जयपुर नगर के संस्थापक आमेर के महाराजा सवाई
जयसिंह द्वितीय ने वर्ष 1727 में जंतर मंतर के निर्माण का कार्य अपनी निजी
देखरेख में शुरू करवाया था। यह 1734 में पूरा हुआ था। पौने तीन सौ साल से
भी अधिक समय से प्राचीन खगोलीय यंत्रों और जटिल गणितीय संरचनाओं के माध्यम
से ज्योतिषीय और खगोलीय घटनाओं का विश्लेषण तथा सटीक भविष्यवाणी करने के
लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध जंतर मंतर अप्रतिम वे धशाला है। इसके निर्माण के
बाद जयसिंह ने मुगलों की राजधानी दिल्ली समेत कई अन्य शहरों में भी इसका
निर्मा ण करवाया। उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों में इसी तरह की कुल
पांच वे धशालाओं का निर्माण करवाया। जयपुर में बना जंतर मंतर बड़ा है और
अच्छी स्थिति में है। यह पुराने राजमहल ‘चं द्रमहल’ से जु ड़ी मध्यकालीन
उपलब्धि है। जयसिंह केवल बहादुर योद्धा और मुगल सेनापति ही नहीं थे बल्कि
उच्च कोटि के खगोल वैज्ञानिक भी थे। उन्होंने मथुरा, उज्जैन, दिल्ली,
वाराणसी में भी वेधशालाओं का निर्माण करवाया। जयपुर में मौजूद वेधशाला बाकी
वेधशालाओं से आकार में तो विशाल है ही, साथ ही शिल्प और यंत्रों की दृष्टि
से भी इसका कोई मुकाबला नहीं। हालांकि जयसिंह निर्मित पांच वेधशालाओं में
आज केवल दिल्ली और जयपुर के जंतर मंतर ही शेष बचे हैं, बाकी समय के साथ
नष्ट हो गये। ‘यूनेस्को’ ने 2010 में जंतर मंतर को विश्व धरोहर सूची में
शामिल किया। लकड़ी, चूना पत्थर और धातु से बना प्रत्येक यंत्र ज्यामितीय
गणना करता है। ‘जंतर’ का अर्थ यंत्र और ‘मंतर’ का तात्पर्य गणना से है
इसलिए जंतर मंतर का वास्तविक अर्थ गणना करने वाला यंत्र है। इस वेधशाला का
धार्मिक महत्व भी है क्योंकि प्राचीन भारतीय खगोलविद ज्योतिष के जानकार
होते थे। इस वेधशाला का सबसे विशाल यंत्र सम्राट यंत्र है। इस वेधशाला में
समय, ग्रहण की भविष्यवाणी, सूर्य के चारों ओर घूमती पृथ्वी से तारों की
स्थिति का ज्ञान, ग्रहों की जानकारी आदि के लिए मुख्यत: 14 ज्यामितीय खंड
बने हुए हैं। प्रत्येक खंड स्थिर और केंद्रित है। यहां का सम्राट यंत्र
सबसे ऊंचा है। इसकी ऊंचाई 90 फुट (27 मीटर) है। इसके शीर्ष पर एक छतरी भी
बनी हुई है। सामने से देखने पर यह सीधी खड़ी इमारत जैसी दिखती है। यह यंत्र
ग्रह-नक्षत्रों की क्रांति और समय ज्ञान के लिए स्थापित किया गया था। इसके
अलावा यहां स्थित जय प्रकाश यंत्रों की भी खास विशेषता है। इन यंत्रों का
आविष्कार स्वयं महाराज जयसिंह ने किया। महाराज जयसिंह ज्योतिष और खगोल
विद्या के ज्ञाता थे। कटोरे के आकार के इन यंत्रों की बनावट बे जोड़ है।
भीतरी फलकों पर ग्रहों की कक्षाएं रेखाओं के जाल के रूप में उत्कीर्ण हैं।
इन यंत्रों से सूर्य की किसी राशि पर अवस्थिति का भी पता चलता है। वर्तमान
में यह वे धशाला पर्य टकों को खूब पसंद आती है। हालांकि खगोलशास्त्री आज भी
इस वेधशाला का प्रयोग किसानों के लिए मौसम की भविष्यवाणी करने के लिए करते
हैं। खगोलशास्त्र के विद्यार्थी और वैदिक एस्ट्रोलॉजी भी इस वेधशाला से
काफी कुछ सीखते हैं। माना जाता है कि वैदिक विचारों के लिए यह एकमात्र
वेधशाला आज भी प्रासंगिक है।
सपना |
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