बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

Rahul verma madhan garh

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क्या विदेशी कंपनियों के आने से पूंजी आती है राजीव दीक्षित



भारत में जो ५०००+ विदेशी कंपनियां कार्यरत है इनमें से कुछ विदेशी कंपनियां ऐसी है जो सीधे अपनी शाखा स्थापित कर व्यापार कर रही है एवं कुछ कंपनियां ऐसी है जो भारत की कंपनियों के साथ समझौते करती हैं | कुछ कंपनियां तकनीकी रूप से तो कुछ वित्तीय रूप से समझौता करती है | इन कंपनियों को हमारे देश में बुलाया गया, नियमानुसार निमंत्रण दिया गया, हमारी सरकारों ने लाल-कालीन बिछाया एवं कुछ इस प्रकार स्वागत किया है जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का कुछ नवाबों आदि ने किया था | सन १९१५ से हमारे देश में एक नीति चल रही है जिसका एक नाम है उदारीकरण, दूसरा नाम है वैश्वीकरण एवं एक और नाम है निजीकरण (ग्लोबलाइज़ेशन, लिब्रलाइजेशन एवं प्राइवेटाइजेशन) इन शब्दों का उपयोग समाचार चैनलों द्वारा आपने : 'सरकार की वैश्वीकरण', 'निजीकरण-उदारीकरण की नीति के अनुसार' ये समझोते किये गए, के रूप में सुना होगा |

सरकार से जब यह कहा जाता है की आप इन विदेशी कंपनियों को क्यूँ बुला रहे है जबकि आप जानते है की हमारा इतिहास इस बात का साक्षी है की मात्र एक विदेशी कंपनी के भारत में आने से भारत २००-२५० वर्ष परतंत्र रहा है | क्या ५०००+ विदेशी कंपनियों को भारत में बुलावा देना भारत की स्वतंत्रता को गिरवी रख देने जैसा नहीं होगा ? क्या हमारे देश की आज़ादी के साथ कोई समझौता तो नहीं किया जा रहा है ? क्या भारत की स्वतंत्रता संकट में तो नहीं आ रही है | हम भारतवासी अपना विकास स्वयं कर सकते है,

# क्या हमारे पास पूंजी की बहुत कमी है ?
# क्या हमारे पास तकनीकी नहीं है?
# क्या हमारे पास श्रम शक्ति नहीं है ?

हमे विदेशी कंपनियों की कोई आवश्यकता नहीं है | ऐसे कई तर्क जब सरकार से किये जाते है तो सरकार की ओर से चार उत्तर (तर्क) दिए जाते है |

१. इनके आने से पूंजी आती है
२. भारत का निर्यात (एक्सपोर्ट) बढ़ता है
३. लोगों को आजीविका मिलती है , गरीबी कम होती है
४ . तकनीकी आती है

चौथा तर्क सरकार सबसे अधिक बल से हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है, इन चार तर्कों के आधार पर हमारी सरकार विदेशी कंपनियों को बुलाती है | आपको इस बात की जानकारी अवश्य होगी की विदेशी कंपनियों को बुलाने में भारत की सरकार जो केन्द्र में कार्य करती है वह तो लगी ही हुई है राज्य सरकारे भी विदेशी कंपनियों को बुलाती है | भारत के कुछ उत्तर पूर्व के राज्यों को छोड़ कर भारत के लगभग सभी राज्य सरकारे विदेशी कंपनियों को बुलाती है | सरकार के उपरोक्त तर्कों को आधार बना, सत्य खोजने का प्रयास किया इस हेतु के लिए सरकारी प्रलेखों का ही उपयोग किया विगत कुछ वर्षों के सरकारी प्रलेखों (दस्तावेजो) का जब अध्ययन किया, समझा, पढ़ा तो पाया यह प्रलेख कुछ और कहानी कह रहे है एवं सरकार के दस्तावेज उसकी ही पोल खोल रहे है

भारत में विदेशी कंपनियों द्वारा की जा रही लूट विदेश व्यापार मंत्रालय, उद्योग मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय एवं वित्त मंत्रालय के कुछ आंकड़े देखें जाए तो विदेशी कंपनी भारत में पूंजी ले कर नहीं आती अपितु ले कर जाती है, आप एक छोटी बात सोच कर देंखें की कोई कंपनी अपनी पूंजी भारत में क्योँ लाएगी ?


