जनता की आवाज़ मुझ तक पहुंच चुकी है. स्थायी समिति में मुझे जनता के प्रतिनिधियों से मिलने के बहुत मौक़े मिले और हमने इस पर ज़ोर लगाया कि जब तक कि सभी मुख्य प्रवक्ता हमसे अपनी बात नहीं कहते, तब तक हम इस रिपोर्ट की तैयारी शुरू नहीं करेंगे. मुझे नहीं लगता कि इस मामले का अंत अभी संभव है. इसलिए हमने संसदीय मर्यादा के अनुसार किसी से कुछ नहीं कहा कि समिति के भीतर क्या हो रहा है. जब मैंने अपनी रिपोर्ट संसद में पेश की, बाद में उसे एक सार्वजनिक रूप दिया गया, उसके बाद हमने अपनी बात कही. मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि रिपोर्ट हमने संसद में पेश की, ताकि वह सरकार तक पहुंचे. यह नहीं कि वह किसी एक मंत्रालय तक पहुंचे या किसी मंत्री तक पहुंचे. रिपोर्ट उस मंत्रालय (ग्रामीण विकास मंत्रालय) के हाथ में आने के दो-चार दिनों के अंदर मैं देखने लगा कि विभिन्न जगहों पर मंत्रालय ने और खुद मंत्री ने भी अपनी टिप्पणियां देनी शुरू कर दीं. मेधा पाटकर ने मुझे एक दस्तावेज़ दिया है, जो कि मंत्री जी (ग्रामीण विकास मंत्री) ने 12 जून को तैयार किया था. उसके बाद वह सारे मीडिया के पास पहुंच गया, लेकिन माणिकराव गावित और मेरे हाथ में वह नहीं आया. जब रिपोर्ट सरकार के समक्ष पेश की जाती है तो हो सकता है कि उस पर सरकार का नज़रिया अलग हो. सरकार अपना नज़रिया तब रखती है, जब संसद में वह वापस आती है और अपना बिल पेश करती है. इस मामले में जिस तरह हमें खींचा गया और मजबूर किया गया कि हम भी अपनी कुछ बात कहें. हालांकि हमने अपनी पूरी बात कह रखी है. यह बात संसदीय मर्यादा के ख़िला़फ है और उसका खंडन करना होगा. मैं यह नहीं कहना चाहूंगा कि जयराम रमेश कुछ ठीक कह रहे हैं या नहीं कह रहे हैं. मेरा कोई लेना-देना नहीं है, किसी भी जयराम रमेश से या जयरावण रमेश से. मेरी तो सरकार से बात है और सरकार ने अब तक अपना नज़रिया पेश नहीं किया है. इसलिए मैं आपको बताना चाहता हूं कि दो-चार बुनियादी चीज़ें हैं हमारी रिपोर्ट (स्थायी समिति की) में. जयराम रमेश कुछ ठीक कह रहे हैं या नहीं कह रहे हैं. मेरा कोई लेना-देना नहीं है, किसी भी जयराम रमेश से या जयरावण रमेश से. मेरी तो सरकार से बात है और सरकार ने अब तक अपना नज़रिया पेश नहीं किया है.सार्वजनिक मक़सद यानी पब्लिक परपस की जो बातें हो रही हैं, उसमें एक बात समझना बेहद ज़रूरी है कि किसी भी पूंजीपति देश और विकसित लोकतांत्रिक देश में भूमि अधिग्रहण निजी लाभ के लिए नहीं होता है. ऐसा कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान में नहीं होता है. कोई भी देश नहीं है, सिवाय भारत के, जहां भूमि अधिग्रहण सरकार की तऱफ से किया जाता है और फिर उस भूमि को निजी संस्थानों को दे दिया जाता है. एक उदाहरण नार्दन टेरेट्रीज ऑफ ऑस्ट्रेलिया का है, जहां बहुत सारे आदिवासी रहते हैं. कोई भी निजी कंपनी वहां जाकर ज़मीन नहीं ख़रीद सकती है. ऑस्ट्रेलिया की तक़रीबन 90 प्रतिशत ज़मीन नार्दन टेरेट्रीज से जुड़ी हुई है. निजी संस्थाएं ज़मीन ख़रीदने के लिए सरकार को आवेदन देती हैं. वहां की सरकार मौक़े पर जाकर देखती है कि वहां हालात क्या हैं. इससे वहां कितना विस्थापन होगा और उसकी एवज़ में सेटेलमेंट की क्या व्यवस्था