मंगलवार, 22 जुलाई 2014

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माओवाद से अभिशापित छत्तीसगढ़ अब देश में लड़कियों की तस्करी की सबसे बड़ी मंडी बन चुका है। सूबे की बालिग-नाबालिग लड़कियों को देश के अलग-अलग प्रदेशों में सप्लाई किया जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के लिहाज से पिछले पांच सालों में नौ हजार लड़कियां गुमशुदा हुई हैं, लेकिन तहलका की पड़ताल में चौंकाने वाले त







थ्य सामने आए हैं कि छत्तीसगढ़ की कई हजार लड़कियों को दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब, उत्तर प्रदेश, जम्मू कश्मीर जैसे प्रदेशों में बेचा जा चुका है, लेकिन पुलिस थानों में इनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई है। बार-बार मानव तस्करी की सूचना मिलने पर जब तहलका इसकी पड़ताल पर निकला तो कई लड़कियों की दर्दनाक दास्तान सामने आई।
सूबे के हालात ये हैं कि इन दिनों हजारों मां-बाप अपनी बेटियों को तलाश रहे हैं....उनकी बेटियां कहां हैं...किस हाल में है...वे घर-गांव से गायब होकर कहां चली गईं...इसका जबाव किसी के पास नहीं है...किसी की बेटी महीने भर पहले गुमशुदा हुई है तो किसी का वर्षों से पता नहीं है....प्रदेश की इज्जत को तार-तार करने वाली ये भयावह तस्वीर केवल छत्तीसगढ़ के दूरस्थ आदिवासी इलाकों की ही नहीं बल्कि राजधानी रायपुर की भी है...जहां पिछले पांच सालों में करीब डेढ़ हजार लड़कियां गायब हुई हैं। जबकि पूरे प्रदेश से करीब नौ हजार लड़कियों की गुमशुदगी दर्ज हुई है (ये आंकड़ा सरकारी है..जबकि हकीकत में लापता लड़कियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है)...दरअसल माओवाद जैसे नासूर को झेल रहे छत्तीसगढ़ में पिछले दस सालों से मानव तस्करी का धंधा भी चरम पर हैं....या यूं कहें कि छत्तीसगढ़ देश में मानव तस्करी की सबसे बड़ी मंडी बन चुका है तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रदेश के आदिवासी जिले नारायणपुर, जगदलपुर, कांकेर, कोंडागांव से तो लड़कियां गायब हो रही हैं, वहीं जशपुर, रायगढ़, कोरिया, सरगुजा, बिलासपुर, दुर्ग जैसे शहरों से भी लड़कियों की सप्लाई धडल्ले से चल रही है। प्रदेश की भोली भाली आदिवासी लड़कियों को तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर यानि प्रदेश के बाहर हर दिशा में बेचा जा रहा है। मानव तस्करी के इस रैकेट में प्लेसमेंट एंजेसियों के साथ-साथ स्थानीय दलाल भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। हालांकि कुछ समय पहले तक यही लग रहा था कि प्रदेश में रोजगार की कमी और गरीबी के चलते पलायन की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसका फायदा प्लेसमेंट एंजेसियां उठा रही हैं...और नौकरी देने का झांसा देकर लड़कियों को बेचा जा रहा है, लेकिन तहलका की पड़ताल में बस्तर समेत दूसरे इलाकों में लड़कियों की तस्करी के एक नए रैकेट का खुलासा हुआ है। बस्तर के आदिवासी जिलों से लड़कियों को केवल नौकरी दिलाने के नाम पर नहीं, बल्कि उन्हें दक्षिण भारत के मंदिरों के दर्शन करवाने या फिर शादी करके बाहर ले जाने के प्रकरण सामने आए हैं। दलाल स्थानीय लड़कियों से शादी भी कर रहे हैं ताकि उन इलाकों की दूसरी लड़कियों का विश्वास जीतने में आसानी हो।
छत्तीसगढ़ विधानसभा में भी कई बार इस मामले को उठाया गया है। लेकिन राज्य सरकार एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग कमेटी बनाने के अलावा कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई है। प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने पिछले साल सदन में ये गंभीर स्वीकरोक्ति की थी कि प्रदेश से रोजाना पांच बालिकाएं गायब हो रही हैं। पूर्व गृहमंत्री द्वारा सदन में पेश आंकड़ों पर नज़र डालें तो पिछले पांच सालों में पुलिस थानों और चौकियों में लड़कियों की गुमशुदगी के नौ हजार प्रकरण दर्ज हुए हैं...इसमें भी चौकाने वाली बात ये है कि सबसे ज्यादा लड़कियां राजधानी रायपुर से गुम हुई हैं... सरकारी दावे ये भी हैं कि पिछले पांच सालों में गुम नौ हजार लड़कियों में से पुलिस ने आठ हजार लड़कियों का पता लगा लिया गया है। जबकि बस्तर के सभी जिलों को मिलाकर करीब एक हजार लड़कियों का कोई पता नहीं चल रहा है.. हालांकि ये सरकारी आंकड़े हैं..लेकिन हकीकत में प्रदेश के रायगढ़, जशपुर, सरगुजा और बस्तर के इलाकों से अब तक बेहिसाब लड़कियां गायब हो चुकी हैं...इनमें कईयों की गुमशुदगी की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की गई है। कांग्रेस के दिंवगत नेता नंदकुमार पटेल हर बार विधानसभा में इस मामले को उठाते रहे कि अकेले उनके विधानसभा क्षेत्र रायगढ़ से हजारों लड़कियां गायब हुई हैं...उनके पास गायब बालिकाओं की पूरी सूची थी...उनका ये भी आरोप था कि कईयों के मामले पुलिस ने दर्ज किए हैं कईयों के नहीं...पटेल बार बार ये मांग करते कि मानव तस्करी रोकने के लिए कड़े कानून बनाए जाएं..साथ ही प्रदेश की गुमशुदा बालिकाओं की खोज खबर ली जाए..लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई।
