रविवार, 26 जनवरी 2014

भारत के तमिलनाडू में प्रवासी मज़दूर: न पहचान, न सुरक्षा, बस शोषण

भारत के तमिलनाडू में प्रवासी मज़दूर: न पहचान, न सुरक्षा, बस शोषण

 रविवार, 26 जनवरी, 2014 को 08:42 IST तक के समाचार
प्रवासी मज़दूर
उड़ीसा-आंध्र प्रदेश की सीमा पर रहने वाले बालकृष्ण की जब शादी हुई तो वह अपनी बीवी के साथ एक यात्रा पर निकले. जीविका कमाने के लिए चेन्नई की लंबी यात्रा पर.
वह 350 रुपये की दिहाड़ी पर इस उम्मीद में एक कंस्ट्रक्शन साइट में कई घंटे काम करते हैं कि अपनी बीवी को एक बेहतर ज़िंदगी दे सकें.
वह गर्व से कहते हैं, "मैं नहीं चाहता उसे कोई तनाव हो."

कमज़ोर

अनुमानतः उत्तर भारत से पचास लाख मज़दूरों को पिछले कुछ साल में तमिलनाडु में काम मिला है. राज्य में गैरकुशल श्रमिकों की मांग ने बड़ी संख्या में प्रवासियों को आकृष्ट किया है लेकिन यह चलन राज्य के लिए समस्या बनता जा रहा है.
ज़्यादातर प्रवासियों को मज़दूर होटल, सेवा क्षेत्र, कपड़ा उद्योग, निर्माण कार्यों और ईंट भट्टों में काम कर रहे हैं. गैरकुशल श्रमिक ज़्यादातर मौसमी प्रवास करते हैं लेकिन अर्द्धकुशल श्रमिक कुछ लंबे समय तक रहते हैं.
अतंरराज्यीय स्थानांतरण में बड़ी समस्या प्रवासी मज़दूरों का पता लगाना, पंजीकरण और नियमन होता है.
एक ही राज्य में काफ़ी समय तक रहने के बावजूद इन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती. उनका शोषण उनकी नियुक्ति से ही शुरू हो जाता है और उनकी ज़िंदगी भर चलता रहता है.
प्रवासी मज़दूर
यूनिसेफ़ के साथ काम कर रहे बाल सुरक्षा विशेषज्ञ आर विद्यासागर कहते हैं, "विभिन्न किस्म के अतंरराज्यीय स्थानांतरण में कपड़ा उद्योग और सेवा क्षेत्र में कुछ नियमन है. निर्माण उद्योग और ईंट भट्टों में काम बेहद मुश्किल भरा है क्योंकि इनमें दलालों के मार्फ़त लोगों को लाया जाता है और वह बहुत कमज़ोर स्थिति में होते हैं."

माफ़िया

एड एट एक्शन में स्थानांतरण के प्रोजेक्ट मैनेजर, बॉस्को बताते हैं कि ये लोग तमिलनाडु कैसे पहुंचते हैं, "असंगठित क्षेत्र में प्रवासी मज़दूर सामान्यतः बेहद गरीबी में रहते हैं. एक दलाल, जिसे 'सरदार' कहा जाता है उन्हें कुछ अग्रिम पैसा देकर तमिलनाडु भेज देता है. वह अगले तीन साल उस अग्रिम पैसे को चुकाने के लिए काम करते रहते हैं. इस दौरान बदले में उन्हें बहुत कम या बिल्कुल भी पैसा नहीं मिलता."
आवास के नाम पर कामचलाऊ झुग्गियां होती हैं. एक हालिया शोध के अनुसार 95 प्रतिशत मज़दूरों के पास परिवार के एक ही कमरा होता है और 98 फ़ीसद के पास शौचालय नहीं होता.
ज़्यादातर श्रमिक ठेकेदार या दलाल के मार्फ़त आते हैं, जो इनकी गरीबी का फ़ायदा उठाते हैं.
प्रवासी मज़दूर
दलालों और ठेकेदारों की कई परतों के चलते यह स्थिति भी तस्करी या अवैध व्यापार जैसी ही है.
समाज विज्ञानी डॉ बर्नार्ड डि सामी कहते हैं, "दलालों और ठेकेदारों की कई परतों के चलते यह स्थिति भी तस्करी या अवैध व्यापार जैसे ही है. दरअसल श्रमिकों को लाने वाला 'सरदार' एक तरह का माफ़िय़ा होता है. निर्माण के लिए मज़दूरों की ज़रूरत होती है और मज़दूरों को ज़रूरत होती है पैसे की."
उनके विचारों का समर्थन करते हुए एड एट ऐक्शन के साइरिल मार्टिन कहते हैं, "अगर कोई परिवार अपने घर के लिए 'भाग' जाता है तो सरदार उसके रिश्तेदार या परिचित परिवार को तब तक बंधक बनाए रखता है, जब तक वह लौट न आए. 'रंगरूटों' के हर समूह से दलाल तीन से पांच लाख रुपये तक कमा लेता है. लेकिन गरीब मज़दूरों को यह दलाल सिर्फ़ जिंदा रहने योग्य पैसा ही देते हैं."

नीति बनाना मुश्किल

तमिलनाडु सरकार ने एक प्रवासी मज़दूर प्रकोष्ठ का गठन किया है लेकिन इसे श्रमिकों के पंजीयन में कोई सफ़लता नहीं मिली है.
सरकारी अधिकारी काम करना चाहते हैं लेकिन कई विभागों जैसे राजस्व, श्रम, गृह, शिक्षा, सामाजिक कल्याण, और स्वास्थ्य के शामिल होने की वजह से एक व्यापक नीति बनाना मुश्किल हो गया है.
रीयल एस्टेट डेवलपर्स के संगठन - क्रेडाई- ने सदस्यों के लिए सुरक्षा नियम बनाए हैं लेकिन प्रवासियों के लिए नहीं.
क्रेडाई के प्रतिनिधि ईश्वरन कहते हैं, "इस बात का ख़्याल तो खुद बिल्डर को ही रखना होगा. सबसे पहले तो इसे लिए एक सिस्टम तैयार करना होगा, जो अभी नहीं है."
तमिल अख़बारों में अक्सर ख़बरें छपती हैं जिनमें कंस्ट्रक्शन साइट में दुर्घटना में "उत्तर भारतीय मज़दूरों" का ज़िक्र होता है. स्वंयसेवी समूह इन पीड़ितों को सहायता दिलाने के लिए संघर्ष करते हैं.
प्रवासी मज़दूर
निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले एक मज़दूर अमारा करते हैं, "दो महीने पहले जब उड़ीसा का एक युवक मर गया था तो हम सब ने 200-300 रुपये जमा किए ताकि उसके परिवार को कुछ दिया जा सके. बिल्डर ने कुछ नहीं दिया."
कई कंस्ट्रक्शन साइट्स में कर्मचारियों को ज़िंदगी या मौत के बाद मिलने वाले अधिकारों की कोई जानकारी नहीं है.
शोषण से इतर ये एक सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष भी है.
विद्यासागर बताते हैं, "बाहरी होने के कारण इन्हें शक की नज़र से देखा जाता है. इनकी कोई स्पष्ट पहचान नहीं होती. जब भी कोई अपराध होता है, पूरे प्रवासी समुदाय को अपराधी करार दे दिया जाता है. संक्षेप में यह ऐसे लोग हैं जिनकी कोई पहचान नहीं है और यह अपने ही देश में शरणार्थी हैं."
एक पहचान ही है जिसे ढूंढने की कोशिश, सरकार, स्ंवयसेवी संस्था और प्रवासी सब कर रहे हैं.

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