जब अमेरिका में पूंजी की अत्यधिक कमी है यूरोप में पूंजी की अत्यधिक कमी है एवं इसी कारण अमेरिका यूरोप के बड़े बड़े कारखाने बंद हो गए, कंपनियां बंद हो रही है, लेहमन ब्रदर्स, स्टैंडर्ड चार्टर्ड आदि ५६ बैंक पूंजी के आभाव में बंद हो गए | कारण यह है की पिछले ४० वर्षों में बैंको ने लोगों को अत्यधिक ऋण दिया एवं लोगों के पास बैंक का पैसा देने का सामर्थ्य नहीं रहा तो बैंको की पूंजी पूर्ण रूप से डूब गई, जब पूंजी डूब गई तो बैंक भी डूब गए बैंको में कंपनियों का पैसा रखा हुआ था जिसके कारण कंपनियां डूब गई | तो जिस अमेरिका में पूंजी की इतनी कमी हो वहाँ से कोई कंपनी पूंजी ले भारत में क्योँ आयेगी ? यदि विदेश की कोई कंपनी भारत में आयेगी तो जान लीजिए वह अपनी पूंजी ले कर नहीं आएंगे यहाँ से पूंजी विदेश ले जाने हेतु आयेंगे क्यूंकि इसी लिए वह बनाए गए है इसी हेतु से उनकी रचना की गई है |

५००० विदेशी कंपनियों का अध्यन के उपरांत यह बात समझ में आती है कि यदि मान लिया जाए की अमेरिका की एक कंपनी भारत में ५० रु का निवेश करती है, ठीक एक वर्ष उपरांत जब उस कंपनी की बैलेंसशीट देखते है तो पता चलता है की उसने प्रत्येक ५० रु. पर १५० रु. भारत से कमा कर अमेरिका को भेज दिया, ०१ डॉलर ले कर आये एवं ०३ डॉलर ले कर चले गए | १९५१-५२, १९५२-५३, १९५३-५४ ... आदि रिज़र्व बैंक के आंकड़े, एकत्रित कर यह जानने का प्रयास किया कि कितनी पूंजी आती- जाती है कभी २० सहस्त्र (हज़ार) करोड़ की पूंजी आई तो उसी वर्ष ६० सहस्त्र (हज़ार) करोड़ की पूंजी यहाँ से चली गई निवेश के अनुपात में परोक्ष रूप से की जाने वाली लूट भी बढ़ती चली गई २५ सहस्त्र करोड़ आये तो ७५ सहस्त्र करोड़... ३० सहस्त्र करोड़ आये तो ९० सहस्त्र करोड़ यहाँ से चले गए | अर्थात अधिक पूंजी हमारे देश में आती नहीं है अपितु अधिक पूंजी तो हमारे देश से चली जाती है |

पहले एक वर्ष के आंकड़े निकाले उसके पश्चात १५-१६ वर्ष के  आंकड़े निकाले तो पता चला कि १ डॉलर यहाँ आ रहा है तो ३-४ डॉलर यहाँ से जा रहा है, कभी कभी तो प्रति वर्ष ५ डॉलर तक जा रहा है | अब इसमें एक और महत्वपूर्ण बात है कि वह अपनी पूंजी लगाते है, एक वर्ष में उसका तीन गुना अर्जित कर लेते है एवं उसके पश्चात कई-कई वर्षों तक जैसे १० वर्ष, १५ वर्ष, २० वर्ष... तक बिना किसी पूंजी निवेश के वे यहाँ से करोड़ो डॉलर लूटते रहते है | सरल रूप से समझे तो ५० रु लगा के उन्होंने व्यापार प्रारंभ किया एवं पहले वर्ष ही १५० रु. अर्जित कर लिए तो तीन गुना तो वे ले ही गए अब दूसरे वर्ष में २०० रु., तीसरे वर्ष में ३०० रु. इसी क्रम में प्रति वर्ष जो पूंजी जायेगी एक वर्ष उपरांत वह यहाँ से पूंजी की लूट है ना की पूंजी का भारत में प्रवेश यह बहुत महत्व की एवं समझने की बात है |
एक और महत्वपूर्ण जानकारी यह है की जब भी कोई विदेशी कंपनी भारत में पूंजी लाती है तो, आपको जान आश्चर्य होगा की वह अपने साथ बहुत थोड़ी सी पूंजी ले कर आती है ... बहुत थोड़ी एवं बाकी सारी पूंजी वे व्यापार के लिए भारत से ही एकत्रित करते है | हमारे देश में जो बड़ी बड़ी विदेशी कंपनियों की चर्चा की जाती है उसमें सबसे बढ़ी कंपनी है " हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड " आपको नाम से भ्रम होगा किंतु इसका वास्तविक नाम यूनिलीवर है | यह ब्रिटेन एवं हॉलेंड के संयुक्त उपक्रम की कंपनी है | यह जब सबसे पहले सन १९३३ में भारत में व्यापार करने आई तो इस कंपनी ने मात्र १५ लाख रु. का पूंजी निवेश किया जिसे शुरुआती चुक्ता पूंजी (इनिशिअल पेडअप कैपिटल) कहते है | यही पूंजी महत्व की होती है क्यूंकि इसके निवेश उपरांत जो लाभ होता है, उसी लाभांश का प्रयोग पुनः पूंजी के निवेश में वे लोग करते है | अब यह लाभ तो यहाँ उत्पन्न हुआ है यह तो स्वदेश से आया है | व्यापार के ६-८ माह उपरांत इन्होंने थोड़ा और निवेश किया कूल पहले वर्ष इन्होंने ३३ लाख रूपये का निवेश किया |

