चित्रण पोर्नोग्राफी का
विषय है. अध्ययन बताते हैं कि पोर्न आख्यानों में दो ऐसे व्यक्तियों का
चित्रण होता है जो बस अभी-अभी मिले हैं, इस संसर्ग के बाद फिर मिलेंगे भी
नहीं. ऐसा संसर्ग व्यक्ति को और भी अकेला कर देता है. ऐसे चित्रण पढ़ने और
देखने के बाद व्यक्ति जीवन में लंबे और स्थायी प्रेम संबंधों तथा पारिवारिक
जीवन जीने में अक्षम हो जाता है. ऐसी छवियों से मुखातिब रहने वाले लोगों
के मन में प्रेम, एकनिष्ठता, प्रतिबद्धता और चाहत की भावना खत्म हो जाती
है.’ (डॉल्फ जिल्मैन)
चाहे रमणिका गुप्ता का नीली आंखों वाला आदमी हो या अश्वेत पुरुष, चाहे
गीताश्री का गोरिल्ला प्यार का यौन साथी हो या एक पुत्री द्वारा पिता के
लिए खरीदी गई युवती, चाहे जया जादवानी की स्त्री वेश्या हो या जयश्री रॉय
का पुरुष वेश्या, चाहे सहजवाला के फेसबुक वाले युवक-युवती हों और चाहे
मैत्रेयी पुष्पा के लल्लू कैलासी और दूर के रिश्ते की भौजाई. ये सारे
पात्र अजनबियों के साथ यौन संसर्ग करते हुए निरूपित किए गए हैं. ये केवल
शरीर हैं, हृदयविहीन शरीर. ये कहानियां पोर्न आख्यान हैं. इन संसर्गों के
लिये सेक्स या सहवास संज्ञा का प्रयोग करना इन शब्दों का अपमान करना है.
यूनान में साहित्य और कला की देवी म्यूज कहलाती है. म्यूज कलाकारों की
प्रेरणा मानी जाती है. वह पूजनीय थी. भारत में प्रेरणा के लिए
नवाबों-शायरों ने तवायफों को गढ़ा. तहजीब की रक्षा के नाम पर वहां केवल
गाना-बजाना ही नहीं था, नाज-नखरा और अदाएं उसका प्रमुख हिस्सा थीं. उनका
काम था रिझाना. नपुंसक तथा निकम्मे नवाबों को रिझाने के लिए नियुक्त
तवायफों और उत्तेजित करने वाले पुरुष हिचकारों के रोचक वृत्तांत हमारे लखनऊ
के ही प्रतिष्ठित इतिहासकार योगेश प्रवीण की पुस्तकों में उपलब्ध हैं.
समकक्षता के इस युग में स्त्रियों का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना है
या चुके हुए संपादकों-समीक्षकों को रिझाना?
महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित वर्धा विश्वविद्यालय में अपना छद्म
साम्यवाद लाने के लिए कटिबद्ध उम्र के छठे दशक में विद्यमान कुलपति विभूति
नारायण राय ने एक लेखिका को यौन केंद्रित गाली दी. उम्र के सातवें दशक में
चल रहे रवीन्द्र कालिया ने गाली को नया ज्ञानोदय के सुपर बेवफाई अंक में
छापा. उम्र के आठवें दशक में विद्यमान राजेंद्र यादव ने राय को कुलपति पद
से हटाने की मांग को तालिबानी बताते हुए कहा, ‘दोस्तों, लोकतंत्र का भी कुछ
सम्मान करना सीखो. आखिर हम इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं. यह शुद्ध
मर्दवादी अहंकार कब तक हुंकारता रहेगा कि हम अपनी महिलाओं का अपमान नहीं
सहेंगे.’ (हंस, सितंबर 2010 ). और उम्र के नवें दशक में विद्यमान साम्यवादी
प्रोफेसर नामवर सिंह ने मौन सहमति दी.
