कुछ मंदिरों में प्रवेश को लेकर धार्मिक असहिष्णुता क्यों?
Monday, 22 July 2013 14:10
रविवार को इस मामले में इलेना सीतारिस्ती नामक इस नृत्यांगना ने न सिर्फ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, बल्कि भगवान जगन्नाथ मंदिर बोर्ड के प्रशासक को भी पत्र लिखकर आपत्ति दर्ज कराई.
इलेना का कहना है कि उन पर तब गैर-हिंदू कहकर हमला किया गया, जब उन्होंने पुजारियों को हजार रुपये की दक्षिणा देने से मना कर दिया.
इलेना का ये भी कहना है कि उन्हें पता है कि भगवान जगन्नाथ के मंदिर में गैर-हिंदूओं का प्रवेश वर्जित है, लेकिन रथ के बारे में ऐसा कोई निषेध है, ऐसी उन्हें जानकारी नहीं थी.
इलेना ने अपनी शिकायत में ये भी कहा है कि जब वो रथ पर चढ़ रही थीं, तब उन्हें किसी ने मना नहीं किया, बल्कि सारा बवाल तब शुरू हुआ, जब उन्होंने पुजारियों को हजार रुपये की दक्षिणा देने से मना कर दिया.
इस घटना के बाद विवाद स्वाभाविक है. मंदिर के मुख्य प्रशासक अरविंद पाधी ने दोषी पुजारियों के खिलाफ जांच के बाद कड़ी कार्रवाई का भरोसा दिलाया है.
यहां ये जान लेना भी जरूरी है कि इलेना ओडिशा के लिए कोई नई नहीं है. इटली में जन्मी इलेना ने 1979 से ओडिशा को अपना घर बना लिया है. जब वो इटली से भारत आईं, तो पहले उन्होंने कथकली सीखा और फिर नृत्यगुरू केलुचरण महापात्रा से ओडिशी. इलेना को 1995 में युगांत फिल्म में कोरियोग्राफी के लिए नेशनल अवार्ड भी मिल चुका है. यही नहीं, ओडिशी नृत्य में उनके योगदान को लेकर भारत सरकार ने वर्ष 2006 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा. कथकली और ओडिशी के अलावा वो छउ नृत्य की भी जानकार हैं. 1996 से वो भुवनेश्वर में आर्ट विजन एकेडमी नामक संस्था चला रही हैं, जिसके जरिए ओडिशी और छउ नृत्य की वो तालीम देती हैं.
जाहिर है, इलेना ओडिशा के लिए कोई विदेशी नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति का अब मजबूत स्तंभ बन चुकी हैं. ऐसे में इलेना के साथ हुए इस दुर्व्यवहार के बाद सवाल उठने लाजिमी हैं.
कई सवाल
पहला सवाल तो यही कि अगर एक पल को ये मान भी लिया जाए कि गैर-हिंदू इलेना ने रथ पर चढ़कर कोई घोर अधर्म किया था, तो क्या इसका जवाब उनके साथ मारपीट करना था.
दूसरा सवाल ये कि इलेना के साथ दुर्व्यवहार महज उनके गैर-हिंदू को लेकर हुआ या फिर हजार रुपये की दक्षिणा नहीं देने के कारण, जैसा कि इलेना का आरोप है.
तीसरा सवाल ये कि क्या पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तरह भगवान जगन्नाथ के रथ पर भी गैर-हिंदुओं के लिए चढ़ना निषेध है. ये सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि मौजूदा घटना के बाद खुद मंदिर के प्रशासक ये कह रहे हैं कि इस मसले पर स्थिति साफ नहीं है और वो इसे लेकर पुरी स्थित गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती की राय की बाट जोह रहे हैं.
चौथा सवाल ये कि भगवान जगन्नाथ, जिनके बारे में मान्यता ये है कि वो पूरे जगत के नाथ हैं, क्या उनके दरबार, मंदिर और रथ में प्रवेश को लेकर धर्म के आधार पर विभेद उचित है.
अभी हाल ही में मेरा पुरी जाना हुआ था, जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एक दिन के ओडिशा प्रवास पर गए थे, धार्मिक और राजनीतिक दोनों ही कारणों से. ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से महज साठ किलोमीटर की दूरी पर है मौजूद धर्म नगरी पुरी. जब कवरेज के सिलसिले में पहले गुंडीचा मंदिर और बाद में श्रीमंदिर जाना हुआ, तो वहां से जुड़े हुए कई निषेधों के बारे में पता चला.
मसलन मंदिर के अंदर आप मोबाइल तो ठीक, चमड़े का कोई सामान भी लेकर नहीं जा सकते. फर्श के पत्थर भले ही आपके पांवो को झुलसा रहे हों, लेकिन मुख्य द्वार से ही नंगे पांव जाना होता है भक्तों को.
मोदी के पुरी से निकल जाने के बाद इन दोनों ही मंदिरों को देखने के लिए मैं गया, उद्देश्य धार्मिक से ज्यादा ऐतिहासिक महत्व के इन मंदिरों को ध्यान से देखने का था. हिंदुओं के चार महत्वपूर्ण यात्रा धामों में से एक पुरी का जगन्नाथ मंदिर, श्री मंदिर के नाम से भी जाना जाता है.
