मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

मा. राम समुझ

मा. राम समुझ
समाज सुधारक राम समुझ जी का जन्म 11 जुलाई 1937 को उ.प्र. के प्रतापगढ़ जिले के चैवे पट्टी नाम गांव मंे हुआ। इनके पिता जी का नाम शिवम्बर पासी और माता जी का नाम सस्ती देवी था। समाज सुधारक, राम समुझ जी की शिक्षा बी.ए., एम.ए.तक हुयी थी। बामसेफ के वरिष्ठ कार्यकर्ता राम समुझ निरन्तर मूलनिवासी बहुजन समाज को जागृत करने का कार्य करते रहे। और मूलनिवासी बहुजन समाज को आजीवन ब्राह्मणवाद रूपी जहर से बचने की प्रेरणा देते रहे। उनका एक सपना था। मैं 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को ब्राह्मणवाद की गुलामी से आजादी दिला सकूँ। और इन्हांेने मूलनिवासी बहुजन समाज को ब्राह्मणवाद की गुलामी से मुक्त करने के लिए अपने महत्वपूर्ण नौकरी को भी त्याग दिया। अर्थात उन्हांेने अपने जिन्दगी को दांव पर लगाकर इस देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को जागृत करने के लिए निकल पड़े। और इन्हांेने केवल मौखिक रूप से ही लोगों को जागृत करने का कार्य नहीं बल्कि इन्हांेने मूलनिवासी बहुजन समाज मंे चेतना लाने के लिए कई सारे पुस्तको का भी लिखित रूप से निर्माण किया। ताकि किताबों के माध्यम से भी मूलनिवासी बहुजन समाज मंे जागृति की लहर फैलायी जा सके।
इन्हांेने अपनी पढ़ाई पूरी करने के दौरान 1962 में एडीओ के पद पर कार्यरत रहे। उसके बाद ये बीडीओ के पद पर कार्यरत रहे। इस तरह से निरन्तर ही यह आगे बढ़ते रहे। और बाद मंे जाकर फैजाबाद एम.एच.ई के पद पर भी पहुँच कर कई वर्षो तक सेवारत रहे। उन्हांेने मूलनिवासी बहुजन समाज के मसीहा व बामसेफ के संस्थापक मा.कांशीराम के सम्पर्क में आने के पश्चात उन्हांेने 1986 मंे महत्वपूर्ण सरकारी पद को भी त्याग दिया। और मान्यवर कांशीराम जी के साथ मंे व्यवस्था परिवर्तन के आन्दोलन मंे जुड़ गये। और वे व्यवस्था परिवर्तन मंे जुड़कर तन-मन-धन से 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को जागृत कने मंे लग गये। उनकी कर्मनिष्ठ लगन, धैर्य और लोगों को प्रभावित करने वाली उनकी ओजस्वी वाणी और ईमानदारी को देखकर मा.कांशीराम ने 1980 में उŸार प्रदेश मंे बामसेफ केे प्रदेश अध्यक्ष के रूप मंे कार्यभार संभालने के लिए कहा और उन्हांेने ईमानदारी पूर्वक उŸार प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष के रूप मंे कार्यभार संभालने का कार्य किया। और अपनी ईमानदारी निष्ठा की वजह से बाद मंे वह डी.एस.फोर के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। तथा वह बाद में 1985 में बी.एस.पी के राष्ट्रीय महासचिव भी रहे।
पूरे उŸार प्रदेश मंे बामसेफ, डी.एस.फोर व बी.एस.पी. के नींव रखने वाले त्यागमूर्ति राम समुझ पासी ही थे। इसलिए इनके महत्वपूर्ण योगदान को भूला नहीं जा सकता। इन्हांेने 1987 में प्रतापगढ़ के पट्टी से उप चुनाव भी लड़ेक। जिसमंे वे राज अजीत सिंह के खिलाफ जीत भी गये थे। किन्तु उस समय उŸार प्रदेश ब्राह्मणवादी कांग्रेस सरकार ने (बूथ कैपचरिंग) के माध्यम से षड्यंत्र करके उनको जबरदस्ती हराया। बाद मंे वह 1988 मंे जौनपु मछली शहर से एम.पी. का चुनाव लड़े। इसके अलावा उन्हांेने जनता दल, सपा, अपना दल व परिवर्तन दल के मुख्य पदो पर रहकर भी नेतृत्व किया। उन्हांेने 15 प्रतिशत विदेशी बनाम 85 प्रतिशत मूलनिवासी के संघर्ष का ऐलान करते हुए भगवान बुद्ध सेवा संघ, बहुजन जनक्रान्ति दल, तथा आवामी समता दल (राजनीतिक सं.) की स्थापना की। वर्तमान समय मंे आवामी समता दल 2014 के एम.पी. चुनाव में मैदान मंे चुनाव भी लड़ लड़ रही है। इस तरह से उन्हांेने 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास के लिए कई सारे संगठनो की स्थापना की। मा.राम समुझ पासी महान साहित्यकार, लेखक, कवि, पत्रकार, संपादक, चित्रकार व समाज को जागृत करने के लिए कई सारी पुस्तको की भी रचानाएं की। जिनमंे उनके द्वार लिखित पुस्तको का विवरण दिया जा सकता है। पहला पुस्तक बहुजन जागरण ज्योतिब (गीत), ज्योति जागरण कविता, डा. अम्बेडकर क्यांे हारे, फŸाू राम सवा सती, कांशीराम ने बहुजन समाज को पतुरिया पार्टी बनाया। तथा इसके अलावा उन्हांेने अन्य कविताआंे की भी रचना की। वे बहुजन संगठक, बहुजन दिग्दर्शिक अखबार के संपादक भी रहे वे युवावस्था मंे बैडमिंटन, शतरंज, कैरमबोड के कुशल खिलाड़ी भी रहे। ऐसा कहा भी जाता है कि जो व्यक्ति विलक्षण प्रतिभा वाले होते है उनके अन्दर सभी प्रकार के गुण होते है। मगर हमंे असफोस इसलिए है कि हमारे महापुरूषांे के आन्दोलन को बढ़ाने वाले 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज के हक की लड़ाई लड़ने वाले मूलनिवासी बहुजन समाज में जागृति फैलाने वाले महान समाज सुधारक व जुझारू कार्यकर्ता मा.राम समुझ जी अब हमारे बीच मंे नहीं रहे। और वे 25 अप्रैल 2014, दिन-शुक्रवार को समय 3.30 अपराहन्त उन्हांेने अंतिम सास ली, और सैदव के लिए चिर निद्रा मंे लीन हो गये। अतः उनसे प्रेरणा लेते हुए मूलनिवासी बहुजनांे से निवेदन है कि उनके द्वारा संचित किये हुए ज्ञान के प्रकाश को मूलनिवासी बहुजन समाज मंे फैलाने का कार्य करे। तभी हम सही मायने मंे उनके सपनो का भारत बना सकते है। यहीं उनके प्रति सच्ची श्रद्धाजंली होगी।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

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यूपी के महाराजगंज के भूजल में आर्सेनिक की स्थिति


जल पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है. परिस्थितिकी के निर्माण में जल आधारभूत कारक है. वनस्पतियों से लेकर जीव-जंतु अपने पोषक तत्वों की प्राप्ति जल से करते हैं. मनुष्य के भौतिकवादी दृष्टिकोण, विज्ञान और तकनीक की निरंतर प्रगति, बढता औद्योगीकरण और शहरीकरण, खेतों में पैदावार बढाने के लिए रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग, कीटनाशकों का अनियंत्रित प्रयोग व जनसंख्या में हो रही वृद्धि तथा जनमानस की प्रदूषण के प्रति उदासीनता के कारण जल प्रदूषण की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है.
संसार के अनेक भागों के भूजल में आर्सेनिक पाया गया है. भूजल में आर्सेनिक की उपस्थिति मात्र ही मानव जाति के लिए अवांछनीय है. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए यह अति आवश्यक हो जाता है कि आर्सेनिक का भूजल में गहन अध्ययण किया जाए तथा इससे उत्पन्न दुष्प्रभावों के समाधान के लिए समुचित उपाय ढूंढे जाएं. भूजल में आर्सेनिक के स्रोत, भूगर्भीय तत्वों से अथवा मानवीय क्रियाकलापों से हो सकते हैं. जनमानस पर आर्सेनिक (3) की विषाक्तता आर्सेनिक (5) व कार्बनिक आर्सेनिक की अपेक्षा अधिक होती है. पर्यावरण, सामाजिक-आर्थिक और खान-पान के आधार पर भारतीय मानक संस्थान के पेय जल में आर्सेनिक अनुज्ञेय सीमा 0.05 मि.ग्रा./ली. रखी गई है. उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत वैज्ञानिक पत्र में महाराजगंज जनपद, उत्तर प्रदेश में आर्सेनिक की स्थिति के अध्ययन का प्रयत्न किया गया है. इसके अतिरिक्त इस पत्र में भूजल में आर्सेनिक के स्रोत, आर्सेनिक ता भू-रसायण और मानव स्वास्थय पर विषैले प्रभाव को भी दर्शाने का प्रयत्न किया गया है.
अध्ययन के लिए 28 हैंड पंपों ( इंडिया मार्क 2 व व्यक्तिगत) से जल नमूनों को एकत्र किया गया था. इंडिया मार्क 2 हैंड पंपों की गहराई 15-20 मीटर और व्यक्तिगत हैंड पंपों की गहराई 7-10 मीटर है.
रसायनिक आंकडों का अवलोकन करने से पता चलता है कि अधिकतम भूजल नमूनों में आर्सेनिक की सांद्रता 0.001 मि.ग्रा./ली. से नीचे पायी गई है. अधिकतम सांद्रता 0.018 मि.ग्रा./ली. और 0.02 मि.ग्रा./ली. खनवा और पनडारी क्रासिंग के भूजल में पाई गई है. उपरोक्त विश्लेषण से यह प्रतीत होता है कि महाराजगंज जनपद, उत्तर प्रदेश के छिछले भूजल में आर्सेनिक की सांद्रता भारतीय मानक संस्थान द्वारा निर्धारित अनुज्ञेय सीमा के अंदर पायी गई है.
1. प्रस्तावनाः
नवसृजित जनपद महाराजगंज पहले गोरखपुर जनपद के हिस्से के रूप में जाना जाता था. इस समय यह जनपद उत्तर प्रदेश राज्य के उत्तर पूर्वी छोर पर 26 डिग्री 53 मिनट 20 सेकेंड उत्तर अक्षांस तथा 83 डिग्री 7 मिनट 30 सेकेंड व 83 डिग्री 56 मिनट 30 सेकेंड पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है. इस जनपद का कुल भौगोलिक क्षेत्र 2943.1 वर्ग किमी है. महाराजगंज जनपद उत्तर में नेपाल, दक्षिण में गोरखपुर, पश्चिम में सिद्धार्थनगर तथा पूर्व में देवरिया जनपद से घिरा हुआ है. वर्ष 1991 की जनगनना के अनुसार यहां की कुल जनसंख्या 16.8 लाख के लगभग थी. ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में भूजल ही पेयजल का साधन है. पेयजल की आपूर्ति मुख्यतः हैंडपंप से की जाती है.
2. भू-आकृति विज्ञानः
गंगा के मैदानी भाग में इस जनपद का ढलान मुख्यरूप से उत्तर से दक्षिण की तरफ है. छोटी गंडक और घोंघी नदियों से यह जनपद क्रमशः पूर्व तथा पश्चिम दिशाओं घिरा हुआ है जबकि रोहणी नदी की तीसरी धारा के रूप में बासमानी, मालौन, नन्दा व बरुआ आदि नदियां जनपद के बीच से होकर बहती है. इस बेसिन का जल निकास गंगा बेसिन और घाघरा सब बेसिन के द्वारा होता है. इस क्षेत्र में जरोद, रेतीली, सिल्ट तथा क्ले प्रकार की मिट्टी पायी है. यहां की जलवायु अत्यधिक ठंडी तथा गर्म होती है.
3. अध्ययन का आधारः
17 फरवरी 2003 को अंग्रेजी के दैनिक पत्र इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख प्रस्तुत किया गया जिसका शीर्षक Million in Ganga basin exposed to arsenic nature था. इसी आधार पर केंद्रीय भूमिजल प्राधिकरण के पत्र संख्या M(SML)/ CGWB/PA-1/2002-38 दिनांक 21.2.2003 के अनुसार सचिव, जल संसाधन मंत्रालय भारत सरकार में 20.2.2003 को एक मीटिंग बुलाई गई तथा इसकी पुष्टि के लिए चर्चा की. आने वाले समय में बिहार, उत्तर प्रदेश तथा चंडीगढ को इस समस्या से अवगत कराया गया. उत्तर प्रदेश में जनपद महाराजगंज जो कि नेपाल के बार्डर से लगा हुआ है को भूजल में आर्सेनिक की स्थिति जानने व प्रारंभिक अध्ययन करने के लिए चुना गया.
4. भारत में आर्सेनिक अध्ययनः
विज्ञान, चिकित्सा तथा तकनीकी क्षेत्र में आर्सेनिक की विषाक्तता को लंबे समय से जाना जाता रहा है. भारत में आर्सेनिक सबसे पहले पश्चिम बंगाल के बंगाल बेसिन क्षेत्र में सन् 1978 में रिपोर्ट किया गया तथा वर्ष 1983 में आर्सेनिक के विषैलेपन की जांच स्कूल आफ ट्रापीकल मैडीसीन (SMT) तथा आल इंडिया इंस्टीच्यूट आफ हाइजीन (AIIH) तथा पब्लिक हैल्थ (AH) ने की. यहां पर यह देखा गया कि वहां के लोग आर्सेनिक डरमाटोसिस से प्रभावित हैं. जब उस क्षेत्र के जल नमूनों को रासायनिक प्रयोगशाला में लाकर परीक्षण किया गया तो उसमें आर्सेनिक की मात्रा बी.आई.एस. 1991 की अधिकतम सीमा 0.05 मि.ग्रा./ली. से भी अधिक पायी गई.
5. भूजल में आर्सेनिक के स्रोतः
प्राकृतिक पर्यावरण में आर्सेनिक भूमि के अंदर 5 से 6 मि.ग्रा./ली. तक पाया जाता है. इसकी अधिक मात्रा चट्टानों में पायी जाती है. इग्नीअस तथा मैटामौरफिक चट्टानों की अपेक्षा सैडीमेंट्री चट्टानों में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पायी जाती है. आर्सेनिक के मानवोत्पत्ति स्रोत निम्नलिखित हो सकते हैं.
(1) खादानों की सक्रियता व पिघलने से
(2) कीटनाशकों के प्रयोग से
(3) कोयला के द्वारा
(4) उत्पादकों द्वारा कोयला दहन से
(5) वाहित मल से
4. जल नमूने का एकत्रीकरण एवं विश्लेषणः
अध्ययन क्षेत्र महाराजगंज के विभिन्न स्थानों से (हैंडपंप इंडिया मार्क 2 तथा व्यक्तिगत हैंडपंप) पोलिइथायलीन की एक लीटर की सफेद बोतलों में जल नमूनों को एकत्रित करके तथा हाइड्रोक्लोरिक एसिड से उपचरित सुरक्षित किया गया. इसके तुरंत बाद केंद्रीय भूमिजल बोर्ड उत्तर क्षेत्र लखनऊ की रासायनिक प्रयोगशाला में स्टैंडर्ड मैथड्स (APHA-1996) में दी गई विधियों के अनुसार हाईड्राइड वेपर जेनरेटर प्रयोग करते हुए ऐटौमिक एब्जार्पषन स्पैक्ट्रोफोटोमीटर (SHIMADZU-6701F) द्वारा विश्लेषित किया गया.
5. परिणाम व चर्चाः
महाराजगंज जनपद के 10 विकास खंडों के हैंडपंपों (इंडिया मार्क 2 तथा व्यक्तिगत) से लिए गए जलनमूनों के रासायनिक विश्लेषण से प्राप्त आंकडों में आर्सेनिक की न्यूनतम व अधिकतम सीमा तालिका 1 में दर्शायी गई है.
तालिका 1 में दिए गए आंकडों का अवलोकण करने से ज्ञात होता है कि सभी विकास खंडों के भूजल नमूनों में आर्सेनिक की सांद्रता अनुज्ञेय सीमा (0.05 मिग्रा/ली-बीआईएस-1991) के नीचे ही पाई गई है. सामान्यतः अधिकतर जल नमूनों में आर्सेनिक की सान्द्रता 0.001 मिग्रा/ली या उससे कम ही पाई गई है. अधिकतम सांद्रता 0.024 मिग्रा/ली घुघौली ब्लॉक के भूजल नमूनों में प्राप्त हुई है. नौतनवा, ब्रजमानगंज व सिसवा बाजार विकास खंड में अधिकतम सान्द्रता क्रमशः 0.020, 0.017 और 0.016 मिग्रा/ली प्राप्त हुई है. उपरोक्त आंकडों के आधार पर यह दर्शित होता है कि पिछली शतह का भूजल आर्सेनिक के लिए निर्धारित अनुज्ञेय सीमा के अंदर ही है.
महाराजगंज जनपद, उत्तर प्रदेश के छिछली सतह के जल के नमूनों में आर्सेनिक की सांद्रताः
क्रमांक
ब्लॉक
आर्सेनिक सांद्रता मिग्रा/ली
न्यूनतम
अधिकतम
1.
फरैंदा
0.004
0.007
2.
ब्रजमानगंज
0.009
0.017
3.
नौतनवा
अनुपस्थित
0.018
4.
निचलौल
अनुपस्थित
0.009
5.
मिथौरा
0.003
0.003
6.
महराजगंज
अनुपस्थित
0.002
7.
सिसवा बाजार
0.001
0.016
8.
घुघौली
0.001
0.024
9.
परतावल
0.002
0.002
10.
पनियारा
0.003
0.003
 
8. भविष्य में अध्ययन के लिए सुझावः
(1) समयबद्ध जल नमूनों का एकत्रीकरण करके भू-रासायनिक व फ्लोमोडलिंग की सहायता से भविष्य में संभावित रूझान का पता लगाना.
(2) अनुज्ञेय सीमा से अधिक आर्सेनिक सांद्रता वाले स्थानों पर कम मूल्य का फिल्टर व नलकूप से जुडे उपकरणों का विकास तथा आर्सेनिक कचरे का सुरक्षित बहिस्राव.
(3) भूजल बहाव और एक्यूफर ज्यामिति के साथ में भूजल रसायन का स्पष्ट अध्ययन.
9. संदर्भः
(1) एपीएचए 1996 स्टैंडर्ड मैथड्स ऑफ एनालिसिस ऑफ वाटर एंड वेस्ट वाटर
(2) बीआईएस 1991 इंडियन स्टैंडर्ड स्पेसिफिकेशन ऑफ ड्रिंकिंग वाटर बीएस 10500
(3) चड्ढा डीके एंड सिन्हा रे एसपी 1999 हाई इन्सिडेंस ऑफ आर्सेनिक इन ग्राउंड वाटर इन वेस्ट बंगाल
(4) सीजीडब्ल्यूबी रिपोर्ट 2002 आर्सेनिक हैजार्डस इन ग्राउंड वाटर इन बंगाल बेसिन (वेस्ट बंगाल इंडिया एंड बंगलादेश)

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

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गुजरात: नैनो से कोई करोड़पति, कोई भूख से बेहाल

 शनिवार, 26 अप्रैल, 2014 को 16:20 IST तक के समाचार

गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
"कौन सा विकास हुआ है? किसके लिए विकास हुआ है?"
गुजरात की पक्की सड़क पर, तपती गर्मी में टूटी चप्पल पहने, ट्रैक्टर की ओट में कंधे पर फावड़ा लिए खड़े मज़दूर, मुझसे ये सरल सा सवाल पूछते हैं.
हम हैं गुजरात के साणंद में. वही तालुका जहां टाटा कंपनी ने नैनो कार का प्लांट लगाया है. यहां क़रीब तीन हज़ार एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण हुआ है और बड़ी-बड़ी फैक्ट्री बन गई हैं.
एक बीघा ज़मीन के लिए मुआवज़े के तौर पर 28 लाख रुपए तक दिए गए हैं और आसपास के गांवों में क़रीब 1,500 ज़मींदार रातोंरात करोड़पति बन गए हैं.
ये सड़क साणंद शहर से ऐसे ही एक गांव की ओर जाती है. पर वहां पहुंचने से पहले ही बीच में विकास का ये सवाल खड़ा हो गया है.

भूमिहीनों का दर्द

आखिरकार सवाल पूछने वाले हिम्मत भाई गाग्जी भाई पढार ख़ुद ही जवाब देते हैं, "विकास तो कुछ ही लोगों के लिए हुआ है. जिनके पास ज़मीन थी, उन्हें मुआवज़ा मिल गया. हम आदिवासी तो औरों के खेत पर काम करने वाले किसान मज़दूर हैं. ज़मीन गई तो हमारा रोज़गार भी चला गया."
गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
इस इलाके में हिम्मत भाई जैसे क़रीब 15,000 भूमिहीन किसान हैं जो दूसरों की ज़मीन पर काम करके जीविका चलाते थे.
अब हिम्मत भाई पिछले दो साल से दिहाड़ी मज़दूरी कर रहे हैं. बताते हैं कि शहर तो लगभग रोज़ जाते हैं लेकिन काम महीने में दस या बारह दिन ही मिलता है. वो भी सड़क बनाने, मलबा ढोने या गटर साफ़ करने जैसा.
ये काम मुश्किल भी है और पसंद का भी नहीं. हिम्मत भाई कहते हैं, "पहले खेत पर काम करते थे तो साल के पैसे बंधे होते थे. ज़मींदार फ़सल का एक-तिहाई या एक-चौथाई हिस्सा उनको देता था. अब तो कल का भी नहीं पता."
पर कुंहार गांव के अंदर कुछ और ही मंज़र है. यहां मायूसी नहीं, किसानों की आवाज़ में चहक सुनाई देती है. नैनो का नाम लेते ही आंखों में चमक है और चेहरे पर मुस्कान आ जाती है.

बदल गई ज़िंदगी

45 साल के भरत भाई पोपट भाई बताते हैं, "नैनो प्लांट बना तो मेरी ज़िन्दगी ही बदल गई. सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं ऐसा घर बना पाऊंगा. ट्रैक्टर भी ख़रीद लिया. अब ज़िन्दगी बहुत मज़े में चल रही है."
गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
जब नैनो और फ़ोर्ड कंपनी के प्लांट के लिए साल 2011 में भूमि अधिग्रहण हुआ तो उनकी ज़मीन भी ली गई. क़रीब छह बीघा ज़मीन के लिए उन्हें 28 लाख रुपये प्रति बीघा के हिसाब से पैसे मिले.
अब उनके पास दो माले का सुंदर घर है, ट्रैक्टर है. एक दूसरे गांव में एक करोड़ रुपये देकर ज़मीन उधार पर ली है जहां खेती करवाते हैं.
उनकी पत्नी जशीबेन के हाथ और कान सोने के ज़ेवरों से सजे हैं. हालांकि वो इससे ख़ुश नहीं.
जशीबेन कहती हैं, "ज़मीन तो ज़रूरी है. उसी से हर साल पैसा आता है. बाप-दादा की ज़मीन रहती है तो ज़मींदार कहलाते हैं, इज़्ज़त रहती है. अब उधार की ज़मीन न जाने कब वापस हो जाए फिर बच्चों के जीवन का क्या आधार है? वो किस गांव के कहलाएंगे? आगे जाकर कहीं मज़दूर न बनना पड़े उन्हें?"

क्या खोया-क्या पाया?

गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
आखिर फ़ायदा उनका हुआ जिनके पास ज़मीन थी, भूमिहीन किसान मज़दूर ही तो बेरोज़गार हुए.
गुजरात में पिछले एक दशक के दौरान तेज़ी से औद्योगिक विकास हुआ है़, जिसके लिए हज़ारों एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया.
ज़्यादातर इलाकों में किसानों ने इसका विरोध भी किया पर आखिरकार ज़मीन दे दी. साणंद में ज़मीन के लिए अच्छा मुआवज़ा मिला लेकिन कई इलाकों में ऐसा नहीं हुआ.
फिर भी साणंद के ज़मींदार वर्तमान में आई चमक में अपने भविष्य को आंकने में डरते दिखे. ऐसा हो भी क्यों ना. उनके बड़े-बड़े ख़ूबसूरत मकानों से दूर गांव के सिरे पर मज़दूर किसानों की छोटी झोंपड़ियां हैं.
हिम्मत भाई की पत्नी और बच्चे भी वहीं रहते हैं. दस लोगों का परिवार है और एक छोटी सी झोंपड़ी.

बरक़त से तंगी

गुजरात के साणंद में विकास की तस्वीर
हिम्मत भाई की पत्नी कहती हैं, "जब खेत पर काम करते थे तो ज़मींदार अनाज, पानी, लकड़ी सब देता था. और आमदनी अलग थी. अब तो खाने के लिए भी उधार लेकर दुकान से ख़रीदना पड़ता है. पिछले एक हफ़्ते से कोई काम नहीं मिला है तो आप ही सोचो कैसे चलेगा."
हिम्मत भाई का परिवार यहां से चालीस किलोमीटर दूर नानी कथकी गांव का रहने वाला है. रोज़गार की तलाश पंद्रह साल पहले उन्हें इस कुंहार गांव में लाई थी.
अब शहर जाना पड़ रहा है. पर ये सफ़र बरक़त की ओर नहीं बल्कि तंगी की ओर ले गया है.
नया उद्योग उनके जैसे अनपढ़ किसानों के लिए कोई उम्मीद नहीं लाया है.
हिम्मत भाई के मुताबिक, "मोदी जी ने ज़मीन तो ले ली और जो प्लांट लगे वहां हमारे लिए अच्छा काम नहीं है. तकनीकी समझ वाले शहरी लोग ही वहां नौकरी पाते हैं. हम तो दिहाड़ी मज़दूर बनकर रह गए हैं."
हिम्मत भाई से विदा लेकर मैं फिर गांव की टूटी सड़क पर चल पड़ती हूं. कभी पीने का पानी भरने के लिए सर पर मटकी रखे महिलाएं दिखती हैं तो कभी शौच करने के लिए हाथ में लोटा लिए कोई सामने से गुज़र जाता है.
सड़क के उस ओर हरियाली के पार औद्योगिक क्षेत्र की पक्की सड़कें और ऊंची इमारतें दिखाई देती हैं. विकास का वो वायदा जो किसी के चेहरे की मुस्कान बना है और किसी के माथे की सिलवट.

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

आधार कार्ड-एक विशिष्ट घोटाला

आधार कार्ड-एक विशिष्ट घोटाला digg EmailShare Sharebar यूरोप और अमेरिका सहित हर विकसित देश ने बायोमैट्रिक डाटा पर आधारित विशिष्ट परिचय पत्र देने का ़फैसला किया, लेकिन जैसे ही उन्हें ख़तरे का आभास हुआ, उन्होंने यह प्रोजेक्ट बीच में ही रोक दिया. भारत एक ऐसा अनोखा देश है, जहां ग़रीबों को फ़ायदा पहुंचाने के नाम पर यह प्रोजेक्ट आज भी जारी है. यहां कोर्ट से लेकर संसद समिति तक चीख-चीखकर कह रहे हैं कि आधार प्रोजेक्ट बंद कर देना चाहिए, लेकिन सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंगती. सरकार से जब पूछा जाता है कि इस प्रोजेक्ट में कुल कितना खर्च होगा, तो वह कहती है, पता नहीं. सरकार से जब पूछा जाता है कि लोगों ने जो बायोमैट्रिक डाटा जमा कराए हैं, उन्हें किन-किन कंपनियों और देशों के साथ शेयर किया गया है, तो वह कहती है कि पता नहीं. आधार कार्ड, जिसके बारे में यूपीए सरकार ने बड़े-बड़े सपने दिखाए थे, वह एक घोटाले के रूप में विकसित होता जा रहा है, जो देश के कई विशिष्ट लोगों की इज्जत तार-तार कर देगा. p-1Hकोई साधारण व्यक्ति झूठ बोलकर, झांसा देकर पैसे की हेराफेरी करता है, तो अदालत उसे सजा देती है. देश में कई ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें धारा 420 के तहत सौ या पांच सौ रुपये की हेराफेरी में कई लोग बरसों से जेल में बंद हैं. कई सरकारी अधिकारी जनता के पैसे का उलट-फेर या गलत इस्तेमाल करने के जुर्म में सजा भुगत रहे हैं. देश का बड़ा उद्योगपति हो या प्रधानमंत्री का दोस्त, चाहे वह कोई भी हो, अगर देश की जनता को धोखा देकर जनता के ही पैसे को बर्बाद कर देता है, तो क्या उसे सजा नहीं मिलनी चाहिए? अगर जनता के पैसे का गलत इस्तेमाल जुर्म है, तो बंगलुरू से कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नंदन नीलेकणी को अब तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया है? उनके ख़िलाफ़ धोखाधड़ी का मुकदमा क्यों नहीं चला? क्या हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां अगर कम पैसे की धोखाधड़ी हो, धोखाधड़ी करने वाला कम रसूख वाला हो, तो उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी और अगर धोखाधड़ी करने वाला रसूख वाला हो, प्रधानमंत्री का दोस्त हो, मीडिया वाले, टीवी एंकर और संपादक जिसे सलाम ठोंके, तो वह झांसा देकर सरकार के हजारों करोड़ रुपये बर्बाद भी कर दे, फिर भी उसके ख़िलाफ़ एक भी आवाज़ नहीं उठेगी? नंदन नीलेकणी देश में आधार कार्ड बनाने वाली योजना के जनक हैं. उन्होंने झांसा देकर यह योजना देश पर लादी है. वह देश के पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जो बिना शपथ लिए कैबिनेट मंत्री के बराबर ओहदे पर मौजूद रहे. वह आधार कार्ड बनाने वाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख रहे. फिलहाल वह बंगलुरू से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी बनकर. उनके प्रत्याशी बनने के बाद जब हंगामा हुआ, तो उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस बीच कुछ ऐसे आदेश जारी किए हैं, जिनसे उनकी परेशानी बढ़ गई है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आधार कार्ड अनिवार्य नहीं है और आधार कार्ड को सबके लिए अनिवार्य बनाने का आदेश सरकार तुरंत वापस ले. न्यायालय ने भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण को भी निर्देश दिया कि वह बायोमैट्रिक डाटा किसी दूसरी संस्था को नहीं दे. सुप्रीम कोर्ट ने बाम्बे उच्च न्यायालय के उस ़फैसले पर भी रोक लगा दी, जिसके तहत आतंकवाद और बलात्कार के मामलों में यह डाटा साझा करने की छूट दी गई है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि आधार कार्ड न होने से किसी भी व्यक्ति को सरकारी सेवा हासिल करने से वंचित न किया जाए. इसका मतलब यह है कि चाहे रसोई गैस हो या कोई और सेवा, अब बिना आधार कार्ड के भी आप इन सेवाओं को ले सकते हैं. वैसे आधार कार्ड को लेकर एक मामला कोर्ट में चल रहा है, जिसके बाद सरकार एवं नंदन नीलेकणी की और भी किरकिरी हो सकती है. आधार कार्ड विवादों में इसलिए है, क्योंकि चौथी दुनिया साप्ताहिक अख़बार ने सबसे पहले आधार कार्ड से होने वाले ख़तरों का खुलासा किया था. हमने यह खुलासा किया था कि किस तरह आधार कार्ड सीआईए और अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों के पास हमारी और आपकी सारी जानकारी पहुंचाने की साजिश है. समय के साथ-साथ चौथी दुनिया की सारी बातों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग रही है. सूचना का अधिकार क़ानून के तहत निकली एक जानकारी के मुताबिक, यह बताया गया है कि बायोमैट्रिक सिस्टम 100 फ़ीसद एक्यूरेट नहीं है और दूसरी बात यह कि आधार कार्ड की विशिष्टता भी काल्पनिक है. यह जानकारी योजना आयोग के साथ करार करने वाली एर्नेस्ट एंड यंग प्राइवेट लिमिटेड और नेटमैजिक सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड ने दी है. इस सूचना के साथ ही आधार कार्ड का आधार ख़त्म हो जाता है. इस कार्ड को लेकर नंदन नीलेकणी ने जो बड़े-बड़े दावे किए थे, वे सब झूठे साबित होते हैं. नंदन नीलेकणी ने इस योजना की शुरुआत में दावा किया था कि यह अब तक का सबसे सटीक व अति विशिष्ट कार्ड है और इसकी नकल नहीं की जा सकती. नंदन नीलेकणी को यह बताना चाहिए कि उन्होंने देश को गुमराह क्यों किया? केंद्र सरकार ने जब आधार कार्ड की योजना लॉन्च की, तो उसकी शान में जमकर कसीदे काढ़े गए थे. बड़े-बड़े दावे हुए कि आधार कार्ड बनने के बाद लोगों को तरह-तरह के पहचान पत्र दिखाने के झंझट से आज़ादी मिल जाएगी, लेकिन यूपीए सरकार के इस ड्रीम प्रोजेक्ट में धांधली चरम पर है. चंद रुपये खर्च करके कोई भी आधार कार्ड बनवा सकता है. हाल में एक साइट के स्टिंग ऑपरेशन के जरिये यह खुलासा हुआ है कि अवैध बांग्लादेशी चंद रुपये देकर आसानी से आधार कार्ड बनवा लेते हैं और भारत के मान्यता प्राप्त नागरिक बन जाते हैं और फिर मतदान में हिस्सा लेने के लिए वैध हो जाते हैं. जबकि यूपीए सरकार के मंत्री और इस प्रोजेक्ट के सर्वेसर्वा नंदन नीलेकणी ने भरोसा दिलाया था कि कोई भी अवैध प्रवासी हमारे देश का फर्जी पहचान पत्र नहीं बनवा पाएगा और न उसका कोई डुप्लीकेट बन सकता है. आधार कार्ड का प्रोजेक्ट पूरी तरह एक घोटाले की शक्ल ले चुका है. सुप्रीम कोर्ट को अब ़फैसला करना होगा कि क्या नंदन नीलेकणी पर कोई आपराधिक मामला बनता है या नहीं. यह एक घोटाला इसलिए भी है, क्योंकि अब आधार कार्ड का तकनीकी और क़ानूनी आधार ही सवालों के घेरे में है. इससे जुड़ी संस्थाओं ने तकनीकी खामियां मानकर उन सारे दावों की पोल खोल दी, जो नंदन नीलेकणी ने अब तक बेचते आए हैं. इस खुलासे के बाद सरकार और प्राधिकरण को सुप्रीम कोर्ट में जवाब देना मुश्किल हो जाएगा. हमें यह याद रखना चाहिए कि आधार कार्ड का कोई क़ानूनी आधार ही नहीं है. यह देश का अकेला ऐसा कार्यक्रम है, जिसे संसद में पेश करने से पहले ही लागू करा दिया गया. असलियत यह है कि यूपीए सरकार इस क़ानून को संसद में पास भी नहीं करा सकती है, क्योंकि संसदीय कमेटी ने इस योजना पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. संसदीय कमेटी ने कहा है कि आधार योजना तर्कसंगत नहीं है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में एक केस चल रहा है. आधार के ख़िलाफ़ केस करने वाले स्वयं कर्नाटक हाईकोर्ट के जज रहे हैं. जस्टिस के एस पुट्टास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पिटीशन दायर की है. इस पिटीशन पर देश के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई जजों ने सहमति दिखाई है. सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि देश के किस क़ानून के आधार पर लोगों के बायोमैट्रिक्स को एकत्र किया जा रहा है? देश में मौजूद सारे क़ानून खंगालने के बाद पता चलता है कि ऐसा क़ानून स़िर्फ जेल मैन्युअल में है. यह स़िर्फ ़कैदियों का लिया जा सकता है और इसमें भी एक शर्त है कि जिस दिन वह ़कैदी रिहा होगा, उसके बायोमैट्रिक्स से जुड़ी फाइलें जला दी जाएंगी, लेकिन इस योजना के तहत सरकार लोगों की सारी जानकारियां एकत्र कर रही है और विदेश भेजने पर तुली है. सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दे दिया है कि प्राधिकरण लोगों के बायोमैट्रिक डाटा किसी को नहीं दे सकता है. यह जनता की अमानत है और इसे दूसरी एजेंसियों के साथ शेयर करना मौलिक अधिकारों का हनन है. अब यहां एक टेक्निकल सवाल उठता है. प्राधिकरण ने तो लोगों की सारी बायोमैट्रिक जानकारियां स़िर्फ शेयर नहीं की हैं, बल्कि उन्हें विदेशी कंपनियों के सुपुर्द कर दिया है. यही आधार कार्ड के काम करने का तरीका है. जितनी भी बायोमैट्रिक जानकारियां हैं, उनकी देखरेख और ऑपरेशन उन कंपनियों के हाथों में है, जिनका रिश्ता ऐसे देशों से है, जो जासूसी कराने के लिए कुख्यात हैं और उन कंपनियों के हाथों में है, जिन्हें विदेशी खुफिया एजेंसियों के रिटायर्ड अधिकारी चलाते हैं. इसका क्या मतलब है? क्या हम जानबूझ कर अमेरिका और विदेशी एजेंसियों के हाथों अपने देश को ख़तरे में डाल रहे हैं? हाल के दिनों में एक खुलासा हुआ था कि अमेरिका की सुरक्षा एजेंसी एनएसए जिन देशों के इंटरनेट और फोन रिकॉर्ड इकट्ठा कर रही है, उनमें पहला नंबर भारत का है. भारत का टेलीफोन और इंटरनेट डाटा इकट्ठा करने के लिए एनएसए ने अपने दो कार्यक्रमों का सहारा लिया है. मजेदार बात यह है कि अमेरिकी सरकार के खुफिया निदेशालय ने भी एक तरह से जासूसी कराने के आरोपों को स्वीकार किया था. निदेशालय ने कहा था कि वह सार्वजनिक तौर पर इस बात का जवाब नहीं देना चाहता, क्योंकि यह उसकी खुफिया नीति का ही एक हिस्सा है. कांग्रेस सरकार को अमेरिका के इस दुस्साहस, ऐसी निगरानी और जासूसी के ख़िलाफ़ कड़ा विरोध जताना चाहिए था, लेकिन हुआ ठीक उल्टा. विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद विरोध करने की बजाय अमेरिकी हरकत को सही ठहराने के लिए उल्टी-पुल्टी दलीलें देने लग गए. सलमान खुर्शीद ने कहा कि यह जासूसी नहीं है, यह तो महज कंप्यूटर अध्ययन और कॉलों के पैटर्न का विश्‍लेषण है. अगर यह जासूसी नहीं है, तो सलमान खुर्शीद को बताना चाहिए कि जासूसी क्या होती है? वैसे अमेरिका के जासूसी प्रकरण पर उसकी नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) के साथ काम करने वाले एडवर्ड स्नोडेन ने हाल में कई खुलासे किए. उन्होंने बताया कि आज के इन्फारमेंशन वारफेयर में भारत कई देशों के निशाने पर है. इसलिए भारत के योजना आयोग ने एर्नेस्ट एंड यंग, साफ्रान ग्रुप, एसेन्चर, इन-क्यू-टेल एवं मोंगो डीबी जैसी कंपनियों से करार करके देश की सुरक्षा और लोगों के मौलिक अधिकारों के साथ मजाक किया है. ये कंपनियां उन देशों की हैं, जिनका गठजोड़ पूरी दुनिया पर निगरानी के लिए नेटवर्क तैयार कर रहा है. स्नोडेन ने ही अमेरिकी और ब्रिटिश जासूसी कार्यक्रम का सनसनीखेज ब्योरा मीडिया को लीक किया था. अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी एनएसए द्वारा संचालित एक्स की स्कोर जासूसी कार्यक्रम 2008 की एक प्रशिक्षण सामग्री में वह नक्शा भी शामिल था, जिसमें दुनिया भर में लगे सर्वर का ब्योरा था. उस नक्शे के मुताबिक, उनमें से एक अमेरिकी जासूसी सर्वर भारत की राजधानी नई दिल्ली के किसी समीपवर्ती इलाके में लगा हुआ प्रतीत होता है. समझने वाली बात यह है कि जिन कंपनियों को यूआईडी ने हमारी जानकारियां सुपुर्द की हैं, वे वही कंपनियां हैं, जो दुनिया भर में निगरानी प्रणाली स्थापित करने में माहिर मानी जाती हैं. दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद और भारत की आज़ादी से पहले एक नेटवर्क विकसित हुआ था. इसके गठन का एकमात्र उद्देश्य दूसरे देशों की निगरानी करना था. इसमें अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी, इंग्लैंड के गवर्नमेंट कम्युनिकेशन हेडक्वाटर्स, कनाडा की कम्युनिकेशन सिक्योरिटी इस्टैब्लिशमेंट, ऑस्ट्रेलिया का सिग्नल डायरेक्टोरेट और न्यूजीलैंड का गवर्नमेंट कम्युनिकेशन सिक्योरिटी ब्यूरो आदि शामिल हैं. अब इस गुट में कई और देश भी शामिल हो चुके हैं. ऐसे माहौल में भारत को स्वयं को सुरक्षित करने के लिए क़दम उठाने चाहिए, लेकिन हम बिल्कुल उल्टे ़फैसले लेते हैं. ऐसी क्या वजह है कि सरकार देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने पर आमादा है? जबकि संसदीय कमेटी ने भी इसका विरोध किया है. यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति ने विशिष्ट पहचान अंक जैसे ख़ुफ़िया उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नज़र रखने और उनके जैवमापक रिकॉर्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत की और इसे बंद करने का सुझाव दिया. फिर भी सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. सवाल तो यह पूछा जाना चाहिए कि क्या अब तक एकत्र किए गए बायोमैट्रिक डाटा को प्राधिकरण ने किसी विदेशी कंपनी के साथ शेयर किया है या दिया है? अगर ये जानकारियां विदेशी एजेंसियों के हाथ लग चुकी हैं, तो इसका मतलब यह है कि हम उनकी निगरानी में आ चुके हैं और दूसरा यह कि सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का कोई मतलब नहीं है, जिसमें उसने कहा कि ये जानकारियां किसी के साथ शेयर नहीं की जा सकती हैं. समझने वाली बात यह है कि ये कंपनियां कई देशों में सक्रिय हैं. इनके पास वे तमाम तकनीक उपलब्ध हैं, जिससे ये किसी भी देश की इंटरनेट कंपनियों के डाटा एकत्र कर सकती हैं, सर्वर हैक कर सकती हैं, फोन सुन सकती हैं. इन कंपनियों की पहुंच कई देशों में है और ये किस तरह और किस स्तर पर काम कर सकती हैं, इसी का खुलासा स्नोडेन ने किया था. विदेशी एजेंसियों की कारगुजारी और आधार कार्ड योजना की गड़बड़ियां एक ख़तरे को जन्म देती हैं. उम्मीद यही करना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में 28 अप्रैल, 2014 को जब अगली सुनवाई होगी, तो अदालत इन ख़तरों पर भी ध्यान देगी. समझने वाली बात यह है कि देश में एक विशिष्ट पहचान पत्र के लिए विप्रो नामक कंपनी ने एक दस्तावेज तैयार किया, इसे योजना आयोग के पास जमा किया गया. इस दस्तावेज का नाम है स्ट्रेटिजिक विजन ऑन द यूआईडीएआई प्रोजेक्ट. मतलब यह कि यूआईडी की सारी दलीलें, योजना और उसका दर्शन इस दस्तावेज में है. बताया जाता है कि यह दस्तावेज अब गायब हो गया है. विप्रो ने यूआईडी की ज़रूरत को लेकर 15 पेजों का एक और दस्तावेज तैयार किया, जिसका शीर्षक है, डज इंडिया नीड ए यूनिक आइडेंटिटी नंबर. इस दस्तावेज में यूआईडी की ज़रूरत को समझाने के लिए विप्रो ने ब्रिटेन का उदाहरण दिया. इस प्रोजेक्ट को इसी दलील पर हरी झंडी दी गई थी. हैरानी की बात यह है कि ब्रिटेन की सरकार ने अपनी योजना बंद कर दी. वहां जो जांच हुई, उससे यही साबित हुआ कि यह कार्ड ख़तरनाक है, इससे नागरिकों की प्राइवेसी का हनन होगा और आम जनता जासूसी की शिकार हो सकती है. अब सवाल यह उठता है कि जब इस योजना की पृष्ठभूमि ही आधारहीन और दर्शनविहीन हो गई, तो फिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह इसे लागू करने के लिए सारे नियम-क़ानूनों और विरोधों को दरकिनार करने पर आमादा है? जिस तरह फाइल गायब हुई, उसी तरह अब नंदन नीलेकणी भी गायब हो गए हैं. वह अब राजनेता बन गए हैं, ताकि आगे जब इस घोटाले के बारे में बहस हो, तो पूरा मामला राजनीतिक हो जाए. अगर नई सरकार आती है, तो उसे यूआईडी पर पुनर्विचार करना होगा. सुप्रीम कोर्ट के ़फैसले के अनुसार सभी एकत्र बायोमैट्रिक जानकारियां सुरक्षित करनी पड़ेंगी. विदेशी कंपनियों के साथ कौन-कौन से खुफिया करार किए गए, उन्हें जनता को बताना पड़ेगा. कितना पैसा बर्बाद हुआ, यह भी जनता को पता चलना चाहिए और उसे वापस लाने के लिए कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि भविष्य में कोई निजी कंपनी का मालिक और मीडिया द्वारा बनाया गया महापुरुष देश की जनता और सरकार को मूर्ख न बना सके. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/04/aadhaar-card-ek-vishist-ghotala.html#sthash.mOH7fINF.dpuf

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

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क़तार के आख़िरी: फ़ौज के ख़िलाफ़ खड़ी मणिपुर की विधवाएं

 गुरुवार, 17 अप्रैल, 2014 को 08:13 IST तक के समाचार

क़तार के आख़िरी. मणिपुर की एडिना. एडिना के मुताबिक उनके पति की मौत सुरक्षा बलों की गोली से हुई.
शादी के कुछ ही साल बाद पति की अचानक मौत, कंधों पर बच्चों की ज़िम्मेदारी और माथे पर अलगाववादी की पत्नी होने का कलंक.
मणिपुर में ऐसी सैकड़ों विधवाएँ हैं. 25 से 35 साल की उम्र की वो महिलाएँ जिनका आरोप है कि सेना और पुलिस ने उनके बेकसूर पति को अलगाववादी बताकर फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मार दिया.
एडिना 28 साल की थीं जब उनके पति की मौत हो गई. उन्होंने लव मैरिज की थी.
तब शादी को महज़ छह साल हुए थे. बड़ा बेटा अविनाश और छोटी बेटी एंजलीना स्कूल जाते थे.
एडिना के पति इंफ़ाल में ऑटो चलाते थे. एडिना बताती हैं कि उन्हें टीवी पर आ रही ख़बरों से पता चला कि उनके पति की मौत हो गई है.
उनके मुताबिक़ उनके पति को सुरक्षा बलों ने गोली मारी थी. छह साल बीत गए हैं पर दर्द अब भी ताज़ा है. मुझसे बात करते-करते एडिना रो पड़ती हैं.
उन्होंने कहा, “मैं उनके बारे में और नहीं सोचना चाहती. बहुत दर्द होता है. उनकी मौत के सदमे की वजह से मुझे लकवा मार गया था. मुझे ठीक होने में एक साल लग गया, अब मैं अपने बच्चों के लिए हिम्मती होना चाहती हूँ.”

अलगाववादी का कलंक

एडिना कहती हैं कि उनके पति एक ज़िम्मेदार बेटा, पति और पिता थे, उनका किसी अलगाववादी गुट से कोई संबंध नहीं था.
क़तार के आख़िरी. मणिपुर की एडिना के पति . एडिना के मुताबिक उनके पति की मौत सुरक्षा बलों की गोली से हुई.

सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून (आफ़्स्पा)

राज्य में सक्रिय 25 अलगाववादी गुटों से निपटने के लिए मणिपुर में कई दशकों से सेना तैनात है. सुरक्षाबलों को सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून के इस्तेमाल की छूट है, जिसके तहत उनके ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि इस क़ानून की आड़ में कई मासूम फर्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गए हैं.
लेकिन पति की मौत का दर्द एक तरफ़ और ज़िंदगी जीने की चुनौतियाँ अलग. एडिना पर अपने दो बच्चों को बड़ा करने की ज़िम्मेदारी है.
वो बताती हैं कि उनके पति पर अलगाववादी होने की तोहमत लगने की वजह से उन्हें विधवा पेंशन जैसी सरकारी योजनाओं का फ़ायदा नहीं मिला.
अब अपने मां-बाप और भाई की मदद से एक छोटी सी दुकान में पान, नमकीन, बिस्कुट और जूस जैसी चीज़ें बेचती हैं.
मोहब्बत की नींव पर बसाया उनका आशियाना जो उजड़ा है तो अकेलेपन के बादल छंटने का नाम ही नहीं लेते.
एडिना मुझसे कहती हैं, “मैं दोबारा शादी करना चाहती हूँ पर मैं विधवा हूं तो मेरा अच्छे कपड़ा पहनना भी लोगों को बुरा लगता है, दोबारा शादी तो दूर की बात है. महिलाओं के समान अधिकार सब किताबी बातें हैं, असलियत कुछ और ही है.”

आफ़स्पा का विरोध

मणिपुर में आफ़स्पा कानून के जरिए सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार दिए गए हैं.

इरोम शर्मिला –आयरन लेडी ऑफ़ मणिपुर

ऑफ़्सपा के विरोध का सबसे जाना-पहचाना चेहरा हैं इरोम शर्मिला. साल 2000 में 28 साल की इरोम शर्मिला ने इस क़ानून को मणिपुर से हटाने की मांग के साथ अनशन शुरू किया. उन्हें तब आत्महत्या की कोशिश के आरोप में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था. तबसे इरोम न्यायिक हिरासत में हैं और उन्हें नाक में पाइप के ज़रिए जबरन खाना खिलाया जा रहा है. 14 साल से इरोम की मांग वहीं है और क़ानून भी अपनी जगह है.
मणिपुर में 25 से ज़्यादा अलगाववादी गुट सक्रिय हैं. इनसे निबटने के लिए तैनात सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार दिए गए हैं और प्रदेश में कई दशकों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून यानी आफ़स्पा लागू है.
इसके तहत सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि इस क़ानून की आड़ में कई मासूम फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गए हैं.
मणिपुर से कांग्रेस के सांसद डॉक्टर मेन्या मानते हैं कि इस क़ानून का दुरुपयोग हुआ है और कई आयोग इसे मणिपुर से हटाने की सिफ़ारिश कर चुके हैं, डॉक्टर मान्या की निजी राय में इस क़ानून को अब तक हटा दिया जाना चाहिए था.
डॉक्टर मेन्या के मुताबिक़ इस व़क्त ज़रूरत है मणिपुर में सुशासन की ताकि क़ानून व्यवस्था सुधरे और सेना की मदद की ज़रूरत कम हो.
मणिपुर में एडिना और दूसरी विधावाओं का संघर्ष
ये और बात है कि लंबे समय से मणिपुर में और केंद्र में कांग्रेस की सरकार है, पर न हालात ऐसे हो पाए हैं कि सेना की तैनाती हटाई जाए और न ही सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून को हटाने पर सहमति बन पाई है.
आफ़स्पा का समर्थन करने वालों का तर्क है कि सेना प्रभावी तरीक़े से अपना काम कर सके इसके लिए ज़रूरी है कि उन पर नागरिक क़ानूनों की बंदिश न हो क्योंकि सेना वैसे ही इलाक़ों में तैनात की जाती है जहाँ युद्ध जैसी स्थिति हो.

न्याय की उम्मीद

डॉक्टर मेन्या, कांग्रेस सांसद, मणिपुर

"मेरी निजी राय में यह सख़्त क़ानून है और इसे मणिपुर से हटाया जाना चाहिए. कई आयोग भी इसे हटाने की सिफ़ारिश कर चुके हैं. रक्षा मंत्रालय का मानना है कि सेना को शहरी इलाक़ों में काम करने का तजुर्बा नहीं होता, इसलिए उन्हें विशेष सुरक्षा की ज़रूरत होती है और यह क़ानून उन इलाक़ों में अनिवार्य है जहां सेना तैनात है. मेरे ख़याल से इस व़क्त सबसे ज़रूरी है कि मणिपुर में प्रशासन बेहतर हो और क़ानून व्यवस्था सुधरे, ताकि सेना की ज़रूरत कम हो जाए."
इस सबके बीच मणिपुर की विधवाओं का संघर्ष जारी है. एडिना और उसके जैसी कई युवा विधवाएँ और कुछ ऐसी महिलाएँ एकजुट हुई हैं जिन्होंने अपने पतियों और बेटों को कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में खोया है.
एक दूसरे के साथ हिम्मत जुटाकर और मानवाधिकार संगठनों की मदद से अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से मणिपुर में मुठभेड़ के 1500 से ज़्यादा मामलों की जाँच की माँग की है.
इन्हीं में से एक नितान कहती हैं कि संगठन बनने से ज़िंदगी को न सिर्फ़ एक नई दिशा और उम्मीद मिली है बल्कि अंदर से टूटा आत्मविश्वास भी जुड़ने लगा है.
पर न्याय की उम्मीद करने वाली ये महिलाएं राजनेताओं से बिल्कुल नाउम्मीद हैं.
नितान कहती हैं कि वोट देने जाएँगी मगर बदलाव की उम्मीद के बिना, “पहले तो सब नेता कहते हैं कि मणिपुर से आफ़स्पा क़ानून हटा देंगे लेकिन जीतने के बाद कोई नहीं कहता, इसलिए बिल्कुल मन नहीं करता वोट देने का.”
एडिना भी नितान से सहमत हैं. कहती हैं कि राजनीति से ज़्यादा उन्हें न्यायालय पर ही भरोसा है.
इनके संगठन की एक बैठक में जब मैं और सदस्यों से मिली तो कइयों ने कहा कि वे अभी तक तय नहीं कर पाई हैं कि वोट डाले भी या नहीं, फिर कुछ ने कहा कि अब न्याय के लिए आवाज़ उठाने की हिम्मत की है तो वोट भी ज़ाया नहीं होने देंगी.
इनमें से कई महिलाएँ अपनी नाराज़गी और हताशा घर बैठकर नहीं, बल्कि इस बार नोटा का बटन दबाकर ज़ाहिर करने की सोच रही हैं.

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

किसका देश, किसका लोकतंत्र?

किसका देश, किसका लोकतंत्र?

 सोमवार, 7 अप्रैल, 2014 को 07:46 IST तक के समाचार
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16 मई को जब बहुत सारी मशीनें ताबड़तोड़ रफ़्तार से 120 करोड़ लोगों के देश की मर्ज़ी को गिन रही होंगी, पूरी दुनिया दम साधकर देखेगी कि शह और मात की बिसात किस तरह बिछने वाली है.
भारत की राजनीति नए सिरे से अपने पत्ते फेंटकर एक नए सिरे से तुरुप के पत्ते और जोकर तय करेगी, दिल्ली के नये दरबार के लिए.
पर देश दिल्ली से बड़ा है और लोकतंत्र संसद और सरकार से.
बहुत सारा हिंदुस्तान हाशिए पर और हाशिए से बाहर खड़ा है, महानगरों और शहरों और मीडिया की चकाचौंध, शोर से बाहर, ग्रोथ एंड डेवलपमेंट स्टोरी से उपेक्षित, संविधान से उपेक्षित और नागरिक अधिकारों से बेदखल, शोषण का शिकार और बदहाली का मारा.
आपके और मेरे फ़ेसबुक फ़्रेंड्स की लिस्ट और सियासी पोस्टरों पर छपे चेहरों, प्राइमटाइम बहसों की नूराकुश्ती से दूर और उदासीन. क़तार के आख़िरी लोग, जिनके बारे में आख़िरी बार साफ़-साफ़ जिसने कुछ कहा था, उसका नाम महात्मा गांधी था.
हालांकि ये भी भारत है. भारतवासी यहां भी हैं. जिनके अपने कथानक हैं, संघर्ष की अपनी गाथाएं.

कहानियां और चुनौतियां

इरोम शर्मिला, जो पिछले 13 साल से अनशन पर हैं. जैसे सोनी सोरी, जो पुलिस और माओवादी क्रूरता, दोनों का शिकार होने के बाद भी चुनावी मैदान में है. जैसे हेमंत गजभिए जिन्हें अपने मत का अधिकार तो इस्तेमाल करना है, पर किसी को जिताने के लिए नहीं.
जैसे बस्तर के जंगल से बेदखल आंध्र में रह रहे आदिवासी, जिन्हें न हैंडपंप मिलेगा न राशन कार्ड न वोटर लिस्ट में नाम. जैसे मणिपुर की विधवा सारा जो उस क़ानून के ख़िलाफ़ फौज के सामने खड़ी है, जिसके कारण उनके ऑटो रिक्शा ड्राइवर पति को अलगाववादी बताकर गोलियों से उड़ा दिया गया.
जैसे करगिल के उस गांव के लोग, जिन्होंने पिछली जंग में सबसे ज़्यादा गोलीबारी झेली और फिर भुला दिए गए. जैसे हरियाणा के नारनौल में रत्ना जिसे शादी के लिए ख़रीदकर त्रिपुरा से लाया गया. जैसे ओडिशा के कालाहांडी के कलिंग मांझी का गांव, जो हर साल सूखे, अकाल और भूख से लड़ता है और ज़िंदा रहता है.
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जैसे नियमगिरि के आदिवासी बाड़ीपीड़ी जिन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता को अपनी पहाड़ी पर क़ब्ज़ा जमाने से नाकामयाब तो कर दिया, पर क्या वे बाक़ी चुनौतियों से भी आज़ाद हो सके. जैसे विदर्भ की विधवा इंदिरा केलकर जो क़र्ज़ में डूबे किसान पति की आत्महत्या के बाद ज़िंदगी की दूसरी ज़िम्मेदारियां ढो रही हैं.
जैसे देश के सबसे सूखे गांव की उर्मिला, जिनके दिन का बड़ा हिस्सा पानी को ढोने और मीलों चलने में निकलता है.

वो चाहते हैं..

वो ज़िंदा रहना चाहते हैं. कोई शादी करना चाहता है. कोई अपना जंगल बचाना चाहता है. कोई अपने जंगल में लौटना चाहता है. कोई अपनी कोख को गर्भपात से बचाना चाहता है. कोई अपने लोगों को निरंकुश क़ानूनों से बचाना चाहता है.
कोई चाहता है कि परिवार, गांव और धरती पर किसी को भूखा न सोना पड़े. कोई चाहता है जंग दोबारा न हो. कोई चाहता है बच्चे फिर से स्कूल जाने लगें.
कोई क़र्ज़ के शिकंजे से बाहर निकलना चाहता है. वे सांस लेना चाहते हैं. 67 साल के आज़ाद मुल्क में.
वे वोट भी देना चाहते हैं. वे चाहते हैं उनके भी दिन बदलें.

क़तार के आख़िरी...

बीबीसी हिंदी की टीम ने उन लोगों तक पहुंचने के लिए लंबे और दुर्गम रास्ते तय किए, जो चुनावी शोर और चौंध से बहुत दूर, बहुत बाहर, बहुत बेदख़ल, बहुत हाशिए पर हैं.
और कुछ उन लोगों तक भी, जो इस देश की विकासगाथा के हिस्से हैं, जिन्हें आर्थिक उदारीकरण, शिक्षा और खुले बाज़ार का फ़ायदा मिला. जो भारत से निकलकर चमकते इंडिया का हिस्सा बने. बदलते भारत की एक इबारत वे भी हैं.
क्या मतलब है उन लोगों के लिए तरक़्क़ी का, आज़ादी का, अधिकारों का और वोट का. सोमवार से आप देखेंगे वे चेहरे और उनके ज़रिए उन मुद्दों को समझने की हमारी कोशिश, जो इस जनतंत्र की ज़मीन पर सवालों की तरह खड़े हैं.
ये श्रृंखला हमारी छोटी सी लेकिन महत्वपूर्ण कोशिश है ज़मीनी पत्रकारिता की उस तंत्र के बारे में, जो भारत का जन-गण-मन है. इसीलिए हमने इसका नाम 'क़तार के आख़िरी...' रखा है.

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रविवार, 6 अप्रैल 2014

धर्म के साये में पलते अधर्म!

धर्म के साये में पलते अधर्म!
हमारा मूलनिवासी समाज धर्म की गहरायी में उतर ही नहीं पाता। आधे-अधूरे विश्वास के साथ वह अच्छे-बूरे में फर्क नहीं कर पाता और इसी कमोवेश में धर्म के साये में अधर्म पनपने लगता है। कोई शक नहीं कि भारत हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है, चाहे मंहगाई का हो। या हिंसा का या लूटमार का या धोखाधड़ी का हो, अगर हम अपराध क्षेत्र की ओर देखें तो राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरों की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत हत्याओं के मामले में भी नम्बर वन हैं। जो संख्या दूसरे देशों के मुबाकले सबसे ज्यादा है। प्रश्न यह उठता है कि भारत जैसा धर्मपरायण देश जहाँ धर्मभीरु लोगों की पूरी फौज है। ऐसी वारदातों में इतना आगे कैसे बढ़ गया? धर्म की नज़र से देखें तो हत्या, बलात्कार, चोरी ऐसा महापाप है जो व्यक्ति को पतन और नर्क की खाँई में धकेलता है। जाहिर है रात-दिन धर्म के पोथे खोलकर बैठे ब्राह्मणवादी धर्म पुरोहितों के उपदेशों का असर ज्यादातर होता ही नहीं। इसी तरह से विवाह को धार्मिक अनुष्ठान मानने वाले इस रिश्ते को जन्म जन्मातर का संबंध बताने वाला धर्म तब कहाँ रहता है? जब पति-पत्नी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? आग की जिन लपटों के चारों तरफ फेरे दिलाकर ब्राह्मण पुरोहित नवदंपत्ति को एक-दूसरे का साथ देने का वचन दिलाते हैं। क्यों दहेज के नाम पर उन्हीं लपटों में लड़की को जलाकर मार दिया जाता है? छोटी-छोटी बातों पर धार्मिक स्थलो और पण्डे-पुजारियों का चक्कर लगाने वाले लोग अपने को बड़े-बड़े धोखे देने से बाज नहीं आते। ब्राह्मण धर्म का हाल तो यह है कि लोग किसी काम में सफल होने की मनौती मांगते हैं। बाद में चढ़ावा चढ़ाकर अपनी मनौती पूरी करते हैं। क्या यह एक तरह से ईश्वर को घूस देने की कवायद नहीं? ऐसे तो हर धर्म व्यक्ति को सदाचार, ईमानदारी और अहिंसा के मार्ग पर चलने का पाठ पढ़ाता है। फिर क्यों रिश्तों का खून करते वक्त और मानतवा की धज्जियाँ उड़ाते वक्त लोग अपनी धर्म ग्रन्थों का ध्यान नहीं करते? लड़कियों के पहनावे को लेकर ब्राह्मण धर्म गुरूओं द्वारा फतवा जारी किये जाते हैं।
धर्म और नीति की दुहाईयाँ दी जाती है। सदन में हंगामा खड़ा हो जाता है, तो धर्म उसकी सुरक्षा के लिए आगे क्यों नहीं आता? जिस महिला को धार्मिक कर्मकाण्डों के दौरान बराबरी के आसन पर बिठाया जाता है। जिसके बगैर कोई धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं माना जाता उसे ही घर में कभी समान दर्जा क्यों नहीं मिलता। आये दिन वह घरेलू हिंसा का शिकार बनती है क्यों? पूर्वजों के लिए दान, तप, पूजा कराने वाला व्यक्ति जीते जी अपने माँ-बाप की सेवा नहीं करता। दावा किया जाता है कि ब्राह्मण धर्म अहिंसा का पाठ बढ़ाता है। फिर क्यों धर्म के नाम पर हिंसायें होती है? फिर क्यों हिन्दू और मुस्लिम के नाम पर दंगे होते हैं। ज्यादातर दंगों के पीछे धर्म के धंधेबाजों का ही हाथ होता है।
बिडम्बना यह है कि ब्राह्मणी धर्म ग्रन्थों में ऐसे विधान और कथाएं भरी पड़ी है। जिनके मुताबिक आप चाहे जितना भी पाप कर चुके हों। परमात्मा के नाम का जप कर ले। ईश्वर की प्रार्थना कर ले सारे पाप धुल जायेंगे। पर हकीकत में जो जैसा करता है। उसको उसका फल मिलता है। देखा जाये तो धर्म की उत्पत्ति का आधार भय है। व्यक्ति जब खुद को असहाय और असुरक्षित महसूस करता है तो वह धर्म की तरफ मुखातिब होता है। भले ही घर के बड़े-बुजुर्ग या धर्म पुरोहित यह कह कर व्यक्ति को धार्मिक कर्मकाण्डों के लपेटे में ले लेते हैं कि इससे उन्हें शक्ति मिलेंगी। वे मजबूत बनेंगे। मगर सच तो यह है कि इससे सिर्फ परावलंबन की मनोवृत्ति मजबूत होती है। धर्म के तथाकथित ठेकेदार इन्सान की इसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं। वे एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते हैं, जो उन्हें भरपूर समर्थन दे, ताकि उनका खर्चा-पानी चलता रहे। धर्म व्यक्ति को डरपोक तो बना सकता है। मगर उसकी प्रवृत्ति को बदल नहीं सकता। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि जिन्दगी में जितना हासिल हो सके उतना हासिल कर लो। इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। कुछ धर्मस्थलों में जाकर हाथ बांधे ईश्वर से अपनी इच्छा मनवाने का प्रयास करते हैं तो कुछ हाथें में हथियार थामकर मन चाही चीजें दूसरों से छीन लेते हैं। ये है ब्राह्मण धर्म का इतिहास। लेकिन मूलनिवासी बहुजन समाज ब्राह्मण धर्म को हिन्दू धर्म मानता है, लेकिन उसे ये नहीं पता है कि हिन्दू नाम का कोई धर्म ही नहीं है। जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं।, वह ब्राह्मण धर्म है, और ब्राह्मण धर्म नाम का कोई धर्म ही नहीं है, बल्कि यह मूलनिवासियों को गुलाम बनाने का षड्यंत्र है। इसलिए मूलनिवासी बहुजन समाज को ब्राह्मण धर्म को ध्वस्त करने के लिए भारत मुक्ति मोर्चा के द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रव्यापी जन-आन्दोलन में तन-मन-धन से साथ सहयोग देने की जरूरत है। तभी हम अपनी आजादी को हासिल कर सकते हैं। -जय मूलनिवासी
सुनील कुमार
(इलाहाबाद)

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

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केवल सत्रह वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने की आत्महत्या

Published: Sunday, Apr 08,2012, 20:12 IST
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किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में होती जा रही है बढ़ोतरी।

इन दिनों देश में किसानों की आत्महत्या का विषय पुन : चर्चा में है। वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध के मात्र 120 घंटों के बाद ही रोक हटाकर पुन: निर्यात करने की घोषणा क्यों कर दी, इस पर शंका की सुई उनकी तरफ उठना स्वाभाविक था। लोकसभा में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले शिवसेना के सदस्यों ने इस पर भारी क्षोभ व्यक्त किया। महाराष्ट्र देश का एक बड़ा कपास उत्पादक प्रदेश है। कपास उत्पादक किसान आत्महत्या के लिए क्यों मजबूर होते हैं? इसकी जांच-पड़ताल की बातें तो होती हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस निर्णय देश के सामने नहीं आया है। शिवसेना के प्रयासों से इस बार इस ज्वलंत प्रश्न पर डेढ़ घंटे की चर्चा का समय लोकसभा में निश्चित किया गया है। जब इस पर चर्चा होगी तो महाराष्ट्र की तरह देश में अन्य प्रदेशों के किसानों की आत्महत्या का मामला भी अवश्य उठेगा। कृषि राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत आती है, लेकिन इसके आयात-निर्यात और ऋण संबंधी मामलों में केन्द्र सरकार का दखल निश्चित रूप से होता है। जब आत्महत्या का मामला सामने आता है तो यह कानून और व्यवस्था का भी एक अंग है। इसलिए केन्द्र सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती है।

सिर्फ चिंता : "नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो" द्वारा प्रस्तुत किये गए आंकड़ों के अनुसार 1995 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की है। महाराष्ट्र के किसानों ने सबसे अधिक आत्महत्या की। भारत में धनी और विकसित कहे जाने वाले महाराष्ट्र में अब तक आत्महत्या का आंकड़ा 50 हजार 860 तक पहुंच चुका है। 2011 में मराठवाड़ा में 435, विदर्भ में 226 और खानदेश (जलगांव क्षेत्र) में 133 किसानों ने आत्महत्याएं की है। महाराष्ट्र के पश्चात् कर्नाटक, आंध्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का नम्बर आता है। आंकड़े बताते हैं कि 2004 के पश्चात् स्थिति बद से बदतर होती चली गई। 1991 और 2001 की जनगणना के आंकड़ों को तुलनात्मक देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किसानों की संख्या कम होती चली जा रही है। 2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में 70 लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया। 2011 के आंकड़े बताते हैं कि उपरोक्त पांच राज्यों में कुल 1534 किसान अपने प्राणों का अंत कर चुके हैं। प्रत्येक किसान समय पर अपना कर्ज खत्म करने का प्रयास करता है, किंतु फसलों की बर्बादी से वह ऐसा नहीं कर पाता है। इस चिंता में वह भीतर से टूट जाता है और अंतत: आत्महत्या का मार्ग चुन लेता है। कृषक बंधु अब खेती को घाटे का धंधा मानते हैं। इसलिए उनकी आने वाली पीढ़ी अपने मां-बाप की तरह कर्ज में न तो मरना चाहती है और न ही आत्महत्या करना चाहती है।

सूखे और बाढ़ का प्रकोप : किसान के सिर पर सूखे और बाढ़ का प्रकोप तो तलवार बन कर लटकता ही रहता है, लेकिन इसके साथ-साथ कभी फसल अच्छी हो गई तो पैदावार का सही मूल्य दिलाने में सरकार उत्साहित नहीं होती। खराब और घटिया प्रकार का बीज उसका दुर्भाग्य बन जाता है। लागत की तुलना में जब आय ठीक नहीं होती है तो वह सरकारी कर्ज चुकाने में असफल रहता है। किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने इस बात का दावा किया था कि वर्ष 2010 में 365 किसानों ने आत्महत्या की थी। यानी एक दिन में एक, इनमें से मात्र 65 ने कर्ज के कारण आत्महत्या की थी। लेकिन राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो इस दावे की पूरी तरह से पोल खोल देता है। अब सवाल यह है कि जब सरकार लागत के अनुसार कपास की कीमत नहीं देती है तो फिर उसके निर्यात पर प्रतिबंध क्यों लगाती है? इस बात को समझने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। पिछले दिनों यह घटना घटी। 120 घंटे तक सरकार ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए रखा। लेकिन न जाने क्या बात है कि हड़बड़ी में लगाए गए इस प्रतिबंध को सरकार ने कुछ शर्तों के साथ रद्द कर दिया। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का तो कहना है कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है। लेकिन आनंद शर्मा ने इसका लूला-लंगड़ा बचाव किया। किन मिल मालिकों एवं धन्ना सेठों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने यह निर्णय लिया ये तो वे ही जानें। लेकिन जो समाचार मिल रहे हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ने कुछ शक्तिशाली लोगों के लिए यह निर्णय लिया। उसके समाचार सारे देश में पहुंचे और सरकार आलोचना का शिकार बने इससे पहले ही अपने पाप को छिपाने का भरपूर प्रयास किया। निर्यात पर प्रतिबंध लगते ही भाव घटे जिसमें दलालों और पूंजीपतियों की चांदी हो गई। पिछले वर्ष भी ऐसा ही नाटक खेला गया था, जिसमें गुजरात के ही किसानों को 14 हजार करोड़ का नुकसान हुआ था। इस बार कितना हुआ इसके आंकड़े अब तक उपलब्ध नहीं हुए हैं।

दूरदर्शिता की कमी : पिछली बार जब यह घटना घटी थी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि जब हमने प्रतिबंध लगाया उस समय चीन ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने कपास का भारी जत्था बेचने के लिए निकाला उससे चीन को भारी आय हुई। भारत सरकार में तनिक भी दूरदर्शिता होती तो इसका लाभ भारतीय किसान को मिलता। इस प्रकार का लाभ पहुंचाकर क्या भारत सरकार ने चीन के हौसले बुलंद नहीं किये? सरकार की इस अपरिपक्वता के रहते कोई किस प्रकार विश्वास कर सकता है कि हम चीन से आगे निकलेंगे और एक दिन महाशक्ति के पद पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे। भारत में हर समय चीन की बात होती है। दुनिया में महाशक्ति बनने के लिए सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धा चीन से है। चीन दुनिया में सबसे अधिक कपास पैदा करता है। विश्व में जितने हेक्टेयर पर कपास पैदा की जाती है उनमें हर चार में एक हेक्टेयर भारत के हिस्से में आता है। भारत में कुल 90 लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती होती है। चीनी किसान का कपास पैदा कर के वारा-न्यारा हो जाता है, लेकिन भारतीय किसान के भाग्य में तो कपास के नाम पर आत्महत्या ही लिखी हुई है। 13 राज्यों के 40 लाख से अधिक किसान कपास की खेती करते हैं। 2009 में भारत के कुल निर्यात में 38 प्रतिशत कपास था, जिससे देश को 80 करोड़ रु. की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई थी। इसकी खेती के लिए मात्र कृषि मंत्रालय ही उत्तरदायी नहीं है, बल्कि वस्त्र और वाणिज्य मंत्रालया भी उत्तरदायी हैं। कॉटन कारपोरेशन आफ इंडिया की स्थापना 1970 में की गई, जो किसानों से कपास की खरीदी करती है। बेचारा किसान खुले बाजार में इसे नहीं बेच सकता है। इसलिए सरकार ही उसकी भाग्य विधाता बनकर उसका मूल्य तय करती है।

पशुपालन का सत्यानाश : भारत सरकार को क्या यह पता नहीं है कि सदियों से कृषि के साथ-साथ किसान कोई न कोई अन्य सहायक व्यवसाय भी करता रहा है। इसमें पशुपालन और मुर्गीपालन प्रमुख रूप से रहे हैं। भारत के असंख्य कुटीर उद्योग खेती पर ही निर्भर रहे हैं। लेकिन बड़े उद्योग लगाकर सरकार ने उन सबको किसान से छीन लिया है। दूध की डेरियां स्थापित करके पशुपालन का सत्यानाश कर दिया है। इसमें जो गाय और बैल का महत्व था उसे भुला दिया गया। महाराष्ट्र में पुणे के निकट तलेगांव के चंद्रकांत पाटिल का कहना है कि भारत में लगभग आठ करोड़ बैल हैं। एक बैल आधा हॉर्स पावर बिजली का काम कर सकता है। पाटिल ने खेती और रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन में बैल का उपयोग करके एक क्रांति पैदा की है। भारत सरकार बिजली तो दे नहीं सकती लेकिन इन बैलों से चार करोड़ होर्स पावर बिजली बचाने पर भी विचार नहीं कर सकती।

महाराष्ट्र में जब शिवसेना-भाजपा की सरकार थी, उस समय राज्य योजना आयोग में नियुक्त वरिष्ठ प्राध्यापक सरोजराव ठुमरे ने एक रपट पेश की थी जिसमें महाराष्ट्र के 20 जिलों का अध्ययन कर उन्होंने यह सुझाव दिया था कि जिस जिले में जिस चीज का उत्पादन होता है उसके आधार पर वहां लघु एवं कुटीर उद्योग की स्थापना की जा सकती है। सूरत के नौसारी कृषि विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक ने केले के तने और पत्ते के रेशों से उच्चकोटि का कागज बनाने की खोज की है। केले की खेती करने वाले कुछ देशों में इस कागज के नोट छापे जाते हैं। इससे दोहरा लाभ है। एक तो यह अपने देश की उपज से बनने के कारण सस्ता होता है और दूसरा उसकी नकल नहीं की जा सकती है। भारत सरकार किसानों को "आर्थिक पैकेज" का नाटक बंद करके वहां की स्थानीय खेती पर आधारित वस्तुओं का उत्पादन करने का मन बना ले तो किसानों की मौत का यह तांडव बंद हो सकता है।

मुजफ्फर हुसैन

बहुजन मुक्ति पार्टी



मर्दों के खेला में औरत का नाच

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शिक्षा, सत्ता और संपत्ति से स्त्रियों को सदियों तक वंचित रखा गया. आज भारत की स्त्री के पास मुक्ति की जो भी चेतना है वह उसके लिए बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही ले कर आया है. स्त्री स्वातंत्र्य की इस चेतना ने हमारा जीवन बदल दिया. आज जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसे तैयार करने में हमारी पूर्ववर्ती महिला आंदोलनकारियों,  समाजसेवियों और चिंतकों ने बहुत श्रम किया है. बाबा साहब आंबेडकर ने समानता के जिस अधिकार की बात संविधान में लिखी थी, उसमें से लिंगाधारित भेदभाव दूर करने के लिए बालिका शिक्षा अभियान, सर्व शिक्षा अभियान चलाया गया और कार्य स्थल पर यौन शोषण विरोधी अधिनियम, घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम जैसे कानून बने.  दहेज प्रथा, कन्याभ्रूण हत्या और बाल विवाह आज भी मौजूद हैं और उनके खिलाफ आंदोलन जारी है. मुड़कर देखें तो पाएंगे कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भारत दुर्दशा पर कविता और नाटकों से ले कर प्रेमचंद की कहानियों और महादेवी वर्मा के निबंधों ने मानवीय समकक्षता की चेतना जगा कर सामाजिक बदलाव के तमाम प्रयासों में साहित्य के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान किया था. आज देखें कि सामाजिक आंदोलनों ,कानून में बदलाव और सरकार के प्रयासों से आ रही स्त्रीमुक्ति की इस चेतना का समकालीन हिंदी लेखन, जिसे साहित्य कहने से परहेज करना उचित होगा, में कैसा इस्तेमाल किया जा रहा है.
स्त्री लेखन होता क्या है? क्या वह, जो कुछ भी स्त्री लिख दे, या वह, जो स्त्री के विषय में हो, या वह, जो स्त्रीवादी हो, या वह, जो स्त्री समर्थक हो? स्त्री लेखन के नाम पर आज जो कुछ परोसा जा रहा है, आखिर वह है क्या? आइए देखें.
कुछ समय पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेत्री और वयोवृद्ध हिंदी लेखिका रमणिका गुप्ता का एक साक्षात्कार एक पत्रिका में छपा था. उसमें उनका कहना है कि सत्ता पाने के लिये हर एक को कुछ न कुछ देना पड़ता है. पुरुष धन देते हैं और स्त्रियां अपना शरीर. वे बताती हैं कि अपनी पार्टी के लिए जमीन आवंटित करवाने के लिए वे बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री केबी सहाय से मिलीं, जिन्होंने उन्हें एकांत में बुलाकर कहा कि जो चाहो मांग लो और तत्काल कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए. फिर मुख्यमंत्री ने लेखिका को आलिंगन में भर कर चूम लिया. रमणिका गुप्ता आह्लाद से भर उठीं और उन्हें लगा कि चुंबन द्वारा मुख्यमंत्री ने अपनी सत्ता उन्हें हस्तांतरित कर दी है. लेन-देन की यही अवधारणा उनकी कहानी ‘ओह ये नीली आंखें’ में भी दिखती है जिसमें एक स्त्री अपने पति व बच्चे के साथ ट्रेन में यात्रा कर रही है, साथ वाली बर्थ पर एक नीली आंखों वाला यात्री लेटा है और ऊपर की बर्थ पर पति और बच्चा. स्त्री सहयात्री के साथ ट्रेन में सहवास करती है क्योंकि उसे नीली आंखें पसंद हैं और उसे भी सौंदर्यपान करने का पूरा हक है. अपने साक्षात्कार में प्रगतिशील लेखिका बताती हैं कि वे अपनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ट्रेड यूनियन के काम से धनबाद की कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के सिलसिले में केंद्र में कांग्रेस सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री नीलम संजीव रेड्डी से मिलने गईं जहां पर होटल के कमरे में वे एकदम निर्वस्त्र होकर उनके सामने आ खड़े हुए और लेखिका की मर्जी के विरुद्ध उनके साथ सहवास किया. जनवादी लेखिका ने शिकायत नहीं लिखवाई (अंग्रेजी आउटलुक 18 जनवरी 2010). ये हैं ‘युद्धरत आम आदमी’ की संपादक के आचार-विचार. आम आदमी युद्धरत है और आम औरत?
गीताश्री की एक कहानी ‘प्रगतिशील इरावती’ मार्च,  2013 के महिला विशेषांक में छपी है- ताप. एक युवा पुत्री की मां अपने बूढ़े पति की शारीरिक भूख से त्रस्त है. वह अपनी व्यथा पुत्री को बताती है. एक आधुनिक युवा पुत्री पिता को समझाने, किसी सलाहकार के पास भेजने या उनके आगे कोई अन्य विकल्प रखने के बजाय खुद उनके लिये एक युवा वेश्या खरीद लाती है जो घर पर ही आकर पिता को होमसर्विस देकर उनकी भूख शांत कर दे. यानी एक युवा स्त्री अपने वृद्ध पिता के लिए दूसरी युवा स्त्री को यौनदासी बनाती है. स्त्री सशक्तीकरण की चरम अवस्था को प्राप्त कर चुकी इस लेखिका की कहानी में एक ट्विस्ट है. कहानी के अंत में युवा वेश्या युवा पुत्री से कहती है- ‘ये किसी काम का नहीं है. तुम बेकार अपने पैसे बर्बाद कर रही हो. मैं ठरकी बुड्ढों को खूब जानती हूं. अंग्रेज़ी मुहावरा याद है न- ‘द डिजायर इज हाइ बट द फ़्लेश इज वीक.’ बोल्ड लेखिका के रूप में एक विशेष समूह द्वारा अति प्रशंसित गीताश्री इससे पूर्व ‘इंद्रधनुष के उस पार’ कहानी में दिखा चुकी हैं कि कॉरपोरेट दफ्तर में काम करने वाली युवती परेशान है कि उसका बॉस उसके कपडे-लत्तों पर हरदम रोक-टोक करवाता रहता है. युवती की चिंता सही भी है क्योंकि सभ्य समाज यही मानता है कि स्त्री को अपने वस्त्र स्वयं चुनने और पहनने का पूरा हक है . मगर इस कहानी में भी ट्विस्ट है. लड़की अपनी पोशाक स्वयं तय करने के अधिकार का प्रयोग करते हुए पूर्णतया निर्वस्त्र होकर न्यूड पार्टी में जाती है जहां पर सभी लोग निर्वस्त्र आए हैं, वह बॉस भी जो उसे स्लीवलेस टॉप पहनने पर टोकता था. ऐसी पार्टियां हमारे समाज में होती हैं या ‘इंद्रधनुष के उस पार’ यह कह पाना कठिन है.
जयश्री रॉय की ‘औरत जो एक नदी है’ नाम की कहानी भी है और इसी नाम का उपन्यास भी. पुरुष की ओर से लिखा पूरा उपन्यास शयनकक्ष, शराब, फेनी, बियर, बकार्डी, बिस्तर और उस पर केंद्रित लंबे उबाऊ संवादों से भरा है. कई दशक पूर्व के घोर मर्दवादी लेखक जैनेंद्र की धारणा थी, पत्नी घर में, प्रेयसी मन में. इस विषय पर शायद एक लंबी चर्चा भी चलाई गई थी. लेखिका इस धारणा के अनुरूप स्वयं को ढाल चुकी हैं. पुरुष के पास तीन औरतें हैं, एक पत्नी उमा, और दो प्रेयसियां-दामिनी और रेचल ,जो तलाकशुदा हैं. पुरुष को पत्नी की ‘साड़ी से रसोई की गंध’ आती है और प्रेमिका के शरीर से ‘परफ़्यूम’ की. कामना पुरुष की ही है और स्त्रियां अन्नपूर्णा नहीं, थाली में रखे हुए व्यंजन हैं, स्वयं को परोसती. दामिनी शादी को वेश्यावृत्ति बताती है जिसमें ‘स्त्री को आजन्म गुलामी करनी पड़ती है’,पर खुद क्या करती है? एक विवाहित आदमी की देह पर आइस क्यूब रगड़ते हुए कहती है, ‘अपनी वाइल्ड फैटेंसी पूरी कर लो. देह से ही मन का रास्ता जाता है.’ विवाहित आदमी कहता है ,  ‘तो क्या मैं तुम्हारी इस न जाने किस किस की जूठन बनी देह के पीछे था?’  शादी को वेश्यावृत्ति बताने वाले और अजनबियों के साथ यौनसंसर्ग करते ये नर-मादा क्या एक-दूसरे का सम्मान या एक-दूसरे से प्रेम कर पाते हैं?
इन्हीं लेखिका की ‘देह के पार’ कहानी में प्रौढ़ स्त्री नव्या अपनी बेटी को स्कूल छोड़ कर आने के बाद अपने से 10 वर्ष छोटे बेरोजगार युवक को खरीद लाती है. ‘इस साल यह उसकी चौथी नौकरी छूटी थी. ‘अब खाओगे क्या?’ ‘तुम हो न मेरी सेठानी’ कहते हुए उसने नव्या के पर्स में से 500 का नोट निकाल लिया जो नव्या को अच्छा नहीं लगा. युवक ने तीन तस्वीरें दिखाते हुए कहा ‘इनमें से एक तस्वीर चुनो मुझे इस साल शादी करनी पड़ेगी….’ मैं तो कहती हूं तीनों से कर लो, तुम तो हो ही कैसानोवा सौ को भी एक साथ संभाल लोगे.’… अय्याश अफसरों  की बूढ़ी-अधबूढ़ी सेठानियों को शरीर बेचने वाला युवक कहता है, ‘कोई अपना हुनर बेचता है कोई फन कोई अक्ल. मैं अपनी सुंदरता बेचता हूं.  इट्स दैट सिम्पल. बास. अगले हफ्ते दुबई जा रहा हूं, शेख़ साहब का मेहमान बन कर.’ जयश्री रॉय की अन्य अनेक कहानियों के अनेक पात्रों की तरह युवक भी विवाह को वेश्यावृत्ति मानता है. देह से ही मन का रास्ता जाता है, जयश्री रॉय के इस सिद्धांत के आधार पर उम्मीद की जानी चाहिए कि शायद युवक भी दुबई में शेख साहब की देह से ही शेख साहब के मन में दाखिल हो जाएगा.
जयश्री रॉय की कहानियों में से एक को दूसरी से अलग कर पाना कठिन है. एक-सा कथानक, एक-से संवाद ,एक-सी बनावटी भाषा यहां तक कि एक-से शीर्षक. उनके पात्र परस्पर देह संबंधी लंबी चर्चाएं करते हैं पर देह के पार नहीं पहुंच पाते. एक-दूसरे को खरीद कर दैहिक भूख पर विस्तृत विचार-विमर्श करने वालेे ये पात्र कहां के रहने वाले हैं? वे जो भाषा बोलते हैं वह कहां बोली जाती है? पुरुष वेश्या और पुरुष शरीर खरीदने वाली सेठानी क्या परस्पर जयशंकर प्रसाद की कामायनी या स्कन्दगुप्त वाली भाषा में बात करते होंगे?
नदी सीरीज में वरिष्ठ जया जादवानी भी शरीक हो गईं. उनकी ‘समंदर में सूखती नदी’ में ‘दोनों बच्चों के होस्टल चले जाने के बाद वे दोनों अकेले रह गए थे. अब उसे अपनी पत्नी की देह पका हुआ कद्दू लगती थी जिस पर वह अक्सर स्वयं को निष्प्राण लेटा हुआ पाता था…. उसे कुछ नया चाहिए था…. उसने सोचा था उसका सामना ऐसी लड़की से होगा जिसने अपनी देह को दुकान की तरह सजाया होगा. ‘प्रौढ़ पुरुष और युवा लड़की लांग ड्राइव पर जाते हैं और स्त्री-पुरुष संबंधों पर सात पृष्ठ लंबी चर्चा करते हैं, ‘तुम स्त्रियां ही ढिंढोरा पीटती हो कि तुम मात्र जिस्म नहीं हो. यही एक चीज ले कर खड़ी रहती हो तुम पुरुषों के सामने.’ यह कहानी शायद जादवानी ने कॉलगर्ल की गरीबी के बारे में लिखी है क्योंकि अंतिम पंक्ति में वह ‘बहुत जोर से रोना चाहती है पर आंसू कहीं घुट कर रह गए.’ (कथादेश, सितंबर 2012)
जयश्री रॉय की कहानी में एक प्रौढ़ स्त्री युवा पुरुष वेश्या को खरीदती है तो जया जादवानी की कहानी में एक प्रौढ़ पुरुष एक युवा स्त्री वेश्या को . स्त्री लेखन के नाम से परोसी गई यह सामग्री कोई अलग स्वीट डिश नहीं, अब इसे ही स्त्री लेखन का महाभोज माना जा रहा है. ये सच्ची कहानियां हैं या काल्पनिक? यह यथार्थ है या जादुई यथार्थ?
लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास चाक की नायिका सारंग किशोरी बालिका के रूप में ‘सत्यार्थप्रकाश के बीच रखी ऋतुसंहार की पतली सी किताब पढ़ती है’ और बताती है ‘40 वर्ष की अवस्था के, गोरे रंग और लंबे कद के मुलायम मुख वाले शास्त्री जी की छवि बुरी तरह तंग किए थी. खादी के वस्त्र पहने हुए – काश महीन वस्त्र पहने होते. मैं भोग की इच्छा रखती हुई भी शास्त्री जी की बांहों में फिसल रही थी.’ (चाक,   पृ. 89-90). अधेड़ उम्र की भाभी रिश्ते के ननदोई की मालिश करती है, ‘ज्यादा ही सरमदार का घुसला बन रहा था, तैमद ऊपर को सरकावै ही न. लत्ता जितना ही ऊपर उठाऊं , उतना ही भींचता जाय तैमद को. मैंने कही, लुगाई है रे तू? जबरदस्ती तैमद खोल कर फेंक दिया बंजमारे का… मैंने ऐसी मालिश करी जैसे छः महीने का बालक हो और फिर खाट पर लोट गई उसके बरब्बर में. बोल दिया कि लल्लू कैलासी, भूल जाओ रिश्ते नाते… और फिर ये तो देह रहते के खेला हैं रे. पाप पुन्न मत सोचना’ (चाक, पृ.104). रंजीत की पत्नी सांरग श्रीधर के साथ आनंद में मग्न है,  ‘श्रीधर, अगर तुम्हारी आंखें इस देह को देख कर आनंद पाती हैं तो जी भर कर देखो मुझे. मेरी सुंदरता सार्थक हुई. भोग करने से तुम्हारे प्राण तृप्त हों तो आओ रात बाकी है अभी’ (पृ. 329 चाक)? जून, 2008 के संपादकीय में राजेंद्र यादव कहते हैं, ‘औरतों के पास उनकी देह है वरना योग्यता के नाम पर उनके पास रखा ही क्या है.’ मैत्रेयी पुष्पा की नायिका कहती है, ‘मेरे पास था ही क्या – हरी भरी देह.’ (चाक, पृ. 329 )
लेनिनवादी लेखिका रमणिका गुप्ता की एक अन्य कहानी में एक स्त्री एक आकर्षक अश्वेत पुरुष के शरीर का उपभोग करना चाहती है. वह रात को स्त्री के होटल के कमरे में आ पहुंचता है. आगे की गतिविधि का वर्णन लेखिका ने विस्तार से किया है. अजनबी अश्वेत पुरुष जाते वक्त एक गुड़िया छोड़ जाता है. गुड़िया शीर्षक कहानी में यह गुड़िया नायिका को संदूक में मिलती है.
जैसी गुड़िया रमणिका की नायिका को संदूक में मिली वैसी ही एक गुड़िया मैत्रेयी पुष्पा के भीतर भी है. वे किसी कार्यक्रम में आमंत्रित की गईं और गेस्ट हाउस में ठहराई गईं . लॉबी में उनके पीछे चल रहे राजेंद्र यादव कहीं ‘बुखार का ताप देखने के लिये उनकी कलाई न पकड़ लें’ इस डर से वे उनसे अधिक बात न बढ़ाकर जल्दी से अपने कमरे में चली गईं. मगर आधी रात को प्यास लगने पर रूमसर्विस से पानी न मंगा कर वे राजेंद्र यादव के कमरे का दरवाजा खटखटाती हैं और दरवाजा छूते समय उन्हें लगता है कि उन्होंने ‘राजेंद्र यादव को छू लिया’. (गुड़िया भीतर गुड़िया, पृ. 315-316 )
विचार का विषय है कि रिश्ते के ननदोई की लुंगी खींच कर उसे फुल बॉडी मसाज देने वाली अधेड़ भाभी के लल्लू कैलासी के साथ स्वच्छंद यौनाचार का विशद वर्णन करने वाली 1944 में जन्मी वयस्क लेखिका ने 2008 में एकाएक ‘गुड़िया’ बनकर लकड़ी के दरवाजे को छू कर राजेंद्र यादव कैसे समझा? यही नहीं, कैसे उन्होंने इस प्रसंग को इतना अधिक महत्वपूर्ण समझा कि उसे अपनी आत्मकथा का हिस्सा बनाया. यौन सक्रियता के वर्णन में सारे लेखकों को पीछे छोड़ कर इस क्षेत्र की पुरोधा के रूप में प्रतिष्ठा पा चुकी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा संपादक के आगे चाइल्ड वुमन बन जाती हैं, उन्हें छूने को लालायित. क्यों?
बार्बी डॉल 1959 में बनाई गई थी. उसका चेहरा बच्चों जैसा था पर शरीर वयस्क. कम्युनिस्ट रूस ने इन गुड़ियों पर प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि इन्हें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया (द ऑबजर्वर, नवंबर 2002). लेकिन हमारे हिंदी के जनवादी मठाधीशों ने अनेक बार्बी डॉल्स तैयार कर ली हैं जो वयस्क हैं, पर जो अपने हाव-भाव शिशुवत रखती हैं. चाइल्ड वुमन पोर्नोग्राफर का सबसे हसीन ख्वाब होती है. बालबुद्धि वाली इठलाती, तुतलाती, पलकें झपकाती वयस्क शरीर वाली स्त्री. विडंबना यह है कि यह सारा खेल स्वयं को जनपक्षधर, प्रगतिशील, सेक्युलर बताने वालों के दरबार में चल रहा है, न कि रूढि़वादियों के बीच. ये डॉल्स वृद्धवृंद की फरमाइश पर रचनाएं प्रस्तुत करती हैं, और उनके सुझाव पर रचना में परिवर्तन, परिवर्द्धन करते हुए उसे मनोरंजन का खजाना बना देती हैं.
इसी बीच एक युवा लेखिका ज्योति कुमारी की किताब को अचानक बेस्टसेलर घोषित कर दिया गया. इस किताब में शरीफ लड़की नामक कहानी में पाठकों को चौंकाने के लिए लड़की के 14 वर्ष की हो जाने का विस्तृत विवरण है. ऐसा और इससे भी अधिक विस्तृत विवरण पाठक आज से 40 साल पहले कमला दास की आत्मकथा में पढ़ चुके थे अतः वे चौंके ही नहीं. जुगुप्सा जगाने में कोई कसर न रह जाए इसलिए उसके तत्काल बाद लड़की के प्रेम प्रसंग का वर्णन है- ‘लड़की वीर्य से लिथड़ी है…ऊपर से नीचे तक…आगे से पीछे तक…अंदर से बाहर तक उसका रोम रोम लिथड़ा है.’(हंस). यह किशोर-किशोरी के प्रेम का वर्णन है या किसी सूनामी का? क्षमा कीजिएगा, मेरी जिज्ञासा है कि आखिर एक किशोर बालक के पास कितने लीटर वीर्य होता है? देश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जेएनयू के साम्यवादी प्रोफेसर नामवर सिंह ने इसकी प्रशंसा में ‘इसे अनदेखा करना मुमकिन नहीं’ शीर्षक आलेख लिखा और स्त्री लेखन के क्षेत्र की इस ज्योति की शान में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता उद्धृत की. युवा लेखिका की क्रांति न केवल कथ्य में है बल्कि शिल्प में भी है. प्रतिष्ठित साहित्यकार महेंद्र राजा जैन ने हिंदी के विराम चिह्नों के उपयोग के बारे में एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है. ज्योति कुमारी ने अर्धविराम, अल्पविराम और पूर्णविराम को तिलांजलि देकर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया. वे हर वाक्यांश के बाद तीन बिंदु लगाती हैं. कहानी में लगभग 595 बार तीन बिंदुओं का प्रयोग है. लगभग 1,785 बिंदुओं वाली इस रचना को देखकर निर्णय करना कठिन हो जाता है यह गद्य लिखा गया है या बूंदों वाली रंगोली.
असली जीवन में जमीनी काम करते हुए हमने सैकड़ों किशोर- किशोरियों के प्रेम प्रसंग देखे हैं. इनका प्रेम टूटते भी देखा, टूटते दिलों की कहानी भी सुनी, उन्हें सांत्वना दी और आत्महत्या करने से रोक कर फिर से जीने के लिए प्रेरित भी किया. मेरा विश्वास है कि कोई भी 18 वर्ष के किशोर-किशोरी अपने पहले प्यार का वर्णन उन शब्दों में नहीं कर सकते जिनमें ज्योति कुमारी ने किया. असली प्रेमी आज भी एक-दूसरे को खून से चिट्ठी लिख रहे हैं, मां-बाप का घर छोड़ कर भाग रहे हैं, नदी में कूद कर एक साथ जान देने को तैयार हैं. मेरा अनुभव है कि आज भी प्रेम में पड़ने वाले लोग प्रेम ही करते हैं. ज्योति कुमारी की प्रशस्ति नामवर सिंह के हस्तलेख में इंटरनेट पर भी उपलब्ध है. जाहिर है, ऐसा विशद वर्णन वृद्धजनों की खातिर ही किया जाता है.
यह सब यूं ही नहीं हुआ है. हंस संप्रदाय के सतत और अथक प्रयासों से पोर्नोग्राफी का जो अश्लील अनुष्ठान हिंदी लेखन में जनवाद के नाम से आयोजित किया गया है, उसमें उसी प्रकार की स्त्रियां भी शामिल कर ली गई हैं. यह मर्दों द्वारा चयनित स्त्रियों का नृत्य है जिसमें वयोवृद्ध रमणिका गुप्ता, मैत्रेयी पुष्पा, प्रौढ़ गीताश्री और जयश्री रॉय आदि तथा युवा ज्योति कुमारी जैसी अनेक स्त्रियां शरीक हैं. यह सूची बड़ी लंबी है.
imgदरअसल विगत कई दशकों से हंस संप्रदाय सारी स्त्रियों को यौनकर्मी साबित करने पर तुला हुआ है. हंस के स्तंभकार अभय कुमार दुबे के शब्दों में, ‘लेकिन क्या सेक्सवर्क के जरिये भी स्त्री सबलीकरण की राह पर चल सकती है? यौनकर्म में समाजसेवा या सेक्सुअल थेरेपी के पहलू अंतर्निहित होने का तो तर्क बनता है.’ दुबे नारीवाद से असहमत हैं, ‘नारीवाद की बौद्धिक दुनिया सेक्सवर्क को दो हिस्सों में बांट देती है. वह वेश्या के सेक्सवर्क को बिना पारिश्रमिक लिए सेक्सवर्क कर रही औरतों के बरक्स रखते हुए विभिन्न तर्कों के आधार पर उसे निकृष्ट और स्त्री की आजादी के लिए नुकसान देह मान लेती है. चाहे वह प्रेमिका द्वारा किया गया हो या विवाहिता पत्नी द्वारा, मुफ्त में किया गया सेक्सवर्क उच्चतर, उदात्त और एक हद तक मुक्तिकारक बन जाता है…. नारीवाद उसमें ज्यादा से ज्यादा दैहिक संतुष्टि की दावेदारी और प्रेम के तहत किए जाने वाले सेक्स को और जोड़ देता है. लेकिन प्रेम और प्रजनन से रहित, पारिश्रमिक की अपेक्षा में किया गया सेक्सवर्क इस विचारधारा की निगाह में जिंसीकरण कहलाता है या यौन दासता का पर्याय मानकर उसे कलंकित कर दिया जाता है.’ (हंस, जुलाई 2008)
दुबे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि ‘स्त्री हमेशा सेक्सवर्क ही करती है भले ही वह अपनी दैहिक संतुष्टि के लिए करे, प्रेम के तहत करे, प्रजनन के लिए करे, विवाहिता के रूप में करे, चाहे प्रेमिका के रूप में, वह मुफ्त का वर्क है.’  दुबे जी के इतना विस्तार से समझाने पर अब तक इतना तो पाठकगण समझ ही चुके होंगे कि सारी स्त्रियां यौनकर्मी हैं, नाचने-गाने की तरह यौनकला भी स्त्री सबलीकरण का माध्यम है और स्त्री यौनकर्म द्वारा समाज सेवा या सेक्स थेरेपी करती है. मेरा सवाल यह है कि क्या उसी गतिविधि में संलग्न उनके साथी, प्रेमी, पति भी यौनकर्मी ही हैं या कुछ और एक ही खेल का एक प्रतिभागी ग्राहक-उपभोक्ता और दूसरा प्रतिभागी वर्कर किस आधार पर बनता है? क्या दुबे के लोकतंत्र में स्त्री-पुरुष समकक्ष नहीं हो सकते? कैसे एक क्रेता बनता है, दूसरा क्रीत? (नवरीतिकालीन, कथादेश, सितंबर 2008). हिंदी की जिन प्रवृत्तियों का उल्लेख मैंने उस लेख में किया था, वे आज अपनी पूरी कुरूपता में सबके सामने खड़ी हैं. स्वस्थ साहचर्य में अक्षम व्यक्ति अक्सर ब्लू फिल्में बनाते-देखते, अश्लील एसएमएस भेजते और फोन पर अश्लील वार्तालाप करते हुए धरे-पकडे़ जाते रहे हैं. यह उसी तरह का मानसिक व्यभिचार है.
मर्दों के इस खेला में पुरुषों को आनंद देने के लिए औरतों की एक ऐसी पोर्न छवि गढ़ी गई है जो पूर्णतया यौनीकृत है. उसमें न चेतना है, न हृदय, न मन और न भावना. यह पोर्न की क्लासिकल सेडोमेसोचिस्ट छवि है. इन औरतों को यौनिक वस्तु होने, कष्ट पाने और अपमानित होने में आनंद आता है. गीताश्री की नायिका के वस्त्र कोई बलात्कारी नहीं उतारता, वह स्वयं ही निर्वस्त्र होकर न्यूड पार्टी में जाती है. उनकी दूसरी कहानी में युवा वेश्या का शोषण कोई पुरुष नहीं करता, कहानी की नायिका ही दूसरी स्त्री का शरीर खरीद कर अपने वृद्ध पिता के आगे परोसती है. बोल्ड मानी जाने वाली मैत्रेयी की नायिका सारंग अपनी
हरी-भरी देह परोसती है, मास्टर श्रीधर भोग लगाता है. यह समकक्षता की भाषा नहीं है.
अखबार पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की खाप पंचायतों के मनमाने निर्णयों से भरे हैं जिनमें प्रेम करने के अपराध में युवक-युवतियों के नाक-कान काटे जा रहे हैं. उन्हें खुलेआम पेड़ों पर लटकाया जा रहा है. उन्हें बिरादरी के बाहर भी प्रेम करना मना है और गोत्र के भीतर भी. महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण ग्राम पंचायतों में है, समाज के निर्णय ले रही खाप पंचायतों में कहां?
मगर ग्रामीण जीवन की चर्चित चितेरी मैत्रेयी पुष्पा की ग्रामीण स्त्री कहती है, ‘चल लुच्ची, हम जाटिनी तो जेब में बिछिया धरे फिरती हैं. मन आया ताके पहर लिए.’ (चाक, पृ.104).  ऐसी स्वयंसिद्धा-स्वयंवरा स्त्रियों वाले गांव पश्चिमी उत्तर प्रदेश या बुंदेलखंड के किस जिले में हैं? घर पर एक पत्नी के रहते दूसरी स्त्री को ले आने पर पत्नियां त्रस्त हो कर पति की शिकायत करती देखी जाती हैं. शिकायत लिखवाने पर भारतीय दंड संहिता की एडल्ट्री के विरुद्ध बनी धारा 497 के अंतर्गत पुरुष दंडित होता है. मगर अपनी ससुराल में ही एक पति के रहते हुए रंजीत की युवा पत्नी सारंग स्कूल के मास्टर श्रीधर के साथ भोगविलास में मग्न है. पति के प्रतिरोध करने पर उसका ससुर अपने बेटे को समझाता है कि पति का काम पत्नी के ‘लहंगे की चैकीदारी करना नहीं.’ क्यों न खाप के निर्णयों से त्रस्त जोड़ों को मैत्रेयी पुष्पा वाले उसी जिले में भेज दिया जाए जहां पर यौनक्रांति का ऐसा बिगुल बज चुका है कि स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से जब चाहे जितने चाहे उतने यौन साथी चुन सकते हैं?
स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहे अश्लीलता के इस यज्ञ में हवि डालने पर स्त्रियों को भी उनका यज्ञफल पर्याप्त मात्रा में मिला है. दैनिक अखबार नवभारत टाइम्स में अक्टूबर, 2013 में एक खबर छपी. इसके मुताबिक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पाठ्यक्रम में से महादेवी वर्मा की ‘श्रृंखला की कड़ियां’ हटा कर उसके स्थान पर मैत्रेयी पुष्पा की ‘चाक’ नहीं लगाई जा सकी इसलिए साम्यवादी विचारधारा वाले स्वैच्छिक संगठन ने विश्वविद्यालय की निंदा की है.
स्त्रीमुक्ति के नाम पर क्रांति के इस नए चलन में फेसबुक वाली नई तकनीक के भी दर्शन होते हैं. 75 वर्षीय लेखक प्रेमचन्द सहजवाला की फेसबुक वाली कहानी एक युवक की ओर से लिखी गई है, जो एक युवती के आमंत्रण पर उसके घर जाता है और उसके माता पिता के सामने ही युवती के साथ सहवास करके वापस अपने शहर लौट जाता है. गीताश्री ने भी एक युवा स्त्री के बारे में कहानी लिखी जिसमें नायिका अपने पार्टनर से उस समय रूठ जाती है जब वे दोनों बेड पर थे. ‘इंद्रजीत बिना किसी भूमिका के भड़क उठा था – ‘तुम्हें अपने बॉस के साथ अकेले बार में नहीं जाना चाहिए था. ….अर्पिता के मन में आया कह दे कि तुम्हारे पांव की जूती नहीं हूं. पति की तरह सामंत मत बनो पर कह न सकी…. अधखुली किताब की तरह अर्पिता को आतुर, अतृप्त और फड़फड़ाती छोड़ कर इंद्र जा चुका था.’ गीताश्री की नायिका सशक्त है. वह एक रात भी अकेली क्यों गुजारे? वह तत्काल ‘लैपटॉप लेकर बेड पर बैठ गई, फेसबुक ऑन किया. ‘क्या कर रही हो?’ .. ‘मर्द ढूंढ रही हूं, मिलेगा क्या?’.. ‘जोकिंग?’ .. ‘क्यों,  व्हाई जस्ट बिकॉज आई एम अ गर्ल इसलिए आपको जोक लग रहा है? बट आइ रियली नीड अ मैन फॉर टुनाइट.’ आमंत्रण देख कर कुछ बत्तियां इनविजिबिल हो गईं. ‘स्सालों, फट गई क्या? तुम औरतें ढूंढो, जाल फेंको तो ठीक, और कोई औरत वही करे तो जोक लगता है.’ आधी रात को आकाश नाम का एक अजनबी युवक आ भी पहुंचता है. लेखिका ने उन दोनों अजनबियों के ‘गोरिल्ला प्यार’ का पूरा वृत्तांत लिखा है- ‘देह देर तक एक दूसरे को मथती रही’ आदि. इसके बाद पार्टनर मोबाइल फोन से माफी मांगने लगता है और तब अजनबी के साथ क्रीड़ा कर चुकी नायिका का ‘गला रुंध गया. बमुश्किल उसने रुलाई रोकी.’ (हंस, सितंबर, 2012)
रुंधे गले से बमुश्किल रुलाई रोकते हुए गीताश्री ने बाजार में बेची जाती हुई औरतों की दशा पर भी पूरी एक किताब लिख डाली. इस किताब में एशिया में वेश्यावृत्ति मे झोंकी गई स्त्रियों की उपलब्धता तथा उनके रेट्स का वर्णन इस प्रकार किया गया है मानो किसी होटल के व्यंजनों का मेन्यू कार्ड हो. ‘औरत की बोली’  शीर्षक इस किताब के मुखपृष्ठ पर औरतों के आंसुओं की जगह औरतों की नंगी टांगें बनी हुई हैं. वृद्ध लेखक तथा प्रौढ़ लेखिका उत्तम पुरुष में 20 वर्ष के युवक-युवती बनकर फेसबुक के बहाने कितनी वीभत्स कल्पना को यथार्थ रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं. बढ़ती उम्र के साथ लोग बेशर्म होते चले जाते हैं पर क्या इतने बेरहम भी हो जाते हैं ?
‘भावना, प्रेम, चाहत रहित दैहिक प्रक्रियाओं का चित्रण पोर्नोग्राफी का विषय है. अध्ययन बताते हैं कि पोर्न आख्यानों में दो ऐसे व्यक्तियों का चित्रण होता है जो बस अभी-अभी मिले हैं, इस संसर्ग के बाद फिर मिलेंगे भी नहीं. ऐसा संसर्ग व्यक्ति को और भी अकेला कर देता है. ऐसे चित्रण पढ़ने और देखने के बाद व्यक्ति जीवन में लंबे और स्थायी प्रेम संबंधों तथा पारिवारिक जीवन जीने में अक्षम हो जाता है. ऐसी छवियों से मुखातिब रहने वाले लोगों के मन में प्रेम, एकनिष्ठता, प्रतिबद्धता और चाहत की भावना खत्म हो जाती है.’ (डॉल्फ जिल्मैन)
चाहे रमणिका गुप्ता का नीली आंखों वाला आदमी हो या अश्वेत पुरुष, चाहे गीताश्री का गोरिल्ला प्यार का यौन साथी हो या एक पुत्री द्वारा पिता के लिए खरीदी गई युवती, चाहे जया जादवानी की स्त्री वेश्या हो या जयश्री रॉय का पुरुष वेश्या, चाहे सहजवाला के फेसबुक वाले युवक-युवती हों और चाहे मैत्रेयी पुष्पा के लल्लू कैलासी और दूर के रिश्ते की भौजाई.  ये सारे पात्र अजनबियों के साथ यौन संसर्ग करते हुए निरूपित किए गए हैं. ये केवल शरीर हैं, हृदयविहीन शरीर. ये कहानियां पोर्न आख्यान हैं.  इन संसर्गों के लिये सेक्स या सहवास संज्ञा का प्रयोग करना इन शब्दों का अपमान करना है.
यूनान में साहित्य और कला की देवी म्यूज कहलाती है. म्यूज कलाकारों की प्रेरणा मानी जाती है. वह पूजनीय थी. भारत में प्रेरणा के लिए नवाबों-शायरों ने तवायफों को गढ़ा. तहजीब की रक्षा के नाम पर वहां केवल गाना-बजाना ही नहीं था, नाज-नखरा और अदाएं उसका प्रमुख हिस्सा थीं. उनका काम था रिझाना. नपुंसक तथा निकम्मे नवाबों को रिझाने के लिए नियुक्त तवायफों और उत्तेजित करने वाले पुरुष हिचकारों के रोचक वृत्तांत हमारे लखनऊ के ही प्रतिष्ठित इतिहासकार योगेश प्रवीण की पुस्तकों में उपलब्ध हैं. समकक्षता के इस युग में स्त्रियों का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना है या चुके हुए संपादकों-समीक्षकों को रिझाना?
महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित वर्धा विश्वविद्यालय में अपना छद्म साम्यवाद लाने के लिए कटिबद्ध उम्र के छठे दशक में विद्यमान कुलपति विभूति नारायण राय ने एक लेखिका को यौन केंद्रित गाली दी. उम्र के सातवें दशक में चल रहे रवीन्द्र कालिया ने गाली को नया ज्ञानोदय के सुपर बेवफाई अंक में छापा. उम्र के आठवें दशक में विद्यमान राजेंद्र यादव ने राय को कुलपति पद से हटाने की मांग को तालिबानी बताते हुए कहा, ‘दोस्तों, लोकतंत्र का भी कुछ सम्मान करना सीखो. आखिर हम इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं. यह शुद्ध मर्दवादी अहंकार कब तक हुंकारता रहेगा कि हम अपनी महिलाओं का अपमान नहीं सहेंगे.’ (हंस, सितंबर 2010 ). और उम्र के नवें दशक में विद्यमान साम्यवादी प्रोफेसर नामवर सिंह ने मौन सहमति दी.
मैत्रेयी पुष्पा रिटायर्ड पुरुष पुलिस अधिकारी से यौन केंद्रित गाली खाने के बाद भी उन्हीं के साथ चर्चारत दिखाई दीं (पाखी). उस छिछली चर्चा में क्षमाप्रार्थी होने के बजाय राय ने बड़ी निर्लज्जता से वरिष्ठ मैत्रेयी पुष्पा की तुलना अत्यंत फूहड़ लेखन करने वाली कनिष्ठ ज्योति कुमारी से कर दी. कोई सैद्धांतिक प्रतिरोध करने की जगह वे ‘ऊंऽऽ, आप लोग तो बड़े वैसे हैं’ की तर्ज पर कुनमुनाती नजर आईं. यह सब कैसे संभव हुआ? मैत्रेयी पुष्पा के आचार-विचार से तमाम असहमतियों के बावजूद मेरा मत है कि वे एक समर्थ लेखिका हैं. यदि यौन सक्रियता के वृत्तांतों से उनका सशक्तीकरण हो चुका होता तो क्या यह संभव था कि एक औसत से भी बदतर कहानी-उपन्यास लिखने वाला पुरुष इतनी वरिष्ठ लेखिका को इस तरह अपमानित कर दे और वह निरुत्तर रह जाए? यह मर्दों के खेला में नाचने के लिए तैयार होने का ही प्रतिफल है कि साहित्य में और समाज में लेखिकाएं मखौल का पात्र बन रही हैं.  इस बीच कुछ बेहतर लेखन भी अवश्य हुआ होगा मगर इस खेल में शामिल न होने के कारण वह अचर्चित रहा.
हिंदी लेखन अब तक भयंकर रूप से पितृसत्तात्मक है. अपने पुरुषवर्चस्ववादी स्वत्व की रक्षा करते हुए पिछली पीढ़ी के दंभी वयोवृद्ध पुरुषों ने पूरी तरह नकली औरतें गढ़ ली हैं. हर आयु वर्ग और आकार-प्रकार की ये बार्बी डॉल्ज हिंदी लेखन के बाजार में उपलब्ध हैं. इन्हें पूंजीवादी विदेशियों ने नहीं देसी जनवादियों ने तैयार किया है. चाबी से चलने वाली चीनी गुडि़यों की तरह इनके भीतर एक प्रोग्राम भरा है. चाबी लगाने पर ये वही बोलती हैं जो इनके निर्माताओं ने इनके भीतर भरा है. ये गुडि़यां बच्चों के लिए नहीं, हिंदी के प्रगतिशील वयोवृद्धवृंद की क्रीड़ा के लिए हैं.
रमणिका गुप्ता की ट्रेन में अजनबी सहयात्री से सहवास करने वाली स्त्री कहती है, ‘वे आंखें भी तो अपनी नीलिमा से मेरी देह को सहला ही तो रही हैं. कल जो दिन चढ़ेगा उसमें यह विलक्षण क्षण अलग से जुड़ जाएगा. इजाफा हो जाएगा तुम्हारे अनुभवों की फेहरिस्त में.’
इन चर्चित लेखिकाओं ने अनुभवों की फेहरिस्त में इजाफा करते हुए स्त्री-पुरुषों के वेश्याओं और अजनबियों के साथ यौन संसर्गों को अपना विषय बनाया है ताकि उन्हें मन, बुद्धि, चेतना, आत्मा और सारे मानवीय संबंधों से रहित शरीर के वर्णन का वितान मिल जाए. यह हिंदी में साहित्य के नाम पर चल रहा देह व्यापार है, जहां स्त्री, और अब तो पुरुष भी मांस का टुकड़ा हैं, बेचेहरा और हृदयहीन.
छद्म विमर्शकार बड़ी बेहयाई से पूछ रहे हैं कि क्या स्त्री को वह लिखने का अधिकार नहीं जो पुरुष लिख रहे हैं. मगर मूल प्रश्न इससे गंभीर है- आखिर लिखा क्या जा रहा है? स्त्री कौन-सा हक मांग रही है? मानव शरीर के अपमानित और विमानवीकृत चित्रण का हक? भावना विहीन देह वृत्तांत कहने का हक? यदि स्त्री तथा पुरुष के रचे में भिन्नता है ही नहीं तो स्त्री लेखन को अलग से रेखांकित क्यों किया जाए? प्रियंवद की ‘गंदी’ कहानी में नायक की भूतपूर्व सखी उसके घर ठहरी. वह कहती है- ‘बस मैं नहा लूं फिर बैठते हैं….अंदर से नल की धार की आवाज आ रही थी. दो कदम आगे बढ़ कर मैं झुका और गुसलखाने की दरार से आंख लगा दी. उसकी पीठ मेरी तरफ थी. लपटें फेंकते हुए दो अग्निकुंडों की तरह उसके नितंब चमक रहे थे’ (कथादेश, दिसंबर 2012). नायक एक प्रौढ़ पुरुष है, कोई किशोर बालक नहीं.
‘छुट्टी का दिन’ कहानी भी जयश्री रॉय ने पुरुष की ओर से उत्तम पुरुष में लिखी है,’ सच पूछो तो भारी नितंबों वाली स्त्री के पीछे पीछे रोज एकाध घंटे चलना मुझे बुरा भी नहीं लगता था. वह आगे आगे बतख की तरह कूल्हे मटकाती नाजो अदा से चलती थी.’ पुरुष घर आ कर ‘नौकरानी कांता बाई के नितंब निहारता.’ प्रौढ़ दंपति में से पति रोशनदान से झांकता हुआ पड़ोस की अमला भाभी को नहाते हुए देखता है, और प्रौढ़ पत्नी पड़ोस के त्रिपाठी भाई साहब को.
सहज स्वाभाविक संबंधों का विवरण साहित्य में कभी समस्याप्रद नहीं रहा. यह स्वस्थ साहचर्य का चित्रण है ही नहीं, यह तो ‘वाइकेरियस प्लेजर’ देने वाला ‘की-होल जर्नलिज्म’ है. गुदगुदी और सनसनी पैदा करने के लिए लेखक-लेखिका दरारों से झांक रहे हैं. पोर्नोग्राफर स्त्री को अपने ही शरीर का अवयवीकरण और अपमान करना सिखाता है. जयश्री रॉय पुरुष बन कर मर्दों के खेला में नाचती हुई भारी नितंबों वाली स्त्री के पीछे-पीछे चल रही हैं , नौकरानी कांता बाई के नितंब निहार रही हैं, गुसलखाने के रोशनदान से पड़ोस की अमला भाभी को बिना टाट का पर्दा डाले ही नहाते हुए झांक रही हैं और उपहास की भाषा में स्त्री अवयव वर्णन कर रही हैं. बहुत खूब.
इंटरनेट पर चैट करने वाले, मॉर्निंग वाक करने वाले मध्यवर्गीय प्रौढ़ दंपति ऐसे किस मुहल्ले में रहते थे जहां पड़ोसी त्रिपाठी दंपति आंगन में टाट का पर्दा डाल कर और कभी कभी बिना पर्दा डाले ही नहाता होगा? गीताश्री की कहानी का परिवार, जहां होमसर्विस देने वाली वेश्या तक इंग्लिश बोलती है, ऐसी किस सोसाइटी के टावर्स में रहता होगा जहां फर्स्ट फ्लोर की बाल्कनी में ‘बताऊं क्या-क्या गिरते हैं?..यूज्ड कॉन्डम और सैनिटरी नैपकिन्स’ ( ताप ). जुगुप्सा जगाने की प्रतियोगिता में एक -दूसरे को पछाड़ती इन लेखिकाओं की कहानियों में पात्रों और पृष्ठभूमि की विश्वसनीयता की अपेक्षा करना धरती पर चांद मांगने जैसा है.
दशकों के प्रयासों से यह समूह साहित्य की मुख्यधारा को पोर्न आख्यानों से बदल चुका है. ऐसे आख्यान अब अपवाद नहीं नियम हैं जिनमें यौन संसर्ग आकस्मिक और भावना विहीन है और स्त्री एक पूर्णतः यौनीकृत वस्तु.
जयश्री रॉय की देह, नदी और रात सीरीज की एक अन्य कहानी ‘समन्दर, बारिश और एक रात’ (कथादेश) में ‘फुलमून नाइटडांस में डॉनी अपनी बांहों में दो लड़कियों को एक साथ भींचे झूम रहा था. स्कारलेट 14 वर्ष की ब्राजीलियन लड़की थी जो पिछले तीन महीनों से अपनी प्रेमिका नीकीबार्नो के साथ एक कमरा लेकर रह रही थी, कभी कभी अपना स्वाद बदलने के लिए पुरुषों के साथ भी हो लेती थी. आज की रात उसका डेट अफ्रीकन युवक था.’ वह बलिष्ठ अफ्रीकन युवक के कंधे पर से उतर कर जेनी नामकी लड़की का जबरदस्ती यौन शोषण करती है. जहां सभी लोग स्वेच्छा से एक साथ अनेक अजनबियों के साथ यौन संसर्ग में लिप्त थे वहां सामूहिक बलात्कार की गुंजाइश कहां थी? मगर जयश्री रॉय ने जगह निकाल ली और सामूहिक बलात्कार की पूरी प्रक्रिया का वर्णन इतने विस्तार और इतनी तटस्थता से किया मानो ‘सामूहिक बलात्कार कैसे करें’ की दिशानिर्देशक हैंडबुक तैयार कर रही हों. न स्त्री की यातना का लेशमात्र वर्णन, न पुरुष की दरिन्दगी के प्रति क्षोभ. 75 वर्षीय वृद्ध परमानन्द श्रीवास्तव ने लेखिका की ऐसी कहानियों को कविता बताते हुए कसीदे काढ़े हैं (पाखी, दिसम्बर 2011) दरिंदगी के ऐसे बढ़ते अपराधों से समाज दहल रहा है मगर हिंदी लेखन में उत्सव चल रहा है.
इस परंपरा में ज्योति कुमारी की ‘अनझिप आंखें’ में पति द्वारा उत्पीड़ित नायिका के आगे उसका मामा यौन संसर्ग का प्रस्ताव रखता है फिर कार्यस्थल पर अखबार का संपादक. वह एक समाज सेविका से मदद मांगती है जो उसका हौसला बढ़ाती है, ‘चल कल मूवी चलते हैं.’ मूवी चल रही है. इंग्लिश बोल्ड लव स्टोरी. बड़ी तेजी से मेरे पैरों पर फिसलता हुआ एक हाथ बढ़ा चला आता है-‘अरे यह तो मैम का हाथ है.’ मैं हकला कर रह गई…’ मैम मैं वैसी लड़की नहीं हूं…मैम आइ एम नाट लेस्बियन.’..’ओह’, अचानक ऊपर आता मैम का हाथ रुक गया..’अच्छा तो तुम मर्दख़ोर हो’ और आंख दबा कर मुस्करा दीं.’ (हंस, अगस्त 2012)
जिस तरह हिंदी की मसाला फिल्मों में लंबे रेप सीन स्त्री पर होने वाले अत्याचार के प्रति करुणा जगाने के लिए नहीं मर्दों को रेप करने का वाइकेरियस प्लेजर देने के लिए रखे जाते हैं, उसी तरह इन कहानियों में स्त्री शोषण के सारे आयाम एक ही स्थान पर उपलब्ध करा दिए गए हैं. यह बूढ़े मर्दों की फरमाइश पर पेश किया गया ‘मेड टु ऑर्डर’ व्यंजन है, इसीलिए उनके द्वारा प्रकाशित, प्रशंसित, अनुशंसित और पुरस्कृत है. यहां मर्दवादी लेस्बियन होमोफोबिया भी मौजूद है. पितृभाव दिखाते हुए पुरानी पीढ़ी के घोर पुरुषवादी लेखकों ने पिछले दो तीन दशकों में स्त्री की जो विमानवीकृत छवि गढ़ी उसी के अनुरूप स्वयं को ढालती हुई ये गुड़ियाएं खुद को अपने शरीर से अलग करके लेखन में स्त्री शरीर परोस रही हैं.
गीताश्री की कहानी ताप इस प्रवृत्ति का शास्त्रीय उदाहरण है. उसमें मां बेटी से कहती है, ‘मैं ठंडा गोश्त हूं जिसे गर्म नहीं किया जा सकता. अपने पापा के लिए किसी लड़की का इंतजाम कर दे.’ यही बात उसका सहकर्मी विप्लव उससे अपने पिता के विषय में कहता है, ‘बुड्ढा बहुत सेक्सी है. मिलवाऊंगा तो आफत आ जाएगी. फिर न कहना कि देखो तेरे पिता ने क्या कर दिया. नॉट जोकिंग यार सीरियसली. मेरी मां अब बहुत बूढ़ी हो गई है. पिता अब भी फफन रहे हैं. सोचता हूं उनके लिए किसी लड़की-वड़की का इंतजाम कर दूं. विप्लव हंसते हुए बता रहा था. न कोई संकोच न कोई शर्मिंदगी.’ (इरावती पृ.126)
वृद्धा मां और युवा विप्लव दोनों ‘लड़की-वड़की का इंतजाम’ की भाषा बोलते हैं. युवा बेटा अपने बाप के लिए लड़की का इंतजाम करता है और युवा बेटी अपने बाप के लिए. वृद्ध पिता कहता है’, ‘पांच-पांच हज़ार में एक से एक मिलती हैं.’ मां ‘ठंडा गोश्त’ है, पिता अब भी ‘फफन रहे हैं’ और लड़कियां बिक रही हैं. एग्रेसिव मेन और सब्मिसिव वुमन की सेडोमेसोचिस्ट छवि को अब पुरुष नहीं स्त्री पुख्ता कर रही है. ‘स्त्री आकांक्षा के मानचित्र’ की चितेरी इन गीताश्री की शान में राजेंद्र यादव संपादकीय लिख चुके हैं. मर्दों के खेला में यही स्त्री विमर्श है. वृद्ध पुरुष यौन बुभुक्षित हैं और युवा स्त्रियां उनका आहार. औरतों ने भी यही छवि आत्मसात कर ली है.
स्त्री की इस आत्मछवि के निर्माण में उन पुरस्कारों का भी हाथ है जो ऐसा लेखन प्रोत्साहित करने के लिए दिए जाते रहे. पुरस्कारों का अर्थ केवल 51 या 51 लाख रुपये, एक शॉल तथा नारियल, जिसे कविगण मंच से श्रीफल कहते सुने जाते हैं, ही नहीं होता. इसका मतलब यह भी है कि उन समयों में वैसा लेखन समाज में उत्कृष्ट माना जा रहा था. यही लेखन पीढ़ी के लिए नजीर बनता है और भावी पीढ़ी उसका अनुसरण करती है. लोकप्रियता ही श्रेष्ठता का आधार नहीं होती. इसी कारण उत्कृष्ट कला फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता है भले ही वे लोकप्रिय न भी हुई हों. हिंदी लेखन में कलावस्तु के स्थान पर पोर्न वस्तुओं का पुरस्कृत होना गहरी चिंता का विषय है.
आज सभी क्षेत्रों में स्त्रियां पुरुषों के बराबर खड़ी दिखाई दे रही हैं. आज वे केवल परीक्षाओं में सफल होकर डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापिका ही नहीं बन रहीं, राष्ट्रीय और निजी क्षेत्र के बैंकों की चेयरमैन कम मैनेजिंग डारेक्टर, कॉरपोरेट हाउसेज की मालकिन और अंतरिक्ष यात्री भी हैं. गांवों और शहरों में लाखों स्वास्थ्यकर्मी, एएनएम, आशा बहुएं, आंगनवाड़ी और प्राथमिक पाठशालाओं में काम करने वाली स्त्रियां खुद कमा रही हैं और घर चला रही हैं. अध्ययन बताते हैं कि एक तिहाई घरों की अकेली कमाने वाली सदस्य स्त्रियां हैं. परिवार के मुखिया के रूप में भले ही रजिस्टर में पुरुष का नाम लिखवा दिया जाए पर इन घरों में बच्चे अपने निखट्टू पिता की जगह कर्मठ मां की ही सत्ता मानते हैं.
खेद है कि हिंदी लेखन में सारी सत्ता ऐसे मर्दों के हाथ में है जिनके अपने निजी जीवन में स्त्रियों का न कोई आदर- सम्मान है न ही स्थान. वे प्रोफेसर हैं, संपादक और चयनकर्ता भी. इन मठाधीशों ने रमणिका गुप्ता जैसे लेखन को साहसिक बता कर अनुकरणीय बनाया और हिंदी लेखन में आलिंगन चुंबन द्वारा सत्ता हस्तांतरण की प्रणाली स्थापित होती चली गई. यह समकक्षता नहीं है. अवनतिशील वृद्धवृंद प्रगतिशीलता के प्रमाणपत्र बांट रहा है और  बार्बी डॉल्ज प्रमाणपत्र पाने को पंक्तिबद्ध खड़ी हैं.
इन हेय और उपेक्षणीय रचनाओं को उद्धृत करना मेरे लिए एक कष्टप्रद अनुभव रहा. मेरा उद्देश्य रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करना नहीं बल्कि पाठकों के सामने स्त्री लेखन के नाम पर चल रही दुर्भावनापूर्ण पोर्न परंपरा की बानगी प्रस्तुत करना है. अंतिम निर्णय तो पाठक करेंगे और आने वाला समय.
जनवादियों द्वारा अतिनिंदित वेदों में एक प्रार्थना है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’. साहित्य को समाज के आगे मशाल ले कर चलते हुए समाज का पुरोधा होना चाहिए. आदिकाल, वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिककाल के बाद छद्म जनवादियों द्वारा निर्मित यह नवरीतिकाल का अंधायुग है. इस अंधे युग के ‘हर पल गहरे होते जाते अंधियारे’ में आबाल-वृद्ध (छोटी-बड़ी) बार्बी डॉल्ज से प्रगतिशीलता के रैंप पर कैटवॉक करवाई जा रही है- उजाले से अंधेरे की ओर.
जो पोर्न छवियां पूंजीवाद के बाजार में इंटरनेट पर क्रेडिट कार्ड द्वारा पेमेंट करके खरीदी जाती हैं, प्रगतिशील जनवादियों के बाजार में वे ही छवियां मुफ्त में उपलब्ध हैं. इस बाजार को ही हिंदी साहित्य बताया जा रहा है. यह बाजार युवाओं द्वारा नहीं मर्दों के वृद्धवृंद द्वारा संचालित, पोषित और नियंत्रित है. इसमें वृद्ध, प्रौढ़ और युवा बार्बी डॉल्ज नृत्य में अव्वल आने के लिए एक-दूसरे से होड़ ले रही हैं. यह स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहा उन्मादग्रस्त आनंदनृत्य है .
धार्मिक रूढि़वाद के विरुद्ध स्त्रीमुक्ति की आवाज उठाते बहुत समय हो गया. जनवादियों का यह पोर्न अनुष्ठान उससे ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इसे प्रगतिशील स्त्री विमर्श के रूप में पेश किया जा रहा है. आज यह आवाज छद्म जनवाद के खिलाफ उठा रही हूं, इसलिए कि अब और चुप रह पाना मुमकिन नहीं और इसलिए भी कि मुझे पूरा यकीन है इस आवाज को जरूर सुना जाएगा.

 रानी फाॅल / रानी जलप्रपात यह झारखण्ड राज्य के प्रमुख मनमोहन जलप्रपात में से एक है यहाँ पर आप अपनी फैमली के साथ आ सकते है आपको यहां पर हर प्...