गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

देर से मिले न्याय का कोई अर्थ नहीं

जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाइड, यानी देर से मिले न्याय का कोई अर्थ नहीं रह जाता. प्रस्तावित सिटीजन चार्टर बिल के प्रावधान भी कुछ ऐसे ही हैं. यहां सरकारी सेवा पाने के अधिकार के लिए एक आम आदमी को एक नहीं, दो नहीं, बल्कि तीन जगहों पर अपील करनी पड़ेगी. और अपीलों की हालत क्या होती है, इसका अंदाज़ा राज्य, केंद्रीय सूचना आयोग और अदालतों में लंबित अपीलों की संख्या को देखकर लगाया जा सकता है. 
आम आदमी की बात करने वाली वर्तमान केंद्र सरकार ने जिस तरी़के से नागरिक माल व सेवाओं का समयवद्ध परिदान व शिकायत निवारण अधिकार विधेयक, 2011 यानी सिटीजन चार्टर बिल के प्रावधान बनाए हैं, वे कहीं से भी आम आदमी का भला कर पाने में सक्षम साबित नहीं होने जा रहे हैं. उल्टे, यह नई व्यवस्था आम आदमी को अर्द्ध-न्यायिक प्रक्रिया में उलझाने वाली साबित होगी. एक राशन कार्ड बनवाने के लिए आज एक ग़रीब आदमी को जितनी मुश्किल होती है, उतनी ही मुश्किल इस बिल के अस्तित्व में आने के बाद भी होगी. हमारे देश में ज़िला अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक है. लेकिन आख़िर ऐसे कितने लोग हैं, जो न्याय पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच पाते हैं? फिर आरटीआई क़ानून का भी अनुभव बताता है कि सरकारी सूचना पाने के लिए एक आम आदमी को क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते. फिर भी सूचना मिल जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं होती. कुछ उसी तर्ज पर बनाया गया सिटीजन चार्टर बिल आम आदमी की मुश्किलों का समाधान कर सकेगा, ऐसा सोचना और मानना बेवकूफी ही होगी. सवाल यह उठता है कि अगर सिटीजन चार्टर बिल को उसके मूल स्वरूप में ही लागू कर दिया जाता है, तो उससे किसका फ़ायदा होगा? सरकारी सेवा का अधिकार देने वाले इस बिल की आख़िर सबसे ज़्यादा ज़रूरत किसे है? जाहिर है, उच्च वर्ग के लिए सरकारी सेवाएं पाना ज़्यादा मुश्किल नहीं होता. शिक्षित एवं शहरी मध्य वर्ग को इस बिल से ज़रूर कुछ लाभ होगा, लेकिन देश की अधिसंख्य जनता गांवों में रहती है, जहां शिक्षा और जागरूकता का अभाव है, वहां यह बिल कितना कारगर साबित होगा, इस पर शक है.
सिटीजन चार्टर बिल के बारे में कहा जा रहा है कि इसे सूचना का अधिकार क़ानून की तर्ज पर बनाया गया है. अब ज़रा देखते हैं कि आरटीआई क़ानून की आज क्या हालत है. केंद्र सरकार आरटीआई क़ानून को अपनी महत्वपूर्ण उपलब्धि मानती है, लेकिन इस क़ानून की वजह से कितने आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, इस पर सरकार ने कभी कुछ नहीं कहा. आरटीआई को लेकर देश में एक आम धारणा है कि सूचना आयोगों की लापरवाही की वजह से आज लोक सूचना अधिकारियों के मन में किसी भी प्रकार का कोई डर नहीं रहा. सूचना आयुक्त जुर्माना नहीं लगाते और अपील महीनों तक लंबित पड़ी रहती है. दिसंबर 2012 तक के एक आंकड़े के मुताबिक़, केंद्रीय सूचना आयोग में 28,000 अपीलें लंबित हैं, जबकि प्रत्येक केंद्रीय सूचना आयुक्त द्वारा हर साल 2800 मामलों की सुनवाई की जाती है. इस हिसाब से अगले दस सालों में तो लंबित अपीलों की संख्या तीन लाख तक पहुंच सकती है.