मैत्रेयी पुष्पा रिटायर्ड पुरुष पुलिस अधिकारी से यौन केंद्रित गाली
खाने के बाद भी उन्हीं के साथ चर्चारत दिखाई दीं (पाखी). उस छिछली चर्चा
में क्षमाप्रार्थी होने के बजाय राय ने बड़ी निर्लज्जता से वरिष्ठ मैत्रेयी
पुष्पा की तुलना अत्यंत फूहड़ लेखन करने वाली कनिष्ठ ज्योति कुमारी से कर
दी. कोई सैद्धांतिक प्रतिरोध करने की जगह वे ‘ऊंऽऽ, आप लोग तो बड़े वैसे
हैं’ की तर्ज पर कुनमुनाती नजर आईं. यह सब कैसे संभव हुआ? मैत्रेयी पुष्पा
के आचार-विचार से तमाम असहमतियों के बावजूद मेरा मत है कि वे एक समर्थ
लेखिका हैं. यदि यौन सक्रियता के वृत्तांतों से उनका सशक्तीकरण हो चुका
होता तो क्या यह संभव था कि एक औसत से भी बदतर कहानी-उपन्यास लिखने वाला
पुरुष इतनी वरिष्ठ लेखिका को इस तरह अपमानित कर दे और वह निरुत्तर रह जाए?
यह मर्दों के खेला में नाचने के लिए तैयार होने का ही प्रतिफल है कि
साहित्य में और समाज में लेखिकाएं मखौल का पात्र बन रही हैं. इस बीच कुछ
बेहतर लेखन भी अवश्य हुआ होगा मगर इस खेल में शामिल न होने के कारण वह
अचर्चित रहा.
हिंदी लेखन अब तक भयंकर रूप से पितृसत्तात्मक है. अपने पुरुषवर्चस्ववादी
स्वत्व की रक्षा करते हुए पिछली पीढ़ी के दंभी वयोवृद्ध पुरुषों ने पूरी
तरह नकली औरतें गढ़ ली हैं. हर आयु वर्ग और आकार-प्रकार की ये बार्बी डॉल्ज
हिंदी लेखन के बाजार में उपलब्ध हैं. इन्हें पूंजीवादी विदेशियों ने नहीं
देसी जनवादियों ने तैयार किया है. चाबी से चलने वाली चीनी गुडि़यों की तरह
इनके भीतर एक प्रोग्राम भरा है. चाबी लगाने पर ये वही बोलती हैं जो इनके
निर्माताओं ने इनके भीतर भरा है. ये गुडि़यां बच्चों के लिए नहीं, हिंदी के
प्रगतिशील वयोवृद्धवृंद की क्रीड़ा के लिए हैं.
रमणिका गुप्ता की ट्रेन में अजनबी सहयात्री से सहवास करने वाली स्त्री
कहती है, ‘वे आंखें भी तो अपनी नीलिमा से मेरी देह को सहला ही तो रही हैं.
कल जो दिन चढ़ेगा उसमें यह विलक्षण क्षण अलग से जुड़ जाएगा. इजाफा हो जाएगा
तुम्हारे अनुभवों की फेहरिस्त में.’
इन चर्चित लेखिकाओं ने अनुभवों की फेहरिस्त में इजाफा करते हुए
स्त्री-पुरुषों के वेश्याओं और अजनबियों के साथ यौन संसर्गों को अपना विषय
बनाया है ताकि उन्हें मन, बुद्धि, चेतना, आत्मा और सारे मानवीय संबंधों से
रहित शरीर के वर्णन का वितान मिल जाए. यह हिंदी में साहित्य के नाम पर चल
रहा देह व्यापार है, जहां स्त्री, और अब तो पुरुष भी मांस का टुकड़ा हैं,
बेचेहरा और हृदयहीन.
छद्म विमर्शकार बड़ी बेहयाई से पूछ रहे हैं कि क्या स्त्री को वह लिखने
का अधिकार नहीं जो पुरुष लिख रहे हैं. मगर मूल प्रश्न इससे गंभीर है- आखिर
लिखा क्या जा रहा है? स्त्री कौन-सा हक मांग रही है? मानव शरीर के अपमानित
और विमानवीकृत चित्रण का हक? भावना विहीन देह वृत्तांत कहने का हक? यदि
स्त्री तथा पुरुष के रचे में भिन्नता है ही नहीं तो स्त्री लेखन को अलग से
रेखांकित क्यों किया जाए? प्रियंवद की ‘गंदी’ कहानी में नायक की भूतपूर्व
सखी उसके घर ठहरी. वह कहती है- ‘बस मैं नहा लूं फिर बैठते हैं….अंदर से नल
की धार की आवाज आ रही थी. दो कदम आगे बढ़ कर मैं झुका और गुसलखाने की दरार
से आंख लगा दी. उसकी पीठ मेरी तरफ थी. लपटें फेंकते हुए दो अग्निकुंडों की
तरह उसके नितंब चमक रहे थे’ (कथादेश, दिसंबर 2012). नायक एक प्रौढ़ पुरुष
है, कोई किशोर बालक नहीं.
‘छुट्टी का दिन’ कहानी भी जयश्री रॉय ने पुरुष की ओर से उत्तम पुरुष में
लिखी है,’ सच पूछो तो भारी नितंबों वाली स्त्री के पीछे पीछे रोज एकाध
घंटे चलना मुझे बुरा भी नहीं लगता था. वह आगे आगे बतख की तरह कूल्हे मटकाती
नाजो अदा से चलती थी.’ पुरुष घर आ कर ‘नौकरानी कांता बाई के नितंब
निहारता.’ प्रौढ़ दंपति में से पति रोशनदान से झांकता हुआ पड़ोस की अमला
भाभी को नहाते हुए देखता है, और प्रौढ़ पत्नी पड़ोस के त्रिपाठी भाई साहब
को.
सहज स्वाभाविक संबंधों का विवरण साहित्य में कभी समस्याप्रद नहीं रहा.
यह स्वस्थ साहचर्य का चित्रण है ही नहीं, यह तो ‘वाइकेरियस प्लेजर’ देने
वाला ‘की-होल जर्नलिज्म’ है. गुदगुदी और सनसनी पैदा करने के लिए
लेखक-लेखिका दरारों से झांक रहे हैं. पोर्नोग्राफर स्त्री को अपने ही शरीर
का अवयवीकरण और अपमान करना सिखाता है. जयश्री रॉय पुरुष बन कर मर्दों के
खेला में नाचती हुई भारी नितंबों वाली स्त्री के पीछे-पीछे चल रही हैं ,
नौकरानी कांता बाई के नितंब निहार रही हैं, गुसलखाने के रोशनदान से पड़ोस
की अमला भाभी को बिना टाट का पर्दा डाले ही नहाते हुए झांक रही हैं और
उपहास की भाषा में स्त्री अवयव वर्णन कर रही हैं. बहुत खूब.
इंटरनेट पर चैट करने वाले, मॉर्निंग वाक करने वाले मध्यवर्गीय प्रौढ़
दंपति ऐसे किस मुहल्ले में रहते थे जहां पड़ोसी त्रिपाठी दंपति आंगन में
टाट का पर्दा डाल कर और कभी कभी बिना पर्दा डाले ही नहाता होगा? गीताश्री
की कहानी का परिवार, जहां होमसर्विस देने वाली वेश्या तक इंग्लिश बोलती है,
ऐसी किस सोसाइटी के टावर्स में रहता होगा जहां फर्स्ट फ्लोर की बाल्कनी
में ‘बताऊं क्या-क्या गिरते हैं?..यूज्ड कॉन्डम और सैनिटरी नैपकिन्स’ ( ताप
). जुगुप्सा जगाने की प्रतियोगिता में एक -दूसरे को पछाड़ती इन लेखिकाओं
की कहानियों में पात्रों और पृष्ठभूमि की विश्वसनीयता की अपेक्षा करना धरती
पर चांद मांगने जैसा है.