भगवान जगन्नाथ का ये मंदिर अपने इतिहास में कई बार बना है. मौजूदा मंदिर का निर्माण दसवीं सदी में शुरू हुआ बताया जाता है. मंदिर ट्रस्ट की तरफ से प्रकाशित पुस्तकों के मुताबिक, 1230 ईस्वी में मौजूदा मंदिर के अंदर भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलराम की मूर्तियो की प्राण प्रतिष्ठा हुई.
मुख्य मंदिर के चार प्रमुख हिस्से हैं: विमान, मुखशाला, नटमंदिर और भोगमंडप. विमान सबसे अंदर का हिस्सा है, जहां मूर्तियां विराजमान रहती हैं, तो भोगमंडप सबसे आगे का हिस्सा, जहां भगवान को भोग चढ़ता है. बताया जाता है कि जहां विमान और मुखशाला का निर्माण बारहवीं सदी में हो गया था, वही नटमंदिर, जिसे अब जगमोहन के तौर पर जाना जाता है, उसका निर्माण राजा पुरुषोत्त्म देव के शासन काल यानी 1461 से 1495 ईस्वी के बीच हुआ था. भोगमंदिर का निर्माण सबसे आखिर में राजा प्रताप रुद्र देव के शासनकाल में 1495 से 1532 ईस्वी के बीच हुआ था.
ध्यान रहे कि भगवान जगन्नाथ के इस मंदिर के प्रांगण में दर्जनों की तादाद में और भी मंदिर हैं, मसलन माता लक्ष्मी या फिर बिमला माता के मंदिर. इन मंदिरों के चारों तरफ बीस से पचीस फीट उंची दीवार हैं और प्रांगण में घुसने के लिए हैं चार दरवाजे- पूर्व दिशा वाला सिंह द्वार, दक्षिण द्वार, पश्चिम द्वार और उत्तर द्वार.
इन चार दरवाजों में से सिंह द्वार का ही मंदिर के अंदर प्रवेश के लिए ज्यादातर इस्तेमाल किया जाता है. सोलह जुलाई के दिन जब मैंने भी यहां प्रवेश लिया था, तो दरवाजे के बाहर सफेद संगमरमर के पट्ट पर उकेरी हुई उन पंक्तियों को साफ-साफ देख लिया था कि इस मंदिर के अंदर सिर्फ पारंपरिक हिंदू ही प्रवेश कर सकते हैं.
इसका असर कैसा है, इसका अंदाजा तब भी लग गया, जब मंदिर के मुख्य द्वार को बैकग्राउंड में रखकर मैं फोटो खींच रहा था और बगल में इस्कॉन से जुड़े एक विदेशी भक्त ने एतराज जताया कि हमें तो प्रवेश मिलता नहीं और आप अपनी पीठ भगवान को दिखाकर फोटो खींचा रहे हैं. यहां ये भी बताता चलूं कि मंदिर प्रांगण के अंदर कैमरा ले जाना भी मना है, इसलिए बाहर ही फोटो खींचाने में लगा था.
खैर, जहां तक मंदिर के अंदर गैर-हिंदुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध का सवाल है, वो सिर्फ पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ही नहीं, ओडिशा या देश के कई और मंदिरों में भी है. न सिर्फ मौखिक तौर पर, बल्कि मंदिर के बाहर औपचारिक पत्थर पट्टी लगाकर. ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर का भी यही हाल है, जहां एक युवा पुजारी ने बड़े गर्व से ये बताने की कोशिश की थी कि गैर-हिंदू मंदिर के बगल में बनाए गए एक प्लेटफार्म से ही अंदर का नजारा देख सकते हैं, प्रवेश नहीं कर सकते. जहां तक मुझे ध्यान है हिंदुओं की सबसे बड़ी धर्मनगरी वाराणसी के ऐतिहासिक विश्वनाथ मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर भी इसी तरह की पट्टी लगी है, जिसके जरिए गैर-हिंदुओं के मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध है.
पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पुजारी किस कड़ाई से गैर-हिंदुओं के मंदिर प्रवेश को रोकते रहे हैं, इसके लिए ये उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी जब 1984 में बतौर प्रधानमंत्री पुरी गई थीं, तो पुजारियों ने उनको जगन्नाथ मंदिर में ये कहते हुए नहीं घुसने दिया था कि उन्होंने एक पारसी फिरोज गांधी से शादी की थी.
इसी तरह से थाइलैंड की रानी को भी वर्ष 2005 में मंदिर में प्रवेश करने से पुजारियों ने रोक दिया था, क्योंकि वो बौद्ध मत को मानती हैं. यही नहीं, वर्ष 2006 में मंदिर के पुनरुद्धार के लिए करीब पौने दो करोड़ रुपये का दान देने वाली एक स्वीस महिला एलिजाबेथ जिगलर को भी प्रवेश देने से पुजारियों ने मना कर दिया क्योंकि वो इसाई मत को मानती थी.