नागरिक माल व सेवाओं का समयवद्ध परिदान व शिकायत निवारण अधिकार विधेयक, 2011 के तहत सारे राज्यों को भी इसके दायरे में लाया जा रहा है, जबकि दस से ज़्यादा राज्यों में सिटीजन चार्टर एक्ट या राइट टू सर्विस एक्ट पहले से ही मौजूद है. ऐसे में केंद्रीय सिटीजन चार्टर के तहत राज्यों को भी लाना भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप के ख़िलाफ़ है. केंद्र सरकार इस बिल को केंद्रीय सेवाओं के लिए लागू करे, लेकिन इसका विस्तार राज्य तक न करे.
 -प्रकाश जावड़ेकर, राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा.
ऐसे में अपीलकर्ता के पास क्या उपाय बचता है? संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए कार्मिक मंत्री वी नारायणसामी ने कहा था कि लंबित अपीलों की संख्या इसलिए ज़्यादा बढ़ रही है, क्योंकि 2006-07 से 2009-10 के बीच आरटीआई आवेदनों की संख्या काफी थी. अकेले केंद्रीय सूचना आयोग में 28 हज़ार मामले लंबित हैं, वहीं राज्य सूचना आयोगों में लंबित मामलों की संख्या अलग है. अब इस स्थिति में एक आम आदमी क्या करेगा? क्या वह अपना काम कराने के लिए सालों तक अपीलीय प्रक्रिया में उलझा रहेगा या फिर रिश्‍वत देकर अपना काम कराएगा? ज़ाहिर है, सरकारी तंत्र उसे दूसरा विकल्प चुनने के लिए मजबूर करता है.
ऐसा ही एक मामला है सलाहुद्दीन खां का. औरंगाबाद, बिहार के सलाहुद्दीन बताते हैं कि उन्होंने ज़िला निबंधक, लखनऊ को आरटीआई के तहत जून 2012 में एक आवेदन भेजकर अपने मकान की डीड की कॉपी मांगी थी और इसके लिए वह इस क़ानून के तहत तय शुल्क भी जमा कराने को तैयार थे, लेकिन छह महीने बाद भी उन्हें मांगी गई सूचना तो क्या, किसी भी प्रकार का जवाब नहीं मिला. फिर उन्होंने जिलाधिकारी के पास प्रथम अपील और राज्य सूचना आयोग में द्वितीय अपील की, तब भी कोई सूचना नहीं मिली. अब अगर सलाहुद्दीन खां सिटीजन चार्टर बिल के आने के बाद इस क़ानून के तहत अपना काम कराना चाहेंगे, तो उन्हें वही सारी प्रक्रिया या उससे कुछ ज़्यादा प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा, जिससे वह आरटीआई क़ानून के तहत गुजर चुके हैं. इस बात की क्या गारंटी है कि सिटीजन चार्टर बिल के तहत जो लोक शिकायत निवारण आयोग बनाए जाएंगे, वे समय सीमा के भीतर अपीलों का निपटारा कर सकेंगे. सवाल यह भी है कि आरटीआई की तर्ज पर ही बनाया गया सिटीजन चार्टर बिल कितना कारगर साबित होगा?
सिटीजन चार्टर बिल के प्रावधानों के मुताबिक़, क्या-क्या हो सकता है, इसे एक उदाहरण से समझते हैं. अगर गांव के एक कम पढ़े-लिखे एवं ग़रीब आदमी को राशन कार्ड बनवाना है, तो वह ब्लॉक स्तर पर राशन कार्ड के लिए आवेदन देगा. कायदे से अधिकतम 30 दिनों के भीतर उसका राशन कार्ड बन जाना चाहिए, लेकिन सरकारी अधिकारी की लापरवाही या अनिच्छा या अन्य वजहों से उसका राशन कार्ड तीस दिनों के भीतर नहीं बन पाता है. इसके बाद वह आदमी उसी विभाग के बड़े अधिकारी के पास अपील करेगा. अगर वहां से भी उसका काम नहीं होता है, तो उसे अपने राज्य की राजधानी में स्थित राज्य लोक शिकायत निवारण आयोग में अपील करनी पड़ेगी. यहां भी न्याय न मिले, तो उसे लोकायुक्त के पास अपील करनी पड़ेगी. इसके बाद भी उसे न्याय मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है. मान लीजिए, अगर कोई मामला केंद्र सरकार के किसी विभाग से संबंधित हो, तो फिर उस आदमी को दिल्ली में स्थित केंद्रीय लोक शिकायत निवारण आयोग में अपील करनी पड़ेगी. और, अगर एक-दो सुनवाई के लिए उसे दिल्ली या अपने राज्य की राजधानी तक जाना पड़े, तो फिर क्या होगा? इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है.
एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक़, देश की क़रीब 70 फ़ीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये से कम की आय पर गुजारा करती है. एक मज़दूर, जो अपने किसी काम के लिए एक दिन ब्लॉक या ज़िला कार्यालय जाता है, तो उसे अपनी एक दिन की मज़दूरी से हाथ धोना पड़ता है. ऐसे में, समझा जा सकता है कि यह नया क़ानून आम आदमी (जो देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा है) का कितना भला कर पाएगा. इस नए बिल का फ़ायदा उस आम आदमी को कैसे मिल सकता है, जिसकी बात सरकार करती है. इस बिल के प्रावधानों को पढ़ने के बाद साफ़ हो जाता है कि इसे जल्दबाज़ी में और बिना सोचे-समझे बनाया गया है. इसे बनाने के दौरान इस बात का ख्याल बिल्कुल नहीं रखा गया है कि एक ग़रीब, एक मज़दूर, एक अशिक्षित या कुल मिलाकर कहें तो एक आम आदमी आख़िर कैसे इस नए क़ानून का लाभ उठा पाएगा.
बहरहाल, सिटीजन चार्टर बिल के बारे में यह प्रचारित किया जा रहा है कि इस बिल के क़ानून बन जाने से सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं. 2005 में आरटीआई क़ानून आने के बाद भी ऐसा ही कहा जा रहा था कि इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अब, जबकि सिटीजन चार्टर बिल की बात सरकार कर रही है, तब भी यही माना जा रहा है कि यह क़ानून आम आदमी की सारी समस्याएं दूर कर देगा, लेकिन इस क़ानून की सबसे बड़ी खामी यही है कि सरकारी अधिकारियों की जिस लेटलतीफी से आम आदमी परेशान है, उससे बचने का कोई उपाय इस बिल में नहीं किया गया है. तय समय सीमा के भीतर यदि कोई सरकारी सेवा नहीं मिल पाती है, तो एक व्यक्ति को तीन स्तरों तक अपील करनी पड़ेगी. अपील की इस प्रक्रिया में, बिल के मुताबिक़, कम से कम तीन से चार महीने लगेंगे. यह सामान्य स्थिति है, लेकिन जैसे-जैसे देश भर में अपीलों की संख्या बढ़ेगी, लोक शिकायत निवारण आयोगों में भी लंबित अपीलों की संख्या बढ़ने लगेगी. नतीजतन, जिस अपील का तीस या साठ दिनों के भीतर निपटारा होना है, उसके लिए साल-दो साल का समय लगने लगेगा. आरटीआई, जिसकी तर्ज पर सिटीजन चार्टर बिल बना है, का अनुभव तो यही बताता है. ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि सरकार इस बिल पर फिर से विचार करे, जनता से राय ले और ऐसे संशोधन करे, जिनसे यह बिल वास्तव में आम आदमी के काम आ सके. अगर ऐसा नहीं होता है, तो निश्‍चित तौर पर यह सरकार का एक ऐसा प्रयास माना जाएगा, जिसके तहत बार-बार आम आदमी को धोखा देने की कोशिश की जाती है.