होगी, तभी वह ज़मीन निजी कंपनियों को दी जा सकती है. इसी तरह का एक और उदाहरण है जापान का नरीता एयरपोर्ट. यह शायद विश्व में सबसे बड़े एयरपोर्टों में से एक है. उसे विस्तृत करने की कोशिश की गई, लेकिन स्थानीय लोग अपनी ज़मीन बेचने को तैयार नहीं हुए. उसके बाद एयरपोर्ट अथॉरिटी ने सरकार से कहा कि आप इस ज़मीन का अधिग्रहण कीजिए. सरकार ने कहा कि हम कोई अधिग्रहण नहीं कर सकते. आप उस ज़मीन के मालिक से बात कीजिए. अगर वह अपनी ज़मीन देने को तैयार नहीं हैं तो हम इस एयरपोर्ट को विकसित नहीं कर सकते. फ्रांस और जर्मनी में जबरन भूमि अधिग्रहण तो क़तई नहीं किया सकता. जब भारतवर्ष में अंग्रेजों का साम्राज्य स्थापित हुआ, तब वर्ष 1894 में भारत के लिए एक क़ानून बनाया गया, स़िर्फ रेलवे लाइन बिछाने के लिए. आज़ादी के पहले रेलवे कंपनियों के साथ था. आज़ादी के बाद रेलवे का राष्ट्रीयकरण हुआ. उसके बाद उसमें थोड़े-बहुत कुछ संशोधन लाए गए. जैसे-जैसे देश में रेलवे लाइनों का विस्तार हुआ, वैसे-वैसे ज़मीनों की ज़रूरतें बढ़ती गईं. वर्ष 1962 में कई मामले सुप्रीम कोर्ट में जाने का कारण यह बताया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र में जो नई-नई कंपनियां बनीं थीं, उनके लिए भूमि अधिग्रहण राज्य कर सकता है. अधिग्रहण करने के बाद वह उसे पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को दे सकता है, लेकिन तब भी संसद में हंगामा मचा. भूमि अधिग्रहण औद्योगिकरण के लिए करना सही नहीं है, क्योंकि औद्योगिकरण तो निजी लाभ के लिए आगे बढ़ता है. वर्ष 1962 में भारत सरकार ने आश्वासन दिया था कि फिलहाल इसे पास कर दिया जाए, बाद में हम एक और क़ानून या मसौदा ले आएंगे. हालांकि उस मसौदे को बनाने में 22 साल लगे. तब भी कोई ठोस मसौदा नहीं बना. कुछ संशोधन बेशक हुए, लेकिन उनका मक़सद यह था कि सरकार निजी कंपनियों के लाभ के लिए भूमि अधिग्रहण करे. वर्ष 1984 से ही देश भर में बहुत बड़ा हंगामा चला आ रहा है. भट्टा पारसौल, सिंगुर और नंदीग्राम की कहानी सभी को पता है. देश में बाक़ी जगहों पर भी बहुत झगड़ा-झंझट हुआ है. इसलिए सरकार ने पुनर्स्थापना और पुनर्वास के लिए क़ानून बनाने की बात की है. उसे हम इस भूमि अधिग्रहण के साथ जोड़कर देखेंगे. यह एक बहुत नई चीज़ थी. यानी भूमि अधिग्रहण में जिसकी ज़मीन ली जाती है और जो उस ज़मीन पर आश्रित है, उसे अधिग्रहण के लिए सहमत करने की ज़रूरत होगी. इस मक़सद के साथ यह बिल बनाया गया था, लेकिन बहुत जल्दबाज़ी में. हमारी स्थायी समिति ने भी इसका खंडन किया था. सरकार ने कहा कि आम जनता अपनी टिप्पणी 31 अगस्त तक भेज सकती है. जिनके पास कंप्यूटर था, उन्होंने अपनी टिप्पणियां भेजीं, क्योंकि सब कुछ ऑनलाइन था. एक हफ्ते के अंदर इस क़ानून के मसौदे को कैबिनेट में पेश किया गया. इस पर हमने कहा कि एक हफ्ते के अंदर आपने क्या ध्यान दिया होगा, आम जनता के उपायों और राय पर. इसका हमने खंडन किया है अपनी रिपोर्ट में कि आपने वाक़ई जनता की बात नहीं सुनी. हमें कहा गया था कि महीने भर के अंदर आप स्थायी समिति का काम ख़त्म कीजिए और हमें भेज दीजिए अपनी रिपोर्ट, लेकिन हम नहीं कर पाए, क्योंकि जनता की बातें मंत्रालय ने नहीं सुनीं और लोगों की बातें हमें (स्थायी समिति के सदस्यों को) सुननी पड़ीं. इससे दो-चार चीज़ें बिल्कुल स्पष्ट हो गई हैं. सार्वजनिक मक़सद का जो मतलब है, उसे दस साल का बच्चा भी कह सकता है कि सार्वजनिक मक़सद का मतलब सार्वजनिक मक़सद ही हो सकता है. निजी मक़सद को आप उसमें कैसे जोड़ सकते हैं. अगर आप मसौदे को देखेंगे तो उसे पीछे के दरवाज़े से वापस उसी तरह भेज दिया गया है. इसका मतलब यही है कि सरकार अपने मनमाफिक़ जिसे सार्वजनिक मक़सद समझे, उसका ऐलान कर सकती है. यदि हमें ऐसा कोई मूर्ख प्रधानमंत्री मिले, जो अपनी बेटी की शादी के लिए एक बहुत बड़ा पंडाल कहीं लगाना चाहे तो उसे भी एक सार्वजनिक मक़सद कहकर उस ज़मीन का अधिग्रहण कर सकता है. यह बहुत ज़रूरी था कि हम इस पर ग़ौर करें कि सार्वजनिक मक़सद (पब्लिक परपस) का इतिहास क्या है. दूसरे देशों में इस मक़सद को कैसे पूरा किया जाता है. किसी भी लोकतंत्र में भूमि अधिग्रहण निजी काम के लिए नहीं किया जा सकता है. इसके क्या कारण हैं, यह कोई अर्थशास्त्री आपको बता देगा. एक सामान के उत्पादन के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत होती है. मेहनत का मतलब लेबर से है, फिर पूंजी (कैपिटल) और तीसरी ज़मीन. पूंजी अधिग्रहण आप कर नहीं सकते हैं. फर्ज़ कीजिए, एक कंपनी दूसरी कंपनी को ख़रीदना चाहे और जो निजी शेयर होल्डर है, वह कहे कि मैं नहीं बेचूंगा, तो कोई उसे मजबूर नहीं कर सकता है. यह भी नहीं होता है कि सरकार उसमें दख़ल दे और कहे कि तुम नहीं बेचोगे तो हम अधिग्रहण कर लेंगे, फिर उसे देंगे, जो इसे ख़रीदना चाहता है. जब मनुष्य का अधिग्रहण नहीं हो सकता, पूंजी का अधिग्रहण नहीं हो सकता है, तो फिर भूमि अधिग्रहण क्यों? ज़मीन अगर ख़रीदनी है तो ख़रीदें, अगर ज़मीन मालिक अपनी ज़मीन देने के लिए राज़ी है तो आप खुशी से ले लीजिए. हमने इस बिल में कहा और सरकार ने भी कहा कि यदि आप शहरी इलाक़े में 50 एकड़ से ज़्यादा ज़मीन ख़रीद रहे हों या ग्रामीण इलाक़े में 100 एकड़ से ज़्यादा ज़मीन ख़रीद रहे हों, तब जो लोग उस ज़मीन पर निर्भर हैं, उनके लिए आपको कुछ ख़ास इंतज़ाम करना होगा. उनका रिसेटेलमेंट एंड रिहेवलिटेशन होना चाहिए. यह है अनोखी चीज़ इस बिल में. जब इस पर बहस हो रही थी, तब कमेटी के अंदर कुछ लोग थे, जिन्होंने कहा कि आप एक ही आंकड़ा पूरे देश के लिए कैसे रख सकते हैं. मिसाल के तौर पर राजस्थान के बाड़मेर ज़िले में जहां रेगिस्तान है, वहां आप 300 एकड़ ज़मीन भी ले लीजिए, तो शायद ऊंट के सिवाय और कोई नहीं मिलेगा, लेकिन केरल में आपको कौन सी 100 एकड़ ज़मीन मिलेगी. हमें बताया गया कि इसे हम राज्य सरकार पर छोड़ दें. फिर कंपनसेशन का सवाल आया, जिस पर वह का़फी कुछ कहने लगे. संविधान दिखाया गया, लंबी चर्चा हुई और हमने कहा कि इस क़ानून में जो लिखा जाएगा, उसके मद्देनज़र राज्य सरकार उसमें थोड़ा-बहुत बदलाव कर सकती है, किसानों को मुआवज़ा किस रूप में देंगे, कैश देंगे या दूसरे तरीक़े से देंगे. मैं इसे दोबारा देखने को तैयार हूं, लेकिन जहां तक मुझे जानकारी है पुनर्वास के लिए बहुत सी शर्तें दी गई हैं तीसरे शेड्यूल में. हालांकि उस मामले को एक तऱफ छोड़कर मैं यह कहना चाहता हूं कि जो मसौदा हमारे सामने आया, उसमें सब कुछ तय करने का अधिकार पूरी तरह नौकरशाही या विशेषज्ञों को दे दिया गया. अरे भाई, माल लेने वाला न तो सरकारी नौकर है और न कोई विशेषज्ञ है. वह बेचारा वह है, जो वहां रहता है. आप कहते हैं कि वहां जो रहता है, उसकी कोई सुनवाई नहीं होगी. आपका यह कहना है कि वह विशेषज्ञ नहीं है, क्योंकि वह सरकारी नौकर नहीं है. हालांकि ज़मीन उसकी है या उस ज़मीन पर वह निर्भर है. वहां ग्रामसभा की एक मीटिंग कराएंगे, जहां सबको बुलाया जाएगा. ख़ुदा जाने कि बुलाया जाएगा या नहीं बुलाया जाएगा. हमने कहा कि इतने अहम मामले में आपने चार-पांच मक़ाम (प्वाइंट्स) बना रखे हैं. भूमि अधिग्रहण करने के पहले आप क्यों नहीं हर गांव के प्रधान, कुछ मामलों में ज़िला परिषद, तालुका पंचायत या पंचायत समिति के सुझाव की ज़रूरत समझते हैं. ग्राम पंचायत के प्रधान को उसमें शामिल कीजिए. हर उस मक़ाम (प्वाइंट्स) पर जो आप तय करने वाले हैं, ग्रामसभा को बुलाकर उस मसले पर विस्तृत चर्चा करनी चाहिए. उड़ीसा में ट्राइबल्स (आदिवासी) लोग रहते हैं. पंचायतीराज मंत्री की हैसियत से जब मैं वहां का दौरा कर रहा था, तो मैंने अधिकारियों से कहा कि दस्तावेज़ खोलिए और दिखाइए. सारे दस्तावेज़ अंग्रेजी में लिखे हुए थे और उस गांव में एक भी आदमी अंग्रेजी नहीं जानता था. यह एक तरीक़ा है देश की नौकरशाही का कि वे अंग्रेजी में ही लिखते हैं. वे इतनी ग्रेट अंग्रेजी लिखते हैं कि जो कैंब्रिज में भी पढ़ा हुआ है, उसे भी नहीं पता होगा कि उसमें क्या लिखा हुआ है. दरअसल, वे एक-दूसरे के लिए ही लिखते हैं. इस पर मैंने कहा कि स्थानीय भाषा में ही बातें होनी चाहिए. पहले आप उस भाषा में लिखिए, फिर आप उन्हें समझाइए उन्हीं की भाषा में कि इसमें क्या लिखा गया है. इसलिए हमने बहुत ज़ोर लगाया कि ग्रामसभा की मीटिंग अक्सर होनी चाहिए, बहुत होनी चाहिए. जब विशेषज्ञों की तऱफ से कोई बात हो रही हो या सरकारी नौकर की ओर से कोई बात हो रही हो, तो पंचायत के प्रतिनिधिगण वहां मौजूद हों. फिर उनका यह फर्ज़ बनेगा कि वे वापस ग्रामसभा में जाकर लोगों को समझाएं कि विषय यह था और हमने यह स्टैंड लिया. इसलिए मेरा कोई लेना-देना नहीं है जयराम रमेश की टिप्पणी से, क्योंकि वह सरकार नहीं हैं, वह स़िर्फ एक मंत्री हैं. आप लोगों के प्रयास से और सार्वजनिक रूप से चर्चा होने पर सरकार का ध्यान इस पर जाएगा. हम लीगल डॉक्यूमेंट की बात नहीं कर रहे हैं. हम लोगों के जीवन के बारे में बात कर रहे हैं और उन लोगों की बात कर रहे हैं, जो अनपढ़ हैं या बहुत कम पढ़े-लिखे हैं, जिन्हें इस विकास का बोझ अपने कंधों पर उठाने के लिए हमने मजबूर किया है. देश में दस करोड़ लोग भूमि अधिग्रहण से विस्थापित हुए हैं. उनमें से तक़रीबन 6.5 करोड़ ट्राइबल्स (आदिवासी) हैं. आप आदिवासियों पर हमला करते हैं, तो लाज़िमी है कि उनके पक्ष में कोई बंदूक़ उठाए. अक्सर आंध्र प्रदेश का उदाहरण दिया जाता है कि हमने आतंकवाद को ख़त्म कर दिया है. ख़त्म नहीं किया, बल्कि आतंकवादियों को आपने उड़ीसा और छत्तीसगढ़ भेज दिया है. ख़ुदा न करे कि हम उसी तरीक़े से आतंकवाद को छत्तीसगढ़ और झारखंड में ख़त्म करें. तब सारे आतंकवादी कलकत्ता और मुंबई पहुंच जाएंगे.
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