अब यह " हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड " भारत से जो लाभ अर्जित कर रही है एक वर्ष में वह १४ सहस्त्र (हज़ार) ७ सौ ४० करोड़ रु. आधिकारिक है जो वह अपनी बैलेंसशीट में दिखाते है जिसमें से २१७ करोड़ तो शुद्ध रूप से विदेश ले जाते है | मात्र थोड़ी सी पूंजी लगा कर विगत वर्षों में यह सहस्त्रों (हजारों) करोड़ ले गए | ऐसे ही एक और कंपनी है अमेरिका की " कोलगेट पॉमोलिव " मात्र १३ लाख रु. लगा कर प्रति वर्ष २१३ करोड़ रु विदेश ले जा रही है | नोवार्टिस, फिलिप्स, गुड ईयर, ग्लेक्सो, फाईज़र, एबोर्ट इंडिया लिमिटेड ... ऐसी न जाने कितनी कंपनियां है जिन्होंने बहुत थोड़ी पूंजी लगा कर कई-कई करोड़ भारत से लूट लिया एवं “ प्रति वर्ष ” लूट रहे है ...

उदाहरण से समझिए ब्रिटिश कंपनी ग्लेक्सो की शुरुआती चुक्ता पूंजी मात्र ८ करोड़ ४० लाख रु (लगभग) है जिसे लगा कर प्रति वर्ष ५३७ करोड़ ६६ लाख विदेश ले जा रही है दो वर्ष में १००० करोड़ से अधिक तीन वर्ष में १५०० करोड़ से अधिक, यह कंपनी भारत में पिछले ३० वर्षों से है | एक और बड़ी कंपनी है जो सबसे अधिक सिगरेट बेचती है भारत में आई.टी.सी. " इंडियन टोबेको कंपनी " के भ्रामक नाम से, इसका वास्तविक नाम " अमेरिकेन टोबेको कंपनी " है शुरुआती चुक्ता पूंजी मात्र ३७ करोड़ रु लगा प्रति वर्ष ३१२० करोड़ रु विदेश ले जा रही है | औसतन ५०० सिगरेट, उन्हें रखने हेतु डिबियाँ, उन्हें को रखने हेतु बड़े खोखे अदि के निर्माण में जितना कागज लगता है उसके कारण एक पेड़ कट जाता है | इस कंपनी की इस देश में प्रति वर्ष २० अरब से अधिक सिगरेट बिकती है अर्थात लगभग चौदह करोड़ पेड़ यह कंपनी प्रति वर्ष कटवा देती है |

हम भारतीय अपने स्वभाव एवं संस्कार से पेड़ लगाते है, सरकर हमे कहती है पेड़ लगाओ और इस देश की विचित्र स्थिति क्या है की आई.टी.सी चौदह करोड़ पेड़ कटती है तो वह भारत सरकार की दृष्टि में अपराध नहीं है किंतु यदि गाँव का कोई साधारण व्यक्ति जंगल में जा पेड़ काट लकड़ी ले आता है तो उसे दण्डित किया जाता है | अब तो ऐसी हास्यास्पद स्थित है की जो पेड़ आपने लगाया, मैंने लगाया अपने खेत में लगाया उसे भी आप नहीं काट सकते न्यायिक दृष्टि से अपराध माना जाता है हमारे देश में सहस्त्रों वनवासी, आदिवासी भाई बहनों पर अभियोग चल रहा है की उन्होंने अपने घर में रोटी बनाने हेतु किसी पेड़ से, जंगल से लकड़ी काटी | रोटी बनाने के लिए लकड़ी काटी तो अपराध है एवं सिगरेट निर्माण हेतु करोड़ो पेड़ कट गए तो उसे सरकार अपराध मानती ही नहीं है | स्पष्ट है की विदेशी कंपनियों के कारण भारत से पूंजी जा रही है एवं जो दुष्परिणाम हो रहे है वह अलग हैं


 हमने प्रयास किया कि भारत के पिछले ६३-६४ (63-64) वर्षों के निर्यात के आंकड़े की खोज की जाए। वह आंकड़े हमे प्राप्त भी हुए, भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों एवं भारतीय रिज़र्व बैंक के पुस्तकालय से भारत के विगत वर्षों के निर्यात के आकड़े हमे मिले।

जानकारी में यह आया की जैसे-जैसे विदेशी कंपनियां भारत में आ रही है हमारा निर्यात कम हो रहा है जब विदेशी कंपनियां नहीं थी तब हम बहुत अधिक निर्यात करते थे। किंतु जबसे विदेशी कंपनियों का आना प्रारंभ हुआ निर्यात घटता ही जा रहा है। सन १८१३-१८५० (1813-1850) के मध्य में अंग्रेजी तंत्र ने भारत के कई सर्वेक्षण करवाए जैसे आर्थिक, शिक्षा, चिकित्सा एवं सामाजिक स्थिति का सर्वेक्षण आदि

जिसमें से आर्थिक आरक्षण के आकड़े कहते है की जब भारत में अंग्रेजो की केवल एक कंपनी थी ईस्ट इंडिया उस समय संपूर्ण विश्व में हम निर्यात करते थे जिसका भाग सकल विश्व के निर्यात में ३३% (33) था। महत्वपूर्ण बात यह है की यह निर्यात ईस्ट इण्डिया कंपनी नहीं करती थी, हम स्वयं करते थे। उनका निर्यात तो बहुत मामूली सा होता था। १८४० (1840) के कुल निर्यात के आंकड़े  निकालने पर पता चलता है। यदि भारत का कुल निर्यात १०० रु (100) का होता था तो ईस्ट इंडिया कंपनी का निर्यात उसमें मात्र ३ रु ६० पैसे (3.60) का होता था। इस बात को ठीक से समझिए हम भारतीय व्यापारी एवं उद्योगपति सीधे दूसरे देशों में जाकर अपनी वस्तुएं विक्रय (बेचते) करते थे।

१०० रु (100) की तो, ईस्ट इंडिया कंपनी भारत से वस्तु क्रय (खरीद) कर विदेशों में ३.६० रु (3.60) का विक्रय करती थी। यह तब की स्थिति थी जब भारत में केवल एक विदेशी कंपनी थी। अब तो विदेशी कंपनियों की संख्या बढ़ कर ५००० (5000) हो गई तो क्या होना चाहिए ?.... निर्यात बढ़ना चाहिए ! किंतु आकड़े बता रहे है की हमारा निर्यात स्वतंत्रता के पूर्व जितना था स्वतंत्रता के पश्चात उससे भी कम होता चला गया आपको कुछ वर्षों के अनुसार बताता हूँ विश्व में १८४० (1840) से हमारा निर्यात था ...

१९३८ (1938) तक आते आते हमारा निर्यात हो गया ४.५% (4.5)

१८४० - ३.३ % | 1940 - 3.3%
१९५० - २.२ % | 1950 - 2.2%
१९५५ - १.५ % | 1955 - 1.5%
१९६० - १.२ % | 1960 - 1.2%
१९६५ - १.० % | 1965 - 1.0%
१९७० - ०.७ % | 1970 - 0.7%
१९७५ - ०.५ % | 1975 - 0.4%
१९८० - ०.१ % | 1980 - 0.1%
१९९० - ०.०५ % | 1990 - 0.04%
१९९१ - ०.०४५ % | 1991 - 0.045%
१९९२ - ०.०४२ % | 1992 - 0.042%
१९९३ - ०.०४ % | 1993 - 0.04%
१९९४ - ०.३८ % | 1994 - 0.382%

इसी क्रम में २००८-२००९ (2008-09) में हमारा निर्यात ०.५% (0.5) अर्थात आधा प्रतिशत हमारा निर्यात है विश्व में जब मात्र एक विदेशी कंपनी थी हम अंग्रेजो द्वारा पदाक्रांत (गुलाम) थे तो निर्यात था ३३% (33) लेकिन अब ५००० (5000) विदेशी कंपनियां है तो केवल ०.५% (0.5) ही है। अब स्वयं उत्तर दे निर्यात बड़ा है अथवा घटा है ? ...

