महाराष्ट्र में 'किसान मर रहे हैं, सरकार सो रही है'
- 20 मार्च 2014
महाराष्ट्र में किसानों की हालत बद से बदतर हो रही है. हाल के दिनों में जो ओले पड़े हैं, उसका किसानों पर गंभीर असर पड़ा है. पहले से ही संकट के दौर से जूझ रहे राज्य के 35 में से 28 ज़िले इसकी चपेट में आए हैं.
19 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर लगी फ़सल पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है. राहत और पुनर्वास का काम देख रहे सरकारी महकमे का कहना है कि खरीफ फ़सल को थोड़ा नुक़सान हुआ है लेकिन रबी की पूरी फ़सल ही इन इलाक़ों में तबाह हो गई है. इस मौसम में 22 फ़रवरी को ग्रामीण विदर्भ के इलाक़े में पहली बार ओले पड़े थे.
नागपुर देहात से शुरू होकर मराठवाड़ा, उत्तर महाराष्ट्र और पश्चिमी महाराष्ट्र तक ओलावृष्टि हुई. पहले नागपुर में संतरों के बागों पर ओले पड़े और अब उस्मानाबाद के इलाक़ों में अंगूर की खेती को इसका नुक़सान उठाना पड़ रहा है. एक लाख हेक्टेयर में बागवानी करने वाले कई किसान इससे प्रभावित हुए हैं. इसमें अंगूर, संतरे और केले की खेती करने वाले किसान शामिल हैं.
केवल एक लाख हेक्टेयर में लगे इन्हीं फ़सलों के खेत बर्बाद हो गए. ज्वार और गेहूँ के खेत भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. 18 हज़ार घर ढह गए हैं. मराठवाड़ा, उस्मानाबाद के इन्हीं इलाक़ों में दो साल गंभीर अकाल पड़ा था और अब ये ओले पड़े हैं. बहुत सारे पालतू जानवर मर गए हैं जिनकी तादाद दो हज़ार के क़रीब हो सकती है.
प्राकृतिक आपदा
आत्महत्या की बात छोड़ दीजिए सिर्फ़ ओले पड़ने से ख़बरें हैं कि 37 लोग मारे गए हैं. हालात की गंभीरता का अंदाजा आप लगा सकते हैं. मरने वालों में 20-21 के क़रीब किसान मारे गए हैं.
रहा सवाल ओले से हुई तबाही का पहले से जारी कृषि संकट पर पड़ने वाले असर का तो इसके बीच कोई सीधा संबंध नहीं है. लेकिन इस देश में जो छोटे किसान हैं, वो वैसे भी बेहद तनाव में काम करते हैं.
क़र्ज़ बहुत बढ़ गया है, खेती की लागत बहुत बढ़ गई है. इन इलाकों में दो साल पहले अकाल पड़ा था और अब ओले पड़ गए. इसके पीछे बहुत सारे कारण हैं. क्या होगा जब एक रोज़ आप सवेरे उठते हैं और देखते हैं कि सारी फ़सल ओले से बर्बाद हो गई है तो कुछ लोग ये दबाव झेल नहीं पाए.
उस्मानाबाद में पिछले हफ़्ते तीन किसानों ने आत्महत्या कर ली है और ये तीनों किसान अंगूर उत्पादक थे. ये प्राकृतिक आपदा है लेकिन यह मानव रचित आपदा के ऊपर आ रही है. इसमें बढ़ती क़ीमतें, खेती की लागत, बीज की क़ीमत, ये सब चीजें पिछले दस बीस सालों में प्रभावित हुई हैं.
ओलावृष्टि
अभी एक प्राकृतिक आपदा हुई और कुछ लोगों पर इसका बुरी तरह से असर पड़ा जिसकी वजह से उन्होंने आत्महत्या कर ली. लेकिन महाराष्ट्र में आत्महत्याओं के ज़्यादातर मामले प्राकृतिक आपदा से जुड़े हुए नहीं हैं. यहाँ किसानों की ख़ुदकुशी के मामले सात हज़ार तक पहुँच चुके हैं. ये मौतें आर्थिक नीतियों, खेती के दबाव, फ़सल की नाकामी जैसे कारणों से हुई हैं.
ये सब कृषि संकट का हिस्सा रहे हैं और अब इनके ऊपर प्राकृतिक आपदा की दोहरी मार पड़ गई है. बहुत सारे लोग खेती से सीधे नहीं जुड़े हैं और अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों पर भी इसका असर पड़ेगा. महाराष्ट्र के अंदर प्रति व्यक्ति खाद्यान्न के उत्पादन में हर साल कमी आ रही है और अभी इस ओलावृष्टि से ज्वार और गेहूँ की फसल पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा है.
इससे खाद्यान्न की उपलब्धता और उनकी क़ीमतों पर इसका ज़रूर असर पड़ेगा. संतरा और अंगूर यहीं से दूसरी जगहों पर भेजा जाता है. उस पर भी असर पड़ेगा. कृषि संकट में आत्महत्याओं के ज़्यादातर मामले नक़दी फ़सलों के किसानों की बर्बादी की वजह से हुए हैं.
नक़दी फसलें
गंगा के मैदानी इलाक़ों में बहुत कम किसानों ने ख़ुदकुशी की है. वहाँ ज़्यादातर किसान खाद्यान्नों की खेती करते हैं, नकदी फ़सलों के किसान कम हैं. पानी की भी दिक़्क़त नहीं है. खेती की लागत कम है लेकिन केरल में, महाराष्ट्र में, कर्नाटक या आंध्रप्रदेश में, तेलंगाना में आत्महत्या करने वाले किसानों में तकरीबन 80 फीसदी किसान नक़दी फ़सलों की खेती करते हैं. गन्ना, कपास या बागानी खेती करने वाले किसान हैं.
उनके ख़र्चे ज़्यादा हैं, उन पर क़र्ज़ ज़्यादा है और वैश्विक क़ीमतों में आने वाले उतार चढ़ाव का असर उन्होंने अधिक झेला है. फ़सल जब किसान के हाथ में रहता है उस वक़्त उसकी क़ीमत बहुत गिर जाती है, लेकिन जब उनकी फ़सल बाज़ार में पहुँचती है तो क़ीमत बढ़ जाती है. हमारे अर्थशास्त्री लोग समझते हैं कि ऊँची क़ीमतें किसानों के लिए अच्छी है. लेकिन ऐसी कोई बात नहीं है.
भारत के 70 फीसदी से ज़्यादा किसान खाद्यान्न बाज़़ार से ख़रीदते हैं. उन पर भी ज़्यादा क़ीमतों का असर पड़ता है. आम लोग भी इससे प्रभावित होते हैं. अंगूर और संतरे के निर्यात के निर्यात पर असर पड़ेगा. महाराष्ट्र में खाद्यान्न की उपलब्धता पर असर पडेगा. और मेरा मानना है कि चुनाव पर भी इसका असर पड़ेगा.
रिज़र्व बैंक
22 फ़रवरी को जब पहली बार ओले पड़े तो सरकार ने 10 मार्च तक कुछ नहीं किया. इस बीच चुनावी आचार संहिता लागू हो गई. सरकार को कुछ ख़र्च करने के लिए चुनाव आयोग से इजाज़त लेनी पड़ेगी. गाँवों मे लोग सरकार से नाराज़ हैं कि आप 22 फ़रवरी से बैठे हैं और अब कह रहे हैं कि चुनाव आयोग से पूछना पड़ेगा.
राज्य सरकार केंद्र सरकार से 5,000 करोड़ रुपए मांग रही है लेकिन ये सब चुनाव आयोग पर निर्भर करेगा. सरकार 22 फ़रवरी से तीन मार्च तक बैठी रही, कुछ किया नहीं. सत्ता में चाहे एनडीए रहे या यूपीए. किसानों की आत्महत्या दोनों ही सरकारों के शासनकाल में होती रही. इसलिए कि बुनियादी नीतियों में ही ख़ामी है. आर्थिक नीतियाँ सही नहीं है.
बैंक क्रेडिट को ही ले. कृषि साख किसानों को न देकर कॉरपोरेशंस को दिए गए. महाराष्ट्र में रिज़र्व बैंक ने कृषि के लिए आवंटित पैसे का जब ऑडिट किया तो पाया कि एग्रीकल्चर क्रेडिट का 53 फ़ीसदी पैसा वित्तीय वर्ष 2010-11 में शहरी शाखाओं से दिया गया. ये रूरल क्रेडिट का पैसा नहीं है बल्कि इसे ख़ासतौर खेती के लिए दिया गया था.
कृषि नीतियाँ
इससे पता चलता है कि किसानों का पैसा किसके पास जा रहा है और ये पैसा मालाबार हिल तक के ब्रांचों से भी निकाला गया है. वित्तमंत्री पी चिदंबरम हर बजट में कहते हैं कि उन्होंने एग्रीकल्चर क्रेडिट बढ़ा दिया है. वह सही कहते हैं लेकिन ये पैसा मुंबई के पॉश इलाके मालाबार हिल और कफ परेड में बैठा 'किसान' निकाल रहा है.
इसके अलावा निर्यात नीति, आयात नीति और बीज की क़ीमतों में भी समस्या है. हमारे कृषि विश्वविद्यालयों ने पिछले 15 साल में आम किसान के लिए कुछ नहीं किया है. कोई नया और सस्ता बीज नहीं लाए हैं. कृषि को लेकर हमारी नीतियों में ही बड़ी ख़ामी है.
संसद की कृषि संबंधी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस ओर ध्यान दिलाया है. राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन की पाँच खंडों में आई रिपोर्ट पर भी संसद ने अब तक कोई बहस नहीं की. ये रिपोर्ट साल 2005 में ही उन्होंने कृषि मंत्री शरद पवार को सौंपी थी.
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