13 कलाकारों ने मिलकर गाँव के चौक का रंगरोगन करके चमका दिया.
हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा ज़िले
में गुनेहड़ गाँव गूगल मैप पर दिखलाई नहीं पड़ता. पर पिछले हफ़्ते वहाँ एक
ऐसा अनोखा आर्ट प्रोजेक्ट आयोजित किया गया जिसमें गाँव के लोग भी उतने ही
साझीदार थे, जितने देश-विदेश से आए कलाजीवी. महानगरों की चौंध से बहुत दूर
और शहरी कलावीथिकाओं से बहुत बाहर इस गाँव के शॉपआर्ट/आर्टशॉप प्रोजेक्ट को
पिछले चार हफ़्तों में 1,70,000 से ज़्यादा हिट्स तो फ़ेसबुक पर ही मिल
गए. इसके लिए न तो कोई संस्थागत मदद थी, न सरकारी और न ही कोई बड़ी
पब्लिसिटी.
बंगलौर, कोलकाता और गोवा के अलावा इस प्रोजेक्ट
में शामिल होने वाले आर्टिस्ट हांगकांग, लिस्बन, मैक्सिको और दक्षिण
अफ़्रीका से भी गुनेहड़ आए थे. पहले तो सबने मिलकर गाँव के चौक का रंगरोगन
करके चमका दिया. चार हफ़्ते ये कलाकार बिना होटल वाले गाँव में लोगों के
बीच ही रहे.
आयोजक फ़्रैंक श्लिच्टमैन का मानना है
कि यह प्रोजेक्ट यह साबित करने में कामयाब रहा कि मॉडर्न आर्ट का आमफहम
लोगों से एक रिश्ता क़ायम हो सकता है. हिमाचल प्रदेश में अगर आप सड़क
किनारे रहते हैं, तो ये बहुत आम है कि आप वहाँ छोटी-छोटी दुकानें बना दें,
भले ही वे चलें या न चलें. काँगड़ा में रेस्त्रां चलाने वाले फ़्रैंक ने इस
प्रोजेक्ट के लिए भारत और बाहर से 13 कंसेप्चुअल आर्टिस्ट्स की मदद ली और
गाँव की बंद पड़ी दुकानों को ही कला में बदलने का प्रस्ताव रखा. फ़्रैंक और
उनके कलाजीवी दोस्तों के सामने चुनौती यह थी कि इन दुकानों के साथ चार
हफ़्तों में स्थानीय सामग्रियों और परम्परा के साथ ऐसा क्या किया जा सकता
है कि मॉडर्न आर्ट गाँव के लोगों से बात करने लगे. फ़्रैंक के मुताबिक़ एक
ऐसी जगह पर आर्ट प्रोजेक्ट करने का एक पक्ष यह भी है कि कला पर कलाकार का
रौबदाब हावी नहीं होता, क्योंकि लोग उनके बारे में कुछ जानते ही नहीं.
गुनेहड़ के लोगों के लिए शुरू में अजीब रहा, पर
धीरे-धीरे वे भी इस रचना प्रक्रिया में शामिल होते गए. डच आर्टिस्ट एलेना
परेरा ने वहां फूलों की दुकान सजाई और कहा, 'हम भले ही एक ज़ुबान में बात न
करें, पर औरतें सौंदर्य समझती हैं और मेरा काम देखकर गाँव की औरतें मुझे
देखकर मेरे पास आने लगीं और कहतीं, कितना सुंदर है.' एलेना ने काँगड़ा घाटी
के फूलों के जंगली गोंद से पेंडेंट और फ़ानूस बनाए.
ब्रिटिश-दक्षिण अफ्रीकी आर्टिस्ट तान्या वेसल्स के
लिए हिंदुस्तानी गाँवों से यह पहला साबका था. और उनकी निगाह गई औरतों की
कुर्डी- तिकोनी शंकुनुमा टोकरियों की तरफ़, जो बाँस की होती हैं. उन्होंने
चकमक रंगों वाली नायलोन की डोरियों से उनका कुछ ऐसा कायापलट किया कि गाँव
की एक लड़की के मुताबिक़, 'अब वे दो हज़ार रुपयों की एक बिक सकती है'. क्या
करेंगे इन कुर्डियों का? गांव की ही अनुपमा कहती है- शादी, त्यौहारों में
मिठाई बाँटेंगे. गाँव की औरतों के लिए जो कुर्डी अब तक एक साधारण सी टोकरी
थी, यकायक एक ऐसी 'एसेसरी' में बदल गई है, जिसके बारे में अब थोड़ा इतराया
जा सकता है.