स्पष्ट है निर्यात बहुत तीव्रता से घट रहा है एवं विदेशी कंपनियां भारत का निर्यात नहीं बढाती है। तो क्या बढाती है ? विदेशी कंपनियां इसका उल्टा करती है भारत में आने के बाद भारत का आयत (इम्पोर्ट) बढाती है। क्यूंकि सभी विदेशी कंपनियों को निर्यात की अपेक्षा आयात करने में अधिक रूचि होती है क्यूंकि जब वह आयात करेंगे तो लाभ उनके देश को मिलेगा।

एक उदाहरण से समझिए-- अमेरिका की एक कंपनी भारत आती है, अब वह अमेरिका की वस्तुओं को भारत में ले कर आएगी विक्रय (बेचेंगे) करेगी तो लाभ अमेरिका को ही मिलेगा। इसी कारण उनका प्रयास रहता है की अमेरिकी वस्तुओं का आयात भारत में अधिकाधिक किया जाए जिससे भारत का अधिकाधिक लाभ अमेरिका जाए। तो वह कंपनी अपना शुद्ध लाभ ले कर ही जायेगी, किंतु अमेरिका से कच्चा माल, तकनीकी आदि क्रय (खरीद) कर भारत में ला कर विक्रय (बेचेंगे) करेंगे एवं उसकी पूंजी भी अमेरिका ले जायेंगे ये उनका दूसरा लाभ है।

जैसा आपको ज्ञात हुआ की जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में थी तब भारत के कुल निर्यात में उसका भाग मात्र ३.६% (3.6) था किंतु अब जो हमारा कुल निर्यात है उसका मात्र ५.५२ % (5.52) विदेशी कंपनियां करती है जबकि उनकी संख्या ५००० (5000) से अधिक हो गई है    जैसे जैसे विदेशी कंपनियां भारत में बढ़ रही है यहाँ गरीबी बढ़ती जा रही है, इसे समझने के लिए अगर इस तर्क को मान लें कि विदेशी कंपनियों के आने से देश की पूंजी बढ़ती है तो स्वाभाविक है कि गरीबी कम हो जानी चाहिए।

जब १९४७ (1947) में भारत स्वतंत्र हुआ तब इस देश में एक विदेशी कंपनी को हमने भगाया था जिसका नाम ईस्ट इंडिया कंपनी था किंतु इसके मात्र दो वर्ष पश्चात ही १५६ (156) विदेशी कंपनियों को बुला लिया गया। जवाहर लाल नेहरु ने १९४९-५० (1949-1950) में पहली औद्योगिक नीति बनाई, उन्होंने संसद में घोषणा की, कि हमारे पास पैसे कि कमी है अंग्रेज यहाँ से सब धन लूट कर ले गए है, कोष रिक्त है अतैव भारत का विकास करना है तो विदेशी पूंजी चाहिए, ऐसा लंबा भाषण १९४८ (1948) में लोकसभा में उन्होंने दिया।

जब भारत में १५६ विदेशी कंपनियां आई तब भारत में गरीबों कि संख्या सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग ४.५ (4.5) करोड़ थी। अब हमारे देश में विदशी कम्पनीयों की संख्या बढ़ कर ५००० (5000) हो गई तो १५६ कंपनियां जितनी पूंजी लायीं थी, ५००० कंपनियां उससे अधिक ही लायेंगी तो इसका अर्थ यह है पूंजी और बढ़ जायेगी तो गरीबी कम हो जायेगी लेकिन भारत सरकार के ही आंकडें हैं कि इस समय भारत में गरीबों की संख्या ८८ (88) करोड़ है। गरीबों कि संख्या में २१ गुना वृद्धि हुई है सीधा सा अर्थ है कि भारत कि लूट में अत्यधिक वृद्धि हुई है इसी कारण गरीबी कि संख्या बढ़ी है।

इसलिए प्रति वर्ष गरीबों कि संख्या में वृद्धि होती है क्यूंकि पूंजी यहाँ से लूट कर विदेशों में चली जाती है यहाँ पूंजी विदेश से आती नहीं है यह बात आपके समझ में आये तो बहुत अच्छा है क्यूंकि हमारे देश में सरकार कि भाषा बोलने वाले कई लोग है जब हम विदेशी कंपनियों को भगाने कि बात उठाते है तो वह प्रश्न उठाते है पूंजी कहाँ से आएगी? तो आप इन आकड़ो कि सहायता से बताइये कि पूंजी हमारी जा रही है और यदि हम इन विदेशी कंपनियों को भगा देते है। इनके अधिकार (लाइसेन्स) रद्ध कर देते है तो पूंजी का बाहर जाना रुक जाएगा तो इस देश में पूंजी बढ़ना, गरीबी, बेकारी का कम होना स्वतः प्रारंभ हो जाएगा। अगले भाग में पढेंगे : क्या विदेशी कंपनियों के आने से तकनीकी आती है?

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