भूमि मुक्ति आंदोलन की ज़मीन मालकिनें!
- 17 अक्तूबर 2014
बिहार के बोधगया का भूमि मुक्ति आंदोलन भारतीय उपमहाद्वीप का पहला भूमि आंदोलन माना जाता है. इस आंदोलन में मुक्त हुई ज़मीनों के अधिकार महिलाओं ने भी प्राप्त किए.
सत्तर और अस्सी के दशक का यह आंदोलन महिला आंदोलनों के लिए एक नज़ीर बना कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी महिलाओं के आर्थिक अधिकार हासिल किए जा सकते हैं.
बोधगया का भूमि मुक्ति आंदोलन हालाँकि महिला आंदोलन की अगुवाई में नहीं, जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से पैदा हुए युवा संगठन ‘संघर्ष वाहिनी’ ने किया था.
लेकिन इस आंदोलन से ज़मीन का मालिकाना हक़ पाने वाली महिलाओं में से कई के हाथ से ज़मीनें निकल चुकी हैं.
पढ़ें संजीव चंदन की रिपोर्ट
जब मैं उस इलाक़े में गया तो एक पूर्व धारणा लेकर गया था कि जमीनें मूल मालिकों के हाथ से निकल गई हैं.
संघर्ष वाहिनी के नेता कारू हालांकि सूचित कर देते हैं कि यह आंशिक सच है, 25 प्रतिशत तक जमीनें जरूर निकल गई होंगी, लेकिन वे सब किसी न किसी मजबूरी में, बीमारी या शादी–विवाह में.
महिलाओं ने अधिकांश जमीनें बचा रखी हैं, पुरुषों के हाथ की जमीनें शराब आदि की आदतों के कारण भी निकली हैं.
कोसा बीजा पंचायत की पार्वती देवी को दो बीघा जमीन मिली थी. खेत के पास ही उन्होंने अपना छोटा सा घर बना रखा है. उनके खेत धान के पौधों से लहलहा रहे हैं. चार बेटों में से एक मकान बनाने के कारीगर हैं और बाकी खेतों में काम करते हैं.
इस इलाके में जमीन की कीमत प्रति बीघा एक करोड़ से भी अधिक हो चुकी है. पार्वती देवी कहती हैं, "जमीन इज्जत होती है, उसे मैं किसी सूरत में नहीं बिकने दूंगी.''
पार्वती देवी ने इस आन्दोलन में बढ़–चढ़कर हिस्सा लिया था.
शंकर मठ
बोधगया का शंकर मठ उस इलाके में हजारों एकड़ जमीन का जमींदार हुआ करता था. इस मठ को 150 एकड़ जमीन दी थी, शेरशाह सूरी के वंशज ने, जिसके बाद इसका मालिकाना फैलाव 30 हजार एकड़ से अधिक खेती और गैर-खेती की जमीनों तक होता गया था.
इलाके के दलित, खासकर भुइयां(मुसहर) जाति के दलित मठ की जमीनों में बंधुआ मजदूर की तरह काम करते थे. शेरघाटी, बाराचट्टी, बोधगया और मोहनपुर प्रखंड में मठ ने अपनी ‘कचहरियाँ’ बना रखीं थीं, जो इन मजदूरों पर नियंत्रण का काम करती थीं.
इसी भूमिहीन मजदूर जाति के स्त्री-पुरुष इस आंदोलन में हरावल की तरह शामिल हुए. अंतिम निर्णायक लड़ाई लड़ी गई 1978 के बाद संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में.
1981 में लगभग 1,500 एकड़ जमीन बांटी गई, अंततः 1987 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी दुबे के समय में 35 हजार बीघा जमीन भूमिहीनों में बाँट दी गई.
महिलाएँ
इस आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी थी.
आंदोलन के एक नेता उपेन्द्र सिंह कहते हैं, "हमलोग महिलाओं को आगे रखते थे. यह रणनीति थी. जब जमीन के पट्टे लिखे जाने लगे तब महिलाओं ने सवाल खड़े किए कि यह जमीन सिर्फ पुरुष भूमिहीनों को क्यों दिए जाए? उन्हें जवाब मिला कि जमीन परिवार के मुखिया को ही दी जाएगी, जो पुरुष होता है. दवाब डाले जाने पर अधिकारियों ने धमकी दी कि जमीन किसी को नहीं दी जाएगी. 1982 में शेरघाटी के प्रशासकों का महिलाओं ने घेराव किया और अपनी बात रखी.''
यद्यपि संघर्षवाहिनी के पुरुष आंदोलनकारियों ने महिलाओं के हक़ में राय दी लेकिन स्थानीय विरोध प्रबल था. तर्क दिया गया कि महिलायें खेत नहीं जोत सकती हैं.
महिलाओं ने जवाब दिया कि रोपने–काटने–ओसाने का काम महिलायें करती हैं. एक विचित्र प्रसंग 1985 में आया जब बैंक एक स्कीम के तहत बैल खरीदने के लिए ऋण दे रहे थे.
समाज के पुरुषों ने कहा कि महिलाओं के नाम से जमीन के पट्टे होने से दिक्कत आती है कि वे बाहर नहीं जा सकती हैं. महिलाओं ने व्यंग्य किया कि फिर हम खेतों में काम करने कैसे जाती थीं!
सवाल
इस आंदोलन की जुझारू नेता थीं पीपरघट्टी की मांजर देवी. भुइंया जाति की यह जुझारू महिला उनदिनों सुर्ख़ियों में रहती थीं, देश–विदेश के मीडिया में.
इन्होंने महिलाओं को जमीन का हक़ दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. आज चलने से लाचार मांजर देवी की हालत बदहाल है.
उन्हें आंदोलन से मुक्त हुई जमीन नहीं मिली थी क्योंकि वे इस आंदोलन में प्रमुख भूमिका में थी इसलिए जमीन पर दूसरों का दावा पहले होने दिया.
उन्हें दो बीघा जमीन मिली भूदान में. नेता होने के कारण आसपास के दबंगों ने उन्हें निशाना बनाया. उनके पूरे परिवार पर डकैती का केस दर्ज करवा दिया गया.
वे कहती हैं, "ऐसा आंदोलन के कमजोर होने पर हुआ. मेरी अधिकांश जमीनें केस मुकदमे में निकल गईं."
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें