बुधवार, 31 जुलाई 2013

कैसे बना हैदराबाद भारत का हिस्सा!

कैसे बना हैदराबाद भारत का हिस्सा!

 बुधवार, 31 जुलाई, 2013 को 08:28 IST तक के समाचार

जिस समय ब्रिटिश भारत छोड़ रहे थे, उस समय यहाँ के 562 रजवाड़ों में से सिर्फ़ तीन को छोड़कर सभी ने भारत में विलय का फ़ैसला किया. ये तीन रजवाड़े थे कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद.
अंग्रेज़ों के दिनों में भी हैदराबाद की अपनी सेना, रेल सेवा और डाक तार विभाग हुआ करता था. उस समय आबादी और कुल राष्ट्रीय उत्पाद की दृष्टि से हैदराबाद भारत का सबसे बड़ा राजघराना था. उसका क्षेत्रफल 82698 वर्ग मील था जो कि इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के कुल क्षेत्रफल से भी अधिक था.
क्लिक करें हैदराबाद की आबादी का अस्सी फ़ीसदी हिंदू लोग थे जबकि अल्पसंख्यक होते हुए भी मुसलमान प्रशासन और सेना में महत्वपूर्ण पदों पर बने हुए थे.
उस पर तुर्रा ये भी था कि कट्टरपंथी क़ासिम राज़वी के नेतृत्व मे रज़ाकार हैदराबाद की आज़ादी के समर्थन में जन सभाएं कर रहे थे और उस इलाक़े से गुज़रने वाली ट्रेनों को रोक कर न सिर्फ़ ग़ैर-मुस्लिम यात्रियों पर हमले कर रहे थे बल्कि हैदराबाद से सटे हुए भारतीय इलाक़ों में रहने वाले लोगों को भी परेशान कर रहे थे.

जिन्ना के समर्थन की गुहार

मोहम्मद अली जिन्ना
हैदराबाद के निज़ाम ने जिन्ना से समर्थन मांगा था
निज़ाम, हैदराबाद के भारत में विलय के किस क़दर ख़िलाफ थे, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जिन्ना को संदेश भेजकर ये जानने की कोशिश की थी कि क्या वह भारत के ख़िलाफ़ लड़ाई में हैदराबाद का समर्थन करेंगे? (के एम मुंशी, एंड ऑफ़ एन एरा)
कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा 'बियॉंन्ड द लाइंस' में लिखा है कि जिन्ना ने इसका इसका जवाब देते हुए कहा था कि वो मुट्ठी भर आभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए क्लिक करें पाकिस्तान के अस्तित्व को ख़तरे में नहीं डालना चाहेंगे.
उधर क्लिक करें नेहरू माउंटबेटन की उस सलाह को गंभीरता से लेने के पक्ष में थे कि इस पूरे मसले का हल शांतिपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए.
सरदार पटेल नेहरू के इस आकलन से सहमत नहीं थे. उनका मानना था कि उस समय का हैदराबाद ‘भारत के पेट में कैंसर के समान था,’ जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था.
पटेल को इस बात का अंदाज़ा था कि हैदराबाद पूरी तरह से पाकिस्तान के कहने में था. यहां तक कि पाकिस्तान पुर्तगाल के साथ हैदराबाद का समझौता कराने की फ़िराक़ में था जिसके तहत हैदराबाद गोवा में बंदरगाह बनवाएगा और ज़रूरत पड़ने पर वो उसका इस्तेमाल कर सकेगा.
इतना ही नहीं हैदराबाद के निज़ाम अपने एक संवैधानिक सलाहकार सर वाल्टर मॉन्कटॉन के ज़रिए लॉर्ड माउंटबेटन से सीधे संपर्क में थे. मॉन्कटॉन के कंज़र्वेटिव पार्टी से भी नज़दीकी संबंध थे.
जब माउंटबेटन ने उन्हें सलाह दी कि हैदराबाद को कम से कम संवैधानिक सभा में तो अपना प्रतिनिधि भेजना चाहिए तो मॉन्कटॉन ने जवाब दिया था कि अगर वह ज़्यादा दवाब डालेंगे तो वे पाकिस्तान के साथ विलय के बारे में बहुत गंभीरता से सोचने लगेंगे.

हथियारों की तलाश

पटेल
हैदराबाद में सेना भेजने के मुद्दे पर नेहरू और पटेल में गहरे मतभेद थे
और तो और उन्होंने राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने की भी इच्छा प्रकट की थी जिसे एटली सरकार ने ठुकरा दिया था (इंदर मल्होत्रा, द हॉरसेज़ दैट लेड ऑपरेशन पोलो)
निज़ाम के सेनाध्यक्ष मेजर जनरल एल एदरूस ने अपनी किताब 'हैदराबाद ऑफ़ द सेवेन लोव्स' में लिखा है कि निज़ाम ने उन्हें ख़ुद हथियार ख़रीदने यूरोप भेजा था. लेकिन वह अपने मिशन में सफल नहीं हो पाए थे क्योंकि हैदराबाद को एक आज़ाद देश के रूप में मान्यता नहीं मिली थी.
मज़े की बात ये थी कि एक दिन अचानक वह लंदन में डॉर्सटर होटल की लॉबी में माउंटबेटन से टकरा गए. माउंटबेटन ने जब उनसे पूछा कि वह वहाँ क्या कर रहे हैं तो उन्होंने झेंपते हुए जवाब दिया था कि वह वहाँ अपनी आंखों का इलाज कराने आए हैं.
माउंटबेटन ने मुस्कराते हुए उन्हें आँख मारी. लेकिन इस बीच लंदन में निज़ाम के एजेंट जनरल मीर नवाज़ जंग ने एक ऑस्ट्रेलियाई हथियार विक्रेता सिडनी कॉटन को हैदराबाद को हथियारों की सप्लाई करने के लिए राज़ी कर लिया.
भारत को जब ये पता चला कि सिडनी कॉटन के जहाज़ निज़ाम के लिए हथियार ला रहे हैं तो उसने इन उड़ानों पर प्रतिबंध लगा दिया.
एक समय जब निज़ाम को लगा कि भारत हैदराबाद के विलय के लिए दृढ़संकल्प है तो उन्होंने ये पेशकश भी की कि हैदराबाद को एक स्वायत्त राज्य रखते हुए विदेशी मामलों, रक्षा और संचार की ज़िम्मेदारी भारत को सौंप दी जाए.

रज़ाकारों का क़हर

"मैं जनरल करियप्पा के साथ कश्मीर में था कि उन्हें संदेश मिला कि सरदार पटेल उनसे तुरंत मिलना चाहते हैं. दिल्ली पहुंचने पर हम पालम हवाई अड्डे से सीधे पटेल के घर गए. मैं बरामदे में रहा जबकि करियप्पा उनसे मिलने अंदर गए और पाँच मिनट में बाहर आ गए. बाद में उन्होंने मुझे बताया कि सरदार ने उनसे सीधा सवाल पूछा जिसका उन्होंने एक शब्द में जवाब दिया."
जनरल एसके सिन्हा, भारत के पूर्व उपसेनाध्यक्ष
लेकिन इस प्रस्ताव को अमली जामा इसलिए नहीं पहनाया जा सका क्योंकि वो रज़ाकारों के प्रमुख क़ासिम राज़वी को इसके लिए राज़ी नहीं करवा सके.
रज़ाकारों की गतिविधियों ने पूरे भारत का जनमत उनके ख़िलाफ़ कर दिया. 22 मई को जब उन्होंने ट्रेन में सफ़र कर रहे हिंदुओं पर गंगापुर स्टेशन पर हमला बोला तो पूरे भारत में सरकार की आलोचना होने लगी कि वो उनके प्रति नर्म रुख़ अपना रही है.
भारतीय सेना के पूर्व उपसेनाध्यक्ष लेफ़्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा अपनी आत्मकथा स्ट्रेट फ्रॉम द हार्ट में लिखते हैं, "मैं जनरल करियप्पा के साथ कश्मीर में था कि उन्हें संदेश मिला कि सरदार पटेल उनसे तुरंत मिलना चाहते हैं. दिल्ली पहुंचने पर हम पालम हवाई अड्डे से सीधे पटेल के घर गए. मैं बरामदे में रहा जबकि करियप्पा उनसे मिलने अंदर गए और पाँच मिनट में बाहर आ गए. बाद में उन्होंने मुझे बताया कि सरदार ने उनसे सीधा सवाल पूछा जिसका उन्होंने एक शब्द में जवाब दिया."
सरदार ने उनसे पूछा कि अगर हैदराबाद के मसले पर पाकिस्तान की तरफ़ से कोई सैनिक प्रतिक्रिया आती है तो क्या वह बिना किसी अतिरिक्त मदद के उन हालात से निपट पाएंगे?
करियप्पा ने इसका एक शब्द का जवाब दिया 'हाँ' और इसके बाद बैठक ख़त्म हो गई.
इसके बाद सरदार पटेल ने हैदराबाद के ख़िलाफ़ सैनिक कार्रवाई को अंतिम रूप दिया. भारत के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल रॉबर्ट बूचर इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ थे. उनका कहना था कि पाकिस्तान की सेना इसके जवाब में अहमदाबाद या बंबई पर बम गिरा सकती है.
दो बार हैदराबाद में घुसने की तारीख़ तय की गई लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते इसे रद्द करना पड़ा. निज़ाम ने गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी से व्यक्तिगत अनुरोध किया कि वे ऐसा न करें.
राजा जी और नेहरू की बैठक हुई और दोनों ने कार्रवाई रोकने का फ़ैसला किया. निज़ाम के पत्र का जवाब देने के लिए रक्षा सचिव एचएम पटेल और वीपी मेनन की बैठक बुलाई गई.
दुर्गा दास अपनी पुस्तक इंडिया फ़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर में लिखते हैं, "जब पत्र के उत्तर का मसौदा तैयार हुआ तभी पटेल ने घोषणा की कि भारतीय सेना हैदराबाद में घुस चुकी है और इसे रोकने के लिए अब कुछ नहीं किया जा सकता."

दिल्ली पर बमबारी

नेहरु और गांधी
नेहरू और राजा जी चिंतित थे कि इससे पाकिस्तान जवाबी कार्रवाई करने के लिए प्रेरित हो सकता है लेकिन चौबीस घंटे तक पाकिस्तान की तरफ़ से कुछ नहीं हुआ तो उनकी चिंता मुस्कान में बदल गई.
हाँ, जैसे ही भारतीय सेना हैदराबाद में घुसी, पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ाँ ने अपनी डिफ़ेंस काउंसिल की बैठक बुलाई और उनसे पूछा कि क्या हैदराबाद में पाकिस्तान कोई ऐक्शन ले सकता है?
बैठक में मौजूद ग्रुप कैप्टेन एलवर्दी (जो बाद में एयर चीफ़ मार्शल और ब्रिटेन के पहले चीफ़ ऑफ डिफ़ेंस स्टाफ़ बने) ने कहा ‘नहीं.’
लियाक़त ने ज़ोर दे कर पूछा ‘क्या हम दिल्ली पर बम नहीं गिरा सकते हैं?’
एलवर्दी का जवाब था कि हाँ ये संभव तो है लेकिन पाकिस्तान के पास कुल चार बमवर्षक हैं जिनमें से सिर्फ़ दो काम कर रहे हैं.' इनमें से एक शायद दिल्ली तक पहुँच कर बम गिरा भी दे लेकिन इनमें से कोई वापस नहीं आ पाएगा.'
भारतीय सेना की इस कार्रवाई को ऑपरेशन पोलो का नाम दिया गया क्योंकि उस समय हैदराबाद में विश्व में सबसे ज़्यादा 17 पोलो के मैदान थे.
पांच दिनों तक चली इस कार्रवाई में 1373 रज़ाकार मारे गए. हैदराबाद स्टेट के 807 जवान भी खेत रहे. भारतीय सेना ने अपने 66 जवान खोए जबकि 97 जवान घायल हुए.
भारतीय सेना की कार्रवाई शुरू होने से दो दिन पहले ही 11 सितंबर को पाकिस्तान के संस्थापक क्लिक करें मोहम्मद अली जिन्ना का निधन हो गया था.

रविवार, 28 जुलाई 2013

KanshiTV PM Show 27 07 2013

Dalay Hindi newspaper Mulnivasi Nayak - Rahul verma Madhan Garh










पूर्ण बहुमत मिला तो बनेगा भव्य राम मंदिर: वाजपेयी


पूर्ण बहुमत मिला तो बनेगा भव्य राम मंदिर: वाजपेयी

ram-mandir
राम पर राजनीति
लखनऊ।। भले ही बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह सहित कई केंद्रीय नेता यह कह रहे हैं कि राम मंदिर उनके चुनावी अजेंडे में नहीं है, लेकिन पार्टी के यूपी के अध्यक्ष का कहना है कि पूर्ण बहुमत मिलने पर हम संविधान संशोधन कर अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाएंगे। यूपी उत्तर बीजेपी के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने कहा कि यदि 2014 के आम चुनाव में पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला, तो जिस तरह डॉ. राजेंद्र प्रसाद के समय में संविधान में संशोधन कर सोमनाथ मंदिर का निर्माण कराया गया था, उसी तरह बीजेपी भी राम मंदिर बनवाएगी। वाजपेयी ने साफ तौर पर कहा कि गठबंधन धर्म की मजबूरियों और पूर्ण बहुमत न मिलने की वजह से ही आज तक राम मंदिर नहीं बन पाया। वाजपेयी ने ये बातें एक न्यूज एजेंसी को दिए इंटरव्यू के दौरान कहीं।

राम मंदिर आस्था का विषय है
वाजपेयी ने कहा कि राम मंदिर आस्था का विषय है। मंदिर आंदोलन की शुरुआत विश्व हिंदू परिषद ने की थी। बाद में पार्टी द्वारा यह नारा भी दिया गया कि रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। मंदिर वहां तभी स्थापित होता जब वहां का स्थान खाली होता। हिंदू समाज की वजह से ही वह स्थान खाली हो पाया है। राष्ट्रवाद के मुद्दे पर वाजपेयी ने कहा कि हिंदुत्व ही राष्ट्रवाद है, राष्ट्रवाद ही हिंदुत्व है। भारत माता के दुख में दुखी और सुख में सुखी होने वाला हर पंथ और धर्म का व्यक्ति राष्ट्रवादी हो सकता है।

आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर पार्टी की तैयारियों के बारे में पूछे जाने पर वाजपेयी ने कहा कि चुनाव सुशासन, विकास और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर ही लड़ा जाएगा। इसके अलावा महंगाई, करप्शन एवं आंतरिक तथा बाह्य सुरक्षा के साथ खिलवाड़ भी प्रमुख मुद्दा बनेगा।

यूपी में मिल सकती हैं 50 से अधिक सीटें
अगले आम चुनाव में पार्टी कितनी सीटें जीत सकती हैं? इस सवाल पर वाजपेयी ने कहा, 'अभी आगे-आगे देखते जाइए। अभी तक तो जो सर्वे रिपोर्ट आ रही हैं उनमें हम अन्य पार्टियों से काफी आगे हैं। हम आपसे यह दावे के साथ कह सकते हैं, यह स्थिति अभी पार्टी के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष नरेंद्र मोदी के यहां न पहुंचने से पहले की है। जिस दिन मोदी की सभाएं यूपी में होना शुरू हो जाएंगी उस दिन से विपक्षियों की नींद हराम हो जाएगी। पार्टी 50 से अधिक सीटों पर अपना परचम लहरा सकती है।' पार्टी के भीतर गुटबाजी के बारे में पूछे जाने पर वाजपेयी ने कहा, 'पार्टी के भीतर ऐसी स्थिति नहीं है। गुटबाजी होती तो हम नगर निगम चुनावों में बड़ी जीत हासिल नहीं कर पाते। लोकसभा का चुनाव यहां हर नेता के लिए अपना अस्तित्व बचाने की तरह है। चूक हुई तो इसका खामियाजा सबको एक साथ भुगतना पडे़गा।'

दिग्विजय जैसे लोग हिंदू नहीं हो सकते
वाजपेयी से यह पूछे जाने पर कि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने बयान में कहा कि वह भी हिंदू हैं और रोज मंदिर जाते हैं। इस पर उन्होंने कहा कि ऐसा व्यक्ति जो हिंदुओं से जुडे़ सांस्कृतिक केंद्रों पर जाता हो लेकिन अपने आचार, विचार और व्यवहार में उसे लागू न करता हो वह व्यक्ति हिंदू नहीं हो सकता। उन्होंने बड़े ही तीखे अंदाज में कहा कि बटला हाउस मुठभेड़ के आरोपियों के घर जाकर छाती पीटकर प्रलाप करने वाला व्यक्ति हिंदू कतई नहीं हो सकता है।

यूपी में मुस्लिम तुष्टीकरण
सूबे की अखिलेश सरकार पर निशाना साधते हुए वाजपेयी ने कहा कि मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा और हर योजनाओं में लाभ पहले मुस्लिमों को दिया जा रहा है। यह मुद्दा भी चुनाव के दौरान प्रमुखता से उठाया जाएगा। इसके अलावा सूबे में गिरती कानून-व्यवस्था का मुद्दा भी अहम भूमिका निभाएगा।

त्रिस्तरीय रिजर्वेशन का विरोध
रिजर्वेशन के मुद्दे पर वाजपेयी ने कहा कि सरकार को पहले वाली व्यवस्था लागू करनी चाहिए। पार्टी त्रिस्तरीय रिजर्वेशन व्यवस्था का सख्त विरोध करेगी। पहले रिजर्वेशन सिर्फ इंटरव्यू में दिया जाता था, लेकिन नियम में परिवर्तन कर इसे त्रिस्तरीय बना दिया गया है, जो कि गलत है।

माया जिस थाली में खाती हैं उसी में छेद करती हैं
वाजपेयी से यह पूछे जाने पर कि बीएसपी की मुखिया मायावती ने कुछ दिनों पहले ही सार्वजनिक मंच से बजरंग दल जैसे संगठनों पर बैन लगाने की मांग की थी, इस पर उन्होंने कहा, 'मायावती जिस थाली में खाती हैं, उसी में छेद करती हैं। उनको तो शर्म आनी चाहिए। मायावती में दम है तो केंद्र सरकार से कहकर बजरंग दल पर बैन लगवा दें या फिर केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लें।'

देश में तेजी से बढ़ रही है अमीर-गरीब के बीच की खाई


देश में तेजी से बढ़ रही है अमीर-गरीब के बीच की खाई

सुबोध वर्मा
नई दिल्ली।।
नेता जहां गरीब को 1, 5 और 12 रुपये में भरपेट खाना मिलने की बात कर रहे हैं, वहीं पिछले 12 सालों में अमीर और गरीब के बीच की खाई कितनी बढ़ी है, इसके आकंड़े आपको हैरान कर देंगे। पिछले 12 सालों में अमीर और गरीब के बीच की खाई बेइंतहा बढ़ी है। इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं आज शहर में अमीर तबके की खर्च करने की क्षमता गरीब के मुकाबले 15 गुना ज्यादा है। यहां गौर करने वाली बात यह पिछले 12 सालों में महंगाई कहां से कहां तक पहुंची है, यह आप भी अच्छी तरह से जानते हैं।

कंज़ंप्शन एक्सपेंडिचर सर्वे के नए आंकड़े बताते हैं कि गरीब और अमीर के बीच खाई हर साल चौड़ी हो रही है। 2000 से 2012 के बीच अमीर तबके के खर्च करने की क्षमता 5 से 60 पर्सेंट बढ़ी है, वहीं गरीब की इन 12 सालों में खर्च करने की ताकत 5 से 30 पर्सेंट तक ही बढ़ पाई है। शहरी इलाके में अमीर तबके की खर्च करने की क्षमता 63 पर्सेंट बढ़ी, जबकि गरीबों में 33 पर्सेंट का ही इजाफा हुआ।

देश में अमीर और गरीब के अंतर का हैरान कर देने वाले आंकड़े का दूसरा पहलू भी है। 2000 में अमीर तबके की औसत आय गरीब की तुलना में 12 गुना ज्यादा थी। 2012 में यह 15 गुना ज्यादा हो गई। ग्रामीण इलाके में यह अंतर 7 से 9 गुना तक पहुंच गया है। यह आंकड़े 1999-2000 और 2011-12 के नैशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के लोगों के मासिक खर्च के हैं।

2012 के आंकडों के मुताबिक ग्रामीण इलाके में गरीब शख्स महीने में 521 रुपये खर्च पा रहा था। इस तरह 4 सदस्यों के परिवार का कुल मासिक खर्च 2,084 रुपये बैठता है। जबकि अमीर तबके के खर्च में जबर्दस्त अंतर है। अमीर तबके में एक आदमी का मासिक खर्च 4,481 रुपये है, जबकि चार सदस्यों के हिसाब से यह 17,925 रुपये बैठता है।

इसी तरह शहरी गरीब महीने में 700 रुपये और इस हिसाब से उसका 4 सदस्यों का परिवार 2,802 रुपये खर्च कर पाता है, तो वहीं अमीर तबके की आय और खर्च का आंकड़ा बताता है कि खाई कितनी चौड़ी है। अमीर तबके का मासिक खर्च 10,282 रुपये और 4 परिवारों के हिसाब से 41,128 बैठता है।

शनिवार, 27 जुलाई 2013

देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है,

देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है, उससे साफ़ लगता है कि दंगे होने वाले हैं. देश का मीडिया, राजनीतिक दल और राजनेता इस देश में दंगे कराने पर आमादा हैं. दंगे कराने वालों में सांप्रदायिक ताकतों के साथ- साथ वे कथित सेकुलर ताकतें भी हैं, जिनकी निगाह उस 19 फ़ीसद वोटों पर है, जिन्हें वे बड़ी बेशर्मी से मुस्लिम वोटबैंक कहती हैं. कोई चेहरा दिखाकर मुसलमानों को डरा रहा है, तो कोई हमदर्द होने का दिखावा करके. हैरानी इस बात की है कि मुसलमानों के वोटों के लिए तो सब लड़ रहे हैं, लेकिन मुसलमानों के लिए लड़ने वाला कोई भी नहीं है. मुसलमानों की समस्याएं ख़त्म करने के लिए न तो किसी के पास ठोस नीति है और न ही इरादा. सभी राजनीतिक दलों की एकमात्र रणनीति है, मुसलमानों के साथ फरेब करना. राजनीति के ऐसे फरेबी माहौल में मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे क्या करें और कहां जाएं?
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड बिहार और उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीति पर आमादा हैं. इन सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा अवसर है. इन पार्टियों को यह भी लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही फ़ायदा मिलेगा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव में वोटों के  ध्रुवीकरण के लिए ये पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती हैं.
नीतीश कुमार ने भाजपा से अब रिश्ता तोड़ लिया है. ऊपर से देखने में यह फैसला धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण ज़रूर लगता है, लेकिन इससे जो भविष्य की रेखा खिंचती है, वह बिहार में सांप्रदायिकता को मजबूत करने वाली है. जैसे कि पहले मोदी बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते थे, अब वह आराम से बिहार का दौरा कर सकेंगे.
सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी की बात करते हैं. भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान कमेटी का मुखिया बना दिया. इससे साफ़-साफ़ एक संकेत मिलता है कि वह लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ेगी. आडवाणी ने मोदी का विरोध किया, लेकिन भाजपा टस से मस नहीं हुई. उन्होंने पार्टी के सभी दायित्वों से इस्तीफ़ा भी दे दिया, पर उसका भी असर नहीं हुआ. भाजपा के दर्जनों नेता मोदी के ख़िलाफ़ हो गए, फिर भी आरएसएस ने अपना फैसला नहीं बदला. मोदी के लिए भाजपा बिहार सरकार से बाहर हो गई और मंत्रियों को कुर्सी से हाथ धोना पड़ा, लेकिन फिर भी मोदी बने रहे. भाजपा को अपने सबसे भरोसेमंद साथी जदयू से रिश्ता तोड़ना पड़ गया, बावजूद इसके फैसले पर कोई असर नहीं हुआ. अब जबकि नरेंद्र मोदी पर पार्टी इतना बड़ा दांव खेल रही है, तो इसका मतलब साफ़ है कि संघ परिवार किसी रणनीति पर काम कर रहा है और उस रणनीति के विरोध में जो भी खड़ा होगा, उसे दरकिनार कर दिया जाएगा. अब समझते हैं कि मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के मायने क्या हैं.
नरेंद्र मोदी चाहे विकास की बात करें या फिर भविष्य के भारत का कोई हसीन सपना दिखाएं, लेकिन उनके सामने आते ही चुनाव का ध्रुवीकरण होना निश्‍चित है. यह बात भाजपा और संघ परिवार के रणनीतिकारों को अच्छी तरह मालूम है. इसके बावजूद, भाजपा ने अपने सबसे बड़े नेता के रूप में मोदी को सामने रखकर यह साफ़ कर दिया कि वह 2014 में हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण चाहती है. दरअसल, भाजपा को यही लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उसे उतना ही ज़्यादा फ़ायदा होगा. इसलिए इस रणनीति के तहत ही मोदी के हाथों चुनाव की कमान सौंप दी गई है. ऐसी रणनीति पर चुनाव लड़ने का मतलब यही है कि देश में भाईचारा ख़त्म हो जाए, दंगे हो जाएं या फिर लोगों की जानें चली जाएं, पर चुनाव जीतने के लिए ध्रुवीकरण करना ही एकमात्र रास्ता है. मोदी अब तक विकास की बातें करते आए हैं और इस रणनीति की पुष्टि उन्होंने पठानकोट में कर ही दी. मोदी ने चुनावी अभियान की शुरुआत पठानकोट से की. यहां उन्होंने यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू एवं धारा 370 ख़त्म करने की बात करके यह स्पष्ट कर दिया कि सद्भावना मिशन स़िर्फ मुसलमानों को बहलाने के लिए है, जबकि उनका असली एजेंडा कुछ और ही है.
दूसरी तरफ़, अयोध्या में विश्‍व हिंदू परिषद के नेताओं का जमावड़ा शुरू हो गया. बीते 12 जून को विश्‍व हिंदू परिषद की कोर कमेटी, यानी केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की यहां बैठक हुई. विश्‍व हिंदू परिषद ने यह ऐलान किया कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए वह 25 अगस्त से यात्रा शुरू करेगी, जो 19 दिनों की होगी और यह अयोध्या से सटे बस्ती से शुरू होकर 13 सितंबर को अयोध्या में ही ख़त्म होगी. यात्रा के दौरान यूपीए सरकार से यह मांग की जाएगी कि वह संसद में क़ानून बनाकर विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण कराए. और अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तो 18 अक्टूबर को विश्‍व हिंदू परिषद अयोध्या में साधु-संतों का एक महाकुंभ आयोजित करेगी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह मामला अदालत में है और ऐसे में सरकार से इस तरह की मांग करने का मतलब साफ़ है कि सरकार क़ानून पास नहीं कर सकती है. दूसरा ख़तरनाक पहलू यह है कि यह यात्रा बस्ती से शुरू होकर उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में जाएगी, जो न स़िर्फ संवेदनशील हैं, बल्कि जहां मुसलमानों की संख्या काफी ज़्यादा है. आरएसएस और विश्‍व हिंदू परिषद के लोग ख़तरे से खेलना चाहते हैं, क्योंकि यहां की एक चिंगारी पूरे देश में आग लगा सकती है. इतने सालों तक सोए रहने के बाद, चुनाव से ठीक पहले इस तरह का कार्यक्रम तय करने का मतलब साफ़ है कि भाजपा ने विश्‍व हिंदू परिषद के कंधे पर बंदूक रखकर माहौल को सांप्रदायिक बनाने की पूरी तैयारी कर ली है. भाजपा इस चुनाव के दौरान राम जन्मभूमि, धारा 370 और यूनिफॉर्म सिविल कोड को मुद्दा बनाने वाली है. दरअसल, ये ऐसे मुद्दे हैं, जो न स़िर्फ मुस्लिम विरोधी हैं, बल्कि एक तरह से यह देश की एकता एवं अखंडता ख़तरे में डालने वाला डायनामाइट है. सच तो यह है कि ऐसे मुद्दों से न केवल भावनाएं भड़क सकती हैं, बल्कि दंगे भी हो सकते हैं.
चुनाव का ध्रुवीकरण करने और भावनाओं को भड़काने में कांग्रेस पार्टी भी पीछे नहीं है. फ़र्क स़िर्फ इतना है कि भाजपा मोदी को आगे करके ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है और कांग्रेस एवं तमाम दूसरी सेकुलर पार्टियां संघ परिवार का खौफ दिखाकर. कांग्रेस के प्रवक्ता एवं नेता और कांग्रेस द्वारा नियंत्रित मीडिया मोदी के नाम का इतना बड़ा हौव्वा बना रही है कि जैसे देश में मोदी के अलावा, कोई दूसरा मुद्दा ही नहीं है. कांग्रेस ने 2014 का चुनाव एक साल पहले से ही मोदी केंद्रित कर दिया है. कांग्रेस ने मोदी के हर बयान का जवाब देना अपना परम कर्तव्य समझ लिया है. मोदी जो करते हैं उसके बारे में या तो टिप्पणी आती है या फिर उसी काम में पूरी कांग्रेस लग जाती है. प्राकृतिक आपदा के बाद मोदी उत्तराखंड गए. पहले तो उन्हें रोककर कांग्रेस ने बेवजह विवाद खड़ा किया और फिर अपने तीन-तीन मंत्रियों को उत्तराखंड भेज दिया. मोदी दो दिन उत्तराखंड में रहे, तो राहुल गांधी भी दो दिन उत्तराखंड में लोगों से मिलते रहे. मोदी के बारे में कोई ख़बर छप जाती है, तो कांग्रेस के मंत्री फौरन उसका जवाब देने के लिए मीडिया में पहुंच जाते हैं. कहने का मतलब यह कि जितना मोदी स्वयं अपना प्रचार करते हैं, उससे ज़्यादा उनका प्रचार कांग्रेस कर रही है. ऐसा इसलिए, क्योंकि कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि मोदी के आगे आने से उन्हें फ़ायदा होने वाला है, क्योंकि मुसलमानों के पास कांग्रेस के सिवाय कोई और दूसरा विकल्प नहीं है.
सवाल यह उठता है कि क्या स़िर्फ मोदी का विरोध करने मात्र से कांग्रेस का दायित्व ख़त्म हो जाता है? क्या देश में सेकुलरिज्म के मायने स़िर्फ मोदी विरोध तक ही सीमित है? भाजपा मुसलमानों को लुभाने के लिए उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास का एक रोडमैप लेकर सामने आ गई, लेकिन कांग्रेस ने क्या किया? क्या मुसलमानों को फिर से आरक्षण का लालीपॉप दिखाकर धोखा दिया जाएगा, जैसा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था? विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस ने हद ही कर दी. पहले उर्दू अख़बारों और अन्य मीडिया के जरिए अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताकर मुसलमानों को ठगने की कोशिश की गई. जब यह चोरी पकड़ी गई, तो सलमान खुर्शीद ने मुसलमानों को 9 फ़ीसद आरक्षण देने का वादा कर दिया, लेकिन जब कांग्रेस पार्टी का चुनाव घोषणापत्र सामने आया, तो मुसलमानों के संदर्भ में लिखी गई बातें उर्दू और अंग्रेजी में अलग-अलग थीं. यह किस तरह की राजनीति है? क्या कांग्रेस को लगता है कि हर बार की तरह इस बार भी झूठे वादे करके वह मुसलमानों को ठगने में कामयाब हो जाएगी? जैसा कि अब तक का इतिहास रहा है, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस फिर मुसलमानों के लिए आरक्षण एवं किसी पैकेज का झूठा ऐलान करके उनके वोट लेने की तैयारी में लगी हुई है. ऐसी राजनीति का नतीजा यह होता है कि मुसलमानों के हाथ लगता कुछ भी नहीं है, उल्टे मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध में ध्रुवीकरण ज़रूर हो जाता है. शायद कांग्रेस भी यही चाहती है. लगता है, कांग्रेस झूठे वादे करके, अफवाहें फैलाकर, डरा-धमका कर और मोदी का खौफ दिखाकर ध्रुवीकरण की रणनीति को अंजाम देने में लगी हुई है, ताकि मुसलमानों के 19 फ़ीसद वोट उसे बैठे-बिठाए मिल जाएं. कांग्रेस भी इस इंतज़ार में बैठी है कि माहौल में सांप्रदायिकता का ज़हर घुले, ताकि वह इसका चुनावी फ़ायदा उठा सके.
लेकिन कांग्रेस की रणनीति में एक बहुत बड़ी त्रुटि है. मुसलमान या मोदी विरोधियों का वोट उसी उम्मीदवार को मिलेगा, जो भाजपा के उम्मीदवार को हराने में सबसे ज़्यादा सक्षम होगा. चूंकि यह चुनाव मोदी के समर्थन और विरोध के बीच एक लड़ाई है, इसलिए मोदी विरोधी कोई जोखिम नहीं उठाएंगे. इस बार स्ट्रैटजिक वोटिंग के साथ इंटेलिजेंट वोटिंग भी होगी. यही सोच मुलायम सिंह यादव की है. उन्हें लगता है कि मोदी के आगे आने से लोकसभा चुनाव के सारे मुद्दे ख़त्म हो जाएंगे और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को मुद्दा बनाएंगे तथा भाजपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी के साथ आ जाएंगे. कहने का मतलब यह है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकऱण होगा, समाजवादी पार्टी को उतना ही फ़ायदा होगा. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार मोदी के वहां आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रही है, क्योंकि मोदी ही उसकी जीत की कुंजी हैं. आने वाले समय में समाजवादी पार्टी मोदी एवं विश्‍व हिंदू परिषद को कोहराम मचाने के लिए न केवल छूट देगी, बल्कि जमकर विरोध भी करेगी. मतलब यह कि चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिकता का ज़हर घोलेगी, तो कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी आग में घी डालने का काम करेंगी.
ऐसी ही रणनीति का उदाहरण नीतीश कुमार हैं. नीतीश कुमार की राजनीति को मुसलमानों ने फिर से 30 साल पीछे धकेल दिया है और भाजपा को सांप्रदायिक राजनीति करने की पूरी छूट दे दी. बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के बीच गठबंधन था, सरकार चल रही थी. दोनों ने मिलजुल कर कई चुनाव भी लड़े. बिहार में पहली बार मुसलमानों ने खुलकर भाजपा को वोट दिया. भाजपा के टिकट से मुस्लिम उम्मीदवार भी चुनाव जीतकर आए. नीतीश कुमार एवं सुशील मोदी ने अपनी सूझबूझ से सांप्रदायिकता को राज्य से दूर ही रखा. उनकी गठबंधन सरकार के दौरान भागलपुर के दंगों के दोषियों को सजा भी मिली. चुनाव में भाजपा ने विवादित मुद्दे कभी नहीं उठाए और न ही नरेंद्र मोदी को बिहार में पैर जमाने का कोई मौक़ा दिया. जब-जब चुनाव हुए, नरेंद्र मोदी को बिहार आने से रोका गया. इसमें जितना रोल नीतीश कुमार का था, उतना ही सुशील मोदी का भी था. मुसलमान विकास एवं सुशासन के नाम पर बिना खौफ वोट करते रहे.
नीतीश कुमार ने भाजपा से अब रिश्ता तोड़ लिया है. ऊपर से देखने में यह फैसला धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण ज़रूर लगता है, लेकिन इससे जो भविष्य की रेखा खिंचती है, वह बिहार में सांप्रदायिकता को मजबूत करने वाली है. जैसे कि पहले मोदी बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते थे, अब वह आराम से बिहार का दौरा कर सकेंगे. पहले भाजपा विवादित मुद्दे उठाने से बचती थी, अब वह ऐसे सारे मुद्दे उठा सकेगी, जो विवादित और समाज को बांटने वाले हैं. नीतीश कुमार के फैसले के पीछे भी चुनावी राजनीति का समीकरण है. बिहार में 15 सालों तक लालू यादव का वर्चस्व रहा. वह चुनाव नहीं हारते थे, क्योंकि उनकी जीत का फॉर्मूला यादवों एवं मुसलमानों के वोटों का गठजोड़ था. लेकिन जबसे मुसलमानों ने लालू यादव को वोट देना बंद कर दिया, तबसे वह बिहार की सत्ता से बाहर हो गए. मुसलमानों ने लालू यादव को इसलिए वोट देना बंद किया, क्योंकि 15 सालों में उनकी सरकार ने मुसलमानों के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया. मुसलमानों को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है, इसलिए उन्होंने जदयू-भाजपा गठबंधन का साथ दिया. नीतीश का भाजपा से अलग होने का फैसला वैचारिक मतभेद से ज़्यादा चुनावी समीकरण का नतीजा है. नीतीश जानते हैं कि बिहार में लालू यादव को कमजोर करके ही सत्ता में कायम रहा जा सकता है. जिस दिन मुसलमान वापस लालू के साथ हो गए, उसी दिन उनकी सत्ता की नींव कमजोर हो जाएगी. इसलिए हर चुनाव से पहले वह मोदी का विरोध करके मुसलमानों का दिल जीतने में कामयाब रहे. इसलिए जैसे ही भाजपा ने मोदी के नाम की घोषणा की, वैसे ही उन्होंने उससे रिश्ता तोड़ लिया. इससे नीतीश को चुनाव में कितना फ़ायदा होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन उनका फैसला उसी रणनीति का नतीजा है, जिस पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी काम कर रही है.
दरअसल, भारतीय राजनीति विचारशून्य हो गई है. सेकुलरिज्म का मतलब स़िर्फ अल्पसंख्यकों के वोट धोखे से हासिल कर लेना भर रह गया है. केंद्र में कांग्रेस की सरकार है, बिहार में नीतीश और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की. ये सब दिन-रात सेकुलरिज्म की दुहाई देते हैं, लेकिन इनमें से किसकी सरकार ने ग़रीब अल्पसंख्यकों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए कोई समग्र योजना तैयार की है? किसने उन्हें निरक्षरता के अंधेरे से बाहर निकालने की कोशिश की? हर किसी ने मुसलमानों के साथ धोखा किया. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने मुसलमानों के पिछड़ेपन की हकीकत बता दी. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट ने कई सारे सुझाव दिए. तीन-चार साल से यह रिपोर्ट सरकार की आलमारी में सड़ रही है और किसी सेकुलर पार्टी को इसकी सुध लेने की फुर्सत भी नहीं है. बाकी जिन समस्याओं से देश गुजर रहा है, उनका तो मुसलमानों पर असर पड़ ही रहा है, लेकिन जिस तरह की आर्थिक नीति देश में लागू की जा रही है, उससे मुसलमान अलग से परेशान हो रहे हैं. किसी सेकुलर पार्टी ने अब तक इस बात पर क्यों ध्यान नहीं दिया कि उदारवाद की आर्थिक नीति की वजह से सबसे ज़्यादा मुसलमान पिसे हैं, सबसे ज़्यादा मुसलमान बेरोजगार हुए हैं. बाज़ार में चीनी सामान आने से सबसे ज़्यादा मुसलमान कारीगर परेशान हैं, एफडीआई की वजह से सबसे ज़्यादा मुसलमानों का व्यवसाय चौपट होगा. कहने का मतलब यह है कि देश के राजनीतिक दलों ने सेकुलरिज्म का मतलब केवल मुसलमानों से वोट लेना समझ लिया है. झूठे वादे करके मुसलमानों को धोखा देना ही सेकुलरिज्म का सही अर्थ लगा लिया गया है. चुनाव आते ही राजनीतिक दलों को मुसलमानों का आरक्षण याद आता है. बोलियां लगने लगती हैं. कोई 5 फ़ीसद, तो कोई 9 फ़ीसद, तो कोई 19 फ़ीसद आरक्षण की बात करता है और जब चुनाव हो जाते हैं, तो सब कुछ जीरो हो जाता है.
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड बिहार और उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीति पर आमादा हैं. इन सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा अवसर है. इन पार्टियों को यह भी लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही फ़ायदा मिलेगा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ये पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती हैं. कोई डरा-धमका कर, विवादित भाषण देकर, तो कई मीठा जहर घोलकर वोटरों को बांटने की कोशिश करेगा. इनके अलावा, और भी कई पार्टियां हैं, जो इस दौड़ में थोड़ी पीछे ज़रूर नज़र आ रही हैं, लेकिन वे चुनाव के दौरान कैटेलिस्ट का काम करेंगी, जैसे लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी. ये पार्टियां भी सेकुलर राजनीति की दुहाई देकर वोटरों को बांटने की कोशिश करेंगी. जब इतनी सारी पार्टियां एक साथ एक मकसद पर काम करेंगी, तो नतीजा क्या निकलेगा, यह बिल्कुल साफ़ है. इसलिए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि दंगे होने वाले हैं. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2013/07/%e0%a4%a6%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%88.html#sthash.VqmcqP55.dpuf

देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है,

देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है, उससे साफ़ लगता है कि दंगे होने वाले हैं. देश का मीडिया, राजनीतिक दल और राजनेता इस देश में दंगे कराने पर आमादा हैं. दंगे कराने वालों में सांप्रदायिक ताकतों के साथ- साथ वे कथित सेकुलर ताकतें भी हैं, जिनकी निगाह उस 19 फ़ीसद वोटों पर है, जिन्हें वे बड़ी बेशर्मी से मुस्लिम वोटबैंक कहती हैं. कोई चेहरा दिखाकर मुसलमानों को डरा रहा है, तो कोई हमदर्द होने का दिखावा करके. हैरानी इस बात की है कि मुसलमानों के वोटों के लिए तो सब लड़ रहे हैं, लेकिन मुसलमानों के लिए लड़ने वाला कोई भी नहीं है. मुसलमानों की समस्याएं ख़त्म करने के लिए न तो किसी के पास ठोस नीति है और न ही इरादा. सभी राजनीतिक दलों की एकमात्र रणनीति है, मुसलमानों के साथ फरेब करना. राजनीति के ऐसे फरेबी माहौल में मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे क्या करें और कहां जाएं?
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड बिहार और उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीति पर आमादा हैं. इन सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा अवसर है. इन पार्टियों को यह भी लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही फ़ायदा मिलेगा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव में वोटों के  ध्रुवीकरण के लिए ये पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती हैं.
नीतीश कुमार ने भाजपा से अब रिश्ता तोड़ लिया है. ऊपर से देखने में यह फैसला धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण ज़रूर लगता है, लेकिन इससे जो भविष्य की रेखा खिंचती है, वह बिहार में सांप्रदायिकता को मजबूत करने वाली है. जैसे कि पहले मोदी बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते थे, अब वह आराम से बिहार का दौरा कर सकेंगे.
सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी की बात करते हैं. भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान कमेटी का मुखिया बना दिया. इससे साफ़-साफ़ एक संकेत मिलता है कि वह लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ेगी. आडवाणी ने मोदी का विरोध किया, लेकिन भाजपा टस से मस नहीं हुई. उन्होंने पार्टी के सभी दायित्वों से इस्तीफ़ा भी दे दिया, पर उसका भी असर नहीं हुआ. भाजपा के दर्जनों नेता मोदी के ख़िलाफ़ हो गए, फिर भी आरएसएस ने अपना फैसला नहीं बदला. मोदी के लिए भाजपा बिहार सरकार से बाहर हो गई और मंत्रियों को कुर्सी से हाथ धोना पड़ा, लेकिन फिर भी मोदी बने रहे. भाजपा को अपने सबसे भरोसेमंद साथी जदयू से रिश्ता तोड़ना पड़ गया, बावजूद इसके फैसले पर कोई असर नहीं हुआ. अब जबकि नरेंद्र मोदी पर पार्टी इतना बड़ा दांव खेल रही है, तो इसका मतलब साफ़ है कि संघ परिवार किसी रणनीति पर काम कर रहा है और उस रणनीति के विरोध में जो भी खड़ा होगा, उसे दरकिनार कर दिया जाएगा. अब समझते हैं कि मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के मायने क्या हैं.
नरेंद्र मोदी चाहे विकास की बात करें या फिर भविष्य के भारत का कोई हसीन सपना दिखाएं, लेकिन उनके सामने आते ही चुनाव का ध्रुवीकरण होना निश्‍चित है. यह बात भाजपा और संघ परिवार के रणनीतिकारों को अच्छी तरह मालूम है. इसके बावजूद, भाजपा ने अपने सबसे बड़े नेता के रूप में मोदी को सामने रखकर यह साफ़ कर दिया कि वह 2014 में हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण चाहती है. दरअसल, भाजपा को यही लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उसे उतना ही ज़्यादा फ़ायदा होगा. इसलिए इस रणनीति के तहत ही मोदी के हाथों चुनाव की कमान सौंप दी गई है. ऐसी रणनीति पर चुनाव लड़ने का मतलब यही है कि देश में भाईचारा ख़त्म हो जाए, दंगे हो जाएं या फिर लोगों की जानें चली जाएं, पर चुनाव जीतने के लिए ध्रुवीकरण करना ही एकमात्र रास्ता है. मोदी अब तक विकास की बातें करते आए हैं और इस रणनीति की पुष्टि उन्होंने पठानकोट में कर ही दी. मोदी ने चुनावी अभियान की शुरुआत पठानकोट से की. यहां उन्होंने यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू एवं धारा 370 ख़त्म करने की बात करके यह स्पष्ट कर दिया कि सद्भावना मिशन स़िर्फ मुसलमानों को बहलाने के लिए है, जबकि उनका असली एजेंडा कुछ और ही है.
दूसरी तरफ़, अयोध्या में विश्‍व हिंदू परिषद के नेताओं का जमावड़ा शुरू हो गया. बीते 12 जून को विश्‍व हिंदू परिषद की कोर कमेटी, यानी केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की यहां बैठक हुई. विश्‍व हिंदू परिषद ने यह ऐलान किया कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए वह 25 अगस्त से यात्रा शुरू करेगी, जो 19 दिनों की होगी और यह अयोध्या से सटे बस्ती से शुरू होकर 13 सितंबर को अयोध्या में ही ख़त्म होगी. यात्रा के दौरान यूपीए सरकार से यह मांग की जाएगी कि वह संसद में क़ानून बनाकर विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण कराए. और अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तो 18 अक्टूबर को विश्‍व हिंदू परिषद अयोध्या में साधु-संतों का एक महाकुंभ आयोजित करेगी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह मामला अदालत में है और ऐसे में सरकार से इस तरह की मांग करने का मतलब साफ़ है कि सरकार क़ानून पास नहीं कर सकती है. दूसरा ख़तरनाक पहलू यह है कि यह यात्रा बस्ती से शुरू होकर उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में जाएगी, जो न स़िर्फ संवेदनशील हैं, बल्कि जहां मुसलमानों की संख्या काफी ज़्यादा है. आरएसएस और विश्‍व हिंदू परिषद के लोग ख़तरे से खेलना चाहते हैं, क्योंकि यहां की एक चिंगारी पूरे देश में आग लगा सकती है. इतने सालों तक सोए रहने के बाद, चुनाव से ठीक पहले इस तरह का कार्यक्रम तय करने का मतलब साफ़ है कि भाजपा ने विश्‍व हिंदू परिषद के कंधे पर बंदूक रखकर माहौल को सांप्रदायिक बनाने की पूरी तैयारी कर ली है. भाजपा इस चुनाव के दौरान राम जन्मभूमि, धारा 370 और यूनिफॉर्म सिविल कोड को मुद्दा बनाने वाली है. दरअसल, ये ऐसे मुद्दे हैं, जो न स़िर्फ मुस्लिम विरोधी हैं, बल्कि एक तरह से यह देश की एकता एवं अखंडता ख़तरे में डालने वाला डायनामाइट है. सच तो यह है कि ऐसे मुद्दों से न केवल भावनाएं भड़क सकती हैं, बल्कि दंगे भी हो सकते हैं.
चुनाव का ध्रुवीकरण करने और भावनाओं को भड़काने में कांग्रेस पार्टी भी पीछे नहीं है. फ़र्क स़िर्फ इतना है कि भाजपा मोदी को आगे करके ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है और कांग्रेस एवं तमाम दूसरी सेकुलर पार्टियां संघ परिवार का खौफ दिखाकर. कांग्रेस के प्रवक्ता एवं नेता और कांग्रेस द्वारा नियंत्रित मीडिया मोदी के नाम का इतना बड़ा हौव्वा बना रही है कि जैसे देश में मोदी के अलावा, कोई दूसरा मुद्दा ही नहीं है. कांग्रेस ने 2014 का चुनाव एक साल पहले से ही मोदी केंद्रित कर दिया है. कांग्रेस ने मोदी के हर बयान का जवाब देना अपना परम कर्तव्य समझ लिया है. मोदी जो करते हैं उसके बारे में या तो टिप्पणी आती है या फिर उसी काम में पूरी कांग्रेस लग जाती है. प्राकृतिक आपदा के बाद मोदी उत्तराखंड गए. पहले तो उन्हें रोककर कांग्रेस ने बेवजह विवाद खड़ा किया और फिर अपने तीन-तीन मंत्रियों को उत्तराखंड भेज दिया. मोदी दो दिन उत्तराखंड में रहे, तो राहुल गांधी भी दो दिन उत्तराखंड में लोगों से मिलते रहे. मोदी के बारे में कोई ख़बर छप जाती है, तो कांग्रेस के मंत्री फौरन उसका जवाब देने के लिए मीडिया में पहुंच जाते हैं. कहने का मतलब यह कि जितना मोदी स्वयं अपना प्रचार करते हैं, उससे ज़्यादा उनका प्रचार कांग्रेस कर रही है. ऐसा इसलिए, क्योंकि कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि मोदी के आगे आने से उन्हें फ़ायदा होने वाला है, क्योंकि मुसलमानों के पास कांग्रेस के सिवाय कोई और दूसरा विकल्प नहीं है.
सवाल यह उठता है कि क्या स़िर्फ मोदी का विरोध करने मात्र से कांग्रेस का दायित्व ख़त्म हो जाता है? क्या देश में सेकुलरिज्म के मायने स़िर्फ मोदी विरोध तक ही सीमित है? भाजपा मुसलमानों को लुभाने के लिए उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास का एक रोडमैप लेकर सामने आ गई, लेकिन कांग्रेस ने क्या किया? क्या मुसलमानों को फिर से आरक्षण का लालीपॉप दिखाकर धोखा दिया जाएगा, जैसा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था? विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस ने हद ही कर दी. पहले उर्दू अख़बारों और अन्य मीडिया के जरिए अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताकर मुसलमानों को ठगने की कोशिश की गई. जब यह चोरी पकड़ी गई, तो सलमान खुर्शीद ने मुसलमानों को 9 फ़ीसद आरक्षण देने का वादा कर दिया, लेकिन जब कांग्रेस पार्टी का चुनाव घोषणापत्र सामने आया, तो मुसलमानों के संदर्भ में लिखी गई बातें उर्दू और अंग्रेजी में अलग-अलग थीं. यह किस तरह की राजनीति है? क्या कांग्रेस को लगता है कि हर बार की तरह इस बार भी झूठे वादे करके वह मुसलमानों को ठगने में कामयाब हो जाएगी? जैसा कि अब तक का इतिहास रहा है, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस फिर मुसलमानों के लिए आरक्षण एवं किसी पैकेज का झूठा ऐलान करके उनके वोट लेने की तैयारी में लगी हुई है. ऐसी राजनीति का नतीजा यह होता है कि मुसलमानों के हाथ लगता कुछ भी नहीं है, उल्टे मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध में ध्रुवीकरण ज़रूर हो जाता है. शायद कांग्रेस भी यही चाहती है. लगता है, कांग्रेस झूठे वादे करके, अफवाहें फैलाकर, डरा-धमका कर और मोदी का खौफ दिखाकर ध्रुवीकरण की रणनीति को अंजाम देने में लगी हुई है, ताकि मुसलमानों के 19 फ़ीसद वोट उसे बैठे-बिठाए मिल जाएं. कांग्रेस भी इस इंतज़ार में बैठी है कि माहौल में सांप्रदायिकता का ज़हर घुले, ताकि वह इसका चुनावी फ़ायदा उठा सके.
लेकिन कांग्रेस की रणनीति में एक बहुत बड़ी त्रुटि है. मुसलमान या मोदी विरोधियों का वोट उसी उम्मीदवार को मिलेगा, जो भाजपा के उम्मीदवार को हराने में सबसे ज़्यादा सक्षम होगा. चूंकि यह चुनाव मोदी के समर्थन और विरोध के बीच एक लड़ाई है, इसलिए मोदी विरोधी कोई जोखिम नहीं उठाएंगे. इस बार स्ट्रैटजिक वोटिंग के साथ इंटेलिजेंट वोटिंग भी होगी. यही सोच मुलायम सिंह यादव की है. उन्हें लगता है कि मोदी के आगे आने से लोकसभा चुनाव के सारे मुद्दे ख़त्म हो जाएंगे और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को मुद्दा बनाएंगे तथा भाजपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी के साथ आ जाएंगे. कहने का मतलब यह है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकऱण होगा, समाजवादी पार्टी को उतना ही फ़ायदा होगा. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार मोदी के वहां आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रही है, क्योंकि मोदी ही उसकी जीत की कुंजी हैं. आने वाले समय में समाजवादी पार्टी मोदी एवं विश्‍व हिंदू परिषद को कोहराम मचाने के लिए न केवल छूट देगी, बल्कि जमकर विरोध भी करेगी. मतलब यह कि चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिकता का ज़हर घोलेगी, तो कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी आग में घी डालने का काम करेंगी.
ऐसी ही रणनीति का उदाहरण नीतीश कुमार हैं. नीतीश कुमार की राजनीति को मुसलमानों ने फिर से 30 साल पीछे धकेल दिया है और भाजपा को सांप्रदायिक राजनीति करने की पूरी छूट दे दी. बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के बीच गठबंधन था, सरकार चल रही थी. दोनों ने मिलजुल कर कई चुनाव भी लड़े. बिहार में पहली बार मुसलमानों ने खुलकर भाजपा को वोट दिया. भाजपा के टिकट से मुस्लिम उम्मीदवार भी चुनाव जीतकर आए. नीतीश कुमार एवं सुशील मोदी ने अपनी सूझबूझ से सांप्रदायिकता को राज्य से दूर ही रखा. उनकी गठबंधन सरकार के दौरान भागलपुर के दंगों के दोषियों को सजा भी मिली. चुनाव में भाजपा ने विवादित मुद्दे कभी नहीं उठाए और न ही नरेंद्र मोदी को बिहार में पैर जमाने का कोई मौक़ा दिया. जब-जब चुनाव हुए, नरेंद्र मोदी को बिहार आने से रोका गया. इसमें जितना रोल नीतीश कुमार का था, उतना ही सुशील मोदी का भी था. मुसलमान विकास एवं सुशासन के नाम पर बिना खौफ वोट करते रहे.
नीतीश कुमार ने भाजपा से अब रिश्ता तोड़ लिया है. ऊपर से देखने में यह फैसला धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण ज़रूर लगता है, लेकिन इससे जो भविष्य की रेखा खिंचती है, वह बिहार में सांप्रदायिकता को मजबूत करने वाली है. जैसे कि पहले मोदी बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते थे, अब वह आराम से बिहार का दौरा कर सकेंगे. पहले भाजपा विवादित मुद्दे उठाने से बचती थी, अब वह ऐसे सारे मुद्दे उठा सकेगी, जो विवादित और समाज को बांटने वाले हैं. नीतीश कुमार के फैसले के पीछे भी चुनावी राजनीति का समीकरण है. बिहार में 15 सालों तक लालू यादव का वर्चस्व रहा. वह चुनाव नहीं हारते थे, क्योंकि उनकी जीत का फॉर्मूला यादवों एवं मुसलमानों के वोटों का गठजोड़ था. लेकिन जबसे मुसलमानों ने लालू यादव को वोट देना बंद कर दिया, तबसे वह बिहार की सत्ता से बाहर हो गए. मुसलमानों ने लालू यादव को इसलिए वोट देना बंद किया, क्योंकि 15 सालों में उनकी सरकार ने मुसलमानों के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया. मुसलमानों को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है, इसलिए उन्होंने जदयू-भाजपा गठबंधन का साथ दिया. नीतीश का भाजपा से अलग होने का फैसला वैचारिक मतभेद से ज़्यादा चुनावी समीकरण का नतीजा है. नीतीश जानते हैं कि बिहार में लालू यादव को कमजोर करके ही सत्ता में कायम रहा जा सकता है. जिस दिन मुसलमान वापस लालू के साथ हो गए, उसी दिन उनकी सत्ता की नींव कमजोर हो जाएगी. इसलिए हर चुनाव से पहले वह मोदी का विरोध करके मुसलमानों का दिल जीतने में कामयाब रहे. इसलिए जैसे ही भाजपा ने मोदी के नाम की घोषणा की, वैसे ही उन्होंने उससे रिश्ता तोड़ लिया. इससे नीतीश को चुनाव में कितना फ़ायदा होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन उनका फैसला उसी रणनीति का नतीजा है, जिस पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी काम कर रही है.
दरअसल, भारतीय राजनीति विचारशून्य हो गई है. सेकुलरिज्म का मतलब स़िर्फ अल्पसंख्यकों के वोट धोखे से हासिल कर लेना भर रह गया है. केंद्र में कांग्रेस की सरकार है, बिहार में नीतीश और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की. ये सब दिन-रात सेकुलरिज्म की दुहाई देते हैं, लेकिन इनमें से किसकी सरकार ने ग़रीब अल्पसंख्यकों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए कोई समग्र योजना तैयार की है? किसने उन्हें निरक्षरता के अंधेरे से बाहर निकालने की कोशिश की? हर किसी ने मुसलमानों के साथ धोखा किया. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने मुसलमानों के पिछड़ेपन की हकीकत बता दी. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट ने कई सारे सुझाव दिए. तीन-चार साल से यह रिपोर्ट सरकार की आलमारी में सड़ रही है और किसी सेकुलर पार्टी को इसकी सुध लेने की फुर्सत भी नहीं है. बाकी जिन समस्याओं से देश गुजर रहा है, उनका तो मुसलमानों पर असर पड़ ही रहा है, लेकिन जिस तरह की आर्थिक नीति देश में लागू की जा रही है, उससे मुसलमान अलग से परेशान हो रहे हैं. किसी सेकुलर पार्टी ने अब तक इस बात पर क्यों ध्यान नहीं दिया कि उदारवाद की आर्थिक नीति की वजह से सबसे ज़्यादा मुसलमान पिसे हैं, सबसे ज़्यादा मुसलमान बेरोजगार हुए हैं. बाज़ार में चीनी सामान आने से सबसे ज़्यादा मुसलमान कारीगर परेशान हैं, एफडीआई की वजह से सबसे ज़्यादा मुसलमानों का व्यवसाय चौपट होगा. कहने का मतलब यह है कि देश के राजनीतिक दलों ने सेकुलरिज्म का मतलब केवल मुसलमानों से वोट लेना समझ लिया है. झूठे वादे करके मुसलमानों को धोखा देना ही सेकुलरिज्म का सही अर्थ लगा लिया गया है. चुनाव आते ही राजनीतिक दलों को मुसलमानों का आरक्षण याद आता है. बोलियां लगने लगती हैं. कोई 5 फ़ीसद, तो कोई 9 फ़ीसद, तो कोई 19 फ़ीसद आरक्षण की बात करता है और जब चुनाव हो जाते हैं, तो सब कुछ जीरो हो जाता है.
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड बिहार और उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीति पर आमादा हैं. इन सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा अवसर है. इन पार्टियों को यह भी लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही फ़ायदा मिलेगा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ये पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती हैं. कोई डरा-धमका कर, विवादित भाषण देकर, तो कई मीठा जहर घोलकर वोटरों को बांटने की कोशिश करेगा. इनके अलावा, और भी कई पार्टियां हैं, जो इस दौड़ में थोड़ी पीछे ज़रूर नज़र आ रही हैं, लेकिन वे चुनाव के दौरान कैटेलिस्ट का काम करेंगी, जैसे लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी. ये पार्टियां भी सेकुलर राजनीति की दुहाई देकर वोटरों को बांटने की कोशिश करेंगी. जब इतनी सारी पार्टियां एक साथ एक मकसद पर काम करेंगी, तो नतीजा क्या निकलेगा, यह बिल्कुल साफ़ है. इसलिए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि दंगे होने वाले हैं. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2013/07/%e0%a4%a6%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%88.html#sthash.VqmcqP55.dpuf

देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है,

देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है, उससे साफ़ लगता है कि दंगे होने वाले हैं. देश का मीडिया, राजनीतिक दल और राजनेता इस देश में दंगे कराने पर आमादा हैं. दंगे कराने वालों में सांप्रदायिक ताकतों के साथ- साथ वे कथित सेकुलर ताकतें भी हैं, जिनकी निगाह उस 19 फ़ीसद वोटों पर है, जिन्हें वे बड़ी बेशर्मी से मुस्लिम वोटबैंक कहती हैं. कोई चेहरा दिखाकर मुसलमानों को डरा रहा है, तो कोई हमदर्द होने का दिखावा करके. हैरानी इस बात की है कि मुसलमानों के वोटों के लिए तो सब लड़ रहे हैं, लेकिन मुसलमानों के लिए लड़ने वाला कोई भी नहीं है. मुसलमानों की समस्याएं ख़त्म करने के लिए न तो किसी के पास ठोस नीति है और न ही इरादा. सभी राजनीतिक दलों की एकमात्र रणनीति है, मुसलमानों के साथ फरेब करना. राजनीति के ऐसे फरेबी माहौल में मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे क्या करें और कहां जाएं?
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड बिहार और उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीति पर आमादा हैं. इन सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा अवसर है. इन पार्टियों को यह भी लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही फ़ायदा मिलेगा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव में वोटों के  ध्रुवीकरण के लिए ये पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती हैं.
नीतीश कुमार ने भाजपा से अब रिश्ता तोड़ लिया है. ऊपर से देखने में यह फैसला धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण ज़रूर लगता है, लेकिन इससे जो भविष्य की रेखा खिंचती है, वह बिहार में सांप्रदायिकता को मजबूत करने वाली है. जैसे कि पहले मोदी बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते थे, अब वह आराम से बिहार का दौरा कर सकेंगे.
सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी की बात करते हैं. भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान कमेटी का मुखिया बना दिया. इससे साफ़-साफ़ एक संकेत मिलता है कि वह लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ेगी. आडवाणी ने मोदी का विरोध किया, लेकिन भाजपा टस से मस नहीं हुई. उन्होंने पार्टी के सभी दायित्वों से इस्तीफ़ा भी दे दिया, पर उसका भी असर नहीं हुआ. भाजपा के दर्जनों नेता मोदी के ख़िलाफ़ हो गए, फिर भी आरएसएस ने अपना फैसला नहीं बदला. मोदी के लिए भाजपा बिहार सरकार से बाहर हो गई और मंत्रियों को कुर्सी से हाथ धोना पड़ा, लेकिन फिर भी मोदी बने रहे. भाजपा को अपने सबसे भरोसेमंद साथी जदयू से रिश्ता तोड़ना पड़ गया, बावजूद इसके फैसले पर कोई असर नहीं हुआ. अब जबकि नरेंद्र मोदी पर पार्टी इतना बड़ा दांव खेल रही है, तो इसका मतलब साफ़ है कि संघ परिवार किसी रणनीति पर काम कर रहा है और उस रणनीति के विरोध में जो भी खड़ा होगा, उसे दरकिनार कर दिया जाएगा. अब समझते हैं कि मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के मायने क्या हैं.
नरेंद्र मोदी चाहे विकास की बात करें या फिर भविष्य के भारत का कोई हसीन सपना दिखाएं, लेकिन उनके सामने आते ही चुनाव का ध्रुवीकरण होना निश्‍चित है. यह बात भाजपा और संघ परिवार के रणनीतिकारों को अच्छी तरह मालूम है. इसके बावजूद, भाजपा ने अपने सबसे बड़े नेता के रूप में मोदी को सामने रखकर यह साफ़ कर दिया कि वह 2014 में हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण चाहती है. दरअसल, भाजपा को यही लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उसे उतना ही ज़्यादा फ़ायदा होगा. इसलिए इस रणनीति के तहत ही मोदी के हाथों चुनाव की कमान सौंप दी गई है. ऐसी रणनीति पर चुनाव लड़ने का मतलब यही है कि देश में भाईचारा ख़त्म हो जाए, दंगे हो जाएं या फिर लोगों की जानें चली जाएं, पर चुनाव जीतने के लिए ध्रुवीकरण करना ही एकमात्र रास्ता है. मोदी अब तक विकास की बातें करते आए हैं और इस रणनीति की पुष्टि उन्होंने पठानकोट में कर ही दी. मोदी ने चुनावी अभियान की शुरुआत पठानकोट से की. यहां उन्होंने यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू एवं धारा 370 ख़त्म करने की बात करके यह स्पष्ट कर दिया कि सद्भावना मिशन स़िर्फ मुसलमानों को बहलाने के लिए है, जबकि उनका असली एजेंडा कुछ और ही है.
दूसरी तरफ़, अयोध्या में विश्‍व हिंदू परिषद के नेताओं का जमावड़ा शुरू हो गया. बीते 12 जून को विश्‍व हिंदू परिषद की कोर कमेटी, यानी केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की यहां बैठक हुई. विश्‍व हिंदू परिषद ने यह ऐलान किया कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए वह 25 अगस्त से यात्रा शुरू करेगी, जो 19 दिनों की होगी और यह अयोध्या से सटे बस्ती से शुरू होकर 13 सितंबर को अयोध्या में ही ख़त्म होगी. यात्रा के दौरान यूपीए सरकार से यह मांग की जाएगी कि वह संसद में क़ानून बनाकर विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण कराए. और अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तो 18 अक्टूबर को विश्‍व हिंदू परिषद अयोध्या में साधु-संतों का एक महाकुंभ आयोजित करेगी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह मामला अदालत में है और ऐसे में सरकार से इस तरह की मांग करने का मतलब साफ़ है कि सरकार क़ानून पास नहीं कर सकती है. दूसरा ख़तरनाक पहलू यह है कि यह यात्रा बस्ती से शुरू होकर उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में जाएगी, जो न स़िर्फ संवेदनशील हैं, बल्कि जहां मुसलमानों की संख्या काफी ज़्यादा है. आरएसएस और विश्‍व हिंदू परिषद के लोग ख़तरे से खेलना चाहते हैं, क्योंकि यहां की एक चिंगारी पूरे देश में आग लगा सकती है. इतने सालों तक सोए रहने के बाद, चुनाव से ठीक पहले इस तरह का कार्यक्रम तय करने का मतलब साफ़ है कि भाजपा ने विश्‍व हिंदू परिषद के कंधे पर बंदूक रखकर माहौल को सांप्रदायिक बनाने की पूरी तैयारी कर ली है. भाजपा इस चुनाव के दौरान राम जन्मभूमि, धारा 370 और यूनिफॉर्म सिविल कोड को मुद्दा बनाने वाली है. दरअसल, ये ऐसे मुद्दे हैं, जो न स़िर्फ मुस्लिम विरोधी हैं, बल्कि एक तरह से यह देश की एकता एवं अखंडता ख़तरे में डालने वाला डायनामाइट है. सच तो यह है कि ऐसे मुद्दों से न केवल भावनाएं भड़क सकती हैं, बल्कि दंगे भी हो सकते हैं.
चुनाव का ध्रुवीकरण करने और भावनाओं को भड़काने में कांग्रेस पार्टी भी पीछे नहीं है. फ़र्क स़िर्फ इतना है कि भाजपा मोदी को आगे करके ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है और कांग्रेस एवं तमाम दूसरी सेकुलर पार्टियां संघ परिवार का खौफ दिखाकर. कांग्रेस के प्रवक्ता एवं नेता और कांग्रेस द्वारा नियंत्रित मीडिया मोदी के नाम का इतना बड़ा हौव्वा बना रही है कि जैसे देश में मोदी के अलावा, कोई दूसरा मुद्दा ही नहीं है. कांग्रेस ने 2014 का चुनाव एक साल पहले से ही मोदी केंद्रित कर दिया है. कांग्रेस ने मोदी के हर बयान का जवाब देना अपना परम कर्तव्य समझ लिया है. मोदी जो करते हैं उसके बारे में या तो टिप्पणी आती है या फिर उसी काम में पूरी कांग्रेस लग जाती है. प्राकृतिक आपदा के बाद मोदी उत्तराखंड गए. पहले तो उन्हें रोककर कांग्रेस ने बेवजह विवाद खड़ा किया और फिर अपने तीन-तीन मंत्रियों को उत्तराखंड भेज दिया. मोदी दो दिन उत्तराखंड में रहे, तो राहुल गांधी भी दो दिन उत्तराखंड में लोगों से मिलते रहे. मोदी के बारे में कोई ख़बर छप जाती है, तो कांग्रेस के मंत्री फौरन उसका जवाब देने के लिए मीडिया में पहुंच जाते हैं. कहने का मतलब यह कि जितना मोदी स्वयं अपना प्रचार करते हैं, उससे ज़्यादा उनका प्रचार कांग्रेस कर रही है. ऐसा इसलिए, क्योंकि कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि मोदी के आगे आने से उन्हें फ़ायदा होने वाला है, क्योंकि मुसलमानों के पास कांग्रेस के सिवाय कोई और दूसरा विकल्प नहीं है.
सवाल यह उठता है कि क्या स़िर्फ मोदी का विरोध करने मात्र से कांग्रेस का दायित्व ख़त्म हो जाता है? क्या देश में सेकुलरिज्म के मायने स़िर्फ मोदी विरोध तक ही सीमित है? भाजपा मुसलमानों को लुभाने के लिए उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास का एक रोडमैप लेकर सामने आ गई, लेकिन कांग्रेस ने क्या किया? क्या मुसलमानों को फिर से आरक्षण का लालीपॉप दिखाकर धोखा दिया जाएगा, जैसा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था? विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस ने हद ही कर दी. पहले उर्दू अख़बारों और अन्य मीडिया के जरिए अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताकर मुसलमानों को ठगने की कोशिश की गई. जब यह चोरी पकड़ी गई, तो सलमान खुर्शीद ने मुसलमानों को 9 फ़ीसद आरक्षण देने का वादा कर दिया, लेकिन जब कांग्रेस पार्टी का चुनाव घोषणापत्र सामने आया, तो मुसलमानों के संदर्भ में लिखी गई बातें उर्दू और अंग्रेजी में अलग-अलग थीं. यह किस तरह की राजनीति है? क्या कांग्रेस को लगता है कि हर बार की तरह इस बार भी झूठे वादे करके वह मुसलमानों को ठगने में कामयाब हो जाएगी? जैसा कि अब तक का इतिहास रहा है, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस फिर मुसलमानों के लिए आरक्षण एवं किसी पैकेज का झूठा ऐलान करके उनके वोट लेने की तैयारी में लगी हुई है. ऐसी राजनीति का नतीजा यह होता है कि मुसलमानों के हाथ लगता कुछ भी नहीं है, उल्टे मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध में ध्रुवीकरण ज़रूर हो जाता है. शायद कांग्रेस भी यही चाहती है. लगता है, कांग्रेस झूठे वादे करके, अफवाहें फैलाकर, डरा-धमका कर और मोदी का खौफ दिखाकर ध्रुवीकरण की रणनीति को अंजाम देने में लगी हुई है, ताकि मुसलमानों के 19 फ़ीसद वोट उसे बैठे-बिठाए मिल जाएं. कांग्रेस भी इस इंतज़ार में बैठी है कि माहौल में सांप्रदायिकता का ज़हर घुले, ताकि वह इसका चुनावी फ़ायदा उठा सके.
लेकिन कांग्रेस की रणनीति में एक बहुत बड़ी त्रुटि है. मुसलमान या मोदी विरोधियों का वोट उसी उम्मीदवार को मिलेगा, जो भाजपा के उम्मीदवार को हराने में सबसे ज़्यादा सक्षम होगा. चूंकि यह चुनाव मोदी के समर्थन और विरोध के बीच एक लड़ाई है, इसलिए मोदी विरोधी कोई जोखिम नहीं उठाएंगे. इस बार स्ट्रैटजिक वोटिंग के साथ इंटेलिजेंट वोटिंग भी होगी. यही सोच मुलायम सिंह यादव की है. उन्हें लगता है कि मोदी के आगे आने से लोकसभा चुनाव के सारे मुद्दे ख़त्म हो जाएंगे और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को मुद्दा बनाएंगे तथा भाजपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी के साथ आ जाएंगे. कहने का मतलब यह है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकऱण होगा, समाजवादी पार्टी को उतना ही फ़ायदा होगा. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार मोदी के वहां आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रही है, क्योंकि मोदी ही उसकी जीत की कुंजी हैं. आने वाले समय में समाजवादी पार्टी मोदी एवं विश्‍व हिंदू परिषद को कोहराम मचाने के लिए न केवल छूट देगी, बल्कि जमकर विरोध भी करेगी. मतलब यह कि चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिकता का ज़हर घोलेगी, तो कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी आग में घी डालने का काम करेंगी.
ऐसी ही रणनीति का उदाहरण नीतीश कुमार हैं. नीतीश कुमार की राजनीति को मुसलमानों ने फिर से 30 साल पीछे धकेल दिया है और भाजपा को सांप्रदायिक राजनीति करने की पूरी छूट दे दी. बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के बीच गठबंधन था, सरकार चल रही थी. दोनों ने मिलजुल कर कई चुनाव भी लड़े. बिहार में पहली बार मुसलमानों ने खुलकर भाजपा को वोट दिया. भाजपा के टिकट से मुस्लिम उम्मीदवार भी चुनाव जीतकर आए. नीतीश कुमार एवं सुशील मोदी ने अपनी सूझबूझ से सांप्रदायिकता को राज्य से दूर ही रखा. उनकी गठबंधन सरकार के दौरान भागलपुर के दंगों के दोषियों को सजा भी मिली. चुनाव में भाजपा ने विवादित मुद्दे कभी नहीं उठाए और न ही नरेंद्र मोदी को बिहार में पैर जमाने का कोई मौक़ा दिया. जब-जब चुनाव हुए, नरेंद्र मोदी को बिहार आने से रोका गया. इसमें जितना रोल नीतीश कुमार का था, उतना ही सुशील मोदी का भी था. मुसलमान विकास एवं सुशासन के नाम पर बिना खौफ वोट करते रहे.
नीतीश कुमार ने भाजपा से अब रिश्ता तोड़ लिया है. ऊपर से देखने में यह फैसला धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण ज़रूर लगता है, लेकिन इससे जो भविष्य की रेखा खिंचती है, वह बिहार में सांप्रदायिकता को मजबूत करने वाली है. जैसे कि पहले मोदी बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते थे, अब वह आराम से बिहार का दौरा कर सकेंगे. पहले भाजपा विवादित मुद्दे उठाने से बचती थी, अब वह ऐसे सारे मुद्दे उठा सकेगी, जो विवादित और समाज को बांटने वाले हैं. नीतीश कुमार के फैसले के पीछे भी चुनावी राजनीति का समीकरण है. बिहार में 15 सालों तक लालू यादव का वर्चस्व रहा. वह चुनाव नहीं हारते थे, क्योंकि उनकी जीत का फॉर्मूला यादवों एवं मुसलमानों के वोटों का गठजोड़ था. लेकिन जबसे मुसलमानों ने लालू यादव को वोट देना बंद कर दिया, तबसे वह बिहार की सत्ता से बाहर हो गए. मुसलमानों ने लालू यादव को इसलिए वोट देना बंद किया, क्योंकि 15 सालों में उनकी सरकार ने मुसलमानों के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया. मुसलमानों को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है, इसलिए उन्होंने जदयू-भाजपा गठबंधन का साथ दिया. नीतीश का भाजपा से अलग होने का फैसला वैचारिक मतभेद से ज़्यादा चुनावी समीकरण का नतीजा है. नीतीश जानते हैं कि बिहार में लालू यादव को कमजोर करके ही सत्ता में कायम रहा जा सकता है. जिस दिन मुसलमान वापस लालू के साथ हो गए, उसी दिन उनकी सत्ता की नींव कमजोर हो जाएगी. इसलिए हर चुनाव से पहले वह मोदी का विरोध करके मुसलमानों का दिल जीतने में कामयाब रहे. इसलिए जैसे ही भाजपा ने मोदी के नाम की घोषणा की, वैसे ही उन्होंने उससे रिश्ता तोड़ लिया. इससे नीतीश को चुनाव में कितना फ़ायदा होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन उनका फैसला उसी रणनीति का नतीजा है, जिस पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी काम कर रही है.
दरअसल, भारतीय राजनीति विचारशून्य हो गई है. सेकुलरिज्म का मतलब स़िर्फ अल्पसंख्यकों के वोट धोखे से हासिल कर लेना भर रह गया है. केंद्र में कांग्रेस की सरकार है, बिहार में नीतीश और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की. ये सब दिन-रात सेकुलरिज्म की दुहाई देते हैं, लेकिन इनमें से किसकी सरकार ने ग़रीब अल्पसंख्यकों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए कोई समग्र योजना तैयार की है? किसने उन्हें निरक्षरता के अंधेरे से बाहर निकालने की कोशिश की? हर किसी ने मुसलमानों के साथ धोखा किया. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने मुसलमानों के पिछड़ेपन की हकीकत बता दी. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट ने कई सारे सुझाव दिए. तीन-चार साल से यह रिपोर्ट सरकार की आलमारी में सड़ रही है और किसी सेकुलर पार्टी को इसकी सुध लेने की फुर्सत भी नहीं है. बाकी जिन समस्याओं से देश गुजर रहा है, उनका तो मुसलमानों पर असर पड़ ही रहा है, लेकिन जिस तरह की आर्थिक नीति देश में लागू की जा रही है, उससे मुसलमान अलग से परेशान हो रहे हैं. किसी सेकुलर पार्टी ने अब तक इस बात पर क्यों ध्यान नहीं दिया कि उदारवाद की आर्थिक नीति की वजह से सबसे ज़्यादा मुसलमान पिसे हैं, सबसे ज़्यादा मुसलमान बेरोजगार हुए हैं. बाज़ार में चीनी सामान आने से सबसे ज़्यादा मुसलमान कारीगर परेशान हैं, एफडीआई की वजह से सबसे ज़्यादा मुसलमानों का व्यवसाय चौपट होगा. कहने का मतलब यह है कि देश के राजनीतिक दलों ने सेकुलरिज्म का मतलब केवल मुसलमानों से वोट लेना समझ लिया है. झूठे वादे करके मुसलमानों को धोखा देना ही सेकुलरिज्म का सही अर्थ लगा लिया गया है. चुनाव आते ही राजनीतिक दलों को मुसलमानों का आरक्षण याद आता है. बोलियां लगने लगती हैं. कोई 5 फ़ीसद, तो कोई 9 फ़ीसद, तो कोई 19 फ़ीसद आरक्षण की बात करता है और जब चुनाव हो जाते हैं, तो सब कुछ जीरो हो जाता है.
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड बिहार और उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीति पर आमादा हैं. इन सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा अवसर है. इन पार्टियों को यह भी लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही फ़ायदा मिलेगा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ये पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती हैं. कोई डरा-धमका कर, विवादित भाषण देकर, तो कई मीठा जहर घोलकर वोटरों को बांटने की कोशिश करेगा. इनके अलावा, और भी कई पार्टियां हैं, जो इस दौड़ में थोड़ी पीछे ज़रूर नज़र आ रही हैं, लेकिन वे चुनाव के दौरान कैटेलिस्ट का काम करेंगी, जैसे लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी. ये पार्टियां भी सेकुलर राजनीति की दुहाई देकर वोटरों को बांटने की कोशिश करेंगी. जब इतनी सारी पार्टियां एक साथ एक मकसद पर काम करेंगी, तो नतीजा क्या निकलेगा, यह बिल्कुल साफ़ है. इसलिए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि दंगे होने वाले हैं. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2013/07/%e0%a4%a6%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%88.html#sthash.VqmcqP55.dpuf

बुधवार, 24 जुलाई 2013

28 रुपये रोजाना खर्च करने वाला गरीब नहीं : योजना आयोग

28 रुपये रोजाना खर्च करने वाला गरीब नहीं : योजना आयोग

 
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28 रुपये रोजाना खर्च करने वाला गरीब नहीं : योजना आयोग
नई दि्ल्ली: प्रति व्यक्ति खपत के आधार पर देश की आबादी में गरीबों का अनुपात 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत पर आ गया। यह 2004-05 में 37.2 प्रतिशत पर था। योजना आयोग ने एक प्रकार से अपने पूर्व के विवादास्पद गरीबी गणना के तरीके के आधार पर ही यह आंकड़ा निकाला है।

योजना आयोग के अनुसार, तेंदुलकर फॉर्मूला के तहत 2011-12 में ग्रामीण इलाकों में 816 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह से कम उपभोग करने वाला व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे था। शहरों में राष्ट्रीय गरीबी की रेखा का पैमाना 1,000 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह का उपभोग है।

इसका मतलब है कि शहरों में प्रतिदिन वस्तुओं और सेवाओं पर 33.33 रुपये से अधिक खर्च करने वाला और ग्रामीण इलाकों में 27.20 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। इससे पहले आयोग ने कहा था कि शहरी इलाकों में प्रतिदिन 32 रुपये से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। उसकी इस गणना से काफी विवाद पैदा हुआ था।

योजना आयोग ने जो गरीबी का आंकड़ा दिया है, वह उसी गणना के तरीके पर आधारित है। इसमें कहा गया है कि पिछले सात साल में देश में गरीबों की संख्या घटी है। आयोग ने कहा कि पांच व्यक्तियों के परिवार में खपत खर्च के हिसाब से अखिल भारतीय गरीबी की रेखा ग्रामीण इलाकों के लिए 4,080 रुपये मासिक और शहरों में 5,000 रुपये मासिक होगी।

हालांकि, राज्य दर राज्य हिसाब से गरीबी की रेखा भिन्न होगी। वर्ष 2011-12 में ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की संख्या 25.7 प्रतिशत और गांवों में 13.7 फीसदी थी। पूरे देश के लिए यह आंकड़ा 21.9 प्रतिशत रहा। वहीं 2004-05 में ग्रामीण इलाकों गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का अनुपात 41.8 प्रतिशत तथा शहरों में यह अनुपात 25.7 प्रतिशत। राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी अनुपात उस वर्ष 37.2 प्रतिशत था। संख्या के हिसाब से देखा जाए तो 2004-05 में देश में 40.71 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे थे, वहीं 2011-12 में यह संख्या घटकर 26.93 करोड़ रह गई।

गरीबी रेखा का अनुपात 2011-12 में सुरेश तेंदुलकर समिति द्वारा सुझाए गए तरीके के हिसाब से निकाला गया है। समिति ने गरीबी की रेखा तय करने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च के अलावा कैलोरी की मात्रा को इसमें शामिल किया है।

आयोग ने कहा कि राज्यवार देखा जाए, तो 39.93 प्रतिशत के साथ छत्तीसगढ़ में गरीबी का अनुपात सबसे ज्यादा है। झारखंड में यह 36.96 प्रतिशत, मणिपुर में 36.89 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 34.67 प्रतिशत और बिहार में 33.47 प्रतिशत है। संघ शासित प्रदेशों में दादर एवं नागर हवेली में गरीबी का अनुपात सबसे ज्यादा 39.31 प्रतिशत है।

चंडीगढ़ में 21.81 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। गोवा में सबसे कम यानी 5.09 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। केरल में यह आंकड़ा 7.05 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में 8.06 प्रतिशत, सिक्किम में 8.19 प्रतिशत, पंजाब में 8.26 प्रतिशत तथा आंध्र प्रदेश में 9.20 प्रतिशत है।

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

पाताल में शयन करने के लिए क्यों जाते हैं देवता?

पाताल में शयन करने के लिए क्यों जाते हैं देवता?
अगर आप कभी तिरुवनंतपुरम के पद्मनाभ स्वामी मंदिर जाएं तो मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा के दर्शन करने जरूर जाइए. करीब पचास फीट की सोने की ये प्रतिमा श्रीमन्नारायण की निद्रावस्था में है. मंदिर बिल्कुल बैकुंठ जैसा, सोने से लदा हुआ.
विशाल परिसर और मंदिर के नौ द्वार. पद्मनाभ स्वामी मंदिर की समृद्धि और भव्यता पिछले साल मंदिर के नीचे मिले करीब 10 लाख करोड़ के खजाने की वजह से खूब चर्चा में रही. पद्मनाभ स्वामी और त्रावणकोर के राजवंश की दानवीरता की कहानी फिर कभी बाद में अभी चर्चा मंदिर के गर्भगृह औऱ यहां भगवान विष्णु के स्वरूप की.

मंदिर के गर्भगृह में जैसा कि बताया करीब पचास फीट की सोने की प्रतिमा. क्षितिजाकार प्रतिमा के तीन भागों में दर्शन होते हैं, पहले अंधेरे गर्भगृह में सोने से चमचमाता विष्णु जी का मुख औऱ शेषनाग की तरफ फैला उनका हाथ, दूसरे हिस्से में सोने से लदा कमर का हिस्सा और तीसरे हिस्से में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन. हमने भी दर्शन किए और जब चरणों के पास पहुंचे तो स्वाभाविक भक्त की तरह सिर के बल लेटकर प्रणाम करने लगे. इस पर मंदिर के पुजारियों ने टोका और कहा यहां भगवान को प्रणाम नहीं करते क्योंकि वो सो रहे हैं.

भगवान विष्णु के शयन पर जाने को लेकर अक्सर कोफ्त होती है, कई सवाल मन में कौंधते हैं. ब्रह्मा और शिव भी विश्राम के लिए जाते हैं, हालांकि इसकी ज्यादा चर्चा भी नहीं होती लेकिन भगवान विष्णु जो इस सृष्टि के पालन-पोषण के होल सोल इंचार्ज कहे जाते है, वो ही अगर विश्राम को चले जाएं तो फिर ये सृष्टि कैसे चलेगी, इस सवाल के सटीक जवाब की अब भी तलाश है. इंसानों को तो कहा जाता है कि कर्म ही पूजा है, चलते रहने का नाम ही जिंदगी है औऱ भगवान हैं कि 4-4 महीने तक सोने चले जाते हैं. मन में सवाल उठता है कि क्या संसार में इसीलिए इतनी अराजकता है, इसीलिए इतनी उठापटक है, जिसका जो आया कर रहा है क्योंकि उसके पालनहार को ही महीनों तक इसकी परवाह नहीं है.

अषाढ़ी एकादशी आई, पंढरपुर यात्रा संपन्न हुई और हिंदू मान्यताओं के मुताबिक जगत के पालनहार भगवान विष्णु फिर क्षीरसागर में शयन करने चले गए. अषाढ़ी एकादशी को देवशयनी एकदाशी भी कहा जाता है. इसी दिन के बाद हिंदू मान्यताओं के मुताबिक वो सभी धार्मिक कार्य ठप हो जाते हैं जिनमें भगवान विष्णु को साक्षात मानकर उनका आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है. धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक भगवान विष्णु अषाढ़ की एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक निद्रा में रहते हैं. कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी या देवोत्थान एकादशी कहा जाता है. हिंदू धर्म में इसके बाद ही शादी-विवाह, यज्ञोपवीत, नामकरण जैसे धार्मिक संस्कार शुरू किए जाने का विधान माना गया है.

धार्मिक समुदाय में ज्यादा चर्चा विष्णु भगवान के शयन की ही होती है, लेकिन कम लोग जानते होंगे कि जिस तरह देवशयनी एकादशी से देवोत्थान एकादशी तक भगवान विष्णु का निद्राकाल माना जाता है उसी तरह हिंदू धर्मग्रंथों में कहा गया है कि देवोत्थान एकादशी से महाशिवरात्रि तक भगवान शिव विश्राम मुद्रा में रहते हैं और महाशिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक ब्रह्मा जी के विश्राम का समय होता है. तीनों देवताओं के विश्राम की जगह के बारे में भी धर्मग्रंथों में बताया गया है. कहा गया है कि इस दौरान ये देवता सुतल नाम की पाताल नगरी में निवास करते हैं. भूमंडल के नीचे पाताल में सात नगर बताए जाते हैं, क्षीरसागर में इन्ही में से एक है सुतल.

हमारी तरह इस युग के इंसानों को भगवान विष्णु के इस तरह क्षीरसागर में शयन जाने को लेकर उठते होंगे, लेकिन दरअसल हिंदू मान्यताओं में ही इसका जवाब भी है. जिसके मुताबिक भगवान विष्णु पाताल में विश्राम करने से ज्यादा अपने एक भक्त को दिया गया वचन निभा रहे हैं. कहानी राजा बलि और भगवान विष्णु से जुड़ी हुई है. राजा बलि बेहद दानवीर थे. एक बार उन्होंने यज्ञ किया और भगवान उनकी परीक्षा के लिए ब्राह्मण भेष में पहुंच गए और राजा बलि से तीन पग जमीन दान में मांगी. बलि ने अपने प्रताप से भूमंडल को जीता था. भिक्षु बने विष्णु ने राजा से एक पग में पूरी धरती, दूसरे में संपूर्ण आकाश और दसों दिशाओं को ले लिया. बलि समझ गए कि ये बाबाजी तो भगवान हैं और उन्होंने भिक्षु से कहा तीसरा पैर आप मेरे सिर पर रखें. भगवान विष्णु ने बलि के सिर पर अपना पैर रखा और दानवीरता से प्रसन्न होकर उन्हें पाताल का राजा बना दिया. अब बारी बलि की थी–बलि ने भिक्षु बने भगवान विष्णु से वर मांगा. बलि ने विष्णु समेत तीनों देवताओं यानी ब्रह्मा, विष्णु, महेश को उनके राज्य यानी पाताल में निवास करने को कहा. कहते हैं विष्णुजी के इसी वादे को पूरा करने के लिए तीनों देवता यानी विष्णु के अलावा ब्रह्मा और शिव भी 4-4 महीने पाताल में निवास करते हैं.

ये तो रही देवताओं के शयन की धार्मिक और पौराणिक कथा— लेकिन इसके वैज्ञानिक और पकृति से जुड़े पहलू भी हैं. देवशयनी एकादशी से हरिशयन का मतलब ये भी है कि बारिश के इन चार महीनों में सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश कमजोर रहता है. सूर्य किरणों के न आने से अग्नि तत्व कमजोर रहता है जिससे वातावरण में कई प्रकार के कीटाणु और रोगकारक जीव जंतु पैदा हो जाते हैं. इसीलिए इन चार महीनों में संतुलित जीवन व्यतीत करने और भगवान का ध्यान करने के लिए जो जहां है वहीं ठिठक जाता है. हिंदुओं के अलावा जैन धर्म में इसे चातुर्मास कहते हैं तो दूसरे धर्मों में भी इसका जिक्र है

कुछ मंदिरों में प्रवेश को लेकर धार्मिक असहिष्णुता क्यों?