दशकों के प्रयासों से यह समूह साहित्य की मुख्यधारा को पोर्न आख्यानों
से बदल चुका है. ऐसे आख्यान अब अपवाद नहीं नियम हैं जिनमें यौन संसर्ग
आकस्मिक और भावना विहीन है और स्त्री एक पूर्णतः यौनीकृत वस्तु.
जयश्री रॉय की देह, नदी और रात सीरीज की एक अन्य कहानी ‘समन्दर, बारिश
और एक रात’ (कथादेश) में ‘फुलमून नाइटडांस में डॉनी अपनी बांहों में दो
लड़कियों को एक साथ भींचे झूम रहा था. स्कारलेट 14 वर्ष की ब्राजीलियन
लड़की थी जो पिछले तीन महीनों से अपनी प्रेमिका नीकीबार्नो के साथ एक कमरा
लेकर रह रही थी, कभी कभी अपना स्वाद बदलने के लिए पुरुषों के साथ भी हो
लेती थी. आज की रात उसका डेट अफ्रीकन युवक था.’ वह बलिष्ठ अफ्रीकन युवक के
कंधे पर से उतर कर जेनी नामकी लड़की का जबरदस्ती यौन शोषण करती है. जहां
सभी लोग स्वेच्छा से एक साथ अनेक अजनबियों के साथ यौन संसर्ग में लिप्त थे
वहां सामूहिक बलात्कार की गुंजाइश कहां थी? मगर जयश्री रॉय ने जगह निकाल ली
और सामूहिक बलात्कार की पूरी प्रक्रिया का वर्णन इतने विस्तार और इतनी
तटस्थता से किया मानो ‘सामूहिक बलात्कार कैसे करें’ की दिशानिर्देशक
हैंडबुक तैयार कर रही हों. न स्त्री की यातना का लेशमात्र वर्णन, न पुरुष
की दरिन्दगी के प्रति क्षोभ. 75 वर्षीय वृद्ध परमानन्द श्रीवास्तव ने
लेखिका की ऐसी कहानियों को कविता बताते हुए कसीदे काढ़े हैं (पाखी, दिसम्बर
2011) दरिंदगी के ऐसे बढ़ते अपराधों से समाज दहल रहा है मगर हिंदी लेखन
में उत्सव चल रहा है.
इस परंपरा में ज्योति कुमारी की ‘अनझिप आंखें’ में पति द्वारा उत्पीड़ित
नायिका के आगे उसका मामा यौन संसर्ग का प्रस्ताव रखता है फिर कार्यस्थल पर
अखबार का संपादक. वह एक समाज सेविका से मदद मांगती है जो उसका हौसला
बढ़ाती है, ‘चल कल मूवी चलते हैं.’ मूवी चल रही है. इंग्लिश बोल्ड लव
स्टोरी. बड़ी तेजी से मेरे पैरों पर फिसलता हुआ एक हाथ बढ़ा चला आता
है-‘अरे यह तो मैम का हाथ है.’ मैं हकला कर रह गई…’ मैम मैं वैसी लड़की
नहीं हूं…मैम आइ एम नाट लेस्बियन.’..’ओह’, अचानक ऊपर आता मैम का हाथ रुक
गया..’अच्छा तो तुम मर्दख़ोर हो’ और आंख दबा कर मुस्करा दीं.’ (हंस, अगस्त
2012)
जिस तरह हिंदी की मसाला फिल्मों में लंबे रेप सीन स्त्री पर होने वाले
अत्याचार के प्रति करुणा जगाने के लिए नहीं मर्दों को रेप करने का
वाइकेरियस प्लेजर देने के लिए रखे जाते हैं, उसी तरह इन कहानियों में
स्त्री शोषण के सारे आयाम एक ही स्थान पर उपलब्ध करा दिए गए हैं. यह बूढ़े
मर्दों की फरमाइश पर पेश किया गया ‘मेड टु ऑर्डर’ व्यंजन है, इसीलिए उनके
द्वारा प्रकाशित, प्रशंसित, अनुशंसित और पुरस्कृत है. यहां मर्दवादी
लेस्बियन होमोफोबिया भी मौजूद है. पितृभाव दिखाते हुए पुरानी पीढ़ी के घोर
पुरुषवादी लेखकों ने पिछले दो तीन दशकों में स्त्री की जो विमानवीकृत छवि
गढ़ी उसी के अनुरूप स्वयं को ढालती हुई ये गुड़ियाएं खुद को अपने शरीर से
अलग करके लेखन में स्त्री शरीर परोस रही हैं.
गीताश्री की कहानी ताप इस प्रवृत्ति का शास्त्रीय उदाहरण है. उसमें मां
बेटी से कहती है, ‘मैं ठंडा गोश्त हूं जिसे गर्म नहीं किया जा सकता. अपने
पापा के लिए किसी लड़की का इंतजाम कर दे.’ यही बात उसका सहकर्मी विप्लव
उससे अपने पिता के विषय में कहता है, ‘बुड्ढा बहुत सेक्सी है. मिलवाऊंगा तो
आफत आ जाएगी. फिर न कहना कि देखो तेरे पिता ने क्या कर दिया. नॉट जोकिंग
यार सीरियसली. मेरी मां अब बहुत बूढ़ी हो गई है. पिता अब भी फफन रहे हैं.
सोचता हूं उनके लिए किसी लड़की-वड़की का इंतजाम कर दूं. विप्लव हंसते हुए
बता रहा था. न कोई संकोच न कोई शर्मिंदगी.’ (इरावती पृ.126)
वृद्धा मां और युवा विप्लव दोनों ‘लड़की-वड़की का इंतजाम’ की भाषा बोलते
हैं. युवा बेटा अपने बाप के लिए लड़की का इंतजाम करता है और युवा बेटी
अपने बाप के लिए. वृद्ध पिता कहता है’, ‘पांच-पांच हज़ार में एक से एक
मिलती हैं.’ मां ‘ठंडा गोश्त’ है, पिता अब भी ‘फफन रहे हैं’ और लड़कियां
बिक रही हैं. एग्रेसिव मेन और सब्मिसिव वुमन की सेडोमेसोचिस्ट छवि को अब
पुरुष नहीं स्त्री पुख्ता कर रही है. ‘स्त्री आकांक्षा के मानचित्र’ की
चितेरी इन गीताश्री की शान में राजेंद्र यादव संपादकीय लिख चुके हैं.
मर्दों के खेला में यही स्त्री विमर्श है. वृद्ध पुरुष यौन बुभुक्षित हैं
और युवा स्त्रियां उनका आहार. औरतों ने भी यही छवि आत्मसात कर ली है.
स्त्री की इस आत्मछवि के निर्माण में उन पुरस्कारों का भी हाथ है जो ऐसा
लेखन प्रोत्साहित करने के लिए दिए जाते रहे. पुरस्कारों का अर्थ केवल 51
या 51 लाख रुपये, एक शॉल तथा नारियल, जिसे कविगण मंच से श्रीफल कहते सुने
जाते हैं, ही नहीं होता. इसका मतलब यह भी है कि उन समयों में वैसा लेखन
समाज में उत्कृष्ट माना जा रहा था. यही लेखन पीढ़ी के लिए नजीर बनता है और
भावी पीढ़ी उसका अनुसरण करती है. लोकप्रियता ही श्रेष्ठता का आधार नहीं
होती. इसी कारण उत्कृष्ट कला फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता है
भले ही वे लोकप्रिय न भी हुई हों. हिंदी लेखन में कलावस्तु के स्थान पर
पोर्न वस्तुओं का पुरस्कृत होना गहरी चिंता का विषय है.
आज सभी क्षेत्रों में स्त्रियां पुरुषों के बराबर खड़ी दिखाई दे रही
हैं. आज वे केवल परीक्षाओं में सफल होकर डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापिका ही
नहीं बन रहीं, राष्ट्रीय और निजी क्षेत्र के बैंकों की चेयरमैन कम मैनेजिंग
डारेक्टर, कॉरपोरेट हाउसेज की मालकिन और अंतरिक्ष यात्री भी हैं. गांवों
और शहरों में लाखों स्वास्थ्यकर्मी, एएनएम, आशा बहुएं, आंगनवाड़ी और
प्राथमिक पाठशालाओं में काम करने वाली स्त्रियां खुद कमा रही हैं और घर चला
रही हैं. अध्ययन बताते हैं कि एक तिहाई घरों की अकेली कमाने वाली सदस्य
स्त्रियां हैं. परिवार के मुखिया के रूप में भले ही रजिस्टर में पुरुष का
नाम लिखवा दिया जाए पर इन घरों में बच्चे अपने निखट्टू पिता की जगह कर्मठ
मां की ही सत्ता मानते हैं.
खेद है कि हिंदी लेखन में सारी सत्ता ऐसे मर्दों के हाथ में है जिनके
अपने निजी जीवन में स्त्रियों का न कोई आदर- सम्मान है न ही स्थान. वे
प्रोफेसर हैं, संपादक और चयनकर्ता भी. इन मठाधीशों ने रमणिका गुप्ता जैसे
लेखन को साहसिक बता कर अनुकरणीय बनाया और हिंदी लेखन में आलिंगन चुंबन
द्वारा सत्ता हस्तांतरण की प्रणाली स्थापित होती चली गई. यह समकक्षता नहीं
है. अवनतिशील वृद्धवृंद प्रगतिशीलता के प्रमाणपत्र बांट रहा है और बार्बी
डॉल्ज प्रमाणपत्र पाने को पंक्तिबद्ध खड़ी हैं.
इन हेय और उपेक्षणीय रचनाओं को उद्धृत करना मेरे लिए एक कष्टप्रद अनुभव
रहा. मेरा उद्देश्य रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करना नहीं
बल्कि पाठकों के सामने स्त्री लेखन के नाम पर चल रही दुर्भावनापूर्ण पोर्न
परंपरा की बानगी प्रस्तुत करना है. अंतिम निर्णय तो पाठक करेंगे और आने
वाला समय.
जनवादियों द्वारा अतिनिंदित वेदों में एक प्रार्थना है, ‘तमसो मा
ज्योतिर्गमय’. साहित्य को समाज के आगे मशाल ले कर चलते हुए समाज का पुरोधा
होना चाहिए. आदिकाल, वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिककाल के बाद
छद्म जनवादियों द्वारा निर्मित यह नवरीतिकाल का अंधायुग है. इस अंधे युग के
‘हर पल गहरे होते जाते अंधियारे’ में आबाल-वृद्ध (छोटी-बड़ी) बार्बी डॉल्ज
से प्रगतिशीलता के रैंप पर कैटवॉक करवाई जा रही है- उजाले से अंधेरे की
ओर.
जो पोर्न छवियां पूंजीवाद के बाजार में इंटरनेट पर क्रेडिट कार्ड द्वारा
पेमेंट करके खरीदी जाती हैं, प्रगतिशील जनवादियों के बाजार में वे ही
छवियां मुफ्त में उपलब्ध हैं. इस बाजार को ही हिंदी साहित्य बताया जा रहा
है. यह बाजार युवाओं द्वारा नहीं मर्दों के वृद्धवृंद द्वारा संचालित,
पोषित और नियंत्रित है. इसमें वृद्ध, प्रौढ़ और युवा बार्बी डॉल्ज नृत्य
में अव्वल आने के लिए एक-दूसरे से होड़ ले रही हैं. यह स्त्री विमर्श के
नाम पर चल रहा उन्मादग्रस्त आनंदनृत्य है .
धार्मिक रूढि़वाद के विरुद्ध स्त्रीमुक्ति की आवाज उठाते बहुत समय हो
गया. जनवादियों का यह पोर्न अनुष्ठान उससे ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इसे
प्रगतिशील स्त्री विमर्श के रूप में पेश किया जा रहा है. आज यह आवाज छद्म
जनवाद के खिलाफ उठा रही हूं, इसलिए कि अब और चुप रह पाना मुमकिन नहीं और
इसलिए भी कि मुझे पूरा यकीन है इस आवाज को जरूर सुना जाएगा.