छत्तीसगढ़ के नए नवेले गृहमंत्री रामसेवक पैकरा कहते हैं कि, हम मानव तस्करी को लेकर गंभीर हैं। यही कारण हैं कि मैने पद संभालते ही पुलिस महकमे को निर्देश जारी कर दिया है कि इसके खिलाफ तत्काल कड़े कदम उठाए जाएं। पैकरा ये भी कहते हैं कि ये एक लंबी प्रक्रिया है, लेकिन हम गंभीरता से इसे रोकने के लिए प्रयास कर रहे हैं
प्रदेश की महिला और बाल विकास मंत्री रमशीला साहू की मानें तो उनका विभाग अपने स्तर पर इसे नियंत्रित करने की कोशिश करेगा। हालांकि वे ये भी कहती हैं कि ये गृह विभाग का मामला है, लेकिन चूंकि मामला युवतियों से जुड़ा हुआ है, इसलिए महिला और बाल विकास विभाग भी इसे रोकने के लिए अपनी भूमिका तय करेगा
राज्य सरकार ये तो मानती है कि प्रदेश में लड़कियों की तस्करी जारी है। यही कारण है कि 2011 में चार जिलों को मानव तस्करी के अड्डों के रूप में चिन्हाकिंत किया गया था। जिनमें जशपुर पहला, रायगढ़ दूसरा, सरगुजा तीसरा एवं कोरबा को चौथे नंबर पर रखा गया था। इसके अलावा महासमुंद, जांजगीर, बलौदाबाजार व बिलासपुर को संवेदनशील इलाके माना गया था। जबकि बस्तर के नारायणपुर, कोंडागांव, जगदलपुर, सुकमा, बीजापुर, कांकेर जैसे इलाकों की तरफ तो कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। ऐसे में मानव तस्करों और उनके दलालों के लिए ये संजीवनी मिलने जैसा हो गया। उनके हौंसले इतने बढ़े कि पिछले पांच सालों में आदिवासी जिलों की भोली-भाली लड़कियों को प्रदेश के हर तरफ सप्लाई किया जाने लगा। राज्य सरकार ने प्लेसमेंट एंजेसियों के खिलाफ भी कार्रवाई की है। अकेले जशपुर में ही सात प्लेसमेंट एजेंसियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज किए गए हैं। आपको बताते चलें कि झारखंड़ की सीमा से लगे जशपुर में ही सबसे ज्यादा प्लेसमेंट एजेंसियां सक्रिय हैं...सरकारी आंकड़ें भले ही रायपुर में लड़कियों की गुमशुदगी की संख्या ज्यादा दिख रही है..लेकिन हमारी पड़ताल बताती है कि आदिवासी जिले नारायणपुर, कोंडागांव, जगदलपुर, बीजापुर, सुकमा के साथ ही जशपुर की हजारों लड़कियां गायब हैं...लेकिन गरीबी और अशिक्षा की वजह से मामले पुलिस तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।
मार्च 2013 में ही दो दलालों को रायपुर पुलिस ने रायपुर रेलवे स्टेशन पर 15 लड़कियों के साथ पकड़ा था। नारायणपुर की इन 15 लड़कियों को नागपुर ले जाया जा रहा था। इन्हें काम दिलाने की लालच में इनके घरों से लाया गया था...बतौर एडवांस इनके परिजनों को एक एक हजार रुपए भी दिए गए थे। रायपुर स्टेशन पर पकड़ी गई लड़कियों की उम्र उम्र महज 10 से 17 साल थीइनके साथ पकड़े गए दो स्थानीय दलाल मणिराम और बी वेंकट रेड्डी फिलहाल जेल में है। इन्हें नागपुर पहुंचकर तस्करों से मोटी रकम हासिल होने वाली थी। इनमें मणिराम बस्तर का निवासी है..जिसे हल्बी बोली आती है..क्योंकि ये बच्चे जिन इलाकों से लाए गए थे..वहां हिंदी या छत्तीसगढ़ी नहीं बोली जाती...बल्कि हल्बी का प्रचलन है। तस्करी का शिकार हुई लड़कियों में केवल दो को ही हिंदी समझ आ रही थी, बल्कि सभी हल्बी बोलने वाले थे। तस्करी का शिकार हुई 10 वर्षीय बालिका हड़मा मरकामी ने कभी स्कूल नहीं देखा था...उसका कहना है कि लड़कियां पढ़ाई नहीं करती..वह भी नागपुर जाकर मजदूरी करने निकली थी।
वहीं हाल ही में जशपुर जिले में मानव तस्करी के आरोप में एक युवक को 14 जनजातीय लड़कियों व छह अन्य के साथ गिरफ्तार किया गया है। पुलिस अफसरों के मुताबिक 26 वर्षीय मृणाल नायक को गुरुवार रात राजधानी रायपुर से 400 किलोमीटर दूर स्थित जनजातीय बहुल इलाके कुनकुरी से गिरफ्तार किया गया। पुलिस अधिकारी आर कौशिक ने बताया कि, हम मानव तस्करी रैकेट में सक्रिय एक युवक का कई सप्ताह से पीछा कर रहे थे। अंतत: कुनकुरी में एक बस स्टैंड से उसे गिरफ्तार किया गया। उस समय वह अपने साथ 20 स्थानीय लोगों को लेकर जा रहा था, इनमें 14 लड़कियों सहित ज्यादातर नाबालिग थे। यह मानव तस्करी का मामला है। पकडा गया दलाल उड़ीसा का रहने वाला है
कुनकुरी पुलिस ने 30 दिंसबर 2013 को ही एक प्लेसमेंट एजेंसी चलाने के बहाने लड़कियों की तस्करी करने वाली ताराबाई चौहान को गिरफ्तार किया है। ताराबाई ने फरवरी 2013 में किशोरी को दिल्ली में बेच दिया था। लड़की को दिल्ली के पॉश इलाके में घरेलू काम के लिए लगाया गया था। लड़की ने किसी तरह परिजनों को फोन पर खुद के दिल्ली में होने की सूचना दी। तब पुलिस ने परिजनों के बयान पर प्लेसमेंट संचालिका ताराबाई चौहान को गिरफ्तार कर लड़की को बरामद किया।
ये घटनाएं तो बानगी भर है, छत्तीसगढ़ का नक्शा उठाकर देखें तो पाएंगे कि दक्षिण के तरफ के आदिवासी जिलों की लड़कियों को सटे हुए प्रदेशों यानि आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु भेजा रहा है। ऊपर की तरफ के जिले रायगढ़, सरगुजा, जशपुर, बिलासपुर की लड़कियों को दिल्ली ले जाया जा रहा है। वहीं रायपुर, बालोद, दुर्ग की लड़कियों को मुंबई और महाराष्ट्र के दूसरे इलाकों में सप्लाई किया जा रहा है यानि मानव देह के तस्कर बेखौफ लड़कियों को बेचकर अपनी तिजोरियां भरने में लगे हुए हैं।
ये कोढ़ में खाज जैसा ही है कि किसी तरह घर लौट आईं राजेश्वरी, फुटुन, सिंगाय जैसी लड़कियों की दुखद दास्तान राज्य सरकार के कानों तक नहीं पहुंच पा रही है। जबकि खुद राजेश्वरी और फुटुन बार-बार यही गुहार लगा रही हैं कि उनकी तरह दूसरी बंधक लड़कियां भी उस नर्क से निकलकर घर आने के लिए तड़प रही हैं। अब असहाय, गरीब और मजबूर लड़कियों की पुकार से कब नीति निर्धारकों का कलेजा पसीजेगा, इसका इंतजार को व़क्त को भी है। किंतु इतना जरूर है कि यदि समय रहते प्रदेश को मानव देह की मंडी में तब्दील कर चुके दलालों पर शिकंजा नहीं कसा तो स्थिति विस्फोटक हो जाएगी। कभी स्त्री-पुरुष संतुलित अनुपात पर गर्व करने वाला राज्य हर रोज बिक रही बेटियों के मामले में किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं बचेगा।
बालाजी मंदिर के दर्शन के बहाने बेचा
नाम-राजेश्वरी पिता गोपाल सलाम। उम्र 29 वर्ष। पता- गांव जनकपुर, तालुका-भानुप्रतापपुर, जिला कांकेर।
आप जब राजधानी रायपुर से बढ़ते हुए बस्तर में प्रवेश करते हैं तो सबसे पहले आपके पड़ाव में आता है कांकेर जिला। इसी जिले में एक गांव है जनकपुर। जनकपुर आप अपनी रिस्क पर ही जा सकते हैं क्योंकि माओवादी गतिविधियों के लिए कुख्यात इस गांव में जाने के लिए आपको कच्ची पगडंडियों का सहारा लेना होगा। कांकेर के अत्यंत पिछड़े इस गांव जनकपुर में रहती है राजेश्वरी सलाम। हमें राजेश्वरी से मिलना था, क्योंकि यही वो लड़की है, जिसकी मदद से पुलिस ने तमिलनाडु के नामाक्कल में बंधक 60 गौंड आदिवासी लड़कियों को मुक्त कराया था। राजेश्वरी से संपर्क करना बहुत मुश्किल था, क्योंकि उसके गांव में इक्का-दुक्का लोगों के पास ही मोबाइल फोन हैं। किसी तरह उससे संपर्क हो पाया तो उसने हमें जनकपुर आने से मना किया और संदेश भेजा कि वही हमसे मिलने कोंडागांव (बस्तर का एक अन्य जिला) आएगी। कोंडागांव में हुई मुलाकात में राजेश्वरी ने जो किस्सा सुनाया, वो रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है। साथ ही वो एक जीता जागता दस्तावेज भी है, जो बताता है कि गरीबी और पिछ़ड़ेपन की मार झेल रहा बस्तर किस तरह से मानव तस्करी की सबसे बड़ी मंडी बन बैठा है।
राजेश्वरी के माता-पिता बचपन में ही गुजर गए थे। उसका एक बड़ा भाई भी है, लेकिन शराब की लत के कारण उसका होना ना होना बराबर है। यही कारण है कि राजेश्वरी की भाभी भी उसके भाई को छोड़कर चली गई। अपनी भाभी को मनाने के लिए उनके घर यानि नारायणपुर जिले के एक नक्सल प्रभावित गांव बड़े जम्हरी जाते वक्त राजेश्वरी ने यह नहीं सोचा था कि उसकी ये यात्रा उसके जीवन का काला अध्याय बन जाएगी। राजेश्वरी तो केवल कुछ दिन के लिए अपनी भाभी के घर पहुंची थी। ऐसे ही एक दिन गांव की कुछ लड़कियों के साथ खड़े तीजूराम कोर्राम (दलाल) ने उससे कहा कि वो सभी लड़कियों को तिरुपति बालाजी मंदिर दर्शन करवाने के लिए ले जा रहा है। अगर वो चलना चाहे तो साथ चल सकती है। गांव की लड़कियों ने भी जोर डाला तो राजेश्वरी को लगा कि अच्छा मौका है, गांव की लड़कियों के साथ वो भी घूम आएगी। एक निश्चित दिन यानि 4 अगस्त 2013 को गांव की 12 लड़कियां तीजूराम कोर्राम के साथ बड़े जम्हरी (नारायणपुर) से निकले। पहले वे कोर्राम के नयानार स्थित घर गए। एक रात वहीं बिताई। इसके बाद नारायणपुर और कोंडागांव जिलों के बीच स्थित बेनूर गांव में पहले से उनका इंतजार कर रही वेन से पहले जगदलपुर पहुंचे। फिर वहां से बस में सवार होकर विजयवाड़ा होते हुए तमिलनाडु के सेलम और फिर नामाक्कल पहुंच गए। एक बोलेरो में भरकर सभी लड़कियों को एक स्थानीय फैक्ट्री द जेम्स एग्रो एक्सपोर्ट्स लाया गया और बंधक बना लिया गया। राजेश्वरी बताती है कि, जब मैने पूछा कि मंदिर घुमाने लाए थे, यहां कंपनी में कहां ले आए हो, तो उसे जबाव दिया गया कि पैसा खत्म हो गया है, अब यहां काम करना पड़ेगा। बस वहीं से राजेश्वरी को दुनिया अंधेरे में डूब गई। राजेश्वरी बताती है कि वहां करीबन 100 लड़कियां थी। उन्हें एक ही कमरे में सोना पड़ता था। एक ही गुसलखाना था, जिसे बारी-बारी से इस्तेमाल करना होता था। ऐसे में एक दिन राजेश्वरी के लिए राहत का पैगाम लेकर आया। उसे बेचने वाला दलाल तीजूराम कोर्राम लड़कियों के दूसरे दल को छोड़ने पहुंचा। राजेश्वरी ने उससे जिद की कि उसे घर वापस जाना है क्योंकि उसके शरीर में एलर्जी हो गई है। काफी मान मनौव्वल के बाद इस शर्त पर तीजूराम उसे बस्तर लाने को तैयार हुआ कि वो उसे कम से कम दस लड़कियां बहला-फुसलाकर देगी। बदले में उसे भी प्रति लड़की पांच सौ रुपए मिलेंगे। ये संयोग ही था कि जब राजेश्वरी को वापस लाया जा रहा था, तब उसके चंद रोज पहले ही फैक्ट्री की सफाई करते वक्त उसे वहां के एक अधिकारी के विजिटिंग कार्ड पड़ा मिला, जिसे उसने सहेज कर रख लिया था। राजेश्वरी जैसे तैसे वापस आई। कुछ समय बाद उसकी मुलाकात महिला और बाल विकास विभाग की पर्यवेक्षक जगमति कश्यप से हुई। राजेश्वरी ने जगमति को पूरा किस्सा सुनाया। फिर क्या था, जगमति ने कुछ समाजसेवियों से संपर्क किया। इसके बाद नंबवर 2013 में पुलिस ने उस विजिटिंग कार्ड की मदद से नामाक्कल में चल रही द जेम्स एग्रो एक्सपोर्ट्स 60 आदिवासी लड़कियों को छुड़वाया। इसके ठीक पहले भी नारायणपुर जिला प्रशासन 24 लड़कियों को तमिलनाडु के इरोड जिला से छुडवा कर लाया था।
राजेश्वरी ने एक अहम बात ये भी बताई कि एक बिहारी युवक स्थानीय आदिवासी युवती से शादी कर नारायणपुर के ही नयानार गांव में रहने लगा है। वह युवक तस्करों के गिरोह की अहम कड़ी है। हालांकि वो अभी तक पुलिस के हाथ नहीं लगा है। लेकिन उस बिहारी युवक ने अपनी पत्नी की मदद से अपने गिरोह में कई स्थानीय दलालों को जोड़ लिया है। बेरोजगारी, गरीबी और अशिक्षा का फायदा उठाकर ये दलाल आदिवासी लड़कियों को अलग-अलग सपने दिखाकर अपने चंगुल में फंसाते हैं, फिर दक्षिण भारत में जाकर बेच देते हैं।
कुछ लड़कियों को सुलाते थे अलग
नाम सिगाय पिता बेजूराम मंडावी। उम्र 21 वर्ष। गांव बड़े जम्हरी जिला नारायणपुर।
हमारा अगला पड़ाव था नारायणपुर, जिसका नाम सुनते ही जेहन में केवल पुलिस-नक्सली मुठभेड़ के दृश्य ही उभरते हैं। माओवादियों की राजधानी कहे जाना वाला अबूझमाड़ (जो अब तक बूझ  है) भी इसी जिले में पड़ता है। नारायणपुर जाते वक्त जब आप राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर चल रहे होते हैं तो सड़क पर पड़ने वाली हर पुलिया आपको क्षतिग्रस्त मिलती है। जो आपको पिछले सुंरगी विस्फोटों की याद दिलाने के लिए काफी है। बीच-बीच में कहीं-कहीं सीआरपीएफ के कैंप और उनके रंगरूट नजर आते हैं। लेकिन दूर-दूर तक ना तो कोई ग्रामीण और ना ही कोई स्थानीय पुलिसवाला आपको दिखाई देगा। हमें बड़े जम्हरी में रहने वाली उन छह गौंड युवतियों को ढूंढना था, जिन्हें छत्तीसगढ़ पुलिस तमिलनाडु से आजाद करवाकर लाई है, ये युवतियां जो बस्तर में चल रही मानव तस्करी का जीता-जागता प्रत्यक्ष प्रमाण भी हैं। लेकिन बड़े जम्हरी जाने के लिए हमें किस तरफ मुड़ना होगा, ये बताने के लिए कई-कई किलोमीटर तक हमें कोई नज़र नहीं आया। नतीजन हम बड़े जम्हरी को पीछे छोड़ते हुए हम सात किलोमीटर आगे निकल गए। तब गौंडी जानने वाले दो आदिवासियों ने हमें बताया कि हमें वापिस पीछे जाना होगा। राष्ट्रीय राजमार्ग से पगडंड़ी से उतरते ही समझ आया कि विकास की चमक केवल ऊपरी ही है। संकरे, उबड़-खाबड़ रास्ते, धूल से सराबोर पगडंडी पर हौले-हौले अपना चारपहिया चलाते हुए बड़े जम्हरी पहुंचे। जहां हमारी पहली मुलाकात सिगाय मंडावी से हुई।
राजेश्वरी के दल में ही सिगाय मंडावी पिता बेजूराम (21 वर्ष) भी थी। 2007 में जब सिगाय ने नौवीं कक्षा पास की तो वो अपने गांव में सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की कहलाने लगी थी लेकिन सिगाय ने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उसे बेच दिया जाएगा। सिगाय बताती है कि वो नारायणपुर के शासकीय हाई स्कूल पढ़ने जाती थी, तब उसकी पहचान बिज्जू नामक युवक से हुई। बिज्जू उसके ही स्कूल में पढ़ रहा था। एक दिन बिज्जू ने उसकी मुलाकात अपने बड़े भाई तीजोराम से यह कहकर करवाई कि नौकरी दिलाने में तीजोराम उसकी मदद कर सकता है। बाद में उसी तीजोराम ने उसे तमिलनाडु ले जाकर बेच दिया। सिगाय ने तहलका को बताया कि हम लड़कियों को ककड़ी (खीरा) छांटने और उसे रसायन में भिगोने का काम करना होता था, ताकि वे खराब ना हों। लेकिन इस रासायनिक प्रक्रिया में लड़कियों की चमड़ी पर कई तरह की एलर्जी हो जाया करती थी। खुद राजेश्वरी के हाथ-पैर की चमड़ी उतरने लगी थी। लेकिन इन लड़कियों को इलाज पाने या आराम करने की इजाज़त नहीं होती थी। सिगाय कहती है कि अत्याचार की हद ये थी कि दिन-रात काम करने के बाद भी लड़कियों को महीने के अंत में कोई तनख्वाह नहीं दी जाती थी, मिलता था केवल सौ रुपए का एक नोट, जिससे महिने भर के लिए लड़कियां साबुन-तेल मंगवाती थीं। कुछ लड़कियों को शादी का झांसा भी दिया जाता था। हद तो तब हो जाती थी, जब हममें से कुछ लड़कियों को रात में अलग सोने के लिए मजबूर भी किया जाता था, जिसके कारण दो लड़कियां गर्भवती भी हो गई थीं, ये इस बात का प्रमाण है कि इन लड़कियों के साथ रात में जबरन दुष्कर्म किया जाता था। (गर्भवती लड़कियों के नाम जानबूझकर उल्लेखित नहीं किए गए हैं)
सौदा तय होने से पहले भाग कर बचाई जान
नाम-फुटुन उर्फ फूलवंत। उम्र 13 वर्ष। गांव जमनियापाठ, जिला जशपुर।
ओडिसा बॉर्डर पर स्थित जशपुर जाते वक्त आपको सलाह दी जाती है कि आपको जहरीले सांपों से बचकर रहना होगा, क्योंकि जरा सी असावधानी होने पर कोई भी सांप आपकी जान ले सकता है। दुर्लभ ग्रीन पिट वाइपर से लेकर कोबरा और रसल वाइपर तक सभी जहरीले सांप यहां पाए जाते हैं, लेकिन इन विषराजों के बीच में ही पनप रहे इंसानी सांपों से आपको कोई आगाह नहीं करेगा। कभी सांपों की दुर्लभ प्रजातियों के लिए मशहूर जशपुर अब मानव तस्करी की खबरों की लिए अखबारों में सुर्खियां पाता है। ऐसी तस्करी का शिकार फुटून भी हुई।
फुटून 8 साल पहले अगवा हुई थी। उसे दिल्ली के एक मकान में कैद किया गया था। जशपुर जिले के सन्ना थाना क्षेत्र में आने वाले जमनियापाठ गांव की रहने वाली फुटून अभी केवल 13 साल की ही है। मतलब जब वर्ष 2005 में उसे अगवा किया गया था, तब उसकी उम्र महज 5 साल सात महीने थी। जब कई महीनों ढूंढने के बाद भी फुटून नहीं मिली तो उसके परिवारवालों ने उस मरा समझ लिया। फुटून के पिता नहीं है, उसकी मां गुलाब पत्ती बताती हैं कि वो अपनी बेटी को जीवित देखकर बहुत खुश है, लेकिन उसे इस बात का भी दुख है कि पिछले कई साल उसकी बेटी ने बंधक बनकर गुजारे हैं। किसी तरह पुलिस की मदद से घर पहुंची फुटून उर्फ फूलवंत (13 वर्ष) भी तस्करों के एक गिरोह का शिकार होकर दिल्ली पहुंच गई थी। फुटून बताती है कि जिस कमरे में उसे बंधक बनाकर रखा गया था, वहां 21 और लड़कियां बंद थी। उन्हें कमरे से कभी बाहर निकलने नहीं दिया गया। लेकिन एक दिन फुटून किसी तरह जान बचाकर वहां से भाग निकली। अपने घर पहुंची फुटून बताती है कि उनमें से तीन लड़कियों को बेच दिया गया था, फुटून का सौदा भी सात लाख रुपए में तय हो गया था, लेकिन बेचने वाले उसका दस लाख रुपए मांग रहे थे। यदि सौदा तय हो जाता तो फुटून शायद फिर अपने घर कभी नहीं पहुंच पाती। लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। फुटून के हाथ मौका लगा, वो वहां से भाग निकली। नंबवर 2013 में कुछ पड़ोसियों ने उसकी मदद की और पुलिस तक पहुंचाया। फुटून की मां गुलाब तो अपनी बेटी को मृत मान चुकी थी। लेकिन अपनी बेटी को सही सलामत घर में देखकर अब उसका परिवार खुश है। लेकिन फुटून लगातार पुलिस से अन्य बंधक लड़कियों को बचाने की गुहार लगा रही है।
मनरेगा से भी ज्यादा पैसा देने का लालच
नाम यशोदा पिता गजजाराम उइक। उम्र 20 वर्ष। गांव बड़ेजम्हरी जिला नारायणपुर।
नारायणपुर से बड़े जम्हरी जाने के लिए कच्चे रास्ते पर तकरीबन दस किलोमीटर सफर करना होता है। अमूमन लोग बड़े जम्हरी जाते ही नहीं, कारण कि ये गांव नक्सलियों की आवाजाही का केंद्र है। यहां की ग्राम पंचायत अध्यक्ष श्रीमती उइके भाजपा समर्थित हैं। वे कहती हैं कि यहां मनरेगा के लिए मजदूर नहीं मिल रहे, क्योंकि ज्यादा धन की लालच में वे गांव के बाहर काम करने चले जाते हैं। ऐसा कुछ यशोदा के साथ हुआ। उसे भी तस्कर मनरेगा से ज्यादा मजदूरी देने की लालच में तमिलनाडु में बेच आए।
यशोदा उइके (20 वर्ष) पांच बहने हैं। घर की तंग हालात के चलते वो दलाल किज्जूराम के झांसे में फंस गई। यशोदा घर से निकलने के पहले ये तो जानती थी कि उसे दक्षिण भारत की कंपनियों में काम के साथ मोटी रकम भी मिलेगा। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) से भी ज्यादा। उसे लगा इससे घर की आर्थिक स्थिति सुधरेगी। लेकिन चार माह काम करने के बाद भी यशोदा को फूटी कौडी नसीब नहीं हुई। जब पुलिस यशोदा को नामाक्कल से छुडाकर लाई...तब उसका चेहरा भी झुलस चुका था। दरअसल यशोदा भी द जेम्स एग्रो एक्सपोर्ट्स में बंधक बनाई गई थी। वहां कैमिकल का डब्बा खोलते वक्त उसके हाथ से छूट गया और उसके छींटें पड़ने से यशोदा का चेहरा खराब हो गया। यशोदा बताती है कि उस घटना के दौरान वह बेहोश हो गई थी। लेकिन उसे अस्पताल तक नहीं ले जाया गया। जब वह घर पहुंची तो उसके परिजन उसे देखकर हैरान हो गए। उस पर यशोदा को ना तो कोई हर्जाना मिला ना ही चार माह की कठोर मेहनत की कमाई ही मिली। अब यशोदा अपने घर से बाहर भी नहीं निकलना चाहती।
60 लड़कियां 1 गुसलखाना
नाम सतरी पिता मानूराम पोटाई। उम्र 20 वर्ष। गांव बडे जम्हरी जिला नारायणपुर।
छह सौ लोगों की आबादी वाले गांव बड़ी जम्हरी को यूं तो नक्सल प्रभावित माना जाता है। नारायणपुर से यहां तक पहुंचने के लिए आपको कच्ची पगडंडी का सहारा लेना पड़ता है। विकास के नाम पर केवल यहां हाई स्कूल और सस्ते राशन की दुकान नज़र आती है। यहां की जिन छह आदिवासी लड़कियों को नामाक्कल में बेचा गया था। उनमें सतरी पोटाई (20वर्ष) भी शामिल थी। ये अलग बात है कि गांव में हाईस्कूल होते हुए भी सतरी ने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। बड़ी मुश्किल से बात करने को तैयार हुई सतरी ने बताया कि हमारा काम करने का कोई निर्धारित नहीं था। हमें कहीं भी जाने की इजाजत नहीं थी। जहां लड़कियों को बंधुआ मजदूर बनाया गया था, उस फैक्ट्री में एक ही गुसलखाना था। हम 60 लड़कियां थीं। जब रात को हम 8 बजे काम से छूटते तो लड़कियों को बारी-बारी से नहाते-नहाते रात का ग्यारह बज जाता था। कई बार रात में उठाकर हमसे काम करवाया जाता। उसके बाद दूसरे दिन भी नहीं सोने दिया जाता था। अक्सल हमें लगातार काम करना होता था। घर जाने की बात पर कहा जाता कि छह माह होने दो, फिर छुट्टी मिलेगी। सतरी बताती है कि वहां के साहब लोग अंग्रेजी और तमिल में बात करते थे। जब हमें गाली बकते या हम पर गुस्सा होते, तभी हमें समझ में आता था कि वे हम पर किसी बात को लेकर चिढ़ रहे हैं। लड़कियों को आपस में बात करने तक की अनुमति नहीं थी। शुक्र है भगवान का कि हम घर वापस आ पाए।
ये दास्तान केवल सिगाय मंडावी पिता बेजूराम (21 वर्ष) या सतरी पोटाई पिता मानूराम(20वर्ष) की ही नहीं है, बल्कि सुगतीन मंडावी पिता शिवलाल (20वर्ष) हो या बुधयारी वडडे पिता सैंतराम ग्राम जरिया (17वर्ष) या फिर सुकमी वडडे पिता वीरसाय ग्राम टिमनार (18वर्ष), अनीता सलाम पिता बैजूराम (20वर्ष) ग्राम नयानार, सरिता सलाम पिता सिदराय (15वर्ष) ग्राम गोगंला, संताय सलाम पिता लखमुराम (13वर्ष) ग्राम गोगंला हो..तमिलनाडु से छुड़ाई गई सभी 84 लड़कियों की कहानी किसी के भी रौंगटे खड़े करने के लिए काफी है। जो लड़कियां छूट कर आ गईं, वे खुद को खुशकिस्मत मान रही हैं, लेकिन अभी भी जगदलपुर के पास स्थित दरभा से 250 लड़कियों की तस्करी होने यानि उन्हें भी दक्षिण भारत के कारखानों में बंधुआ मजदूरी के लिए बेच दिए जाने की सूचना है। राज्य के दूसरे छोर पर स्थित जशपुर, रायगढ़, सरगुजा, बिलासपुर की भी कई लड़कियों को राज्य की पुलिस हाल ही में दिल्ली और मुंबई से बरामद करके लाई है।
पांच से पचास हजार तक का रेट
स्थानीय तौर पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता हरिसिंह सिदार की मानें तो पिछले पांच सालों में बस्तर की हजारों लड़कियों को बेच दिया गया है। उनके माता-पिता को उनकी कोई खोज-खबर नहीं है। सिदार कहते हैं कि इस पूरी कथा का दुखद पहले ये भी है कि लड़कियों को बेचने और छुडाने के इस गोरखधंधे में बेचने वाले दलाल और छुड़ाकर लाने वाले तथाकथित गैर सरकारी संगठन, दोनों ही लाखों रुपए कमा रहे हैं। पहले दलाल प्रति लड़की को बेचने पर फैक्ट्रियों से न्यूनतम पांच हजार या अधिकतम पचास हजार रुपए प्राप्त करता है। फिर बस्तर में चल रहे कुछ गैर सरकारी संगठन इन लड़कियों को पुर्नवास के लिए मिलने वाली राशि में से अपना हिस्सा निकालने में भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। दरअसल इन लड़कियों को राज्य सरकार के नियम के मुताबिक जिला प्रशासन द्वारा पुनर्वास के लिए एक से तीन लाख रुपए तक की मदद की जाती है। लेकिन पीड़ित लड़कियों के रिकार्डेड बयान में ये बात निकलकर आ रही है कि कुछ तथाकथित एनजीओ लड़कियों को मिल रही मदद से अपना हिस्सा निकालने में परहेज नहीं कर रहे हैं। सिदार बताते हैं कि वे लगातार छूट कर आई लड़कियों के संपर्क में हैं। लड़कियां उन्हें बताती हैं कि उनके क्षेत्र में काम कर रहे कुछ गैर सरकारी संगठनों (जो उन्हें छुड़ाने के अभियान में भी सक्रिय थे) के कार्यकर्ता उन्हें बता रहे हैं कि उन्हें केवल 50 हजार रुपया ही सरकारी मदद के तौर पर मिलेगा। सिदार कहते हैं कि नियम मुताबिक साधारण परिस्थिति में छूट कर आई लड़कियों को कम से कम 1 लाख रुपए बतौर सरकारी मदद मिलने की प्रावधान है। वे इसकी शिकायत स्थानीय प्रशासन से करने की बात भी करते हैं।
नारायणपुर के जिला पंचायत अध्यक्ष विसेल नाग ने तहलका को बताया कि, अभी हमें सूचना मिली है कि कई लड़कियां हैदराबाद में भी बंधक बनाई गई हैं। हम जिला कलेक्टर की मदद से ग्राम पंचायत स्तर पर सर्वे शुरु कर रहे हैं ताकि पता चल सके कि हर गांव से कितनी लड़कियां गायब हैं। दरअसल हम नक्सल प्रभावित इलाकों में रह रहे हैं, ऐसे में लोगों से सीधा जुड़ाव नहीं हो पा रहा है। इसी का फायदा दलाल उठा रहे हैं। पहले नौकरी का झांसा देकर लड़कियां बेची जा रही थीं, अब हमारे इलाकों में मनरेगा और दूसरी योजनाओं के कारण रोजगार की कमी नहीं है, लेकिन दलाल युवतियों को दूसरे लालच देकर बहला लेकर ले जा रहे हैं
बॉक्स
2008 से 2012 तक लापती लड़कियों के सरकारी आंकडे
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रायपुर-1498
बिलासपुर-985
दुर्ग-979
रायगढ़-529
बलौदाबाजार-495