कुछ मंदिरों में प्रवेश को लेकर धार्मिक असहिष्णुता क्यों?
आज सुबह के अखबारों में खबर देखी कि ओडिशा के पुरी में दो पुजारियों ने भगवान जगन्नाथ के रथ पर सवार इतालवी मूल की एक नृत्यांगना को पहले थप्पड़ मारा और फिर धक्के मारकर उतार दिया.
रविवार को इस मामले में इलेना सीतारिस्ती नामक इस नृत्यांगना ने न सिर्फ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, बल्कि भगवान जगन्नाथ मंदिर बोर्ड के प्रशासक को भी पत्र लिखकर आपत्ति दर्ज कराई.
इलेना का कहना है कि उन पर तब गैर-हिंदू कहकर हमला किया गया, जब उन्होंने पुजारियों को हजार रुपये की दक्षिणा देने से मना कर दिया.
इलेना का ये भी कहना है कि उन्हें पता है कि भगवान जगन्नाथ के मंदिर में गैर-हिंदूओं का प्रवेश वर्जित है, लेकिन रथ के बारे में ऐसा कोई निषेध है, ऐसी उन्हें जानकारी नहीं थी.
इलेना ने अपनी शिकायत में ये भी कहा है कि जब वो रथ पर चढ़ रही थीं, तब उन्हें किसी ने मना नहीं किया, बल्कि सारा बवाल तब शुरू हुआ, जब उन्होंने पुजारियों को हजार रुपये की दक्षिणा देने से मना कर दिया.
इस घटना के बाद विवाद स्वाभाविक है. मंदिर के मुख्य प्रशासक अरविंद पाधी ने दोषी पुजारियों के खिलाफ जांच के बाद कड़ी कार्रवाई का भरोसा दिलाया है.
यहां ये जान लेना भी जरूरी है कि इलेना ओडिशा के लिए कोई नई नहीं है. इटली में जन्मी इलेना ने 1979 से ओडिशा को अपना घर बना लिया है. जब वो इटली से भारत आईं, तो पहले उन्होंने कथकली सीखा और फिर नृत्यगुरू केलुचरण महापात्रा से ओडिशी. इलेना को 1995 में युगांत फिल्म में कोरियोग्राफी के लिए नेशनल अवार्ड भी मिल चुका है. यही नहीं, ओडिशी नृत्य में उनके योगदान को लेकर भारत सरकार ने वर्ष 2006 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा. कथकली और ओडिशी के अलावा वो छउ नृत्य की भी जानकार हैं. 1996 से वो भुवनेश्वर में आर्ट विजन एकेडमी नामक संस्था चला रही हैं, जिसके जरिए ओडिशी और छउ नृत्य की वो तालीम देती हैं.
जाहिर है, इलेना ओडिशा के लिए कोई विदेशी नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति का अब मजबूत स्तंभ बन चुकी हैं. ऐसे में इलेना के साथ हुए इस दुर्व्यवहार के बाद सवाल उठने लाजिमी हैं.
कई सवाल
पहला सवाल तो यही कि अगर एक पल को ये मान भी लिया जाए कि गैर-हिंदू इलेना ने रथ पर चढ़कर कोई घोर अधर्म किया था, तो क्या इसका जवाब उनके साथ मारपीट करना था.
दूसरा सवाल ये कि इलेना के साथ दुर्व्यवहार महज उनके गैर-हिंदू को लेकर हुआ या फिर हजार रुपये की दक्षिणा नहीं देने के कारण, जैसा कि इलेना का आरोप है.
तीसरा सवाल ये कि क्या पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तरह भगवान जगन्नाथ के रथ पर भी गैर-हिंदुओं के लिए चढ़ना निषेध है. ये सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि मौजूदा घटना के बाद खुद मंदिर के प्रशासक ये कह रहे हैं कि इस मसले पर स्थिति साफ नहीं है और वो इसे लेकर पुरी स्थित गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती की राय की बाट जोह रहे हैं.
चौथा सवाल ये कि भगवान जगन्नाथ, जिनके बारे में मान्यता ये है कि वो पूरे जगत के नाथ हैं, क्या उनके दरबार, मंदिर और रथ में प्रवेश को लेकर धर्म के आधार पर विभेद उचित है.

अभी हाल ही में मेरा पुरी जाना हुआ था, जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एक दिन के ओडिशा प्रवास पर गए थे, धार्मिक और राजनीतिक दोनों ही कारणों से. ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से महज साठ किलोमीटर की दूरी पर है मौजूद धर्म नगरी पुरी. जब कवरेज के सिलसिले में पहले गुंडीचा मंदिर और बाद में श्रीमंदिर जाना हुआ, तो वहां से जुड़े हुए कई निषेधों के बारे में पता चला.
मसलन मंदिर के अंदर आप मोबाइल तो ठीक, चमड़े का कोई सामान भी लेकर नहीं जा सकते. फर्श के पत्थर भले ही आपके पांवो को झुलसा रहे हों, लेकिन मुख्य द्वार से ही नंगे पांव जाना होता है भक्तों को.
मोदी के पुरी से निकल जाने के बाद इन दोनों ही मंदिरों को देखने के लिए मैं गया, उद्देश्य धार्मिक से ज्यादा ऐतिहासिक महत्व के इन मंदिरों को ध्यान से देखने का था. हिंदुओं के चार महत्वपूर्ण यात्रा धामों में से एक पुरी का जगन्नाथ मंदिर, श्री मंदिर के नाम से भी जाना जाता है.
भगवान जगन्नाथ का ये मंदिर अपने इतिहास में कई बार बना है. मौजूदा मंदिर का निर्माण दसवीं सदी में शुरू हुआ बताया जाता है. मंदिर ट्रस्ट की तरफ से प्रकाशित पुस्तकों के मुताबिक, 1230 ईस्वी में मौजूदा मंदिर के अंदर भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलराम की मूर्तियो की प्राण प्रतिष्ठा हुई.
मुख्य मंदिर के चार प्रमुख हिस्से हैं: विमान, मुखशाला, नटमंदिर और भोगमंडप. विमान सबसे अंदर का हिस्सा है, जहां मूर्तियां विराजमान रहती हैं, तो भोगमंडप सबसे आगे का हिस्सा, जहां भगवान को भोग चढ़ता है. बताया जाता है कि जहां विमान और मुखशाला का निर्माण बारहवीं सदी में हो गया था, वही नटमंदिर, जिसे अब जगमोहन के तौर पर जाना जाता है, उसका निर्माण राजा पुरुषोत्त्म देव के शासन काल यानी 1461 से 1495 ईस्वी के बीच हुआ था. भोगमंदिर का निर्माण सबसे आखिर में राजा प्रताप रुद्र देव के शासनकाल में 1495 से 1532 ईस्वी के बीच हुआ था.
ध्यान रहे कि भगवान जगन्नाथ के इस मंदिर के प्रांगण में दर्जनों की तादाद में और भी मंदिर हैं, मसलन माता लक्ष्मी या फिर बिमला माता के मंदिर. इन मंदिरों के चारों तरफ बीस से पचीस फीट उंची दीवार हैं और प्रांगण में घुसने के लिए हैं चार दरवाजे- पूर्व दिशा वाला सिंह द्वार, दक्षिण द्वार, पश्चिम द्वार और उत्तर द्वार.
इन चार दरवाजों में से सिंह द्वार का ही मंदिर के अंदर प्रवेश के लिए ज्यादातर इस्तेमाल किया जाता है. सोलह जुलाई के दिन जब मैंने भी यहां प्रवेश लिया था, तो दरवाजे के बाहर सफेद संगमरमर के पट्ट पर उकेरी हुई उन पंक्तियों को साफ-साफ देख लिया था कि इस मंदिर के अंदर सिर्फ पारंपरिक हिंदू ही प्रवेश कर सकते हैं.
इसका असर कैसा है, इसका अंदाजा तब भी लग गया, जब मंदिर के मुख्य द्वार को बैकग्राउंड में रखकर मैं फोटो खींच रहा था और बगल में इस्कॉन से जुड़े एक विदेशी भक्त ने एतराज जताया कि हमें तो प्रवेश मिलता नहीं और आप अपनी पीठ भगवान को दिखाकर फोटो खींचा रहे हैं. यहां ये भी बताता चलूं कि मंदिर प्रांगण के अंदर कैमरा ले जाना भी मना है, इसलिए बाहर ही फोटो खींचाने में लगा था.
खैर, जहां तक मंदिर के अंदर गैर-हिंदुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध का सवाल है, वो सिर्फ पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ही नहीं, ओडिशा या देश के कई और मंदिरों में भी है. न सिर्फ मौखिक तौर पर, बल्कि मंदिर के बाहर औपचारिक पत्थर पट्टी लगाकर. ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर का भी यही हाल है, जहां एक युवा पुजारी ने बड़े गर्व से ये बताने की कोशिश की थी कि गैर-हिंदू मंदिर के बगल में बनाए गए एक प्लेटफार्म से ही अंदर का नजारा देख सकते हैं, प्रवेश नहीं कर सकते. जहां तक मुझे ध्यान है हिंदुओं की सबसे बड़ी धर्मनगरी वाराणसी के ऐतिहासिक विश्वनाथ मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर भी इसी तरह की पट्टी लगी है, जिसके जरिए गैर-हिंदुओं के मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध है.
पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पुजारी किस कड़ाई से गैर-हिंदुओं के मंदिर प्रवेश को रोकते रहे हैं, इसके लिए ये उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी जब 1984 में बतौर प्रधानमंत्री पुरी गई थीं, तो पुजारियों ने उनको जगन्नाथ मंदिर में ये कहते हुए नहीं घुसने दिया था कि उन्होंने एक पारसी फिरोज गांधी से शादी की थी.
इसी तरह से थाइलैंड की रानी को भी वर्ष 2005 में मंदिर में प्रवेश करने से पुजारियों ने रोक दिया था, क्योंकि वो बौद्ध मत को मानती हैं. यही नहीं, वर्ष 2006 में मंदिर के पुनरुद्धार के लिए करीब पौने दो करोड़ रुपये का दान देने वाली एक स्वीस महिला एलिजाबेथ जिगलर को भी प्रवेश देने से पुजारियों ने मना कर दिया क्योंकि वो इसाई मत को मानती थी.
इलेना वाले मौजूदा विवाद की तरह ही पिछले साल भी तब काफी विवाद हुआ था, जब मंदिर के सुरक्षाकर्मियों ने रथयात्रा के दौरान नोएल मैगी हैडन नामक एक अमेरिकी की पिटाई कर दी थी, जब उसने भगवान जगन्नाथ के रथ नंदीघोष पर चढ़ने की कोशिश की थी. नोएल ने एक उड़ीया महिला के साथ ही शादी की है, लेकिन चूंकि वो जन्मजात हिंदू नहीं था, इसलिए उसे रथ पर चढ़ने से रोका गया और पीटा गया.

सवाल ये उठता है कि आखिर इन कठोर धार्मिक रुढ़ियों से पुरी के पुजारी कब बाहर आएंगे. पिछले महीने ही जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मेरा जाना हुआ था, तो वहां के मीडिया विभाग की जिम्मेदारी संभाल रहे जसविंदर सिंह जस्सी ने यही सवाल उठाया था. जस्सी ने खुद के अनुभव का जिक्र करते हुए कहा था कि जब वो पुरी गए थे बड़ी श्रद्धा के साथ, तो उन्हें भी पहले मंदिर में प्रवेश से रोक दिया गया था क्योंकि वो सिख थे.
जस्सी ने उस समय मंदिर ट्रस्ट के लोगों के सामने ये सवाल उठाया था कि सिख धर्म में ऐसा कोई निषेध नहीं है. न सिर्फ सिखों के स्वर्णमंदिर सहित सभी गुरुद्वारों में किसी भी धर्म का मतावलंबी सर पर पगड़ी या साफा बांधकर प्रवेश कर सकता है या फिर वहां के लंगरों में भोजन कर सकता है, तो फिर भला कुछ हिंदू मंदिरों में गैर-हिंदुओं के प्रवेश के मामले में इतनी सख्ती क्यों.
जस्सी ये जिक्र करना भी नहीं भूले थे कि स्वर्ण मंदिर की नींव एक मुस्लिम सूफी संत मियां मीर के हाथों डलवाई गई थी. जाहिर है, पिछले चार सौ वर्षों के इतिहास में सिखों और मुस्लिमों के बीच सैकड़ों खूनी संघर्ष हुए, दो सिख गुरुओं- अर्जनदेव और तेग बहादुर मुगल शासकों के दौर में मारे गए और उनको मरवाने का आरोप भी उन मुस्लिम शासकों पर है, बावजूद इसके सिखों ने गुरुद्वारों में मुस्लिमों के प्रवेश पर कोई रोक नहीं लगाई. यहां तक कि स्वर्ण मंदिर कैंपस में प्रवेश के जो चार दरवाजे हैं वो वर्ण व्यवस्था के सभी चार हिस्सों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सबके लिए ये मंदिर खुला है, इसके प्रतीक के तौर पर ही हैं. जहां तक पुरी का ताल्लुक है, सिखों के सबसे प्रतापी राजा रंजीत सिंह की इच्छा कोहेनूर को भगवान जगन्नाथ के चरणों में रखने की थी. महाराजा रंजीत सिंह ने वाराणसी के काशी विश्वनाश मंदिर के लिए कितना बड़ा स्वर्ण दान किया था, ये सर्वविदित है.
धार्मिक असहिष्णुता क्यों?
कहने का आशय ये है कि हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा जब पोंगापंथी या फिर रुढ़ियों से आगे बढ़ गया है, तो फिर इस तरह की धार्मिक असहिष्णुता कुछ मंदिरों में अब भी क्यों.
देश के ज्यादातर बड़े मंदिरों में कभी हरिजनों का प्रवेश वर्जित था, वहां 19वीं और बीसवीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनो के बाद सभी जातियों को प्रवेश मिलने लगा.
व्यावहारिक स्थिति ये है कि देश के ज्यादातर मंदिरों में न तो प्रवेश के दौरान किसी की कोई जाति पूछता है और न ही कोई धर्म.
ऐसे में पुरी के जगन्नाथ मंदिर जैसे वाकये अपवाद के तौर पर उस दर्शन को लेकर विवाद क्यों जगाते रहें, जिसके मूल में है वसुधैव कुटुंबकम.
जाहिर है, इस पर विचार करने की जरूरत सबको है, लेकिन खास तौर पर ऐसे मंदिरों के व्यवस्थापकों और पुजारियों को. ये वही पुजारी हैं, जो दक्षिणा के लिए चील-कौव्वे की तरह दर्शनार्थियों पर झपटते रहते हैं. लेकिन ये स्वार्थी झपट धार्मिक असहिष्णुता के बड़े प्रतीक के तौर पर बार-बार उभरती रहे, तो ये ठीक नहीं. इस व्यवस्था से अब किनारा किये जाने की जरुरत है, धर्म के इन लाइसेंसी ठेकेदारों को धर्म की असली व्याख्या समझाने की जरूरत है.

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