इसलिए असफल हो सकता है सिटीजन चार्टर
  1. आरटीआई के तहत दो अपीलों की व्यवस्था है, जबकि सिटीजन चार्टर के तहत कोई व्यक्ति तीन बार अपील कर सकेगा. ज़ाहिर है, अपील दर अपील करने में काफी समय लगेगा. इस तरह एक आम आदमी को, जो सेवा तीस दिनों के भीतर मिल जानी चाहिए थी, वह शायद ही मिल पाए.
  2. अभी तक का आरटीआई का अनुभव यही बताता है कि आम तौर पर आवेदक को तीस दिनों के भीतर सूचना नहीं मिलती. ज़्यादातर आवेदकों के पास न तो इतना वक्त होता है और न ही इतना धन कि वे दिल्ली या राज्य की राजधानी तक आकर अपील करके सरकारी सेवा हासिल कर सकें.
  3. आरटीआई के तहत सूचना आयोग कम से कम जुर्माना लगाता है. नतीजतन, अधिकारियों में सूचना देने को लेकर किसी तरह का भय नहीं होता. क्या गारंटी है कि सिटीजन चार्टर एक्ट के तहत सेवा मुहैया न कराने वाले अधिकारियों पर जुर्माना लगाया ही जाएगा?
  4. भारत एक विशाल देश है. आरटीआई का अनुभव बताता है कि अपीलों की संख्या इतनी ज़्यादा है और उनके मुक़ाबले सूचना आयुक्तों की संख्या इतनी कम है या सूचना आयोगों की कार्यप्रणाली इतनी धीमी है कि आयोग में एक अपील की सुनवाई में सालों लग जाते हैं. सिटीजन चार्टर के तहत भी ऐसा नहीं होगा, इसकी क्या गारंटी है?
सिटीजन चार्टर में हों ये संशोधन
  1. अपीलीय प्राधिकरणों की संख्या घटनी चाहिए और ज़िला स्तर पर ही शिकायतों का निपटारा होना चाहिए.
  2. आम आदमी को न्याय पाने के लिए दिल्ली या राज्य की राजधानी तक न जाना पड़े.
  3. इसके लिए ज़िला स्तर पर एकीकृत (राज्य एवं केंद्र के लिए) शिकायत निपटारा आयोग बने.
  4. विभागीय एवं एकीकृत शिकायत निपटारा आयोग में कम से कम समय के अंदर अपील का निपटारा हो.
  5. लापरवाह अधिकारियों पर जुर्माना अवश्य लगाया जाए और वह राशि अपीलकर्ता को मिले.
सिटीजन चार्टर बिल के मुख्य प्रावधान
  • आरटीआई एक्ट की तर्ज पर  लागू  होना है.
  • 30 दिनों के भीतर सेवा न मिलने पर कोई व्यक्ति संबंधित विभाग में अपील कर सकता है.
  • संबंधित विभाग में एक अधिकारी अपील की सुनवाई 30 दिनों के भीतर करेगा.
  • यहां से भी अगर कोई व्यक्ति संतुष्ट नहीं होता है, तो वह राज्य/केंद्रीय लोक शिकायत निवारण आयोग में अपील कर सकता है. यहां साठ दिनों के भीतर निपटारा होना है.
  • फिर भी अगर कोई व्यक्ति संतुष्ट नहीं होता है, तो वह लोकपाल/लोकायुक्त के पास अपील कर सकता है.
  • इस एक्ट के तहत अधिकारियों पर जुर्माने का प्रावधान है.

कोई टिप्पणी नहीं:

 रानी फाॅल / रानी जलप्रपात यह झारखण्ड राज्य के प्रमुख मनमोहन जलप्रपात में से एक है यहाँ पर आप अपनी फैमली के साथ आ सकते है आपको यहां पर हर प्...