गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

कोयला महाघोटाला

देश के उच्चतम न्यायालय ने पिछले 17 वर्षों में एनडीए और यूपीए समेत अन्य सरकारों के कार्यकाल के दौरान हुए सभी कोयला ब्लाक आवंटनों को अवैध ठहराया है. उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए 1993 से 2010 तक आवंटित सभी 218 कोयला ब्लॉकों को ग़ैर क़ानूनी बताया है. न्यायालय ने आवंटन प्रक्रिया पर गंभीर सवाल भी उठाए हैं. हालांकि अभी इन आवंटनों को रद्द करने या न करने का फैसला आना बाकी है, लेकिन इसी के साथ बाकी है कुछ और भी सवालों के जवाब का सामने आना. मसलन, विपक्ष के तौर पर भाजपा ने क्या इस घोटाले में अपनी भूमिका ठीक से निभाई? न्यायालय इस फैसले के बाद क्या इस घोटाले के लिए ज़िम्मेदार लोगों को सजा मिलेगी? प्रधानमंत्री रहते हुए कोयला मंत्री की भूमिका निभाने वाले मनमोहन सिंह को लेकर न्यायालय का रुख क्या होगा? और, एक सबसे बड़ा सवाल, जो चौथी दुनिया पिछले चार सालों से उठा रहा है
और जिस पर वह अभी भी कायम है कि यह कोयला घोटाला महज एक लाख 86 हज़ार करोड़ रुपये का है या 26 लाख करोड़ रुपये का?
चौथी दुनिया ने अपनी पहली रिपोर्ट में ही यह कहा था कि यह घोटाला नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का पहला महाघोटाला है, जिसमें इस देश को 26 लाख करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है. इस पंक्ति को पढ़ने के बाद न तो आश्‍चर्य करने की ज़रूरत है और न अविश्‍वास. क्योंकि, चौथी दुनिया का यह दावा किसी आकलन, किसी मनगढ़ंत आंकड़े पर नहीं, बल्कि संसद की कोयले पर बनी स्थायी समिति द्वारा पेश किए गए दस्तावेजों पर आधारित है. ये दस्तावेज बताते हैं कि अवैध तरीके से कोल ब्लॉक आवंटन की वजह से सरकार को 26 लाख करोड़ रुपये के राजस्व का नुक़सान हुआ है और इसकी जानकारी तब सीएजी को भी दी गई थी. दिलचस्प बात यह कि तब इस समिति में भाजपा के सदस्य हंसराज गंगा राम अहीर भी थे और उन्होंने इसकी जानकारी सीएजी को भी दी थी. वैसे, सीएजी की एक प्रारंभिक रिपोर्ट भी लीक हुई थी, जिसके बाद मीडिया में इस घोटाले की रकम 10 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा बताई गई थी. हालांकि, बाद में सीएजी ने इस ख़बर को निराधार बताया था. बहरहाल, आइए जानते हैं इस महाघोटाले के उन विभिन्न पहलुओं को, जिन्हें चौथी दुनिया पिछले चार सालों के दौरान अपनी विभिन्न रिपोर्ट्स के जरिये सामने लाया.

वाहनवती का झूठ और सुप्रीम कोर्ट
त्कालीन अटार्नी जनरल जी ई वाहनवती ने उच्चतम न्यायालय में कहा था कि सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट किसी नेता के साथ साझा नहीं की गई, लेकिन जब सीबीआई निदेशक ने अपने हलफनामे में स्वीकार किया कि उच्चतम न्यायालय में पेश किए जाने से पहले ही रिपोर्ट क़ानून मंत्री अश्‍विनी कुमार और पीएमओ के साथ सांझा की गई थी, तब उच्चतम न्यायालय ने सरकार और सीबीआई को लेकर तल्ख बयान दिए. वाहनवती ने कहा था कि उन्होंने ड्राफ्ट रिपोर्ट तक नहीं देखी है. हालांकि यह एक सफेद झूठ था. खुद क़ानून मंत्री ने बाद में कहा कि सीबीआई डायरेक्टर के साथ मीटिंग में वाहनवती भी मौजूद थे. एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने भी यह बयान दिया था कि वाहनवती रिपोर्ट पहले ही देख चुके थे. दरअसल, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में पहले कहा था कि सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट किसी नेता के साथ साझा नहीं की गई, लेकिन सीबीआई डायरेक्टर ने अपने हलफनामे में माना कि मांगे जाने पर रिपोर्ट क़ानून मंत्री अश्‍विनी कुमार, पीएमओ और कोयला मंत्रालय के ज्वाइंट सेक्रेटरी को दिखाई गई थी. इसके बाद सरकार ने एडिशनल सॉलिसिटर जनरल रावल को सीबीआई की पैरवी से हटा दिया था. तब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने अटॉर्नी जनरल जी ई वाहनवती को पत्र लिखकर उन पर उन्हें गुमराह करने का आरोप लगाया. रावल ने कहा कि क़ानून मंत्री के साथ सीबीआई डायरेक्टर की मीटिंग के दौरान अटॉर्नी जनरल मौजूद थे और उन्होंने इसमें बदलाव भी कराए थे और सरकार मुझे बलि का बकरा बना रही है.

सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि आख़िर उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में किन प्रमुख मुद्दों को उठाया है. न्यायालय ने कहा है कि आवंटन में निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई. बहरहाल, न्यायालय के इस फैसले के बाद भी इस मामले में सीबीआई और ईडी की जांच, जो पहले से ही चल रही है, जारी रहेगी. असल में, न्यायालय का यह फैसला एडवोकेट एमएल शर्मा, एनजीओ कॉमन कॉज एवं सुदीप श्रीवास्तव की याचिका पर आया है, जिसमें कोल ब्लॉक आवंटन में नियमों के उल्लंघन की बात कहते हुए उन्हें रद्द करने की मांग की गई थी. अभी इसी याचिका पर फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने इन आवंटनों को अवैध ठहरा दिया है. न्यायालय के मुताबिक, 14 जुलाई, 1993 के बाद हुई स्क्रीनिंग कमेटी की 36 बैठकों और सरकार के विवेकाधिकार के तहत हुए आवंटन मनमाने और ग़ैर क़ानूनी तरीके से किए गए. स्क्रीनिंग कमेटी ने कभी भी एक समान और पारदर्शी तरीके से आवंटन नहीं किए. न्यायालय के मुताबिक, आवंटन में चलताऊ रवैया अपनाया गया और इस वजह से राष्ट्रीय संपत्ति का गलत वितरण हुआ.

1.86 हज़ार करोड़ नहीं, 26 लाख करोड़ रुपये का घोटाला
जी क्षेत्र में कैप्टिव ब्लॉक देने का काम 1993 से शुरू किया गया. कहने को ऐसा इसलिए किया गया कि कुछ कोयला खदानें खनन की दृष्टि से सरकार के लिए आर्थिक रूप से कठिन कार्य सिद्ध होंगी. इसलिए उन्हें निजी क्षेत्र में देने की ठान ली गई. ऐसा कहा गया कि मुना़फे की लालसा में निजी उपक्रम इन दूरदराज की और कठिन खदानों को विकसित कर लेंगे तथा देश के कोयला उत्पादन में वृद्धि हो जाएगी. 1993 से लेकर 2010 तक 208 कोल ब्लॉक आवंटित हुए, जो कि 49.07 बिलियन टन कोयला था. इनमें से 113 ब्लॉक निजी क्षेत्र में 184 निजी कंपनियों को दिए गए, जो कि 21.69 बिलियन टन कोयला था. अगर बाज़ार मूल्य पर इसका आकलन किया जाए, तो 2500 रुपये प्रति टन के हिसाब से इस कोयले का मूल्य 5,382,830.50 करोड़ रुपये बैठता है. अगर इसमें से 1250 रुपये प्रति टन काट दिया जाए, यह मानकर कि 850 रुपये उत्पादन की लागत है और 400 रुपये मुनाफ़ा, तो भी देश को लगभग 26 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा हुआ. यह आकलन हम नहीं, बल्कि खुद कोयले पर संसद की स्थायी समिति ने निकाला है. इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला और शायद दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला होने का गौरव इस कोयला घोटाला को मिला. तहक़ीक़ात के दौरान चौथी दुनिया को कुछ ऐसे दस्तावेज हाथ लगे थे,  जो चौंकाने वाले खुलासे कर रहे थे. इन दस्तावेजों से पता चला था कि इस घोटाले की जानकारी सीएजी (कैग) को पहले से ही थी.

जब चौथी दुनिया ने पहली बार यह रिपोर्ट प्रकाशित की कि यूपीए-2 की सरकार में 26 लाख करोड़ रुपये का कोयला महाघोटाला हुआ है, तब शायद किसी के लिए भी इस पर भरोसा करना मुश्किल था. उस वक्त न सीएजी रिपोर्ट आई थी और न किसी ने यह सोचा था कि इतना बड़ा घोटाला भी हो सकता है. चौथी दुनिया ने तब विपक्षी पार्टी भाजपा के नितिन गडकरी, श्याम जाजू एवं वामपंथी दलों से यह मुद्दा उठाने के लिए भी कहा, लेकिन किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया. भाजपा के तत्कालीन सांसद हंसराज गंगा राम अहीर, जो कोयले पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य थे, ज़रूर अपनी तरफ़ से कोशिश कर रहे थे कि इस घोटाले पर विपक्ष पूरे जोर-शोर से सरकार पर हमला करे, लेकिन वह भी अपनी पार्टी में अकेले पड़ गए थे. भाजपा तब इतने बड़े मुद्दे पर चुपचाप तमाशा देख रही थी. लोकतंत्र में जब इतने बड़े मुद्दे पर विपक्ष खामोश रहे, तो उसके मायने आसानी से समझे जा सकते हैं. एक सक्रिय विपक्ष वह होता है, जो अपने हाथ से कोई भी मुद्दा जाने न दे और इसके लिए उसे किसी सीएजी की रिपोर्ट का इंतजार भी नहीं होता. मजेदार बात यह कि खुद भाजपा सांसद हंसराज गंगा राम अहीर पूरे कागजात और सुबूतों से लैस थे. यदि भाजपा चाहती, तो वह 2011 से ही यूपीए को निशाने पर ले सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. ऐसा क्यों नहीं किया, संसद की स्थायी समिति के दस्तावेजों पर भरोसा करने के बजाय दो साल तक सीएजी की रिपोर्ट आने का इंतजार क्यों किया, इन सवालों का जवाब तो भाजपा ही दे सकती है.
जो पहली बार हुआ…
  • सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री तक की बात पर भरोसा नहीं किया और शपथ-पत्र देने के लिए कहा.
  • क़ानून मंत्री अश्‍विनी कुमार ने झूठ बोला. उन पर सीबीआई रिपोर्ट बदलवाने के आरोप लगे और अंत में मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा.
  • सीबीआई ने स्वीकार किया कि सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट पेश करने से पहले उसे क़ानून मंत्री और पीएमओ ने देखा और उसमें बदलाव भी कराए.
  • सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता बताया और कहा, तोते को आज़ाद करना ज़रूरी है.
  • सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल जी ई वाहनवती के कामकाज पर सवाल उठाते हुए गहरी नाराज़गी जताई.
  • सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई से पूरी जांच अपनी निगरानी में कराई.
कोयला महाघोटाला अपने आप में अद्वितीय और अभूतपूर्व है, क्योंकि इस घोटाले में ऐसा बहुत कुछ पहली बार हुआ, जो इससे पहले कभी नहीं हुआ था. मसलन, उच्चतम न्यायालय ने प्रधानमंत्री तक की बात पर भरोसा नहीं किया और शपथ-पत्र देने को कहा. क़ानून मंत्री अश्‍विनी कुमार ने झूठ बोला और कहा कि उन्होंने सीबीआई की रिपोर्ट नहीं देखी और न उसमें बदलाव करने के लिए कहा, जबकि सीबीआई ने स्वीकार किया कि उच्चतम न्यायालय में रिपोर्ट पेश करने से पहले ही क़ानून मंत्री और पीएमओ ने उसे देखा और बदलाव भी कराए. कुमार पर सीबीआई रिपोर्ट बदलवाने के आरोप लगे थे और अंत में इस वजह से उन्हें मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था. उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता बताया और कहा, तोते को आज़ाद करना ज़रूरी है. उच्चतम न्यायालय ने अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती के कामकाज पर सवाल उठाते हुए गहरी नाराज़गी जताई और सीबीआई ने पूरी जांच अपनी निगरानी में कराई.
इस पूरे मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद एक सबसे बड़ा सवाल उठता है कि क्या अब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस अवैध आवंटन की ज़िम्मेदारी लेंगे? यह कहा जाता था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार व्यक्ति हैं. पहले देश की जनता इस तथ्य को स्वीकारती भी थी, लेकिन 2-जी और कोल ब्लॉक आवंटन जैसे घोटाले सामने आने के बाद देश की जनता ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि उस ईमानदारी का क्या मतलब है, जिसकी वजह से लाखों करोड़ रुपये का घोटाला हो जाए. कोयला महाघोटाला में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भी सामने आया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पर यह आरोप था कि जब कोयला मंत्रालय की कमान उनके हाथों में थी, तब भी कोल ब्लॉक आवंटित किए गए. सवाल है कि क्या कोयला मंत्री के नाते उनकी ज़िम्मेदारी अवैध तरीके से बांटे गए कोल ब्लॉक के लिए नहीं बनती? जब उच्चतम न्यायालय ने खुद कोल ब्लॉक आवंटन अवैध ठहरा दिए हैं, तब सवाल है कि क्या इसके लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा?
दरअसल, 2006 से 2009 के बीच तत्कालीन कोयला मंत्री शिबू सोरेन जेल में थे. उस दौरान इस मंत्रालय की ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास थी. उन दिनों कोल ब्लॉक आवंटन का काम पीएमओ की ओर से गठित एक स्क्रीनिंग कमेटी देख रही थी. उस कमेटी की निगरानी तत्कालीन कोल सेक्रेटरी एच सी गुप्ता कर रहे थे. स्क्रीनिंग कमेटी नियमों की अनदेखी करते हुए कोयला खदानों का आवंटन कर रही थी. श्री गुप्ता पीएमओ को बार-बार पत्र लिखकर बता रहे थे कि आवंटन के लिए नीलामी प्रणाली अपनानी चाहिए, लेकिन पीएमओ ने उनकी बात नहीं मानी. सवाल है कि आख़िर क्या वजह थी कि कोल ब्लॉक आवंटन के लिए नीलामी कराने के कोयला सचिव के सुझाव को प्रधानमंत्री कार्यालय ने क्यों नज़रअंदाज़ किया? जाहिर है, जांच इस बात की भी होनी चाहिए कि पीएमओ में बैठे किस व्यक्ति या अधिकारी ने कोयला सचिव की राय खारिज की और किसके कहने पर ऐसा किया? क्या तत्कालीन प्रधानमंत्री देश को यह बताएंगे कि उनकी सरकार ने किस नियम के तहत कोल ब्लॉक आवंटन नीलामी के जरिये न कराकर पहले आओ-पहले पाओ की नीति पर किया?

सीएजी, मधु कोड़ा और प्रधानमंत्री
अगस्त 2012 में कोयला घोटाले पर संसद में अपनी रिपोर्ट पेश होने के ठीक एक साल बाद सीएजी ने एक और रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें झारखंड सरकार द्वारा कोल ब्लॉक आवंटन में बरती गई अनियमितताओं पर फोकस किया गया था. संसद में रिपोर्ट पेश होने के बावजूद उसका एक अहम पहलू अब तक छिपा रह गया था. उक्त रिपोर्ट में झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और केंद्र सरकार, दोनों पर राज्य के 6 कोल ब्लॉकों के आवंटन में गड़बड़ी करने का आरोप लगाया गया था. रिपोर्ट के मुताबिक, कोल ब्लॉक आवंटन के लिए बनाई गई स्क्रीनिंग कमेटी के सुझाव पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिए गए थे.
साल 2007 में कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास था. सीएजी की इस रिपोर्ट में साफ़ हुआ है कि प्रधानमंत्री ने न स़िर्फ कोड़ा की सिफारिश वाली कई कंपनियों को कोल ब्लॉक आवंटित करने के ़फैसले को ओके किया, बल्कि अंतिम सूची में कुछ कंपनियों के नाम खुद भी शामिल किए. ये सभी वे कंपनियां थीं, जिनके नाम स्क्रीनिंग कमेटी ने नहीं सुझाए थे. इस पूरी प्रक्रिया में स्क्रीनिंग कमेटी काफी अहम थी, जिसका काम कंपनियों की योग्यता परखना था. स्क्रीनिंग कमेटी ने 210 आवेदनों में से मात्र 10 ही स्वीकृत किए थे, लेकिन कोल ब्लॉक आवंटन की प्रक्रिया में इस कमेटी का कोई औचित्य नहीं रह गया.
झारखंड रेवेन्यू सेक्टर पर सीएजी की रिपोर्ट नंबर एक कहती है कि जब स्क्रीनिंग कमेटी की सिफारिशें जून 2007 में मुख्यमंत्री के पास मंजूरी के लिए भेजी गईं, तो उन्होंने इसके नामों में फेरबदल किए और केंद्र से उनकी सिफारिश कर दी. ऐसा क्यों किया गया, इसकी वजह नहीं बताई गई. सीएजी ने इस बारे में झारखंड सरकार से सितंबर 2012 में जवाब मांगा, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. टाटा स्टील लिमिटेड, जेएएस इंफ्रास्ट्रक्चर, एस्सार पावर लिमिटेड, आर्सेलर-मित्तल इंडिया लिमिटेड, डीवीके पावर्स और गगन स्पॉन्ज आयरन प्राइवेट लिमिटेड को भी कोल ब्लॉक आवंटित किए गए, जबकि इनके नाम शुरुआती सिफारिशों में नहीं थे. सीएजी की यह रिपोर्ट जुलाई 2013 में संसद में पेश की गई थी, उस वक्त झारखंड में राष्ट्रपति शासन था.
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