कोलकाता से आई स्प्रिहा चोखानी की नज़र गांव के
लोगों के अलग-अलग तरह के जूतों पर गई और उन्होंने पेपरमैशे के वैसे ही जूते
बनाकर अनिल कुमार की चाय दुकान के स्टूलों पर पहना दिए. स्प्रिहा के
मुताबिक लोगों के जूते उनकी जिंदगी और यात्राओं की तरह अलग-अलग होते हैं-
राजपूतों के अलग, गडरियों के अलग और बच्चों के अलग. अनिल के साथ मिलकर
दोनों ने काग़ज़ की लुगदी से पर्दे भी बनाए और शैल्फ भी सजाए.
गोवा से आई बियांका बैलेन्टाइन ने गांव के बच्चों
के साथ आर्ट वर्कशॉप की, जहाँ पहले तो सभी एक ही तरह के चित्र बना रहे थे,
पर धीरे-धीरे वे गाँव के आसपास बिखरे कंकड़-पत्थरों, पत्तियों और टहनियों
के साथ कलाकृतियाँ बनाने लगे. बंगलौर की युवा सिंधु तिरामलयसामी ने गाँव
में 'आवाज़ की दुकान' खोली जिसमें बॉलीवुड के गानों के न बिके कैसेटों के
बीच किसी निल्ली नाम की गायिका की आवाज में पहाड़ी गीतों का टेप ढूँढ
निकाला जिसे सुनने में सबकी दिलचस्पी तो थी पर यह किसी को यकीन से नहीं पता
था कि वह गीत कुल्लू का है या डोंगरी या फिर गद्दी गड़रियों का. बहुत
पूछताछ और बहस के बाद पता चला कि वह जंगल के अंधेरे में भटकी एक लड़की के
अपने घर, अपने देस जाने के बारे में है. सिंधू बंगलौर के एक अस्पताल की
आवाज़ों पर प्रोजेक्ट कर चुकी हैं. लोकस्मृति से ओझल होते हुए इस गीत की
गाँववालों की मदद से सिंधू ने सीडी बनाई, जिसे ख़ूब सुना गया. सीडी बिकी
भी.
बच्चों के साथ ही फिल्मकार केएम लो ने एक रूपया
मूवी थियेटर शुरू किया जिसमें बच्चों ने 10 आलसी भाइयों के मुसीबत में फँसी
राजकुमारी को बचाने के क़िस्से को अपने हिसाब से शूट किया और फ़िल्म बनाई.
इंस्टालेशन आर्टिस्ट विवेक चोक्कालिंगम ने गाँव के दो टीलों के बीच
'माउंटेन स्काईस्क्रेपर' बनाया जो गाँव के आस-पास फैले कचरे और कबाड़ से
बना है और जिसमें चिप्स की प्लास्टिक थैलियाँ का भी इस्तेमाल किया गया है.
शुरू में किसी को समझ नहीं आया कि ये क्या बन रहा है, पर धीरे-धीरे इसमें
गाँव के लोग न सिर्फ दिलचस्पी दिखाने लगे, बल्कि हिस्सा भी लेने लगे.
हफ़्ते भर चली इस कला प्रदर्शनी की शुरूआत जहाँ
'ख़ामोश पानी' फ़िल्म के संगीतकार और जैजयात्रा के प्रमुख सूत्रधारों में
से एक अर्जुन सेन के कंसर्ट से हुआ, जबकि आख़िरी शाम पहाड़ी संगीत के
स्थानीय सितारे और 'नटी के शहंशाह' नरेन्द्र ठाकुर ने समां बाँधा, जिन्हें
क़रीब 1500 लोगों ने उन्हें सुना.
क़रीब 1500 बाशिंदों के इस गाँव से सैलानी पास के
बौद्ध मठ देखने या पैराग्लाइडिंग का रोमांच लेने गुज़र जाते हैं, वहाँ
रुकते नहीं. पर शायद इस प्रोजेक्ट के बाद वे एक बार ठिठकने के लिए मजबूर
ज़रूर हो जाएँगे. और अब जब ये फ़र्क करना मुश्किल है कि ये गाँव का मेला था
या मॉडर्न आर्ट का प्रोजेक्ट, शायद गूगल के नक़्शे में गुनेहड़ गाँव भी एक
चमकदार बिंदु की तरह जल्द ही दिखने लगे.
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