'पूरे 72 घंटे तक चलता रहा कत्लेआम'
गुरुवार, 11 अप्रैल, 2013 को 15:30 IST तक के समाचार
मुझे आज भी याद है कि जब
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इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो वह बुधवार का दिन था और तारीख थी,
31 अक्तूबर 1984.उस दिन दिन भर पूरी दिल्ली में तनाव बना रहा. शाम क़रीब
चार-साढ़े चार बजे इसकी घोषणा हुई. इसके बाद से दंगा-फसाद शुरू हो गया.
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से शुरू होकर यह पूरी दिल्ली में
फैल गए.
उस समय मैं अंग्रेजी अखबार 'इंडियन एक्सप्रेस' का
संवाददाता था और एम्स में ही मौजूद था. वहाँ से जब बाहर निकला तो देखा कि
सिखों को खोज-खोजकर मारा जा रहा है. सिख टैक्सी ड्राइवरों को अधिक निशाना
बनाया गया.ब्लॉक नंबर 32
मैं अपने दो सहकर्मियों के साथ एक गाड़ी से वहाँ पहुंचा था. वहां मुझे किसी ने बताया कि कॉलोनी के ब्लाक नंबर 32 में कत्लेआम मचा हुआ है.यह सुनकर हम वहां पहुंचे.हमें देखते ही दंगाइयों ने हम पर पथराव शुरू कर दिया.हाथों में लाठियां, तलवारें और छुरे लिए हुए कुछ लोग मारने के लिए हमारी ओर दौड़े.यह देखकर हम वहां से भाग निकले."त्रिलोकपुरी की गलियों में मैंने जो देखा उसे आजतक भूल नहीं पाया हूं. उस कत्लेयाम को याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं."
राहुल बेदी, वरिष्ठ पत्रकार
इसके बाद हम त्रिलोकपुरी पुलिस थाने पहुंचे. वहां एक ट्रक में चार लाशें पड़ी थीं और एक सिख युवक का पेट फटा हुआ था और वह लेटा हुआ था. उसने हमसे पानी की मांग की. इसपर हमने उसे पुलिस की एक गाड़ी में डालकर अस्पताल पहुंचाया. बाद में हमें पता चला कि अस्पताल में ही उसकी मौत हो गई थी.
त्रिलोकपुरी पुलिस थाने के लोगों से जब हमने पूछा कि वहां क्या हो रहा है, तो उन्होंने कहां, ''यहां पूरी तरह शांति है.''
उसी दिन शाम सात बजें एक बार फिर हम त्रिलोकपुरी पहुंचे.वहां घुप्प अंधेरा छाया हुआ था. इस कॉलोनी की दो-तीन सौ गज लंबी और क़रीब आठ फुट चौड़ी दो गलियों का मंजर बड़ा ही भयावह था. चारो तरफ लाशें बिखरी हुई थीं. कहीं किसी का सिर पड़ा था, कहीं किसी हाथ तो कहीं किसी का पैर. वहां लोगों के बाल भी बिखरे हुए थे. दोनों गलियों में लाशों का अंबार लगा हुआ था. इन गलियों में चलना मुश्किल हो रहा था. हम उंगलियों के बल चल रहे थे. वहां पिछले 48 घंटों में 320 लोगों का कत्ल हुआ था.
वहां हजारों लोग खड़े थे और हमें देख रहे थे कि हम क्या कर रहे हैं. इतने लोगों के होने के बावजूद वहां सन्नाटा पसरा था. कोई कुछ बोल नहीं रहा था. वहां मैंने देखा कि एक लाचार लड़की अपने घर के बाहर बैठी हुई थी, उसके घर में चार-पांच लाशें पड़ी थीं. एक बच्चा भी वहां था. हमने दोनों को वहां खड़े दो पुलिसवालों के हवाले किया.
पुलिस प्रमुख का झूठ
इसके बाद हम पुलिस मुख्यालय पहुंचे, वहां हमें बताया गया कि त्रिलोकपुरी में कुछ नहीं हुआ है. वहां पूरी तरह शांति हैं. इसकी गवाही उस समय के पुलिस आयुक्त और उप राज्यपाल ने भी दी थी.लेकिन किसी ने भी यह नहीं कहा कि वहां इतनी बड़ी संख्या में लोग मारे गए हैं.दंगे के दौरान में पूरी दिल्ली में घूमा. पूरी दिल्ली से सिख टैक्सी चालक गायब थे. सिखों की दुकानें लूटी गईं. सिखों के घर लूटे गए, उनमें आग लगा दी गई.
यमुना पार के एक इलाके में मैंने देखा कि एक घर को हज़ारों लोग घेरे हुए हैं. उनका कहना था कि घर में मौजूद लोगों के पास बंदूकें हैं. मैंने उन लोगों से कहा कि हम अंदर जा रहे इसलिए गोली न चलाएं. जब मैं घर के अंदर गया तो देखा कि घर पूरी तरह लूटा जा चुका था. जब मैं घर की छत पर पहुंचा, तो देखा कि 80 साल की एक महिला वहां बैठी हुई हैं.उनके परिवार के अन्य सदस्य किसी और घर में पनाह लिए हुए थे. उन्होंने घर छोड़ने से इनकार कर दिया था.
कत्लेआम की आज़ादी
यह देखकर मैंने एक स्थानीय पुलिस वाले और सेना के एक कर्नल से कहा कि वे लोगों को तितर-बितर करने के लिए गोली चलाएं. लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें गोली चलाने का अधिकार नहीं है. इंदिरा गांधी के अंतिम संस्कार के बाद उसी कर्नल ने भीड़ पर गोली चलाई. इससे लगता है कि प्रशासन को दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने की इजाजत नहीं थी. भीड़ को इस बात की पूरी स्वतंत्रता दी गई थी कि वे जो चाहे वह कर सकते हैं. बुधवार से शनिवार तक उन्हें आजादी मिली हुई थी.मैं एक सिख हूं.आज मेरी दाढ़ी सफेद हैं.लेकिन उन दिनों मेरी दाढ़ी काली हुआ करती थी. लेकिन सिद्धांतों की वजह से उसे नहीं हटाया. मुझे लगता है कि पत्रकारों को कुछ विशेषाधिकार मिले हुए हैं. इसलिए मुझे कहीं जाने में डर नहीं लगा. हम पर पथराव हुए.लेकिन हमारी किस्मत अच्छी थी कि हम बच के निकले. हमने बहुत से लोगों को अपनी गाड़ी में बैठाकर कैंपों तक पहुंचाया. मुझे पहली बार किसी दंगे में सरकार का हाथ इतना साफ-साफ नज़र आया.
इन दंगों की जांच करने वाले सात-आठ आयोगों में मैंने गवाही भी दी. लेकिन कहीं किसी को इंसाफ नहीं मिला.
इस दौरान मुझे कुछ सकारात्मक बातें भी नजर आईं. बहुत से ग़ैर सिखों ने सिखों की मदद की. उन्हें अपने घरों में सुरक्षित रखा. कुछ इसी तरह की बातें मैंने गुजरात के दंगों में भी देखीं.
मैं समझता हूं कि 1984 के सिख विरोधी दंगे देश पर एक कलंक हैं. इसे मिटाया जाना चाहिए.
(यह लेख बीबीसी संवाददाता विनीत खरे से हुई बातचीत पर आधारित है)
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