जांजगीर चांपा-467
जगदलपुर-448
कोरिया-410
राजनांदगांव-405
सरगुजा-356
कोरबा-347
सूरजपुर-271
जशपुर-271
महासमुंद-266
बलरामपुर-193
धमतरी-192
कांकेर-161
बलोद-153
बेमेतरा-133
कबीरधाम-133
गरियाबंद-142
मुंगेली-113
बीजापुर-28
कोंडागांव-22
सुकमा-19

नारायणपुर-18

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

अब मिलेगा आदिवासियों को हक

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने अपनी तीसरी पारी के शुरुआती कुछ फैसलों से अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे अर्जुनसिंह की यादें ताजा कर दी हैं। रमन सिंह ने पद संभालते ही ऐलान किया कि पांच प्रमुख लघु वनोपजों की शासकीय खरीदी की जाएगी। इससे इन लघु वनोपजों के व्यापार से फल-फूल रहा भाजपा से जुड़ा व्यापारी वर्ग नाराज हो गया है। अब ये लोकसभा चुनाव के पहले आदिवासी मानस को जीतने का कोई फार्मूला है या फिर अपने ही कुछ लोगों के पर कतरने की योजना। कारण चाहे जो भी हो, इस योजना से आम आदिवासी की कुछ तकलीफें तो जरूर दूर होंगी।
अब छत्तीसगढ़ में पांच लघु वनोपजों की सरकारी खरीदी की जाएगी। इसमें इमली, चिरौंजी, कोसा-ककून, महुआ-बीज और लाख शामिल है। इससे जंगलों से इन वस्तुओं को संग्रहित करने वाले आदिवासियों को सीधा लाभ मिल पाएगा। केंद्र और राज्य सरकार, दोनों ही इस फैसले पर सहमत हैं। इसलिए केंद्र भी जल्द ही इन वनोपजों का समर्थन मूल्य भी घोषित करने की तैयारी कर रही है। दूसरी ओर राज्य सरकार लघु वनोपज संघ के मार्फत इस व्यवस्था को पुख्ता बनाने के शुरुआत कर चुकी है। हालांकि 44 प्रतिशत वनों से आच्छादित छत्तीसगढ़ में वनोपजों की शासकीय खरीदी का ऐलान तब किया जा रहा है, जब उसके पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश ने हर्रा, साल बीज समेत कई जंगलों में पैदा होने वाली कई अहम वस्तुओं को राष्ट्रीयकरण से मुक्त कर दिया है। वहीं दूसरे पड़ोसी राज्य ओडिसा ने भी हर्रा, चिरौंजी, कोसा, महुआ बीज, साल बीज और गोंद समेत 91 लघु वनोपजों की शासकीय खरीदी समाप्त कर दी है। लेकिन रमन सिंह ने अपने संकल्प पत्र में किया वादा निभाते हुए ऐलान किया है कि इमली, चिरौंजी, कोसा-ककून, महुआ-बीज और लाख की खरीदी लघु वनोपज सहकारी समितियों के माध्यम से तेन्दूपत्ते की तर्ज पर की जाएगी। राज्य में इन लघु वनोपजों का लगभग 450 करोड़ रूपए का कारोबार है।
मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं कि, “लघु वनोपज सहकारी समितियों के माध्यम से इनकी खरीदी होने पर लगभग 14 लाख वनवासी परिवारों को इनका उचित मूल्य प्राप्त होगा। सरकार पहले इनकी दर निर्धारित करेगी, फिर इनकी खरीदी की जाएगी। जिन क्षेत्रों में इन लघु वनोपजों का उत्पादन होता है, वहां के साप्ताहिक हाट-बाजारों में इनकी खरीदी की व्यवस्था की जाएगी। इसके लिए भी मैंने 19 दिसम्बर को ही मंत्रालय में अधिकारियों की बैठक में उन्हें सभी तैयारी पूर्ण करने के निर्देश दे दिए हैं
जिस तेंदूपत्ता की तर्ज पर पांच अन्य वनोपजों की खरीदी का फैसला लिया गया है। अविभाजित मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने 1988 में तेंदूपत्ता नीति में परिवर्तन करते हुए इसकी शासकीय खरीदी की घोषणा की थी। इसके बाद 1990 में पहली बार तेंदूपत्ता की शासकीय खरीदी की गई। हालांकि तेंदूपत्ता का राष्ट्रीयकरण तो 1964 में ही कर दिया गया था, लेकिन तब इसका सीधा लाभ संग्राहकों को नहीं मिल पाया था। लेकिन अर्जुनसिंह ने सीधे संग्राहकों को लाभ पहुंचाने की नीयत से इसकी नीति में बदलाव किए थे। लेकिन राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इसके पीछे की मंशा राजनीतिक लाभ लेने की तो थी ही, साथ ही भाजपा समर्थित व्यापारी वर्ग को कमजोर करने की भी थी। अब रमन सिंह तेन्दूपत्ते की तर्ज पर इमली, चिरौंजी, कोसा-ककून, महुआ-बीज और लाख की खरीदी लघु वनोपज सहकारी समितियों के माध्यम से करने जा रहे हैं। ऐसे में भाजपा से जुड़े व्यापारी वर्ग ने इसका विरोध शुरु कर दिया है। ऐसा होना लाजिमी भी है क्योंकि बस्तर के इलाके में व्यापार-व्यवसाय करने वाले व्यापारी भाजपा के समर्थक माने जाते हैं।
छत्तीसगढ़ लघुवनोपज व्यापार महासंघ के राष्ट्रीय महासचिव मुकेश धोलकिया इसे अफसरों के तानाशाही फैसले से जोड़कर देख रहे हैं। धोलकिया का कहना है कि नीति निर्धारक आला अफसर पांचों लघुवनोपजों का राष्ट्रीयकरण कर मुक्त और स्वस्थ बाजा की प्रतिस्पर्धा को नकराते हुए खरीदी का रूप बदलना चाह रहे हैं। मुकेश कहते हैं कि इससे वनवासियों का शोषण ही बढ़ेगा। वनोपजों का संग्राहर अपनी उपज को स्थानीय बाजार में ही बेचने को बाध्य होगा। नई नीति के तहत लघुवनोपज को दूसरे स्थानों पर ले जाकर बेचना अपराध हो जाएगा। मुकेश ये भी आरोप लगाते हैं कि प्रदेश में हर्रा का राष्ट्रीयकरण पहले ही कर दिया गया था। राज्य सरकार हर साल औसतन 45 से पचास हजार क्विंटल ही खरीदी कर पाती है। जबकि राज्य में हर्रे का कुल उत्पादन करीब दो लाख क्विंटल है। लेकिन हर्रा की शासकीय खरीदी होने के बाद बचा हुआ हर्रा कोई व्यापारी नहीं खरीद सकता और वह बर्बाद हो जाता है।
बस्तर चेम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज जगदलपुर के अध्यक्ष भंवर बोथरा कहते हैं कि हम ऐसे निर्णयों का पहले भी विरोध जता चुके हैं और भविष्य में भी विरोध करते रहेंगे। हम चाहते हैं कि संग्राहकों को उनकी उपज और संग्रहित वस्तुओं का उचित मूल्य मिले। लेकिन जब एकाधिकार की बात आती है तो चाहे व्यापारी हो या अन्य, वो उत्पादकों का शोषण ही करता है। बोथरा कहते हैं कि जिन वनोपजों की शासकीय खरीदी का ऐलान किया गया है। उसमें इमली भी शामिल है। जबकि इमली वनोपज की श्रेणी में नहीं आती है। भारतीय वन अधिनियम 1927 में इमली को वनोपज में उल्लेखित नहीं किया गया है। अलग-अलग राज्यों ने भी, जहां इमली प्रचुरता में पाई जाती है, इसे कहीं मसाले तो कहीं सब्जी या किराना की श्रेणी में रखा है।
प्रधान मुख्य वन संरक्षक धीरेंद्र शर्मा कहते हैं कि अच्छे कामों का भी विरोध तो होता ही है। सरकार संग्राहक को ही वनोपज का मालिक बनाना चाहती है। उसे उचित मूल्य दिलवाना चाहती है। इसलिए ये फैसला लिया गया है। 1984 के पहले तक यही होता रहा है। लेकिन 1984 के बाद इसे खुले बाजार में बेचने की अनुमति दी गई थी ताकि संग्राहक को बाजार की प्रतिस्पर्धा के चलते सही दाम मिल सके। लेकिन ऐसा हुआ ही नहीं। उल्टे आम आदिवासियों को, जो वनोपज का संग्रह करते हैं, कोई लाभ ही नहीं मिला। इसलिए राज्य सरकार ने वनोपज व्यापार विनियमन अधिनियम 1969 के तहत अब पांच वनोपज की सरकारी खरीदी करने का फैसला लिया है। इसके तहत समर्थन मूल्य तय करके हम वनोपज की खरीदी भी करेंगे। यदि संग्राहकों को खुले बाजार में यदि ज्यादा दाम मिलता तो वे वहां भी अपनी वस्तुएं बेच सकेंगे। लेकिन व्यापारी कम दामों पर उसे नहीं खरीद पाएंगे क्योंकि कम से कम तय समर्थन मूल्य तो संग्राहकों को मिलेगा ही। इसकी खरीदी के लिए राज्य सरकार समानांतर व्यवस्था करेगी ताकि व्यापारियों द्वारा तय मूल्य ना मिलने पर खुद सरकार वनोपज की खरीदी कर सके।
छत्तीसगढ़ का 44 प्रतिशत इलाका वनों से आच्छादित है। वन क्षेत्रफल और वन राजस्व के हिसाब से छत्तीसगढ़ देश का तीसरा बड़ा राज्य है। यहां की जलवायु भी जैवविविधता वाली है। यही कारण है कि यहां हर तरह के वनोत्पाद पैदा होते हैं। लकड़ी के अलावा करीब 200 लघु वन उत्पादों पर स्थानीय आदिवासियों की आजीविका निर्भर रहती है। लेकिन इनका सही दाम संग्राहक यानि जंगलों से बीनने वाले आदिवासियों को नहीं मिल पाता। यहां तक कि बस्तर के आदिवासी चिरौंजी (चारोली) जैसे मेवे को नमक के बदले व्यापारियों को बेच देते हैं। बस्तर के हाट-बाजारों में आज भी वस्तु विनिमय (वस्तु के बदले वस्तु) की प्रणाली चलती है। यही कारण है कि बाहरी व्यापारी भोले आदिवासियों को चावल और नमक देकर मंहगे वनोत्पाद खरीद लेते हैं। जिससे उन्हें उनकी मेहनत का सही प्रतिफल नहीं मिल पाता है।
उच्च पदस्थ एक अधिकारी ने नाम ना छापने की शर्त पर तहलका को बताया कि हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने आदिवासी विधानसभा सीटों पर मुंह की खाई है। बस्तर की 12 सीटों में से 8 सीटें कांग्रेस के खाते में चली गई हैं। आदिवासी मतदाताओं की नाराजगी दूर करने के लिए राज्य सरकार ने बिचौलियों को दूर कर सीधे जंगल की उपज बटोरने वाले संग्राहकों को उपकृत करने की योजना बनाई है। इसे राजनीति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। सरकार की मंशा आखिरी व्यक्ति तक लाभ पहुंचाने की है। यही कारण है कि पांच वनोपजों को सरकारी खरीदी किए जाने का फैसला लिया गया है।
हालांकी बस्तर से भाजपा के सासंद दिनेश कश्यप भी सरकार के इस निर्यण से खुश नजर नहीं आ रहे हैं। वे कहते हैं कि भाजपा की आगामी बैठक में वे इस बात को पार्टी फोरम में रखेंगे। इससे पार्टी के कार्यकर्ताओं में विद्रोह की स्थिति हो गई है।

बहरहाल छत्तीसगढ़ प्रचूर वनसंपदा का मालिक है, लेकिन उसमें रहने वाले वनवासियों को हमेशा ही गरीबी और फांके में जीवन काटना पड़ा है। अगर सरकार की नई योजना से वनवासी ही अपनी उपज का मालिक बन वाजिब हक प्राप्त करता है तो ये उसके लिए किसी वनदेवीसे मिले किसी वरदान से कम नहीं होगा। फिर चाहे इससे मुख्यमंत्री रमन सिंह या फिर उनके दल को आगामी लोकसभा में सियासी लाभ ही क्यों ना मिले। इससे कम से कम कांग्रेस को तो गुरेज नहीं होना चाहिए। आखिरकार मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों के पितामाह कहे जाने वाले अर्जुन सिंह भी तो यही दांव-पेंच खेलते रहे हैं।

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