इलेना वाले मौजूदा विवाद की तरह ही पिछले साल भी तब काफी विवाद हुआ था, जब मंदिर के सुरक्षाकर्मियों ने रथयात्रा के दौरान नोएल मैगी हैडन नामक एक अमेरिकी की पिटाई कर दी थी, जब उसने भगवान जगन्नाथ के रथ नंदीघोष पर चढ़ने की कोशिश की थी. नोएल ने एक उड़ीया महिला के साथ ही शादी की है, लेकिन चूंकि वो जन्मजात हिंदू नहीं था, इसलिए उसे रथ पर चढ़ने से रोका गया और पीटा गया.
सवाल ये उठता है कि आखिर इन कठोर धार्मिक रुढ़ियों से पुरी के पुजारी कब बाहर आएंगे. पिछले महीने ही जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मेरा जाना हुआ था, तो वहां के मीडिया विभाग की जिम्मेदारी संभाल रहे जसविंदर सिंह जस्सी ने यही सवाल उठाया था. जस्सी ने खुद के अनुभव का जिक्र करते हुए कहा था कि जब वो पुरी गए थे बड़ी श्रद्धा के साथ, तो उन्हें भी पहले मंदिर में प्रवेश से रोक दिया गया था क्योंकि वो सिख थे.
जस्सी ने उस समय मंदिर ट्रस्ट के लोगों के सामने ये सवाल उठाया था कि सिख धर्म में ऐसा कोई निषेध नहीं है. न सिर्फ सिखों के स्वर्णमंदिर सहित सभी गुरुद्वारों में किसी भी धर्म का मतावलंबी सर पर पगड़ी या साफा बांधकर प्रवेश कर सकता है या फिर वहां के लंगरों में भोजन कर सकता है, तो फिर भला कुछ हिंदू मंदिरों में गैर-हिंदुओं के प्रवेश के मामले में इतनी सख्ती क्यों.
जस्सी ये जिक्र करना भी नहीं भूले थे कि स्वर्ण मंदिर की नींव एक मुस्लिम सूफी संत मियां मीर के हाथों डलवाई गई थी. जाहिर है, पिछले चार सौ वर्षों के इतिहास में सिखों और मुस्लिमों के बीच सैकड़ों खूनी संघर्ष हुए, दो सिख गुरुओं- अर्जनदेव और तेग बहादुर मुगल शासकों के दौर में मारे गए और उनको मरवाने का आरोप भी उन मुस्लिम शासकों पर है, बावजूद इसके सिखों ने गुरुद्वारों में मुस्लिमों के प्रवेश पर कोई रोक नहीं लगाई. यहां तक कि स्वर्ण मंदिर कैंपस में प्रवेश के जो चार दरवाजे हैं वो वर्ण व्यवस्था के सभी चार हिस्सों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सबके लिए ये मंदिर खुला है, इसके प्रतीक के तौर पर ही हैं. जहां तक पुरी का ताल्लुक है, सिखों के सबसे प्रतापी राजा रंजीत सिंह की इच्छा कोहेनूर को भगवान जगन्नाथ के चरणों में रखने की थी. महाराजा रंजीत सिंह ने वाराणसी के काशी विश्वनाश मंदिर के लिए कितना बड़ा स्वर्ण दान किया था, ये सर्वविदित है.
धार्मिक असहिष्णुता क्यों?
कहने का आशय ये है कि हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा जब पोंगापंथी या फिर रुढ़ियों से आगे बढ़ गया है, तो फिर इस तरह की धार्मिक असहिष्णुता कुछ मंदिरों में अब भी क्यों.
देश के ज्यादातर बड़े मंदिरों में कभी हरिजनों का प्रवेश वर्जित था, वहां 19वीं और बीसवीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनो के बाद सभी जातियों को प्रवेश मिलने लगा.
व्यावहारिक स्थिति ये है कि देश के ज्यादातर मंदिरों में न तो प्रवेश के दौरान किसी की कोई जाति पूछता है और न ही कोई धर्म.
ऐसे में पुरी के जगन्नाथ मंदिर जैसे वाकये अपवाद के तौर पर उस दर्शन को लेकर विवाद क्यों जगाते रहें, जिसके मूल में है वसुधैव कुटुंबकम.
जाहिर है, इस पर विचार करने की जरूरत सबको है, लेकिन खास तौर पर ऐसे मंदिरों के व्यवस्थापकों और पुजारियों को. ये वही पुजारी हैं, जो दक्षिणा के लिए चील-कौव्वे की तरह दर्शनार्थियों पर झपटते रहते हैं. लेकिन ये स्वार्थी झपट धार्मिक असहिष्णुता के बड़े प्रतीक के तौर पर बार-बार उभरती रहे, तो ये ठीक नहीं. इस व्यवस्था से अब किनारा किये जाने की जरुरत है, धर्म के इन लाइसेंसी ठेकेदारों को धर्म की असली व्याख्या समझाने की जरूरत है.
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